Puja Upadhyay's Blog, page 19
May 20, 2017
राइटर की डायरी में लिखा आधा चैप्टर इश्क़
आज कुछ लिखना चाहती हूँ। बिना एडिट किए हुए। कि शायद रात का वक़्त है। ज़िंदगी का, अकेलेपन का, उदासी का और चुप्पी का मिलाजुला कोई नशा चढ़ा हुआ है ज़ुबान पर। उँगलियाँ सच लिख देना चाहती हैं। मगर इन दिनों बहुत ज़्यादा ही उलझनें हैं...दिमाग़ एक साथ कई सारे ट्रैक पर काम कर रहा है और असल में कन्फ़्यूज़ हो रहा है। इसलिए नौर्मल, भले इंसानों से गुज़ारिश है कि इसे स्किप कर दें और अपने क़ीमती वक़्त का बेहतर इस्तेमाल करें।
मुझे क्रिकेट की ज़रा भी समझ नहीं है। लेकिन शब्दों से हमेशा प्यार रहा है इसलिए किसी नए शब्द से पाला पड़ा तो उसे समझने की कोशिश की है। किसी नए अहसास से पाला पड़ा हो तब भी। एक गाना आया था बहुत साल पहले, 'आने चार आने बचे हैं चार आने, सुन ले वेस्ट ना करना यार', इसमें बूढ़े रिटायर्ड लोग अपने ज़िंदगी की सेकंड इनिंज़ को फ़्रंट फ़ुट पर खेलना चाहते हैं। कुछ तो उस समय और कुछ पहले का थोड़ा बहुत अन्दाज़। बैक फ़ुट पर खेलना क्या होता है, ठीक ठीक समझ आया।
फिर लगा कि ज़िंदगी हमेशा बैक फ़ुट पर खेलते आए हैं। हम जिस समझ में पले-बढ़े हैं उसमें लड़कियों को हमेशा डिफ़ेन्सिव होना सिखा दिया जाता है। कहीं से किसी भी तरह का कोई इल्ज़ाम छू ना ले हमें। हम हमेशा एक कारण, एक वजह तैयार रखते हैं, हर चीज़ की। चाहिए वो किसी से बात करना हो, ज़रा सा ज़्यादा सजना हो, कुछ अच्छे कपड़े पहनने हों, कुछ भी। लड़कपन से ही शृंगार को ग़लत कहा जाता गया है और मेक-अप करने वाली लड़कियों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता। इस बात का असर अभी तक भी यूँ है कि मैं सिर्फ़ शादी या फ़ंक्शन में लिप्स्टिक लगाती हूँ। ख़ूबसूरत दिखना गुनाह होता है। अपनी ख़ूबसूरती को ऐक्सेप्ट करना नहीं सिखाया गया हमें। अपनी ख़ूबसूरती के साथ आने वाले साइड-एफेक्ट्स को भी नहीं। मसलन, सबको तुमसे प्यार हो जाएगा। सबको ही।
मगर दुनिया और समाज के अलावा भी घर के संस्कार होते हैं परवरिश होती है जिसमें बाक़ी हर तरह की बराबरी होती है। पढ़ना लिखना, लोगों से बात करना, किसी भी जगह जाना या कि अपने पसंद का कैरियर चुनना ही। मैंने कई लड़कों से सुना है कि लड़कियाँ इंटेलीजेंट नहीं होतीं, या कि मैं बाक़ी लड़कियों की तरह नहीं हूँ। एक समय में मैं इसे कॉम्प्लिमेंट की तरह लेती थी। लेकिन लड़ती तब भी थी। अब देखो, बात सीधी सी ये है कि लड़कियों को बचपन से ही बहुत ज़्यादा लोगों से मिलने जुलने के अवसर नहीं मिलते हैं। वे अपने स्कूल कॉलेज या घर पर जो फ़ैमिली फ़्रेंड्स होते हैं, उनके सिवा किसी से नहीं मिलतीं। अक्सर बाहर का कोई काम नहीं करतीं। अब यहाँ इकलौता अंतर आ सकता है तो इस चीज़ से आता है कि लड़कियों के पास किताबें किस तरह की पहुँच रही हैं। उन्हें इक्स्पोज़र किस तरह का मिला है। वे किन किन चीज़ों से नहीं डरती हैं। वे किन चीज़ों के सही ग़लत को परखने का पैमाना ख़ुद बनाना चाह रही हैं।
मैं आज भी पटना वीमेंस कॉलेज की मेरी उन क्लास्मेट्स को 'awe', एक विस्मय से देखती हूँ कि जो बोरिंग रोड के उन शेडी साइबर कैफ़े में न्यूड फ़ोटो देखने की हिम्मत रखती थीं। ये तब की बात है जब हमें ब्राउज़र हिस्ट्री भी डिलीट करनी नहीं आती थी। हम जब उन छोटे छोटे क्यूबिकल्ज़ से निकलते थे तो हम भी जानते थे कि हमें कैसी नज़रों से घूरा जा रहा है। उन दिनों क्रांति इतनी छोटी छोटी हुआ करती थी कि महीने में एक बार साइबर कैफ़े जा कर बॉयफ़्रेंड को एक ईमेल कर दी। कि ईमेल कोई चिट्ठी तो है नहीं कि सबूत है कि हमने ही लिखा है, ईमेल तो कोई भी लिख सकता है। हम अपने हर काम के साथ बहाने साथ में तैयार रखते थे। समाज ने हमें हर क़दम पर झूठ बोलना सिखाया है। अफ़सोस इस बात का है कि इन छोटी छोटी चीज़ों पर झूठ बोलने की ज़रूरत पड़ी ही क्यूँ।
बहुत लम्बी नहीं लिखूँगी कहानी, लेकिन बात ये है कि उम्र इतनी हो आयी। शादी के इतने साल हो आए। और लिखते पढ़ते हुए एक दशक बीत गया लेकिन अभी भी किसी पाठक या फ़ैन से बात करते हुए हमेशा इस बात का ध्यान रखना होता है कि वो लड़की है या लड़का। लड़कियों से बात करने के अलग सिंटैक्स होते हैं और लड़कों से बात करने के अलग। ये बात उनकी उम्र से परे होती है। कोई लड़की अगर कह जाए कि आपकी किताब पढ़ के आप से प्यार हो गया तो फिर भी ठीक है, उसके बचपने और प्यार पर मुस्कुरा सकती हूँ, लेकिन यही बात अगर किसी लड़के ने कह दी तो उसको उसी समय डांट फटकार लगानी ज़रूरी हो जाती है कि वरना वो आगे जाने क्या सोच लेगा। किसी से भी बात करते हुए एक ज़रा सी रूखाइ बनाए रखनी होती है कि किसी को ये धोखा ना हो जाए कि मैं उसके लिए कोई भी सॉफ़्ट कॉर्नर या ऐसी ही कोई भावना रखती हूँ। चूँकि मैं इस अंतर और बेइमानी में भरोसा नहीं करती हूँ तो अक्सर लड़कियाँ भी ज़्यादा प्यार मुहब्बत जता रही होती हैं पब्लिक में तो असहज हो जाती हूँ। दरसल, मैं प्यार से ही असहज हो जाती हूँ। जब तक प्यार क़िस्से कहानियों में है तो ठीक, लेकिन जैसे ही कहानी से निकल कर मेरी कंगुरिया ऊँगली पकड़ना चाहता है, या कि दुपट्टे का छोर ही, हम बिलकुल ही दूर आ जाते हैं उससे।
मैं कहना चाहती हूँ कि इससे कितना नुक़सान होता है। आप किसी के प्रति अपने स्नेह को छिपाते हैं। अपना अनुराग प्रदर्शित करने से डरते हैं। अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त नहीं करते। कितना सारा कुछ अपने अंदर रख के जीना होता है। ये बेइमानी नहीं है? अंदर रखे हुए ये सारे शब्द कितनी तकलीफ़ देते हैं। हम इस डर के मारे कितना कुछ खो देते हैं। जो एक लड़का बड़ी तमीज़ से हमेशा बातें करता है, जिसको हम थोड़ा दुलार में कभी सर चढ़ाना चाहते हैं। हम जिससे ख़ूब सारी बातें करना चाहते हैं। उसके शहर के बारे में, उस लड़की के बारे में जिसका ज़िक्र उसकी कविताओं में छिपा होता है। हम पूछना चाहते हैं कि वो कौन थी जिसने तुम्हारा दिल इस तरह तोड़ा कि तुम ऐसा मारक लिखते हो। लेकिन हम डरते हैं। डरते हैं कि ज़्यादा पर्सनल ना हो जाएँ। दोस्ती ज़्यादा गहरी ना हो जाए। या कि वो फ़ैन जो दिल्ली में पुस्तक मेले में मिला था, बड़ी गर्मजोशी से बुलेट के बारे में बात करता था...बचपना था उसमें बहुत...उससे उसके जेनेरेशन के लोगों की बातें करना चाहती हूँ। मैं जानना चाहती थी कि पढ़ाई लिखाई, लड़कीबाज़ी और नौकरी के सिवा वे क्या करते हैं, क्या करना चाहते हैं। मैं सिर्फ़ साल में एक बार इन लोगों से बात नहीं करना चाहती। मैं इनसे जुड़े रहना चाहती हूँ बाक़ी वक़्त भी। कि मुझे अच्छे लगते हैं बच्चे जो किताबें पढ़ते हैं। किताबें पढ़ना चाहते हैं। मुझसे पूछते हैं कि हम किस किताब से शुरू करें।
हम असल में, हमेशा इस बात से डरते हैं कि किसी को हमसे प्यार ना हो जाए। लेकिन क्यूँ। ये क्यूँ मुझे कभी समझ नहीं आता। हम इस ख़तरे से डरना कब बंद करेंगे? क्या ही हो जाएगा...थोड़ा दिल ही दुखेगा ना...थोड़ा नींद हराम होगी...थोड़ा विस्की या कि ओल्ड मौंक की बिक्री बढ़ेगी। यही ना? बाक़ी हमको सिर्फ़ बात करने को वो लोग चाहिए जिन्हें मेरी जैसी चीज़ें पसंद हों। सिनेमा। गाने। कोई आर्टिस्ट। माडर्न आर्ट। पेंटिंग्स। रॉयल एनफ़ील्ड। हार्ले देविडसन। बंजारामिज़ाजी। शहर दिल्ली। मौसम। आवारगी। कर्ट कोबेन। आत्महंता होना। नाज़ी कॉन्सेंट्रेशन कैम्प।
हमें इश्क़ को सम्हालना सीखना है। कि कोई आ के कहे कि इश्क़ हो गया तुमसे तो उसे बिठा कर ठीक से समझा सकूँ, ज़िंदगी में ऐसे छोटे मोटे हादसे होते रहते हैं। ये बताओ, कविता पढ़ोगे या कहानी। चाय पियोगी या कॉफ़ी। है कि नहीं। अब चलो, बातें करते हैं...ब्लैक कॉफ़ी पीते हुए। तुम अपने पसंद के गाने भेजो, मैं अपने पसंद की कविताएँ। हम इसी तरह सीखते हैं। हम इसी तरह ज़िंदगी में अलग अलग रंग भरते हैं।
और हम, इस तरह, ज़िंदगी भर बैक फ़ुट पर खेलते रहे। इश्क़ की बाउन्सर से आउट होते रहे। हेल्मट और अच्छी जैकेट पहन कर बाइक चलाते रहे। लेकिन इन दिनों हम थोड़ा थोड़ा जी रहे हैं। ख़ुद से इश्क़ कर रहे हैं थोड़ा थोड़ा। इस बात से बेपरवाह कि किसी को हमसे इश्क़ हो जाएगा, मेरी बला से! बाल खोल कर घूम लेते हैं। गहरी गुलाबी लिप्स्टिक लगा लेते हैं। कि ये मेरी ज़िंदगी है और अब जितनी बची है, मैं अपने हिसाब से जियूँगी। मैनेज कर लेंगे इश्क़ भी, आफ़त भी और लिखना भी।
Published on May 20, 2017 12:54
March 1, 2017
मेरा अंतिम अरण्य, तुम्हारे दिल में बनी वो क़ब्र है, जिसमें मेरी चिट्ठियाँ दफ़्न हैं
१७ जनवरी २०१७
"जिंद?" मैंने उनकी ओर देखा।
'जिन्दल' उन्होंने कहा, नक़्शे में 'एल' दिखायी नहीं देता। वह दरिया में डूब गया है।"
मैंने भी जिन्दल का नाम नहीं सुना था...नक़्शे में भी पहली बार देखा...जहाँ सचमुच दरिया की नीली रेखा बह रही थी...
- निर्मल वर्मा। अंतिम अरण्य
***
इस शहर में रहते हुए कितने शहरों की याद आती है। वे शहर जो क़िस्सों से उठ कर चले आए हैं ज़िंदगी में। वे शहर जिनका नाम पहली बार पढ़ कर लगता है मैंने उस शहर में किसी को कोई ख़त लिखा था कभी। सुनो। तुम्हें नीलम वादी याद है क्या अब भी? नाम क्या था उस नदी का जो वहाँ बहती थी? तुम्हें याद है क्या वो वक़्त जब कि दोस्ती बहुत गहरी थी...हम काग़ज़ की नाव तैराया करते थे पानी में। लिखा करते थे ख़त। काढ़ा करते थे तुम्हारा नाम रूमालों में। तुम अजीब क़िस्म से याद आए हो। अचानक से तुम्हें देखने को आँख लरज़ उठी है।
१९ जनवरी २०१९
उम्र के तैन्तीसवे पड़ाव के ठीक बीच झूलती मैं अंतिम अरण्य पढ़ती हूँ...नितांत अकेलेपन के अंदर खुलने वाले इस उपन्यास को पढ़ने के लिए किसी ने मुझसे क्यूँ कहा होगा! मैं क्यूँ इसे पढ़ते हुए उसके अकेलेपन के क़रीब पाती हूँ ख़ुद को। क्या कभी कभी किसी का साथ माँग लेना इतना मुश्किल होता है कि बात को बहुत घुमा कर किसी नॉवल में छिपाना होता है।
'I thought you wanted to say something to me.' उसने कहा मुझसे मगर मुझे क्यूँ लगा वो ख़ुद की बात कर रहा है। उसे मुझसे कोई बात कहनी थी। बात। कौन सी बात। दो लोग कौन सी बात कहते हैं, कह लेते हैं। मेले के शोर और भगदड़ में एक कॉफ़ी भर की फ़ुर्सत में क्या कहा जा सकता है।
मैं उससे कहती हूँ, 'I miss writing to you'। जबकि कहीं मुझे मालूम है कि उसे लिखे ख़त किन्हीं और ख़तों का echo मात्र हैं। मैं जी नहीं रही, एक परछाई भर है मेरे बदन की जो अंधेरे में मुस्कुराती है...उदास होती है।
कोई सफ़र है...मेरे अंदर चलायमान...कोई शहर...मेरे अंदर गुमशुदा. बस इतना है कि शायद अगली कोई कहानी लिखने के पहले बहुत सी कहानियों को पढ़ना होगा...उनसे पनाह माँगनी होगी...
सुनो। क्या तुम मेरे लिए एक चिट्ठी लिख सकते हो? काग़ज़ पर। क़लम से। इस किताब को पढ़ते हुए मैं एक जंगल होती गयी हूँ। इस जंगल के एक पेड़ पर एक चिट्ठीबक्सा ठुका हुआ है। ख़ाली।
मैं इंतज़ार में हूँ।
२१ जनवरी २०१७
हम क्या सकेरते हैं। कैसे।
अंतिम अरण्य को पढ़ते हुए मैं अपने भीतर के एकांत से मिलती हूँ। क्या हम सब के भीतर एक अंतिम अरण्य होता है? या फिर ये किताब मुझे इसलिए इतना ज़्यादा अफ़ेक्ट करती है कि मैं भी महसूस करती हूँ कि मैं इस जंगल में कुछ ज़्यादा जल्दी आ गयी हूँ। इस उम्र में मुझे किसी और मौसमों वाले भागते शहर में होना चाहिए। धूप और समंदर वाले शहर। मगर प्रेम रेत के बीच भूले से रखा हुआ ओएसिस है। मृगतृष्णा भी। मैं अपने एक बहुत प्यारे मित्र के बारे में एक रोज़ सोच रही थी, 'तुम में ज़िंदा चीज़ों को उगाने का हुनर है...you are a gardener.' और वहीं कहीं कांट्रैस्ट में ख़ुद को देखती हूँ कि मुझे मुर्दा चीज़ें सकेरने का शौक़ है...हुनर है...मृत लोग...बीते हुए रिश्ते...किरदार...शहर...टूटे हुए दिल...ज़ख़्म...मैं किसी म्यूज़ीयम की कीपर जैसी हूँ...जीवाश्मों की ख़ूबसूरती में मायने तलाशती...अपने आसपास के लोगों और घटनाओं के प्रति उदासीन. Passive. किसी किसी को पढ़ना एक ज़रूरी सफ़र होता है। निर्मल वर्मा मेरे बहुत से दोस्तों को पसंद हैं। मैंने पिछले साल उनके यात्रा वृत्तांत पढ़े। वे ठीक थे मगर मेरे अंदर वो तकलीफ़/सुख नहीं जगा पाए जिसके लिए मैं अपना वक़्त किताबों के नाम लिखती हूँ। मैंने लगभग सोच लिया था कि अब उन्हें नहीं पढ़ूँगी। वे मेरी पसंद के नहीं हैं। मैं बहुत याद करने की कोशिश करती हूँ कि अंतिम अरण्य की कौन सी बात को सुन कर मैंने इसे तलाशा। शायद ये बात कि ज़िंदगी के आख़िर का सघनतम आलेख है। या उदासी की आख़िरी पंक्ति। पहाड़ों पर इतनी तन्हाई रहती है उससे गुज़रने की ख़्वाहिश। या कि अपने अंतिम अरण्य को जाने वाली पगडंडी की शुरुआत देखना। आज जानती हूँ कि वे सारे मित्र जिन्होंने बार बार निर्मल को पढ़ा...उनके बारे में बातें कीं...वे इसलिए कि मैं इस किताब तक पहुँच सकूँ। पूछो साल की वो किताबें एक ज़रूरी पड़ाव थीं...मेरे सफ़र को इस 'अंतिम अरण्य' तक रुकना था। के ये मेरी किताब है। मेरी अपनी। सुबहें बेचैन, उदास और तन्हा होती हैं। आज पढ़ते हुए देखा कि एक पगडंडी बारिश के पानी में खो रही थी। नीली स्याही से underline कर के मैंने उसके होने को ज़रा सा सहेजा। ज़रा सा पक्का किया। सुनो। तुम्हारे किसी ख़त में मेरा अंतिम अरण्य है। मेरी चुप्पी।मेरी अंतिम साँस। मेरे जीते जी मुझे एक बार लिखोगे?
२ मार्च २०१७
धूप की आख़िर सुबह अगर किताब के आख़िरी पन्ने से गुज़र कर चुप हो आने का मन करे...तो इसका मतलब उस किताब ने आपको पूरा पढ़ लिया है। हर पन्ने को खोल कर। अधूरा छोड़ कर। वापस लौट कर भी।
मैं अंतिम अरण्य से गुज़रती हुयी ख़ुद को कितना पाती हूँ उस शहर में। मेरा भी एक ऐसा शहर है जिसे मैं मकान दर मकान उजाड़ रही हूँ कि मेरे आख़िर दिनों में मुझे कोई चाह परेशान ना करे। कि मैं शांत चित्त से जा सकूँ। इस किताब को पढ़ना मृत्यु को बहुत क़रीब से देखना है। किसी को कण कण धुआँ हो जाते देखना भी है।
अनजाने इस किताब में कई सारे पड़ाव ऐसे थे जिन पर मुझे रुकने की ज़रूरत थी। कहानी में एक कहानी है एक डाकिये की निर्मल लिखते हैं कि उस शहर में एक डाकिया ऐसा था कि जो डाकखाने से चिट्ठियाँ उठाता तो था लेकिन एक घाटी में फेंक आता था। वैली औफ़ डेड लेटर्स। इस किरदार के बारे में भी किरदार को एक दूसरा किरदार बताता है। वो किरदार जो मर चुका है। तो क्या कहीं वाक़ई में ऐसा कोई डाकिया है?
