Manjit Thakur's Blog, page 7
May 18, 2021
अल बीरूनी एक मुस्लिम वैज्ञानिक, जो एक हमलावर के साथ हिंदुस्तान आए थे
अल-बीरूनी सिर्फ वैज्ञानिक ही नहीं थे. बल्कि यह कहना चाहिए कि वह क्या नहीं थे. वह गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, एंथ्रोग्राफिस्ट (नृवंशविद), मानवविज्ञानी, इतिहासकार और भूगोलज्ञ थे.
अल-बीरूनी ने छह अलग-अलग शासकों के मातहत काम किया था और उनमें से अधिकतर शासक लड़ाकू प्रवृत्ति के थे और उनका अंत भी युद्ध में या हिंसा की वजह से हुआ था. पर, इन हिंसक घटनाओं के केंद्र में रहने के बाद भी अल-बीरूनी अपनी बहुमुखी प्रतिभा को निखारने में कामयाब रहे.
अल-बीरूनी का जन्म आमू दरिया के दूसरी तरफ ख्वारिज़्म में हुआ था, और उनकी शिक्षा-दीक्षा ख्वारिज़्म-शाह अमीर अबू नस्र मंसूर इब्न इराक ने करवाई थी, जो वहां के राजपरिवार का सदस्य था और संभवतया वह अल-बीरूनी का संरक्षक भी था. असल में, कुछ विद्वानों की राय है कि इस शहजादे ने अपने गणित के कुछ काम अल-बीरूनी को पढ़ाने के लिए तैयार किए थे और कई दफा उसे अल-बीरूनी का काम मान लिया जाता है.
अल-बीरूनी की निजी जिंदगी के बारे में बहुत कम ज्ञात है, पर एक मध्यकालीन किताब में एक जगह उनके खुद के हवाले से कहा गया है कि अल-बीरूनी को अपने पिता के बारे में पता नहीं था.
ऐसा लगता है कि ख्वारिज़्म के शहजादे का संरक्षण अल-बीरूनी के ज्यादा वक्त तक हासिल नहीं रहा और उस शहजादे के एक सहयोगी ने बगावत करके उसकी हत्या कर दी. इससे ख्वारिज्म में एक गृहयुद्ध शुरू हो गया (996-998 ईस्वी) और इसकी वजह से अल-बीरूनी को ख्वारिज़्म छोढ़कर भागना पड़ा और अब उन्हें समानिद वंश के शासकों के यहां शरण लेनी पड़ी. यह खानदान आजकल के पूर्वी ईरान और अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्से पर शासन करता था.
समानिदों की राजधानी बुखारा में अल-बीरूनी के शरण लेने के कुछ ही समय बाद, एक दूसरे स्थानीय लेकिन राज्यच्युत शासक वंश क़ाबूस इब्न वोशमगीर ने भी अपना राजपाट पाने के लिए समानिदों से मदद मांगी. ऐसा लगता है कि समानिदों ने उनको मदद दी क्योंकि इसके बाद अल-बीरूनी अपना विवरण काबूस शासकों के साथ कैस्पियन सागर के पास शहर गुरगान से लिखते हैं. काबूसों के दरबार में ही अल-बीरूनी की मुलाकात एक अन्य दार्शनिक-वैज्ञानिक इब्न-सीना से हुई और उनके बीच दार्शनिक विचारों के आदान-प्रदान हुए. अल-बीरूनी ने अपनी किताब अल-अथर अल-बाकिया एन अल-कुरुन अल-खालिया (प्राचीन राष्ट्रों का क्रम) कुबूस को ही समर्पित है.
कुछ वक्त तक तो अल-बीरूनी लगातार यात्रा करते रहे—या कहें कि युद्ध से भागते रहे और लगातार संरक्षकों की तलाश करते रहे—और उसके बाद समानिदों का पूरा इलाका सुबुक्तगीन के क्रूर बेटे महमूद के कब्जे में आ गया.
998 में महमूद ने गजना पर कब्जा करके उसके राजधानी हना लिया और अल-बीरूनी और इब्न सीना दोनों के अपने दरबार में नौकरी करने का आदेश दिया. इब्न सीना तो किसी तरह निकल भागे लेकिन अल-बीरूनी भाग नहीं पाए और वह गजना में अपने आखिरी दिनों तक काम करते रहे, जब वह महमूद गजवनी के साथ भारत पर हमले में सेना के साथ आए थे. अल-बीरूनी बेशक, एक निर्दयी हत्यारे के अनमने मेहमान थे फिर भी उन्होंने अपनी यात्राओं को शानदार तरीके से कलमबद्ध किया. और उन्होंने हिंदुस्तान के बारे में जो सूक्ष्म ब्योरे दिए उससे वह वैज्ञानिक के साथ-साथ नृवंशविद्, मानवविज्ञानी और भारतीय मामलों के महान इतिहासकार भी मान गए.
अल-बीरूनी के काम की फेहरिस्त बनाना इतिहासकारों के लिए इसलिए भी आसान रहा क्योंकि अल-बीरूनी ने खुद अपने कामों की ऐसी एक सूची तब तैयार कर दी थी, जब वह 60 साल के थे. हालांकि, अल-बीरूनी सत्तर से अधिक सालों तक जीवित रहे, ऐसे में उनके बाद के कुछ काम इस सूची में शामिल नहीं हैं, फिर भी यह सूची पर्याप्त है. इस सूची और बाद में खोजे गए कामों को मिलाकर, इतिहासकारों के मुताबिक (इनसाक्लोपेडिया ब्रिटानिका) अल-बीरूनी ने कुल 146 किताबें लिखी हैं, इनमें से हर करीबन 90 पन्नों की है. उनमें से आधी तो खगोलशास्त्र और गणित पर हैं. पर उनमें से 22 ही मिल पाई हैं और उनमें भी आधी ही प्रकाशित हो पाई हैं.
भारतीय संस्कृति पर उनका काम हिंदुस्तान पर किसी भी ब्योरे में सबसे बढ़िया माना जाता है. इसका शीर्षक, तहकीक मा लिल-हिंद मिन माकुलाह माक्बूला फी अल अक्ल आ मारदुर्लाः (तहकीक-ए-हिंद). इस किताब में हर वह चीज दर्ज है जो अल-बीरूनी हिंदुस्तान के बारे में जुटा पाए थे. इसमे हिंदुस्तान का विज्ञान, धर्म, साहित्य और इसके रीति-रिवाजों का वर्णन है.
उनका ऐसा ही महत्वपूर्ण काम ‘अल-क़ानून अल-मसूदी’ है, जो महमूद गजनवी के बेटे मसूद को समर्पित है, जिसमें अल-बीरूनी ने टॉलेमी के ‘अलमगस्त’ जैसे उस वक्त उलपब्ध स्रोतों से सभी खगोलीय ज्ञान एकत्र किए और उनको उस वक्त के ज्ञान के लिहाज से अद्यतन भी किया. हालांकि, इसके हरेक अध्याय में अल-बीरूनी का योगदान रेखांकित किया जा सकता है. मसलन, तीसरे स्तर के समीकरणों को हल करने के लिए अल-बीरूनी ने नए बीजगणितीय तकनीकों का प्रतिपादन किया था. उन्होंने सौर भूउच्च (सोलर अपोजी) की गति और अग्रगमन (परसेशन) की गति के बीच एक बारीक अंतर स्थापित किया. उन्होंने खगोलीय नतीजे हासिल करने के आसान तरीके भी ढूंढे.
उस वक्त के लिहाज से उनका काम, अल-तहफीम ली-आवैल सिनात अल-तंजीन (खगोलविज्ञान के सूत्र) आज भी सबसे बेहतरीन काम माना जाता है. शहरों के बीच की दूरी को सटीक तरीके से मापने की विधि गणितीय भूगोल मे अल-बीरूनी का अद्वीतय योगदान है. उन्होंने गणित पर सवाल उठाने वाले उलेमाओं को गजना से काबे की ओर दिशा और दूरी मापने में गणित के इस्तेमाल से चुप करा दिया.
