Manjit Thakur's Blog, page 10
January 14, 2020
नदीसूत्रः गंगाजल पाइपलाईन योजना बिहार सरकार का मायोपिक विजन है
एक तरफ गंगा खुद अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रही है, वहीं बिहार सरकार गंगा के 50 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी को गया भेजने के लिए भारी-भरकम योजना लेकर तैयार है. गया में भूजल स्तर सुधारने के दूसरे मुफीद तरीके अपनाने की बजाए गंगा का पानी गया तक लाने के पीछे मंशा आखिर क्या है?
सरकारें विकास की योजनाओं को लेकर किस कदर मायोपिक होती हैं इसकी ताजा मिसाल है बिहार सरकार की गंगा वॉटर लिफ्ट योजना. 18 दिसंबर की शाम बिहार सरकार की कैबिनेट की मंजूरी के बाद सूबे के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा ने फूले न समाते हुए ट्वीट कियाः "जल संसाधन मंत्रालय के प्रस्ताव को मिली कैबिनेट मंजूरी से आह्लादित हूं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जल जीवन हरियाली अभियान के तहत यह बहुमुखी और अनूठी योजना गंगा वॉटर लिफ्ट स्कीम गया, बोधगया और राजगीर जैसे शहरों में पेयजल मुहैया कराएगी."
नीतीश कुमार और संजय झा
उनका अगला ट्वीट अधिक सूचनाप्रद था जिसमें बिहार के जल संसाधन मंत्री ने बताया, "गंगाजल लिफ्ट स्कीम के पहले चरण का बजट 2836 करोड़ रुपए है और इससे गया को 43 एमसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) और राजगीर को 7 एमसीएम पानी मुहैया कराया जाएगा. यह जल दोनों ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के दोनों शहरों की जरूरतों के लिहाज से पर्याप्त होगा."
झा का तीसरा ट्वीट यह बताने के लिए काफी था कि गंगा का पानी ही फल्गु नदी में श्रद्धालुओं के नहाने के लिए छोड़ा जाएगा. क्योंकि इस भारी-भरकम बजट वाली योजना का कुछ फायदा तो आम लोगों के लिए दिखना चाहिए था. झा के ट्वीट के मुताबिक, 'यह योजना बिहार सरकार की उस कोशिश का हिस्सा है जिसके तहत सरकार फल्गु नदी में साफ पानी उपलब्ध कराना चाहती है.'
सवाल है कि आखिर इस योजना को लेकर शक क्यों है?
शक इसलिए है कि फल्गु नदी को आखिर गंगा का पानी चाहिए ही क्यों? गया जिले में बारिश कम नहीं होती. मौसम विभाग के साइट पर जाएं तो आंकड़े बताते हैं कि गया के पूरे इलाके में औसतन बरसात 110 सेमी के आसपास होती है. लेकिन सचाई यह है कि गया नगर निगम के तहत आने वाले 70 फीसदी घरों में नल का पानी नहीं आता. पूरे जिले में भूजल तेजी से नीचे गिर रहा है.
यह स्थिति तब है जब गया में फल्गु नदी के साथ ही साथ पड़ोस में दो और नदियां, जमुनी और मोरहर मौजूद हैं. दो साल पहले गया के जिलाधिकारी संजय सिंह ने इन नदियों का पानी शहर तक पहुंचाने की योजना बनाई थी. पर इस योजना का नामलेवा कोई नहीं बचा. आखिर, सरकार पानी के नाम पर वाकई कुछ बड़ा करना चाहती थी.
बिहार सरकार भी कभी फल्गु को गंगा से जोड़ने तो कभी फल्गु को सोन नदी से जोड़ने को लेकर दुविधा में रही.
बहरहाल, गंगा का पानी 170 किलोमीटर लंबे पाइपलाईन के जरिए मोकामा से गया तक लाने का काम किसी को मछली देने जैसा है, जबकि मछली पकड़ना सिखाना बेहतर विकल्प होता. बिहार सरकार ने गया के पानी की समस्या को निबटाने के लिए गया के गिरते भूजल को सुधारने की योजना क्यों नहीं बनाई? खासकर तब, जब गया जैसे इलाके में तालाब और पोखरे बनाकर और वर्षा जल संचयन के जरिए भूमिगत जल का स्तर ठीक किया जा सकता था.
वैज्ञानिक मानते हैं कि पानी को आयात करना समस्या का महज फौरी निवारण ही है. वॉटरशेड मैनेजमेंट, यानी स्थानीय बारिश को रोककर रखना, उससे भूमिगत जल के स्तर को दुरुस्त करना और बारिश के पानी को रोककर शहर में उसकी आपूर्ति करना न सिर्फ दीर्घकालिक समाधान होता बल्कि पाइप लाईन बिछाने से अधिक सस्ता और त्वरित भी होता. सरकार को गया, राजगीर, नवादा जैसे इलाकों में अधिकाधिक तालाब खुदवाने चाहिए थे. इससे मछली उत्पादन भी बढ़ता, खेतों के सिंचाई के लिए भी पानी मिलता और कुओं में भी पानी आ जाता. साथ भी यह ध्यान भी रखना चाहिए था कि गया के इलाके में अभी भी अच्छी खासी खेती होती है, जो बिना पानी के मुमकिन नहीं है. गया का इलाका अभी भी बुंदेलखंड जैसी स्थिति में नहीं पहुंचा है. हां, नदियों को जोड़ना फैशन और चलन में आ गया है तो बात और है.
दूसरी तरफ, खुद गंगा अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है. अगर गर्मियों में उससे 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा, तो खुद इसके पारितंत्र पर क्या असर पड़ेगा इसका क्या कोई अध्ययन बिहार सरकार ने कराया है?
असल में, सरकारों को लगता है कि नदी में पानी बहकर और बचकर निकल जाए तो वह पानी की बरबादी है. जबकि ऐसा है नहीं और मोकामा से अगर 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा तो उसके आगे बड़ी मात्रा में नदी के बेड में गाद भी जमा होगी. क्या राज्य सरकार उसके लिए तैयार है?
गया के आसपास जिस तरह की धरती है वहां वॉटरशेड प्रबंधन बहुत कारगर भी साबित होता. पिछली गर्मियों में मिथिला क्षेत्र के दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में भी अमूमन सालों भर पानी से भरे रहने वाले पोखरे सूख गए थे, वैसे में उनको जिलाने की कोई योजना सरकार की निगाह में नहीं है. पर, गंगा का पानी गया भेजने की योजना को जिसतरह फटाफट लागू करने की तैयारी है और जिस तरह से उसके लिए रकम भी जारी की गई है, उससे तो सरकार के विकास वाले विजन पर सवालिया निशान और भी गहरा ही हो गया है.
हां, जद-यू का अगले साल के चुनावी मैदान का विजन स्पष्ट दिख जरूर रहा है.
***
सरकारें विकास की योजनाओं को लेकर किस कदर मायोपिक होती हैं इसकी ताजा मिसाल है बिहार सरकार की गंगा वॉटर लिफ्ट योजना. 18 दिसंबर की शाम बिहार सरकार की कैबिनेट की मंजूरी के बाद सूबे के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा ने फूले न समाते हुए ट्वीट कियाः "जल संसाधन मंत्रालय के प्रस्ताव को मिली कैबिनेट मंजूरी से आह्लादित हूं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जल जीवन हरियाली अभियान के तहत यह बहुमुखी और अनूठी योजना गंगा वॉटर लिफ्ट स्कीम गया, बोधगया और राजगीर जैसे शहरों में पेयजल मुहैया कराएगी."
नीतीश कुमार और संजय झाउनका अगला ट्वीट अधिक सूचनाप्रद था जिसमें बिहार के जल संसाधन मंत्री ने बताया, "गंगाजल लिफ्ट स्कीम के पहले चरण का बजट 2836 करोड़ रुपए है और इससे गया को 43 एमसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) और राजगीर को 7 एमसीएम पानी मुहैया कराया जाएगा. यह जल दोनों ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के दोनों शहरों की जरूरतों के लिहाज से पर्याप्त होगा."
झा का तीसरा ट्वीट यह बताने के लिए काफी था कि गंगा का पानी ही फल्गु नदी में श्रद्धालुओं के नहाने के लिए छोड़ा जाएगा. क्योंकि इस भारी-भरकम बजट वाली योजना का कुछ फायदा तो आम लोगों के लिए दिखना चाहिए था. झा के ट्वीट के मुताबिक, 'यह योजना बिहार सरकार की उस कोशिश का हिस्सा है जिसके तहत सरकार फल्गु नदी में साफ पानी उपलब्ध कराना चाहती है.'
सवाल है कि आखिर इस योजना को लेकर शक क्यों है?
शक इसलिए है कि फल्गु नदी को आखिर गंगा का पानी चाहिए ही क्यों? गया जिले में बारिश कम नहीं होती. मौसम विभाग के साइट पर जाएं तो आंकड़े बताते हैं कि गया के पूरे इलाके में औसतन बरसात 110 सेमी के आसपास होती है. लेकिन सचाई यह है कि गया नगर निगम के तहत आने वाले 70 फीसदी घरों में नल का पानी नहीं आता. पूरे जिले में भूजल तेजी से नीचे गिर रहा है.
यह स्थिति तब है जब गया में फल्गु नदी के साथ ही साथ पड़ोस में दो और नदियां, जमुनी और मोरहर मौजूद हैं. दो साल पहले गया के जिलाधिकारी संजय सिंह ने इन नदियों का पानी शहर तक पहुंचाने की योजना बनाई थी. पर इस योजना का नामलेवा कोई नहीं बचा. आखिर, सरकार पानी के नाम पर वाकई कुछ बड़ा करना चाहती थी.
बिहार सरकार भी कभी फल्गु को गंगा से जोड़ने तो कभी फल्गु को सोन नदी से जोड़ने को लेकर दुविधा में रही.
बहरहाल, गंगा का पानी 170 किलोमीटर लंबे पाइपलाईन के जरिए मोकामा से गया तक लाने का काम किसी को मछली देने जैसा है, जबकि मछली पकड़ना सिखाना बेहतर विकल्प होता. बिहार सरकार ने गया के पानी की समस्या को निबटाने के लिए गया के गिरते भूजल को सुधारने की योजना क्यों नहीं बनाई? खासकर तब, जब गया जैसे इलाके में तालाब और पोखरे बनाकर और वर्षा जल संचयन के जरिए भूमिगत जल का स्तर ठीक किया जा सकता था.
वैज्ञानिक मानते हैं कि पानी को आयात करना समस्या का महज फौरी निवारण ही है. वॉटरशेड मैनेजमेंट, यानी स्थानीय बारिश को रोककर रखना, उससे भूमिगत जल के स्तर को दुरुस्त करना और बारिश के पानी को रोककर शहर में उसकी आपूर्ति करना न सिर्फ दीर्घकालिक समाधान होता बल्कि पाइप लाईन बिछाने से अधिक सस्ता और त्वरित भी होता. सरकार को गया, राजगीर, नवादा जैसे इलाकों में अधिकाधिक तालाब खुदवाने चाहिए थे. इससे मछली उत्पादन भी बढ़ता, खेतों के सिंचाई के लिए भी पानी मिलता और कुओं में भी पानी आ जाता. साथ भी यह ध्यान भी रखना चाहिए था कि गया के इलाके में अभी भी अच्छी खासी खेती होती है, जो बिना पानी के मुमकिन नहीं है. गया का इलाका अभी भी बुंदेलखंड जैसी स्थिति में नहीं पहुंचा है. हां, नदियों को जोड़ना फैशन और चलन में आ गया है तो बात और है.
दूसरी तरफ, खुद गंगा अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है. अगर गर्मियों में उससे 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा, तो खुद इसके पारितंत्र पर क्या असर पड़ेगा इसका क्या कोई अध्ययन बिहार सरकार ने कराया है?
असल में, सरकारों को लगता है कि नदी में पानी बहकर और बचकर निकल जाए तो वह पानी की बरबादी है. जबकि ऐसा है नहीं और मोकामा से अगर 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा तो उसके आगे बड़ी मात्रा में नदी के बेड में गाद भी जमा होगी. क्या राज्य सरकार उसके लिए तैयार है?
गया के आसपास जिस तरह की धरती है वहां वॉटरशेड प्रबंधन बहुत कारगर भी साबित होता. पिछली गर्मियों में मिथिला क्षेत्र के दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में भी अमूमन सालों भर पानी से भरे रहने वाले पोखरे सूख गए थे, वैसे में उनको जिलाने की कोई योजना सरकार की निगाह में नहीं है. पर, गंगा का पानी गया भेजने की योजना को जिसतरह फटाफट लागू करने की तैयारी है और जिस तरह से उसके लिए रकम भी जारी की गई है, उससे तो सरकार के विकास वाले विजन पर सवालिया निशान और भी गहरा ही हो गया है.
हां, जद-यू का अगले साल के चुनावी मैदान का विजन स्पष्ट दिख जरूर रहा है.
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Published on January 14, 2020 05:41
January 13, 2020
कार्बन उत्सर्जन और पानी की कमी के बहाने ऊंटों को मारने का ऑस्ट्रेलिया का प्रपंच
ऑस्ट्रेलिया ने तय किया है कि अगले पांच दिनों में दस हजार ऊंटों को गोली मार की खत्म कर दिया जाएगा. वजह इतनी है कि ऊंट पानी बहुत पीते हैं. ऑस्ट्रेलिया ऊंटों को मारने के पीछे अपना कार्बन फुटप्रिंट कम करने की वजह भी बता रहा है. पर क्या यह वाकई तार्किक है या बहाना है?
खबर ऑस्ट्रेलिया से है और बेहद हृदय विदारक है. ऑस्ट्रेलिया में अधिकारियों ने तय किया है कि अगले पांच दिनों में दस हजार ऊंटों को गोली मार कर खत्म कर दिया जाएगा. वजह इतनी है कि ऊंट पानी बहुत पीते हैं. ऑस्ट्रेलिया ऊंटों को मारने के पीछे अपना कार्बन फुटप्रिंट कम करने की वजह भी बता रहा है. पर क्या यह वाकई तार्किक है या बहाना है?
