Manjit Thakur's Blog, page 16

December 14, 2018

कल्पित वास्तविकताएं ही इस युग का सच हैं.

कल्पित वास्तविकताएं क्या है? एक साझा मिथक. ये झूठ नहीं होते. इस साझा मिथक में विश्वास करते हुए हम करोड़ों की संख्या में आपसी सहयोग कर सकते हैं. भारतीय चुनावों के संदर्भों में आप इसे इंदिरा लहर, राम लहर, मोदी लहर, सत्ता विरोधी लहर की मिसालों में समझ सकते हैं. जब पूरा देश एक खास नेता या विषय की लहर की चपेट में होता है. आखिर यह लहर पैदा कैसे होती है? क्या यह लहर भावनात्मक मुद्दों पर नहीं होती? इंदिरा लहर क्या उनकी हत्या से जुड़ी सहानुभूति से नहीं उपजी थी? या राम लहर एक खास स्थान पर मंदिर बनाने के भावुकता पर आधारित नहीं थी?

हम और आप, बल्कि दुनिया के हर हिस्से में, हर समाज के पास अपने-अपने मिथक हैं. हर समाजे के अपने ईश्वर हैं. सिर्फ धर्मों के ही नहीं, बल्कि विभिन्न जनजातीय समुदायों के भी. पर जरा सोचिए कि एक होमोसेपियंस (यानी हम बुद्धिमान इंसान) जो शुरू में चिंपाजी जैसे ही थे, आखिर इन मिथकों की कल्पना कैसे कर सके? ईश्वर भी उन मिथकों में से एक है. पर थोड़ी देर के लिए अन्य बातों पर गौर कीजिए. आखिर जंगलों में भोजन खोजने के लिए भटकने वाले खाद्य संग्राहक, और आदिम खेतिहर लोग हजारों बाशिंदों से भरो शहरों और करोड़ो की आबादी वाले साम्राज्यों की स्थापना कैसे कर सके?

यह भी सोचिए कि आखिर, हम भारतीयों को कौन सी एक चीज है जो बतौर राष्ट्र एक सूत्र में बांधती है? या ब्रिटिशों को? या इन इस्लामिक जेहादियों को, जो पूरी दुनिया को दारुल-उलूम में बदलना चाहते हैं?

यह मैं ईश्वर के संदर्भ में नहीं, बल्कि विकासवाद के संदर्भ में पूछ रहा हूं.

असल में इसका रहस्य कल्पना के प्रकट होने में है. एक साझा मिथक में विश्वास करते हुए हम करोड़ों की संख्या में आपसी सहयोग कर सकते हैं. भारतीय चुनावों के संदर्भों में आप इसे इंदिरा लहर, राम लहर, मोदी लहर, सत्ता विरोधी लहर की मिसालों में समझ सकते हैं. जब पूरा देश एक खास नेता या विषय की लहर की चपेट में होता है. आखिर यह लहर पैदा कैसे होती है? क्या यह लहर भावनात्मक मुद्दों पर नहीं होती? इंदिरा लहर क्या उनकी हत्या से जुड़ी सहानुभूति से नहीं उपजी थी? या राम लहर एक खास स्थान पर मंदिर बनाने के भावुकता पर आधारित नहीं थी?

असल में बड़े पैमाने पर इंसानी सहयोग की जड़ें उन साझा मिथकों में फैली होती हैं, जिनका अस्तित्व सिर्फ समाज की सामूहिक कल्पना में होता है. दो मुस्लिम, या कैथोलिक इसाई कभी एक दूसरे से मिले भी न हों पर धर्मयुद्ध में एक साथ जा सकते हैं. अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए महाराष्ट्र और बिहार के कारसेवक हाथ मिला सकते हैं. या केरल बाढ़ राहत के लिए चंदा दे सकते हैं. क्योंकि इन दो इंसानों को विश्वास होता है कि ईश्वर ने इंसान के रूप में, या ईश्वर के पुत्र के रूप में अवतार लिया था और हमारे पापों से बचाने के लिए खुद को सूली पर लटका लिया था या केरल भी उनके राष्ट्र का एक हिस्सा है.

राष्ट्र राज्यों की कल्पना राष्ट्रीय मिथकों में फैली हैं. दो भारतीय जो आपस में कभी नहीं मिले, वो पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में एकदूसरे की जान बचाने के लिए खद को जोखिम में डाल सकते हैं. क्योंकि दोनों को भारतीय राष्ट्र, भारत माता और इसके तिरंगे में विश्वास है. 1947 के पहले यह स्थिति अकल्पनीय होती. जबकि 1965 में पूर्वी पाकिस्तान के लोग भारत के दुश्मन थे और 1971 में यह स्थिति बदल गई. इसी तरह न्यायिक व्यवस्था भी है. न्याय भी सामाजिक मिथकों का पारंपरिक संकलन ही है. डेढ़ हजार साल पहले हम्बूराबी के न्याय, 1776 के अमेरिका के स्वतंत्रता की घोषणा वाले न्याय और भारतीय संविधान के निर्माण में न्याय की दृष्टि बदली हुई है क्योंकि हमारे मिथक बदल गए.

हालांकि कुछ भी हो, इन सबका अस्तित्व उन कहानियों के बाहर नहीं होता है, जो लोगों ने गढ़ी होती है. जिन्हें वे एक दूसरे को सुनाते हैं. मनुष्यों की साझा कल्पना से बाहर विश्व में कोई और देवता नहीं है, कोई राष्ट्र, कोई पैसा, कोई मानव अधिकार, कोई कानून या न्याय नहीं है.

यह सब किस्सा है. कारगर किस्से कहना आसान नहीं होता. मुश्किल किस्सा सुनाने में नहीं, बल्कि उस पर विश्वास करने के लिए हर किसी को राजी करने में होता है. ज्यादातर इतिहास इस प्रश्न के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता हैः ईश्वर, या राष्ट्रों, या सीमित दायित्वों वाली कंपनियों के बारे में गढ़े गए खास किस्सों पर विश्वास करने के लिए कोई व्यक्ति लाखों लोगों को किस तरह राजी करता है? जब भी इसमें कामयाबी मिलती है तो सेपियंस को अपरिमित शक्ति प्रदान करती है, क्योंकि यह लाखों अजनबियों को आपस मे सहयोग करने तथा साझा लक्ष्यों की दिशा में काम करने के लिए सक्षम बनाती है.

जरा यह कल्पना कीजिए कि अगर हम सिर्फ नदियों, वृक्षों, शेरों या उन्हीं जैसी सिर्फ वास्तविक चीजों पर बात कर सकते तो हमारे लिए राज्यों, राष्ट्रों और वैधानिक व्यवस्था का निर्माण करना कितना मुश्किल हो जाता.

किस्सों के नेटवर्क के माध्यम से लोग जिस तरह की चीजें रचते हैं, उन्हीं को कल्पना, सामाजिक निर्मितियों, या कल्पित वास्तविकताओं का नाम दिया जाता है. कल्पित वास्तविकताएं झूठ नहीं हैं. झूठ मैं तब कह सकता हूं कि दिल्ली में एक शेर इंडिया गेट के पास है. जबकि मैं जानता हूं कि इंडिया गेट पर कोई शेर नहीं है. झूठ में कोई विशेष बात नहीं होती है.