कोई मुझे ख़त लिख सके, ये इजाज़त मैंने बहुत कम लोगों को दी है। जब कि चाहा हर सिम्त है कि ख़त आए। बहुत साल पहले एक मेल किया था किसी को तो उसने जवाब में एक पंक्ति लिखी थी, ‘अपने मन मुताबिक़ जवाब देने का अधिकार कितने लोगों के पास होता है’। यूँ तो उसका लिखा बहुत सारा कुछ ही मुझे ज़बानी याद है मगर उस सब में भी ये पंक्ति कई बार मेरा हाथ सहलाती रही है। बैंगलोर आयी थी तो बहुत शौक़ से लेटर ओपनर ख़रीदा था। मुझे लगता रहा है हमेशा कि मेरे हिस्से के ख़त आएँगे। अब लगता है कि कुछ लोगों का दिल एक लालडिब्बा हुआ गया है कि जिसमें मेरे हिस्से की मोहरबंद चिट्ठियाँ गिरी हुयी हैं। बेतरतीब। जब वे चिट्ठियाँ मुझे मिलेंगी तो मैं सिलसिलेवार नहीं पढ़ पाऊँगी उन्हें। हज़ार ख़यालों में उलझते हुए बढ़ूँगी आगे कि किसी के हिस्से का कितना प्रेम हम अपने सीने में रख सकते हैं। अपनी कहानियों में लिख सकते हैं।
अंतिम अरण्य मैंने दो हिस्सों में पढ़ा। पहली बार पढ़ते हुए यूँ लगा था जैसे कुछ सील रहा है अंदर और इस सीलेपन में कोई सरेस पेपर से छीजते जा रहा है मुझे। कोई मेरे तीखे सिरों को घिसता जा रहा है। लोहे पर नए पेंट की कोट चढ़ाने के पहले उसकी घिसाई करनी होती है। सरेस पेपर से। पुरानी गंदगी। तेल। मिट्टी। सब हटाना होता है। ऐसे ही लग रहा है कि मैं एकदम रगड़ कर साफ़ कर दी गयी हूँ। अब मुझ पर नया रंग चढ़ सकता है।
कितनी इत्मीनान की किताब है ये। कैसे ठहरे हुए किरदार। शहर। अंदर बाहर करते हुए ये कैसे लोक हैं कि जाने पहचाने से लगते हैं। मैं फिर कहती हूँ कि मुझे लगता है मैंने अपना अंतिम अरण्य बनाना शुरू कर दिया है। आज की सुबह में किताब का आख़िर हिस्सा पढ़ना शुरू किया। धूप सुहानी थी जब पन्नों ने आँखें ढकी थीं। अब धूप का जो टुकड़ा खुले काँधे पर गिर रहा है उसमें बहुत तीखापन है। चुभन है।
किसी हिस्से को उद्धृत करने के लिए पन्ने पलटाती हूँ तो देखती हूँ पहले के पढ़े हुए कुछ पन्नों में मैंने अपनी चमकीली फ़ीरोज़ी स्याही से कुछ पंक्तियाँ अंडरलाइन कर रखी हैं। मुझे ये बात बहुत बुरी लगती है। मृत्यु की इस पगडंडी पर चलते हुए इतने चमकीले रंग अच्छे नहीं लगते। वे मृतक के प्रति एक ठंढी अवहेलना दिखाते हैं। ये सही नहीं है। मुझे पेंसिल का इस्तेमाल करना चाहिए था। मैं रंगों को ऐसे तो नहीं बरतती। अनजाने तो मुझ से कुछ नहीं होता। गुनाह भी नहीं।
पढ़ते हुए अनजाने में बहुत लेखा जोखा किया। बहुत शहरों से गुज़री। कुछ लोगों से भी। इन दिनों जो दूसरी किताब पढ़ रही हूँ वो भी ऐसी ही कुछ है। नीला घर- तेज़ी ग्रोवर। त्रांस्टोमेर के एक द्वीप पर बने घर में वह जाती है और उनके सिर्फ़ दो शब्दों से और घर के इर्द गिर्द जीती हुयी चीज़ों से कविताओं में बची ख़ाली जगह भरती है।
उनका कहा हुआ आख़िरी शब्द होता है, ‘थैंक्स’ इसके बाद वे कुछ भी कह नहीं पाते। मृत्यु के पहले वो अपनी कृतज्ञता जता पाते हैं। मुझे ये एक शब्द बहुत कचोटता है। उनके साथ रहने वाले नौकर ने उनकी दर्द में तड़पती हुयी पत्नी के लिए जल्दी मर जाने की दुआएँ माँगी थीं। वे पूछते हैं, मेरे लिए तुमने कभी मन्नत माँगी? नौकर जवाब देता है, आपके पास तो सब कुछ है। आपके लिए क्या मांगूँ। कोई हो मेरे लिए मन्नत कर धागा बाँधने वाला तो मेरे लिए तुम्हारी एक चिट्ठी माँग दे। सिर्फ़ एक। काग़ज़ पर लिखी हुयी। तुम्हारी उँगिलयों की थरथराहट को समेटे हुए। तुम्हारे जीने, तुम्हारे साँस लेने और तुम्हारे ख़याल में किसी एक लम्हा धूमकेतू की तरह चमके मेरे ख़याल को भी।
आख़िर में बस एक छोटा सा पैराग्राफ़ यहाँ ख़ुद के लिए रख रही हूँ। किसी चीज़ की असली जगह कहाँ होती है। मैं जो बेहद बेचैन हुआ करती हूँ। एक जगह थिर बैठ नहीं सकती। आज अचानक लगा है। तुम बिछड़ गए हो इक उम्र भर के लिए। मेरे लिए आख़िर, सुकून की जगह, तुम्हारे दिल में बनी वो क़ब्र है जिसमें मेरी चिट्ठियाँ दफ़्न हैं।
***2.4
कोर्बेट के मेमोयर का हिस्सा ‘मेरी आहट सुनते ही सारा जंगल छिप जाता था’ — वह लिखते हैं — और मुझे लगता था जैसे…”, वह एक क्षण को रुके, जैसे किसी फाँस को अपने पुराने घाव से बाहर निकाल रहे हों, “जैसे मैं किसी ऐसी जगह आ गया हूँ जो मेरी नहीं है।”वह कुछ देर इसकी ओर आँखें टिकाए लेटे रहे। फिर कुछ सोचते हुए कहा, “हो सकता है — हमारी असली जगह कहिन और हो और हम ग़लती से यहाँ चले आएँ हों?” उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा था कि मैं हकबका सा गया।“कौन सी असली जगह?” मैंने कहा, “इस दुनिया के अलावा कोई और जगह है?”“मुझे नहीं मालूम, लेकिन जहाँ पर तुम हो, मैं हूँ, निरंजन बाबू हैं, ज़रा सोचो, क्या हम सही जगह पर हैं? निरंजन बाबू ने एक बार मुझे बड़ी अजीब घटना सुनायी…तुम जानते हो, उन्होंने फ़िलोसल्य तो छोड़ दी, लेकिन साधु-सन्यासियों से मिलने की धुन सवार हो गयी…जो भी मिलता, उससे बात करने बैठ जाते! एक बार उन्हें पता चला की कोई बूढ़ा बौद्ध भिक्षुक उनके बग़ीचे के पास ही एक झोंपड़ी में ठहरा है…वह उनसे मिलने गए, तो भिक्षुक ने बहुत देर तक उनके प्रशों का कोई जवाब नहीं दिया…फिर भी जब निरंजन बाबू ने उन्हें नहीं छोड़ा, तो उन्होंने कहा — पहले इस कोठरी में जहाँ तुम्हारी जगह है, वहाँ जाकर बैठो…निरंजन बाबू को इसमें कोई कठिनाई नहीं दीखी। वह चुपचाप एक कोने में जाकर बैठ गए। लेकिन कुछ ही देर बाद उन्हें बेचैनी महसूस होने लगी। वह उस जगह से उठ कर दूसरी जगह जाकर बैठ गए, लेकिन कुछ देर बाद उन्हें, वहाँ भी कुछ ग़लत है और वह उठ कर तीसरी जगह जा बैठे…उनकी बेचनी बढ़ती रही और वह बराबर एक जगह से दूसरी जगह बदलते रहे…फिर उन्हें लगा जैसे एक ही जगह उनके लिए बची थी, जिसे उन्होंने पहले नहीं देखा था, दरवाज़े की देहरी के पास, जहाँ पहले अँधेरा था और अब हल्की धूप का चकत्ता चमक रहा था…वहाँ बैठते ही उन्हें लगा, जैसे सिर्फ़ कुछ देर के लिए — कि यह जगह सिर्फ़ उनके लिए थी, जिसे वह अब तक खोज रहे थे…जानते हो — वहाँ बैठ कर उन्हें क्या लगा…एक अजीब-सी शांति का बोध — उन्हें लगा उन्हें भिक्षुक से कुछ भी नहीं पोंछना, उन्हें सब उत्तर मिल गए हैं, मन की सारी शंकाएँ दूर हो गयी हैं — वह जैसे कोठरी में आए थे, वैसे ही बाहर निकल आए…”
— अंतिम अरण्य
Published on March 01, 2017 21:21
February 17, 2017
तुमने नमक सिर्फ़ कविताओं में चखा है
‘सिगरेट’… ‘एक सिगरेट मिलेगी?’ इस अजनबी शहर में जितनी बार सोचा है कि माँग लूँ किसी से अपने क़त्ल का सामान। लेकिन ये अजीब शहर है कि यहाँ कोई अजनबियों का क़त्ल नहीं करता। सिगरेट देने के पहले वे चूमना चाहते हैं मेरे होंठ। वे अँधेरा बुलाना चाहते है कि सिगरेट जलाते हुए देख सकें मेरी आँखें। मैंने तुम्हारे नाम के रेशम दस्ताने पहने हुए हैं कि कोई छू ना सके तुम्हारा नाम। कि कोई लिख ना दे तुम्हारे नाम से कविता कोई। मगर वे एक सिगरेट के बदले माँगते हैं मुझसे मेरे बाएँ हाथ का नीला दस्ताना। तुम्हें याद है पिछली सर्दियों में तुमने दिलवाए थे नीले दस्ताने? धुएँ ने वादा किया है कि वो मेरे इर्द गिर्द बहते समय को रोक कर रखेगा कि एक सिगरेट की ही तो बात है।
मैंने उसकी शक्ल नहीं देखी। सिर्फ़ लाइटर देखा है उसका। मगर उसने धोखे से पकड़ कर मेरा हाथ चूम ली है मेरी हथेली। सहम गयी है बेफ़िक्र मुस्कुराती हार्ट लाइन। हार्ट लाइन। तुमसे पहली बार मिली थी तो वो पहली चाँद की रात थी। मैंने लजा कर दोनों हथेलियों में ढक लिया था चेहरा…हौले से खोल कर हथेलियाँ, ठीक बीच से तोड़ा था चाँद और इसी हार्ट लाइन के पार तुम्हें पहली बार देखा था। उस अजनबी को कुछ भी नहीं मालूम। उसने इश्क़ नहीं जाना है, वो सिर्फ़ ज़िद जानता है। नियम जानता है। और इस शहर के नियम कहते हैं किसी अजनबी को सिगरेट नहीं दे सकते हैं। उसने मुझे अपने प्रेमिका कह कर पुकारने के लिए ही ऐसा किया है। हार्ट लाइन ग़ुस्से में फुफकार उठी है और कोड़े की तरह बरस गयी है उसके होठों पर। मुझे बेआवाज़ सिर्फ़ दिल तोड़ना ही नहीं, थप्पड़ मारना भी आता है। आज मालूम चला है।
तुम्हारा नाम जिरहबख़्तर है। मैं आशिक़ों के शहर जाते हुए आँखों में तुम्हारे नाम का पानी लिए चलती हूँ। नमक से चीज़ों में जल्दी जंग लग जाती है, इस डर से कोई मेरी खारी आँखें नहीं चूमता।
तुम्हारा स्पर्श एक मौसम है। बदन में खिलता हुआ। टहकता हुआ। गहरा लाल। सुर्ख़ नीला। काई हरा। जिन्होंने नहीं छुआ है तुम्हें वे बर्बाद हो जाने वाले इस मौसम से अनजान हैं।
उनके लिए ये शहर वसंत है। कि जिसने बौराने की इजाज़त पुराने आम के पेड़ से ली है जिसमें इस साल मंज़र नहीं आएँगे। सड़कें मेरे नंगे पैरों के नीचे काले कोलतार के अंगारे बिछाते जाती हैं। इस पूरी दुनिया के सड़कों की लम्बाई बढ़ती जाती है जब भी कभी इश्क़ होता है मुझे। इक तुम्हारे पुकारने से बनने लगते हैं क़िस्से वाले शहर। कविताओं की बावलियाँ कि जिनमें प्यास छलछलाया करती है। उफ़। तुमने मेरा नाम लिया था क्या?
इस यूनिवर्स के expand करने की conspiracy थ्योरी सुनोगे? ऐसा इसलिए है कि तुम्हारा शहर मेरे दिल से दूर होता जाए। गुरुत्वाकर्षण फ़ोर्स जानते हो क्या होता है? इश्क़। जो सारी चीज़ों को आपस में बाँध के रखता है। किसी ऐटम का वजूद ही नहीं होता…इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन और neutron तक अलग अलग होते रहते।
कि जानां, दुनिया की सबसे छोटी इकाई जानते हो क्या है? हिज्र। हम जब मिले थे और अगली बार जब मिलेंगे ये तुमसे मिलने के पलक झपकाते महसूस होने लगता है। इक साँस और दूसरी साँस के बीच खिंचती खाई है हिज्र।
मगर मुझे थोड़ा बौराने की इजाज़त दो। इस शहर, इस मौसम और बिना सिगरेट की इस शाम की ख़ातिर। हम और तुम आख़िर अलग अलग शहरों में हैं। इश्क़ और पागलपन में इक शहर भर का अंतर है। तुम मेरे शहर में होते तो इश्क़ ने तबाही के शेड में रंग दिए होते मेरे कमरे के सारे काग़ज़। फिर मैं तुम्हें कैसे लिखती ख़त। कैसे। बिना ख़त के कैसे आते तुम मुझसे मिलने? कभी होता कि चाँद रात अपनी छत पर खड़े होकर तुमने देखा हो ध्रुवतारे को, ये जानते हुए कि मैंने तुम्हें बेतरह याद किया है? याद ऐसी नहीं कि लिख लूँ खत और एक शाम जीने की, साँस लेने की मोहलत मिल जाए। याद ऐसी कि जैसे माँगी जाती है दुआ, मैं घुटनों के बल बैठूँ। धुली हुयी गहरी गुलाबी साड़ी में। कानों में झूलते हो गुलाबी ही झुमके कि जिनमें लगे हों तुम्हारे शहर की नदी से निकाले गए क़ीमती पत्थर। सर पर आँचल खींचूँ। दोनों हथेलियों को जोड़ूँ साथ में और चाँद को बंद कर दूँ एक दुआ में।
जानां। मैं मर जाऊँगी। मुझसे मिलने मेरे शहर आ जाओ।
तुम्हें समंदर का स्वाद नहीं मालूम। तुमने नमक सिर्फ़ कविताओं में चखा है। या कि तीखी सब्ज़ियों में। हज़ार मसालों के साथ जानते हो तुम नमक। कभी ऐसे शहर में गए हो जहाँ आँसुओं की बारिश होती है? अपनी हथेली चूमते हुए महसूसा है नमक को?कई साल तक उँगलियों के पोर में आँसू जज़्ब होते हैं तो उँगलियाँ नमक की बन जाती हैं। तुम क्यूँ चूमना चाहते हो मेरी उँगलियाँ? तुम्हें किसी ने कहा कि तुम्हारे लब खारे हैं? किसी ने चूमा है तुम्हें यूँ कि ख़ून का स्वाद और तुम्हारे होठों का स्वाद एक जैसा लगे?
