Manjit Thakur's Blog, page 2

June 17, 2025

जी-7 में मोदी से लेकर, यूक्रेन-रूस, इजराइल-ईरान युद्ध तक 17 जून की 10 प्रमुख सुर्खियां

आज के मुख्य समाचार/ 17 जून

1. ईरान से 110 छात्र आर्मेनिया पहुंचे विदेश मंत्रालय के मुताबिक, इजराइल और ईरान के बीच बढ़ते तनाव के बीच तेहरान में मौजूद भारतीय छात्रों को सुरक्षा कारणों से बाहर निकाल लिया गया है और उनमें से 110 लोग सीमा पार कर आर्मेनिया में प्रवेश कर गए हैं. इसकी पूरी व्यवस्था दूतावास ने की.

2. ट्रंप का ट्रंप कार्ड, खाली करो तेहरान! इजराइल ने ईरान के सैन्य और परमाणु ठिकाने पर अचानक हमला करने के पांच दिन बाद तेहरान पर अपने हवाई हमले तेज कर दिये हैं. इस बीच, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने राजधानी तेहरान के निवासियों को शहर खाली करने की चेतावनी दी.

3. ग्लोबल साउथ की प्राथमिकताओं पर मोदी देंगे जोर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि वह कनाडा के कनैनिस्किस में जी-7 शिखर सम्मेलन में वैश्विक नेताओं से मुलाकात के दौरान महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दों पर चर्चा करेंगे तथा ‘ग्लोबल साउथ’ की प्राथमिकताओं पर जोर देंगे.

4. छोटे क्वांटम में बड़ी कामयाबी रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दिल्ली ने क्वांटम संचार के क्षेत्र में एक बड़ी प्रायोगिक सफलता हासिल की है. इससे भारत भविष्य में साइबर सुरक्षा के लिए क्वांटम तकनीक का उपयोग करने की दिशा में अग्रसर हो जाएगा.

5. जनगणना को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं : पायलट कांग्रेस महासचिव सचिन पायलट ने जनगणना के लिए जारी अधिसूचना में ‘‘जातिगत गणना का उल्लेख नहीं होने’’ तथा बजट आवंटन को लेकर मंगलवार को सवाल खड़े किए और आरोप लगाया कि जाति जनगणना पर सरकार की नीयत साफ नहीं है. दूसरी तरफ, भारतीय जनता पार्टी ने प्रतिक्रिया में आरोप लगाया कि कांग्रेस 2027 की जनगणना पर “झूठा और भ्रामक” प्रचार कर रही है क्योंकि समाज में विभाजन पैदा करके सत्ता हासिल करने की उसकी उम्मीद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की राष्ट्रव्यापी कवायद में जातिगत गणना को शामिल करने के फैसले से ध्वस्त हो रही है.

6. थम-से गए परवाज एअर इंडिया की उड़ानों में मुश्किलें जारी हैं. साढ़े तीन साल पहले टाटा समूह द्वारा एयरलाइन को खरीदे जाने के बाद यह सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है. मंगलवार को विभिन्न कारणों से लंदन और पेरिस के लिए इसकी उड़ानें रद्द कर दी गईं. इसके अलावा, सैन फ्रांसिस्को-मुंबई उड़ान में तकनीकी गड़बड़ी के कारण यात्रियों को बीच में ही विमान से उतरना पड़ा.

7. युद्ध का दूसरा घातक कोण रूस ने यूक्रेन पर रात को उस समय मिसाइल और ड्रोन से हमले किए जब ज्यादातर लोग अपने घरों में सो रहे थे, जिससे कम से कम 15 लोगों की मौत हो गयी और 116 अन्य घायल हो गएच

8. और एक साल मुफ्त ऑनलाइन 'आधार' अपडेट नागरिकों को विशिष्ट पहचान संख्या 'आधार' जारी करने वाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) ने दस्तावेजों को मुफ्त में ऑनलाइन अद्यतन करने की सुविधा 14 जून, 2026 तक बढ़ाने की घोषणा की है.

9. धान पर ध्यान धान बुवाई का रकबा इस खरीफ सत्र में अब तक 13 प्रतिशत बढ़कर 4.53 लाख हेक्टेयर हो गया है.

10. खेल में चमके भारत के जूनियर कंपाउंड तीरंदाजों ने एशियाई कप चरण दो में अपना दबदबा कायम रखते हुए पुरुष और महिला दोनों व्यक्तिगत स्पर्धाओं के फाइनल में प्रवेश किया. दूसरी तरफ, भारत की उप कप्तान स्मृति मंधाना मंगलवार को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) की एकदिवसीय बल्लेबाजी रैंकिंग में 2019 के बाद पहली बार शीर्ष स्थान पर पहुंच गयीं

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Published on June 17, 2025 10:23

चावल और भेड़ का जीन संपादनः जैव-तकनीक में भारत की तीन उपलब्धियां, जो भविष्य की नींव रखेंगी

-मंजीत ठाकुर

युद्ध के मैदान में पाकिस्तान को पीटने की खबरों के शोर-शराबों के बीच दो ऐसी खबरें आईं, जिन पर कम ही लोगों का ध्यान गया, लेकिन जिसका असर आने वाले वक्त में किसी क्रांति से कम नहीं होगा.

पहली, दुनिया में पहली बार भारत के कृषि वैज्ञानिकों ने जीनोम एडिटिंग के जरिए धान की दो नई किस्में तैयार की हैं. चावल की इन दो नई किस्मों को कम पानी और कम खाद तथा उर्वरकों की जरूरत होगी. ये बदलते मौसम के प्रति प्रतिरोधी गुणवत्ता वाली होंगी और इनकी पैदावार भी मौजूदा किस्मों की तुलना में तीस फीसद अधिक होगी. फसल भी सामान्य समय से बीस दिन पहले तैयार हो जाएगी. इन दो किस्मों के नाम डीआरआर-100 या कमला और पूसा डीएसटी राइस-1 रखे गए हैं और उम्मीद की जा रही है कि दोनों बीज देश के धान उत्पादन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकेंगे.

दूसरी खबर, कश्मीर से आई जो अभी पहलगाम आतंकवादी हमलों के बाद से नकारात्मक रूप से खबरों में बना हुआ था और ऑपरेशन सिंदूर में कश्मीर पाकिस्तान की ज़द में था. लेकिन, शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) के वैज्ञानिकों ने भारत की पहली जीन संपादित (जीन एटिटेड) भेड़ की किस्म भी तैयार की है और इसे एनिमल बायोटेक्नोलॉजी में मील का पत्थर माना जा रहा है.

वैज्ञानिकों ने इस मेमने में 'मायोस्टैटिन' जीन को एडिट किया है. यह जीन शरीर में मांस बनने के लिए जिम्मेदार होता है. इस संपादन के बाद नई किस्म वाली इस भेड़ में मांस की मात्रा तीस फीसद तक बढ़ जाएगी. इससे पहले यह गुण भारतीय भेड़ो में नहीं होती थी.