अधिकारियों की योजना है कि इन ऊंटों को मारने के लिए हेलिकॉप्टर लगाए जाएंगे. पर दावानल से परेशान ऑस्ट्रेलिया का यह कदम अबूझ मालूम पड़ रहा है.
प्रतीकात्मक तस्वीर
न्यूज एजेंसी आइएएनएस को अनांगू पित्जानत्जारा यान्कुन्त्याजारा (एबोरिजनल आबादी के लिए बना स्थानीय और विरल आबादी का इलाका) के कार्यकारी बोर्ड सदस्य मारीटा बेकर ने बताया है कि कान्यपी के उनके इलाके में ये ऊंट उनके समुदाय के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे थे.
बेकर के मुताबिक, ये ऊंट उनके एयरकंडीनर तोड़ देते थे (पानी की तलाश में) और घरों की बाड़ को भी नुक्सान पहुंचा रहे थे.
एक ऐसे देश (और महादेश) में, जहां, बकौल सिडनी विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के, नवंबर से लगी दावानल में 4.80 करोड़ जानवर जलकर मर गए हों, बेकुसूर ऊंटों का जान से मारने का फैसला समझ से परे है.
असल में ऐसे संकटग्रस्त देश में जिसका मुखिया अभी हवाई में छुट्टियां मना रहा है, आखिर ऊंटों को मारना कितना न्यायसंगत है? वजह और तर्क सिर्फ वही नहीं है जो बताई जा रही हैं.
ऑस्ट्रेलिया में ऊंटो को हमेशा से नफरत की निगाह से ही देखा जाता रहा है. उनको आक्रमणकारी प्रजाति (इनवैसिव स्पीशीज) माना जाता है और उनके साथ करीबन वैसा ही बरताव होता है जैसा हम भारत में खर-पतवार या चूहों के साथ करते हैं.
ऊंट एक बार में, वो भी तीन मिनट में करीब 200 लीटर पानी पी जाते हैं. समझिए 20 बाल्टी. पानी के संकट से जूझते महादेश में इतना पानी वाकई काफी है. यही नहीं, ऑस्ट्रेलिया के अधिकारियों का कहना है कि वहां के दस लाख ऊंट सालाना 20 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं. यानी हर ऊंट के लिहाज से दो टन सालाना. इसको ध्यान में रखें तो एक और दिलचस्प आंकड़ा है, एक छोटी कार सालाना 4.6 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती है. एक बेचारे ऊंट से करीबन दोगुना. इसलिए अगर एक ऊंट को मारकर आप कार्बन क्रेडिट हासिल करना चाहते हैं तो इस आंकड़े पर निगाह डालिए.
चूंकि ऑस्ट्रेलिया दुनिया भर में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जक देश है तो उस पर कार्बन उत्सर्जन कम करने का भी दबाव है. पर इसके लिए कार की संख्या कम करने की बजाए उसे ऊंटों को मारना अधिक मुफीद लग रहा है.
विडंबना यह है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार कार्बन उत्सर्जन कम करने के वास्ते न तो अपने कोयला आधारित उद्योगों पर लगाम लगाने को तैयार है न ऑटोमोबाइल्स पर. गौरतलब यह भी है कि ऑस्ट्रेलिया में कोयला आधारित उद्योग सालाना करीबन 53.4 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन करता है. कोयला खनन ऑस्ट्रेलिया के लिए बेहद अहम है, पर कार्बन और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में इसका हिस्सा इसकी पूरी अर्थव्यवस्था से भी अधिक है.
दुनिया भर में अगर यह तर्क चल निकला तो सोचिए जरा दक्षिण एशिया में क्या होगा. इस तर्क के मुताबिक तो भारत-बांग्लादेश-थाईलैंड-श्रीलंका-नेपाल जैसे धान उत्पादक देशों के किसानों को भी गोली मारनी होगी क्योंकि उनके धान के खेतों में पानी की भी खपत होती है और धान के खेतों के साथ उनके पशुधन से सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित होता है. यह बात दूर की कौड़ी है पर फिलहाल जान ऊंटों की जा रही है क्योंकि ऊंट न तो विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं, न बोल सकते हैं. उनको दौड़ाकर गोली मारना आसान भी है.
***
खबर ऑस्ट्रेलिया से है और बेहद हृदय विदारक है. ऑस्ट्रेलिया में अधिकारियों ने तय किया है कि अगले पांच दिनों में दस हजार ऊंटों को गोली मार कर खत्म कर दिया जाएगा. वजह इतनी है कि ऊंट पानी बहुत पीते हैं. ऑस्ट्रेलिया ऊंटों को मारने के पीछे अपना कार्बन फुटप्रिंट कम करने की वजह भी बता रहा है. पर क्या यह वाकई तार्किक है या बहाना है?
अधिकारियों की योजना है कि इन ऊंटों को मारने के लिए हेलिकॉप्टर लगाए जाएंगे. पर दावानल से परेशान ऑस्ट्रेलिया का यह कदम अबूझ मालूम पड़ रहा है.
प्रतीकात्मक तस्वीरन्यूज एजेंसी आइएएनएस को अनांगू पित्जानत्जारा यान्कुन्त्याजारा (एबोरिजनल आबादी के लिए बना स्थानीय और विरल आबादी का इलाका) के कार्यकारी बोर्ड सदस्य मारीटा बेकर ने बताया है कि कान्यपी के उनके इलाके में ये ऊंट उनके समुदाय के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे थे.
बेकर के मुताबिक, ये ऊंट उनके एयरकंडीनर तोड़ देते थे (पानी की तलाश में) और घरों की बाड़ को भी नुक्सान पहुंचा रहे थे.
एक ऐसे देश (और महादेश) में, जहां, बकौल सिडनी विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के, नवंबर से लगी दावानल में 4.80 करोड़ जानवर जलकर मर गए हों, बेकुसूर ऊंटों का जान से मारने का फैसला समझ से परे है.
असल में ऐसे संकटग्रस्त देश में जिसका मुखिया अभी हवाई में छुट्टियां मना रहा है, आखिर ऊंटों को मारना कितना न्यायसंगत है? वजह और तर्क सिर्फ वही नहीं है जो बताई जा रही हैं.
ऑस्ट्रेलिया में ऊंटो को हमेशा से नफरत की निगाह से ही देखा जाता रहा है. उनको आक्रमणकारी प्रजाति (इनवैसिव स्पीशीज) माना जाता है और उनके साथ करीबन वैसा ही बरताव होता है जैसा हम भारत में खर-पतवार या चूहों के साथ करते हैं.
ऊंट एक बार में, वो भी तीन मिनट में करीब 200 लीटर पानी पी जाते हैं. समझिए 20 बाल्टी. पानी के संकट से जूझते महादेश में इतना पानी वाकई काफी है. यही नहीं, ऑस्ट्रेलिया के अधिकारियों का कहना है कि वहां के दस लाख ऊंट सालाना 20 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं. यानी हर ऊंट के लिहाज से दो टन सालाना. इसको ध्यान में रखें तो एक और दिलचस्प आंकड़ा है, एक छोटी कार सालाना 4.6 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती है. एक बेचारे ऊंट से करीबन दोगुना. इसलिए अगर एक ऊंट को मारकर आप कार्बन क्रेडिट हासिल करना चाहते हैं तो इस आंकड़े पर निगाह डालिए.
चूंकि ऑस्ट्रेलिया दुनिया भर में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जक देश है तो उस पर कार्बन उत्सर्जन कम करने का भी दबाव है. पर इसके लिए कार की संख्या कम करने की बजाए उसे ऊंटों को मारना अधिक मुफीद लग रहा है.
विडंबना यह है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार कार्बन उत्सर्जन कम करने के वास्ते न तो अपने कोयला आधारित उद्योगों पर लगाम लगाने को तैयार है न ऑटोमोबाइल्स पर. गौरतलब यह भी है कि ऑस्ट्रेलिया में कोयला आधारित उद्योग सालाना करीबन 53.4 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन करता है. कोयला खनन ऑस्ट्रेलिया के लिए बेहद अहम है, पर कार्बन और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में इसका हिस्सा इसकी पूरी अर्थव्यवस्था से भी अधिक है.
दुनिया भर में अगर यह तर्क चल निकला तो सोचिए जरा दक्षिण एशिया में क्या होगा. इस तर्क के मुताबिक तो भारत-बांग्लादेश-थाईलैंड-श्रीलंका-नेपाल जैसे धान उत्पादक देशों के किसानों को भी गोली मारनी होगी क्योंकि उनके धान के खेतों में पानी की भी खपत होती है और धान के खेतों के साथ उनके पशुधन से सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित होता है. यह बात दूर की कौड़ी है पर फिलहाल जान ऊंटों की जा रही है क्योंकि ऊंट न तो विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं, न बोल सकते हैं. उनको दौड़ाकर गोली मारना आसान भी है.
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Published on January 13, 2020 03:11
January 9, 2020
खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ी और उनकी आत्महत्या की गिनती भी
देश में 86 लाख किसानों की संख्या कम हो गई और विरोधाभासी रूप से खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ गई. साफ है कि किसान, मजदूर बन गए. इसके साथ यह आंकड़ा भी देखिए, जिसे एनसीआरबी ने लंबे अंतराल के बाद जारी किया है कि देश में किसानों की तुलना में खेतिहर मजदूर अधिक आत्महत्या करने लगे हैं
देश में तमाम किस्म की उथल-पुथल और विरोध प्रदर्शनों के बीच एक आंकड़ा आया और आकर चला गया. अधिक लोगों ने उस पर ध्यान नहीं दिया. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने लंबे समय बाद देश भर में 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के लिहाज से देश भर में कतिपय कारणों से कृषि श्रमिकों की आत्महत्या में बढ़ोतरी हुई है.
8 नवंबर को वर्ष 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में कृषि क्षेत्र (किसान और खेतिहर मजदूर) में कुल 11,379 आत्महत्याएं हुईं. इस आंकड़े को विस्तारित करें तो हर महीने करीब 948 और रोजाना करीबन 31 आत्महत्याएं देश भर में हुईं.
एनसीआरबी के मुताबिक, देश में 2015 के मुकाबले किसानों की आत्महत्याओं में 11 फीसद की कमी आई है.
गौरतलब है कि साल 2016 में देश भर में कुल 6,270 किसानों ने आत्महत्या की है. साल 2015 में यह आंकड़ा 8,007 था. दूसरी तरफ खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की गिनती में बढ़ोतरी हुई है. इस बीच, एक आंकड़ा यह भी है कि देश में किसानों की संख्या (अंदाजन 86 लाख) में कमी आई है तो कृषि मजदूरों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है.
इस समस्या की जड़ हमारी व्यवस्था में है और किसानों की मौत का आंकड़ा सिर्फ एक संख्या ही नहीं है. ओपी जिंदल विश्वविद्यालय में सार्वजनिक नीति पढ़ाने वाले स्वागतो सरकार लिखते हैं, "भारत में जमींदारो किसानों के एक राजनैतिक वर्ग का उदय इसके पीछे एक बड़ा कारण है. जिन्होंने राज्य सब्सिडी और मुफ्त वस्तुओं पर कब्जा करने और सरकारी खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ उठाने वाला एक विस्तृत तंत्र विकसित किया है." जाहिर है, सरकारी नीतियों का फायदा किसानों के निचले और जरूरतमंद तबके तक नहीं पहुंच पाता है.
आंकड़े यह बताते हैं कि देश में शीर्ष 10 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास कुल कृषि योग्य भूमि का 54 फीसद का मालिकाना हक है जबकि नीचे की 50 फीसद भूमि 3 फीसद (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 399) से कम है. आधी आबादी के इसी निचले वर्ग का भविष्य अनिश्चित है और उन्हें मौत के कुएं की तरफ धकेल रहा है.
नेशनल सैंपल सर्वे 2014 बताता है कि एक औसत किसान परिवार अपनी सालाना आमदनी का सिर्फ आधा हिस्सा ही खेती से कमाता है. इसके अलावा खेती में सुधार और आमदनी बढ़ाने के लिए सार्वजनिक बैंकों के पीछे हटने इन किसानों को साहूकारों के सामने ला खड़ा किया है. सिंचाई की कमी, जलवायु परिवर्तन, मिट्टी की उर्वरता में कमी और फसलों की कीमतों में अस्थिरता (मिसाल के लिए टमाटर, आलू और प्याज) जैसी समस्याओं ने किसानों की स्थिति डांवाडोल कर दी है.
2011 की जनगणना बताती है कि देश में कृषि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे विघटन की ओर जा रही है. किसानों की संख्या में आई गिरावट और खेतिहर मजदूरो की संख्या में बढ़ोतरी साफ संकेत है कि किसान अब मजदूर बन रहे हैं.
खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या का आंकड़ा 2015 में 4,595 था जो 2016 में बढ़कर 5,109 हो गया. एक लाख की आबादी पर आत्महत्या की राष्ट्रीय दर 10.3 है. 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह दर राष्ट्रीय स्तर से अधिक है. सिक्किम में यह सर्वाधिक 40.5 है.
एनसीआरबी के अनुसार, 2016 में देशभर में कुल 1,31,008 लोगों ने आत्महत्या की. इसमें कृषि क्षेत्र में की गई आत्महत्या 8.7 फीसद है. 2015 की तरह 2016 में भी महाराष्ट्र में सबसे अधिक किसानों ने आत्महत्या की. किसानों की कुल आत्महत्या में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी 32.2 फीसद है. इसके बाद कर्नाटक (18.3 फीसद), मध्य प्रदेश (11.3 फीसद), आंध्र प्रदेश (7.1 फीसद) और छत्तीसगढ़ (6 फीसद) सर्वाधिक आत्महत्या वाले राज्यों में शामिल हैं.