मैं सिर्फ़ पागल हो रही होती तो कभी नहीं कहती तुमसे। मगर मेरी जान। मैं मर रही हूँ।
सुनो जानां, आते हुए सिगरेट लेते आना।
Published on February 17, 2017 09:53
February 16, 2017
बिसरता स्पर्श २ - मुहब्बत और टच मी नॉट
ज़िंदगी को बहुत गहराई से महसूसती हूँ। मेरे लिखने में और मेरे होने में चीज़ों की गंध और स्पर्श अक्सर हुआ करती है। मैं इन दिनों यादों से खंगाल कर स्पर्श के कुछ टुकड़े रख रही हूँ। एक बेतुकी सी डायरी की तरह। आपके वक़्त की क़ीमत ज़्यादा है तो इसे यहाँ जाया ना करें। ये बस यूँ ही लिखा गया है। इसका हासिल कुछ नहीं है। एक सफ़र है, जिसके कुछ पड़ाव हैं। बस ***मेरा बचपन देवघर में बीता है। सेंट फ़्रैन्सिस स्कूल, जसिडीह। इसके बाद देवघर में बारहवीं की पढ़ाई करने के लिए ढंग के स्कूल नहीं थे और पापा का ट्रान्स्फ़र हो गया और हम पटना आ गए। पटना में सेंट जोसेफ़्स कॉन्वेंट में मेरा अड्मिशन हो गया। अभी तक मैंने को-एड में पढ़ाई की, जहाँ लड़के लड़कियाँ सारे साथ में थे। मगर ये सिर्फ़ लड़कियों वाला स्कूल था। मुझे अभी भी मेरा पहला हफ़्ता याद है वहाँ का। चारों तरफ़ इतनी सारी लड़कियाँ। इतना शोर। एक तरह से कह सकते हैं, मैंने उम्र भर के लिए लड़कियों से कहीं मन ही मन में तौबा कर ली थी। मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। लड़कियों की एक अलग क़िस्म की दुनिया थी, अलग क़िस्म की बातें जिनसे मैं एकदम अनभिज्ञ रही थी अभी तक।
इसी स्कूल में पहली बार ठीक ठीक तारीके से लेसबियन और गे के बारे में पहली पहली बार सुना था। हमारे बैच में दो लड़कियाँ थीं जो हमेशा एक दूसरे के साथ रहती थीं। ख़बर गरम थी कि उनके बीच कुछ चल रहा है। इस चलने का पता इससे चलता था कि वे हमेशा एक दूसरे से चिपकी हुयी चलती थीं। हाथ पकड़े रहती थीं। कभी एक दूसरे के बालों से खेलती रहती थीं। क्लास में भी हाथ पकड़ कर बैठी रहती थीं। इस स्कूल में आने के पहले मैंने ये जाना था कि किसी लड़के को छूना या उसके साथ ज़्यादा क्लोज़ होना बुरा है। कि इससे कह दिया जाएगा कि तुम बुरी लड़की हो, तुम्हारा किसी के साथ कुछ चक्कर चल रहा है। लड़कियों के साथ सटना घर परिवार या मुहल्ले में बुरा नहीं माना जाता था। लड़कियों के साथ बिस्तर में लेटे लेटे बात की जा सकती थी। उनकी गोद में सर रखा जा सकता था। वे आपके बालों को सहला सकती थीं। लेकिन ऐसा किसी लड़के के साथ करना गुनाह था। मगर स्कूल में देखा कि सिर्फ़ लड़के ही नहीं, किसी लड़के के साथ भी ज़्यादा टची होना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। उस उम्र में हम चीज़ों को समझ रहे होते हैं। अपनी धारणाएँ बना रहे होते हैं। तो इस सिलसिले में जो चीज़ सबसे ज़्यादा आपत्तिजनक पायी गयी थी, वो था स्पर्श। आप मन ही मन में जो सोच लें आप उसे छू नहीं सकते हैं। स्पर्श की सीमारेखा खींची जा रही थी। पर्सनल स्पेस डिफ़ाइन हो रहा था।
मैं उस स्कूल में बिलकुल अजस्ट नहीं कर पायी थी। सिर्फ़ दोस्तों के हिसाब से ही नहीं, पढ़ाई के हिसाब से भी। जहाँ अब तक मैं टॉपर रही थी, यहाँ की पढ़ाई समझ नहीं आ रही थी उसपर क्लास में कोई दोस्त नहीं थी जिससे कुछ मदद भी मिले। हाँ, यहाँ हमारी लाइब्रेरी बहुत अच्छी थी। मैंने पहली बार रोमैन्स नावल्ज़ पढ़े। मिल्स ऐंड बून बहुत सी लड़कियाँ पढ़ती रहती थीं और हरलेक्विन रोमैन्सेज़। मुझे मिल्स एंड बून बहुत ही हल्का और सतही लगा लेकिन हरलेक्विन पढ़ना मुझे पसंद था। ये इरॉटिका की कैटेगरी के नॉवल थे। घर में मेरी मम्मी मेरी लाइब्रेरी की सारी किताबें पढ़ जाती थी। अब उसे जब रोमैन्स उठाए तो डांट पढ़ी कि ये क्या सब घटिया किताब पढ़ती रहती हो। यहाँ पर स्कूल मेरी मदद को आया कि घटिया है तो स्कूल लाइब्रेरी में क्यूँ रखा है? ये सब भी पढ़ना चाहिए। लाइफ़ का हिस्सा है, वग़ैरह वग़ैरह। एक लेखक के हिसाब से कहें तो उन किताबों ने मुझे दो चीज़ें सिखायीं, स्पर्श को समझना और इंसान की प्रोफ़ायलिंग। आज भी किसी हीरो का डिस्क्रिप्शन उन रोमैन्स नावल्ज़ में जैसा देखा था वैसा कहीं नहीं देखा। उन्हीं नावल्ज़ ने स्पर्श को मेरे लिए डिफ़ाइन भी किया। वहाँ स्पर्श के कई हज़ार रंग थे। एक तरह की डिक्शनेरी कि जिसमें बदन के हर हिस्से के टच का वर्णन था। फिर यहाँ असल ज़िंदगी थी जहाँ हम किसी को भी नहीं छू सकते थे...हर तरह का स्पर्श वर्जित स्पर्श था।
गर्ल्ज़ स्कूल में होने के कारण बहुत सी और चीज़ें शामिल होने के लिए लड़ाई कर रही थीं। इनमें से पहली चीज़ थी वैक्सिंग। ११वीं में पढ़ने वाली लड़कियाँ अपने हाथ और पैर वैक्स कराती थीं। स्कूल की ड्रेस घुटने से चार इंच ऊपर की छोटी स्कर्ट और शर्ट हुआ करती थी। मुझे घर से कभी उतनी छोटी स्कर्ट की परमिशन नहीं मिली लेकिन फिर भी मुझे अपनी ड्रेस काफ़ी पसंद थी। नीले रंग की चेक्स थी। स्कूल की बाक़ी लड़कियाँ अपने वैक्स की हुयी टांगों और छोटी स्कर्ट्स में बहुत सुंदर लगती थीं। मैंने अपनी ज़िंदगी में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत पैर कभी नहीं देखे। काले जूते और सफ़ेद सॉक्स कि जो फ़ोल्ड कर एकदम नीचे कर दिए जाते थे। उन दिनों पटना में ऐंकल सॉक्स नहीं बिकते थे। नोर्मल मोजों को बेहद क़रीने से फ़ोल्ड करके नीचे कर दिया जाता था। हाईजीन पर भी डिस्कशन उन दिनों का हिस्सा था। जो लड़कियाँ वैक्स करती थीं उन्हें बाक़ी लड़कियाँ जो कि वैक्स नहीं करती थीं उनके हाथ खुरदरे लगते थे। पैरों की तो बात ना ही करें तो बेहतर। वैक्सिंग में होने वाले दर्द का सोच कर ही रौंगटे खड़े हो जाते थे। मैंने कभी वैक्स नहीं किया और हमेशा लगता रहा कि मेरे हाथ चिकने नहीं हैं, खुरदरे हैं...ये बाल किसी को बुरे लगेंगे। जबकि मैं इतनी गोरी थी कि मेरे हाथों पर सिर्फ़ हल्के सुनहरे रोएँ थे। मगर उन दिनों लगने लगा था कि सबको सिर्फ़ वैक्स किए हाथों वाली लड़कियाँ अच्छी लगती होंगी। इतना सुंदर अपना चेहरा नहीं दिखता था मुझे भी। कोम्पलेक्स होती जा रही थी मैं। उलझी हुयी। कहाँ कौन मिलता कि जिससे पूछती कि हाथ वैक्स किए बिना तुम्हें अच्छे लगते हैं या नहीं।
स्कूल में लेस्बो कह दिया जाना इतनी बड़ी गाली थी कि लड़कियों का भी आपस में गले मिलना हाथ मिलाना या हाथ पकड़ के बैठे रहना कम होता गया था। जो नोर्मल सी आदत थी कि किसी ने शैंपू किया है तो पास जा के उसके बाल सूंघ कर कह सकूँ बहुत अच्छी ख़ुशबू आ रही है वो भी बंद हो रहा था। ये दो साल ऐसे ही बीते। फिर एक साल मेडिकल की कोचिंग के लिए ड्रॉप किया। यहाँ एक साल थोड़ी जान आयी कि कोचिंग में लड़के थे। जिनसे पढ़ाई लिखाई की बात हो सकती थी। डॉक्टर बन कर हम क्या करेंगे की बात। फ़िज़िक्स की केमिस्ट्री की बात। वे ज़िंदगी में क्या करना चाहते हैं वग़ैरह की बातें। एक नयी चीज़ यहाँ की दोस्ती की थी कि हाथ पकड़ के चलना नोर्मल माना जाता था। मुझे ठीक ठीक मालूम नहीं क्यूँ या कैसे। लड़के लड़कियाँ साथ में कभी कभार सिंघाड़ा खाने जाते थे तो किसी का हाथ पकड़ कर चल सकते थे। उन दिनों ये आवारगर्दी में गिना जाता था। मगर ये आवारगर्दी मुझे ख़ूब रास आती थी।
इस बीच ये भी हुआ कि कोई लड़का बहुत पसंद आने लगा। क्लास में डेस्क में किताबें रखने वाली जगह पर हम हाथ पकड़े बैठे रहते थे। उसने मेरा हाथ इतनी ज़ोर से पकड़ा होता था कि अँगूठी के निशान पड़ जाता था। कभी कभी तो लगता था नील पड़ जाएगा। ज़िंदगी में पहली बार स्पर्श के रोमांच को महसूस किया। उसके साथ चलते हुए हाथ ग़लती से छू भी जाते थे तो जैसे करंट लगता था। उन दिनों इसे स्टैटिक इलेक्ट्रिसिटी का नाम देते थे हम। लेकिन बात ये कुछ केमिस्ट्री की होती थी। उन्हीं दिनों पहली बार ध्यान गया था कि स्पर्श कितना ज़रूरी होता है। उससे अलग रहना कितना तकलीफ़देह होता था। हम उन दिनों भी मिलते थे तो सिर्फ़ हाथ मिलाते थे। पटना जैसे शहर में ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ एक लड़की एक लड़के से गले मिल सकती हो। ये सबकी नज़र में आता था और फिर बस, बदनामी आपके पहले घर पहुँच जाती। उन दिनों पहली बार महसूस किया कि ऐसी कोई जगह हो जहाँ उससे एक बार गले मिल सकें। एक बार चूम सकें उसको। उसके काँधे पर सर टिका कर बैठे रहें कुछ देर। हम जिस टच फोबिक दुनिया में रहते थे, वहाँ उसे चूम लेने का ख़याल गुनाह था। गुनाह।
और हमने इस गुनाह की सिर्फ़ कल्पना की...अफ़सोस के खाते में दर्ज हुआ कि बेपनाह मुहब्बत होने के बावजूद हमने कभी उसे चूमा नहीं। जिस दिन ब्रेक ऑफ़ हुआ और वो आख़िरी बार मिल कर जा रहा था, उसने मेरा हाथ चूमा था। उसके चले जाने के बाद हमने अपने हाथ को ठीक वहीं चूमा...और थरथरा गए। एक सिहरन बहुत देर तक गहरे दुःख और आँसू में महसूस होती रही। उन्हीं दिनों सोनू निगम का गाना ख़ूब सुने, 'तुझे छूने को दिल करे...'
इसी स्कूल में पहली बार ठीक ठीक तारीके से लेसबियन और गे के बारे में पहली पहली बार सुना था। हमारे बैच में दो लड़कियाँ थीं जो हमेशा एक दूसरे के साथ रहती थीं। ख़बर गरम थी कि उनके बीच कुछ चल रहा है। इस चलने का पता इससे चलता था कि वे हमेशा एक दूसरे से चिपकी हुयी चलती थीं। हाथ पकड़े रहती थीं। कभी एक दूसरे के बालों से खेलती रहती थीं। क्लास में भी हाथ पकड़ कर बैठी रहती थीं। इस स्कूल में आने के पहले मैंने ये जाना था कि किसी लड़के को छूना या उसके साथ ज़्यादा क्लोज़ होना बुरा है। कि इससे कह दिया जाएगा कि तुम बुरी लड़की हो, तुम्हारा किसी के साथ कुछ चक्कर चल रहा है। लड़कियों के साथ सटना घर परिवार या मुहल्ले में बुरा नहीं माना जाता था। लड़कियों के साथ बिस्तर में लेटे लेटे बात की जा सकती थी। उनकी गोद में सर रखा जा सकता था। वे आपके बालों को सहला सकती थीं। लेकिन ऐसा किसी लड़के के साथ करना गुनाह था। मगर स्कूल में देखा कि सिर्फ़ लड़के ही नहीं, किसी लड़के के साथ भी ज़्यादा टची होना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। उस उम्र में हम चीज़ों को समझ रहे होते हैं। अपनी धारणाएँ बना रहे होते हैं। तो इस सिलसिले में जो चीज़ सबसे ज़्यादा आपत्तिजनक पायी गयी थी, वो था स्पर्श। आप मन ही मन में जो सोच लें आप उसे छू नहीं सकते हैं। स्पर्श की सीमारेखा खींची जा रही थी। पर्सनल स्पेस डिफ़ाइन हो रहा था।
मैं उस स्कूल में बिलकुल अजस्ट नहीं कर पायी थी। सिर्फ़ दोस्तों के हिसाब से ही नहीं, पढ़ाई के हिसाब से भी। जहाँ अब तक मैं टॉपर रही थी, यहाँ की पढ़ाई समझ नहीं आ रही थी उसपर क्लास में कोई दोस्त नहीं थी जिससे कुछ मदद भी मिले। हाँ, यहाँ हमारी लाइब्रेरी बहुत अच्छी थी। मैंने पहली बार रोमैन्स नावल्ज़ पढ़े। मिल्स ऐंड बून बहुत सी लड़कियाँ पढ़ती रहती थीं और हरलेक्विन रोमैन्सेज़। मुझे मिल्स एंड बून बहुत ही हल्का और सतही लगा लेकिन हरलेक्विन पढ़ना मुझे पसंद था। ये इरॉटिका की कैटेगरी के नॉवल थे। घर में मेरी मम्मी मेरी लाइब्रेरी की सारी किताबें पढ़ जाती थी। अब उसे जब रोमैन्स उठाए तो डांट पढ़ी कि ये क्या सब घटिया किताब पढ़ती रहती हो। यहाँ पर स्कूल मेरी मदद को आया कि घटिया है तो स्कूल लाइब्रेरी में क्यूँ रखा है? ये सब भी पढ़ना चाहिए। लाइफ़ का हिस्सा है, वग़ैरह वग़ैरह। एक लेखक के हिसाब से कहें तो उन किताबों ने मुझे दो चीज़ें सिखायीं, स्पर्श को समझना और इंसान की प्रोफ़ायलिंग। आज भी किसी हीरो का डिस्क्रिप्शन उन रोमैन्स नावल्ज़ में जैसा देखा था वैसा कहीं नहीं देखा। उन्हीं नावल्ज़ ने स्पर्श को मेरे लिए डिफ़ाइन भी किया। वहाँ स्पर्श के कई हज़ार रंग थे। एक तरह की डिक्शनेरी कि जिसमें बदन के हर हिस्से के टच का वर्णन था। फिर यहाँ असल ज़िंदगी थी जहाँ हम किसी को भी नहीं छू सकते थे...हर तरह का स्पर्श वर्जित स्पर्श था।
गर्ल्ज़ स्कूल में होने के कारण बहुत सी और चीज़ें शामिल होने के लिए लड़ाई कर रही थीं। इनमें से पहली चीज़ थी वैक्सिंग। ११वीं में पढ़ने वाली लड़कियाँ अपने हाथ और पैर वैक्स कराती थीं। स्कूल की ड्रेस घुटने से चार इंच ऊपर की छोटी स्कर्ट और शर्ट हुआ करती थी। मुझे घर से कभी उतनी छोटी स्कर्ट की परमिशन नहीं मिली लेकिन फिर भी मुझे अपनी ड्रेस काफ़ी पसंद थी। नीले रंग की चेक्स थी। स्कूल की बाक़ी लड़कियाँ अपने वैक्स की हुयी टांगों और छोटी स्कर्ट्स में बहुत सुंदर लगती थीं। मैंने अपनी ज़िंदगी में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत पैर कभी नहीं देखे। काले जूते और सफ़ेद सॉक्स कि जो फ़ोल्ड कर एकदम नीचे कर दिए जाते थे। उन दिनों पटना में ऐंकल सॉक्स नहीं बिकते थे। नोर्मल मोजों को बेहद क़रीने से फ़ोल्ड करके नीचे कर दिया जाता था। हाईजीन पर भी डिस्कशन उन दिनों का हिस्सा था। जो लड़कियाँ वैक्स करती थीं उन्हें बाक़ी लड़कियाँ जो कि वैक्स नहीं करती थीं उनके हाथ खुरदरे लगते थे। पैरों की तो बात ना ही करें तो बेहतर। वैक्सिंग में होने वाले दर्द का सोच कर ही रौंगटे खड़े हो जाते थे। मैंने कभी वैक्स नहीं किया और हमेशा लगता रहा कि मेरे हाथ चिकने नहीं हैं, खुरदरे हैं...ये बाल किसी को बुरे लगेंगे। जबकि मैं इतनी गोरी थी कि मेरे हाथों पर सिर्फ़ हल्के सुनहरे रोएँ थे। मगर उन दिनों लगने लगा था कि सबको सिर्फ़ वैक्स किए हाथों वाली लड़कियाँ अच्छी लगती होंगी। इतना सुंदर अपना चेहरा नहीं दिखता था मुझे भी। कोम्पलेक्स होती जा रही थी मैं। उलझी हुयी। कहाँ कौन मिलता कि जिससे पूछती कि हाथ वैक्स किए बिना तुम्हें अच्छे लगते हैं या नहीं।
स्कूल में लेस्बो कह दिया जाना इतनी बड़ी गाली थी कि लड़कियों का भी आपस में गले मिलना हाथ मिलाना या हाथ पकड़ के बैठे रहना कम होता गया था। जो नोर्मल सी आदत थी कि किसी ने शैंपू किया है तो पास जा के उसके बाल सूंघ कर कह सकूँ बहुत अच्छी ख़ुशबू आ रही है वो भी बंद हो रहा था। ये दो साल ऐसे ही बीते। फिर एक साल मेडिकल की कोचिंग के लिए ड्रॉप किया। यहाँ एक साल थोड़ी जान आयी कि कोचिंग में लड़के थे। जिनसे पढ़ाई लिखाई की बात हो सकती थी। डॉक्टर बन कर हम क्या करेंगे की बात। फ़िज़िक्स की केमिस्ट्री की बात। वे ज़िंदगी में क्या करना चाहते हैं वग़ैरह की बातें। एक नयी चीज़ यहाँ की दोस्ती की थी कि हाथ पकड़ के चलना नोर्मल माना जाता था। मुझे ठीक ठीक मालूम नहीं क्यूँ या कैसे। लड़के लड़कियाँ साथ में कभी कभार सिंघाड़ा खाने जाते थे तो किसी का हाथ पकड़ कर चल सकते थे। उन दिनों ये आवारगर्दी में गिना जाता था। मगर ये आवारगर्दी मुझे ख़ूब रास आती थी।
इस बीच ये भी हुआ कि कोई लड़का बहुत पसंद आने लगा। क्लास में डेस्क में किताबें रखने वाली जगह पर हम हाथ पकड़े बैठे रहते थे। उसने मेरा हाथ इतनी ज़ोर से पकड़ा होता था कि अँगूठी के निशान पड़ जाता था। कभी कभी तो लगता था नील पड़ जाएगा। ज़िंदगी में पहली बार स्पर्श के रोमांच को महसूस किया। उसके साथ चलते हुए हाथ ग़लती से छू भी जाते थे तो जैसे करंट लगता था। उन दिनों इसे स्टैटिक इलेक्ट्रिसिटी का नाम देते थे हम। लेकिन बात ये कुछ केमिस्ट्री की होती थी। उन्हीं दिनों पहली बार ध्यान गया था कि स्पर्श कितना ज़रूरी होता है। उससे अलग रहना कितना तकलीफ़देह होता था। हम उन दिनों भी मिलते थे तो सिर्फ़ हाथ मिलाते थे। पटना जैसे शहर में ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ एक लड़की एक लड़के से गले मिल सकती हो। ये सबकी नज़र में आता था और फिर बस, बदनामी आपके पहले घर पहुँच जाती। उन दिनों पहली बार महसूस किया कि ऐसी कोई जगह हो जहाँ उससे एक बार गले मिल सकें। एक बार चूम सकें उसको। उसके काँधे पर सर टिका कर बैठे रहें कुछ देर। हम जिस टच फोबिक दुनिया में रहते थे, वहाँ उसे चूम लेने का ख़याल गुनाह था। गुनाह।
और हमने इस गुनाह की सिर्फ़ कल्पना की...अफ़सोस के खाते में दर्ज हुआ कि बेपनाह मुहब्बत होने के बावजूद हमने कभी उसे चूमा नहीं। जिस दिन ब्रेक ऑफ़ हुआ और वो आख़िरी बार मिल कर जा रहा था, उसने मेरा हाथ चूमा था। उसके चले जाने के बाद हमने अपने हाथ को ठीक वहीं चूमा...और थरथरा गए। एक सिहरन बहुत देर तक गहरे दुःख और आँसू में महसूस होती रही। उन्हीं दिनों सोनू निगम का गाना ख़ूब सुने, 'तुझे छूने को दिल करे...'