अल-बीरूनी ने पहाड़ों के बनने पर सवाल खड़े किए और जीवाश्मों के जरिए यह साबित किया कि धरती किसी वक्त पानी के अंदर रही होगी. उन्होंने इस बात को किताब-उल-हिंद के जरिए भी उठाया है.
इनकी किताब इस्तियाब अल-वुजूह अल-मुमकिनाह फी सनात अल-अस्तूरलाब (एक्जॉस्टिव बुक ऑन एस्ट्रोलेब्स) में धरती की गतियों की संभावनाओं पर बात की गई है.
अल-बीरूनी बेशक अपने दौर के सबसे बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तियों में से थे.
May 15, 2021
स्मृतिः इरफान होने का अर्थ
विश्व सिनेमा में ज्यां गोदार को कौन नहीं जानता? 1960 में रिलीज उनकी एक फ्रांसीसी फिल्म ब्रेदलेस (ए बॉट डि सफल) में एक संवाद है, “व्हॉट इज योर ग्रेटेस्ट एंबिशन इन लाइफ?”
“टू बिकम इमॉर्टल... ऐंड देन डाइ”
(“तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा क्या है?”
“अमर होना... और फिर मरना”)
यह संवाद हिंदुस्तान के सबसे आला अदाकारों में से एक इरफान को ही पारिभाषित करता है.
कहां से चले थे इरफान? आपको याद है कहां आपने उनको पहली दफा देखा था? संवतया आप डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के टीवी सीरियल चाणक्य का नाम लेंगे, जिसमें वह सेनापति भद्रबाहु के रूप में दिखे थे या शायद आपको नीरजा गुलेरी की लोकप्रिय सीरीज चंद्रकांता याद हो जिसमें वह दोहरी भूमिका में थे.
पर, इरफान इससे पहले परदे पर नमूदार हो चुके थे.
1987 में इरफान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकले और मीरा नायर की सलाम बॉम्बे में छोटी सी भूमिका में आए. यह बात दीगर है कि उनके उस छोटे किरदार पर भी फाइनल कट में कैंची चल गई. जमाना दूरदर्शन का था, काम की तलाश थी तो एक रूसी लेखक मिखाइल शात्रोव के नाटक का उदय प्रकाश ने हिंदी अनुवाद किया था और नाम था, लाल घास पर नीले घोड़े और उसमें इरफान खान (तब उपनाम खान भी लगाते थे) लेनिन बने. उसके कुछ महीनों बाद डीडी पर एक सीरियल प्रसारित हुआ डर, जिसमें वह मानसिक रूप से अस्थिर हत्यारे की भूमिका में थे और मुख्य खलनायक बने थे. उन दिनों टीवी पर सास-बहू का जलवा नहीं था और टीवी पर ठीक-ठाक कंटेंट पेश किया जाता था. इसी में मशहूर शायर सरदार अली जाफरी ने एक धारावाहिक बनाई जिसका नाम था कहकशां और इरफान खान उर्दू शायर और मार्क्सवादी कार्यकर्ता मखदूम मोहिउद्दीन की भूमिका में नजर आए. नब्बे के दशक में, चाणक्या, भारत एक खोज, सारा जहां हमारा, बनेगी अपनी बात, चंद्रकांता, श्रीकांत, अनुगूंज जैसे धारावाहिकों में नजर आते रहे.
पर, अमरता की दिशा में यह एक छोटा कदम था. इमॉर्टल होना इतना आसान भी तो नहीं. लेकिन नब्बे के दशक से लेकर 2020 आते-आते यह एक्टर, स्टार भी बन गया. अमर भी. जिसकी आंखों में वह कमाल था कि लोग कहें कि इरफान की आंखें बोलती हैं तो यह तारीफ नाचीज सी लगती है. इरफान अंतरराष्ट्रीय स्टार बन गए, जिसके सामने शाहरुख का कद भी छोटा पड़ने लगा. आप लाइफ ऑफ पई याद करें, आप अमेजिंग स्पाइडरमैन याद करें... आप ऑस्कर में झंडे गाड़ने वाली स्लमडॉग मिलियनर याद करें.
आखिर जयपुर के अपने दकियानूसी परिवार से भागकर दिल्ली के एनएसडी में पहुंचने वाले इरफान के लिए क्या इमॉर्टिलिटी की परिभाषा यही रही होगी? क्या उस शख्स के लिए जिसने टीवी एक्टर मुकेश खन्ना (भीष्म पितामह फेम) से सलाह ली थी कि आखिर फिल्मों में काम कैसे हासिल किया जाए, कामयाबी का पैमाना क्या रहा होगा? बाद में, इंडिया टुडे मैगजीन में कावेरी बामजई को दिए अपने इंटरव्यू में इरफान ने कहा था, “उन्होंने मुझसे कहा आप जो हैं वही करते रहें और यह सुनिश्चित करें कि आप एक दिन टीवी से बड़े बनेंगे.” खन्ना से इस सलाह के समय तक इरफान बनेगी अपनी बात के 200 एपिसोड पूरे कर चुके थे और यह सीरियल 1994 से 1998 के बीच प्रसारित हो रहा था. इरफान चंद्रकाता के कई एपिसोड में नमूदार हो चुके थे और स्टार बेस्टसेलर्स में भी. इरफान ने उसी इंटरव्यू में कहा था, “मैं बोर हो रहा था. मैं काम छोड़ने की सोचने लगा था.”
फिर आसिफ कपाड़िया की निगाह उन पर पड़ी थी. और 2001 में रिलीज हुई ब्रिटिश फिल्म द वॉरियर, जिसने इरफान को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दी और उनकी प्रतिभा ने अंतराराष्ट्रीय फिल्मकारों का ध्यान खींचा. माइकल विंटरबॉटम ने उन्हें 2007 में अ माइटी हार्ट में पाकिस्तानी पुलिसवाले की भूमिका दी और वेस एंडरसन ने दार्जिलिंग लिमिटेड में उनके लिए खास छोटी भूमिका ही लिखी, ताकि साथ में काम कर सकें.
तो क्या इतने सफर से वह हासिल हो गया, जिसका जिक्र ब्रेदलेस के संवाद में है?
नहीं.
इरफान भरोसेमंद अभिनेता बनना चाहते थे. सफर बाकी था. ताकि लोगों को उनकी फिल्म रिलीज करते समय सोचना न पड़े.
एनएसडी में उन्हें सिखाया गया था कि साहस बहुत जरूरी है. इरफान ने एक इंटरव्यू कहा कि उन्हें समझ में नहीं आया कि आखिर एक एक्टर का साहस से क्या लेना-देना. पर फिर आई, विशाल भारद्वाज की सात खून माफ. इरफान ने अपने उदास शायर के किरदार को थोड़ा स्त्रैण बनाया, थोड़ा महिलाओं जैसा. सर झटकना और हाथ चलाने की अदाएं डालीं. यह एक भूमिका को अलग दिखाने का साहस था, जो एनएसडी ने उन्हें सिखाया था.
और तब एक और साहस की बात हुई. विशाल भारद्वाज ने मकबूल में 2003 में उन्हें रोमांटिक भूमिका दी. यह भी साहस था. और इसके साथ, व्यावसायिक सिनेमा में पहले खलनायक और बाद में कभी हिंदी मीडियम और कभी अंग्रेजी मीडियम के जरिए इरफान नई इबारतें रचते रहे.