झूठ से उलट, कल्पित वास्तविकता एक ऐसी चीज होती है जिस पर हर कोई भरोसा करता है. जब तक यह सामूहिक विस्वास बना रहता है, तब तक यह कल्पित वास्तविकता संसार में अपने बल का प्रयोग करती रहती है. हम सब वैदिक देवताओं समेत नरसिंह और वराह जैसे अवतारों के अस्तित्व में यकीन करते हैं. कुछ ओझा धूर्त होते हैं लेकिन अधिकतर लोग ऐसे होते हैं जो सच्चे मन से देवों और दानवों के अस्तित्व में यकीन करते हैं.

संज्ञानात्मक क्रांति के बाद सेपियंस लगातार दोहरी वास्तविकता में रह रहे हैं. समझिए कि हम पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण मानते हैं लेकिन यह तो सिर्फ धरती के संदर्भ में है. अगर हम अंतरिक्ष में चले जाएं तो यह दिशाएं किधर जाएंगी? नदियों, वृक्षों, शेरों की वस्तुनिष्ठ वास्तविकता, और दूसरी तरफ देवताओं, राष्ट्रों और कंपनियों की कल्पित वास्तविकता. समय के साथ कल्पित वास्तविकताएं शक्तिशाली होती गईं. यहां तक कि वस्तुनिष्ठ  वास्तविकताओं का जीवन कल्पित वास्तविकताओं की कृपा पर निर्भर रहने लगा है.

जारी रहेगा...

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Published on December 14, 2018 09:54

December 12, 2018

राजपूत, गुर्जर और जाट के गुस्से ने ढहाया महारानी का किला

अगर पार्टी ने वसुंधरा का साथ दिया होता तो तस्वीर थोड़ी और बेहतर होती. मोदी अपनी जनसभाओं में कांग्रेस, राहुल, नीम कोटेड यूरिया की बात करते रहे, लेकिन वसुंधरा का नाम लेने से बचते रहे. अमित शाह ने भरे मंच से कहा था कि वसुंधरा आपने काम तो किया है, लेकिन अपना काम बता नहीं पाईं.

राजस्थान में कुल 200 सीटें हैं, इसमें से 199 सीटों पर चुनाव हुए थे. एक उम्मीदवार की मौत हो जाने के कारण 1 सीट पर मतदान नहीं कराया जा सका था.

आंकड़ों के मुताबिक कांग्रेस और उसके साथी 101 सीटें जीत गए हैं. वहीं, बीजेपी 75 सीटों पर आगे चल रही है. राजस्थान में 26 सीटों पर निर्दलीय और छोटी पार्टियों के उम्मीदवार आगे हैं जिससे तय है कि भाजपा से नाराजगी वाले सारे वोट कांग्रेस को ट्रांसफर नहीं हुए हैं. अगर ऐसा होता तो कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिल सकता था.

दूसरा, ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि राजस्थान में भाजपा का सूपड़ा साफ हो जाएगा, वैसा भी होता नहीं दिख रहा है. रुझानों को देखकर तो ऐसा लग रहा है कि अगर पार्टी ने वसुंधरा का साथ दिया होता तो तस्वीर थोड़ी और बेहतर होती. मोदी अपनी जनसभाओं में कांग्रेस, राहुल, नीम कोटेड यूरिया की बात करते रहे, लेकिन वसुंधरा का नाम लेने से बचते रहे.

अमित शाह ने तो भरे मंच से कह दिया था कि वसुंधरा आपने काम किया है, लेकिन अपना काम बता नहीं पाईं. राजस्थान में कांग्रेस को सीटें भले ही ज्यादा मिलती दिख रही हों, लेकिन दोनों के वोट प्रतिशत में मामूली अंतर है. कांग्रेस को 39.2 फीसदी मत मिले हैं वहीं भाजपा को 38.8 फीसदी वोट मिले हैं.

तो फिर भाजपा की संभावित हार की वजहें क्या रही हैं?

वसुंधरा राजे और भाजपा ने राजस्थान में पिछले चार साल में अपने वोट बैंक (जाट, गुर्जर और राजपूत) को हर तरह से दुलारकर रखने की कोशिश की. पर यह तीनों ही जातियां (जो राजस्थान की आबादी में करीबन 20 फीसदी हैं और जिनका असर पड़ोसी राज्यों हरियाणा और मध्य प्रदेश में भी है) भाजपा से नाराज हैं. सचिन पायलट के आने से गुर्जर समुदाय भी भाजपा से दूर हो रहा है.

जाटः मारवाड़ क्षेत्र समेत राज्य के 100 विधानसभा सीटों पर जाटों का असर है. यह समुदाय भाजपा से गुस्सा है, क्योंकि पार्टी में इनकी कोई खास जगह नहीं है. किसान होने की वजह से कृषि संकट भी एक सबब है. राजपूतों के मुकाबले कम तवज्जो मिलने से भी इस समुदाय में नाराजगी थी.

राजपूतः यह समुदाय अमूमन भाजपा का वफादार रहा है. हर विधानसभा में 15-17 राजपूत भाजपा के टिकट पर विधायक बनते रहे हैं. 2013 में कुल 27 राजपूत विधायकों में से 24 भाजपा से थे. पर इस जाति में बेचैनी है क्योंकि राजपूत नेताओं के खिलाफ मुकदमे किए गए. गैंगस्टर आनंदपाल की मुठभेड़ में मौत के बाद भी इस समुदाय में रोष है और करणी सेना पद्मावत मसले के बाद से सरकार से नाराज है.

जाटों के साथ राजपूतों का संघर्ष भी चल रहा है. भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे जसवंत सिंह की उपेक्षा और मानवेंद्र सिंह का कांग्रेस में जाना भी बड़ा फैक्टर है. राजपूत समुदाय करीब 100 विधानसभा सीटों पर मौजूद है.

गुर्जरः 50 सीटों पर इस समुदाय की मौजूदगी है. आरक्षण के मुद्दे पर गूजर भाजपा से नाराज थे. पुलिस फायरिंग और आपसी संघर्ष में 2007 के बाद से 70 से अधिक गूजर मारे गए हैं. सचिन पायलट को भावी मुख्यमंत्री के रूप में संभावना से कांग्रेस की तरफ इनका चुनाव अभियान में झुकाव बढ़ता देखा गया था. इन सारे फैक्टर भाजपा की संभावनाओं में पलीता लगाने वाले साबित हुए हैं.

चुनावी लिहाज से राजस्थान को मोटे तौर पांच क्षेत्रों में बांटा जाता है.

इनमें से एक तो जयपुर ही है. इस क्षेत्र में 19 सीटें हैं जिनमें शाम 6 बजे तक के रुझानों के मुताबिक, भाजपा के पास 6, कांग्रेस के पास 11 और अन्य के पास 2 सीटें जाती दिख रही हैं.

दूसरे चुनावी क्षेत्र मध्य राजस्थान में भी तीन इलाके हैं. धूंधड़ इलाके में अजमेर, सवाई माधोपुर, करौली, टोंक और दौसा 5 जिले हैं. इस इलाके में मीणा फैक्टर प्रभावी है. ऐसा माना जाता है कि मीणाओं का झुकाव भाजपा की तरफ था लेकिन इस इलाके में भाजपा को 8, कांग्रेस को 13 और अन्य को 3 सीटों पर बढ़त/जीत हासिल हुई है. ऐसे में आंकड़े कुछ और ही कहानी बयान करते हैं.

मध्य राजस्थान के मत्स्यांचल में 3 जिले हैं, भरतपुर, अलवर और धौलपुर. इनमें 22 सीटें हैं. यह इलाका सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का इलाका है. मीणा फैक्टर भी यहां काम करता है. फिर भी, यहां भाजपा 4, कांग्रेस 10 और अन्य 7 सीटों पर आगे है. तो इसका अर्थ है कि मंदिर मुद्दा यहां चला नहीं.