कुछ लोगों में जीएम फसलों को लेकर एक चिंता रही है लेकिन ध्यान रहे कि जीनोम एडिटिंग जेनेटिक मॉडिफिकेशन या जीएम नहीं है. जीनोम एडिटिंग में उसी पौधे में मौजूद डीएनए में एडिटिंग के जरिए डीएनए सीक्वेंसिंग बदली जाती है. जीनोम एडिटिंग एक सटीक तकनीक है जिसमें किसी जीव के डीएनए में छोटे-छोटे बदलाव किए जाते हैं. इसमें किसी विशेष जीन को काटा, हटाया या बदला जा सकता है. यह प्रक्रिया आमतौर पर CRISPR-Cas9 जैसी तकनीकों से की जाती है. इस विधि में बाहरी डीएनए को जीव के जीनोम में नहीं जोड़ा जाता, बल्कि प्राकृतिक जीन को ही संशोधित किया जाता है.

वहीं जेनेटिक मोडिफिकेशन (जीएम) में किसी दूसरे जीव का जीन लेकर उसे लक्षित जीव में जोड़ा जाता है. मसलन, बैक्टीरिया का जीन यदि किसी पौधे में जोड़ा जाए तो वह पौधा कीट प्रतिरोधी बन सकता है. यह परिवर्तन स्वाभाविक रूप से नहीं होता और इसे ‘ट्रांसजेनिक’ प्रक्रिया कहा जाता है.

इस प्रकार, जीनोम एडिटिंग अधिक सटीक और प्राकृतिक उत्परिवर्तन के करीब मानी जाती है, जबकि जीएम तकनीक में बाहरी जीन जोड़ने से अधिक जैविक परिवर्तन होते हैं.

यह क्रांतियां मौन हैं लेकिन कुछ समय के बाद इनके मुखर होने के संकेत दिखने लगेंगे. जलवायु परिवर्तन और बारिश के पैटर्न में आ रहे बदलावों से फसल चक्र को फिर से दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. मॉनसून के बीच में आ रहे लंबे ड्राई स्पैल धान की पैदावार पर नकारात्मक असर डाल रहे हैं और सिंचाई पर निर्भरता बढ़ रही है, जबकि भूमिगत जल के सोते सूखते जा रहे हैं. डीजल या बिजली चालित पंपों से सिंचाई खेती में इनपुट लागत को बढ़ा रही है, इससे किसानों का मुनाफा सिकुड़ता जा रहा है.

दूसरी तरफ हमें और अधिक अन्न उपजाने की जरूरत है क्योंकि देश की आबादी डेढ़ अरब को पार कर गई है और खाद्यान्न आदि में आत्मनिर्भर ही नहीं, सरप्लस होकर ही हम किसी भी रणनीतिक चुनौतियों का सामना कर पाएंगे. खाद्य सुरक्षा के साथ ही, सरप्लस अनाज हमारे विश्व व्यापार को अधिक व्यापकता देगा.

लेकिन बड़ा फायदा यह होगा कि पंजाब में चावल उगाने के लिए जो 5000 लीटर प्रति किलोग्राम और बंगाल में जो 3000 लीटर प्रति किलोग्राम पानी की जरूरत होती है उसको कम किया जा सकेगा. बढ़ती आबादी और कम होते जल संसाधनों के मद्देनजर यह बेहद महत्वपूर्ण खोज है.
शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) के वैज्ञानिकों ने भारत की पहली
जीन संपादित (जीन एटिटेड) भेड़ की किस्म भी तैयार की है 

इन सब चुनौतियों के मद्देनजर ही, केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘माइनस 5 और प्लस 10’ का नारा दिया है. इसके तहत, धान के मौजूदा रकबे में से पांच मिलियन हेक्टेयर कम क्षेत्र में दस मिलियन टन ज्यादा चावल उगाने का संकल्प है. खाली हुए पांच मिलियन रकबे को दलहन और तिलहन के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश होगी. किसानों को अत्यधिक पानी की खपत वाली चावल की खेती से दलहन और तिलहन की ओर ले जाने की कोशिशें अभी बेअसर साबित हुई हैं.

गेहूं और चावल की खेती पर तिलहन और दलहन की तुलना में प्राकृतिक मार कम पड़ती है. एमएसपी के कारण पैदावार बेचने में भी दिक्कत नहीं होती. बहरहाल, जीनोम एडिटिंग का अन्य फसलों के बीजों पर भी प्रयोग होने लगे तो किसान अपनी लाभकारी उपज के प्रति आश्वस्त हो सकेगा. और इसकी मिसाल है, भेड़ की नई जीन संपादित नस्ल, जो अधिक मांस उत्पादित करने में सक्षम होगी.

जलवायु परिवर्तन और तेजी से घटते भूमिगत जल भंडारों के मद्देनजर अगले दस साल में दुनिया में खाद्य उत्पादन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो जाएगा. भारत में जैव-प्रौद्योगिकी की यह नई खोजें भविष्य की ओर बढ़ाया मजबूत कदम है.
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Published on June 17, 2025 10:20

June 14, 2025

विश्व टेस्ट चैंपियनशिप फाइनलः चोकर्स के चैंपियन बनने के पीछे की दास्तान

क्रिकेट की दुनिया में दक्षिण अफ्रीकी टीम के बारे में मशहूर है कि बड़ी प्रतिस्पर्धाओं में वह अहम मौके पर जाकर दिशा भटक जाती है. जीत के लिए महत्वपूर्ण लगने वाले मोड़ों पर उसके पांव फिसलते हुए देखे गए हैं और इसलिए इस टीम को चोकर्स कहा जाने लगा.

दक्षिण अफ्रीका की टीम के दामन पर आईसीसी इवेंट्स में महत्वपूर्ण मैचों में बारंबार पराजित होने का दाग ढाई दशकों से लगा हुआ था, पर क्रिकेट विश्व टेस्ट चैंपिशनशिप के फाइनल में दक्षिण अफ्रीका ने इस धब्बे को छुड़ा लिया.

इससे पहले दक्षिण अफ्रीका को आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी के सेमीफाइनल में पांच बार (साल 2000, 2002, 2006, 2013 और 2025) पराजय का सामना करना पड़ा था. इसीतरह वह आईसीसी एकदिवसीय विश्वकप के सेमीफाइनल में चार बार (साल 1992, 2007, 2015, 2023) में पराजित हो चुकी है. टीम ने पिछले साल टी-20 विश्वकप का ख़िताब भारत के हाथों गंवाया था. फाइनल के फिसड्डी अब टेस्ट के सरताज है
क्रिकेट प्रेमियों को याद होगा कि ही टी-20 विश्वकप के फाइनल में किसतरह मैच भारत के हाथ से फिसलता हुआ लग रहा था. हेनरिक क्लासेन के विस्फोटक अंदाज और डेविड मिलर के सहयोग से उस रोज ऐसा लग रहा था कि दक्षिण अफ्रीका चोकर्स वाला स्टिकर दामन से छुड़ाकर मानेगी. इस जोड़ी ने 14वें और 15वें ओवर में 38 रन बनाकर दक्षिण अफ्रीका को विश्वकप खिताब के नजदीक पहुंचा दिया था.

दक्षिण अफ्रीका को 30 गेंदों में 30 रन बनाने थे और उसके छह बल्लेबाज अभी आउट होने बाकी थे. लेकिन सूर्यकुमार यादव के सीमारेखा पर लपके डेविड मिलर के बेहतरीन कैच, बुमराह के आखिरी दो बेहतरीन ओवरों के साथ हार्दिक पांड्या के दो विकेट ने निश्चित नजर आ रही जीत को हार में बदल दिया.