फिर, इरफान का नाम लेते ही जब उस एक्टर का चेहरा जेह्न में छपने लगा, जो अभिनय करते वक्त अपनी मांसपेशियों को एक मिलीमीटर भी फालतू की गति नहीं देता, जिसका अपनी पेशियों पर गजब का नियंत्रण था और जो अपने जज्बात को नाटकीय रूप से पेश नहीं करता था. तब मेरे एक सिनेमची दोस्त विकास सारथी ने मुझसे कहा था, जेह्न में नाम लेते ही इस तरह तस्वीर उभर आए, तो यही इमॉर्टिलिटी है, अमरता है.
इरफान ने अमरता हासिल कर ली और फिर उनकी देह किसी और अनंत यात्रा पर निकल गई.
रेस्ट इन पीस. इरफान!
May 11, 2021
बिहार में मुंडन-जनेऊ-ब्याह जीवन से ज्यादा जरूरी है
बिहार में 4 मई, 2021 को कोविड संक्रमणों की सरकारी संख्या 14,794 थी. ठीक एक महीना पहले 4 अप्रैल, 2021 को यह संख्या 864 थी. महीने भर में सोलह गुना वृद्धि कैसे हुई? वह भी तब, जब टेस्ट कौन करा रहा है, कितने टेस्ट हो रहे हैं और टेस्ट से निकले नतीजे कितने भरोसेमंद हैं इसपर गहरा शक है. असल में, कुछ साल हुए जब न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने कहा था कि हिंदुस्तान के 90 फीसद लोग मूर्ख हैं, तो जनता तिलमिला गई थी. पर न्यायमूर्ति सही थे.
पूरे हिंदुस्तान की जनता काटजू साहब के मूर्खता के तराजू पर खरी उतरती है या नहीं, यह तो नहीं पता, लेकिन मेरा गृहराज्य बिहार खरा उतरता है. पिछले डेढ़ दो महीनों में बिहार में सब कुछ हुआ है. जो-जो मुमकिन उत्सव हो सकते हैं. सब कुछ. सारे मांगलिक कार्य, जिसका नतीजा अमंगल में निकलना था. पिछले दो महीनों से प्रवासी बिहारी (सफेद और नीले कमीज पहनने वाले, दोनों) भेड़ियाधंसान करते हुए बिहार भाग रहे थे.
किसी के घर में मुंडन था, किसी के जनेऊ, कहीं भाई का ब्याह था, कहीं बहिन के हाथ पीले होने थे. कोई इसरार कर रहा था कि तुम्हारे बिना कैसे मुमकिन होगा, कोई कह रहा था कि तुम्हारी भांजी का ब्याह है, बारात कौन संभालेगा. एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसके भाई का ब्याह है, अब तो दरभंगा में हवाई जहाज भी उतरने लगा है, सीधे आओ, मुजफ्फरपुर तक कार से आकर पार्टी में शामिल हो जाओ और फिर वापस. मेरे खुद के परिवार में विवाह था. मैंने एक सुर से विनम्रता से सबको मना किया, कुछ लोगों ने मुझ पर लानतें भेजीं, पर अधिकतर ने मुझसे रिश्ता तोड़ लिया.
यह सिर्फ मेरी बात नहीं है. आप सबके साथ, जिन्होंने कोविड प्रोटोकॉल का पालन अपने लिए, और देश के लिए किया होगा, ऐसा सहना पड़ा होगा. लेकिन खासतौर पर बिहार में शादी-ब्याह के न्यौतों में शामिल होने का न सिर्फ इसरार किया जा रहा है (अभी भी) बल्कि बाकायदा धमकी तक दी जा रही है उससे तो यही लगता है कि जनता वाकई भांग पीकर बैठी है.
मेरे एक वरिष्ठ राज झा, जो मशहूर विज्ञापन निर्माता हैं और एक साथी किसान-पत्रकार गिरीन्द्रनाथ झा हैं. राज झा मधुबनी के पास और गिरीन्द्र पूर्णिया के पास रहते हैं. उन दोनों ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट्स के जरिए बताया कि बिहार के लोग, कोरोना के प्रसार से जरा भी चिंतित नहीं हैं. बारातें निकल रही हैं, डीजे तेज आवाज में ढिंचक बज रहा है और भोज-भात पूरे शबाब पर है. बिहार में जिसतरह से कोरोना को लेकर लोग लापरवाह रहे हैं, उससे यक्ष-युधिष्ठिर वार्ता में यक्ष का प्रश्न याद आता है.
यक्ष ने पूछा था, आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर ने कहा, लोग रोज अपने आसपास दूसरों को मरते देखते हैं, पर वह यह कभी नहीं सोचते कि कभी वह भी मर सकते हैं, यही आश्चर्य है.
लोग भले ही यह न सोचें कि कोरोना का संकट कितना गहरा हो सकता है, और उनकी यादद्दाश्त भी इतनी कमजोर है कि पिछले साल इन्हीं दिनों जब कोरोना की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन लगा था तो लोगों को सड़को पर पैदल चलते हुए अपने घर लौटना पड़ा था. उन दर्दनाक तस्वीरों में सबसे ज्यादा पैदल प्रवासी बिहार के ही थे. पिछले साल का दर्दनाक मंजर बिहार भूल गया पर शायद वहां की सरकार वहां लोगों से अधिक संवेदनशील साबित हुई है. कम से कम इस बार तो जरूर.
लॉकडाउन की तैयारियों के ही मद्देनजर शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रवासियों को जल्दी लौट आने का आग्रह किया और एक ओर जहां, मिथिला, मगध और भोजपुर में ब्याह की शहनाइयां गूंज रही थी, स्पीकर फटने की हद तक डीजे का वॉल्यूम बढ़ा हुआ था, सरकार ने 15 मई तक लॉकडाउन की घोषणा कर दी है.
सच में, बिहार में लोगों ने ‘कोरोना आश्चर्य’ पेश किया है. मैंने मधुबनी जिले में जयनगर के पास दुल्लीपट्टी गांव के एक मित्र को जब फोन पर कहा कि सावधानी जरूरी है, क्योंकि बीमार पड़े तो बिहार में खस्ता स्वास्थ्य सुविधाओं के मद्देनजर ऑक्सीजन भी नहीं मिलेगा. पर दोस्त आत्मविश्वास से लबरेज थे. उन्होंने मुझे फौरन जवाब दिया कि बिहार में ऑक्सीजन की जरा भी कमी नहीं है. आपको कितना ऑक्सीजन चाहिए भला! आइए हमारे गांव... आम की गाछी (अमराई) में ऑक्सीजन ही ऑक्सीजन है.
न्यायमूर्ति काटजू वाकई आप सही थे. क्योंकि कम से कम बिहार निवासियों को यही लगता है कि दुनिया में जीवन से भी आवश्यक अपने चचेरे भाई के सबसे छोटे बेटे का मुंडन है.
इब्न सिना थे संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए क्वॉरंटीन का तरीका बताने वाले वैज्ञानिक
वायरस के प्रसार को रोकने के लिए क्वॉरंटाइन करने को सबसे अच्छा तरीका माना गया है और दुनियाभर में और भारत में भी जो लॉकडाउन लगाया गया है, वह भी क्वॉरंटाइन का सामूहिक तरीका ही है. यानी, इसके पीछे अवधारणा है लोगों को संक्रमण से बचाने के लिए एक-दूसरे से अलग-थलग रखना. आपको हैरत होगी कि इस तरीके की खोज की थी, एक मुस्लिम वैज्ञानिक ने और उनका नाम है इब्न सिना.
पश्चिमी देशों में मध्यकाल के इस मुस्लिम वैज्ञानिक को एविशियेना (Avicenna) के नाम से जाना जाता है और उनका समय 980 ईस्वी से 1037 ईस्वी तक का माना जाता है. इनका जन्म बुखारा के पास अफसां में हुआ था और इनका निधन हमदां में हुआ था. इनके माता-पिता ईरानी वंश के थे. इनके पिता खरमैत: के शासक थे. इब्न सिना ने बुखारा में शिक्षा हासिल की और शुरू में कुरान और साहित्य का अध्ययन किया.