तीसरे क्षेत्र हाड़ौती में 4 जिले हैं, जिनमें कोटी बूंदी बाराँ और झालावाड़ हैं. इसमें 17 सीटें हैं और कांग्रेस बनाम भाजपा के सीधी टक्कर वाली 13 सीटें हैं, 4 सीटें बहुकोणीय मुकाबले वाली रही हैं. लेकिन भाजपा 9 और कांग्रेस 8 सीटों पर जीतती दिख रही है. यानी बाकी को कोण वाली पार्टियों को कुछ खास हासिल नहीं हुआ है.

तीसरा चुनावी इलाका, दक्षिणी राजस्थान है, जिसे मेवाड़ भी कहा जाता है.

यह इलाका हर पांच साल पर जनादेश बदल देता है. माना जाता है कि जो पार्टी मेवाड़ जीत लेती है वही सरकार बनाती है. खासकर सालुम्बर सीट खास सलिए है क्योंकि 1977 से जो पार्टी यह सीट जीतती है सरकार उसी की बनती आई है. मेवाड़ में 7 जिले हैं और 35 सीटें हैं. इनमें उदयपुर, डुंगरपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा के इलाके हैं. यहां 27 सीटों पर सीधी टक्कर थी. भीलवाड़ा सीपी जोशी के प्रभाव का इलाका है. 2009 में यहां भाजपा 9 और कांग्रेस 24 सीटों पर जीती थी. लेकिन इस बार भाजपा 19, कांग्रेस 13, अन्य 3 सीटों पर जीतती नजर आ रही है.

पश्चिमी राजस्थान का इलाका कांग्रेस के दिग्गज नेता अशोक गहलोत का है. यहां किसी तीसरी सियासी पार्टी का कोई वजूद नहीं है. कुल 43 सीटें इस इलाके में हैं जिनमें से 33 सीटों पर सीधी टक्कर थी. इस इलाके में ओबीसी और जाट वोट बेहद निर्णायक होते हैं. इसके अलावा मेघवाल, राजपुरोहित और राजपूतों का वोट भी अहम होता है.

इस इलाके के तहत जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, नागौर, जालौर, पाली और सिरोही जिले आते हैं. 2008 में भाजपा को 19 और कांग्रेस को 20 सीटें मिली थीं. अन्य को 4 सीटें हासिल हुई थीं. लेकिन इस बार 2018 में भाजपा को 15, कांग्रेस को 26 और अन्य को 3 सीटें मिलती दिख रही हैं.

उत्तरी राजस्थान में शेखावटी और बीकानेर दो जोन हैं. शेखावटी में सीकर, झूंझनूं और चुरू जिले हैं जिनमें 21 सीटें हैं. इस जोन में कांग्रेस को 14, भाजपा को 5 और अन्य को 2 सीटें मिलती दिख रही हैं.

बीकानेर जोन में बीकानेर, गंगानगर और हनुमानगढ़ जिलों में कुल 18 सीटें हैं. यहां भाजपा को 9, कांग्रेस को 6 और अन्य को 2 सीटें मिलती दिख रही हैं.

इस इलाके के जाट वोटबैंक का कांग्रेस की तरफ झुकाव था जबकि राजपूत अमूमन भाजपा को वोट करते रहे है.

वैसे, राजस्थान में अब बहस यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बनेंगे या सचिन पायलट, लेकिन कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, सीटों की संख्या के मद्देनजर जादूगर कहे जाने वाले गहलोत को ही कमानी सौंपी जा सकती है. युवा सचिन थोड़ा और इंतजार करने के लिए कहे जा सकते हैं.

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Published on December 12, 2018 08:05

November 23, 2018

क्या सारे मनुष्य आनुवंशिक रूप से एक हैं या हमारी नस्लें अलग हैं?

आज की दुनिया में मौजूद सभी मनुष्य होमो सेपियन्स (आत्मश्लाघा से ग्रस्त हम लोगों ने खुद को होमो जीनस से ताल्लुक रखने वाले सेपियन्स यानी बुद्धिमान मान लिया है) हैं. लेकिन इसके अलावा और भी आदिम प्रजातियां रही हैं जो हम जैसी थीं.

25 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका में वानरों का प्रारंभिक जीनस ऑस्ट्रालोपीथिकस था. मजबूत कद-काठी के निएंडरथल्स थे. इंडोनेशिया के होमो सोलोऐंसिस थे. इसके अलावा होमो रुडोल्फेंसिस, होमो एर्गास्टर (कामकाजी मनुष्य) और सीधे खड़े होने वाले होमो इरेक्टस थे. अमूमन भ्रांतिवश इन सबको एक ही सीधी वंशावली के पूर्वज मान लिया जाता है, जिससे हम विकसित हुए. (मनु-शतरूपा, आदम-हव्वा, एडम-ईव वाले प्लीज इस पोस्ट को नजरअंदाज करें)

पाठ्यपुस्तकों में अभी तक माना जाता है कि एर्गास्टर ने इरेक्टस को जन्म दिया, इरेक्टस ने निएंडरथल्स को और फिर निएंडरथल्स से हम लोग हुए. यह एकरैखीय मॉडल इस गलत धारणा को जन्म देता है कि किसी खास क्षण में किसी एक ही किस्म के मनुष्य पृथ्वी रहते थे.

तो फिर उनका क्या हुआ? इस बारे में दो परस्पर विरोधी सिद्धांत है या ठीक-ठीक कहें तो अनुमान हैं. पहला है संकरण सिद्धांत (इंटरब्रीडिंग थियरी) जो आकर्षण, सेक्स और दो प्रजातियों के आपस में घुलने-मिलने की कहानी है. जैसे ही अफ्रीका से आए लोग दुनिया में फैले (कैसे, यह अगली किसी पोस्ट में) उन्होंने दूसरी मनुष्य आबादियों के साथ मिलकर प्रजनन किया और आज के लोग इसी संकरण का नतीजा हैं.

इसके उलट, प्रतिस्थापन सिद्धांत (रिप्लेसमेंट थियरी) बिलकुल अलहदा कहानी कहता है--असामंजस्य, विकर्षण और शायद जाति संहार की कहानी. इस अनुमान के मुताबिक, सेपियन्स और दूसरे मानव प्रजातियों की शारीरिक रचनाएं भिन्न थीं, संभावना है कि इनके सहवास के ढंग और शारीरिक गंध भी अलग रही होगी. अगर एक निएंडरथल जूलिएट और सेपिसन्स रोमियो के बीच इश्क़ भी हो जाता तो वे जननक्षम बच्चे पैदा नहीं कर सकते थे. दोनों आबादियां पूरी तरह विलग बनी रहीं और निएंडरथल या तो मार दिए गए या मर गए और उनके जीन भी उन्हीं के साथ मर गए. यानी सेपियन्स ने पिछली तमाम प्रजातियों की जगह ले ली. इस तरह आज के हम सब मनुष्यों का उद्गम पूरी तरह पूर्वी अफ्रीका में आज से 70 हजार साल पहले हुआ.

लेकिन अगर प्रतिस्थापन सिद्धांत सही है तो हम सब जिंदा लोगों का आनुवंशिक वजन एक जैसा है और इसतरह नस्लीय रूप से भेदभाव गलत ठहरता है. लेकिन अगर संकरण सिद्धांत सही है तो अफ्रीकियों, यूरोपियनों और एशियाईयों के बीच हजारों साल पुराने आनुवंशिक भेद हैं. यह राजनैतिक डायनामाइट है, जो विस्फोटक नस्लभेदी सिद्धांतों के लिए पर्याप्त बारूद मुहैया करा सकता है.