लेकिन दक्षिण अफ्रीका के लिए निराशाओं के काले बादलों का किस्सा बहुत पुराना रहा है. 1999 के वनडे विश्वकप में दक्षिण अफ्रीका को ऑस्ट्रेलिया से जीत के लिए 214 रन बनाने थे. लांस क्लूजनर ने झन्नाटेदार बल्लेबाजी से इस काम को आसान कर दिया था. मैच की आखिरी चार गेंदों पर जीत के लिए दक्षिण अफ्रीका को सिर्फ एक रन बनाना था. लांस क्लूजनर का आखिरी बल्लेबाज के रूप में एलन डोनाल्ड साथ दे रहे थे. आखिरी ओवर की चौथी गेंद पर क्लूजनर रन लेने के लिए दौड़े पर डोनाल्ड गलतफ़हमी की वजह से दौड़े ही नहीं और विकेटकीपर एडम गिलक्रिस्ट ने क्लूजनर को रन आउट कर दिया और मैच टाई हो गया. दक्षिण अफ्रीका ग्रुप मैच में ऑस्ट्रेलिया से हार गया था, इस कारण ऑस्ट्रेलिया फाइनल में चला गया.

2015 के वनडे विश्वकप का ऑकलैंड में खेले जा रहे सेमीफाइनल में खेला जा रहा था. न्यूजीलैंड को आखिरी ओवर में जीत के लिए 12 रन बनाने थे. यह ओवर उस दौर के अगिया बैताल गेंदबाज डेल स्टेन फेंकने वाले थे, जिन्हें गति के साथ सटीक गेंदबाजी के लिए जाना जाता था. इस कारण इतने रन बनाने कतई आसान नहीं लग रहे थे. लेकिन बारिश आ जाने के कारण लक्ष्य घटैकर 298 रन कर दिया गया. यानी बदले हुए लक्ष्य ने न्यूजीलैंड के लिए मैच आसान कर दिया.

दक्षिण अफ्रीका महत्वपूर्ण मैचों में दुर्भाग्य तो बुरे प्रदर्शन का शिकार होती रही. लेकिन उनके नए कप्तान ने जीत का यह सूखा खत्म कर दिया. ऐसे में अफ्रीकी जीत के नायक तेम्बा बावुमा को हो माना जाना चाहिए. हालांकि, टेस्ट चैंपिशनशिप के फाइनल में एडन मारक्रम ने योद्धा की तरह 136 रनों की पारी खेली, लेकिन तेम्बा बावुमा ने दिलेरी से 66 रन बनाए. किसी भी विश्व टेस्ट चैंपियनशिप के फाइनल में यह सबसे बड़ी कप्तानी पारी है. दिलेरी इसलिए क्योंकि बावुमा का हैमस्ट्रिंग खिंच गया था फिर वह टीम के हित के लिए विकेट पर जमे रहे और भागकर रन बनाते रहे. अपनी पारी में 46 रन उन्होंने दौड़कर बनाए.

यह सच है कि बावुमा नायक की तरह उभरे हैं. खासकर इसलिए क्योंकि कप्तान बनने से पहले की उनकी बल्लेबाजी औसत के लिए, उनकी शारीरिक बनावट के लिए, उनके नाम से मिलती-जुलती गाली के लिए उन्हें शर्मिंदा करने की कोशिश की जाती रही.

तेम्बा का नाम का जुल भाषा में अर्थ होता है उम्मीद. निरंतर पराजय की परछाइयों से त्रस्त दक्षिण अफ्रीका को लिए तेम्बा बावुमा ने उस उम्मीद को साकार कर दिखाया है. कभी चोकर्स कही जाने वाली टीम अब चैंपियन है.
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Published on June 14, 2025 11:18

April 16, 2025

व्यंग्यः ट्रेन में एटीएम, बिहार के चुनाव के लिए मास्टर स्ट्रोक


खबर है कि ट्रेनों में अब एटीएम लगा करेगा. पंचवटी एक्सप्रेस में शायद लग भी गया है. यह अच्छा है. सरकार सबका भला चाहती है, ट्रेन लुटेरों का भी.

पहले लुटेरे लोग कट्टा-चाकू दिखाकर घड़ी-चेन-बटुआ निकालते थे. मोबाइल छीनते थे. गहना-गुरिया तो अब ज्यादा लोग पहनते नहीं. और बाकी का माल सेकेंडहैंड जवानी की तरह कौड़ी के दाम बिकती थी. तो सरकार ने लूट के काम को बूस्ट करने के वास्ते ट्रेन में एटीएम लगाने का काम किया है. अब लुटेरे प्रो-लेवल पर आएंगे. मुसाफिरों को भी कष्ट नहीं होगा.


ट्रेन में एटीएमः AI इमेज


लुटेरे आए, आपको कट्टा या चाकू जो भी उनके पास उपलब्ध हो दिखाया, आपको उठाकर ले गए दरवाजें के पास लगे एटीएम के पास. फिर बैलेंस चेक करवा कर दूसरी बार में सारा माल-मत्ता निकलवा लिया. यह सब आसानी से कर लेंगे.

इससे मुसाफिर भी खुश रहेंगे कि भारतीय रेल में सफर करते हुए पहले जब लुटते थे--और लुटते तो थे ही काहे कि सुरक्षा की स्थिति तो आप जानते ही हैं--तो कुछ न मिलने की सूरत में डाकू लोग चाकू-वाकू मार देते थे. अब चाकू तो नहीं मारेंगे कम से कम.

आप में से कोई शक्की यह कह देगा कि भाई सारी ट्रेनें तो नहीं लूट ली जातीं है. अरे भाई, सुरक्षा के मद्देनजर संभावनाएं तो हर ट्रेन में हैं कि जब चाहे तब लूटी जा सकती हैं. लेकिन वह तो लुटेरों का अभी वर्क फोर्स कम है--कुछ लोग असल में राजनीति में चले गए हैं, कुछ पत्रकार बन गए हैं--और कुछ तो उनकी भलमनसाहत है. दूसरी, मूड का मसला है कि जाओ जी, इस ट्रेन को नहीं लूटेंगे.

बिहार जाने वाले यात्रियों से अनुरोध है भैय्ये जरा धेयान से, सूबे में इलेक्शन आने वाला है. इलेक्शन के टाइम में उधर ट्रेने बहुत लूटी जाती हैं. लूटी नहीं जाएंगी तो क्या लोग घर के खर्चे से इलेक्शन लड़ेंगे? घर फूंक कर तमाशा देखने कह रहे हैं आप लोग! जनसेवा क्या घर की बचत से होगी? तो चुनावी खर्चे के लिए ट्रेन नहीं लूटी जाएगी तो क्या डाकू घर-घर जाकर वोट और नोट दोनों छीनें! हां नीं तो!