आत्महत्या करने वाले 6,270 किसानों में 275 महिलाएं हैं. वहीं कृषि श्रमिकों में 633 महिलाओं ने आत्महत्या की. रिपोर्ट के अनुसार, बिहार, बंगाल और नगालैंड जैसे राज्यों में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की.
संकट में पड़ा किसान, कर्ज में फंसा किसान, जमीन खो रहा किसान मजदूर बनकर आत्महत्या कर रहा है. यह मर्ज इतना बड़ा है कि सरकार आंकड़े जारी करने में देरी कर रही है और इसकी दवा सिर्फ और सिर्फ साहसिक और तत्काल सुधार हैं लोकलुभावन बजटीय प्रावधान नहीं.
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देश में तमाम किस्म की उथल-पुथल और विरोध प्रदर्शनों के बीच एक आंकड़ा आया और आकर चला गया. अधिक लोगों ने उस पर ध्यान नहीं दिया. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने लंबे समय बाद देश भर में 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के लिहाज से देश भर में कतिपय कारणों से कृषि श्रमिकों की आत्महत्या में बढ़ोतरी हुई है.
8 नवंबर को वर्ष 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में कृषि क्षेत्र (किसान और खेतिहर मजदूर) में कुल 11,379 आत्महत्याएं हुईं. इस आंकड़े को विस्तारित करें तो हर महीने करीब 948 और रोजाना करीबन 31 आत्महत्याएं देश भर में हुईं.
एनसीआरबी के मुताबिक, देश में 2015 के मुकाबले किसानों की आत्महत्याओं में 11 फीसद की कमी आई है.
गौरतलब है कि साल 2016 में देश भर में कुल 6,270 किसानों ने आत्महत्या की है. साल 2015 में यह आंकड़ा 8,007 था. दूसरी तरफ खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की गिनती में बढ़ोतरी हुई है. इस बीच, एक आंकड़ा यह भी है कि देश में किसानों की संख्या (अंदाजन 86 लाख) में कमी आई है तो कृषि मजदूरों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है.
इस समस्या की जड़ हमारी व्यवस्था में है और किसानों की मौत का आंकड़ा सिर्फ एक संख्या ही नहीं है. ओपी जिंदल विश्वविद्यालय में सार्वजनिक नीति पढ़ाने वाले स्वागतो सरकार लिखते हैं, "भारत में जमींदारो किसानों के एक राजनैतिक वर्ग का उदय इसके पीछे एक बड़ा कारण है. जिन्होंने राज्य सब्सिडी और मुफ्त वस्तुओं पर कब्जा करने और सरकारी खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ उठाने वाला एक विस्तृत तंत्र विकसित किया है." जाहिर है, सरकारी नीतियों का फायदा किसानों के निचले और जरूरतमंद तबके तक नहीं पहुंच पाता है.
आंकड़े यह बताते हैं कि देश में शीर्ष 10 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास कुल कृषि योग्य भूमि का 54 फीसद का मालिकाना हक है जबकि नीचे की 50 फीसद भूमि 3 फीसद (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 399) से कम है. आधी आबादी के इसी निचले वर्ग का भविष्य अनिश्चित है और उन्हें मौत के कुएं की तरफ धकेल रहा है.
नेशनल सैंपल सर्वे 2014 बताता है कि एक औसत किसान परिवार अपनी सालाना आमदनी का सिर्फ आधा हिस्सा ही खेती से कमाता है. इसके अलावा खेती में सुधार और आमदनी बढ़ाने के लिए सार्वजनिक बैंकों के पीछे हटने इन किसानों को साहूकारों के सामने ला खड़ा किया है. सिंचाई की कमी, जलवायु परिवर्तन, मिट्टी की उर्वरता में कमी और फसलों की कीमतों में अस्थिरता (मिसाल के लिए टमाटर, आलू और प्याज) जैसी समस्याओं ने किसानों की स्थिति डांवाडोल कर दी है.
2011 की जनगणना बताती है कि देश में कृषि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे विघटन की ओर जा रही है. किसानों की संख्या में आई गिरावट और खेतिहर मजदूरो की संख्या में बढ़ोतरी साफ संकेत है कि किसान अब मजदूर बन रहे हैं.
खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या का आंकड़ा 2015 में 4,595 था जो 2016 में बढ़कर 5,109 हो गया. एक लाख की आबादी पर आत्महत्या की राष्ट्रीय दर 10.3 है. 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह दर राष्ट्रीय स्तर से अधिक है. सिक्किम में यह सर्वाधिक 40.5 है.
एनसीआरबी के अनुसार, 2016 में देशभर में कुल 1,31,008 लोगों ने आत्महत्या की. इसमें कृषि क्षेत्र में की गई आत्महत्या 8.7 फीसद है. 2015 की तरह 2016 में भी महाराष्ट्र में सबसे अधिक किसानों ने आत्महत्या की. किसानों की कुल आत्महत्या में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी 32.2 फीसद है. इसके बाद कर्नाटक (18.3 फीसद), मध्य प्रदेश (11.3 फीसद), आंध्र प्रदेश (7.1 फीसद) और छत्तीसगढ़ (6 फीसद) सर्वाधिक आत्महत्या वाले राज्यों में शामिल हैं.
आत्महत्या करने वाले 6,270 किसानों में 275 महिलाएं हैं. वहीं कृषि श्रमिकों में 633 महिलाओं ने आत्महत्या की. रिपोर्ट के अनुसार, बिहार, बंगाल और नगालैंड जैसे राज्यों में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की.
संकट में पड़ा किसान, कर्ज में फंसा किसान, जमीन खो रहा किसान मजदूर बनकर आत्महत्या कर रहा है. यह मर्ज इतना बड़ा है कि सरकार आंकड़े जारी करने में देरी कर रही है और इसकी दवा सिर्फ और सिर्फ साहसिक और तत्काल सुधार हैं लोकलुभावन बजटीय प्रावधान नहीं.
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Published on January 09, 2020 07:25
January 8, 2020
नदीसूत्रः सोन से रूठी नर्मदा हमसे न रूठ जाए
लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है
राजा मेखल ने तय किया था, उनकी बिटिया नर्मदा का ब्याह उसी से होगा जो गुलबकावली के दुर्लभ फूल लेकर आएगा. नर्मदा थी अनिंद्य सुंदरी. राजे-महाराजे, कुंवर-जमींदार सब थक गए, गुलबकावली का फूल खोज न पाए. पर एक था ऐसा बांका नौजवान, राजकुमार शोणभद्र. वह ले आया गुलबकावली का दुर्लभ पुष्प.
ब्याह तय हो गया. अब तक नर्मदा ने शोणबद्र के रूप-गुण और जांबाजी के बारे में बहुत कुछ सुन लिया था. मन ही मन चाहने लगी थी. शादी में कुछ दिन बाकी थे कि रहा न गया नर्मदा से. दासी जुहिला के हाथो शोणभद्र को संदेशा भिजवा ही दियाः एक बार मिल तो लो.
शोणभद्र ने भी नर्मदा को देखा तो था नहीं सो पहली मुलाकात में जुहिला को ही नर्मदा समझ बैठा. जुहिला की नीयत भी शोण को देखकर डोल गई. उसने सच छिपा लिया, कहा, मैं ही हूं नर्मदा.
दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो नर्मदा खुद चल पड़ी शोणभद्र से मिलने. वह पहुंची तो देखती क्या है, जुहिला और शोणभद्र प्रेमपाश में हैं. अपमान और गुस्से से भरी नर्मदा वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए.
शोण ने बहुतेरी माफी मांगी पर नर्मदा ने धारा नहीं बदली. आज भी जयसिंहनगर में गांव बरहा के पास जुहिला नदी को दूषित नदी माना जाता है और सोन से इसका बाएं तट पर दशरथ घाट पर संगम होता है. वहीं नर्मदा उल्टी दिशा में बह रही होती है. अब भी शोण के प्रेम में, पर अकेली और कुंवारी...
वही नर्मदा एक बार फिर अकेली पड़ गई है.
नर्मदा की सूखती सहायक नदी का पाट फोटोः सोशल मीडिया
इस बार उसे शोणभद्र ने नहीं, उसकी अपनी संतानों, इंसानों ने धोखा दिया है. लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है.
मध्य प्रदेश में जंगल का इलाका काफी सिकुड़ा है और आंकड़े इसकी तस्दीक भी करते हैं. 2017 की भारत सरकार का वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में 1991 में जंगल का इलाका 1,35,755 वर्ग किमी था जो 2011 में घटकर 77,700 वर्ग किमी रह गया. इसमें अगले चार साल में और कमी आई और 2015 में यह घटकर 77,462 वर्ग किमी हो गया. 2017 में सूबे में वन भूमि 77,414 वर्ग किमी रहा. जाहिर है, तेजी से खत्म होते जंगलों की वजह से नर्मदा के जलभर (एक्विफर) भरने वाले सोते खत्म होते चले जा रहे हैं.
2018 में नर्मदा कई जगहों पर सूख गई थी. नर्मदा प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी नदियों मे से एक है और मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलती है. इस नदी पर बने छह बड़े बांधों ने इसके जीवन पर संकट पैदा कर दिया है. छह ही क्यों, नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत 30 बड़े और 135 मझोले बांध हैं.
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआइ) की एक रिपोर्ट में इसे दुनिया की उन छह नदियों में रखा है जिसके सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में तो इस नदी में जल का ऐसा संकट आ खड़ा हुआ था कि गुजरात सरकार ने सरदार सरोवर बांध से सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी बंदिश लगा दी थी. जानकार बताते हैं, कि इस नदी के बेसिन पर बहुत अधिक दबाव बन रहा है और बढ़ती आबादी की विकासात्मक जरूरतें पूरी करने के लिहाज का नर्मदा का पानी कम पड़ता जा रहा है.
एसएएनडीआरपी वेबसाइट पर परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि महेश्वर बांध पर उन्हें ऐसे लोग मिले जो कहते हैं कि अगर जमीन के बदले जमीन दी जाती है, मकान के बदले मकान, तो नदी के बदले नदी भी दी जानी चाहिए.
नर्मदा ही नहीं तमाम नदियों के अस्तित्व पर आए संकट का सीधा असर तो मछुआरा समुदाय पर पड़ता है. उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता, कोई पुनर्वास नहीं होता, उनके लिए किसी पैकेज का प्रावधान नहीं. रोजगार नहीं.
नर्मदा पर बांध बनने के बाद से, दांडेकर लिखती हैं, कि उन्हें बताया गया कि मछली की कई नस्लें विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं. झींगे तो बचे ही नगीं. गेगवा, बाम (ईल) और महशीर की आबादी में खतरनाक तरीके से कमी आई है.
न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित एक खबर में आइआइटी दिल्ली के शोध छात्र के हवाले से एक आंकड़ा दिया गया है जिसके मुताबिक, मध्य प्रदेश में नर्मदा की 41 सहायक नदियां अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं.
शोणभद्र से रूठी नर्मदा का आंचल खनन और वनों की कटाई से तार-तार हो रहा है. डर है, मां रेवा कहीं अपनी संतानों से सदा के लिए न रूठ जाए.
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राजा मेखल ने तय किया था, उनकी बिटिया नर्मदा का ब्याह उसी से होगा जो गुलबकावली के दुर्लभ फूल लेकर आएगा. नर्मदा थी अनिंद्य सुंदरी. राजे-महाराजे, कुंवर-जमींदार सब थक गए, गुलबकावली का फूल खोज न पाए. पर एक था ऐसा बांका नौजवान, राजकुमार शोणभद्र. वह ले आया गुलबकावली का दुर्लभ पुष्प.
ब्याह तय हो गया. अब तक नर्मदा ने शोणबद्र के रूप-गुण और जांबाजी के बारे में बहुत कुछ सुन लिया था. मन ही मन चाहने लगी थी. शादी में कुछ दिन बाकी थे कि रहा न गया नर्मदा से. दासी जुहिला के हाथो शोणभद्र को संदेशा भिजवा ही दियाः एक बार मिल तो लो.
शोणभद्र ने भी नर्मदा को देखा तो था नहीं सो पहली मुलाकात में जुहिला को ही नर्मदा समझ बैठा. जुहिला की नीयत भी शोण को देखकर डोल गई. उसने सच छिपा लिया, कहा, मैं ही हूं नर्मदा.
दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो नर्मदा खुद चल पड़ी शोणभद्र से मिलने. वह पहुंची तो देखती क्या है, जुहिला और शोणभद्र प्रेमपाश में हैं. अपमान और गुस्से से भरी नर्मदा वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए.
शोण ने बहुतेरी माफी मांगी पर नर्मदा ने धारा नहीं बदली. आज भी जयसिंहनगर में गांव बरहा के पास जुहिला नदी को दूषित नदी माना जाता है और सोन से इसका बाएं तट पर दशरथ घाट पर संगम होता है. वहीं नर्मदा उल्टी दिशा में बह रही होती है. अब भी शोण के प्रेम में, पर अकेली और कुंवारी...
वही नर्मदा एक बार फिर अकेली पड़ गई है.
नर्मदा की सूखती सहायक नदी का पाट फोटोः सोशल मीडियाइस बार उसे शोणभद्र ने नहीं, उसकी अपनी संतानों, इंसानों ने धोखा दिया है. लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है.
मध्य प्रदेश में जंगल का इलाका काफी सिकुड़ा है और आंकड़े इसकी तस्दीक भी करते हैं. 2017 की भारत सरकार का वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में 1991 में जंगल का इलाका 1,35,755 वर्ग किमी था जो 2011 में घटकर 77,700 वर्ग किमी रह गया. इसमें अगले चार साल में और कमी आई और 2015 में यह घटकर 77,462 वर्ग किमी हो गया. 2017 में सूबे में वन भूमि 77,414 वर्ग किमी रहा. जाहिर है, तेजी से खत्म होते जंगलों की वजह से नर्मदा के जलभर (एक्विफर) भरने वाले सोते खत्म होते चले जा रहे हैं.