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Published on November 23, 2018 09:08

November 15, 2018

राजनीतिक पार्टियों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती सरकार?

अभी हाल ही में एक मीम आया था, जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों से चंदा मांगते दिखते थे और बाद में वेलकम-2 का एक सीन और परेश रावल का एक संदे्श आता है. यह मीम अरविंद केजरीवाल की हंसी उड़ाने के लिए था. और कामयाब रहा था. 

पर आपको और हमें, सोचना चाहिए कि आखिर राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, उनका खर्च कैसे चलता है? आपने कभी किसी पार्टी को चंदा दिया है? कितना दिया है? चुनावों पर उम्मीदवार और सियासी दल कितना खर्च करते है? जितना करते हैं उतना आपको बताते है और क्या वह चुनाव आयोग की तय सीमा के भीतर ही होता है? और अगर आपके पसंदीदा दल के प्रत्याशी तय स्तर से अधिक खर्च करते हैं (जो करते ही हैं) तो क्या वह भ्रष्टाचार में आएगा? प्रत्याशी जितनी रकम खर्च करते हैं वह चुनाव बाद उन्हें वापस कैसे मिलता है? और आपके मुहल्ले को नेता, जो दिन भर किसी नेता के आगे-पीछे घूमता रहता है उसके घर का खर्च कौन चलाता है?

अभी चार महीनों के बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में चुनाव प्रक्रिया चल रही है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले चुनावी वादा किया था, न खाऊंगा न खाने दूंगा. ऐसा नहीं कि सरकार ने शुचिता के दायरे में राजनीतिक दलों को लाने की कोशिश नहीं की, पर प्रयास नाकाफी रहे. सरकार के हालिया प्रयासों के बावजूद भारत में चुनावी चंदा अब भी अपारदर्शी और काले धन से जुड़ी कवायद बना हुआ है. इसकी वजह से चुनाव सुधारों की प्रक्रिया बेअसर दिखती है.

अभी आने वाले लोकसभा चुनाव में अनुमान लगाया जा रहा है कि 50 से 60 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे. यह खर्च 2014 में कोई 35,000 करोड़ रु. था. जबकि हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 9.5 से 10 हजार करोड़ रु. खर्च हुआ. 2013 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में इसकी ठीक आधी रकम खर्च हुई थी. 

जरा ध्यान दीजिए कि राजनैतिक पार्टियां चंदा कैसे जुटाती हैं. आमतौर पर माना जाता है कि स्वैच्छिक दान, क्राउड फंडिंग (आपने कभी दिया? मैंने तो नहीं दिया) कूपन बेचना, पार्टी का साहित्य बेचना (उफ) सदस्यता अभियान (कितनी रकम लगती है पता कीजिए) और कॉर्पोरेट चंदे से पार्टियां पैसे जुटाती हैं. 

निर्वाचन आयोग के नियमों के मुताबिक, पार्टियां 2000 रु. से अधिक कैश नहीं ले सकतीं. इससे ज्यादा चंदे का ब्योरा रखना जरूरी है. ज्यादातर पार्टियां 2000 रु. से ऊपर की रकम को 2000 रु. में बांटकर नियम का मखौल उड़ाती हैं क्योंकि 2000 रु. तक के दानदाता का नाम बताना जरूरी नहीं होता. एक जरूरी बात है कि स्थानीय और ठेकेदार नकद और अन्य सुविधाएं सीधे प्रत्याशी को देते हैं न कि पार्टी को.

कंपनियां चुनावी बॉन्ड या चुनाव ट्रस्ट की मार्फत सीधे चंदा दे सकती हैं, दानदाता के लिए यह बताना जरूरी नहीं है चंदा कि पार्टी को दिया, पार्टियों के लिए भी किससे चंदा लिया यह जाहिर करना जरूरी नहीं है.

तो अब यह भी जान लीजिए कि सियासी दल पैसे को खर्च कहां करती हैं. दल, पार्टी और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में, चुनावी रैली, खाना, परिवहन, और ठहरने में, कार्यकर्ताओं को तनख्वाह देने में, प्रिंट, डिजिटल और टीवी में विज्ञापन देने में खर्च करते हैं. चुनाव के दौरान प्रत्याशी नकद, सोना, शराब और अन्य चीजें भी बांटते हैं. मसलन फोन, टीवी. फ्रिज वगैरह. नया तरीका लोगों के मोबाइल रिचार्ज कराना और बिल भरना भी है. अब आप बताएं कि यह किसी एजेंसी की पकड़ में नहीं आएगा.

मोदी सरकार के उपाय

नरेंद्र मोदी सार्वजनिक जीवन में शुचिता का समर्थन करते रहे हों, पर उनकी सरकार के उपायो से भी यह शुचिता आई नहीं है. मसलन, सरकार ने पार्टियों द्वारा बेनामी नकद चंदे की सीमा पहले के 20,000 रु. से घटाकर 2,000 रु कर दी लेकिन नकद बेनामी चंदा लेने के लिए पार्टियों के लिए एक सीमा तय किए बगैर यह उपाय किसी काम का नहीं है.

पहले विदेशों से या विदेशी कंपनियों से चंदा लेना अपराध के दायरे में था. कांग्रेस और भाजपा दोनों पर विदेशों से धन लेने के आरोप थे. मोदी सरकार ने 1976 के विदेशी चंदा नियमन कानून में संशोधन कर दिया है जिससे राजनीतिक दलों के विदेशों से मिलने वाले चंदे का जायज बना दिया गया. यानी 1976 के बाद से राजनैतिक पार्टियों के चंदे की जांच नहीं की जा सकती. राजनैतिक दल अब विदेशी कंपनियों से चंदा ले पाएंगे. लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इससे दूसरे देश हमारे चुनावों में दखल देने लायक हो जाएंगे? 

शायद भारतीय चुनाव अभी तक विदेशी असरात से बचा रहा है, लेकिन चुनावों पर कॉर्पोरेट के असर से इनकार नहीं किया जा सकता. पार्टियों को ज्ञात स्रोतों से मिले चंदे में 2012 से 2016 के बीच कॉर्पोरेट चंदा कुल प्राप्त रकम का 89 फीसदी है.

मोदी सरकार ने 2017 में कॉर्पोरेट चंदे में कंपनी के तीन साल के फायदे के 7.5 फीसदी की सीमा को हटा दिया. कंपनी को अपने बही-खाते में इस चंदे का जिक्र करने की अनिवार्यता भी हटा दी गई.  हटाने से पार्टियों के लिए बोगस कंपनियों के जरिए काला धन लेना आसान हो जाएगा. लग तो ऐसा रहा है कि यह प्रावधान फर्जी कंपनियों के जरिए काले धन को खपाने का एक चोर दरवाजा है.

कुल मिलाकर राजनैतिक शुचिता को लेकर भाजपा से लेकर तमाम दलों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसको लेकर भी एक आंकड़ा है, 2016-17 में छह बड़ी राजनैतिक पार्टियों के कुल चुनावी चंदे का बेनामी स्रोतो से आया हिस्सा 46 फीसदी है. समझ में नहीं आता कि अगर सरकार वाक़ई पारदर्शिता लाना चाहती है तो सियासी दलों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती?

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Published on November 15, 2018 08:42

November 8, 2018

दीवाली-होली का विरोध महज हिंदुफोबिया है

 सत्ताओं के पास आम आदमी को लड़ाने के लिए जब भूगोल नहीं बचता, तो वह इतिहास के नाम पर लड़ाता है. द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल कमोबेश स्थिर हो गया है. इसलिए सत्ताओं के पास हमने लड़ाने के लिए कोई चारा नहीं, सिवाए इतिहास के. इसलिए आने वाले संघर्ष अस्मिताओं के होंगे.