यह तो सरकार ने अच्छा किया है कि ट्रेनों में एटीएम लगवा दिया. चुनाव को सपोर्ट करने का यह अच्छा सिस्टम है. सरकार चुनावी लोकतंत्र को मजबूत करना चाहती है. सरकार का पूरा भरोसा है कि सिर्फ मछली पकड़ना सिखाना ही किसी को सपोर्ट करना नहीं होता, कई दफे उसकी झोरी में पांच किलो का रोहू सीधे-सीधे भी डाल दिया जाना चाहिए.
#ठर्राविदठाकुर
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Published on April 16, 2025 02:25

April 10, 2025

वेबसीरीज दुपहियाः जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन जैसी जमीन से कटी सीरीज

मंजीत ठाकुर

हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर वेबसीरीज दुपहिया आई है. दुपहिया मोटे तौर पर पंचायत की लाईन पर बनी है, या ऐसा कहना चाहिए कि पंचायत की प्रेरणा से बनी सीरीज है. बेशक यह सीरीज अपने केंद्रीय विषय दहेज प्रथा को लेकर चलती है. लेकिन साथ में हिंदुस्तानी गांवो (और शहरों में भी) व्याप्त गोरेपन को लेकर जो पूर्वाग्रह और दुराग्रह है उसे लेकर कड़ी टिप्पणी करती है.

बिलाशक इस बेवसीरीज ने दो बेहद बढ़िया और जरूरी विषय उठाए हैं. लेकिन, विषय उठाने तक ही मामला अच्छेपन पर खत्म हो जाता है. एक अच्छे विषय का ट्रीटमेंट इतना सतही है कि लोगों का ध्यान दहेज की बुराई की तरह कम ही जाता है. हां, प्रतिभावान लेकिन रंग से काली लड़की के अहसासे-कमतरी का चित्रण बहुत अच्छे से हुआ है.

इस बेवसीरीज के साथ बहुत सारे किंतु-परंतु हैं और इस सीरीज का लेखन बेहद कम रिसर्च के साथ हुआ है. लेखक और क्रिएटिव टीम के लोग ऐसा प्रतीत होता है कि कभी बिहार गए नहीं हैं. पहली बात, बनवारी झा (गजराज राव) की बेटी रोशनी झा (शिवांगी रघुवंशी) की शादी कुबेर प्रसाद से हो रही है. चौबीस साल से अपराधमुक्त गांव इतना पिछड़ा है कि मोटरसाइकिल को दुपहिया कहता है. चलिए, मान लेते हैं. लेकिन अगर इतना पिछड़ा है तो लेखक को यह पता होना चाहिए कि दहेज प्रथा को जी-जान से अपनाने वाले गांव में किसी ‘प्रसाद’ लड़के की शादी किसी ‘झा’ लड़की से नहीं हो सकती. हालांकि, विकिपेडिया में दी गई जानकारी के मुताबिक, इस सीरीज में दूल्हे का नाम कुबेर त्रिपाठी है. तो भी, लेखकों को बिहार की जाति-व्यवस्था का रंच मात्र भी ज्ञान नहीं है और त्रिपाठी ब्राह्मणों की शादी बगैरे किसी झमेले के मिथिला के ब्राह्मण की बेटी से की जा रही है. लेखकों को पता होना चाहिए कि बिहार में जाति एक सच है और वहां गोरे काले के भेद से ज्यादा गहरा भेद जाति का होता है.

असल में, सिनेमा या वेबसीरीज में देखकर बिहार के गांवों के पहचानने और जानने की कोशिश का यह कुफल है.

गांव को ठीक से नहीं समझ पाने का एक उदाहरण यह भी है कि धड़कपुर गांव में काले लोगों को गोरा बनाने का दावा करने वाली क्लीनिक मौजूद है, लोग स्मार्ट फोन पर रील देखते हैं और बनाते हैं पर बाकी दुनिया का पिछड़ापन मौजूद है.

तीसरी बड़ी खामी बिहार की पंचायती राज व्यवस्था को लेकर लेखकों का अज्ञान है. बिहार में पंचायती राज में मुखिया होते हैं, सीरीज में मुखिया का जिक्र ही नहीं है. बिहार के पंचायतों में 33 फीसद महिला आरक्षण है, यहां धड़कपुर में सिर्फ एक ही महिला पंच है. और तो और पार्टी की तरफ से सरपंच के लिए टिकट भी बांटते दिखाया गया है.

सिनेमा की दुनिया में बिहार के साथ दिक्कत यह हो रही है कि हर कोई इसे अपनी सीरीज की प्रयोगशाला बनाए हुए है. संवादों की भाषा यह है हर संयुक्त अक्षर को लोग तोड़कर बोल रहे हैं. महिला पंच बनी पुष्पलता यादव (रेणुका शहाणे) की स्क्रीन पर इतनी बुरी स्थिति मैंने आज तक नहीं देखी थी. वह अपनी गरिमा के साथ मौजूद तो हैं किरदार में ढल भी गई हैं लेकिन उनके संवाद लेखकों ने उन्हें अच्छे संवाद नहीं दिया है. मसला संवादों के लहजे का है.

दुपहिया सीरीज की बिरयानी बनाने के लिए निर्देशक ने सारे मसाले झोंक दिए हैं और इससे यह व्यंजन बेजायका हो गया है. और कुछ न हुआ तो रोशनी झा के भाई बने भूगोल झा (स्पर्श श्रीवास्तव) जिन्होंने लापता लेडीज में बड़ा मुतमईन करने वाला परफॉर्मेंस दिया था और रोशनी के पूर्व प्रेमी अमावस (भुवन अरोड़ा) को लौंडा डांस में उतार दिया. उससे भी मन नहीं भरा तो दोनों के बीच फाइटिंग सीन डाल दिया.

पहले कुछ एपिसोड में तो स्पर्श श्रीवास्तव ओवर एक्टिंग करते दिखे लेकिन बाद में जाकर वह सहज लगने लगे. संवादों को मजेदार बनाने की खातिर कई बार ऐसी बातें की गई हैं जिससे हंसी नहीं आती, बल्कि वह हास्यास्पद लगती है.

रोशनी के पिता के रूप में गजराज राव ने भावप्रवण अभिनय किया है. बृजेंद्र काला एक स्थानीय अखबार के मालिक-संपादक के रूप में मजेदार हैं. हालांकि, वह कैमियो रोल में ही हैं. पत्रकार के रूप में चंदन कुमार ठीक लगे हैं. एएसआई बने मिथिलेश कुशवाहा (यशपाल शर्मा) राहत के झोंके की तरह बीच-बीच में आते हैं. वह किसी भी किरदार में फिट बैठते हैं.

बिहार के देहातों पर बनी किसी भी सीरीज की तुलना हमेशा पंचायत से बनेगी. पंचायत की तरह सूदिंग बनाने के चक्कर में इस सीरीज में हर किसी को अच्छा बनाने की कोशिश की गई है. साथ ही, अमावस और रोशनी के बीच प्रेम को खुलेआम दिखाया गया है और इस बात का पता न सिर्फ रोशनी के परिवार को होता है बल्कि दोनों बेरोकटोक मिलते हैं. बिहार के गांव इतने आसान नहीं हैं.

पंचायत की तुलना में दुपहिया का संगीत कमजोर है.

झा परिवार की शादी में मिथिला की संस्कृति की कोई झलक नहीं दिखती है. शादी के घर में न गाना न बजाना. बिहार के गांव के सेट अप में यह सीरीज ऑर्गेनिक नहीं लगती.

आखिरी एपिसोड तो खैर, जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन सरीखा हो जाता है. दहेज प्रथा पर भाषण, गोरे-काले के भेद पर भाषण और हां, क्लिप्टोमेनिया यानी छोटी चीजें चुराने की आदत पर भी एक ज्ञान.