2018 में नर्मदा कई जगहों पर सूख गई थी. नर्मदा प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी नदियों मे से एक है और मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलती है. इस नदी पर बने छह बड़े बांधों ने इसके जीवन पर संकट पैदा कर दिया है. छह ही क्यों, नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत 30 बड़े और 135 मझोले बांध हैं.
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआइ) की एक रिपोर्ट में इसे दुनिया की उन छह नदियों में रखा है जिसके सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में तो इस नदी में जल का ऐसा संकट आ खड़ा हुआ था कि गुजरात सरकार ने सरदार सरोवर बांध से सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी बंदिश लगा दी थी. जानकार बताते हैं, कि इस नदी के बेसिन पर बहुत अधिक दबाव बन रहा है और बढ़ती आबादी की विकासात्मक जरूरतें पूरी करने के लिहाज का नर्मदा का पानी कम पड़ता जा रहा है.
एसएएनडीआरपी वेबसाइट पर परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि महेश्वर बांध पर उन्हें ऐसे लोग मिले जो कहते हैं कि अगर जमीन के बदले जमीन दी जाती है, मकान के बदले मकान, तो नदी के बदले नदी भी दी जानी चाहिए.
नर्मदा ही नहीं तमाम नदियों के अस्तित्व पर आए संकट का सीधा असर तो मछुआरा समुदाय पर पड़ता है. उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता, कोई पुनर्वास नहीं होता, उनके लिए किसी पैकेज का प्रावधान नहीं. रोजगार नहीं.
नर्मदा पर बांध बनने के बाद से, दांडेकर लिखती हैं, कि उन्हें बताया गया कि मछली की कई नस्लें विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं. झींगे तो बचे ही नगीं. गेगवा, बाम (ईल) और महशीर की आबादी में खतरनाक तरीके से कमी आई है.
न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित एक खबर में आइआइटी दिल्ली के शोध छात्र के हवाले से एक आंकड़ा दिया गया है जिसके मुताबिक, मध्य प्रदेश में नर्मदा की 41 सहायक नदियां अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं.
शोणभद्र से रूठी नर्मदा का आंचल खनन और वनों की कटाई से तार-तार हो रहा है. डर है, मां रेवा कहीं अपनी संतानों से सदा के लिए न रूठ जाए.
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Published on January 08, 2020 04:44
January 7, 2020
एक था पीयूष
पीयूष नाम था उसका. जिसके नाम का अर्थ ही अमृत था, वह नहीं रहा. उसके जाने की खबर पर यकीन नहीं हो रहा. वह जब मुस्कुराता था तो उसके गालों पर गड्ढे पड़ते थे. इतना खुशमिजाज कि साथ में चलते चलते भी चुटीली बातें करके उदास से उदास दिन को जिंदादिली में बदल जाता.
पीयूष और धीरज (नीले टीशर्ट में)
हमने बचपन साथ गुजारा था. उससे पहली बार मुलाकात तो तब हुई जब उसका परिवार मधुपुर के एक दूरस्थ मुहल्ले में कुमार साहब नाम के प्रतिष्ठित अध्यापक के यहां किराए में रहता. तब मेरी उम्र पांच-छह साल की रही होगी. फिर कुछ महीनों बाद 1986 या 87 में वे लोग हमारे घर में आ गए थे.
बचपन के दोस्त विजय की गोद में पीयूष
और उसके बाद से हमारी दोस्ती गाढ़ी हो गई. फिर हाइस्कूल तक पढ़ाई हो या क्विज कंपीटिशन और चित्रकला प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना, हम साथ रहे. वह मन से चित्रकार था, उसकी गणित की कापियों में समीकरणों की बजाए चित्र खिंचे होते थे. उसका मन कवि का था...बेहतरीन लिखता था.
मधुपुर के पास के गांव पननिया में घुघनी खाने पहुंचे सारे बैचमेट. पीयूष नीली कमीज में है
उसने मुझसे वायदा लिया था कि वह एक कविता संग्रह प्रकाशित करवाएगा और उसका संपादन मुझे करना होगा. जब हम छोटे थे तब भी उसके खेल निराले थे, वह दीवार पर जमने वाले हरे मॉस (काई) उखाड़ लाता और रेत पर उससे सजाकर महलें और पार्क बनाता...
दोस्तों के झुंड में
सोशल मीडिया पर आने के बाद वैचारिक रूप से हममें तकरारें भी हुईं, पर हर बार गर्मागर्म बहस के बाद वह फोन करता था, भाई, प्यार अपनी जगह. तर्क अपनी जगह. फोन रखते समय हम दोनों मुस्कुराते हुए बात खत्म करते थे. मधुपुर की सड़कों पर बिना बात, बेमकसद घूमने से लेकर अपनी किसी कहानी के प्लॉट तक के बारे में बात करने के लिए पीयूष से निकट मित्र नहीं मिला था मुझे.
पीयूष और अरविंद
मुझे नहीं मालूम कि प्रेम में आकंठ डूबकर जीवन के बेहतर तरीके से जीने में यकीन रखने वाले, पीयूष की तबीयत दिन ब दिन कैसे बिगड़ती गई. दो बरस पहले मधुपुर गया था तो वह सख्त बीमार था और चाचाजी (उसके पिता) उसे बरेली से वापस मधुपुर ले गए थे. चाचाजी ने मुझसे कहा, स्टेशन पर से उसने जिद करके इंडिया टुडे मैगजीन खरीदवाई और तुम्हारी रपट देखकर खुश हो गया था. मानो उसी के नाम से खबर छपी हो.
उस साल मधुपुर के हमारे दोस्तों के वॉट्सऐप ग्रुप में उसको जोड़ा, जबरिया. क्योंकि वह बीमार पड़ने के बाद से ग्रुप्स में जोड़े जाने से सकुचाने लगा था. पर, फिर ग्रुप में दोस्तों के साथ ठठाकर हंसते देखा उसको...तो लगा भाई ठीक होने लगा है. पर अचानक आज जो खबर आई वह स्तब्ध कर गई.
इतनी हिम्मत नहीं कि मौसी (उसकी मां) को फोन कर पाऊं...एक मां के दिल पर क्या बीत रही होगी, इसका अंदाजा लगाकर ही सन्न रह जाता हूं. पीयूष अपना वादा तोड़कर चला गया. उसकी कविताओं के संग्रह का संपादन बाकी ही रह गया. बड़े गौर से सुन रहा था ज़माना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते. लौट आओ दोस्त पीयूष, नए साल का यूं आगाज़ बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा. तुम ताजिंदगी याद आओगे.
पीयूष और धीरज (नीले टीशर्ट में)हमने बचपन साथ गुजारा था. उससे पहली बार मुलाकात तो तब हुई जब उसका परिवार मधुपुर के एक दूरस्थ मुहल्ले में कुमार साहब नाम के प्रतिष्ठित अध्यापक के यहां किराए में रहता. तब मेरी उम्र पांच-छह साल की रही होगी. फिर कुछ महीनों बाद 1986 या 87 में वे लोग हमारे घर में आ गए थे.
बचपन के दोस्त विजय की गोद में पीयूषऔर उसके बाद से हमारी दोस्ती गाढ़ी हो गई. फिर हाइस्कूल तक पढ़ाई हो या क्विज कंपीटिशन और चित्रकला प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना, हम साथ रहे. वह मन से चित्रकार था, उसकी गणित की कापियों में समीकरणों की बजाए चित्र खिंचे होते थे. उसका मन कवि का था...बेहतरीन लिखता था.
मधुपुर के पास के गांव पननिया में घुघनी खाने पहुंचे सारे बैचमेट. पीयूष नीली कमीज में हैउसने मुझसे वायदा लिया था कि वह एक कविता संग्रह प्रकाशित करवाएगा और उसका संपादन मुझे करना होगा. जब हम छोटे थे तब भी उसके खेल निराले थे, वह दीवार पर जमने वाले हरे मॉस (काई) उखाड़ लाता और रेत पर उससे सजाकर महलें और पार्क बनाता...
दोस्तों के झुंड मेंसोशल मीडिया पर आने के बाद वैचारिक रूप से हममें तकरारें भी हुईं, पर हर बार गर्मागर्म बहस के बाद वह फोन करता था, भाई, प्यार अपनी जगह. तर्क अपनी जगह. फोन रखते समय हम दोनों मुस्कुराते हुए बात खत्म करते थे. मधुपुर की सड़कों पर बिना बात, बेमकसद घूमने से लेकर अपनी किसी कहानी के प्लॉट तक के बारे में बात करने के लिए पीयूष से निकट मित्र नहीं मिला था मुझे.
पीयूष और अरविंदमुझे नहीं मालूम कि प्रेम में आकंठ डूबकर जीवन के बेहतर तरीके से जीने में यकीन रखने वाले, पीयूष की तबीयत दिन ब दिन कैसे बिगड़ती गई. दो बरस पहले मधुपुर गया था तो वह सख्त बीमार था और चाचाजी (उसके पिता) उसे बरेली से वापस मधुपुर ले गए थे. चाचाजी ने मुझसे कहा, स्टेशन पर से उसने जिद करके इंडिया टुडे मैगजीन खरीदवाई और तुम्हारी रपट देखकर खुश हो गया था. मानो उसी के नाम से खबर छपी हो.
उस साल मधुपुर के हमारे दोस्तों के वॉट्सऐप ग्रुप में उसको जोड़ा, जबरिया. क्योंकि वह बीमार पड़ने के बाद से ग्रुप्स में जोड़े जाने से सकुचाने लगा था. पर, फिर ग्रुप में दोस्तों के साथ ठठाकर हंसते देखा उसको...तो लगा भाई ठीक होने लगा है. पर अचानक आज जो खबर आई वह स्तब्ध कर गई.
इतनी हिम्मत नहीं कि मौसी (उसकी मां) को फोन कर पाऊं...एक मां के दिल पर क्या बीत रही होगी, इसका अंदाजा लगाकर ही सन्न रह जाता हूं. पीयूष अपना वादा तोड़कर चला गया. उसकी कविताओं के संग्रह का संपादन बाकी ही रह गया. बड़े गौर से सुन रहा था ज़माना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते. लौट आओ दोस्त पीयूष, नए साल का यूं आगाज़ बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा. तुम ताजिंदगी याद आओगे.
Published on January 07, 2020 04:04
December 24, 2019
झारखंड में हर बार हारते हैं पदासीन विधानसभा अध्यक्ष
भले ही इसे चुनावी आंकड़ों का अंधविश्वास कहा जाए, पर ट्रेंड है कि झारखंड गठन के बाद से हर बार पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना अगला चुनाव हार जाते हैं. इस बार भी निवर्तमान विधानसभा स्पीकर दिनेश उरांव पराजय की कगार पर खड़े हैं
झारखंड में विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके हैं. आने वाली विधानसभा की तस्वीर भी तकरीबन साफ हो चुकी है कि सूबे की कमान अब झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन के हाथ ही आएगी. इस पोस्ट के लिखे जाने तक राज्य की 81 सीटों में से 47 पर झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन आगे चल रहा था और भाजपा 24 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है. ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) 3 सीटों पर और बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (पी) 3 सीटों पर आगे चल रही है. चार पर निर्दलीय या अन्यों की बढ़त है. इन चार अन्य में एक बड़ा नाम सरयू राय का है, जो मुख्यमंत्री रघुबर दास को पटखनी देने की तैयारी में हैं.
लेकिन एक दिलचस्प बात है कि सन् 2000 में झारखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से यहां की सियासत में कई उतार-चढ़ाव आए. 10 बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ यानी मुख्यमंत्री पद पर बदलाव हुए. लेकिन एक बात हर बार सही होती रही. चुनाव के समय पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना अगला चुनाव हारते रहे. ऐसा 2005, 2009 और 2014 में हो चुका है. अब तक सारे पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना चुनाव जीतने में नाकाम रहे हैं. इस वक्त तक, सिसई विधानसभा सीट से किस्मत आजमा रहे निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव करीब 29 हजार मतों से पीछे चल रहे हैं. (आखिरकार पराजित भी हुए)
2005 में झारखंड में विभाजन के बाद पहले चुनाव हुए थे और तब विधानसभा अध्यक्ष के पद पर एम.पी. सिंह बैठे थे. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उन्हें टिकट नहीं दिया था, क्योंकि जमशेदपुर पश्चिम सीट से पार्टी ने सरयू राय को टिकट दे दिया था. एम.पी. सिंह बगावत पर उतर आए और उन्होंने पार्टी छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का दामन थाम लिया और उसके टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे. पर उन्होंने चुनाव मैदान में मात खानी पड़ी थी.
इसी तरह, 2009 के चुनाव से पहले विधानसभा अध्यक्ष की कुरसी पर आलमगीर आलम काबिज थे. पर उस चुनाव में कांग्रेस, राजद और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने गठबंधन की बजाए अलग-अलग चुनाव लड़ा था और पाकुड़ सीट से आलमगीर आलम चुनाव हार गए थे. पाकुड़ में झामुमो ने जीत दर्ज की थी. इसी तरह 2014 में झामुमो कांग्रेस और राजद फिर से किसी गठजोड़ के समझौते पर नहीं पहुंच पे थे और तब के स्पीकर शशांक शेखर भोक्ता देवघर जिले की सारठ विधानसभी सीट से चुनाव हार गए.
हालांकि, यह महज एक संयोग हो सकता है पर हर चुनावी हार के पीछे एक तर्क और मजबूत कारण तो होते ही हैं.
बहरहाल, विधानसभा के निवर्तमान अध्यक्ष दिनेश उरांव सिसई सीट से भाजपा उम्मीदवार हैं. इस खबर के लिखे जाने तक दिनेश उरांव को 42,879 वोट मिले थे जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी और झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार जीगा सुसरन होरो ने 71737 वोट हासिल कर लिए थे. करीब 29 हजार वोटो का यह अंतर इस वक्त पाटना मुश्किल ही लग रहा है.