''उमराव जान का फ़ैज़ाबाद अब अयोध्या कहलाया जायेगा...हिंदुस्तान की रगों में सांप्रदायिकता का ज़हर भरकर, सैकडों साल पुरानी मुस्लिम विरासत को तबाह करने की ये साज़िश कामयाब नहीं होगी... ‪शहरों के नाम बदलने से तारीख़ नहीं मिटा करती. ‪हिंदुस्तान जितना हिंदू है, उतना मुस्लिम भी है.''

फेसबुक पर यह स्टेटस एक मशहूर मुस्लिम महिला एंकर और पत्रकार न लिखा. मुझे मुस्लिम नहीं लिखना चाहिए था, पर उनका यह पोस्ट वाकई मुस्लिम विरासत के लिए था. एकपक्षीय़ था इसलिए लिखना पड़ा. बहरहाल, मुझे भी शहरों, नदियों के नाम बदलने पर दिक्कत थी. लेकिन मेरी दिक्कत के तर्क अलग थे. मसलन मैं चाहता हूं कि कोलकाता का नाम भले ही लंदन कर दिया जाए, लेकिन फिर उसके साथ विकास के तमाम काम किए जाएं. हमारे मधुबनी का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया जाए पर वहां तरक्की भी हो.

शहरों और राजधानियों के नाम तय करना हमेशा सत्ताधारी पक्ष के हिस्से में होता है. पहले भी नाम सियासी वजहों से बदले गए थे. मसलन कनॉट प्लेस का राजीव चौक. बंबई का मुम्बई और मद्रास का चेन्नै. अब भी सियासी वजहों से बदले जा रहे हैं. आपके मन की सरकार आए तो वापस अय़ोध्या को फैजाबाद, प्रयागराज को इलाहाबाद कर दीजिएगा. 
यकीन कीजिए, रोटी की चिंता करने वाले लोगों को बदलते नामों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आपको पड़ेगा. जिनके लिए धर्म और दीन रोटी से ऊपर है, उनको उस विरासत की चिंता होगी. आप जैसों के स्टेटस से ही किसी गिरिराज सिंह को दहाड़ने का मौका मिलता है कि इनको पाकिस्तान भेजो. भारतीय संस्कृति की जो दुहाई आप दे रही हैं न, वह सिर्फ एक संप्रदाय की विरासत की बात नहीं करता. जैसा कि फैजाबाद के नाम पर आपको एक नगरवधू का इतिहास भर दिखा.

जैसा कि ऊपर के उद्धृत पोस्ट में, फैज़ाबाद का नाम अयोध्या पर उक्त एंकर को कष्ट हुआ, और उन्हें लगा कि यह सैकड़ों साल की मुस्लिम विरासत को तबाह करने की साजिश है. मोहतरमा, आपको पुराने नाम बदलने पर दिक्कत है, तो आप यह तो मानेंगी कि फैजाबाद कोई नया शहर नहीं था. अयोध्या उससे पुराना मामला है. (खुदाई में एएसआइ कह चुका है) तो फैजाबाद भी किसी को बदलकर रखा गया था.

और जिस तारीख पर इतना नाज है न आपको, भारत में वह हजार साल पुरानी ही है. आपकी ही बात, अयोध्या का नाम फैजाबाद रखने से उसका इतिहास नहीं बदल गया. वैसे भी हिंदुस्तान नाम का यह देश ही नहीं है. यह भारत दैट इज इंडिया है.

आप काफी विद्वान हैं, पर पूर्वाग्रहग्रस्त लग रही हैं. आप जैसे विद्वानों की वजह से खीजे हुए हिंदुओं ने कल दिल्ली में रिकॉर्ड आतिशबाजी की. मान लीजिए कि यह हिंदुओं की गुस्सैल प्रतिक्रिया थी. मुझे जैसे इंसान ने, जिसने करगिल के युद्ध के बाद आतिशबाजी बंद कर थी, कल तय समय सीमा में ही सही, खूब पटाखे छुड़ाए. पता है क्यों? क्योंकि सेकुलर जमात की न्यायिक सक्रियता एकपक्षीय है. दीवाली पर प्रदूषण सूझता है. होली पर पानी की कमी दिखती है.

आपको तो पता भी नहीं होगा कि जिस विदर्भ में पानी की कमी की वजह से किसान रोजाना आत्महत्य़ा कर रहे हैं वहां सरकार ने 47 नए तापबिजली घरों के निर्माण को मंजूरी दी है. पहले ही वहां बहुत सारे तापबिजलीघर हैं. ताप बिजलीघरों में एक मेगावॉट बिजली बनाने के लिए करीबन 7 क्यूबिक मीटर पानी खर्च होता है. यानी, ताप बिजलीघरों का हर 100 मेगावॉट सालाना उत्पादन पर करीबन 39.2 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी का खर्च है. देश भर में 1,17,500 मेगावॉट के कोयला आधारित ताप बिजलीघरों को पर्यावरणीय मंजूरी दे दी गई है. इतनी मात्रा में बिजली पैदा करने के लिए 460.8 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी खर्च होगा. इतने पानी से 920,000 हेक्टेयर खेतों की सिंचाई की जा सकती है, या 8.4 करोड़ लोगों की सालभर की पानी की जरूरते पूरी की जा सकती हैं.

होली पर पानी की बचत का ज्ञान तो घर में जेट पंप से कार धोने वाले भी देने लगते हैं. लगता है देश में होली की वजह से ही सूखा पड़ता है. इसे सेकुलरिज्म नहीं, हिंदुफोबिया कहते हैं. एसी में बैठकर हमें कार्बनफुट प्रिंट का ज्ञान दिया जा रहा है. कभी सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल नहीं करेंगे, घर में चार कारें रखेंगे और चिंता प्रदूषण की करेंगे. अब इस हिप्पोक्रेसी का क्या किया जाए. आपके वैचारिक पतन की यही वजह है.

आपकी नजर इस पर गई ही नहीं होगी, क्योंकि आपको होली-दीवाली के आगे कुछ दिखेगा ही नहीं. अगर प्रदूषण के मामले में दिल्ली दीवाली से पहले एकदम साफ-सुथरी होती तो पटाखों के खिलाफ सबसे पहले मैं खड़ा होता. पर, दीवाली को साफ-सुथरा मनाने की सलाह देने के पीछे मंशा उतनी ही कुत्सित है जितनी सबरीमला में खून से सना सैनिटरी पैड ले जाने की, तो यकीन मानिए, आपके विरोध में उठी पहली आवाज भी मेरी होगी.

वैसे यह भी मानिए कि सत्ताओं के पास आम आदमी को लड़ाने के लिए जब भूगोल नहीं बचता, तो वह इतिहास के नाम पर लड़ाता है. द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल कमोबेश स्तिर हो गया है और दुनिया के कुछेक इलाकों, इज्राएल-फिलीस्तीन, पाकिस्तान-बारत सरहद जैसे क्षेत्रों को छोड़ दें तो भूगोल के नाम पर लड़ाईय़ां नहीं होती. इसलिए सत्ताओं के पास हमने लड़ाने के लिए कोई चारा नहीं, सिवाए इतिहास के. जनता लड़ेगी नही तो सत्ता के लिए प्रेरणाएं कहां से हासिल होंगी. इसलिए आने वाले संघर्ष अस्मिताओं के होंगे. इसलिए कभी शहरों के नाम बदले जाएंगे, कभी सदियों पहले के अत्याचारों का बदला लिया जाएगा और कभी आप अपनी कथित मुस्लिम विरासत की रक्षा के लिए जिहाद को उठ खड़ी होंगी.