Published on February 16, 2017 09:10
February 9, 2017
बचपन से बिसरता स्पर्श - १
जिन दिनों हम ब्लॉग लिखना शुरू किए थे २००५ में उन दिनों ब्लॉग की परिभाषा एक ऑनलाइन डायरी की तरह जाना था। वो IIMC की लैब थी जहाँ पहली बार कुछ चीज़ें लिखी थीं और उनको दुनिया के लिए छोड़ दिया था। बिना ये जाने या समझे कि यहाँ से बात निकली है तो कहाँ तक जाएगी। हिंदी में ब्लौग्स बहुत कम थे और जितने थे सब लगभग एक दूसरे को जानते थे। मैंने अपने इस ऑनलाइन ब्लॉग पर जो मन सो लिखा है। कहानी लिखी, कविता लिखी, व्यंग्य लिखा, डायरी लिखी। सब कुछ ही। उन दिनों किताब छपना सपने जैसी बात थी। वो भी पेंग्विन से। मगर तीन ‘रोज़ इश्क़ मुकम्मल’ हुआ और पिछले तीन सालों में बहुत से रीडर्स का प्यार उस किताब को मिला। इन दिनों लिखना भी पहले से बदल कर क़िस्से और तिलिस्म में ज़्यादा उलझ गया। फिर फ़ेसबुक पर लिखना शुरू हुआ। लिखने का एक क़ायदा होता है जिसमें हम बंध जाते हैं। पहले यूँ होता था कि हर रोज़ के ऑफ़िस और घर की मारामारी के बीच का एक से दो घंटे का वक़्त हमारा अपना होता था। मैं ऑफ़िस से निकलने के पहले लिखा करती थी। मेरी अधिकतर कहानियाँ एक से दो घंटे में लिखी गयी हैं। एक झोंक में। फ़ेसबुक पर लिखने से ये होता है कि दिन भर छोटे छोटे टुकड़ों में लिखते हैं जिसके कारण शाम तक ख़ाली हो जाते हैं। पहले होता था कि कोई एक ख़याल आया तो दिन भर घूमते रहता था मन में। गुरुदत्त पर जब पोस्ट्स लिखी थीं तो हफ़्ते हफ़्ते तक सिर्फ़ गुरुदत्त के बारे में ही पढ़ती रही। ब्लॉग पर लिखने की सीमा है। १०००-१५०० शब्दों से ज़्यादा की पोस्ट्स बोझिल लगती हैं। यही उन दिनों लिखने का अन्दाज़ भी था। इन दिनों चीज़ें बदल गयी हैं। कहानी लगभग २०००-३००० शब्दों की होती है। कई बार तो पाँच या सात हज़ार शब्दों की भी। इस सब में मैं वो लिखना भूल गयी जो सबसे पहले लिखा करती थी। जो मन सो। वो। तो आज फिर से लौट रही हूँ वैसी ही किसी चीज़ पर। अगर मैं अपने ब्लॉग पर लिखने से पहले भी सोचूँगी तब तो होने से रहा। यूँ कलमघिसाई ज़रूरी भी है।
आज एक दोस्त ने फ़ेस्बुक पर एक आर्टिकल शेयर की। स्पर्श पर। मैं बहुत सी चीज़ें सोचने लगी। ज़िंदगी के इतने सारे क़िस्से आँखों के सामने कौंधे। ऐसे क़िस्से जो शायद मैं अपने नाम से कभी ना लिखूँ। कई सारे परतों वाले किरदार के अंदर कहीं रख सकूँ शायद।
मैं बिहार से हूँ। मेरा गाँव भागलपुर के पास आता है। मेरा बचपन देवघर नाम के शहर में बीता। दसवीं के बाद मेरा परिवार पटना आ गया और फिर कॉलेज के बाद मैं IIMC, दिल्ली चली गयी PG डिप्लोमा के लिए। मेरा स्कूल को-एड था और उसके बाद ११th-१२th और फिर पटना वीमेंस कॉलेज गर्ल्ज़ ओन्ली था।
स्पर्श कल्चर का हिस्सा होता है। हम जिस परिवेश में बड़े हुए थे उसमें स्पर्श कहीं था ही नहीं। बहुत छोटे के जो खेल होते थे उनमें बहुत सारा कुछ फ़िज़िकल होता है। छुआ छुई का तो नाम ही स्पर्श पर है। लुका छिपी का सबसे ज़रूरी हिस्सा था ‘धप्पा’ जिसमें दोनों हाथों से चोर की पीठ पर झोर का धक्का लगा कर धप्पा बोलना होता था। पोशमपा भाई पोशमपा में हम एक दरवाज़ा बना कर खड़े होते थे और बाक़ी बच्चे उसके नीचे से गुज़रते थे। बुढ़िया कबड्डी में एक गोल घेरा होता था और एक चौरस। गोल घेरे में बुढ़िया होती थी जिसका हाथ पकड़ कर विरोधी टीम से बचा कर दौड़ते हुए दूर के चौरस घेरे में आना होता था। कबड्डी में तो ख़ैर कहाँ हाथ, कहाँ पैर कुछ मालूम नहीं चलता था। रस्सी कूदते हुए दो लड़कियाँ हाथ पकड़ कर एक साथ कूदती थीं और दो लड़कियाँ रस्सी के दोनों सिरों को घोल घुमाती रहती थीं।
अगर हम बचपन को याद करते हैं तो उसका बहुत सा हिस्सा स्पर्श के नाम आता है। बाक़ी इंद्रियों के सिवा भी। शायद इसलिए कि हम सीख रहे होते हैं कि स्पर्श की भी एक भाषा होती है। मेरे बचपन की यादों में मिट्टी में ख़ाली पैर दौड़ना। छड़ से छेछार लगाना। जानना कि स्पर्श गहरा हो तो दुःख जाएगा…ज़ख़्म हो जाएगा भी था।
स्पर्श के लिए पहली बार बुरा लगना कब सीखा था वो याद नहीं, बस ये है कि जब मैं छोटी थी, लगा लो कोई std.५ में तब मेरी बेस्ट फ़्रेंड ने कहा था उसको हमेशा ऐसे हाथ पकड़ कर झुलाते झुलाते चलना पसंद नहीं। मैं जो गलबहियाँ डाल कर चलती थी, वो भी नहीं। लगभग यही वक़्त था जब मुहल्ले के बच्चे भी दूसरे गेम्स की ओर शिफ़्ट कर रहे थे। घर में टीवी आ गया था। इसी वक़्त मुहल्ले में चुग़ली भी ज़्यादा होने लगी थी। किसी के बच्चों को पीट दिया तो उसकी मम्मी घर आ जाती थी झगड़ा करने। फिर कोई नहीं सुनता था कि उसने पहले चिढ़ाया था या ऐसा ही कुछ। घर में कुटाई होती थी। यही समय था जब मारने के लिए छड़ी का इस्तेमाल होना शुरू हुआ था। उसके पहले तो मम्मी हाथ से ही मारती थी। इसी समय इस बात की ताक़ीद करनी शुरू की गयी थी कि लड़कों को मारा पीटा मत करो। और लड़के तो ख़ैर लड़के ही थे। नालायकों की तरह क्रिकेट खेलने चले जाते थे। ये अघोषित नियम था कि लड़कियों को खेलाने नहीं ले जाएँगे। हमको तबसे ही क्रिकेट कभी पसंद नहीं आया। क्रिकेट ने हमें लड़की और लड़के में बाँट दिया था।
क्लास में भी लड़के और लड़की अलग अलग बैठने लगे थे। ऐसा क्यूँ होता है मुझे आज भी नहीं समझ आता। साथ में बैठने से कौन सी छुआछूत की बीमारी लग जाएगी? सातवीं क्लास तक आते आते तो लड़कों से बात करना गुनाह। किसी से ज़्यादा बात कर लो तो बाक़ी लड़कियाँ छेड़ना शुरू कर देती थीं। हम लेकिन पिट्टो जैसे खेल साथ में खेलते थे। हमको याद है उसमें एक बार हम किसी लड़के को हींच के बॉल मार दिए थे तो वो हमसे झगड़ रहा था, इतना ज़ोर से बॉल मारते हैं, हम तुमको मारें तो…और हम पूरा झगड़ गए थे कि मारो ना…बॉल को थोड़े ना लड़की लड़का में अंतर पता होता है। पहली बार सुना था, ‘लड़की समझ के छोड़ दिए’ और हम बोले थे, हम लड़का समझ के छोड़ेंगे नहीं, देख लेना। इसके कुछ दिन बाद हमारे साथ के गेम्स ख़त्म हो गए। ठीक ठीक याद नहीं क्यूँ मगर शायद हम भरतनाट्यम सीखने लगे थे, इसलिए।
मेरे जो दोस्त 6th के आसपास के हैं, उनसे दोस्ती कुछ यूँ हैं कि आज भी मिलते हैं तो बिना लात-जुत्ते, मार-पीट के बात नहीं होती है। मगर इसके बाद जो भी दोस्त बने हैं उनके और मेरे बीच एक अदृश्य दीवार खिंच गयी थी। मुझे स्कूल के दिनों की जो बात गहराई से याद है वो ये कि मैं किसी का हाथ पकड़ के चलना चाहती थी। या हाथ झुलाते हुए काँधे पर रखना चाहती थी। छुट्टी काटना चाहती थी। इस स्पर्श को ग़लत सिखाया जा रहा था और ये मुझे एक गहरे दुःख और अकेलेपन से भरता जा रहा था। स्पर्श सिर्फ़ दोस्तों से ही नहीं, परिवार से भी अलग किया जा रहा था। कभी पापा का गले लगाना याद नहीं है मुझे। मम्मी का भी बहुत कम। छोटे भाई से लड़ाई में मार पिटाई की याद है। चुट्टी काटना, हाथ मचोड़ देना जैसे कांड थे लेकिन प्यार से बैठ कर कभी उसका माथा सहलाया हो ऐसा मुझे याद नहीं।
लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी।
लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। ये पहली बार था कि मैंने कुछ चाहा था और उलझी थी कि सब इतने आराम से क्यूँ हैं। किसी और को तकलीफ़ क्यूँ नहीं होती। किसी और को प्यास नहीं लगती। अकेलापन नहीं लगता? सब के एक साथ गायब हो जाने का डर क्यूँ नहीं लगता।
लिख रही हूँ तो देख रही हूँ, कितना सारा कुछ है इस बारे में लिखने को। कुछ दिन लिखूँगी इसपर। बिखरा हुआ कुछ। स्पर्श के कुछ लम्हे जो मैंने अपनी ज़िंदगी में सहेज रखे हैं। शब्द में रख दूँगी।
तब तक के लिए, जो लोग इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं, आपने आख़िरी बार किसी को गले कब लगाया था? परिवार, पत्नी, बच्चों को नहीं…किसी दोस्त को? किसी अनजान को? किसी को भी? जा कर ज़रा एक जादू की झप्पी दे आइए। हमको थैंक्स बाद में कहिएगा। या अगर पिट गए, तो गाली भी बाद में दे सकते हैं।
Published on February 09, 2017 08:24
February 7, 2017
एक नदी सपने में बहती थी
मुझे पानी के सपने बहुत आते हैं। और इक पुरानी खंडहर क़िले जैसी इमारत के भी। ये दोनों मेरे सपने के recurring motifs हैं।
***
कल सपने में एक शहर था जहाँ अचानक से बालू की नदी बहने लगी। ज़मीन एकदम से ही दलदल हो गयी और उसमें बहुत तेज़ रफ़्तार आ गयी कि जैसे पहाड़ी नदियों की होती है। फिर जैसे कि कॉमिक्स में होते हैं मेटल के बहुत बड़े बड़े सिलिंड्रिकल ट्यूब थे जिनमें बहुत बड़ी बड़ी स्पाइक लगी हुयी थीं। ये भी उस रेत की नदी में रोल हो रहे थे कि नदी के रास्ते में जो आएगा उसका मरना निश्चित है। बिलकुल लग रहा था सुपर कमांडो ध्रुव के किसी कॉमिक्स में हैं। शहर के सब लोग एक ख़ास दिशा में चीख़ते चिल्लाते हुए भाग रहे थे। मैं पता नहीं क्यूँ बहुत ज़्यादा विचलित नहीं थी। शायद मुझे सपने में मरने से डर नहीं लगता। वहीं शहर के एक ओर कुछ छोटी पहाड़ियों जैसी जगह थी। कुछ बड़े बड़े पत्थर थे, जिनको अंग्रेज़ी में बोल्डर कहते हैं। मैं एक पत्थर पर चढ़ी जहाँ से पूरा शहर दिख रहा था। बालू में धँसता...घुलता...गुम होता...जादू जैसा कुछ था...तिलिस्म जैसा कुछ...उस पत्थर से कोई दो फ़ीट नीचे कूदते ही सामने के पत्थर पर एक दरवाज़ा था। मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा कि इटली का कोई शहर था। मैं दरवाज़े से उस शहर आराम से जा सकती थी। फिर मैंने देखा कि पत्थर पर साथ में मेरी सास भी हैं। मैंने उनसे हिम्मत करके कूदने को कहा। कि सिर्फ़ दो फ़ीट ही है। और कि मैं हूँ।
फिर सीन बदल जाता है। उसी शहर में एक नदी भी थी। नदी किनारे बड़ा सा महल नुमा कोई पुरानी हवेली थी जिसमें कुछ पुराने ज़माने के लोग थे। वहाँ वक़्त ठहरा हुआ था। ठीक ठीक मालूम नहीं ६० के दशक में या ऐसा ही कुछ। लोगों के कपड़े, कटलरी और उनका आचरण सब इक पुराने ज़माने का था। नदी शांत थी कि जैसे पटना कॉलेज के सामने बहती गंगा होती है। नदी में कुछ लोग खेल खेल रहे थे। मैं किनारे पर थी और नदी में कूदने वाली थी। तभी देखती हूँ कि नदी में बहुत बड़े बड़े हिमखंड आ गए हैं। ग्लेशियर के टुकड़े। बहुत विशाल। और नदी में भी अचानक से बहुत सी रफ़्तार आ गयी है। वे जाने कहाँ से बहुत तेज़ी से बहते चले आ रहे हैं। नदी का पानी बर्फ़ीला ठंढा हो गया है। कि ठंढ और रफ़्तार दोनों से कट जाने का अंदेशा है।
वहीं कहीं एक दोस्त है। बहुत प्यारा। वो सामने की टेबल पर बैठा है मेरे साथ। हमारे बीच कॉफ़ी रखी हुयी है। उसने मेरा गाल थपथपाया है। दुनिया हमारे चारों ओर बर्बाद हो रही है लेकिन उसे शायद किसी चीज़ की परवाह नहीं है कि उसके सामने मैं बैठी हूँ। कि हम साथ हैं।
उन्हीं पत्थरों के बीच पहुँची हूँ फिर। वहाँ बहुत नीचे एक छोटा कुआँ, कुंड जैसा है या कि कह लीजिए तालाब जैसा है। मोरपंख के आकार में और रंग में भी। चारों ओर धूप है। पानी का रंग गहरा नीला, फ़ीरोज़ी और मोरपंखी हरा है। मैं ऊँची चट्टान से उस पानी में डाइव मारती हूँ। डाइव करते हुए पानी की गर्माहट को महसूस किया है। पूरे बदन के भीगने को भी। मैं पानी में गहरे अंदर जाती जा रही हूँ, बहुत अंदर, इतना कि अंदर अँधेरा है। बहुत देर तक पानी में अंदर जाने के बाद वो गहराई आयी है जहाँ पर ऊपर से नीचे कूदने का फ़ोर्स और पानी की बॉयन्सी बराबर हुयी है। फिर पानी का दबाव मुझे ऊपर की ओर फेंकता है। मैं पानी से बाहर आती हूँ। और जाने किससे तो कहती हूँ कि अच्छा हुआ मुझे मालूम था कि पानी में डूबते नहीं हैं। वरना इतना गहरा पानी है, मैं तो बहुत डर जाती।
फिर सपने में एक शहर है जो ना मेरा है ना उसका। मेरे पास कोई चिट्ठी आयी है। मैं उससे बहुत गहरा प्रेम करती हूँ। वो मेरे सामने बैठा है। मैं सपने में भी जानती हूँ कि ये सपना है। हम काफ़ी देर तक कुछ नहीं कहते। फिर मैं उनसे कहती हूँ, 'इस टेबल पर रखे आपके हाथ को मैं थाम सकती हूँ। क्या इजाज़त है?', सपने में उन साँवली उँगलियों की गर्माहट घुली हुयी है। मैं जानती हूँ कि ये सपना है। मैं जानती हूँ कि ये प्रेम भी है।
***
मालूम नहीं कहाँ पढ़ा था कि सपने ब्लैक एंड वाइट होते हैं। मेरे सपनों में हमेशा कई रंग रहते हैं। कई बार तो ख़ुशबुएँ भी। पिछले कई दिनों से मैंने ख़ुद को इस बात कर ऐतबार दिलाया है कि इश्क़ विश्क़ बुरी चीज़ है और हम इससे दूर ही भले। लेकिन मेरे सपनों में जिस तरह प्रेम उमड़ता है कि लगता है मैं डूब जाऊँगी। जैसे मैं कोई नदी हूँ और बाढ़ आयी है। मैंने अपनी जाग में इश्क़ के लिए दरवाज़े बंद कर दिए हैं तो वो सपनों में चला आता है।
मैं इन सपनों में भरी भरी सी महसूसती हूँ। कोई बाँध पर जैसे नदी महसूसती होगी, ख़तरे के निशान को चूमती हुयी। डैम पर बना तुम वो ख़तरे का निशान हो...और तुम्हें चूमना तो छोड़ो...तुम्हें छूने का ख़याल भी मेरे सपनों को ख़ुशबू से भर देता है। फिर कितने शहर नेस्तनाबूद होते हैं। फिर पूरी दुनिया में ज़मीन नहीं होती है पैर टिकाने को। मैं पानी में डूबती हुयी भी तुम्हारी आँखों का रंग याद रखती हूँ।
तुमसे इक उम्र दूर रहना...इक शहर...इक देश दूर रहना भी कहाँ मिटा पाता है इस अहसास को। प्रेम कोई कृत्रिम या अप्राकृतिक चीज़ होती तो सपने में इस तरह रह रह कर डूबती नहीं मैं। नदियों का क्या किया जा सकता है? मुझे नदियों को नष्ट करने का कोई तरीक़ा नहीं आता। इस नदी में तुम्हारे ख़याल से उत्ताल लहरें उठती हैं। कहाँ है वो गहरा कुआँ कि जिसमें समा जाती हैं नदियाँ?