ऐसे में भले ही पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष के चुनावी प्रदर्शन को अंधविश्वास से जोड़ा जाए, पर लगातार चौथी बार आए नतीजे इस बात को पुष्ट ही करते हैं. आखिर, चुनावी नतीजे आंकड़ों के आधार पर ही तो विश्लेषित किए जाते हैं.
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झारखंड में विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके हैं. आने वाली विधानसभा की तस्वीर भी तकरीबन साफ हो चुकी है कि सूबे की कमान अब झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन के हाथ ही आएगी. इस पोस्ट के लिखे जाने तक राज्य की 81 सीटों में से 47 पर झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन आगे चल रहा था और भाजपा 24 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है. ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) 3 सीटों पर और बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (पी) 3 सीटों पर आगे चल रही है. चार पर निर्दलीय या अन्यों की बढ़त है. इन चार अन्य में एक बड़ा नाम सरयू राय का है, जो मुख्यमंत्री रघुबर दास को पटखनी देने की तैयारी में हैं.
लेकिन एक दिलचस्प बात है कि सन् 2000 में झारखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से यहां की सियासत में कई उतार-चढ़ाव आए. 10 बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ यानी मुख्यमंत्री पद पर बदलाव हुए. लेकिन एक बात हर बार सही होती रही. चुनाव के समय पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना अगला चुनाव हारते रहे. ऐसा 2005, 2009 और 2014 में हो चुका है. अब तक सारे पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना चुनाव जीतने में नाकाम रहे हैं. इस वक्त तक, सिसई विधानसभा सीट से किस्मत आजमा रहे निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव करीब 29 हजार मतों से पीछे चल रहे हैं. (आखिरकार पराजित भी हुए)
2005 में झारखंड में विभाजन के बाद पहले चुनाव हुए थे और तब विधानसभा अध्यक्ष के पद पर एम.पी. सिंह बैठे थे. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उन्हें टिकट नहीं दिया था, क्योंकि जमशेदपुर पश्चिम सीट से पार्टी ने सरयू राय को टिकट दे दिया था. एम.पी. सिंह बगावत पर उतर आए और उन्होंने पार्टी छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का दामन थाम लिया और उसके टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे. पर उन्होंने चुनाव मैदान में मात खानी पड़ी थी.
इसी तरह, 2009 के चुनाव से पहले विधानसभा अध्यक्ष की कुरसी पर आलमगीर आलम काबिज थे. पर उस चुनाव में कांग्रेस, राजद और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने गठबंधन की बजाए अलग-अलग चुनाव लड़ा था और पाकुड़ सीट से आलमगीर आलम चुनाव हार गए थे. पाकुड़ में झामुमो ने जीत दर्ज की थी. इसी तरह 2014 में झामुमो कांग्रेस और राजद फिर से किसी गठजोड़ के समझौते पर नहीं पहुंच पे थे और तब के स्पीकर शशांक शेखर भोक्ता देवघर जिले की सारठ विधानसभी सीट से चुनाव हार गए.
हालांकि, यह महज एक संयोग हो सकता है पर हर चुनावी हार के पीछे एक तर्क और मजबूत कारण तो होते ही हैं.
बहरहाल, विधानसभा के निवर्तमान अध्यक्ष दिनेश उरांव सिसई सीट से भाजपा उम्मीदवार हैं. इस खबर के लिखे जाने तक दिनेश उरांव को 42,879 वोट मिले थे जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी और झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार जीगा सुसरन होरो ने 71737 वोट हासिल कर लिए थे. करीब 29 हजार वोटो का यह अंतर इस वक्त पाटना मुश्किल ही लग रहा है.
ऐसे में भले ही पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष के चुनावी प्रदर्शन को अंधविश्वास से जोड़ा जाए, पर लगातार चौथी बार आए नतीजे इस बात को पुष्ट ही करते हैं. आखिर, चुनावी नतीजे आंकड़ों के आधार पर ही तो विश्लेषित किए जाते हैं.
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Published on December 24, 2019 06:38
December 19, 2019
नदीसूत्रः सोने के कणों वाली नदी स्वर्णरेखा की क्षीण होती जीवनरेखा
स्वर्णरेखा नदी में सोने के कण पाए जाते हैं, पर मिथकों में महाभारत से जुड़ी स्वर्णरेखा की जीवनरेखा क्षीण होती जा रही है. उद्योगों और घरों से निकले अपशिष्ट के साथ खदानों से निकले अयस्कों ने इस नदी के जीवन पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह नदी सूखी तो झारखंड, बंगाल और ओडिशा में कई इलाके जलविहीन हो जाएंगे
हर नदी के पास एक कहानी होती है. स्वर्णरेखा नदी के पास भी है. झारखंड की इस नदी को वैसे ही जीवनदायिनी कहा जाता है जैसे हर इलाके में एक न एक नदी कही जाती है. पर झारखंड की यह नदी, अपने नाम के मुताबिक ही सच में सोना उगलती है.
यह किस्सा स्वर्णरेखा के उद्गम के पास के गांव, नगड़ी के पास रानीचुआं के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहां आकर रहे थे, इसीलिए गांव का नाम पांडु है. खास बात यह है कि स्वर्णरेखा के उद्गम का नाम रानी चुआं इसलिए पड़ा क्योंकि एकबार जब इस निर्जन इलाके में रानी द्रौपदी को प्यास लगी तो अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थल से पानी निकाला था, जो आज भी मौजूद है. समय के साथ नदी का नाम स्वर्णरेखा पड़ गया.
वैसे भी मिथक सच या झूठ के दायरे से वह थोड़े बाहर होते हैं. यह पता नहीं कि पांडु गांव, पांडवों के अज्ञातवास और अर्जुन के बाण से निर्मित रानी चुआं की कहानी कितनी सच है? लेकिन यह मिथक कतई नहीं है कि स्वर्णरेखा झारखंड की गंगा की तरह है और गंगा की तरह ही इसको देखना अब रोमांचकारी कम और निराशाजनक ज्यादा हो गया है.
पर स्वर्णरेखा नदी से सोना निकलता जरूर है, पर यह कोई नहीं जानता कि इसमें सोना आता कहां से है. स्वर्णरेखा नदी में स्वर्णकणों के मिलने के कारण इस क्षेत्र के स्वर्णकारों के लिये इस नदी की खास अहमियत है. किंवदन्ती है कि इस इलाके पर राज करने वाले नागवंशी राजाओं पर जब मुगल शासकों ने आक्रमण किया तो नागवंशी रानी ने अपने स्वर्णाभूषणों को इस नदी में प्रवाहित कर दिया, जिसके तेज धार से आभूषण स्वर्णकणों में बदल गए और आज भी प्रवाहमान है.
आज भी आप जाएं तो नदी में सूप लिए जगह-जगह खड़ी महिलाएं दिख जाएंगी. इलाके के करीब आधा दर्जन गांवों के परिवार इस नदी से निकलने वाले सोने पर निर्भर हैं. कडरूडीह, पुरनानगर, नोढ़ी, तुलसीडीह जैसे गांवों के लोग इस नदी से पीढियों से सोना निकाल रहे हैं. पहले यह काम इन गांवों के पुरुष भी करते थे, लेकिन आमदनी कम होने से पुरुषों ने अन्य कामों का रुख कर लिया, जबकि महिलाएं परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए आज भी यही करती हैं.
नदी की रेत से रोज सोना निकालने वाले तो धनवान होने चाहिए? पर ऐसा है नहीं. हालात यही है कि दिनभर सोना छानने वालों के हाथ इतने पैसे भी नहीं आते कि परिवार पाल सकें. नदी से सोना छानने वाली हर महिला एक दिन में करीब एक या दो चावल के दाने के बराबर सोना निकाल लेती है. एक महीने में कुल सोना करीब एक से डेढ़ ग्राम होता है. हर दिन स्थानीय साहूकार महिला से 80 रुपए में एक चावल के बराबर सोना खरीदता है. वह बाजार में इसे करीब 300 रुपए तक में बेचता है. हर महिला सोना बेचकर करीब 5,000 रुपए तक महीने में कमाती है.
395 किलोमीटर लंबी यह बरसाती नदी देश की सबसे छोटी अंतरराज्यीय (कई राज्यों से होकर बहने वाली) नदी है जिसके बेसिन का क्षेत्रफल करीब 19 हजार वर्ग किमी है. यह रांची, सरायकेला-खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) और बालासोर (ओडिशा) से होकर बहती है. पर जानकारों का कहना है कि यह नदी अब सूखने लगी है और इसके उद्गम स्थल पर यह एक नाला होकर रह गई है. जानकारों के मुताबिक, इस नदी में कम होते पानी की वजह से भूजल स्तर भी तेजी से गिरता जा रहा है. काटे जा रहे जंगलों की वजह से मृदा अपरदन भी बढ़ गया है.
हालांकि इस नदी पर बनने वाले चांडिल और इछा बांध का आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया और यहां 6 जनवरी, 1979 को हुई पुलिस फायरिंग में चार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी. परियोजना चलती रही और 1999 में इस परियोजना पर भ्रष्टाचार की कैग की रिपोर्ट के बाद इसे पूरे होने में 40 साल का समय लगा. परियोजना तो पूरी हुआ लेकिन इसमें चस्पां स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और बिजली मुहैया कराने के वायदे पूरे नहीं हुए.
इस नदी की बेसिन में कई तरह के खनिज हैं. सोने का जिक्र हम कर ही चुके हैं. पर इन सबने नदी की सूरत बिगाड़ दी. खनन और धातु प्रसंस्करण उद्योगों ने नदी को प्रदूषित करना भी शुरू कर दिया है. अब नदी के पानी में घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों के साथ-साथ रेडियोसक्रिय तत्वों की मौजूदगी भी है. खासकर, खुले खदानों से बहकर आए अयस्क इस नदी की सांस घोंट रहे हैं.
ओडिशा के मयूरभंज और सिंहभूम जिलों में देश के तांबा निक्षेप सबसे अधिक हैं. 2016 में किए गिरि व अन्य वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक, सुवर्ण रेखा नदी में धात्विक प्रदूषण मौजूद है. अब नदी और इसकी सहायक नदियों में अवैध रेत खनन तेजी पर है. इससे नदी की पारिस्थितिकी खतरे में आ गई है.
इस नदी बेसिन के मध्यवर्ती इलाके में यूरेनियम के निक्षेप है. यूरेनियम खदानों के लिए मशहूर जादूगोड़ा का नाम तो आपने सुना ही होगा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, रेडियोसक्रिय तत्व इस खदान के टेलिंग पॉन्ड से बहकर नदी में आ रहे हैं.
जमशेदपुर शहर, जो इस नदी के बेसिन का सबसे बड़ा शहर है, का सारा सीवेज सीधे नदी में आकर गिरता है. और अब इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है और नदी के पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) तय मानक से अधिक हो गया है, जबकि बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड मानक से कम होना चाहिए. झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्वर्णरेखा नदी के पानी के नमूने की जांच कराई तो पता चला कि अधिकतर जगहों पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम पाई गई.
स्थिति यह है कि स्वर्णरेखा नदी का पानी जानवरों और मछलियों के लिए सुरक्षित नहीं है. जानवरों और मछलियों के लिए पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा 1.2 मिलीग्राम से कम होनी चाहिए, जबकि 7.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है. इसकी वजह से काफी संख्या में मछलियां नदी में मर रही हैं इसके साथ ही साथ जानवरों को भी कई तरह की बीमारियां हो रही हैं.
स्वर्णरेखा और खरकई नदियों का संगम, जमशेद पुर के ठीक पास में है और यहां आप लौह अयस्क के कारखानों से निकले स्लग को देख सकते हैं. हालांकि, भाजपा नेता (अब बागी) सरयू राय ने 2011 में इसे लेकर जनहित याचिका दायर की थी, और तब टाटा स्टील ने जवाब में कहा कि यह स्लग शहर की जनता को स्वर्णरेखा की बाढ़ से बचाने के लिए जमा किया गया है. हाइकोर्ट ने टाटा को यह जगह साफ करने को कहा था. हालांकि इस पर हुई कार्रवाई की ताजा खबर नहीं है.
इस इलाके में मौजूद छोटी और बड़ी औद्योगिक इकाइयों, लौह गलन भट्ठियों, कोल वॉशरीज और खदानों ने नदी की दुर्गति कर रखी है.
बहरहाल, खेती, पर्यटन और धार्मिक-आध्यात्मिक केंद्र के नजरिए से सम्भावनाओं से भरे स्वर्णरेखा नदी में उद्गम से लेकर मुहाने तक, इस इलाके में पांडवों से लेकर चुटिया नागपुर के नागवंशी राजाओं से जुड़े मिथकों का प्रभाव कम और हकीकत के अफसाने ज्यादा सुनाई पड़ते हैं. मृत्युशैय्या पर पड़ी जीवनरेखा स्वर्णरेखा की आखिरी सांसों में फंसे अफसाने.
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हर नदी के पास एक कहानी होती है. स्वर्णरेखा नदी के पास भी है. झारखंड की इस नदी को वैसे ही जीवनदायिनी कहा जाता है जैसे हर इलाके में एक न एक नदी कही जाती है. पर झारखंड की यह नदी, अपने नाम के मुताबिक ही सच में सोना उगलती है.
यह किस्सा स्वर्णरेखा के उद्गम के पास के गांव, नगड़ी के पास रानीचुआं के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहां आकर रहे थे, इसीलिए गांव का नाम पांडु है. खास बात यह है कि स्वर्णरेखा के उद्गम का नाम रानी चुआं इसलिए पड़ा क्योंकि एकबार जब इस निर्जन इलाके में रानी द्रौपदी को प्यास लगी तो अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थल से पानी निकाला था, जो आज भी मौजूद है. समय के साथ नदी का नाम स्वर्णरेखा पड़ गया.