इब्न सिना का पूरा नाम अली अल हुसैन बिन अब्दुल्लाह बिन अल-हसन बिन अली बिन सिना है. इब्न सिना न सिर्फ वैज्ञानिक थे, बल्कि यह चिकित्सक, खगोलशास्त्री, गणितज्ञ और दार्शनिक भी थे.
उनकी गणित पर लिखी 6 पुस्तकें मौजूद हैं जिनमें ‘रिसाला अल-जराविया’, ‘मुख्तसर अक्लिद्स’, ‘अला रत्मातैकी’, ‘मुख़्तसर इल्म-उल-हिय’, ‘मुख्तसर मुजस्ता’, ‘रिसाला फी बयान अला कयाम अल-अर्ज़ फी वास्तिससमा’ (जमीन की आसमान के बीच रहने की स्थिति का बयान) शामिल हैं.
असल में, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में, जिसे यूरोप ने अपनाया और फिर विकसित किया, इब्न सिना का योगदान बेहद अहम है.
ये इस्लाम के बड़े विचारकों में से थे, इब्न सिना ने 10 साल की उम्र में ही कुरआन हिफ्ज़ कर लिया था. शरिया के अध्ययन के बाद इन्होंने तर्कशास्त्र, गणित, रेखागणित और ज्योतिष में योग्यता हासिल की. जल्दी ही, इन्होंने निजी अध्ययन से भौतिकी और चिकित्सा की पढ़ाई की और हकीमी सीखते हुए ही उसकी प्रैक्टिस भी शुरू कर दी.
एक बार जब बुखारा के सुल्तान नूह इब्न मंसूर बीमार हो गए और उनके इलाज में किसी हकीम की कोई दवा कारगर साबित नहीं हो रही थी, तब इब्न सिना ने उनका इलाज किया था. और उस वक्त उनकी उम्र महज 18 साल की थी.
बहरहाल, इब्न सिना की दवाई से सुल्तान इब्न मंसूर स्वस्थ हो गए तो उन्होंने खुश होकर इब्न सिना को पुरस्कार दिया. और यह पुरस्कार भी खास था. सुल्तान ने उन्हें एक पुस्तकालय सौगात में दिया था. इब्न सिना की स्मरण शक्ति बहुत तेज़ .थी उन्होंने जल्द ही पूरा पुस्तकालय छान मारा और जरूरी जानकारी एकत्र कर ली, और फिर 21 साल की उम्र में अपनी पहली किताब लिखी.
जानकारों का मानना है कि इब्न सिना ने कुल 21 बड़ी और 24 छोटी किताबें लिखी थीं. लेकिन कुछ विद्वानों का दावा है कि उन्होंने 99 किताबों की रचना की.
बिला शक उनकी सबसे मशहूर किताब है ‘किताब अल कानून’, जो चिकित्सा की एक मशहूर किताब है. इस किताब का अनुवाद अन्य भाषाओं में भी हो चुका है. खास बात यह है कि उनकी यह किताब 19वीं सदी के अंत तक यूरोप के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती रही है.
इन्होंने कई बड़ी पुस्तकें लिखीं जिनमें अधिकतर अरबी में और कुछ फारसी में थीं. इनमें खासतौर पर दर्शन कोश 'किताबुल् शफ़ा', जो 1313 ई. में तेहरान से छपा था, और हकीमी पर लिखा ग्रंथ 'अलक़ानून फीउल् तिब' है जो 1284 ई. में तेहरान से छपा था. 'किताबुल् शफ़ा' अरस्तू के विचारों पर केंद्रित है, जो नव अफ़लातूनी विचारों तथा इस्लामी धर्म के प्रभाव से संशोधित हो गए थे. इसमें संगीत की भी व्याख्या है. इस ग्रंथ के 18 खंड हैं और इसे पूरा करने में 20 महीने लगे थे.
'अल्क़ानून फीउल् तिब' में यूनानी तथा अरबी वैद्यकों का अंतिम निचोड़ पेश किया गया है. इनका एक कसीदा बहुत प्रसिद्ध है जिसमें इन्होंने आत्मा के उच्च लोक से मानव शरीर में उतरने का वर्णन किया है. मंतिक (तर्क या न्याय) में इनकी श्रेष्ठ रचना 'किताबुल् इशारात व अल्शबीहात' है.
इन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जिसका संकलन इनके प्रिय शिष्य अल्जुर्जानी ने किया.
इब्न सिना के नाम पर कई यूरोपीय देशों में उके नाम से डाक टिकट जारी किये गए हैं. इब्न सिना के जीवन पर पर एक फिल्म भी बनी. 2013 में रिलीज हुई इस फिल्म का नाम था ‘द फिजिशियन’ और इसमें इब्न सिना का किरदार निभाया था हॉलीवुड के मशहूर अदाकार बेन किंग्सले ने.
April 18, 2021
पंचतत्वः जंगलों का प्रबंधन स्थानीय समुदायों के हाथों में क्यों नहीं देते!
असल में, सरमोली वन पंचायत ने स्वतः संज्ञान लेकर सामुदायिक वनों का प्रबंधन शुरू किया है, जिसमें यह ध्यान रखा जाता है कि वनोपजों का इस्तेमाल टिकाऊ विकास के मानको के अनुरूप हो. मिसाल के तौर पर,
विर्दी के गांव में, समुदाय के लोग जंगलों से झाड़ियां साफ करते हैं, खरपतवार निकालते हैं और अच्छी गुणवत्ता वाली घास हासिल करते हैं. सरपंच विर्दी के मुताबिक, "अगर जंगलों को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो झाड़ियां पेड़ों की तरह लंबी हो जाएंगी. इसलिए वनों का प्रबंधन आवश्यक है."
2020-21 के उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तराखंड में 51,125 वर्ग किलोमीटर के कुल क्षेत्र में से लगभग 71.05 फीसद भूमि वनाच्छादित है. इसमें से 13.41 फीसद वन क्षेत्र वन पंचायतों के प्रबंधन के अंतर्गत आता है और राज्य भर में ऐसे 12,167 वन पंचायत हैं.
उत्तराखंड की खासियत है कि हर वन पंचायत स्थानीय जंगल के उपयोग, प्रबंधन और सुरक्षा के लिए अपने नियम खुद बनाती है. ये नियम वनरक्षकों के चयन से लेकर बकाएदारों को दंडित करने तक हैं. सरमोली के विर्दी गांव में, जंगल की सुरक्षा के पंचायती कानून के तहत जुर्माना 50 रुपये से 1,000 रुपये तक है.
असल में, स्थानीय तौर पर वनों के संरक्षण की जरूरत इस संदर्भ में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जब उत्तराखंड के जंगल दावानल से जूझ रहे हैं. वैसे,
वन पंचायतें ज्यादातर एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से काम करती हैं, लेकिन सहयोग की मिसालें भी मिलती हैं. सरमोली में ही, जाड़ों में ग्रामीणों को अपने ही जंगल से पर्याप्त घास नहीं मिलती है, वे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए शंखधुरा के निकटवर्ती गांव में जंगल जाते हैं.
पर इन वन पंचायतों की असली भूमिका, वन संसाधनों के इस्तेमाल को दोहन में तब्दील होने से बचाने की भी है. यहां जून से सितंबर तक मॉनसून में ग्रामीणों और उनके मवेशियों के जंगल में जाने की मनाही होती है. इस अवधि के दौरान, लोग गांव के भीतर से ही अपने मवेशियों के लिए घास और चारे की व्यवस्था करते हैं. कुछ जंगलों में गश्त करने और घुसपैठियों को पकड़ने के लिए ग्रामीणों को भी तैनात किया जाता है.