सीरीज एक बार मनोरंजन के लिए देखी जा सकती है, पर कभी भी याद नहीं रखी जाएगी. पंचायत सीरीज जिस तरह लोगों की जबान को परिष्कृत कर चुकी है और दामाद जी तथा बनराकस मीम मटेरियल बनने में कामयाब रहे, और बाकी किरदारों को भी प्रेम मिला, वैसी लोकप्रियता दुपहिया हासिल नहीं कर पाएगी.







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Published on April 10, 2025 08:46

February 12, 2025

वैलेंटाइन पखवाड़ाः हग डे पर पाखाने वाली पोस्ट

जिनको शीर्षक गंदा लग रहा हो, आगे न पढ़ें. पर क्या करें, नामी-गिरामी, कमाई, सुपरस्टार यूट्यूबर अपने-अपने चैनलों पर रोज हग दे रहे हैं, आई मीन हग डे मना रहे हैं. रैना के नाम पर मैं सिर्फ सुरेश रैना, एम के रैना जैसे काबिल लोगों को जानता था. समय रैना ने उस प्रतिष्ठा पर बट्टा लगा दिया.

यह देश अभिव्यक्ति की आजादी, माफ कीजिएगा 'स्वच्छंदता' वाला देश है जो ‘कुछ भी बक दो साणू की’ के सिद्धांत पर चलता है. पर क्यों न चले. देश में सबको छूट है. होनी भी चाहिए.

असल में किसी ने कहा है, “ए लॉट ऑफ पीपल बिकम अनएट्रैक्टिव वन्स यू फाइंड आउट व्हॉट दे थिंक.” सोच का पता चलते ही बहुत सारे लोग अनाकर्षक लगने लगते हैं. मेरी इस फेहरिस्त में बहुत सारे नेता-अभिनेता पहले से थे, अब हजारों यूट्यूबर और सोशल मीडिया सेलिब्रिटी हैं. मुझे सोशल मीडिया पर पोस्ट्स पढ़ने और अलग किस्म की शख्सियत बनाने के मारे बहुत सारे लोग अनाकर्षक और भद्दे लगने लगे हैं. जाहिर है, वह निजी रूप से टन टना टन होंगे पर सोशल मीडिया पर उनकी प्रोफाइल किसी न किसी पेशेवर दवाब में होगी. खैर. बात हगने आई मीन हग डे की हो रही थी.

यार इतनी अंट-शंट बातों में दिमाग फिर गया है कि गू (आई मीन पाखाना) की बात रह जा रही है. असल में सोशल मीडिया पर समय रैना और रणबीर इलाहाबादिया ने ऐसा ‘चिरक’ दिया है कि उसको समेटना मुश्किल हो रहा है. केस-पेस, संसदीय समिति आदि की बातें उठ रही है.

मैं इस बात से सहमत हूं कि सोशल मीडिया कंटेंट का नियमन करने की सख्त जरूरत है और बेशक इससे ‘कोलैटरल डैमेज’ होगा पर अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा वहीं तक है जहां तक किसी और की निजता की सरहद न हो.

इलाहाबादिया से याद आया कि इलाहाबाद आई मीन प्रयागराज में महाकुंभ पर लोग अपनी गोटी लाल करने में लगे हैं. कोई कह रहा है इससे गरीबी दूर नहीं होगी. ठीक है, दूर नहीं होगी. तो आप बताइए कि कैसे दूर होगी? और जब आपको तरीका पता था तो अब तक दूर क्यों नहीं की?

खैर, जब चंद्रयान-2 लॉन्च होने वाला था तो मेरे एक मित्र ने (नाम लेना समुचित नहीं) इसरो के चेयरमैन की तिरुपति मंदिर जाने की तस्वीर पोस्ट की थी. साथ में उनकी टिप्पणी का मूल भाव था कि एक वैज्ञानिक मंदिर कैसे जा सकता है!

असल में, कथित उदारवादियों को किसी वैज्ञानिक के मंदिर (या मस्जिद, दरगाह आदि) जाने पर बहुत हैरत होती है. वहां उनके लिए 'चॉइस' का विकल्प सीमित हो जाता है. स्थिति यह है कि वाम विचारक इस बात पर हमेशा हैरत जताते हैं कि एक वैज्ञानिक या डॉक्टर या इंजीनियर, एक ही विषय के बारे में वैज्ञानिक नजरिए के साथ ‘धार्मिक’ भी कैसे हो सकता है!

असल में, हमें यह सिखाया जाता है कि वैज्ञानिक होने का मतलब उद्देश्यपरक होना है. यह उद्देश्यपरकता लोगों को खालिस वस्तुनिष्ठ बनाती है यानी दुनिया को एक मानव के रूप में या मनुष्यता के तौर पर नहीं देखने का गुण विकसित करना ही नहीं, बल्कि खुद को एक अवैयक्तिक पर्यवेक्षक के रूप में तैयार करना भी.

वैसे, ज्यादातर मामलों में यह हैरत सिर्फ मंदिर जाने पर जताई जाती है. पर मुझे नहीं लगता कि विज्ञान के मामले में धर्म के अस्तित्व से डरना चाहिए. धर्म की अपनी स्थिति और अवस्थिति है, विज्ञान की अपनी. वैज्ञानिक सोच को अपनाना है तो आपको जीवन में उसे हर क्षेत्र में अपनाना होगा. विज्ञान इस मामले में निर्दयी होने की हद तक ईमानदार है.

पर, विज्ञान की आड़ में धर्म पर फर्जी एतराज जताने वाले लोग न तो वैज्ञानिक सोच वाले हैं और न ही, उनको विज्ञान में कोई आस्था है.

मुद्दे पर वापस आइए, एक बात पर आपने गौर किया है? हग डे के बाद किस डे आता है!

मेरे एक दोस्त हैं जो शराबनोशी से पहले फारिग होकर आते हैं. मतलब फ्रेश होने जाते हैं और वैज्ञानिक भाषा में कहें तो पाखाना करके पेट साफ करके आते हैं ताकि पीते समय शर-आब यानी पानी की चिनगारी के सिवा कोई और चिनगारी महसूस न हो.

वैलेंटाइन पखवाड़े में किस क्लाइमेक्स वाले हिस्से से ऐन पहले की बात है. मतलब सिनेमा की भाषा में सत्रहवां रील. (अगर फिल्म अठारह रील की मान ली जाए). तो किस के नशे से पहले हग लेना (आलिंगन मरदे, आलिंगन.) बहुत आवश्यक कर्मकांड है.

किस, जिसे आप अपनी सौंदर्यदृष्टि के मुताबिक चुंबन, पुच्ची, चुम्मा आदि नामों से अभिहीत कर सकते हैं. इसमें जब तक सामने वाले को पायरिया न हो, बू नहीं आती. लेकिन पाखाने की बू आप क्या खाते हैं उस पर निर्भर करती है. वैसे यह निजी काम शुचिता से जुड़ा है पर इस विचार में कई पेच हैं. पर यह शरीर का ऐसा धर्म है जिसका इशारा भी सभ्य समाज में अटपटा माना जाता है. राजा हो या भिखारी, कपड़े खोलकर कोई इंसान जब मलत्याग करने बैठता है तो सभ्यता और सांस्कृतिक विकास की धारणाएं फीकी पड़ जाती हैं.