वैसे भी मिथक सच या झूठ के दायरे से वह थोड़े बाहर होते हैं. यह पता नहीं कि पांडु गांव, पांडवों के अज्ञातवास और अर्जुन के बाण से निर्मित रानी चुआं की कहानी कितनी सच है? लेकिन यह मिथक कतई नहीं है कि स्वर्णरेखा झारखंड की गंगा की तरह है और गंगा की तरह ही इसको देखना अब रोमांचकारी कम और निराशाजनक ज्यादा हो गया है.
पर स्वर्णरेखा नदी से सोना निकलता जरूर है, पर यह कोई नहीं जानता कि इसमें सोना आता कहां से है. स्वर्णरेखा नदी में स्वर्णकणों के मिलने के कारण इस क्षेत्र के स्वर्णकारों के लिये इस नदी की खास अहमियत है. किंवदन्ती है कि इस इलाके पर राज करने वाले नागवंशी राजाओं पर जब मुगल शासकों ने आक्रमण किया तो नागवंशी रानी ने अपने स्वर्णाभूषणों को इस नदी में प्रवाहित कर दिया, जिसके तेज धार से आभूषण स्वर्णकणों में बदल गए और आज भी प्रवाहमान है.
आज भी आप जाएं तो नदी में सूप लिए जगह-जगह खड़ी महिलाएं दिख जाएंगी. इलाके के करीब आधा दर्जन गांवों के परिवार इस नदी से निकलने वाले सोने पर निर्भर हैं. कडरूडीह, पुरनानगर, नोढ़ी, तुलसीडीह जैसे गांवों के लोग इस नदी से पीढियों से सोना निकाल रहे हैं. पहले यह काम इन गांवों के पुरुष भी करते थे, लेकिन आमदनी कम होने से पुरुषों ने अन्य कामों का रुख कर लिया, जबकि महिलाएं परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए आज भी यही करती हैं.
नदी की रेत से रोज सोना निकालने वाले तो धनवान होने चाहिए? पर ऐसा है नहीं. हालात यही है कि दिनभर सोना छानने वालों के हाथ इतने पैसे भी नहीं आते कि परिवार पाल सकें. नदी से सोना छानने वाली हर महिला एक दिन में करीब एक या दो चावल के दाने के बराबर सोना निकाल लेती है. एक महीने में कुल सोना करीब एक से डेढ़ ग्राम होता है. हर दिन स्थानीय साहूकार महिला से 80 रुपए में एक चावल के बराबर सोना खरीदता है. वह बाजार में इसे करीब 300 रुपए तक में बेचता है. हर महिला सोना बेचकर करीब 5,000 रुपए तक महीने में कमाती है.
395 किलोमीटर लंबी यह बरसाती नदी देश की सबसे छोटी अंतरराज्यीय (कई राज्यों से होकर बहने वाली) नदी है जिसके बेसिन का क्षेत्रफल करीब 19 हजार वर्ग किमी है. यह रांची, सरायकेला-खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) और बालासोर (ओडिशा) से होकर बहती है. पर जानकारों का कहना है कि यह नदी अब सूखने लगी है और इसके उद्गम स्थल पर यह एक नाला होकर रह गई है. जानकारों के मुताबिक, इस नदी में कम होते पानी की वजह से भूजल स्तर भी तेजी से गिरता जा रहा है. काटे जा रहे जंगलों की वजह से मृदा अपरदन भी बढ़ गया है.
हालांकि इस नदी पर बनने वाले चांडिल और इछा बांध का आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया और यहां 6 जनवरी, 1979 को हुई पुलिस फायरिंग में चार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी. परियोजना चलती रही और 1999 में इस परियोजना पर भ्रष्टाचार की कैग की रिपोर्ट के बाद इसे पूरे होने में 40 साल का समय लगा. परियोजना तो पूरी हुआ लेकिन इसमें चस्पां स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और बिजली मुहैया कराने के वायदे पूरे नहीं हुए.
इस नदी की बेसिन में कई तरह के खनिज हैं. सोने का जिक्र हम कर ही चुके हैं. पर इन सबने नदी की सूरत बिगाड़ दी. खनन और धातु प्रसंस्करण उद्योगों ने नदी को प्रदूषित करना भी शुरू कर दिया है. अब नदी के पानी में घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों के साथ-साथ रेडियोसक्रिय तत्वों की मौजूदगी भी है. खासकर, खुले खदानों से बहकर आए अयस्क इस नदी की सांस घोंट रहे हैं.
ओडिशा के मयूरभंज और सिंहभूम जिलों में देश के तांबा निक्षेप सबसे अधिक हैं. 2016 में किए गिरि व अन्य वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक, सुवर्ण रेखा नदी में धात्विक प्रदूषण मौजूद है. अब नदी और इसकी सहायक नदियों में अवैध रेत खनन तेजी पर है. इससे नदी की पारिस्थितिकी खतरे में आ गई है.
इस नदी बेसिन के मध्यवर्ती इलाके में यूरेनियम के निक्षेप है. यूरेनियम खदानों के लिए मशहूर जादूगोड़ा का नाम तो आपने सुना ही होगा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, रेडियोसक्रिय तत्व इस खदान के टेलिंग पॉन्ड से बहकर नदी में आ रहे हैं.
जमशेदपुर शहर, जो इस नदी के बेसिन का सबसे बड़ा शहर है, का सारा सीवेज सीधे नदी में आकर गिरता है. और अब इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है और नदी के पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) तय मानक से अधिक हो गया है, जबकि बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड मानक से कम होना चाहिए. झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्वर्णरेखा नदी के पानी के नमूने की जांच कराई तो पता चला कि अधिकतर जगहों पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम पाई गई.
स्थिति यह है कि स्वर्णरेखा नदी का पानी जानवरों और मछलियों के लिए सुरक्षित नहीं है. जानवरों और मछलियों के लिए पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा 1.2 मिलीग्राम से कम होनी चाहिए, जबकि 7.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है. इसकी वजह से काफी संख्या में मछलियां नदी में मर रही हैं इसके साथ ही साथ जानवरों को भी कई तरह की बीमारियां हो रही हैं.
स्वर्णरेखा और खरकई नदियों का संगम, जमशेद पुर के ठीक पास में है और यहां आप लौह अयस्क के कारखानों से निकले स्लग को देख सकते हैं. हालांकि, भाजपा नेता (अब बागी) सरयू राय ने 2011 में इसे लेकर जनहित याचिका दायर की थी, और तब टाटा स्टील ने जवाब में कहा कि यह स्लग शहर की जनता को स्वर्णरेखा की बाढ़ से बचाने के लिए जमा किया गया है. हाइकोर्ट ने टाटा को यह जगह साफ करने को कहा था. हालांकि इस पर हुई कार्रवाई की ताजा खबर नहीं है.
इस इलाके में मौजूद छोटी और बड़ी औद्योगिक इकाइयों, लौह गलन भट्ठियों, कोल वॉशरीज और खदानों ने नदी की दुर्गति कर रखी है.
बहरहाल, खेती, पर्यटन और धार्मिक-आध्यात्मिक केंद्र के नजरिए से सम्भावनाओं से भरे स्वर्णरेखा नदी में उद्गम से लेकर मुहाने तक, इस इलाके में पांडवों से लेकर चुटिया नागपुर के नागवंशी राजाओं से जुड़े मिथकों का प्रभाव कम और हकीकत के अफसाने ज्यादा सुनाई पड़ते हैं. मृत्युशैय्या पर पड़ी जीवनरेखा स्वर्णरेखा की आखिरी सांसों में फंसे अफसाने.
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Published on December 19, 2019 05:10
December 18, 2019
ऋषभ पंत के लिए साल का अंत भला तो सब भला
ऋषभ पंत एक संभावनाओं से भरे खिलाड़ी हैं, पर इस पूरे साल उनके पैर क्रीज पर कंक्रीट में जमे से लगे. आड़ा-तिरछा शॉट चयन और लापरवाही भरा रवैया उनके बल्ले पर जंग लगाता गया. पर अब वेस्टइंडीज के खिलाफ पहले वनडे में पचासा ठोंककर पंत की वापसी की उम्मीदें जागी हैं
यह साल विकेटकीपर-बल्लेबाज ऋषभ पंत के लिए वाकई बेहद बुरा था. ऋषभ पंत एक संभावनाओं से भरे खिलाड़ी हैं, पर इस पूरे साल उनके पैर क्रीज पर कंक्रीट में जमे से लगे. आड़ा-तिरछा शॉट चयन और लापरवाही भरा रवैया उनके बल्ले पर जंग लगाता गया. पर अब वेस्टइंडीज के खिलाफ पहले वनडे में पचासा ठोंककर पंत की वापसी की उम्मीदें जागी हैं. टीम में सम्राट की हैसियत रखने वाले महेंद्र सिंह धोनी की जगह लेने वाले पंत ने वेस्ट इंडीज के खिलाफ खेले गए तीन मैचों की सीरीज के पहले एकदिवसीय मैच में अपने स्वभाव के उलट खेलते हुए अर्धशतक जमाया.
साल की शुरुआत में जनवरी में ऑस्ट्रेलिय़ा के खिलाफ सिडनी टेस्ट का शतक छोड़ दें तो पूरे साल में पंत वनडे क्रिकेट में महज एक अर्धशतक लगा पाए थे. 2019 में पंत ने (वेस्टइंडीज सीरीज से पहले) कुल 9 वनडे मैच खेले थे और इनमें 23.55 की औसत से महज 188 रन बना पाए थे. जबकि 16 टी-20 मैचों में वे 252 रन ही बना पाए थे. टी-20 में 65 के उच्चतम स्कोर के बावजूद उनका औसत महज 21 का था.
जाहिर है, साल के आखिरी समय में पंत ने बताया कि वह स्थिति के मुताबिक खेल सकते हैं. आलोचकों के साथ ही सोशल मीडिया पर लोग लापरवाह रवैये के लिए पंत की काफी आलोचना करते रहे हैं. लेकिन पंत ने इस पारी के बाद कहा कि वह हर दिन अपने खेल में सुधार करने की कोशिश कर रहे हैं.
मैच के बाद पंत ने कहा, "स्वाभाविक खेल जैसा कुछ नहीं होता. हमें स्थिति के हिसाब से खेलना होता है. अगर आप स्थिति के हिसाब से खेलेंगे तो आप अच्छा कर सकते हैं. मेरा ध्यान एक खिलाड़ी के तौर पर बेहतर होने और सुधार करने पर है. आपको अपने आप में विश्वास रखना होता है. मैं सिर्फ इस बात पर ध्यान दे रहा हूं कि मैं क्या कर सकता हूं."
पंत ने जब से सीमित ओवरों में महेंद्र सिंह धोनी का स्थान लिया है तब से उनकी बल्लेबाजी और विकेटकीपिंग के लिए उनकी आलोचना की जाती रही है. पहला वनडे धोनी के दूसरे घर चेन्नै में ही था और इस मैदान पर दर्शकों ने पंत-पंत के नारे लगाए. इसके उलट इससे पहले पंत जब मैदान पर उतरे थे तो धोनी-धोनी के नारे लगे थे.
इस पर पंत ने कहा, "कई बार जब आपको दर्शकों का समर्थन मिलता है तो वो आपके लिए काफी अहम होता है क्योंकि मैं निजी तौर पर बड़ा स्कोर करने की सोच रहा था लेकिन कर नहीं पा रहा था. मैं यह नहीं कह रहा कि मैं उस मुकाम तक पहुंच गया लेकिन मैं कोशिश जरूर कर रहा हूं. एक टीम के नजरिए से, मैं टीम की जीत में जो कर सकता हूं वो करूंगा. मेरा ध्यान इसी पर है और अंत में मैंने कुछ रन किए."
पंत ने बेशक कुछ रन बनाए हैं पर उन्हें अपने नजरिए में सुधार करना होगा. उन्हें उस विरासत का भी खयाल रखना होगा कि जिस जगह को उनके लिए खुद सम्राट धोनी ने खाली किया है, उस पर लोगों की उम्मीद भरी निगाहें जमी हुई हैं.
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यह साल विकेटकीपर-बल्लेबाज ऋषभ पंत के लिए वाकई बेहद बुरा था. ऋषभ पंत एक संभावनाओं से भरे खिलाड़ी हैं, पर इस पूरे साल उनके पैर क्रीज पर कंक्रीट में जमे से लगे. आड़ा-तिरछा शॉट चयन और लापरवाही भरा रवैया उनके बल्ले पर जंग लगाता गया. पर अब वेस्टइंडीज के खिलाफ पहले वनडे में पचासा ठोंककर पंत की वापसी की उम्मीदें जागी हैं. टीम में सम्राट की हैसियत रखने वाले महेंद्र सिंह धोनी की जगह लेने वाले पंत ने वेस्ट इंडीज के खिलाफ खेले गए तीन मैचों की सीरीज के पहले एकदिवसीय मैच में अपने स्वभाव के उलट खेलते हुए अर्धशतक जमाया.
साल की शुरुआत में जनवरी में ऑस्ट्रेलिय़ा के खिलाफ सिडनी टेस्ट का शतक छोड़ दें तो पूरे साल में पंत वनडे क्रिकेट में महज एक अर्धशतक लगा पाए थे. 2019 में पंत ने (वेस्टइंडीज सीरीज से पहले) कुल 9 वनडे मैच खेले थे और इनमें 23.55 की औसत से महज 188 रन बना पाए थे. जबकि 16 टी-20 मैचों में वे 252 रन ही बना पाए थे. टी-20 में 65 के उच्चतम स्कोर के बावजूद उनका औसत महज 21 का था.
जाहिर है, साल के आखिरी समय में पंत ने बताया कि वह स्थिति के मुताबिक खेल सकते हैं. आलोचकों के साथ ही सोशल मीडिया पर लोग लापरवाह रवैये के लिए पंत की काफी आलोचना करते रहे हैं. लेकिन पंत ने इस पारी के बाद कहा कि वह हर दिन अपने खेल में सुधार करने की कोशिश कर रहे हैं.