विरासत को छोड़िए, भविष्य बचाइए. शहरों के नाम बदलने पर आपको जिस संप्रदाय की विरासत के खत्म होने का खतरा महसूस हो रहा है, उनके भविष्य के लिए रोजगार और शिक्षा की मांग कीजिए. वैसे चलते-चलते एक डिस्क्लेमर दे ही दूं, खैर छोड़िए उससे कोई फायदा तो है नहीं.











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Published on November 08, 2018 02:24

November 5, 2018

बिहार में भाजपा जद-यू के आगे क्यों झुकी?

एक और सहयोगी को खो बैठने के डर से बिहार में भाजपा 2019 के लिए संसदीय सीटों की नीतीश की मांग के आगे झुकी 
बिहार के मामले में आखिरकार, भाजपा और उसके अध्यक्ष अमित शाह को नरम होना पड़ा. अमित शाह और जद (यू) प्रमुख और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह घोषणा की कि वे बिहार में 2019 लोकसभा चुनाव में बराबर सीटों पर लड़ेंगे. सीटों पर बराबरी की यह बात गौर से देखें तो साफ लगता है कि भगवा पार्टी काफी झुक गई. फिलहाल राज्य में उसके पास लोकसभा की सबसे ज्यादा सीटें हैं. जीत के लिहाज से उसे सीटें ज्यादा मिलनी चाहिए थीं.

राज्य में 2014 में भाजपा को 40 में से 22 पर जीत मिली थी, जबकि अकेले लडऩे वाले जद (यू) को सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थीं. नए तालमेल का मतलब यह है कि भाजपा के कम से कम पांच मौजूदा सांसदों का टिकट कट सकता है. राज्य में एनडीए के पास फिलहाल 33 सीटें हैं, जिनमें रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के पास छह और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के पास तीन सीटें हैं.

खबर है कि भाजपा को यह घोषणा करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि नीतीश कुमार ने गठबंधन की किसी भी बैठक में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. मौजूदा गणित में भाजपा और जद-यू 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. इस तरह लोजपा के लिए सिर्फ चार और आरएलएसपी के लिए सिर्फ दो सीटें बचेंगी. आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा तो खुलकर खीर बनाने की कोशिशें करते नजर आ सकते हैं. दो सीटों के विकल्प के साथ उनके पास नाक बचाने के लिए एनडीए छोड़ने के सिवा ज्यादा चारा है नहीं.

भाजपा के झुकने की वजह यह मानी जा रही है कि बिहार में अच्छे नतीजों के लिए भाजपा नीतीश कुमार पर निर्भर है. तो क्या यह माना जाए कि चंद्रबाबू नायडू के कांग्रेस के पाले में चले जाने के बाद भाजपा नहीं चाहती कि नीतीश से उनका ब्रोमांस खत्म हो जाए.

बिहार में नीतीश अपरिहार्य हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि 2005 से 2015 के बीच (सिर्फ 2014 में नरेंद्र मोदी लहर को छोड़ दें तो) हुए चार विधानसभा और दो लोकसभा चुनाव के दौरान जीत उसी धड़े को हासिल हुई जिसकी तरफ नीतीश कुमार थे. साथ ही यह बात भी समझिए कि 2014 में जहां भाजपा मोदी लहर और सत्ताविरोधी रूझान को साथ लेकर उड़ रही थी अब 2019 में हमें उसे खुद सत्ताविरोधी रुझान का सामना करना है. जनता के एक तबके में मोदी से मोहभंग जैसा माहौल भी है, उससे निपटना भी आसान नहीं होगा.

शायद यही वजह है कि भाजपा ने बिहार में एनडीए के लोकसभा अभियान का नेतृत्व नीतीश को सौंप दिया है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की हार और मोदी लहर के ठंडे पड़ते जाने से भगवा पार्टी के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है. इसके साथ ही कीर्ति आजाद जैसे कई कमजोर खिलाड़ियों का पत्ता साफ हो सकता है. दरभंगा के मौजूदा सांसद आजाद वैसे भी अरूण जेटली की हिट लिस्ट में हैं. आजाद उन पांच भाजपा सांसदों में होंगे जिनकी जगह जद-यू के किसी प्रत्याशी को दी जा सकती है. संजय झा जद-यू के महासचिव और नीतीश कुमार के काफी करीबी हैं.

जो भी हो, फिलहाल भाजपा ने ध्वज नीतीश के हाथों में पकड़ा दिया है.
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Published on November 05, 2018 06:55

October 31, 2018

भूख से लड़ने में हम अभी भी नाकाम हैं

हाल ही में ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक) जारी हुआ है. भारत इसमें कोई खास उपलब्धि हासिल करने में नाकाम रहा. हालांकि विपक्ष के उस दावे को सही नहीं माना जा सकता कि 2014 के बाद नई सरकार आने के बाद भारत की स्थिति ज्यादा बदतर हुई है, लेकिन यह सही है कि प्रगति बेहद मामूली हुई है. खासकर नेपाल और बांग्लादेश जैसे देशों की तुलना में. विश्व बैंक के मानव पूंजी सूचकांक में भारत काफी निचले पायदान पर है. 
वित्त मंत्रालय के मुताबिक, विश्व बैंक के आंकड़ों में काफी खामियां हैं और उसकी गणना की विधि खराब है. वैसे कुछ तथ्य पेश-ए-नजर हैंः
1. वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान 119 देशों की सूची में 103वां रहा. चीन 25वें, श्रीलंका 67वें, म्यांमार 68, नेपाल 72, बांग्लादेश 86वें स्थान पर रहा. मित्रों को खुशी होगी, पाकिस्तान 106 स्थान के साथ भारत से नीचे रहा. नहीं?
2. विश्व बैंक के नए मानव पूंजी सूंचकांक में भारत 157 देशों की सूची में 115वें स्थान पर रहा.
3. 2018 के वैश्विक भूख सूचकांक में भूख के गंभीर स्तर वाले 45 देशों में भारत भी शामिल है.
4. 21 फीसदी भारतीय बच्चे, जिनकी उम्र 5 साल से कम है, अत्य़धिक कम वजन के हैं. साल 2000 में यह 17 फीसदी थी,
5.भारत के 14.8 फीसदी लोग कुपोषण के शिकार हैं, जो 2000 के 18.2 फीसदी की तुलना में कम है, बाल मृत्यु दर 9.2 से घटकर 4.3 रह गई है और बाल बौनापन 54.2 से घटकर 38.4 रह गई है.
6. भारत के 19.4 करोड़ लोग रोज भूखे रहते हैं, यह आंकड़ा यूएन का FAO का है. जबकि भारत के लोग सालाना 14 अरब डॉलर का भोजन बर्बाद करते हैं.


सभी मित्रों की सरदार पटेल की प्रतिमा, जो दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा है के अनावरण की बधाई. इसकी लागत कोई 2400 करोड़ रु. है 650 करोड़ रु. इसके रखरखाव पर खर्च होंगे.


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Published on October 31, 2018 08:12

September 22, 2018

क्या कोई आकर हमें हिंदुत्व का पाठ पढ़ाएगा?