कम से कम हिंदी में ‘मलत्याग’ के दैनिक कर्म के लिए सीधे शब्द नहीं है. ‘पाखाना’ फारसी से आया है, जिसका अर्थ होता है ‘पैर का घर’. ‘टट्टी’ आमफहम हिंदी शब्द है जिसका मतलब है कोई ‘पर्दा या आड़’ जो फसल की ठूंठ आदि से बना हो. खुले में शौच जाने को ‘दिशा-मैदान’ जाना कहते हैं. कुछ लोग ‘फरागत’ भी कहते हैं जो ‘फारिग’ होने से बना है. ‘आब’ को ‘पेश’ करने से बना ‘पेशाब’ तो फिर भी सीधा है पर ‘लघु शंका’ और ‘दीर्घ शंका’ जैसे शब्द अर्थ कम बताते हैं, संदेह अधिक पैदा करते हैं.

मलत्याग के लिए ‘हगना’ और ‘चिरकना’ जैसे शब्द भी हैं, मूलतः ये क्रिया रूप हैं और इनका उपयोग पढ़े-लिखे समाज में करना बुरा माना जाता है. इस हगने के साथ मैंने हग डे पर वर्ड प्ले किया है मितरों. जाहिर है आप अब तक मुझे सौ गालियां दे चुके होंगे क्योंकि इन शब्दों के साथ घृणा जुड़ी हुई है.

बहरहाल, सोचिएगा इस बात पर कि जिन सरकारी अफसरों और संभ्रांत लोगों को गरीबों की दूसरी समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं होता वे उनके शौचालय बनाने की इतनी चिंता क्यों करते हैं. क्या खुले में शौच जाना रुक जाए तो समाज स्वच्छ हो जाएगा?

सोशल मीडिया पर कुछ ‘छंटे हुए बुद्धिजीवी’ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वाचिक पाखाने को छूट देना चाहते हैं. खुलेआम चुम्माचाटी को प्रेम का प्रतीक बताते हुए लोग कह रहे हैं कि 'किस' निजी चीज है. बिल्कुल. हम भी तो वही कह रहे हैं. किस निजी चीज है तो हगना भी निजी है. चुंबन के साथ-साथ सार्वजनिक स्थलों पर हगने की भी छूट क्रांतिकारियों को दी जाए. (अगेन हगना शब्द पढ़े-लिखों को बुरा लग सकता है आप उस हर जगह पर मलत्याग पढ़ें जहां मैंने हगना लिखा है)

वैसे, पाखाने से जुड़ी एक और बात. आपको याद होगा कि चांद पर अपोलो 11 को गए 50 साल हो गए हैं. नील आर्मस्ट्रांग के कदमों के निशान तो अब भी चांद पर हैं जिसमें कोई परिवर्तन नहीं आया होगा. काहे कि चांद पर न तो हवा है न अंधड़-बरसात.

लेकिन इस पदचिन्ह से भी बड़ी (और बदबूदार) निशानियां इंसान चांद पर छोड़ आया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, इंसानों ने छह अपोलो मिशनों से पाखानों से भरे 96 बैग चांद की राह (ऑर्बिट) में फेंके हैं और इनमें से कुछ चांद पर भी पड़े हैं. तो अंतरिक्ष में, इंसान की गैरमौजूदगी में भी उसकी निशानियां (पता नहीं अब किस रंग की होंगी, और बदबू तो खैर हवा ने होने से फैलती भी नहीं होगी, पर गू तो गू है भई.) उसके आने की गवाही चीख-चीखकर दे रही हैं.

चांद पर इब्न-ए-सफ़ी का लिखा सुंदर-सा शेर याद आ रहा है

चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
चाँद पर चाँदनी नहीं होती

इस शेर में आप चाहें तो ‘हुस्न’ लफ्ज को ‘पाखाने’ या ‘गू’ से बदलकर पढ़ सकते हैं और तब जाकर आपको मेरे लेख का ऊपर वाली बात शायराना अंदाज में समझ में आएगी.
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Published on February 12, 2025 10:23

December 20, 2024

वायरल मीम और रील का दौर मेहनती बच्चों के लिए अच्छा मौका है

इंटरनेट पर वायरल कंटेंट मेहनती लोगों के लिए राह आसान कर रहा है. यह किसी बात को कहने का एक तरीका है. मसलन, इंटरनेट में ऐसे लोग वायरल हो रहे हैं, जिनका असल जीवन में कहीं कोई मूल्य नहीं था. इसे आप शोहरत पाने के तरीके का लोकतंत्रीकरण भी कह सकते हैं.

पर लोकतंत्रीकरण इसका सिर्फ बाय-प्रोडक्ट है. असल है, बेइंतहा सस्तेपन की व्यापकता. अभी मेरे एक युवा साथी ने आज एक व्यक्ति का वीडियो दिखाया, और बताया कि यह आदमी 'बदो-बदी' नामक गीत को निहायत बेसुरे अंदाज में गाने वाला व्यक्ति काफी वायरल है.

ऐसे ही बेसुरे अंदाज में गाने वाले बहुत सारे लोग. ठुमके लगाकर नाचने वाले लोग काफी लोकप्रिय हो रहे हैं. यहां तक कोई बुराई नहीं है. बेसुरे लोगों को भी गाने का हक है. पर उनके अंदाज को पसंद करने वाले लोग भी हैं यह जानकर हैरत हुई. पर असल खतरा यहां नहीं है.

मेरी एक सखी हैं, पहले बाकायदा लेखक थीं. अब लिखने-पढ़ने का पूर्णतया त्याग करके रील बना रही हैं. उन्होंने मुझे इसकी सूचना दी तो मुझे धक्का-सा लगा. क्या वाकई ज्ञान आधारित सामग्री (कॉन्टेंट) आउट ऑफ डिमांड हो गया?

अभी एक और वायरल मीम दिखा जिसमें लगभग मादक सिसकारी मारती हुई महिला स्वर किसी से पूछता है, 'किस कलर की कमीज पहने हो.' हां आपने सही पढ़ा, कमीज ही. (या कुछ और?)

इसी तरह स्तनपान वाले वीडियो उछलकर आ रहे हैं, जिसमें बच्चों को दुग्धपान कराने की चिरंतर परंपरा पीछे है और पूरे कपड़े उतार कर शरीर उघाड़ देने का मकसद प्राथमिक. यह चहुंओर व्याप्त कंटेंट है.

खुलेआम अज्ञानता का प्रदर्शन करना आजकल फैशन है. पूरा देश आज मजे लेने के मूड में है. लोग मजे-मजे में रील बना रहे हैं और मजा लेने के लिए लोग देखते हैं. पर, सोशल मीडिया में इनके वायरल होने के अलावा, अन्य किन मंचों पर इनका इस्तेमाल हो सकता है? क्या असल जिंदगी में भी इनका कोई मूल्य है?