इस उदाहरण को देश के अन्य जंगलों में भी लागू किया जा सकता है. स्थानीय रूप से जरूर कानून रहे होंगे, और वनोपज के इस्तेमाल को लेकर वनाधिकार कानून भी है. पर, कानून लागू करने में किस स्तर की हीला-हवाली होती है, वह छिपी नहीं है. मसलन, मेरे गृहराज्य झारखंड
में मैंने संताल जनजाति की स्त्रियों को जंगल जाकर साल के पत्ते, दातुन आदि लाते देखा है. वे शाम को लौटते वक्त कई दफा लैंटाना (झाड़ी) भी काट लाती हैं, जलावन के लिए.
पर, उन्हें यह छिपाकर लाना होता है. अगर वन विभाग थोड़े दिमाग की इस्तेमाल करे तो लैंटाना जैसी प्रजाति, जिसके कर्नाटक के जंगल में प्रति वर्ग किमी उन्मूलन के लिए दस लाख रूपए से भी अधिक की लागत आती है, को सफाया मुफ्त में हो सकता है.
लैंटाना ने वन विभाग को परेशान किया हुआ है. वन विभाग चाहे तो स्थानीय लोगों को जंगल के भीतर से इस झाड़ी को काटकर लाने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है.
वनोपजों और उसके प्रबंधन की बात करते हुए मुझे अक्सर ओडिशा के नियामगिरि के जरपा गांव में एक कोंध-डंगरिया महिला की बात याद आती है, जिनके लिए नियामगिरि पर्वत एक पहाड़ भर नहीं था. उसने मुझसे कहा था, ये हमारे नियामराजा है, हमारे घर, हमारा मंदिर, कचहरी, अस्पताल सब.
जंगलों को अगर इस निगाह से देखने लगें और उसकी उपज के दोहन का नहीं, इस्तेमाल और प्रबंधन की जिम्मेदारी और अधिकार स्थानीय समुदायों को दें, तो वन संरक्षण का मामला सरल हो सकता है. पर सवाल नीयत पर जाकर अटक जाता है.
March 7, 2021
पंचतत्वः अधिक पड़ता है निचले तबकों और औरतों पर जलवायु परिवर्तन का असर
क्या यह महज पर्यावरणीय मुद्दा न होकर सामाजिक न्याय से जुड़ा मसला भी है? क्या इसको सामाजिक-आर्थिक मसले के रूप में देखने क साथ राजनैतिक मुद्दे के रूप में देखा जा सकता है?
पर्यावरण के मुद्दे पर हुए एक बेविनार में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सुचित्रा सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन पर असर डालने वाले कारकों में उन्ही बीमारियों जैसी समानता है जो महामारी में तब्दील हो जाती हैं.”
कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन मौसमी घटनाओं में अचानक और अत्यधिक रूप से आई बढोतरी है और जो कई संक्रामक बीमारियों के फैलने में सहायक होती हैं.
प्रो. सेन ने अपने संबोधन में आगे कहा, “वैश्विक आर्थिक परिदृश्य ऐसा हो चला है कि कोई भी महामारी या संक्रमण अब स्थानीय नहीं रहता, वैश्विक रूप अख्तियार कर लेता है.”
वैसे, यह तय है कि जलवायु परिवर्तन का असर गरीबों और अमीरों पर अलग अंदाज में होता है और आने वाली पीढ़ियों में यह और बढ़ेगा ही. उसी वेबिनार में प्रो. सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए तैयार की गई नीतियां खतरनाक तरीके गैर-बराबरी के नतीजे देंगी और इसमें गरीब और कमजोर लोग नीतियों के दायरे से बाहर हो जाएंगे.”
मानवजनित जलवायु परिवर्तन को स्पष्ट रूप से बढ़ते तापमान, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों के पिघलने, बाढ़, सूखे, हर साल चक्रवात आने की संख्या बढ़ने में देखा जा सकता है, पर जो स्पष्ट रूप से नहीं दिख रहा है कि इन परिवर्तनों का समाज के कमजोर तबको पर क्या खास असर पड़ता है.
चूंकि, यह दिख नहीं रहा है इसलिए यह तबका नीतिगत विमर्शों के दायरे से बाहर है.
असल में सिंधु-गंगा का उत्तरी भारत का मैदान बेहद उपजाऊ है और इस इलाके में खेती में पुरुषों का ही वर्चस्व है. जबकि, समाज में स्त्रियों की दशा की स्थिति में ब्रह्मपुत्र बेसिन में ऊपरी इलाकों में अलग आयाम हैं. पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में कामकाज में महिलाओं की अधिक हिस्सेदारी है और मैदानी भारत की तुलना में पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में महिला साक्षरता की दर भी अलग है.
प्रो सेन ने अपने अध्ययन में भी बताया है कि ब्रह्मपुत्र नदी के नजदीक रहने वालों में गरीबी अधिक है और वह अधिक बाढ़, अपरदन और नदी की धारा बदलने का सामना करते हैं और उनका संपत्ति (भूमि) पर अधिकार भी पारिभाषित नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि कटाव का असर उधर अधिक होता है. दूसरी तरफ नदी से दूर बसे इलाकों में जमीन की मिल्कियत स्पष्ट रूप से चिन्हित होती है.
जलवायु परिवर्तन के सीधे लक्षणों में अमूमन तापमान और बारिश में बढ़ोतरी को ही शामिल किया जाता है. लेकिन नदी के बढ़ते जलस्तर, जब तब होने वाली बारिश और तूफान, मछली, परिंदों और जानवरों के नस्लों का खत्म होता जाना, भूमि की उर्वरा शक्ति घटना यह ऐसी बातें है, जिनका असर हमारी आधी आबादी पर अधिक पड़ रहा है.
मैदानी इलाकों में भी जहां, खेती का नियंत्रण भले ही मर्दों के हाथ में हो लेकिन खेती के अधिकतर काम, बुआई, कटाई और दोनाई में महिलाओं की हिस्सेदारी अधिक होती है, जलवायु परिवर्तन का असर साफ दिख रहा है.
February 23, 2021
पंचतत्वः एक संकल्प हमारे नदी पोखरों के लिए भी
क्या आपने पिछले कुछ बरसों से मॉनसून की बेढब चाल की ओर नजर फेरी है? बारिश के मौसम में बादलों की बेरुखी और फिर धारासार बरसात का क्या नदियों की धारा में कमी से कोई रिश्ता है? मूसलाधार बरसात के दिन बढ़ गए और रिमझिम फुहारों के दिन कम हो गए हैं. मात्रा के लिहाज से कहा जाए तो पिछले कुछ सालों में घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है. पिछले 20 साल में 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में बढोतरी हुई है, लेकिन 10 सेमी से कम बारिश वाले दिनों की गिनती कम हो गई है.
तो मॉनसून की चाल में इस बदलाव का असर क्या नदियों की सेहत पर भी पड़ा है? एक आसान-सा सवाल हैः नदियों में पानी आता कहां से है? मॉनसून के बारिश से ही. और मूसलाधार बरसात का पानी तो बहकर निकल जाता है. हल्की और रिमझिम बरसात का पानी ही जमीन के नीचे संचित होता है और नदियों को सालों भर बहने का पानी मुहैया कराता है. लेकिन नदियों के पानी में कमी से उसका चरित्र भी बदल रहा है और बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदलती जा रही हैं और यह घटना सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं पूरी दुनिया की नदियों में देखी जा रही है.
दुनिया की सारी नदियों का बहाव जंगल के बीच से हैं. इसके चलते नदियां बची हैं. जहां नदियों के बेसिन में जंगल काटे गए हैं वहां नदियों में पानी कम हुआ है. नदियों को अविरल बहने के लिए पानी नहीं मिल रहा है. बरसात रहने तक तो मामला ठीक रहता है लेकिन जैसे ही बरसात खत्म होती है नदियां सूखने लग रही हैं. भूजल ठीक से चार्ज नहीं हो रही है. यह मौसमी चक्र टूट गया है.