मैच के बाद पंत ने कहा, "स्वाभाविक खेल जैसा कुछ नहीं होता. हमें स्थिति के हिसाब से खेलना होता है. अगर आप स्थिति के हिसाब से खेलेंगे तो आप अच्छा कर सकते हैं. मेरा ध्यान एक खिलाड़ी के तौर पर बेहतर होने और सुधार करने पर है. आपको अपने आप में विश्वास रखना होता है. मैं सिर्फ इस बात पर ध्यान दे रहा हूं कि मैं क्या कर सकता हूं."
पंत ने जब से सीमित ओवरों में महेंद्र सिंह धोनी का स्थान लिया है तब से उनकी बल्लेबाजी और विकेटकीपिंग के लिए उनकी आलोचना की जाती रही है. पहला वनडे धोनी के दूसरे घर चेन्नै में ही था और इस मैदान पर दर्शकों ने पंत-पंत के नारे लगाए. इसके उलट इससे पहले पंत जब मैदान पर उतरे थे तो धोनी-धोनी के नारे लगे थे.
इस पर पंत ने कहा, "कई बार जब आपको दर्शकों का समर्थन मिलता है तो वो आपके लिए काफी अहम होता है क्योंकि मैं निजी तौर पर बड़ा स्कोर करने की सोच रहा था लेकिन कर नहीं पा रहा था. मैं यह नहीं कह रहा कि मैं उस मुकाम तक पहुंच गया लेकिन मैं कोशिश जरूर कर रहा हूं. एक टीम के नजरिए से, मैं टीम की जीत में जो कर सकता हूं वो करूंगा. मेरा ध्यान इसी पर है और अंत में मैंने कुछ रन किए."
पंत ने बेशक कुछ रन बनाए हैं पर उन्हें अपने नजरिए में सुधार करना होगा. उन्हें उस विरासत का भी खयाल रखना होगा कि जिस जगह को उनके लिए खुद सम्राट धोनी ने खाली किया है, उस पर लोगों की उम्मीद भरी निगाहें जमी हुई हैं.
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Published on December 18, 2019 02:33
December 11, 2019
झारखंड में बाबूलाल मरांडी अभी नहीं तो कभी नहीं
झाविमो के नेता बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं. भाजपा छोड़ने के बाद उन्हें कुछेक सियासी कामयाबियां जरूर मिलीं पर 2009 के बाद से उन्होंने एक भी चुनाव नहीं जीता है. चार चुनावों में लगातार पराजय का मुंह देख चुके मरांडी के लिए झारखंड विधानसभा का यह चुनाव करो या मरो जैसी स्थिति है
झारखंड (Jharkhand) जब बिहार से अलग हुआ था तो पहले मुख्यमंत्री बने थे बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi). तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) (Bhartiya Janata Party) के वे झारखंड (Jharkhand) के कद्दावर नेता माने जाते थे. पर 2006 में उन्होंने गुटबाजी का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ दी और तब से उके सियासी करियर पर ग्रहण लगना शुरू हो गया है. पिछले दस साल से यानी 2009 के बाद बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) कोई चुनाव नहीं जीत पाये हैं.
मरांडी (babulal Marandi) लगातार चार चुनाव हार चुके हैं. उन्होंने अपना आखिरी चुनाव 2009 में जीता था. तब वे कोडरमा से सांसद चुने गये थे. कोडरमा से 2004 और 2006 के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में वे दुमका चले गये जहां शिबू सोरेन ने उन्हें हरा दिया था.
2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धनवार और गिरिडीह से परचा दाखिल किया था पर दोनों ही जगह से उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा था. 2014 के बाद उनकी पार्टी के छह विधायक टूटकर भाजपा (Bhartiya Janata Party) में शामिल हो गए थे. इससे उनकी पार्टी और छवि दोनों को गहरा धक्का लगा था. लगातार चुनाव हारने से भी मरांडी (babulal Marandi) की छवि कमजोर नेता के तौर पर बनती जा रही है और दिखने लगा है कि अब बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) वह नेता नहीं रहे जो झारखंड (Jharkhand) स्थापना के वक्त थे.
2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा से फिर से किस्मत आजमाई पर भाजपा (Bhartiya Janata Party) की अन्नपूर्णा देवी ने उन्हें करारी शिकस्त दी थी. और इस बार यानी 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में भी उनके लिए मुकाबला कोई बहुत आसान नहीं है.
झारखंड (Jharkhand) के गिरिडीह जिले के राजधनवार विधानसभा क्षेत्र में इस बार झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) की प्रतिष्ठा दांव पर है. इस सीट पर उन्हें तीन मजबूत उम्मीदवारों से चुनौती मिल रही है. इन चुनौतियों को देखकर सवाल पूछा जा रहा है कि क्या बाबूलाल मरांडी को इस बार चुनावी जीत मिल पाएगी? यहां 12 दिसम्बर को मतदान होना है.
अब बाबूलाल मरांडी के सामने अपने राजनीतिक कद को बरकरार रखने के साथ ही अपनी पार्टी झाविमो का अस्तित्व कायम रखने की भी चुनौती है. इस कारण यहां का मुकाबला दिलचस्प बना हुआ है, जिस पर पूरे राज्य की नजर है.
राजधनवार सीट पर अभी तक जो स्थिति उभरकर सामने आई है, उसके मुताबिक इस बार इस क्षेत्र में मुख्य मुकाबला झाविमो के मरांडी और भाकपा (माले) के मौजूदा विधायक राजकुमार यादव के बीच माना जा रहा है. परंतु भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) (Bhartiya Janata Party) के लक्ष्मण प्रसाद सिंह, निर्दलीय अनूप सौंथालिया और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के निजामुद्दीन अंसारी इस मुकाबले को बहुकोणीय बनाने में पूरा जोर लगाए हुए हैं.
मरांडी को इस इलाके में 2014 के विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में हार का सामना करना पड़ा था. भाजपा (Bhartiya Janata Party) ने वर्ष 2014 के तीसरे स्थान पर रहे पूर्व पुलिस अधिकारी लक्ष्मण प्रसाद सिंह को एक बार फिर उम्मीदवार बनाया है, जबकि झामुमो ने निजामुद्दीन अंसारी को अपना प्रत्याशी बनाया है. भाकपा (माले) की ओर से मौजूदा विधायक राजकुमार यादव एक बार फिर चुनावी मैदान में हैं.
पिछले विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में राजकुमार ने मरांडी को 10 हजार से अधिक मतों से पराजित किया था. असल में, राजधनवार ऐसी सीट है, जिस पर जातीय समीकरण को साधना बेहद अहम है. इस सीट पर यादव, मुस्लिम और भूमिहार के मतदाता यहां निर्णायक साबित होते हैं.
इस चुनाव में इस क्षेत्र में कुल 14 प्रत्याशी हैं. लेकिन चुनाव झाविमो, झामुमो, भाजपा, भाकपा (माले) और निर्दलीय अनूप सौंथालिया को ही जानकार प्रमुख उम्मीदवारों में गिन रहे हैं.
क्षेत्र में सभी प्रमुख उम्मीदवारों की पकड़ अलग-अलग क्षेत्रों में है. आइएएनएस के मुताबिक, इस विधानसभा क्षेत्र में गांवा इलाके में भाकपा (माले) के प्रत्याशी की चर्चा अधिक है तो तिसरी में झाविमो, धनवार बाजार और धनवार ग्रामीण में भाजपा, झामुमो और निर्दलीय अनूप सौंथालिया की चर्चा सर्वाधिक है.
झाविमो के प्रत्याशी और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी आइएएनएस से कहते हैं कि "इस क्षेत्र में विकास कार्य पूरी तरह ठप है. आज भी लोग पानी, सड़क, बिजली और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे हैं. ऐसे में जनता सब देख रही है और चुनाव में जवाब देगी."
लेकिन मौजूदा विधायक राजकुमार यादव जीत का दावा करते हैं. उनका कहना है कि पंचायतों और गांवों में किसानों के लिए तालाब बनाए गए हैं और गांवों में बिजली पहुंचाई गई है. सड़कें बनी हैं. उन्होंने हालांकि यह भी माना कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है.
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झारखंड (Jharkhand) जब बिहार से अलग हुआ था तो पहले मुख्यमंत्री बने थे बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi). तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) (Bhartiya Janata Party) के वे झारखंड (Jharkhand) के कद्दावर नेता माने जाते थे. पर 2006 में उन्होंने गुटबाजी का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ दी और तब से उके सियासी करियर पर ग्रहण लगना शुरू हो गया है. पिछले दस साल से यानी 2009 के बाद बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) कोई चुनाव नहीं जीत पाये हैं.
मरांडी (babulal Marandi) लगातार चार चुनाव हार चुके हैं. उन्होंने अपना आखिरी चुनाव 2009 में जीता था. तब वे कोडरमा से सांसद चुने गये थे. कोडरमा से 2004 और 2006 के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में वे दुमका चले गये जहां शिबू सोरेन ने उन्हें हरा दिया था.
2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धनवार और गिरिडीह से परचा दाखिल किया था पर दोनों ही जगह से उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा था. 2014 के बाद उनकी पार्टी के छह विधायक टूटकर भाजपा (Bhartiya Janata Party) में शामिल हो गए थे. इससे उनकी पार्टी और छवि दोनों को गहरा धक्का लगा था. लगातार चुनाव हारने से भी मरांडी (babulal Marandi) की छवि कमजोर नेता के तौर पर बनती जा रही है और दिखने लगा है कि अब बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) वह नेता नहीं रहे जो झारखंड (Jharkhand) स्थापना के वक्त थे.
2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा से फिर से किस्मत आजमाई पर भाजपा (Bhartiya Janata Party) की अन्नपूर्णा देवी ने उन्हें करारी शिकस्त दी थी. और इस बार यानी 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में भी उनके लिए मुकाबला कोई बहुत आसान नहीं है.
झारखंड (Jharkhand) के गिरिडीह जिले के राजधनवार विधानसभा क्षेत्र में इस बार झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) की प्रतिष्ठा दांव पर है. इस सीट पर उन्हें तीन मजबूत उम्मीदवारों से चुनौती मिल रही है. इन चुनौतियों को देखकर सवाल पूछा जा रहा है कि क्या बाबूलाल मरांडी को इस बार चुनावी जीत मिल पाएगी? यहां 12 दिसम्बर को मतदान होना है.
अब बाबूलाल मरांडी के सामने अपने राजनीतिक कद को बरकरार रखने के साथ ही अपनी पार्टी झाविमो का अस्तित्व कायम रखने की भी चुनौती है. इस कारण यहां का मुकाबला दिलचस्प बना हुआ है, जिस पर पूरे राज्य की नजर है.
राजधनवार सीट पर अभी तक जो स्थिति उभरकर सामने आई है, उसके मुताबिक इस बार इस क्षेत्र में मुख्य मुकाबला झाविमो के मरांडी और भाकपा (माले) के मौजूदा विधायक राजकुमार यादव के बीच माना जा रहा है. परंतु भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) (Bhartiya Janata Party) के लक्ष्मण प्रसाद सिंह, निर्दलीय अनूप सौंथालिया और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के निजामुद्दीन अंसारी इस मुकाबले को बहुकोणीय बनाने में पूरा जोर लगाए हुए हैं.
मरांडी को इस इलाके में 2014 के विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में हार का सामना करना पड़ा था. भाजपा (Bhartiya Janata Party) ने वर्ष 2014 के तीसरे स्थान पर रहे पूर्व पुलिस अधिकारी लक्ष्मण प्रसाद सिंह को एक बार फिर उम्मीदवार बनाया है, जबकि झामुमो ने निजामुद्दीन अंसारी को अपना प्रत्याशी बनाया है. भाकपा (माले) की ओर से मौजूदा विधायक राजकुमार यादव एक बार फिर चुनावी मैदान में हैं.
पिछले विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में राजकुमार ने मरांडी को 10 हजार से अधिक मतों से पराजित किया था. असल में, राजधनवार ऐसी सीट है, जिस पर जातीय समीकरण को साधना बेहद अहम है. इस सीट पर यादव, मुस्लिम और भूमिहार के मतदाता यहां निर्णायक साबित होते हैं.
इस चुनाव में इस क्षेत्र में कुल 14 प्रत्याशी हैं. लेकिन चुनाव झाविमो, झामुमो, भाजपा, भाकपा (माले) और निर्दलीय अनूप सौंथालिया को ही जानकार प्रमुख उम्मीदवारों में गिन रहे हैं.
क्षेत्र में सभी प्रमुख उम्मीदवारों की पकड़ अलग-अलग क्षेत्रों में है. आइएएनएस के मुताबिक, इस विधानसभा क्षेत्र में गांवा इलाके में भाकपा (माले) के प्रत्याशी की चर्चा अधिक है तो तिसरी में झाविमो, धनवार बाजार और धनवार ग्रामीण में भाजपा, झामुमो और निर्दलीय अनूप सौंथालिया की चर्चा सर्वाधिक है.
झाविमो के प्रत्याशी और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी आइएएनएस से कहते हैं कि "इस क्षेत्र में विकास कार्य पूरी तरह ठप है. आज भी लोग पानी, सड़क, बिजली और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे हैं. ऐसे में जनता सब देख रही है और चुनाव में जवाब देगी."
लेकिन मौजूदा विधायक राजकुमार यादव जीत का दावा करते हैं. उनका कहना है कि पंचायतों और गांवों में किसानों के लिए तालाब बनाए गए हैं और गांवों में बिजली पहुंचाई गई है. सड़कें बनी हैं. उन्होंने हालांकि यह भी माना कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है.