इसलिए कहता हूं आज जब ज्यादातर नौजवान रील्स देखने, बनाने में व्यस्त हैं. असली मेहनती बच्चे अपने लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित करें तो उनके लिए सफलता के मार्ग में बाधाएं कम ही आएंगी. रील्स के जरिए प्रसिद्ध हुए लोग एमएलए बन जाएंगे, पर वह मंत्री भी बनेंगे इसकी गारंटी नहीं है. 
जो लोग इस चलन से बचे रहेंगे, देश को चलाने का जिम्मा (सत्ता की बात नहीं कर रहा) उनके हाथों में ही आएगा.
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Published on December 20, 2024 09:11

November 21, 2024

घर बैठे नॉवेल लिखकर लाखों कमाने का वादा फरेब है भाई!

कोई आपको बरगलाए कि हिंदी में लिखकर लाखों कमा सकते हो और वह भी घर बैठे तो उसके बहकावे में नहीं आना है। कुछ कथित आला दरजे के लेखकों ने हिंदी पाठकों को ऐसा दिक किया है कि लोगों ने पढ़ना ही छोड़ दिया है। वैसे भी हिंदी का लेखक लेखन का काम पार्टटाइम ही करता है। और अगर होल टाइमर है तो अमूमन दलिद्दर ही होता है। 
आजतक हिंदी का कोई 'सर्टिफाइड साहित्यकार' किताब की कमाई से लखपति नहीं बना है। तो ऐसे किसी भी भ्रमजाल में फंसना नहीं है। है कि नहीं. 



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Published on November 21, 2024 08:29

November 20, 2024

फूहड़ हिंदी फिल्मों के दौर में सोंधी हवा का झोंकाः मेझियागन

मेइयाझागन में निर्देशक ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं जिनके जवाब आपको लगता है कि सदियों पहले मिल चुके हैं. मसलन, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके जन्मस्थान को आपका गृहनगर क्यों कहा जाता है?
ब्रोमांसः फिल्म मेझियागन के एक दृश्य में कार्ति और अरविंद स्वामी

सिंघम अगेन और भूलभुलैया-3 जैसी हिंदी फिल्में ऊब पैदा करती हैं. हाल में रिलीज कथित बड़ी हिंदी फिल्मों में नौ लेखक, कई सितारे और धूम-धड़ाका तो था, पर कहानी नहीं थी. ऐसी स्थिति में, कई दक्षिण भारतीय फिल्में हैं जो आपको पुरसुकून अंदाज में पूरे सिनेमाई व्याकरण के साथ किस्सागोई का मजा देती हैं.

कुछ वक्त पहले मैंने तमिल फिल्म कदैसी विवासायी के बारे में लिखा था (इस फिल्म ने झकझोर दिया था) और मलयालम फिल्म भ्रमयुगम ने अपने बेहतरीन ट्रीटमेंट से दिल छू लिया था. इसमें मम्मूटी अपने सधे अभिनय से दिल जीत ले गए. वैसे भी मलयालम में अडूर गोपालकृष्णन की फिल्मों ने मेरे मन में अलग ही छाप छोड़ रखी है.
बहरहाल, कुछ वक्त हुआ जब मैंने एक और तमिल फिल्म देखी. नाम है मेयाझागन (या मेझियागन?).

सिनेमा के मामले में अधिकांश फिल्मकार बड़े परदे के अनुभव की कहावत को सिद्ध करने के वास्ते कहानी के बड़े पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं. लेकिन मेझियागन फिल्म के निर्देशक सी प्रेम कुमार ने बारीक बातों और सूक्ष्म पलों को पकड़ा है. इस फिल्म ने जीवन के अंतरंग (ऊंह, वो वाला ‘अंतरंग’ नहीं) पल परदे पर उकेर दिए हैं. प्रेम कुमार पहले सिनेमैटोग्राफर थे और शायद इसी वजह से उनकी फिल्म के दृश्य एनिमेटेड स्टिल फोटोग्राफ्स की तरह दिखते हैं.

मेइयाझागन में निर्देशक ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं जिनके जवाब आपको लगता है कि सदियों पहले मिल चुके हैं. मसलन, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके जन्मस्थान को आपका गृहनगर क्यों कहा जाता है? मेइयाझागन की शुरुआत 1996 से होती है (ध्यान रहे, निर्देशक प्रेम कुमार की पहली फिल्म का नाम 96 था) जब एक युवा अरुणमोझी वर्मन उर्फ अरुल को एक ऐसे दर्द से गुजरना पड़ता है जिसे शायद ही कभी सेल्युलाइड पर कैद किया है. हिंदी तो छोड़ दीजिए, अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों में भी यह दर्द नहीं दिखेगा.

फिल्म के नायक अरुल की पैतृक संपत्ति पर धोखे से किया उनके कुछ रिश्तेदारों के कब्जे की बैक स्टोरी है जिसकी वजह से अरुल का परिवार शहर में रहने लगा है और वह भूले से भी अपने गांव का रुख नहीं करते. 1996 में उनके साथ यह घटना होती है और 2018 में जाकर अरुल को अपनी ममेरी बहन की शादी में गांव जाना होता है. वह इस यात्रा को संक्षिप्त रखना चाहते हैं विवाह में बहन को आशीर्वाद देकर रात को लौट आना चाहते हैं. लेकिन, शादी की रात को उनका परिचय एक युवा रिश्तेदार से होता है, जो अपना नाम नहीं बताता और अरुल उसका नाम याद नहीं कर पाते. बहरहाल, एक शहरी आदमी गांव जाकर अपनी जड़ो की तलाश करे यह प्लॉट निर्देशक के लिए लुभावना हो सकता था, इसकी बजाए अरुल वहां दिलचस्पी नहीं दिखाता.

कहानी की शुरुआत में, कुछ ऐसे सूत्र छोड़े गए हैं जो बाद में आकर अपनी अहमियत साबित करते हैं. मसलन, अरुल गांव छोड़ते वक्त एक साइकिल छोड़ आते हैं, और कहते हैं कि कोई इसका इस्तेमाल कर लेगा. वह साइकिल वाकई एक जिंदगी को सिरे से बदल देता है.

निर्देशक ने फिल्म के सेकेंड लीड को कई दफा फ्रेम पर कब्जा करने की छूट दी है. फिल्म में अरुल बने अरविंद स्वानी और कार्ति के अलावा अन्य किरदार गौण ही हैं. लेकिन लेखक ने बाकी किरदार भी ऐसे रचे हैं कि उन पर लंबी चर्चा हो सकती है. इन किरदारों के संपाद ऐसे हैं कि सहज लगते हैं. चाहे वह शादी के दौरान मिली एक महिला, जो कहती है कि अगर उसकी अरुल के शादी होती तो उसकी जिंदगी अलग होती. ऐसे बहुत सारे किरदार हैं, जो अपनी अलग छाप लेकर चलते हैं. छोटे दृश्य हैं जो किरदारों को उभारते हैं.

मेझियागन में कई दफा बैल और सांप के सहज इस्तेमाल से लगता है कि कहीं निर्देशक शिव की तरफ तो इशारा नहीं कर रहे!

पर असल चीज है कि फिल्म में मानवीय संबंध उकेरे गए हैं. हर फिल्म में रोमांस ही हो यह जरूरी तो नहीं. इस फिल्म में दो दूर के रिश्ते के भाइयों के बीच के प्रेम को सहजता से उकेरा गया है.