पुणे की संस्था फोरम फॉर पॉलिसी डायलॉग्स ऑन वॉटर कॉन्फ्लिक्ट्स इन इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि बारहों महीने पानी से भरी रहने वाली नदियों में पानी कम होते जाने का चलन दुनिया भर में दिख रहा है और अत्यधिक दोहन और बड़े पैमाने पर उनकी धारा मोड़ने की वजह से अधिकतर नदियां अब अपने मुहानों पर जाकर समंदर से नहीं मिल पातीं. इनमें मिस्र की नील, उत्तरी अमेरिका की कॉलरेडो, भारत और पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु, मध्य एशिया की आमू और सायर दरिया भी शामिल है. अब इन नदियों की औकात एक पतले नाले से अधिक की नहीं रह गई है. समस्या सिर्फ पानी कम होना ही नहीं है, कई बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं.
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने पहली बार दुनिया की लंबी नदियों का एक अध्ययन किया है और इसके निष्कर्ष खतरनाक नतीजों की तरफ इशारा कर रहे हैं. मई, 2019 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती पर 246 लंबी नदियों में से महज 37 फीसदी ही बाकी बची हैं और अविरल बह पा रही हैं.
इस अध्ययन में आर्कटिक को छोड़कर बाकी सभी नदी बेसिनों में जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई है. अमेज़न के वर्षावनों का वजूद ही अब खतरे में है. सिर्फ अमेज़न नदी पर 1500 से ज़्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. विकास की राह में नदियों की मौत आ रही है.
इसकी मिसाल गंगा भी है. पिछले साल जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तर प्रदेश के जलकल विभाग को एक चेतावनी जारी करनी पड़ी क्योंकि वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर और दूसरी कई जगहों पर गंगा नदी का जलस्तर न्यूनतम बिंदु तक पहुंच गया था. इन शहरों में कई जगहों पर गंगा इतनी सूख चुकी थी कि वहां डुबकी लगाने लायक पानी भी नहीं बचा था. कानपुर में गंगा की धारा के बीच में रेत के बड़े-बड़े टीले दिखाई देने लगे थे. यहां तक कि पेयजल की आपूर्ति के लिए भैरोंघाट पंपिंग स्टेशन पर बालू की बोरियों का बांध बनाकर पानी की दिशा बदलनी पड़ी. गर्मियों में गंगा के जलस्तर में आ रही कमी का असर और भी तरीके से दिखने लगा था क्योंकि प्रयागराज, कानपुर और वाराणसी के इलाकों में हैंडपंप या तो सूख गए या कम पानी देने लगे थे.
पानी कम होने का ट्रेंड देश की लगभग हर नदी में है और नदी बेसिनों में बारिश की मात्रा में कमी भी है. हमने इस पर अभी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी संपदा से हाथ धो देंगे.
December 15, 2020
पंचतत्वः गाफिल गोता खावैगा
बारिशें हमेशा चाय-पकौड़े, गीत-गजलें और शायराना अंदाज लेकर नहीं आतीं. कुछ बरसातों में दिल तोड़ने वाली बात भी हुआ करती हैं. नहीं, आप मुझे गलत न समझें. पंचतत्व में रोमांस की बातें मैं अमूमन नहीं करता.
दिल्ली में बैठे पत्रकारों को दिल्ली से परे कुछ नहीं दिखता. किसान आंदोलन से भी सुरसुराहट तभी हुई है जब किसान राजधानी में छाती पर चढ़कर जयकारा लगा रहे हैं. बहरहाल, दिल्ली में बादल छाए हैं और सर्दियों में बरसात हैरत की बात नहीं है. हर साल, पश्चिमी विक्षोभ से ऐसा होता रहता है. पर, खबर यह है कि मुंबई और इसके उपनगरों में पिछले 2 दिनों में हल्की बारिश हुई है और अगले 48 घंटों में और अधिक बारिश होने की उम्मीद है. बारिश को लेकर हम हमेशा उम्मीद लिखते हैं, जबकि हमें यहां सटीक शब्द आशंका या अंदेशा लिखना चाहिए.
बहरहाल, मौसम का मिजाज भांपने वाली निजी एजेंसी स्काइमेट कह रहा है कि लगातार 2 दिनों तक हवा गर्म रहने से मुंबई गर्म हो गया है और दिन का तापमान 36 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया, जो सामान्य से लगभग 4 डिग्री सेल्सियस अधिक था. न्यूनतम तापमान भी औसत से 5-6 डिग्री सेल्सियस अधिक चल रहा है.
मुंबई अमूमन दिसंबर से अप्रैल तक सूखा रहता है. दिसंबर, 2017 को छोड़ दीजिए जिसमें सामान्य औसत 1.6 मिमी की सामान्य के मुकाबले 76 मिमी वर्षा हुई थी. वजह था चक्रवात ओखी.
मुंबई की बारिश से मैं आपका ध्यान उन असाधारण मौसमी परिस्थितियों की ओर दिलाना चाहता हूं, जो मॉनसून सिस्टम में बारीकी से आ रहे बदलाव का संकेत है. पिछले साल, यानी 2019 में देशभर में 19 असाधारण मौसमी परिस्थितियां (एक्स्ट्रीम वेदर कंडीशंस) की घटनाएं हुईं, जिनमें डेढ़ हजार से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवा दी. इनमें से साठ फीसद से अधिक जानें मूसलाधार बारिश और बाढ़ की वजह से गईं.
बिहार की मिसाल लें, जहां की जनता ने साबित किया उनको ऐसी मौतों से फर्क नहीं पड़ता, सूबे में 2019 में 11 जुलाई से 2 अक्तूबर के बीच भारी बारिश और बाढ़ से 306 लोग मारे गए. आकाशीय बिजली गिरने से 71 और लू लगने से 292 लोग मारे गए. अब आप पर निर्भर है कि आप उस राज्य के सुशासन पर हंसे या रोएं जहां लू लगने से लगभर तीन सौ लोग मर जाते हों.
पड़ोसी राज्य झारखंड में स्थिति अलग नहीं है. वहां बाढ़ से मरने वालों की गिनती नहीं है क्योंकि राज्य की भौगोलिक स्थिति ऐसी नहीं है कि बाढ़ आए. बहरहाल, आकाशीय बिजली गिरने से 2019 में वहां 125 लोग मारे गए और लू लगने से 13 लोग मारे गए.
महाराष्ट्र का रिकॉर्ड भी इस मामले में बेदाग नहीं है. वहां बाढ़ से 136, बिजली गिरने से 51 और अप्रैल-जून 2019 में लू लगने से 44 लोग जान गंवा बैठे.
भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन महकमे के आंकड़े बताते हैं कि 2013 से 2019 के बीच लू चलने वाले दिनों की संख्या में करीबन 70 फीसद की बढ़ोतरी हुई है. आपने किसी टीवी चैनल पर इसकी चर्चा सुनी है? खैर, वहां तो आप मसीहाओं को देखते-सुनते हैं.
वैसे गौर करने लायक बात यह है कि रेगिस्तानी (क्लीशे) राज्य राजस्थान में बाढ़ और भारी वर्षा में मरने वालों की संख्या 2019 में 80 रही. आकाशीय बिजली गिरने से मरने वालों की संख्या भी 14 रही.
वैसे, आपदा प्रबंधन विभाग ने लू की तरह ही शीत लहर में मरने वालों की संख्या भी बताई है और जिक्र किया है कि 2017 से 2018 के बीच शीत लहर के दिनों की संख्या में भी 69 फीसद की बढ़ोतरी हुई है.