ध्रुवीकरण और एकता की संघीवादी खोज के पीछे हिंदू धर्म को वह सब बनाने की ललक भी है जो वह नहीं हैरू उसे 'सेमिटाइज' करने की ललक, ताकि वह 'आक्रमणकारियों' के धर्मों की तरह दिखाई दे—संहिता और रूढ़ सिद्धांतों से बंधा धर्म, जिसका एक पहचानने लायक भगवान (संभवतः राम) हो, एक प्रधान पवित्र ग्रंथ (गीता) हो.
अमूमन माना जाता है कि हिंदुओं को सहिष्णु होना चाहिए. इसलिए जब हिंदुओं को ग़ुस्सा आता है तो लोग स्तब्ध रह जाते हैं. वो समझते हैं कि ये तो हिंदू धर्म का मूल नहीं है. ऐसे में एक तबका सामने आता है, जो ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, पर असल में वे हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं. इन लोगों के लिखने में या बोलने में हिंदू विरोधी पूर्वाग्रह दिखाई देता है.

बीबीसी हिंदी में लिखे एक स्तंभ में पौराणिक कहानियों के लेखक देवीदत्त पटनायक कहते हैं, "अगर आपको ईसाइयत को समझना हो तो आप बाइबिल पढ़ सकते हैं, इस्लाम को समझना है तो क़ुरआन पढ़ सकते हैं, लेकिन अगर हिंदू धर्म को समझना है तो कोई शास्त्र नहीं है जो यह समझा सके कि हिंदू धर्म क्या है. हिंदू धर्म शास्त्र पर नहीं बल्कि लोकविश्वास पर निर्भर है. इसका मौखिक परंपरा पर विश्वास है."

वो आगे कहते हैं कि इन्हीं कतिपय कारणों से हिंदुओं में गुस्सा है. मुझे लगता है कि अगर हिंदुओं में कोई हीन भावना है, या गुस्सा है, और आज के दौर में जिस तरह वॉट्सऐप के जरिए गलतबयानियां फैलाना आसान हो गया है, उसमें हिंदुओं की छवि आक्रामकता भरी हो गई है. पर मेरा एक और सवाल है, क्या आज के हिंदुत्व में बहुलदेववाद (समझ में न आए तो कमेंट बॉक्स में कूड़ा न फैलाएं, आपको आपके इष्ट देव की कसम) का स्थान है?

क्या मांसाहार करना हिंदुओं के लिए वर्जित है? लेकिन भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाले ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि असल में भारतीय संस्कृति है क्या? संस्कृति का प्रस्थान बिंदु कहां से तय किया जाएगा? क्या आज भी, और पहले भी, उत्तर भारत का हिंदू धर्म, दक्षिण भारत के हिंदू धर्म से अलग नहीं है? यकीन मानिए, हजार बरस पहले का हिंदू धर्म आज के हिंदू धर्म से बहुत अलग था. हर जाति, हर प्रांत और भाषा में हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप हैं. यह विविधता ज़्यादातर लोगों की समझ में नहीं आती. या आती भी होगी तो उसे मानना उनके लिए सुविधाजनक नहीं होगा.

आज कारों के पीछे गुस्साए हुए हनुमान कुछ लोगों को प्रिय लग रहे होंगे. पर सच यह है कि हमारे प्यार हनुमान तो वह है जो तुलसी के मानस पाठ में चुपचाप बैठकर रामकथा श्रवण करते थे. जो संजीवनी लाए वह थे हनुमान. राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा...

पर आज अगर हिंदू आक्रामक है या उसे आक्रामक बनाने में कुछ लोगों को समर्थन मिल रहा है तो उसके पीछे वह वामपंथी बुद्धि है जिसने एक पूरे धर्म को हमेशा अपमानित किया है. एक पूरे धर्म को समझने की बजाए उसको सुधार कर एक नया रूप देने की कोशिश की गई.

आज भी हिंदू संगठन वैसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके नियम और शास्त्र स्पष्ट करने की कोशिश की जा रही है. राम के एकमात्र देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है. (सीता तस्वीरों से गायब हैं) गीता को एकमात्र धार्मिक किताब के रूप में स्थापित किया जा रहा है (मानस व्यापक स्वरूप में है उसे भाव नहीं दे रहे, जबकि वाल्मीकि रामायण तो उन लोगों ने देखी भी नहीं होगी जो इस पोस्ट पर रायता फैलाने कल आएंगे, और वाल्मीकि रामायण में देवत्व वाला भाव भी कम है.)

ध्रुवीकरण और एकता की संघीवादी खोज के पीछे हिंदू धर्म को वह सब बनाने की ललक भी है जो वह नहीं हैरू उसे 'सेमिटाइज' करने की ललक, ताकि वह 'आक्रमणकारियों' के धर्मों की तरह दिखाई दे—संहिता और रूढ़ सिद्धांतों से बंधा धर्म, जिसका एक पहचानने लायक भगवान (संभवतः राम) हो, एक प्रधान पवित्र ग्रंथ (गीता) हो.

क्या मांसाहार करना हिंदुओं के लिए वर्जित है? लेकिन भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाले ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि असल में भारतीय संस्कृति है क्या? संस्कृति का प्रस्थान बिंदु कहां से तय किया जाएगा? क्या आज भी, और पहले भी, उत्तर भारत का हिंदू धर्म, दक्षिण भारत के हिंदू धर्म से अलग नहीं है? यकीन मानिए, हजार बरस पहले का हिंदू धर्म आज के हिंदू धर्म से बहुत अलग था. हर जाति, हर प्रांत और भाषा में हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप हैं. यह विविधता ज़्यादातर लोगों की समझ में नहीं आती. या आती भी होगी तो उसे मानना उनके लिए सुविधाजनक नहीं होगा.


हिंदुत्व के पोस्टरों में कृष्ण को राधा के बिना, राम को सीता के बिना और शिव को पार्वती के बिना दिखाया जाता है. उनकी बहसों में शंकराचार्य के ब्रह्मचर्य का गुणगान किया जाता है जिनके बारे में वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने एक हजार साल पहले लड़ाकू नागाओं का जत्था तैयार किया था ताकि विदेशी हमलावरों से विनम्र साधुओं को बचाया जा सके.

यही वह दावा है जिससे हिंदुत्व गुंडों या ''हाशिये के समूहों" के अस्तित्व को वाजिब ठहराता है. हालांकि वे उस किंवदंती को नजरअंदाज कर देंगे जब उसी शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती की सलाह पर अपनी गुप्त शक्तियों का इस्तेमाल करके राजा अमारु के शरीर में जाकर यौन अनुभव लिया था.

हिंदुत्व का स्त्रैण भाव और कामुकता को खारिज करना उन अब्राहमी मिथकों को ही प्रतिध्वनित करता है जिनमें ईश्वर स्पष्ट रूप से पुरुष है, उसके दूत भी पुरुष हैं और जहां उसका पुत्र बिना किसी यौन संबंध के किसी कुंआरी महिला से पैदा होता है.

लेकिन एक हिंदू के रूप में मैं उनकी बंदिशें क्यों स्वीकार करूं? मैं एक सवर्ण हूं, ब्राह्मण हूं, मेरे खानदान में सैकड़ों सालों से शिव, भैरव, काली और दुर्गा के विभिन्न रूपों की उपासना होती रही है. मिथिला हमारा इलाका है. जहां हम लोग सगर्व मांसाहार करते हैं और मछली हमारे भोजन के अहम हिस्सा है. जबकि देश के दूसरे हिस्सों में (जैसे पश्चिमी यूपी, राजस्थान गुजरात में मांसाहार का प्रचलन कम है) तो यही विविधता है न.