जानां, अपनी बाँहें खोलो, समेट लो मुझे, मैं तुम में गुम हो जाऊँ।
***
कल सपने में एक शहर था जहाँ अचानक से बालू की नदी बहने लगी। ज़मीन एकदम से ही दलदल हो गयी और उसमें बहुत तेज़ रफ़्तार आ गयी कि जैसे पहाड़ी नदियों की होती है। फिर जैसे कि कॉमिक्स में होते हैं मेटल के बहुत बड़े बड़े सिलिंड्रिकल ट्यूब थे जिनमें बहुत बड़ी बड़ी स्पाइक लगी हुयी थीं। ये भी उस रेत की नदी में रोल हो रहे थे कि नदी के रास्ते में जो आएगा उसका मरना निश्चित है। बिलकुल लग रहा था सुपर कमांडो ध्रुव के किसी कॉमिक्स में हैं। शहर के सब लोग एक ख़ास दिशा में चीख़ते चिल्लाते हुए भाग रहे थे। मैं पता नहीं क्यूँ बहुत ज़्यादा विचलित नहीं थी। शायद मुझे सपने में मरने से डर नहीं लगता। वहीं शहर के एक ओर कुछ छोटी पहाड़ियों जैसी जगह थी। कुछ बड़े बड़े पत्थर थे, जिनको अंग्रेज़ी में बोल्डर कहते हैं। मैं एक पत्थर पर चढ़ी जहाँ से पूरा शहर दिख रहा था। बालू में धँसता...घुलता...गुम होता...जादू जैसा कुछ था...तिलिस्म जैसा कुछ...उस पत्थर से कोई दो फ़ीट नीचे कूदते ही सामने के पत्थर पर एक दरवाज़ा था। मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा कि इटली का कोई शहर था। मैं दरवाज़े से उस शहर आराम से जा सकती थी। फिर मैंने देखा कि पत्थर पर साथ में मेरी सास भी हैं। मैंने उनसे हिम्मत करके कूदने को कहा। कि सिर्फ़ दो फ़ीट ही है। और कि मैं हूँ।
फिर सीन बदल जाता है। उसी शहर में एक नदी भी थी। नदी किनारे बड़ा सा महल नुमा कोई पुरानी हवेली थी जिसमें कुछ पुराने ज़माने के लोग थे। वहाँ वक़्त ठहरा हुआ था। ठीक ठीक मालूम नहीं ६० के दशक में या ऐसा ही कुछ। लोगों के कपड़े, कटलरी और उनका आचरण सब इक पुराने ज़माने का था। नदी शांत थी कि जैसे पटना कॉलेज के सामने बहती गंगा होती है। नदी में कुछ लोग खेल खेल रहे थे। मैं किनारे पर थी और नदी में कूदने वाली थी। तभी देखती हूँ कि नदी में बहुत बड़े बड़े हिमखंड आ गए हैं। ग्लेशियर के टुकड़े। बहुत विशाल। और नदी में भी अचानक से बहुत सी रफ़्तार आ गयी है। वे जाने कहाँ से बहुत तेज़ी से बहते चले आ रहे हैं। नदी का पानी बर्फ़ीला ठंढा हो गया है। कि ठंढ और रफ़्तार दोनों से कट जाने का अंदेशा है।
वहीं कहीं एक दोस्त है। बहुत प्यारा। वो सामने की टेबल पर बैठा है मेरे साथ। हमारे बीच कॉफ़ी रखी हुयी है। उसने मेरा गाल थपथपाया है। दुनिया हमारे चारों ओर बर्बाद हो रही है लेकिन उसे शायद किसी चीज़ की परवाह नहीं है कि उसके सामने मैं बैठी हूँ। कि हम साथ हैं।
उन्हीं पत्थरों के बीच पहुँची हूँ फिर। वहाँ बहुत नीचे एक छोटा कुआँ, कुंड जैसा है या कि कह लीजिए तालाब जैसा है। मोरपंख के आकार में और रंग में भी। चारों ओर धूप है। पानी का रंग गहरा नीला, फ़ीरोज़ी और मोरपंखी हरा है। मैं ऊँची चट्टान से उस पानी में डाइव मारती हूँ। डाइव करते हुए पानी की गर्माहट को महसूस किया है। पूरे बदन के भीगने को भी। मैं पानी में गहरे अंदर जाती जा रही हूँ, बहुत अंदर, इतना कि अंदर अँधेरा है। बहुत देर तक पानी में अंदर जाने के बाद वो गहराई आयी है जहाँ पर ऊपर से नीचे कूदने का फ़ोर्स और पानी की बॉयन्सी बराबर हुयी है। फिर पानी का दबाव मुझे ऊपर की ओर फेंकता है। मैं पानी से बाहर आती हूँ। और जाने किससे तो कहती हूँ कि अच्छा हुआ मुझे मालूम था कि पानी में डूबते नहीं हैं। वरना इतना गहरा पानी है, मैं तो बहुत डर जाती।
फिर सपने में एक शहर है जो ना मेरा है ना उसका। मेरे पास कोई चिट्ठी आयी है। मैं उससे बहुत गहरा प्रेम करती हूँ। वो मेरे सामने बैठा है। मैं सपने में भी जानती हूँ कि ये सपना है। हम काफ़ी देर तक कुछ नहीं कहते। फिर मैं उनसे कहती हूँ, 'इस टेबल पर रखे आपके हाथ को मैं थाम सकती हूँ। क्या इजाज़त है?', सपने में उन साँवली उँगलियों की गर्माहट घुली हुयी है। मैं जानती हूँ कि ये सपना है। मैं जानती हूँ कि ये प्रेम भी है।
***
मालूम नहीं कहाँ पढ़ा था कि सपने ब्लैक एंड वाइट होते हैं। मेरे सपनों में हमेशा कई रंग रहते हैं। कई बार तो ख़ुशबुएँ भी। पिछले कई दिनों से मैंने ख़ुद को इस बात कर ऐतबार दिलाया है कि इश्क़ विश्क़ बुरी चीज़ है और हम इससे दूर ही भले। लेकिन मेरे सपनों में जिस तरह प्रेम उमड़ता है कि लगता है मैं डूब जाऊँगी। जैसे मैं कोई नदी हूँ और बाढ़ आयी है। मैंने अपनी जाग में इश्क़ के लिए दरवाज़े बंद कर दिए हैं तो वो सपनों में चला आता है।
मैं इन सपनों में भरी भरी सी महसूसती हूँ। कोई बाँध पर जैसे नदी महसूसती होगी, ख़तरे के निशान को चूमती हुयी। डैम पर बना तुम वो ख़तरे का निशान हो...और तुम्हें चूमना तो छोड़ो...तुम्हें छूने का ख़याल भी मेरे सपनों को ख़ुशबू से भर देता है। फिर कितने शहर नेस्तनाबूद होते हैं। फिर पूरी दुनिया में ज़मीन नहीं होती है पैर टिकाने को। मैं पानी में डूबती हुयी भी तुम्हारी आँखों का रंग याद रखती हूँ।
तुमसे इक उम्र दूर रहना...इक शहर...इक देश दूर रहना भी कहाँ मिटा पाता है इस अहसास को। प्रेम कोई कृत्रिम या अप्राकृतिक चीज़ होती तो सपने में इस तरह रह रह कर डूबती नहीं मैं। नदियों का क्या किया जा सकता है? मुझे नदियों को नष्ट करने का कोई तरीक़ा नहीं आता। इस नदी में तुम्हारे ख़याल से उत्ताल लहरें उठती हैं। कहाँ है वो गहरा कुआँ कि जिसमें समा जाती हैं नदियाँ?
जानां, अपनी बाँहें खोलो, समेट लो मुझे, मैं तुम में गुम हो जाऊँ।
Published on February 07, 2017 20:54
December 20, 2016
इश्क़ इक जिस्म की फ़रमाइश करता कि जिसे अंधेरे में चूमा जा सके...
उस लड़की को वक़्त बाँधने की तमीज़ नहीं थी। उसकी घड़ी की तारीखें एक दिन पीछे चलती थीं। उसकी घड़ी के मिनट बीस मिनट आगे चलते थे और सेकंड की सुई की रफ़्तार इस बात से तय होती थी कि लड़की किसका इंतज़ार कर रही है। उसकी ज़िंदगी में कुछ भी सही समय पर नहीं आता। ना इश्क़, ना महबूब।
एक वीरानी और एक सफ़र उसमें घर बनाता गया था। लड़की वक़्त से नहीं बंध सकती थी इसलिए सड़कों के नाम उसने अपनी उम्र क़ुबूल दी थी। थ्योरी औफ़ रिलेटिविटी की उसे इतनी ही समझ थी कि चलती हुयी चीज़ों में समय का हिसाब कुछ और होता है। कम, ज़्यादा या कि मापने की इकाइयाँ नहीं मालूम थीं उसे, बस इतना कि चलते हुए वक़्त को ठीक ठीक मालूम नहीं होता उसे किस रफ़्तार से बीतना होता है। वो चाहती कि धरती जिस रफ़्तार से सूरज के इर्द गिर्द घूमती है, वैसी ही तेज़ी से वो चला सके अपनी रॉयल एनफ़ील्ड। उसे अपनी रॉयल एनफ़ील्ड से प्यार था। उसकी धड़कन रॉयल एनफ़ील्ड की डुगडुग की लय में चलती थी जब वो सबसे ज़्यादा ख़ुश हुआ करती थी।
इश्क़ उसकी रफ़्तार छू नहीं पाता और महबूब हमेशा पीछे छूटती सड़क पर रह जाता। एनफ़ील्ड के छोटे छोटे गोल रीयर व्यू मिरर तेज़ रफ़्तार पर यूँ थरथराते कि कुछ भी साफ़ नहीं दिखता। इस धुँधलाहट में कभी कभी लड़की को ऐसा लगता जैसे पूरी दुनिया पीछे छूट रही है। महबूब तब तक सिर्फ़ एक बिंदु रह जाता बहुत दूर की सड़क पर। नीले आसमान और पहाड़ों वाले रास्ते के किसी मोड़ पर पीछे छूटा हुआ। लड़की हमेशा चाहती कि कभी इश्क़ कोई शॉर्टकट मार ले और किसी शहर में उसके इंतज़ार में हो। शहर पहुँचते ही बारिश शुरू हो जाए और लड़की गर्म कॉफ़ी और बारिश की घुलीमिली गंध से खिंचती जाए एक रोशन कैफ़े की ओर…
कैफ़े। जिसमें कोई ना हो। बारिशों वाली शाम लोग अपने घर पहुँच जाएँ बारिश के पहले। मुसाफ़िरों और सिरफिरों के सिवा। सिरफिरा। फ़ितरतन सिरफिरा। कि जो नाम पूछने के पहले चूम ले। लड़की के दहकते गालों से भाप हो कर उड़ जाए सारी बारिश। वक़्त को होश आए कि इस समय मिलायी जा सकती है घड़ियाँ ठीक ठीक। वक़्त चाहे मिटा देना पिछले सारे गुनाहों के निशान कुछ इस क़दर कि शहर की बिजली गुल हो जाए। अंधेरे में लड़का तलाश ले लड़की के बालों में फँसा हुआ क्लचर…उसकी मज़बूत हथेली में टूट कर चुभ जाए क्लचर का पिन। लड़की के बाल खुल कर झूल जाएँ उसकी कमर के इर्द गिर्द। उसके बालों से पागलपन की गंध उठे। बेतहाशा चूमने के लिए बनी होती हैं ठहरी हुयी, बंद पड़ी घड़ियाँ। वक़्त नापने की इकाई को नहीं मालूम कि चूमने को कितना वक़्त चाहिए होता है पूरा पूरा।
अंधेरे को मालूम हो लड़के की शर्ट के बटनों की जगह। लड़की की उंगलियों को थाम कर सिखाए कि कैसे तोड़े जाते हैं बटन। लड़की लड़के का नाम तलाशे सीने के गुमसे हुए बालों में…के वहीं उलझी हो सफ़र की गंध और सड़क का कोलतार…कि उसके सीने पर सिर रख के महसूस हो कि दुनिया की सारी सड़कें यहीं ख़त्म होती हैं। अंधेरे में ख़ून का रंग भीगा हुआ हो। लड़के के बारीक कटे होठों से बहता। रूह को चक्खा नहीं जा सकता, इश्क़ इक जिस्म की फ़रमाइश करता कि जिसे अंधेरे में चूमा जा सके। इश्क़ हमेशा उसकी आँखों या उसकी आवाज़ से ना हो कर उसके स्वाद से होता। लड़की के दाँतों के बारीक काटे निशानों में पढ़े जा सकते प्रेम पत्र और दुनिया भर की सबसे ख़ूबसूरत कविताएँ भी। कोरे बदन पर लिखा जाता इश्क़ के विषय पर दुनिया का महानतम ग्रंथ।
कैफ़े की शीशे की दीवारों के बाहर दुनिया चमकती। बहुत प्रकाश वर्ष पहले सुपर नोवा बन कर गुम हो जाने वाले तारे लड़की को देख कर हँसते। उसकी आँखों में बह आते आकाश गंगा के सारे तारे। अंधेरे में स्याही का कोई वजूद नहीं होता इसलिए लड़का लिखता लड़की की हथेली पर अपना नाम कि जो क़िस्मत की रेखा में उलझ जाता। लड़की मुट्ठी बंद कर के चूम लेती उसका नाम और फूँक मार कर उड़ा देती आसमान में। ध्रुव तारे के नीचे चमकता उसका नाम। वक़्त को होश आता तो शहर के घड़ी घर में घंटे की आवाज़ सुनाई देती। रात के तीन बज रहे होते। सुबह को आने से रोकना वक़्त के हाथ में नहीं था और इस नशे में लड़के ने लड़की की कलाई से उसकी ठहरी हुयी घड़ी खोल फेंकी थी। अँधेरा सिर्फ़ बदन तक पहुँचाता, खुले हुए कपड़ों तक नहीं। यूँ भी गीले कपड़ों को दुबारा पहनने से ठंढ लग जाती। बारिश बंद हो गयी थी लेकिन इस बुझ चुके शहर में बिजली आने में वक़्त लगता।
कैफ़े पहाड़ की तीखी ढलान पर बना हुआ था। वहाँ के पत्थरों पर दिन भर बच्चे फिसला करते थे। लड़का और लड़की उन्हीं पत्थरों के ओर बढ़े। लड़के ने इन पत्थरों को कई सालों से जाना था। उसे मालूम था इनसे फिसल कर गिरना सिर्फ़ प्रेम में नहीं होता, इनसे फिसल कर मौत तक भी जाया जा सकता था। ये पहली बार था कि उसने अंधेरों को यूँ गहरे उतर कर जिया था। लड़के को हमेशा लगता है कुछ चीज़ें नीट अच्छी होती हैं, उनमें मिलावट नहीं करनी चाहिए। यहाँ अँधेरा पूर्ण था मगर अब उसे रोशनी का एक टुकड़ा चाहिए था। प्रेम चाहिए था। क़तरा भर ही सही, लेकिन इश्क़ चाहिए था। धूप के सुनहले स्वाद को चखते हुए उसे लड़की की आँखों का मीठा शहद चाहिए था।
लड़की ने बचपन में पढ़ा था कि दुनिया की सारी सड़कों को एक साथ जोड़ दिया जाए तो वे चाँद तक पहुँच जाएँगी। वो अपनी उँगलियों पर अपनी नापी गयी सड़कें जोड़ रहीं थीं लेकिन हिसाब इतना कच्चा था कि अंधेरे में एक हाथ की दूरी पर उनींदे सोए लड़के तक भी नहीं पहुँच पा रहा था। उसे पूरा यक़ीन था कि लड़का हिसाब का इतना पक्का होगा कि भोर के पहले दुनिया की सड़कें जोड़ कर चाँद तक पहुँच जाएगा और वो उसे फिर कभी नहीं देख पाएगी। चाँद रात में भी नहीं। लड़की को हमेशा लगा था इश्क़ कोई रूह से बाँध कर रख लेने वाली चीज़ है। एक छोटी सी गाँठ की तरह। मगर आज उसे पहली बार महसूस हुआ था कि इश्क़ बदन के अंदर किसी को सहेज कर रख लेने की चीज़ है। उसके एक टुकड़े को ख़ुद में एक एक कोशिका जोड़ जोड़ कर फिर से नया कर देने का सच्चा सा अरमान है। माँ बनने की ख़्वाहिश है। शहरों की ख़ाक छानते हुए उसने शब्दों, कविताओं और कहानियों का इश्क़ जिया था मगर पहली बार उसने इश्क को बदन के अंदर खुलता महसूस किया था। किसी की साँसों और धड़कनों की भूली हुयी गिनती में उलझता महसूस किया था। इश्क़ की इस परिभाषा को लिखने को उसने थोड़ी सी रोशनी माँगी थी। कुछ नौ महीने माँगे थे।
लड़की ने जी भर कर ख़ुद को जिया था। सड़कों। शहरों। अंधेरों में डूब कर। ये इक आख़िरी रात के कुछ आख़िरी पहर थे। कल की सुबह में धूप थी। इंतज़ार था। ये उस लड़की की आख़िरी रात थी। अगली सुबह उसने घड़ी का समय ठीक किया। तारीख़ मिलायी और उस आदमी को नज़र भर देखा जो उसे ठहरी हुयी निगाह से देख रहा था। कि जैसे दोनों जानते थे यहाँ से कहीं और भटकना नहीं है।
रोशनी में गर्माहट थी। औरत को मालूम था, वो उम्मीद से थी।
Published on December 20, 2016 08:18
December 18, 2016
जो लिखनी थीं चिट्ठियाँ
मैं तुम्हारे टुकड़ों से प्यार करती हूँ। पूरा पूरा प्यार।
तुम्हारी कुछ ख़ास तस्वीरों से। तुम में कमाल की अदा है। तुम्हारे चलने, बोलने, हँसने में...तुम्हारे ज़िंदगी को बरतने में। तुम जिस तरह से सिर्फ़ कहीं से गुज़र नहीं जाते बल्कि ठहरते हो...तुम्हारे उस ठहराव से। इक तस्वीर में तुमने काला कुर्ता पहन रखा है। सर्दियों के दिन हैं, तुम्हारे गले में एक गहरा लाल पश्मीने का मफ़लर पड़ा हुआ है। ऐसी बेफ़िक्री से कि उसमें लय है। तुम थोड़ा झुक कर खड़े हो, तुम्हारे हाथ में कविता की एक किताब है। पढ़ते हुए अचानक जैसे तुमने खिड़की से बाहर देखा हो। मेट्रो अपनी रफ़्तार से भाग रही है लेकिन मैंने कैमरे में तुम्हारे चेहरे का वो ठहरा लम्हा पकड़ लिया है। तुम प्रेम में हो। मेट्रो की खिड़की के काँच पर तुम्हारा अक्स रिफ़्लेक्ट हो रहा है...तुम अपने चेहरे को आश्चर्य से देख रहे हो कि जैसे तुम्हें अभी अभी पता चला है कि तुम प्रेम में हो। तुम थोड़ा सा लजाते हो कि जैसे कोई तुम्हारे चेहरे पर उसका नाम पढ़ लेगा। ये तुम्हारे साथ कई बार हो चुका है। मगर तुम्हें यक़ीन नहीं होता कि फिर होगा। उतनी ही ताज़गी के साथ। दिल वैसे ही धड़केगा जैसे पहली बार धड़का था। तुम ख़ुद को फिर समझा नहीं पाओगे। ये सब कुछ एक तस्वीर में होगा। उस तस्वीर से मुझे बेतरह प्यार होगा। बेतरह।
तुम्हारी लिखी एक कहानी है। किताब में मैंने गहरे लाल स्याही से underline कर रखा है। उस पंक्ति पर कई बार आते हुए सोचती हूँ उस औरत के बारे में जिसके लिए तुमने वो पंक्ति लिखी होगी। मैं लिखना चाहती हूँ वैसा कुछ तुम्हारे लिए। जिसे पढ़ कर कोई तुम्हें जानने को छटपटा जाए। कोई पूछे कि मैंने वाक़ई कभी तुम्हारे साथ ऐबसिन्थ पी भी है या यूँ ही लिख दिया है। काँच के ग्लास में ऐबसिन्थ का हरा रंग है। सामने कैंडिल जल रही है। मैंने तुम्हारी किताब से प्यार करती हूँ। बहुत सा। कुछ लाल पंक्तियों के सिवा भी। कि उन पंक्तियों का स्वतंत्र वजूद नहीं है। वे तुम्हारी किताब में ही हो सकती थीं। तुम्हारे हाथ से ही लिखा सकती थीं। वे पंक्तियाँ शायद कालजयी पंक्तियाँ हैं। 'I love you' की तरह। सालों साल प्रेमी जोड़े एक दूसरे से कुछ शब्दों के हेरफेर में ऐसा ही कुछ कहते आ रहे हैं। किसी और ने कही होती ऐसी पंक्तियाँ तो मुझ पर कोई असर ना होता। लेकिन तुम्हारे शब्द हैं इसलिए इतना असर करते हैं।