स्थिति असल में चिंताजनक इसलिए है क्योंकि 2014-15 से हर साल असाधारण मौसमी परिस्थितियों की वजह से जान गंवाने वालों की संख्या हर साल बढ़ती ही जा रही है. 2014-15 में मरने वालों की संख्या करीब 1664 थी जो 2018-19 में बढ़कर 2044 हो गई. इन मौसमी परिस्थितियों में सवा लाख मवेशी मारे गए, 15.5 लाख घरों को मुक्सान पहुंचा और 17.09 लाख हेक्टेयर खेती के रकबे में फसलें चौपट हो गईं.
पर, मैं ये आंकड़े किसलिए गिना रहा हूं!
मैं ये आंकड़े इसलिए गिना रहा हूं क्योंकि सरकार को इन कुदरती आपदाओं की परवाह थोड़ी कम है. इस बात की तस्दीक भी मैं कर देता हूं.
भारत सरकार ने 2015-16 में करीब 3,273 करोड़ रुपए असाधारण मौसमी परिस्थितियों से लड़ने के लिए खर्च किया था. 2016-17 में करीब 2,800 करोड़ रुपए हो गया और 2017-18 में और घटकर 15,985.8 करोड़ रुपए रह गया.
2018-19 में संशोधित बजटीय अनुमान बताता है कि ये 37,212 करोड़ रुपए हो गया जो 2019-20 में करीब 29 हजार करोड़ के आसपास रहा.
2018 से 2019 के बीच तूफानों और सूखे को ध्यान में रखें तो बढ़ी हुई रकम का मामला समझ में आ जाएगा. लेकिन हमें समझ लेना चाहिए (2015 से 2017 तक) कि कुदरत के कहर से निबटने के लिए सरकार किस तरह कमर कसकर तैयार है.
तो अगर आपके इलाके में बेमौसम बरसात हो, बिजली कड़के तो पकौड़े तलते हुए पिया मिलन के गीत गाने के उछाह में मत भर जाइए, सोचिए कि पश्चिमी राजस्थान में बारिश क्यों हो रही है, सोचिए कि वहां ठनका क्यों गिर रहा है. कुदरत चेतावनी दे रही है, हम और आप हैं कि समझने को तैयार नहीं हैं.
December 6, 2020
पंचतत्वः मिट्टी की यह देह मिट्टी में मिलेगी या जहर में!
हम बहुत छोटे थे तब हमने कवि शिवमंगल सिंह सुमन की एक कविता पढ़ी थी
आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़ कर छल जाए
सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाए,
यों तो बच्चों की गुडिया सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या
आँधी आये तो उड़ जाए, पानी बरसे तो गल जाए!
निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी,
हर बार बिखेरी गई, किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी!
यह आखिरी पंक्ति ऐसी है जो असलियत नहीं है, बस हमारा विश्वास भर है. हमें हमेशा लगता है कि माटी से बनी हमारी देह माटी में मिल जाएगी. माटी अजर है, अमर है. पर ऐसा है नहीं.
आज यानी 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस है. सोचा, आपको याद दिला दूं, काहे कि इसी की वजह से हम हैं. हमारी सारी फूटानी मिट्टी की वजह से है.
वरना, हमलोग इतने आधुनिक तो हो ही गए हैं कि मिट्टी शरीर से लग जाए तो शरीर गंदा लगने लगता है, कभी हम इसको धूल कहकर दुत्कारते हैं, कभी इसको कूड़ा कहते हैं, कभी बुहारकर फेंकते हैं कभी चुटकियों से झाड़ते हैं. हमें एक बार उस चीज को लेकर कुदरत का धन्यवाद देना चाहिए कि तमाम तकनीकी ज्ञान के बावजूद हमलोग प्रयोगशाला में मिट्टी नहीं बना सकते.
जैसा मैंने कहा, मिट्टी शाश्वत नहीं है. इसका क्षरण हो रहा है.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) की 2016 की एक रिपोर्ट कहती है कि देश का 36.7 फीसद या करीबन 12.07 करोड़ हेक्टेयर कृषियोग्य और गैर-कृषि योग्य भूमि विभिन्न किस्म के क्षरण का शिकार है जिसमें से सबसे अधिक नुक्सान जल अपरदन से होता है. जल अपरदन की वजह से मृदा का नुक्सान सबसे अधिक करीब 68 फीसद होता है.
पानी से किए गए क्षरण की वजह से मिट्टी में से जैविक कार्बन, पोषक तत्वों का असंतुलन, इसकी जैव विविधता में कमी और इसका भारी धातुओं और कीटनाशकों के जमा होने से इसमें जहरीले यौगिकों की मात्रा बढ़ जाती है.
दिल्ली के नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (एनएएएस) का आंकड़ा कहता है कि देश में हर साल करीबन 15.4 टन मिट्टी बर्बाद हो जाती है. इसका सीधा असर फसलों की पैदावार पर पड़ता है यह कोई कहने की बात नहीं है.
सवाल ये है कि नाश हुई यह मिट्टी कहां जाती है. कहीं नहीं जाती, नदियों की तली में या बांध-पोखरों-तालाबों की तली मैं बैठ रहती है और इससे हर साल सिंचित इलाके में 1 से 2 फीसद की कमी आती जाती है. बरसात के टाइम में यही बाढ़ का इलाका बढ़ा देती है. एनएएएस का अनुमान है कि जल अपरदन की वजह से 1.34 करोड़ टन के पैदावार की कमी आती है. रुपये-पैसे में कूता जाए तो ये करीबन 206 अरब रुपए के आसपास बैठता है.
इस शहरीकरण ने मिट्टी में जहर घोलना भी शुरू कर दिया है. जितना अधिक म्युनिसिपल कचरा इधर-उधर असावधानी से फेंका जाता है, उतना ही अधिक जहरीलापन मिट्टी में समाती जाती है. मिसाल के तौर पर, कानपुर के जाजमऊ के एसटीपी की बात लीजिए.
जाजमऊ में चमड़ा शोधन के बहुत सारे संयंत्र लगे हैं. हालांकि, सरकारी और गैर-सरकारी आंकड़ों में कई सौ का फर्क है फिर भी आप दोनों के बीच का एक आंकड़ा 800 स्थिर कर लें.
तो इन चमड़े के शोधन में क्रोमियम का इस्तेमाल होता है. क्रोमियम भारी धातु है और चमड़े वाले महीन बालों के साथ ये एसटीपी में साफ होने जाता है (अभी कितना जाता है और कितना साफ होता है, इस प्रश्न को एसटीपी में न डालें. उस पर चर्चा बाद में)
तो साहब, एसटीपी के पॉन्ड में चमड़े की सफाई के बाद वाले बाल कीचड़ की तरह जमा हो जाते हैं और उनकी सफाई करके उनको खुले में सूखने छोड़ दिया जाता है. एसटीपी वालों के कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है.
गरमियों में वो बाल हवा के साथ उड़कर हर तरफ पहुंचते हैं. बरसात के पानी के साथ क्रोमियम रिसकर भूमिगत जल और मिट्टी में जाता है और फिर बंटाधार हो जाता है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सॉइल साइंस, भोपाल का 2015 का एक अध्ययन बताता है कि देश के कई शहरों में कंपोस्ट में भी भारी धातु की मौजूदगी है. एनपीके उर्वरकों का बेहिसाब इस्तेमाल तो अलग से लेख का विषय है ही. अपने देश की मिट्टी में नाइट्रोजन कम है. एनपीके का अनुपात वैसे 4:2:1 होना चाहिए लेकिन एक अध्ययन के मुताबिक, 1960 में 6.2:4:1 से 2016 में 6.7:2.7:1 हो गया है. खासतौर पर पंजाब और हरियाणा में यह स्थिति और भयावह हो गई है. जहां ये क्रमशः 31.4:8.0:1 और 27.7:6.1:1 है.
आज के पंचतत्व में आंकड़ों की भरमार है.