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Published on December 11, 2019 09:24
November 25, 2019
नदीसूत्रः कहीं गोवा के दूधसागर झरने का दूधिया पानी गंदला लाल न हो जाए
गोवा की नदियों के पारितंत्र पर खनन गतिविधियों ने बुरा असर डाला है. मांडवी और जुआरी जैसी प्रमुख नदियों में लौह अयस्क की गाद जमा होने लगी है इसके इन नदियों की तली में जलीय जीवन पर खतरा पैदा हो गया है
इन दिनों गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की धूम हुआ करती है. मांडवी के किनारे कला अकादमी और और पुराने मेडिकल कॉलेज के पीछे आइनॉक्स थियेटर में गहमागहमी होती है. फिल्मों के बीच थोड़ी छुट्टी लेकर लोगबाग मांडवी के तट पर टहल आते हैं. ज्यादा उत्साही लोग दूधसागर जलप्रपात भी घूमने जाते हैं. दूधसागर जलप्रपात पर ही मांडवी नदी थोड़ा ठहरती है और आगे बढ़ती है. दूधसागर यानी दूध का सागर. इस नाम के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है.
बहुत पहले, पश्चिमी घाट के बीच एक झील हुआ करती थी जहां एक राजकुमारी अपनी सखियों के साथ रोज स्नान करने आती थी. स्नान के बाद राजकुमारी घड़ा भर दूध पिया करती थी. एक दिन वह झील में अठखेलियां कर ही रही थी, कि वहां से जाते एक नवयुवक की उन पर नजर पड़ गई और वह नौजवान वहीं रुककर नहाती हुई राजकुमारी को देखने लग गया.
अपनी लाज रखने के लिए राजकुमारी की सखियों ने दूध का घड़ा झील में उड़ेल दिया ताकि दूध की परत के पीछे वे खुद को छुपा सकें. कहा जाता है कि तभी से इस जलप्रपात का दूधिया जल अनवरत बह रहा है.
पर अब यह दूधिया पानी लाल रंग पकड़ने लगा है. लौह अयस्क ने मांडवी को जंजीरों में बांधना शुरू कर दिया है. लौह अयस्क का लाल रंग मांडवी के पानी को बदनुमा लाल रंग में बदलने लगा है.
माण्डवी नदी जिसे मांडोवी, महादायी या महादेई या कुछ जगहों पर गोमती नदी भी कहते हैं, मूल रूप से कर्नाटक और गोवा में बहती है. गोवावाले तो इसको गोवा की जीवन रेखा भी कहते हैं. मांडवी और जुआरी, गोवा की दो प्रमुख नदियां हैं.
लंबाई के लिहाज से मांडवी नदी बहुत प्रभावशाली नहीं कही जा सकती. जिस नदी की कुल लंबाई ही 77 किलोमीटर हो और जिसमें से 29 किलोमीटर का हिस्सा कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहता हो, आप उत्तर भारत की नदियों से तुलना करें तो यह लंबाई कुछ खास नहीं है. पर व्यापारिक और नौवहन की दृष्टि से यह देश की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है और यह इसकी ताकत भी है और कमजोरी भी.
इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में है. नदी का जलग्रहण क्षेत्र, कर्नाटक में 2,032 वर्ग किमी और गोवा में 1,580 वर्ग किमी का है. दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात, मांडवी के ही भाग हैं.
गोवा में खनिजों में लौह अयस्क सबसे महत्वपूर्ण हैं और राज्य के राजस्व का बड़ा हिस्सा भी. लेकिन लौह अयस्क के गाद ने राज्य की दोनों प्रमुख नदियों की सांस फुला दी है. गोवा की नदियों पर हुए एक हालिया अध्ययन कहता है कि लौह अयस्क की गाद से दोनों नदियां दिन-ब-दिन उथली होती जा रही हैं. और इसका असर नदियों की तली में रहने वाले जलीय जीवन पर पड़ने लगा है.
गोवा विश्वविद्यालय के सागर विज्ञान विभाग के एक अध्ययन में बात सामने आई है कि राज्य की बिचोलिम लौह और मैगनीज के अयस्कों की वजह से बेहद प्रदूषित है वहीं मांडवी नदी के प्रदूषकों में मूल रूप से लौह और सीसा (लेड) हैं.
बिचोलिम उत्तरी गोवा जिले में बहती है और मांडवी की सहायक नदी है. इस अध्ययन में इस बात पर चिंता जताई गई है कि दक्षिणी गोवा जिले में बहने वाली जुआरी नदी और उसके नदीमुख (एस्चुअरी) पर भी धात्विक प्रदूषण का असर होगा.
गोवा में खनिज उद्योग करीबन पांच दशक पुराना है और 2018 में मार्च में उस पर रोक लग गई थी जब सुप्रीम कोर्ट ने 88 लौह अयस्क खदानों के पट्टों का नवीकरण खारिज कर दिया था. गोवा विश्वविद्यालय के शोधार्थियों सिंथिया गोनकर और विष्णु मत्ता ने गोवा की नदियों और उसकी तली के पारितंत्र पर खनन के असर और जुआरी नदी की एस्चुअरी (जहां नदी समुद्र में मिलती है) पर धात्विक प्रदूषण के बारे में अध्ययन किया है.
यह अध्ययन रिसर्च जरनल इनवायर्नमेंट ऐंड अर्थ साइंसेज में छपा है और इसमें कहा गया है कि उत्तरी गोवा में रफ्तार से हुए खनन की वजह से प्रदूषण बढ़ा है. इस में गोवा की तीन नदियों बिचोलिम, मांडवी और तेरेखोल से नमूने लिए गए था.
अध्ययन के मुताबिक, बिचोलिम नदी में लौह और मैगनीज के साथ सीसे और क्रोमियम का भी प्रदूषण बडे पैमाने पर मौजदू है. इनमें से सीसा और क्रोमियम भारी धातु माना जाता है और इसके असर से कैंसर का खतरा होता है. जबकि मांडवी नदी में मैगनीज और सीसे का प्रदूषण है. तेरेखोल नदी (जो हाल तक प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त थी) में तांबे और क्रोमियम (यह भी खतरनाक है) जैसे धातुओं की भारी मात्रा मौजूद है.
गौरतलब है कि इन नदियों में बड़े पैमाने पर जहाजों के जरिए अयस्कों का परिवहन किया जाता है और इससे अयस्क नदी में गिरते रहते हैं. खुले खदानों से बारिश में घुलकर अयस्कों का मलबा भी आकर नदियों में जमा होता है. इससे नदियों की तली में गाद जमा होने गई है और इसने तली के पास रहने वाले या तली में रहने वाले जलीय जीवों का भारी नुक्सान किया है.
अध्ययन के मुताबिक, जुआरी नदी के पानी में ट्रेस मेटल्स (सूक्ष्म धातुओं) की मात्रा खनन के दिनों के मुकाबले खनन पर बंदिश के दौरान में काफी कम रही हैं. इससे साफ है कि यह प्रदूषण खनन की वजह से ही हो रहा है.
मांडवी पर गोवा के लोग उठ खड़े हुए हैं. सरकार भी सक्रिय हुई है और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भी आदेश दे दिया है. कोशिश यही होनी चाहिए कि मांडवी का जल गाद में जकड़ न जाए और दूधसागर प्रपात का जल दूधिया ही रहे, गंदला लाल न हो जाए.
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इन दिनों गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की धूम हुआ करती है. मांडवी के किनारे कला अकादमी और और पुराने मेडिकल कॉलेज के पीछे आइनॉक्स थियेटर में गहमागहमी होती है. फिल्मों के बीच थोड़ी छुट्टी लेकर लोगबाग मांडवी के तट पर टहल आते हैं. ज्यादा उत्साही लोग दूधसागर जलप्रपात भी घूमने जाते हैं. दूधसागर जलप्रपात पर ही मांडवी नदी थोड़ा ठहरती है और आगे बढ़ती है. दूधसागर यानी दूध का सागर. इस नाम के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है.
बहुत पहले, पश्चिमी घाट के बीच एक झील हुआ करती थी जहां एक राजकुमारी अपनी सखियों के साथ रोज स्नान करने आती थी. स्नान के बाद राजकुमारी घड़ा भर दूध पिया करती थी. एक दिन वह झील में अठखेलियां कर ही रही थी, कि वहां से जाते एक नवयुवक की उन पर नजर पड़ गई और वह नौजवान वहीं रुककर नहाती हुई राजकुमारी को देखने लग गया.
अपनी लाज रखने के लिए राजकुमारी की सखियों ने दूध का घड़ा झील में उड़ेल दिया ताकि दूध की परत के पीछे वे खुद को छुपा सकें. कहा जाता है कि तभी से इस जलप्रपात का दूधिया जल अनवरत बह रहा है.
पर अब यह दूधिया पानी लाल रंग पकड़ने लगा है. लौह अयस्क ने मांडवी को जंजीरों में बांधना शुरू कर दिया है. लौह अयस्क का लाल रंग मांडवी के पानी को बदनुमा लाल रंग में बदलने लगा है.
माण्डवी नदी जिसे मांडोवी, महादायी या महादेई या कुछ जगहों पर गोमती नदी भी कहते हैं, मूल रूप से कर्नाटक और गोवा में बहती है. गोवावाले तो इसको गोवा की जीवन रेखा भी कहते हैं. मांडवी और जुआरी, गोवा की दो प्रमुख नदियां हैं.
लंबाई के लिहाज से मांडवी नदी बहुत प्रभावशाली नहीं कही जा सकती. जिस नदी की कुल लंबाई ही 77 किलोमीटर हो और जिसमें से 29 किलोमीटर का हिस्सा कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहता हो, आप उत्तर भारत की नदियों से तुलना करें तो यह लंबाई कुछ खास नहीं है. पर व्यापारिक और नौवहन की दृष्टि से यह देश की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है और यह इसकी ताकत भी है और कमजोरी भी.
इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में है. नदी का जलग्रहण क्षेत्र, कर्नाटक में 2,032 वर्ग किमी और गोवा में 1,580 वर्ग किमी का है. दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात, मांडवी के ही भाग हैं.
गोवा में खनिजों में लौह अयस्क सबसे महत्वपूर्ण हैं और राज्य के राजस्व का बड़ा हिस्सा भी. लेकिन लौह अयस्क के गाद ने राज्य की दोनों प्रमुख नदियों की सांस फुला दी है. गोवा की नदियों पर हुए एक हालिया अध्ययन कहता है कि लौह अयस्क की गाद से दोनों नदियां दिन-ब-दिन उथली होती जा रही हैं. और इसका असर नदियों की तली में रहने वाले जलीय जीवन पर पड़ने लगा है.
गोवा विश्वविद्यालय के सागर विज्ञान विभाग के एक अध्ययन में बात सामने आई है कि राज्य की बिचोलिम लौह और मैगनीज के अयस्कों की वजह से बेहद प्रदूषित है वहीं मांडवी नदी के प्रदूषकों में मूल रूप से लौह और सीसा (लेड) हैं.
बिचोलिम उत्तरी गोवा जिले में बहती है और मांडवी की सहायक नदी है. इस अध्ययन में इस बात पर चिंता जताई गई है कि दक्षिणी गोवा जिले में बहने वाली जुआरी नदी और उसके नदीमुख (एस्चुअरी) पर भी धात्विक प्रदूषण का असर होगा.
गोवा में खनिज उद्योग करीबन पांच दशक पुराना है और 2018 में मार्च में उस पर रोक लग गई थी जब सुप्रीम कोर्ट ने 88 लौह अयस्क खदानों के पट्टों का नवीकरण खारिज कर दिया था. गोवा विश्वविद्यालय के शोधार्थियों सिंथिया गोनकर और विष्णु मत्ता ने गोवा की नदियों और उसकी तली के पारितंत्र पर खनन के असर और जुआरी नदी की एस्चुअरी (जहां नदी समुद्र में मिलती है) पर धात्विक प्रदूषण के बारे में अध्ययन किया है.
यह अध्ययन रिसर्च जरनल इनवायर्नमेंट ऐंड अर्थ साइंसेज में छपा है और इसमें कहा गया है कि उत्तरी गोवा में रफ्तार से हुए खनन की वजह से प्रदूषण बढ़ा है. इस में गोवा की तीन नदियों बिचोलिम, मांडवी और तेरेखोल से नमूने लिए गए था.
अध्ययन के मुताबिक, बिचोलिम नदी में लौह और मैगनीज के साथ सीसे और क्रोमियम का भी प्रदूषण बडे पैमाने पर मौजदू है. इनमें से सीसा और क्रोमियम भारी धातु माना जाता है और इसके असर से कैंसर का खतरा होता है. जबकि मांडवी नदी में मैगनीज और सीसे का प्रदूषण है. तेरेखोल नदी (जो हाल तक प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त थी) में तांबे और क्रोमियम (यह भी खतरनाक है) जैसे धातुओं की भारी मात्रा मौजूद है.
गौरतलब है कि इन नदियों में बड़े पैमाने पर जहाजों के जरिए अयस्कों का परिवहन किया जाता है और इससे अयस्क नदी में गिरते रहते हैं. खुले खदानों से बारिश में घुलकर अयस्कों का मलबा भी आकर नदियों में जमा होता है. इससे नदियों की तली में गाद जमा होने गई है और इसने तली के पास रहने वाले या तली में रहने वाले जलीय जीवों का भारी नुक्सान किया है.
अध्ययन के मुताबिक, जुआरी नदी के पानी में ट्रेस मेटल्स (सूक्ष्म धातुओं) की मात्रा खनन के दिनों के मुकाबले खनन पर बंदिश के दौरान में काफी कम रही हैं. इससे साफ है कि यह प्रदूषण खनन की वजह से ही हो रहा है.
मांडवी पर गोवा के लोग उठ खड़े हुए हैं. सरकार भी सक्रिय हुई है और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भी आदेश दे दिया है. कोशिश यही होनी चाहिए कि मांडवी का जल गाद में जकड़ न जाए और दूधसागर प्रपात का जल दूधिया ही रहे, गंदला लाल न हो जाए.
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Published on November 25, 2019 00:07