अरविंद स्वामी और कार्ति के किरदारों के बीच के रिश्ते को खूबसूरत बनते देखना वाकई एक बेहतरीन अनुभव है. यह फिल्म यकीनन अरविंद स्वामी के करियर में सबसे उम्दा अभिनय के लिए जानी जाएगी.

कार्ति का किरदार—जिसका कोई नाम नहीं—उसके मासूम, शरारती व्यवहार में एक निरंतरता है, जबकि अरुल के किरदार में अपने रिश्तेदार को ख़तरा मानने से लेकर धीरे-धीरे उसके स्नेही स्वभाव को अपनाने तक का इमोशनल आर्क है.

तो अगर आप हिंदी फिल्मों में दोहराव भरे कथानकों (कथा तो खैर होती ही नहीं) से ऊब गए हैं, तो साउथ का रुख करिए. आप निराश नहीं होंगे.
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Published on November 20, 2024 06:23

November 5, 2024

वेब सीरीज- वाइल्ड वेस्टर्न सिनेमा के जॉनर में 1883 कविता सरीखा है

मुझे अमेरिकन काऊ बॉयज, वाइल्ड वेस्टर्न फिल्में पसंद हैं. खासकर, ऐसी फिल्में जिनमें अमेरिकन रेल बिछाने का या उसकी यात्राओं के दृश्य हों. काऊ बॉयज फिल्मों में तो बहुत-सी फिल्में देख रखी हैं. बस बी ग्रेड वाली ही बची होंगी.

इसी तरह अमेरिकी गृहयुद्ध पर बनी, रेड इंडियन्स से झगड़ों पर बनी सीरीज और यहां तक कि वेस्ट वर्ल्ड नाम की साइ-फाइ वेब सीरीज भी देख डाली जो हॉटस्टार पर थी और अब वहां नहीं है.
1883 का एक दृश्य

कहने का गर्ज यह है कि मोटे तौर पर हॉलिवुड ने वेस्टर्न के नाम पर अच्छा और कूड़ा जो भी बनाया है, उससे मैं मोटे तौर पर परिचित हूं. चाहे वह 1930 के दशक में बनी स्टेजकोच हो या फिल्म संस्थानों में पाठ्यक्रम में शामिल ‘वन्स अपॉन ए टाइम इ द वेस्ट.’
ऐसी ही एक सीरीज है येलोस्टोन. और इसका प्रीक्वल है 1883.

और आज मैं इसी 1883 की बात करने वाला हूं, क्योंकि सिनेमा अपने-आप में एक पेंटिंग और कविता भी होती है. वाइल्ड वेस्ट की कहानियों में कविता! यह खोजना ही मूर्खता है. क्या आप मिथुन की उन फिल्मों में कविता या बढ़िया सिनेमा की उम्मीद कर सकते हैं जो उन्होंने 2 साल में 40 रिलीज के दौर में बनाए थे?

एल्सा के किरदार में इशाबेल मे 

80 फीसद वाइल्ड वेस्टर्न और काउ बॉयज फिल्में लाउड और मेलोड्रैमेटिक होती हैं. और जो काऊ बॉय नायकत्व, लार्जर दैन लाइफ छवि हॉलीवुड ने गढ़ी है 1883 के दस एपिसोड उसको किरिच-किरिच तोड़ डालते हैं.
असल में, अमेरिकन वेस्ट के इतिहास को इतना रोमांटिसाइज किया गया और उसके नायक इतना खब्ती और रफ दिखाया गया कि उसकी नकल हिंदुस्तान में भी की गई. फिरोज खान का अपीयरेंस देख लें या फिर सत्ते पर सत्ता का अमिताभ बच्चन का रेंच.

1883 के निर्देशक टेलर शेरिडन हैं. और 1883 में यूरोपीय अप्रवासियों की टेक्सास से ओरेगन की यात्रा की रुखड़े और क्रूर असलियत को सामने लाती है.

इसमें डटन परिवार के पूर्वजों की गाथा है (जिन्होंने यलोस्टोन सीरीज देखी है, वह जानते हैं कि वह डटन परिवार के रेंच की आधुनिक समय की कहानी है).
1883 के एक दृश्य में इसाबेल मे
 
बहरहाल, यलोस्टोन सीरीज के नायक के परदादा जेम्स डटन की यह कहानी है.

असल में, डटन परिवार एक सपना लेकर टेक्सास से ओरेगन जा रहा है. और साथ में जर्मन और स्लोवाक भाषा बोलने वाले दो दर्जन परिवार भी साथ में चल रहे हैं. डटन ने अपनी पत्नी को वादा किया है कि वह उसके लिए इतना ब ड़ा घर बनाएगा कि वह उस घर में खो जाएगी.

लेकिन वह घर कहां बनेगा यह बड़ा प्रश्न है. इसके लिए डटन को पश्चिम की ओर की यात्रा करनी है. असल में डटन, अमेरिकन सिविल वार में कॉनफेडरेट आर्मी में कैप्टन रहा है. और इसलिए वह टेक्सास के मार-दंगे और क्रूर समाज से दूर निकल जाना चाहता है.

और इस यात्रा में वह एक कारवां के साथ जुड़ जाता है. वह यूरोपीय अप्रवासियों की मदद करने वाले दो एंजेट्स कैप्टन और थॉमस की ग्रुप के साथ बढ़ता है.


यूरोपीय अप्रवासियों के पास अमेरिकी वेस्टर्न की दुनिय में उत्तरजीविता के बुनियादी कौशल नहीं हैं. न घुड़सवारी आती है, न बंदूक चलाना आता है. यहां तक कि शिकार को काटकर मांस पकाना भी नहीं. और फिर छुद्र निजी लालच भी हैं.
डटन परिवार की बेटी किशोरी है. पूरी कहानी कई दफा उसके वॉइस ओवर से आगे बढ़ती है और उसके वॉइस ओवर ने इस सीरीज को सिनेमाई कविता में ढाल दिया है. अपने एक वॉइस ओवर में एल्सा (इशाबेल मे) कहती है, “डेथ इज एवरीवेयर इन प्रेयरी. इन एवरी फॉर्म यू कैन इमैजिन ऐंड फ्रॉम ए फ्यू योर नाइटमेयर्स कुडनॉट मस्टर.”
उदासियों, दुख, विषाद और पीड़ा से भरी यात्रा के बीच एल्सा का अपीयरेंस बादलों में बिजली का तरह होता है. वह खूबसूरत हैं और कई दफा आलिया भट्ट सरीखी दिखती हैं. उनके गालों में भी भट्ट की ही तरह डिंपल पड़ते हैं.
इस कथा क्रम में पीड़ा और मृत्यु के साथ, प्रेम है. एल्सा को प्रेम होता है. वह मुस्कुराती है. वह प्रेम को स्वीकार करती है.

1883 में अपनी सेटिंग और इपने किरदारों के इमोशनल कर्व को कमाल तरीके से पेश करता है और इसमें पश्चिमी रुखाई के साथ साथ प्रेम के कोमल पल भी हैं.

मेरे जो मित्र अच्छा सिनेमा देखने के शौकीन हैं, और खासकर अगर अमेरिकन वेस्टर्न फिल्मे देखने में मजा आता है, उनके लिए 1883 सरप्राइज पैकेज की तरह है.
#cinema #wildwest #western #Webseries 
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Published on November 05, 2024 01:41