पर यकीन मानिए, हर बार किस्सा सुनाना भी मुमकिन नहीं होता. खासकर तब, जब बात माटी की हो. मरने के बाद तो सुपुर्दे-खाक होते समय आदमी चैन से सोना चाहता होगा, अगर वहां भी प्रदूषित और कलुषित माटी से साबका हो, तो रेस्ट इन पीस कहना भी बकैती ही होगी.
September 13, 2020
हैप्पी हिंदी डे ड्यूड
अंग्रेजी भाषा का भी कोई दिवस है इस बारे में मुझे ज्ञात नहीं. हो, तो समझदार लोग ज्ञानवर्धन करें. यह कुछ वैसे ही है जैसे महिला दिवस तो मनाया जाता है पर संभवतया कोई मर्द दिवस नहीं है. एक मतलब यह है कि अपेक्षया कमजोर दिखने वाले के नाम एक दिवस अलॉट कर दो. एनीवे.
हिंदी के साथ दूसरी समस्या यह है कि हिंदी में सामान्य पाठक वर्ग का घनघोर अभाव है. हिंदी में पढ़ते वही हैं जो लिखते हैं यानी लेखक हैं. यानी, या तो साहित्य या राहित्य, जो भी मुमकिन हो लिख डालते हैं.
हिंदी क्षेत्र का सामान्य छात्र हिंदी में लिखे को पढ़ना प्रायः अपमानजनक, या अति अपमानजनक या घोर अपमानजनक मानता है.
इसको आप पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण की तरह अधिक इंटेंस मानते चलें. वह अंग्रेजी में चेतन भगत पढ़ लेगा पर हिंदी में अज्ञेय, जैनेंद्र या ऐसे ही किसी दूसरे लेखक का नाम सुनकर हंस देगा.
बचे हिंदी के राइटर्स. उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढते हैं (गलत नहीं है अंग्रेजी पढ़ना) अंग्रेजी बोलते हैं (यह भी गलत नहीं) अंग्रेजी से मुहब्बत करते हैं (किसी भी भाषा से मुहब्बत करें गलत नहीं है) पर अपने ही हिंदी में लिखने वाले बाप के लेखन को कुछ तुच्छ-सा, घटिया या दोयम दर्जे का या अत्यधिक शास्त्रीय समझते हैं (हिंदी वाले पिता को चाहिए कि वह अपने ऐसे घातक पुत्रों को जूता सेवन करवाएं, पर भाषा से ज्यादा गाढ़ा पुत्र प्रेम होता है, यह जगसाबित है)
तो स्मार्ट फोन पर पॉर्न वीडियो देखने में ज्यादा दिलचस्पी हिंदी प्रदेश के बालको में है (अन्यों में भी होगी, पर बात हिंदी की हो रही) सो उनका जरा भी मन हिंदी पढ़ने में नहीं लगता. जाहिर है, इतनी देर में आप समझ गए होंगे कि हिंदी से मेरा मतलब महज हिंदी व्याकरण या कविता संग्रह या अभिव्यक्ति की आजादी को सातवे आसमान तक ले जाने वाले उपन्यास से नहीं है. मेरा तात्पर्य हिंदी में लिखे कुछ भी से है. विज्ञान भी, राजनीति भी और इतिहास भी.
पर सामान्य जन का मन हिंदी में लगे भी कैसे? हिंदी में लिखने का मतलब सीधे-सीधे साहित्य वह भी दुरूह भाषा का लगा लिया जाता है.
जो हिंदी में लिखता है वह क्या सिर्फ कविता लिखेगा, या कहानी? या उपन्यास? यह मानिए कि हिंदी में स्तरीय नॉन-फिक्शन खासकर इतिहास, भूगोल, अर्थव्यवस्था, विज्ञान, राजनीति पर लेखन कम होता है. जो होता है उसकी कीमत औसत हिंदी पाठक की जेब से बाहर की होती है.
एक मिसाल देता हूं, इंडिया टुडे के संपादक अंशुमान तिवारी और पूर्व आइआइएस अफसर अनिंद्य सेनगुप्ता ने एक किताब लिखी. लक्ष्मीनामा. ब्लूम्सबरी ने छापी. हिंदी संस्करण की कीमत थी, 750 रुपए. मुझे बुरी तरह यकीन है कि इतनी महंगी किताब हिंदी का आम पाठक (अगर कोई ऐसा वर्ग है तो) नहीं खरीदेगा. (वैसे मुझे लगता है कि हिंदी में आम क्या, अमरूद, अनानास, केला कोई पाठक नहीं है, जो है सो दस हजार लोगों का एक समूह है.)
एक अन्य बात हिंदी पट्टी के लोगों की मुफ्तखोरी की है. हिंदी वाले जो लोग पढ़ना चाहते हैं, वह खरीदना नहीं चाहते. वह चाहते हैं रिपब्लिक डे परेड या प्रगति मैदान के ट्रेड फेयर के पास की तरह किताब भी उनको मुफ्त में मिल जाए. वह एहसान जताएंः देखो मैंने तुम्हारी किताब पढ़ी.
एक अन्य बड़ी समस्या भाषा की है. हिंदी के ज्यादातर लेखक ऐसी भाषा लिखते हैं (मेरा मतलब दुरूह से ही है) कि सामान्य पाठक सर पकड़कर बैठ जाता है. (ऐसी समस्या अंग्रेजी में नहीं है) हिंदी के विरोधी ज्यादा हैं इसलिए हिंदी में सरल लिखने का आग्रह टीवी और डिजिटल माध्यम में अधिक रहता है. यह आग्रह कई बार दुराग्रह तक चला जाता है.
देश में 3 फीसद अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के लिए सामग्री परोसने वाली अंग्रेजी मीडिया में मीडियाकर्मियों की तनख्वाह हिंदी वालों से कर लें तो उड़ने वाले सभी हिंदी पत्रकार भी औकात में आ जाएंगे. अंग्रेजी में फां-फूं करने वाले औसत छात्र भी इंटरव्यू में शीर्ष पर बैठते हैं. बाकी देश में हिंदी की स्थिति क्या है यह वैसे किसी बालक से पूछिएगा जो हिंदी माध्यम से यूपीएससी वगैरह की परीक्षा में बैठता है. वैसे यूपीएससी में हिंदी की हालत जब्बर खलनायक की बांहों में जकड़ी नरम-नाजुक सुकन्या नायिका से अधिक नहीं है.
खैर, शुक्रिया कीजिए हिंदी सिनेमा का कि हिंदी का प्रसार किया. टीवी का भी. बुरा लगेगा पर, हिंदी के प्रसार खासकर, अंग्रजी की अकड़-फूं में रहने वाले सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के भाषणों में हिंदी लाने का अहम काम नरेंद्र मोदी ने किया है. आप को चुभेगी यह बात पर सच है. (वैसे, यह काम मुलायम ने भी किया था, जब वह रक्षा मंत्री थे)
आखिरी बात, ऊंचे दर्जे के साहित्यकारों ने हिंदी के प्रसार के लिए कुछ भी नहीं किया है. हो सकता है समृद्धि आई हो हिंदी के खजाने में. पर प्रसार तो नहीं हुआ. आजकल नई वाली हिंदी भी है, जिसमें मैं नयापन खोजता रह गया.
बहरहाल, नई हो, पुरानी हो, तमिल, तेलुगू, बंगाली, बिहारी, मैथिली, ओडिया..चाहे जिस भी लहजे में हो, हिंदी हिंदी ही है. रहेगी. हो सकता है अगले 50 साल में हिंदी विलुप्त हो जाए. कम से कम लिपि तो खत्म हो ही जाए. लेकिन तब तक अगर बाजार ने इसे सहारा दिए रखा तो चलती रहेगी, चल पड़ेगी.
तब तक के लिए हैप्पी हिंडी डे ड्यूड.