तुम्हारे पर्फ़्यूम से। मैंने एक बार यूँ ही पूछा था तुमसे। तुम कौन सा पर्फ़्यूम लगाते हो। मैं उस रोज़ मॉल में गयी थी और एक टेस्टिंग पेपर पर मैंने पर्फ़्यूम छिड़क कर देखा था। कलाई पर रगड़ कर भी। उसके कई दिनों बाद तक वो काग़ज़ का टुकड़ा मेरे रूमाल के बीच रखा हुआ करता था। तुमसे गले लगने के बाद मुझे ऐसा लगता है तुम्हारी भीनी सी ख़ुशबू मेरे इर्द गिर्द रह गयी है। मुझे उन दिनों ख़ुद से भी थोड़ा ज़्यादा सा प्यार होता है। तुम्हें मालूम है, मैं तुमसे कस के गले नहीं लगती। लगता है, थोड़ी सी रह जाऊँगी तुम्हारे पास ही। लौट नहीं पाऊँगी वहाँ से।
मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारे अधूरेपन से प्यार है।
ये मुझे विश्वास दिलाता है कि कहीं मेरी थोड़ी सी जगह है तुम्हारी ज़िंदगी में। उस आख़िरी पज़ल के टुकड़े की तरह नहीं बल्कि यूँ ही बेतरतीब खोए हुए किसी टुकड़े की तरह। किसी भी नोर्मल टुकड़े की तरह। जो कहीं भी फ़िक्स हो सकता है। किसी कोरे एकरंग जगह पर। चुपचाप।
तुम्हारी कुछ ख़ास तस्वीरों से। तुम में कमाल की अदा है। तुम्हारे चलने, बोलने, हँसने में...तुम्हारे ज़िंदगी को बरतने में। तुम जिस तरह से सिर्फ़ कहीं से गुज़र नहीं जाते बल्कि ठहरते हो...तुम्हारे उस ठहराव से। इक तस्वीर में तुमने काला कुर्ता पहन रखा है। सर्दियों के दिन हैं, तुम्हारे गले में एक गहरा लाल पश्मीने का मफ़लर पड़ा हुआ है। ऐसी बेफ़िक्री से कि उसमें लय है। तुम थोड़ा झुक कर खड़े हो, तुम्हारे हाथ में कविता की एक किताब है। पढ़ते हुए अचानक जैसे तुमने खिड़की से बाहर देखा हो। मेट्रो अपनी रफ़्तार से भाग रही है लेकिन मैंने कैमरे में तुम्हारे चेहरे का वो ठहरा लम्हा पकड़ लिया है। तुम प्रेम में हो। मेट्रो की खिड़की के काँच पर तुम्हारा अक्स रिफ़्लेक्ट हो रहा है...तुम अपने चेहरे को आश्चर्य से देख रहे हो कि जैसे तुम्हें अभी अभी पता चला है कि तुम प्रेम में हो। तुम थोड़ा सा लजाते हो कि जैसे कोई तुम्हारे चेहरे पर उसका नाम पढ़ लेगा। ये तुम्हारे साथ कई बार हो चुका है। मगर तुम्हें यक़ीन नहीं होता कि फिर होगा। उतनी ही ताज़गी के साथ। दिल वैसे ही धड़केगा जैसे पहली बार धड़का था। तुम ख़ुद को फिर समझा नहीं पाओगे। ये सब कुछ एक तस्वीर में होगा। उस तस्वीर से मुझे बेतरह प्यार होगा। बेतरह।
तुम्हारी लिखी एक कहानी है। किताब में मैंने गहरे लाल स्याही से underline कर रखा है। उस पंक्ति पर कई बार आते हुए सोचती हूँ उस औरत के बारे में जिसके लिए तुमने वो पंक्ति लिखी होगी। मैं लिखना चाहती हूँ वैसा कुछ तुम्हारे लिए। जिसे पढ़ कर कोई तुम्हें जानने को छटपटा जाए। कोई पूछे कि मैंने वाक़ई कभी तुम्हारे साथ ऐबसिन्थ पी भी है या यूँ ही लिख दिया है। काँच के ग्लास में ऐबसिन्थ का हरा रंग है। सामने कैंडिल जल रही है। मैंने तुम्हारी किताब से प्यार करती हूँ। बहुत सा। कुछ लाल पंक्तियों के सिवा भी। कि उन पंक्तियों का स्वतंत्र वजूद नहीं है। वे तुम्हारी किताब में ही हो सकती थीं। तुम्हारे हाथ से ही लिखा सकती थीं। वे पंक्तियाँ शायद कालजयी पंक्तियाँ हैं। 'I love you' की तरह। सालों साल प्रेमी जोड़े एक दूसरे से कुछ शब्दों के हेरफेर में ऐसा ही कुछ कहते आ रहे हैं। किसी और ने कही होती ऐसी पंक्तियाँ तो मुझ पर कोई असर ना होता। लेकिन तुम्हारे शब्द हैं इसलिए इतना असर करते हैं।
तुम्हारे पर्फ़्यूम से। मैंने एक बार यूँ ही पूछा था तुमसे। तुम कौन सा पर्फ़्यूम लगाते हो। मैं उस रोज़ मॉल में गयी थी और एक टेस्टिंग पेपर पर मैंने पर्फ़्यूम छिड़क कर देखा था। कलाई पर रगड़ कर भी। उसके कई दिनों बाद तक वो काग़ज़ का टुकड़ा मेरे रूमाल के बीच रखा हुआ करता था। तुमसे गले लगने के बाद मुझे ऐसा लगता है तुम्हारी भीनी सी ख़ुशबू मेरे इर्द गिर्द रह गयी है। मुझे उन दिनों ख़ुद से भी थोड़ा ज़्यादा सा प्यार होता है। तुम्हें मालूम है, मैं तुमसे कस के गले नहीं लगती। लगता है, थोड़ी सी रह जाऊँगी तुम्हारे पास ही। लौट नहीं पाऊँगी वहाँ से।
मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारे अधूरेपन से प्यार है।
ये मुझे विश्वास दिलाता है कि कहीं मेरी थोड़ी सी जगह है तुम्हारी ज़िंदगी में। उस आख़िरी पज़ल के टुकड़े की तरह नहीं बल्कि यूँ ही बेतरतीब खोए हुए किसी टुकड़े की तरह। किसी भी नोर्मल टुकड़े की तरह। जो कहीं भी फ़िक्स हो सकता है। किसी कोरे एकरंग जगह पर। चुपचाप।
Published on December 18, 2016 11:28
November 21, 2016
मेरी रॉयल एनफ़ील्ड - आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे
मुझे बाइक्स का शौक़ तो बचपन से ही रहा लेकिन रॉयल एनफ़ील्ड का शौक़ कब से आया ये ठीक ठीक याद नहीं है। जैसा कि किसी के भी साथ हो सकता है, राजदूत चलाने के बाद पहली बार जब हीरो होंडा स्पलेंडर चलायी थी तो लगा था इससे अच्छी कोई बाइक हो ही नहीं सकती है। ऐकसिलेरेटर लेते साथ जो बाइक उड़ती थी कि बस! १२वीं तक मुझे हीरो होंडा सीबीजी बहुत अच्छी लगती थी। जान पहचान में उस समय हम सारे बच्चे अपने अपने पापा की गाड़ियों पर हाथ साफ़ कर रहे थे। कुछ के पास स्कूटर हुआ करता था तो कुछ के पास हीरो होंडा स्पलेंडर। जान पहचान में किसी के पास बुलेट हो, ऐसा था ही नहीं। उन दिनों पटना या देवघर में बुलेट बहुत कम चलती भी थी। आर्मी वालों के पास भले कभी कभार दिख जाती थी। हमें समझ नहीं आता कि किस पर मर मिटें। वर्दी पर। वर्दी वाले पर। या कि उसकी बुलेट पर। ख़ैर!
२००४ में कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में इंटर्नशिप करने दिल्ली आयी। मेरे बॉस, अनुपम के पास उन दिनों अवेंजर हुआ करती थी। जाड़े का मौसम था। वो काली लेदर जैकेट पहने गली के मोड़ से जब एंट्री मारा करता था तो मैं अक्सर बालकनी में कॉफ़ी पी रही होती थी। क्रूज बाइक जैसा कुछ होता है, पहली बार पता चला था। मैं घर से ऑफ़िस बस से आती जाती थी। टीम में साथ में मार्केटिंग में एक लड़का था, नितिन, उसके पास बुलेट थी। मेरी जान पहचान में पहली बार कोई था जिसके पास अपनी बुलेट थी। नितिन ने एक दिन कहा कि वो घर छोड़ देगा मुझे। हमारे घर सरोजिनी नगर में सिर्फ़ एक ब्लॉक छोड़ के हुआ करते थे। पहली बार बुलेट पे बैठी तो शायद वहीं प्यार हो गया था। बुलेट से। इस बात का बहुत अफ़सोस हुआ था कि हाइट इतनी कम है मेरी कि चलाने का सोच भी नहीं सकती।
IIMC के ग्रुप में भी कहीं कोई बुलेट वुलेट नहीं चलाता था। लेकिन उन दिनों ब्रैंड्ज़ के बारे में बहुत पढ़ चुके थे। कुछ चीज़ों की ब्रांडिंग ख़ास तौर से ध्यान रही। पर्फ़्यूम्ज़ की। दारू की। और मोटरसाइकल्ज़ की। हार्ले डेविडसन और एनफ़ील्ड ख़ास तौर से ध्यान में आयीं। इनके बारे में ख़ूब पढ़ा। इनके पुराने एड्ज़ देखे। पर अब बुलेट चलाने जैसा सपना देखना बंद कर दिया था। हमने जब नौकरी पकड़ी तो दोस्तों में सबसे पहले V ने एनफ़ील्ड ख़रीदी। उन दिनों थंडरबर्ड का ज़ोर शोर से प्रचार हो रहा था। उसकी लाल रंग की एनफ़ील्ड और उसके घुमक्कड़ी के किससे साथ में सुनने मिलते थे।
इन दिनों ऑफ़िस के आगे का हाल
शादी के बाद बैंगलोर आ गयी। कुणाल या उसके दोस्तों की सर्किल में कोई भी बाइकर टाइप नहीं था। कुछ साल बाद कुणाल की टीम में आया साक़िब खान। एनफ़ील्ड के बारे में क्रेज़ी। उन दिनों बैंगलोर में एनफ़ील्ड पर छः महीने की वेटिंग थी। साक़िब ने एनफ़ील्ड बुक क्या की, जैसे अपने ही घर आ रही हो बाइक। साक़िब को हम दोनों बहुत मानते भी थे। घर में किसी फ़ैमिली मेंबर की तरह रहा था हमारे साथ। साक़िब की थंडरबर्ड की डिलिवरी लेने वो, कुंदन और मैं गए थे। कुणाल ने अपनी कम्पनी शुरू की तो टीम में साथ में रमन आया। पिछले साल रमन ने भी डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदी। टीम में योगी के पास भी पहले से एनफ़ील्ड थी। ऑफ़िस में सब लोग बाइक बाइक की गप्पें मारते थे अब। कुणाल भी कभी कभार चला लेता था। इन्हीं दिनों उसके दोस्त से बात हुयी जो बाइक्स मॉडिफ़ाई करता है और कुणाल ने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू ख़रीद दी।
मेरी हाइट पाँच फ़ीट २ इंच है और एनफ़ील्ड की सीट हाइट ८०० सेंटिमेटर है। बाइक ख़रीदने के पहले कुणाल से उससे डिटेल में बात की कि कितना ख़र्चा आता है, क्या प्रॉसेस है वग़ैरह। तो बात ये हुयी थी कि एनफ़ील्ड के क्लासिक मॉडल में सीट के नीचे स्प्रिंग लगी होती हैं। स्प्रिंग निकाल के फ़ोम सीट लगा दी जाएगी तो हाइट कम हो जाएगी। ख़र्चा क़रीबन ३ हज़ार के आसपास आएगा। हम आराम से बाइक ख़रीद के ले आए। बाइक पर बैठने के बाद मुश्किल से मेरे पैर का अँगूठा ज़मीन को छू भर पाता था, बस। वो भी तब जब कि स्पोर्ट्स शूज पहने हों जिसमें हील ज़्यादा है। बिना जूतों के तो पैर हवा में ही रह रहे थे। निशान्त ने कहा, अब तो सच में गाना गा सकती हो, 'आजकल पाँव ज़मीं पर, नहीं पड़ते मेरे'।
एनफ़ील्ड आयी लेकिन जब तक कोई पीछे ना बैठा हो, हम चला नहीं सकते थे, और ज़ाहिर तौर से, कोई मेरे पीछे बैठने को तैयार ना हो। कुणाल बैठे तो उसको इतना डर लगे कि अपने हिसाब से बाइक बैलेंस करना चाहे। इस चक्कर में बाइक को आए दस दिन हो गए। १८ तारीख़ को राखी थी। हमारे यहाँ राखी के बाद भादो का महीना शुरू हो जाता है जिसमें कुछ भी शुभ काम नहीं करते हैं। हमने बाइक की पूजा अभी तक नहीं करायी थी कि आकाश को छुट्टी नहीं मिल रही थी बाइक घर पहुँचाने की। ये वो महीना था जिसमें पूरे वक़्त सारी छुट्टियाँ कैंसिल थीं। सब लोग वीकेंड्ज़ पर भी पूरा काम कर रहे थे। राखी के एक दिन पहले पापा से बात हो रही थी, पापा ख़ूब डाँटे। 'एनफ़ील्ड जैसा भारी गाड़ी ले लिए हैं, रोड पर चलाते है और ज़रा सा पूजा कराने का आप लोग को फ़ुर्सत नहीं, कल किसी भी हाल में पूजा कर लीजिए नै तो भादो घुस जाएगा, बस' (पापा ग़ुस्सा होते हैं तो 'आप' बोलके बात करते हैं)। अब राखी के दिन आकाश को आते आते दोपहर बारह बज गया और मंदिर बंद। ख़ैर, दोनों भाई राखी बाँध के ऑफ़िस निकला, आकाश बोल के गया कि शाम को आ के पूजा करवा देगा। शाम का ५ बजा, ६ बजा, ७ बजा। मेरा हालत ख़राब। फ़ोन किए तो बोला अटक गया है, आ नहीं सकेगा। अब कमबख़्त एनफ़ील्ड ऐसी चीज़ है कि बहुत लोग चलाने में डरते हैं। मैंने अपने आसपास थोड़ी कोशिश की, कि चलाना तो छोड़ो, कोई पीछे बैठने को भी तैयार हो जाए तो मंदिर तो बस घर से ५०० मीटर है, आराम से ले जाएँगे। कोई भी नहीं मिला। साढ़े सात बजे हम ख़ुद से एनफ़ील्ड स्टार्ट किए और मुहल्ले में चक्कर लगा के आए। ठीक ठाक चल गयी थी लेकिन डर बहुत लग रहा था। कहीं भी रोकने पर मैं गाड़ी को एकदम बैलेंस नहीं कर सकती थी।
तब तक बाइक का रेजिस्ट्रेशन नम्बर आ गया था। मैं थिपसंद्रा निकली कि स्टिकर बनवा लेंगे। साथ में मंदिर में पूछती आयी कि मंदिर कब तक खुला है। पुजारी बोला, साढ़े नौ तक। हम राहत का साँस लिए कि ट्रैफ़िक थोड़ा कम हो जाएगा। नम्बर प्लेट पर नम्बर चिपकाए। स्कूटी से निकले कि रास्ता देख लें, इस नज़रिए से कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ स्पीड ब्रेकर है। इस हिसाब से कौन से रास्ते से जाना सबसे सही होगा। एनफ़ील्ड निकालते हुए क़सम से बहुत डर लग रहा था। एक तो कहीं भी बंद हो जाती थी गाड़ी। क्लच छोड़ने में देर हो जाए और बस। फिर घबराहट के मारे जल्दी स्टार्ट भी ना हो। ख़ैर। किसी तरह भगवान भगवान करते मंदिर पहुँचे तो देखते हैं कि मंदिर का गेट बंद है और बस एक पुजारी गेट से लटका हुआ बाहर झाँक रहा है। हम गए पूछने की भाई मंदिर तो साढ़े नौ बजे बंद होना था, ये क्या है। पुजारी बोला मंदिर बंद हो गया है। हमारा डर के मारे हालत ख़राब। उसको हिंदी में समझा रहे हैं। देखो, भैय्या, कल से हमारा दिन अशुभ शुरू हो जाएगा। आज पूजा होना ज़रूरी है। आप कुछ भी कर दो। एक फूल रख दो, एक अगरबत्ती दिखा दो। कुछ भी। बस। वो ना ना किए जा रहा था लेकिन फिर शायद मेरा दुःख देख कर उसका कलेजा पसीजा, तो पूछा, कौन सा गाड़ी है। मैं उसके सामने से हटी, ताकि वो देख सके, मेरी रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू। उसके चेहरे पर एक्सप्रेसन कमाल से देखने लायक था। 'ये तुम चला के लाया?!?!?!' हम बोले, हाँ। अब तो पुजारी ऐसा टेन्शन में आया कि बोला, इसका तो पूरा ठीक से पूजा करना होगा। फिर वो मंदिर में अंदर गया, पूरा पूजा का सामग्री वग़ैरह लेकर आया और ख़ूब अच्छा से पूजा किया। आख़िर में बोला संकल्प करने को जूते उतारो। हम जूता, मोज़ा उतार के संकल्प किए। फिर वो बाइक के दोनों पहियों के नीचे निम्बू रखा और बोला, अब बाइक स्टार्ट करो और थोड़ा सा आगे करो। हम भारी टेन्शन में। पुजारी जी, बिना जूता के स्टार्ट नहीं कर सकते। पैर नहीं पहुँचता। वो अपनी ही धुन में कुछ सुना नहीं। स्टार्ट करो स्टार्ट करो बोलता गया। हम सोचे, हनुमान मंदिर के सामने हैं। पूजा कराने आए हैं। आज यहाँ बाइक हमसे स्टार्ट नहीं हुआ और गिर गया तो आगे तो क्या ही चलाएँगे। उस वक़्त वहाँ आसपास जितने लोग थे, फूल वाली औरतें, पान की दुकान पर खड़े लड़के, जूस की दुकान और सड़क पर चलते लोग। सबका ध्यान बस हमारी ही तरफ़ था। कि लड़की अब गिरी ना तब गिरी। हम लेकिन हम थे। बाइक स्टार्ट किए। एक नम्बर गियर में डाले, आगे बढ़ाए और निम्बू का कचूमर निकाल दिए। वालेट में झाँके तो बस ५०० के नोट थे जो भाई से भोर में ही रक्षाबंधन पर मिले थे। तो बस, ५०० रुपए का दक्षिणा पा के पुजारी एकदम ख़ुश। ठीक से जाना अम्माँ(यहाँ साउथ इंडिया में सारी औरतों को लोग अम्माँ ही बोलते हैं, उम्र कोई भी हो)। घर किधर है तुम्हारा।
हम कभी कभी ऐसे कारनामे कर गुज़रते हैं जिससे हम में इस चीज़ का हौसला आता है कि हम कुछ भी कर सकते हैं। एक कोई लगभग पाँच फ़ुट की लड़की २०० किलो, ५०० सीसी के इस बाइक को इस मुहब्बत से चलाती है कि सारी चीज़ें ही आसान लगती हैं। घर आते हुए मैं गुनगुना रही थी, 'आजकल पाँव ज़मीं पर, नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है कभी तुमने मुझे, उड़ते हुए, बोलो?'