विडंबना यह है कि हिंदुत्व का नए सिरे से बढ़-चढ़कर दावा आत्मविश्वास के बजाए असुरक्षा की झलक देता है. यह अपमान और पराजय की बार-बार याद दिलाने की बुनियाद पर खड़ा किया जाता है, मुस्लिम फतह और हुकूमत की गाथाओं से इसे मजबूत किया जाता है, तोड़े गए मंदिरों और लूटे गए खजानों के किस्से-कहानियों से इसे हवा दी जाती है.

इस सबने बेहद संवेदनशील हिंदुओं को नाकामी और पराजय के अफसाने में कैद कर दिया है, जबकि उन्हें आत्मविश्वास से भरे उस धर्म की उदार कहानी का हिस्सा होना चाहिए था जो दुनिया में अपनी जगह की तलाश कर रहा है. अतीत की नाकामियों की तरफ देखने से भविष्य की कामयाबियों के लिए कोई उम्मीद नहीं जागती.

मैं हिंदू धर्म के एकेश्वरवादी बनाए जाने की कोशिशों का विरोध करता हूं.


***

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Published on September 22, 2018 12:55

September 13, 2018

हैप्पी हिंदी डे डूड

हिंदी को लेकर कई तरह की दुकानदारियां चल रही हैं, चलती आ रही हैं और चलती ही रहेंगी. आम जन हिंदी में लिखने को साहित्य समझता है. साहित्यकार भी मठाधीशी करते हुए हिंदी को अपनी बपौती समझने लगे हैं. विश्व हिंदी दिवस से लेकर तमाम विमर्श हैं हिंदी में, पर ज्ञान की भाषा अभी भी अंग्रेजी क्यों है?


हिंदी के साथ कई समस्याएं हैं. पहली समस्या इसके दिवस का मनाया जाना है. अंग्रेजी भाषा का भी कोई दिवस है इस बारे में मुझे ज्ञात नहीं तो समझदार लोग ज्ञानवर्धन करें. कुछ वैसे ही जैसे महिला दिवस तो मनाया जाता है पर संभवतया कोई मर्द दिवस नहीं है. एनीवे.

हिंदी के साथ दूसरी समस्या यह है कि हिंदी में सामान्य पाठक वर्ग का घनघोर अभाव है. पढ़ते वही हैं जो लिखते हैं. यानी कि या तो साहित्य या राहित्य जो भी मुमकिन हो लिख डालते हैं. हिंदी क्षेत्र का सामान्य छात्र हिंदी में लिखे को पढ़ना प्रायः अपमानजनक, या अति अपमानजनक या घोर अपमानजनक मानता है. इसको आप पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण की तरह अधिक इंटेंस मानते चलें. वह अंग्रेजी में चेतन भगत पढ़ लेगा पर हिंदी में अज्ञेय या ऐसे ही किसी दूसरे लेखक का नाम सुनकर हंस देगा.

बचे हिंदी के राइटर्स. उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढते हैं (गलत नहीं है अंग्रेजी पढ़ना) अंग्रेजी बोलते हैं (यह भी गलत नहीं) अंग्रेजी से मुहब्बत करते हैं (किसी भी भाषा से मुहब्बत करें गलत नहीं है) पर अपने ही हिंदी में लिखने वाले बाप के लेखन को कुछ तुच्छ-सा, घटिया या दोयम दर्जे का या अत्यधिक शास्त्रीय समझते हैं (हिंदी वाले पिता को चाहिए कि वह अपने ऐसे घातक पुत्रों को जूता सेवन करवाएं, पर भाषा से ज्यादा गाढ़ा पुत्र प्रेम होता है, यह जगसाबित है)

"हिंदी में लिखने का मतलब सीधे-सीधे साहित्य वह भी दुरूह भाषा का लगा लिया जाता है. जो हिंदी में लिखता है वह क्या सिर्फ कविता लिखेगा, या कहानी? या उपन्यास? यह मानिए कि हिंदी में स्तरीय नॉन-फिक्शन खासकर इतिहास, भूगोल, राजनीति पर लेखन कम होता है. जो होता है उसकी कीमत औसत हिंदी पाठक की जेब से बाहर की होती है. इसलिए हिंदी वाले जो लोग पढ़ना चाहते हैं, वह खरीदना नहीं चाहते. वह चाहते हैं रिपब्लिक डे परेड या प्रगति मैदान के ट्रेड फेयर के पास की तरह किताब भी उनको मुफ्त में मिल जाए."

तो स्मार्ट फोन पर पॉर्न वीडियो देखने में ज्यादा दिलचस्पी हिंदी प्रदेश के बालको में है (अन्यों में भी होगी, पर बात हिंदी की हो रही) सो उनका जरा भी मन हिंदी पढ़ने में नहीं लगता.

लगे भी कैसे, हिंदी में लिखने का मतलब सीधे-सीधे साहित्य वह भी दुरूह भाषा का लगा लिया जाता है. जो हिंदी में लिखता है वह क्या सिर्फ कविता लिखेगा, या कहानी? या उपन्यास? यह मानिए कि हिंदी में स्तरीय नॉन-फिक्शन खासकर इतिहास, भूगोल, राजनीति पर लेखन कम होता है. जो होता है उसकी कीमत औसत हिंदी पाठक की जेब से बाहर की होती है. इसलिए हिंदी वाले जो लोग पढ़ना चाहते हैं, वह खरीदना नहीं चाहते. वह चाहते हैं रिपब्लिक डे परेड या प्रगति मैदान के ट्रेड फेयर के पास की तरह किताब भी उनको मुफ्त में मिल जाए.

एक अन्य बड़ी समस्या भाषा की है. हिंदी के ज्यादातर लेखक ऐसी भाषा लिखते हैं (मेरा मतलब दुरूह से ही है) कि सामान्य पाठक सर पकड़कर बैठ जाता है. (ऐसी समस्या अंग्रेजी में नहीं है) हिंदी के विरोधी ज्यादा हैं इसलिए हिंदी में सरल लिखने का आग्रह टीवी और डिजिटल माध्यम में अधिक रहता है. यह आग्रह कई बार दुराग्रह तक चला जाता है. बाकी, देश में 3 फीसदी अंग्रेजी बोलने वाले लोगों को सर्व करने वाले अंग्रेजी मीडिया में मीडियाकर्मियों की तनख्वाह हिंदी वालों से कर लें तो उड़ने वाले सभी हिंदी पत्रकार भी औकात में आ जाएंगे.

अंग्रेजी में फां-फूं करने वाले छात्र भी इंटरव्यू में शीर्ष पर बैठते हैं. बाकी देश में हिंदी की स्थिति क्या है यह वैसे किसी बालक से पूछिएगा जो हिंदी माध्यम से यूपीएससी वगैरह की परीक्षा में बैठता है.

खैर, शुक्रिया कीजिए हिंदी सिनेमा का कि हिंदी का प्रसार किया. टीवी का भी. आखिरी बात, ऊंचे दर्जे के साहित्यकारों ने हिंदी के प्रसार के लिए कुछ भी नहीं किया है. हो सकता है समृद्धि आई हो हिंदी के खजाने में. पर प्रसार तो नहीं हुआ. आजकल नई वाली हिंदी भी है.

नई हो, पुरानी हो, तमिल, तेलुगू, बंगाली, बिहारी, मैथिली, ओडिया..चाहे जिस भी लहजे में हो, हिंदी हिंदी ही है. रहेगी. हो सकता है अगले 50 साल में हिंदी विलुप्त हो जाए. कम से कम लिपि तो खत्म हो ही जाए. लेकिन तब तक अगर बाजार ने इसे सहारा दिए रखा तो चलती रहेगी, चल पड़ेगी. तब तक के लिए हैप्पी हिंदी डे डूड.

#हिंदीदिवस
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Published on September 13, 2018 11:31