२००४ में कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में इंटर्नशिप करने दिल्ली आयी। मेरे बॉस, अनुपम के पास उन दिनों अवेंजर हुआ करती थी। जाड़े का मौसम था। वो काली लेदर जैकेट पहने गली के मोड़ से जब एंट्री मारा करता था तो मैं अक्सर बालकनी में कॉफ़ी पी रही होती थी। क्रूज बाइक जैसा कुछ होता है, पहली बार पता चला था। मैं घर से ऑफ़िस बस से आती जाती थी। टीम में साथ में मार्केटिंग में एक लड़का था, नितिन, उसके पास बुलेट थी। मेरी जान पहचान में पहली बार कोई था जिसके पास अपनी बुलेट थी। नितिन ने एक दिन कहा कि वो घर छोड़ देगा मुझे। हमारे घर सरोजिनी नगर में सिर्फ़ एक ब्लॉक छोड़ के हुआ करते थे। पहली बार बुलेट पे बैठी तो शायद वहीं प्यार हो गया था। बुलेट से। इस बात का बहुत अफ़सोस हुआ था कि हाइट इतनी कम है मेरी कि चलाने का सोच भी नहीं सकती।
IIMC के ग्रुप में भी कहीं कोई बुलेट वुलेट नहीं चलाता था। लेकिन उन दिनों ब्रैंड्ज़ के बारे में बहुत पढ़ चुके थे। कुछ चीज़ों की ब्रांडिंग ख़ास तौर से ध्यान रही। पर्फ़्यूम्ज़ की। दारू की। और मोटरसाइकल्ज़ की। हार्ले डेविडसन और एनफ़ील्ड ख़ास तौर से ध्यान में आयीं। इनके बारे में ख़ूब पढ़ा। इनके पुराने एड्ज़ देखे। पर अब बुलेट चलाने जैसा सपना देखना बंद कर दिया था। हमने जब नौकरी पकड़ी तो दोस्तों में सबसे पहले V ने एनफ़ील्ड ख़रीदी। उन दिनों थंडरबर्ड का ज़ोर शोर से प्रचार हो रहा था। उसकी लाल रंग की एनफ़ील्ड और उसके घुमक्कड़ी के किससे साथ में सुनने मिलते थे।
इन दिनों ऑफ़िस के आगे का हाल शादी के बाद बैंगलोर आ गयी। कुणाल या उसके दोस्तों की सर्किल में कोई भी बाइकर टाइप नहीं था। कुछ साल बाद कुणाल की टीम में आया साक़िब खान। एनफ़ील्ड के बारे में क्रेज़ी। उन दिनों बैंगलोर में एनफ़ील्ड पर छः महीने की वेटिंग थी। साक़िब ने एनफ़ील्ड बुक क्या की, जैसे अपने ही घर आ रही हो बाइक। साक़िब को हम दोनों बहुत मानते भी थे। घर में किसी फ़ैमिली मेंबर की तरह रहा था हमारे साथ। साक़िब की थंडरबर्ड की डिलिवरी लेने वो, कुंदन और मैं गए थे। कुणाल ने अपनी कम्पनी शुरू की तो टीम में साथ में रमन आया। पिछले साल रमन ने भी डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदी। टीम में योगी के पास भी पहले से एनफ़ील्ड थी। ऑफ़िस में सब लोग बाइक बाइक की गप्पें मारते थे अब। कुणाल भी कभी कभार चला लेता था। इन्हीं दिनों उसके दोस्त से बात हुयी जो बाइक्स मॉडिफ़ाई करता है और कुणाल ने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू ख़रीद दी।
मेरी हाइट पाँच फ़ीट २ इंच है और एनफ़ील्ड की सीट हाइट ८०० सेंटिमेटर है। बाइक ख़रीदने के पहले कुणाल से उससे डिटेल में बात की कि कितना ख़र्चा आता है, क्या प्रॉसेस है वग़ैरह। तो बात ये हुयी थी कि एनफ़ील्ड के क्लासिक मॉडल में सीट के नीचे स्प्रिंग लगी होती हैं। स्प्रिंग निकाल के फ़ोम सीट लगा दी जाएगी तो हाइट कम हो जाएगी। ख़र्चा क़रीबन ३ हज़ार के आसपास आएगा। हम आराम से बाइक ख़रीद के ले आए। बाइक पर बैठने के बाद मुश्किल से मेरे पैर का अँगूठा ज़मीन को छू भर पाता था, बस। वो भी तब जब कि स्पोर्ट्स शूज पहने हों जिसमें हील ज़्यादा है। बिना जूतों के तो पैर हवा में ही रह रहे थे। निशान्त ने कहा, अब तो सच में गाना गा सकती हो, 'आजकल पाँव ज़मीं पर, नहीं पड़ते मेरे'।
एनफ़ील्ड आयी लेकिन जब तक कोई पीछे ना बैठा हो, हम चला नहीं सकते थे, और ज़ाहिर तौर से, कोई मेरे पीछे बैठने को तैयार ना हो। कुणाल बैठे तो उसको इतना डर लगे कि अपने हिसाब से बाइक बैलेंस करना चाहे। इस चक्कर में बाइक को आए दस दिन हो गए। १८ तारीख़ को राखी थी। हमारे यहाँ राखी के बाद भादो का महीना शुरू हो जाता है जिसमें कुछ भी शुभ काम नहीं करते हैं। हमने बाइक की पूजा अभी तक नहीं करायी थी कि आकाश को छुट्टी नहीं मिल रही थी बाइक घर पहुँचाने की। ये वो महीना था जिसमें पूरे वक़्त सारी छुट्टियाँ कैंसिल थीं। सब लोग वीकेंड्ज़ पर भी पूरा काम कर रहे थे। राखी के एक दिन पहले पापा से बात हो रही थी, पापा ख़ूब डाँटे। 'एनफ़ील्ड जैसा भारी गाड़ी ले लिए हैं, रोड पर चलाते है और ज़रा सा पूजा कराने का आप लोग को फ़ुर्सत नहीं, कल किसी भी हाल में पूजा कर लीजिए नै तो भादो घुस जाएगा, बस' (पापा ग़ुस्सा होते हैं तो 'आप' बोलके बात करते हैं)। अब राखी के दिन आकाश को आते आते दोपहर बारह बज गया और मंदिर बंद। ख़ैर, दोनों भाई राखी बाँध के ऑफ़िस निकला, आकाश बोल के गया कि शाम को आ के पूजा करवा देगा। शाम का ५ बजा, ६ बजा, ७ बजा। मेरा हालत ख़राब। फ़ोन किए तो बोला अटक गया है, आ नहीं सकेगा। अब कमबख़्त एनफ़ील्ड ऐसी चीज़ है कि बहुत लोग चलाने में डरते हैं। मैंने अपने आसपास थोड़ी कोशिश की, कि चलाना तो छोड़ो, कोई पीछे बैठने को भी तैयार हो जाए तो मंदिर तो बस घर से ५०० मीटर है, आराम से ले जाएँगे। कोई भी नहीं मिला। साढ़े सात बजे हम ख़ुद से एनफ़ील्ड स्टार्ट किए और मुहल्ले में चक्कर लगा के आए। ठीक ठाक चल गयी थी लेकिन डर बहुत लग रहा था। कहीं भी रोकने पर मैं गाड़ी को एकदम बैलेंस नहीं कर सकती थी।
तब तक बाइक का रेजिस्ट्रेशन नम्बर आ गया था। मैं थिपसंद्रा निकली कि स्टिकर बनवा लेंगे। साथ में मंदिर में पूछती आयी कि मंदिर कब तक खुला है। पुजारी बोला, साढ़े नौ तक। हम राहत का साँस लिए कि ट्रैफ़िक थोड़ा कम हो जाएगा। नम्बर प्लेट पर नम्बर चिपकाए। स्कूटी से निकले कि रास्ता देख लें, इस नज़रिए से कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ स्पीड ब्रेकर है। इस हिसाब से कौन से रास्ते से जाना सबसे सही होगा। एनफ़ील्ड निकालते हुए क़सम से बहुत डर लग रहा था। एक तो कहीं भी बंद हो जाती थी गाड़ी। क्लच छोड़ने में देर हो जाए और बस। फिर घबराहट के मारे जल्दी स्टार्ट भी ना हो। ख़ैर। किसी तरह भगवान भगवान करते मंदिर पहुँचे तो देखते हैं कि मंदिर का गेट बंद है और बस एक पुजारी गेट से लटका हुआ बाहर झाँक रहा है। हम गए पूछने की भाई मंदिर तो साढ़े नौ बजे बंद होना था, ये क्या है। पुजारी बोला मंदिर बंद हो गया है। हमारा डर के मारे हालत ख़राब। उसको हिंदी में समझा रहे हैं। देखो, भैय्या, कल से हमारा दिन अशुभ शुरू हो जाएगा। आज पूजा होना ज़रूरी है। आप कुछ भी कर दो। एक फूल रख दो, एक अगरबत्ती दिखा दो। कुछ भी। बस। वो ना ना किए जा रहा था लेकिन फिर शायद मेरा दुःख देख कर उसका कलेजा पसीजा, तो पूछा, कौन सा गाड़ी है। मैं उसके सामने से हटी, ताकि वो देख सके, मेरी रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू। उसके चेहरे पर एक्सप्रेसन कमाल से देखने लायक था। 'ये तुम चला के लाया?!?!?!' हम बोले, हाँ। अब तो पुजारी ऐसा टेन्शन में आया कि बोला, इसका तो पूरा ठीक से पूजा करना होगा। फिर वो मंदिर में अंदर गया, पूरा पूजा का सामग्री वग़ैरह लेकर आया और ख़ूब अच्छा से पूजा किया। आख़िर में बोला संकल्प करने को जूते उतारो। हम जूता, मोज़ा उतार के संकल्प किए। फिर वो बाइक के दोनों पहियों के नीचे निम्बू रखा और बोला, अब बाइक स्टार्ट करो और थोड़ा सा आगे करो। हम भारी टेन्शन में। पुजारी जी, बिना जूता के स्टार्ट नहीं कर सकते। पैर नहीं पहुँचता। वो अपनी ही धुन में कुछ सुना नहीं। स्टार्ट करो स्टार्ट करो बोलता गया। हम सोचे, हनुमान मंदिर के सामने हैं। पूजा कराने आए हैं। आज यहाँ बाइक हमसे स्टार्ट नहीं हुआ और गिर गया तो आगे तो क्या ही चलाएँगे। उस वक़्त वहाँ आसपास जितने लोग थे, फूल वाली औरतें, पान की दुकान पर खड़े लड़के, जूस की दुकान और सड़क पर चलते लोग। सबका ध्यान बस हमारी ही तरफ़ था। कि लड़की अब गिरी ना तब गिरी। हम लेकिन हम थे। बाइक स्टार्ट किए। एक नम्बर गियर में डाले, आगे बढ़ाए और निम्बू का कचूमर निकाल दिए। वालेट में झाँके तो बस ५०० के नोट थे जो भाई से भोर में ही रक्षाबंधन पर मिले थे। तो बस, ५०० रुपए का दक्षिणा पा के पुजारी एकदम ख़ुश। ठीक से जाना अम्माँ(यहाँ साउथ इंडिया में सारी औरतों को लोग अम्माँ ही बोलते हैं, उम्र कोई भी हो)। घर किधर है तुम्हारा।
हम कभी कभी ऐसे कारनामे कर गुज़रते हैं जिससे हम में इस चीज़ का हौसला आता है कि हम कुछ भी कर सकते हैं। एक कोई लगभग पाँच फ़ुट की लड़की २०० किलो, ५०० सीसी के इस बाइक को इस मुहब्बत से चलाती है कि सारी चीज़ें ही आसान लगती हैं। घर आते हुए मैं गुनगुना रही थी, 'आजकल पाँव ज़मीं पर, नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है कभी तुमने मुझे, उड़ते हुए, बोलो?'
Published on November 21, 2016 13:15
November 16, 2016
मेरी रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू
आज मैं अपनी दो मुहब्बतों के बारे में लिख रही हूँ। मेरी आदत है जिससे इश्क़ होता है उसके प्रति बहुत ज़्यादा पजेसिव हो जाती हूँ। कुछ इस क़दर कि कभी अपनी आँखों में भी इश्क़ लरजे तो पलकें बंद कर लेती हूँ कि ख़ुद की ही नज़र लग जाएगी। मेरी रॉयल एनफ़ील्ड स्क्वाड्रन ब्लू, और मेरा हमसफ़र।
बचपन से बॉलीवुड फ़िल्में देख कर लगता था कि बस प्यार एक ही बार होता है। उसमें भी दिल तो पागल है टाइप फ़िल्में देख कर तो सोलमेट वग़ैरह जैसे चीज़ें देखीं और लगा कि ऐसा कुछ होता होगा। लड़कपन की पहली आहट के साथ ज़िंदगी में प्यार भी दबे पाँव दाख़िल हुआ। मगर ये वो उम्र थी जहाँ प्यार आपसे ज़्यादा आपकी सहेलियों को पता होता है। उसकी हर बात पसंद होती है। उसके डिम्पल, उसकी हैंडराइटिंग, उसका डान्स, सब कुछ। उस उम्र ये भी लगता है कि उसे कभी भूल नहीं पायेंगे और कि प्यार दोबारा कभी नहीं होगा। मगर पहली बार दिल टूटता है तो लगता है कि इस प्यार से तो बिना प्यार के भले। मगर इसके बाद कई कई बार प्यार होता है और हर बार ये विश्वास ज़रा सा टूटता है कि उम्र भर का प्यार होता है।
इसी दिल टूटने, जुड़ने, टूटने के दर्मयान लड़कपन गुज़र जाता है, घर पीछे छूट जाता है और दिल्ली को आँखों में बसाए हुए IIMC आ जाती हूँ। नौकरी। आत्मनिर्भरता। और एक नया आत्मविश्वास आता है। पुराने स्कूल के दोस्तों से बात होनी शुरू होती है। इश्क़ की पेचीदगी थोड़ी बहुत समझ आती है। चीज़ें उतनी सिम्पल नहीं लगती हैं जितनी बचपन की गुलाबी दुनिया में दिखती थीं। ऑफ़िस। लेट नाइट। नए प्राजेक्ट्स। ख़ुद की पहचान तलाशने का दौर था वो। जब मुझे पहली बार मिला तो जो पहली चीज़ महसूस की थी वो थी आश्वस्ति। कि मैं उसपर भरोसा कर सकती हूँ। इसमें बचपन का रोल था कि हमारे स्कूल का हेड प्रीफ़ेक्ट था वो। उसके साथ होते हुए कभी किसी चीज़ से डर नहीं लगता था। उसके साथ ज़िंदगी एक थ्रिल लगती थी। उन्हीं दिनों पहली बार ये भी महसूस किया था कि वो मेरा हमेशा के लिए है। बिना कहे भी। हमारे बीच हर चीज़ से गहरी जो चीज़ थी वो थी दोस्ती।
शादी के ९ साल हो गए हैं अब साथ। हमारे बहुत झगड़े होते हैं। इतने कि लगता है कि आज तो बस जान दे ही दें। कूद वूद जाएँ छत पे चढ़ कर। लेकिन वो जानता है मुझे। वो जानता है मुझे हैंडिल करना। डेटिंग के शुरू में जो बातें हम करते थे, तुम मेरी पूरी दुनिया हो टाइप। वो अब भी सच हैं। मैं इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक उसको ही प्यार करती हूँ। एक सिर्फ़ उसको। किसी रोज़ कुछ अच्छा पहन लिया, चाहे एक झुमका ही क्यूँ ना हो, पहली तारीफ़ उससे ही चाहिए होती है। मेरे यायावर मन को उसके होने से ठहार मिलता है। घर मिलता है।
उसे मोटरसाइकिल का शौक़ कभी नहीं रहा। इन फ़ैक्ट उसके दोस्तों में भी किसी को नहीं। कॉलेज में फिर भी कभी चलाया होगा लेकिन नौकरी पकड़ते ही उसने कार ख़रीदी। अभी भी उसे नयी कार, उसके माडल्ज़, इंटिरीअर्ज़ वग़ैरह सब बहुत मालूम रहती हैं। उसके क़रीबी दोस्त कि जो सारे IIT बॉम्बे से ही हैं, उनमें भी किसी के पास बाइक नहीं है। सब कार वाले लोग हैं। हाँ, उसके ऑफ़िस में, उसकी पूरी टीम में सबके पास रॉयल एनफ़ील्ड है। सबके ही पास। पहले साक़िब ने थंडरबर्ड ख़रीदी तो उसने एक आधी बार चलायी। लेकिन ज़्यादा नहीं। लेकिन जब रमन ने डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदी तो उसको पहली बार थोड़ा रॉयल एनफ़ील्ड का शौक़ लगा। उन्ही दिनों कुणाल के एक दोस्त से बात होते हुए उसने कहा कि उसका एक दोस्त है जो रॉयल एनफ़ील्ड कस्टमाइज करता है। हमने बात की इस बारे में कि वो हाइट में कम लोगों के लिए बाइक छोटी कर देता है। हम दोनों बहुत दिन तक इसपर हँसते रहे कि बाइक का jpeg ड्रैग करके छोटा कर देता है। मगर बहुत दिन बाद आँखों में चमक आयी थी। कोई सोया सपना जागा था। कि शायद मैं सच में कभी ज़िंदगी में एनफ़ील्ड चला पाऊँगी। मगर ये सब मज़ाक़ लगता था।
मेरा बर्थ्डे पास आ रहा था और मैं हमेशा की तरह उसको चिढ़ा रही थी कि क्या दोगे हमको। ऐसी ही नोर्मल सी शाम हम वॉक पर निकले थे तो कुणाल हमको एनफ़ील्ड के शोरूम ले गया और बोला, आज तुमको एनफ़ील्ड बुक कर देते हैं। हमको यक़ीन नहीं हो रहा था। लगा मज़ाक़ कर रहा है। लेकिन वो बोला कि सीरियस है। उसने पूरा पूछ वूछ लिया है। मेरे हिसाब से ऐडजस्ट हो जाएगी। 'एक ही ज़िंदगी है है हमारे पास। एनफ़ील्ड चलाना तुम्हारा सपना था ना? मेरे रहते तुम्हारा कोई सपना अधूरा रह जाए, ये मैं होने दूँगा? बताओ?'। हम सोच के गए थे कि डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदेंगे लेकिन शोरूम गए तो क्लासिक ५०० का नया रंग देखा। स्क्वाड्रन ब्लू। हम दोनों उसपर फ़िदा हो गए। उसी को बुक कर दिया।
अब मैंने सोचा कि मोटरसाइकल और रॉयल एनफ़ील्ड में अंतर होता है। तो एक बार चलाना सीख लेते हैं। अपनी नयी बाइक पर हाथ साफ़ तो नहीं करूँगी। गूगल किया तो एक ग्रूप पाया, हॉप ऑन गर्ल्स का, यहाँ लड़कियाँ ही लड़कियों को बुलेट सिखाती थीं। ये बात थोड़ी आश्वस्त करने वाली थी। मेरी ट्रेनर बिंदु थी। कोई पाँच फ़ुट पाँच इंच की छोटी सी दुबली पतली सी लड़की। मगर उसे रॉयल एनफ़ील्ड चलाते हुए देख कर कॉन्फ़िडेन्स आया कि हो जाएगा। दो दिन की चार चार घंटे की ट्रेनिंग। पहले दिन जो लौटी तो क़सम से लगा हथेलियाँ टूट जाएँगी। इतना दर्द था। लेकिन ज़िद्दी तो ज़िद्दी हूँ मैं। गयी अगले दिन भी। खुली सड़क पर पहली बार जब एनफ़ील्ड को रेज किया और वो हवा से बातें करने लगी तो लगा कि नशा इसे कहते हैं।
अगस्त, फ़्रेंडशिप डे के अगले दिन बाइक की डिलेवरी थी। ऑफ़िस में इतना काम था कि कुणाल नहीं जा सका। उसके सिवा ऑफ़िस के अधिकतर लोग गए। मैं कार चलाते हुए सोच रही थी। मुहब्बत सिर्फ़ हमेशा साथ रहना ही नहीं होता है। जो दिन मेरे लिए बहुत ज़रूरी था, वहाँ कुणाल को ऑफ़िस में रहना था क्यूँकि एक ज़रूरी कॉल थी। उसका काम ज़रूरी है ताकि मैं अपने ऐसे शौक़ पूरे कर सकूँ। बाद में मैंने सोचा कि मैं अगले दिन तक इंतज़ार भी कर सकती थी। ये मेरी ग़लती थी। बाइक आने पर मैं इतनी ख़ुशी से पागल हो गयी थी कि इंतज़ार नहीं कर पायी। एक दिन रूकती तो हम दोनों साथ जा कर ले आते।
ख़ैर। एनफ़ील्ड आयी तो घर आयी ही नहीं। आकाश ने वहीं से टपा ली। मेरे पैर नहीं पहुँचते थे ज़मीन तक। उसपर आकाश मेरा लाड़ला देवर है। तो बोला कुछ दिन हम चला लेते हैं भाभी। तो रहने दिए। इधर कुणाल बोल दिया था लेकिन उसको डर लगता था कि हमसे वाक़ई चलेगी या नहीं। आकाश को तो और भी डर लगता था। पहली बार कुणाल जब बैठा बाइक पर पीछे तो महसूस हुआ कि बाइक थोड़ा सा दबी और मेरे पैर थोड़े से पहुँचे। मगर बहुत कम चलाने को मिला। फिर सच ये है कि एनफ़ील्ड का वज़न २०० किलो है। इस भार को सम्हालने के लिए थोड़ी आदत लगनी ज़रूरी है। यहाँ गाड़ी हमको मिले ही ना। दोनों भाई लोग लेके फ़रार। इन फ़ैक्ट इसका नीला रंग एकदम नया आया था तो ऑफ़िस में भी सबको बहुत पसंद थी। नतीजा ये कि दोपहर की वॉक पर सब लोग एनफ़ील्ड से निकलने लगे। कुणाल ने भी महसूस किया कि अपनी एनफ़ील्ड की बात और होती है। मैं देख रही थी कि उसको भी पहली बार ज़रा ज़रा मोटरसाइकल का चस्का लग रहा था। बेसिकली रॉयल एनफ़ील्ड और बाक़ी मोटरसैक़िलस में बहुत अंतर होता है। पहली तो चीज़ होती है इसकी आवाज़। इसका वायब्रेशन। फिर डिज़ाइन भी क्लासिक है। और अगर इतने में भी दिल ना फिसला, तो फिर है इसकी पावर। ५०० सीसी की बाइक है। एक बार रेज दो तो ऐसे उड़ती है कि बस।
एनफ़ील्ड का नाम रखना था अब। लड़के अपने एनफ़ील्ड का नाम अक्सर किसी लड़की के नाम पर रखते हैं। उसे अपनी गर्लफ़्रेंड या बीवी की तरह ट्रीट करते हैं। मगर यहाँ ये मेरी एनफ़ील्ड थी। तो इसका नाम कुछ ऐसा होना था कि जिससे मेरी धड़कनों को रफ़्तार मिले। फिर इन्हीं दिनों जब इतरां की कहानी लिखनी शुरू की थी तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन मेरे पास मेरी अपनी रॉयल एनफ़ील्ड होगी। इसका नीला रंग। तो बस। नाम एक ही होना था। रूद्र।
किसी भी तरह का टू वहीलर चलाना एक तरह का नशा होता है। चेहरे पर जब हवा लगती है तो वाक़ई ऐसा लगता है कि उड़ रहे हैं। बाइकिंग एक तरह की कंडिशनिंग होती है। मैंने अपने पापा से सीखी। बाइक के प्रति प्यार भी उनमें ही देखा। हमारी राजदूत मेरे जन्म के साल ख़रीदी थी पापा ने। हम ख़ुद को 'born biker' कहते हैं। मेरे परिवार में सबके पास टू वहीलर है। भाइयों के पास, कजिंस के पास। पापा, नानाजी, मामा, उधर चाचा के बच्चों के पास। मगर कुणाल के घर में सबको टू वहीलर से डर लगता है। घर में किसी भाई को परमिशन नहीं मिली। सबको ऐक्सिडेंट होने का डर भी लगता है। हालाँकि पहले घर में यामाहा rx १०० थी और सब लोग उसपर बहुत हाथ साफ़ किया है। आजकल भी एक मोटरसाइकल है। मगर वहाँ मोटरसाइकल को लेकर कोई जुनून नहीं है। फिर कुणाल के दोस्तों को भी शौक़ नहीं है। कुणाल के लिए मेरे बाइक चलाने से ज़्यादा डरावनी बात नहीं हो सकती। उसको हज़ार चीज़ों से डर लगता है। एनफ़ील्ड से गिरी तो कुछ ना कुछ टूटेगा ही। किसी को ठोक दिया तो उसको भी भारी नुक़सान होगा। उसपर मैं इत्ति सी जान और २०० किलो की मशीन। उसपे ५०० सीसी का इंजन। उसपर मेरा पागल दिमाग़ कि जो स्कूटी को ९० किमी प्रति घंटा पर उड़ाने को थ्रिल समझता था। ये सब जानते हुए। डरते हुए। फिर भी वो समझता है कि मेरे लिए एनफ़ील्ड क्यूँ ज़रूरी है। या मेरा सपना क्यूँ है। और इस सपने को उसने हक़ीक़त किया। मेरे लिए यही प्यार है। यही हमारी गहरी दोस्ती है। जहाँ आप दूसरे की कमज़ोरी नहीं, ताक़त बनते हैं।
उसने जब पहली बार मुझे एनफ़ील्ड पर देखा तब भी उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैं सच में चला लूँगी। उसे लगता था कि मैं ऐसे ही हवा में बात करती हूँ जब कहती हूँ की पापा ने मुझे राजदूत सिखायी थी। मगर धीरे धीरे मेरा भी कॉन्फ़िडेन्स बढ़ा और कुणाल का भी।
हर बार जब पार्किंग से निकालती हूँ तो एनफ़ील्ड में पेट्रोल दौड़ता है और मेरी रगों में इश्क़। हर बार मुझे लगता है कि सपने देखने चाहिए। हर बार थोड़ा सा और प्यार हो जाता है उस लड़के से जिसके साथ २४ की उम्र में फेरे लिए थे मैंने। सात जनम तक, ५०० सीसी तक और जाने कितने किलोमीटर तक। जब तक मेरा दिल धड़के इसमें बस एक उसी का नाम है।
उसके लिए लिखी मेरी सबसे पसंदीदा लाइन। 'Of all the things I am, my love, what I love most, I am yours'.
चश्मेबद्दूर।
बचपन से बॉलीवुड फ़िल्में देख कर लगता था कि बस प्यार एक ही बार होता है। उसमें भी दिल तो पागल है टाइप फ़िल्में देख कर तो सोलमेट वग़ैरह जैसे चीज़ें देखीं और लगा कि ऐसा कुछ होता होगा। लड़कपन की पहली आहट के साथ ज़िंदगी में प्यार भी दबे पाँव दाख़िल हुआ। मगर ये वो उम्र थी जहाँ प्यार आपसे ज़्यादा आपकी सहेलियों को पता होता है। उसकी हर बात पसंद होती है। उसके डिम्पल, उसकी हैंडराइटिंग, उसका डान्स, सब कुछ। उस उम्र ये भी लगता है कि उसे कभी भूल नहीं पायेंगे और कि प्यार दोबारा कभी नहीं होगा। मगर पहली बार दिल टूटता है तो लगता है कि इस प्यार से तो बिना प्यार के भले। मगर इसके बाद कई कई बार प्यार होता है और हर बार ये विश्वास ज़रा सा टूटता है कि उम्र भर का प्यार होता है।
इसी दिल टूटने, जुड़ने, टूटने के दर्मयान लड़कपन गुज़र जाता है, घर पीछे छूट जाता है और दिल्ली को आँखों में बसाए हुए IIMC आ जाती हूँ। नौकरी। आत्मनिर्भरता। और एक नया आत्मविश्वास आता है। पुराने स्कूल के दोस्तों से बात होनी शुरू होती है। इश्क़ की पेचीदगी थोड़ी बहुत समझ आती है। चीज़ें उतनी सिम्पल नहीं लगती हैं जितनी बचपन की गुलाबी दुनिया में दिखती थीं। ऑफ़िस। लेट नाइट। नए प्राजेक्ट्स। ख़ुद की पहचान तलाशने का दौर था वो। जब मुझे पहली बार मिला तो जो पहली चीज़ महसूस की थी वो थी आश्वस्ति। कि मैं उसपर भरोसा कर सकती हूँ। इसमें बचपन का रोल था कि हमारे स्कूल का हेड प्रीफ़ेक्ट था वो। उसके साथ होते हुए कभी किसी चीज़ से डर नहीं लगता था। उसके साथ ज़िंदगी एक थ्रिल लगती थी। उन्हीं दिनों पहली बार ये भी महसूस किया था कि वो मेरा हमेशा के लिए है। बिना कहे भी। हमारे बीच हर चीज़ से गहरी जो चीज़ थी वो थी दोस्ती।
शादी के ९ साल हो गए हैं अब साथ। हमारे बहुत झगड़े होते हैं। इतने कि लगता है कि आज तो बस जान दे ही दें। कूद वूद जाएँ छत पे चढ़ कर। लेकिन वो जानता है मुझे। वो जानता है मुझे हैंडिल करना। डेटिंग के शुरू में जो बातें हम करते थे, तुम मेरी पूरी दुनिया हो टाइप। वो अब भी सच हैं। मैं इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक उसको ही प्यार करती हूँ। एक सिर्फ़ उसको। किसी रोज़ कुछ अच्छा पहन लिया, चाहे एक झुमका ही क्यूँ ना हो, पहली तारीफ़ उससे ही चाहिए होती है। मेरे यायावर मन को उसके होने से ठहार मिलता है। घर मिलता है।
उसे मोटरसाइकिल का शौक़ कभी नहीं रहा। इन फ़ैक्ट उसके दोस्तों में भी किसी को नहीं। कॉलेज में फिर भी कभी चलाया होगा लेकिन नौकरी पकड़ते ही उसने कार ख़रीदी। अभी भी उसे नयी कार, उसके माडल्ज़, इंटिरीअर्ज़ वग़ैरह सब बहुत मालूम रहती हैं। उसके क़रीबी दोस्त कि जो सारे IIT बॉम्बे से ही हैं, उनमें भी किसी के पास बाइक नहीं है। सब कार वाले लोग हैं। हाँ, उसके ऑफ़िस में, उसकी पूरी टीम में सबके पास रॉयल एनफ़ील्ड है। सबके ही पास। पहले साक़िब ने थंडरबर्ड ख़रीदी तो उसने एक आधी बार चलायी। लेकिन ज़्यादा नहीं। लेकिन जब रमन ने डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदी तो उसको पहली बार थोड़ा रॉयल एनफ़ील्ड का शौक़ लगा। उन्ही दिनों कुणाल के एक दोस्त से बात होते हुए उसने कहा कि उसका एक दोस्त है जो रॉयल एनफ़ील्ड कस्टमाइज करता है। हमने बात की इस बारे में कि वो हाइट में कम लोगों के लिए बाइक छोटी कर देता है। हम दोनों बहुत दिन तक इसपर हँसते रहे कि बाइक का jpeg ड्रैग करके छोटा कर देता है। मगर बहुत दिन बाद आँखों में चमक आयी थी। कोई सोया सपना जागा था। कि शायद मैं सच में कभी ज़िंदगी में एनफ़ील्ड चला पाऊँगी। मगर ये सब मज़ाक़ लगता था।
मेरा बर्थ्डे पास आ रहा था और मैं हमेशा की तरह उसको चिढ़ा रही थी कि क्या दोगे हमको। ऐसी ही नोर्मल सी शाम हम वॉक पर निकले थे तो कुणाल हमको एनफ़ील्ड के शोरूम ले गया और बोला, आज तुमको एनफ़ील्ड बुक कर देते हैं। हमको यक़ीन नहीं हो रहा था। लगा मज़ाक़ कर रहा है। लेकिन वो बोला कि सीरियस है। उसने पूरा पूछ वूछ लिया है। मेरे हिसाब से ऐडजस्ट हो जाएगी। 'एक ही ज़िंदगी है है हमारे पास। एनफ़ील्ड चलाना तुम्हारा सपना था ना? मेरे रहते तुम्हारा कोई सपना अधूरा रह जाए, ये मैं होने दूँगा? बताओ?'। हम सोच के गए थे कि डेज़र्ट स्टॉर्म ख़रीदेंगे लेकिन शोरूम गए तो क्लासिक ५०० का नया रंग देखा। स्क्वाड्रन ब्लू। हम दोनों उसपर फ़िदा हो गए। उसी को बुक कर दिया।
अब मैंने सोचा कि मोटरसाइकल और रॉयल एनफ़ील्ड में अंतर होता है। तो एक बार चलाना सीख लेते हैं। अपनी नयी बाइक पर हाथ साफ़ तो नहीं करूँगी। गूगल किया तो एक ग्रूप पाया, हॉप ऑन गर्ल्स का, यहाँ लड़कियाँ ही लड़कियों को बुलेट सिखाती थीं। ये बात थोड़ी आश्वस्त करने वाली थी। मेरी ट्रेनर बिंदु थी। कोई पाँच फ़ुट पाँच इंच की छोटी सी दुबली पतली सी लड़की। मगर उसे रॉयल एनफ़ील्ड चलाते हुए देख कर कॉन्फ़िडेन्स आया कि हो जाएगा। दो दिन की चार चार घंटे की ट्रेनिंग। पहले दिन जो लौटी तो क़सम से लगा हथेलियाँ टूट जाएँगी। इतना दर्द था। लेकिन ज़िद्दी तो ज़िद्दी हूँ मैं। गयी अगले दिन भी। खुली सड़क पर पहली बार जब एनफ़ील्ड को रेज किया और वो हवा से बातें करने लगी तो लगा कि नशा इसे कहते हैं।
अगस्त, फ़्रेंडशिप डे के अगले दिन बाइक की डिलेवरी थी। ऑफ़िस में इतना काम था कि कुणाल नहीं जा सका। उसके सिवा ऑफ़िस के अधिकतर लोग गए। मैं कार चलाते हुए सोच रही थी। मुहब्बत सिर्फ़ हमेशा साथ रहना ही नहीं होता है। जो दिन मेरे लिए बहुत ज़रूरी था, वहाँ कुणाल को ऑफ़िस में रहना था क्यूँकि एक ज़रूरी कॉल थी। उसका काम ज़रूरी है ताकि मैं अपने ऐसे शौक़ पूरे कर सकूँ। बाद में मैंने सोचा कि मैं अगले दिन तक इंतज़ार भी कर सकती थी। ये मेरी ग़लती थी। बाइक आने पर मैं इतनी ख़ुशी से पागल हो गयी थी कि इंतज़ार नहीं कर पायी। एक दिन रूकती तो हम दोनों साथ जा कर ले आते।
ख़ैर। एनफ़ील्ड आयी तो घर आयी ही नहीं। आकाश ने वहीं से टपा ली। मेरे पैर नहीं पहुँचते थे ज़मीन तक। उसपर आकाश मेरा लाड़ला देवर है। तो बोला कुछ दिन हम चला लेते हैं भाभी। तो रहने दिए। इधर कुणाल बोल दिया था लेकिन उसको डर लगता था कि हमसे वाक़ई चलेगी या नहीं। आकाश को तो और भी डर लगता था। पहली बार कुणाल जब बैठा बाइक पर पीछे तो महसूस हुआ कि बाइक थोड़ा सा दबी और मेरे पैर थोड़े से पहुँचे। मगर बहुत कम चलाने को मिला। फिर सच ये है कि एनफ़ील्ड का वज़न २०० किलो है। इस भार को सम्हालने के लिए थोड़ी आदत लगनी ज़रूरी है। यहाँ गाड़ी हमको मिले ही ना। दोनों भाई लोग लेके फ़रार। इन फ़ैक्ट इसका नीला रंग एकदम नया आया था तो ऑफ़िस में भी सबको बहुत पसंद थी। नतीजा ये कि दोपहर की वॉक पर सब लोग एनफ़ील्ड से निकलने लगे। कुणाल ने भी महसूस किया कि अपनी एनफ़ील्ड की बात और होती है। मैं देख रही थी कि उसको भी पहली बार ज़रा ज़रा मोटरसाइकल का चस्का लग रहा था। बेसिकली रॉयल एनफ़ील्ड और बाक़ी मोटरसैक़िलस में बहुत अंतर होता है। पहली तो चीज़ होती है इसकी आवाज़। इसका वायब्रेशन। फिर डिज़ाइन भी क्लासिक है। और अगर इतने में भी दिल ना फिसला, तो फिर है इसकी पावर। ५०० सीसी की बाइक है। एक बार रेज दो तो ऐसे उड़ती है कि बस।
एनफ़ील्ड का नाम रखना था अब। लड़के अपने एनफ़ील्ड का नाम अक्सर किसी लड़की के नाम पर रखते हैं। उसे अपनी गर्लफ़्रेंड या बीवी की तरह ट्रीट करते हैं। मगर यहाँ ये मेरी एनफ़ील्ड थी। तो इसका नाम कुछ ऐसा होना था कि जिससे मेरी धड़कनों को रफ़्तार मिले। फिर इन्हीं दिनों जब इतरां की कहानी लिखनी शुरू की थी तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन मेरे पास मेरी अपनी रॉयल एनफ़ील्ड होगी। इसका नीला रंग। तो बस। नाम एक ही होना था। रूद्र।
किसी भी तरह का टू वहीलर चलाना एक तरह का नशा होता है। चेहरे पर जब हवा लगती है तो वाक़ई ऐसा लगता है कि उड़ रहे हैं। बाइकिंग एक तरह की कंडिशनिंग होती है। मैंने अपने पापा से सीखी। बाइक के प्रति प्यार भी उनमें ही देखा। हमारी राजदूत मेरे जन्म के साल ख़रीदी थी पापा ने। हम ख़ुद को 'born biker' कहते हैं। मेरे परिवार में सबके पास टू वहीलर है। भाइयों के पास, कजिंस के पास। पापा, नानाजी, मामा, उधर चाचा के बच्चों के पास। मगर कुणाल के घर में सबको टू वहीलर से डर लगता है। घर में किसी भाई को परमिशन नहीं मिली। सबको ऐक्सिडेंट होने का डर भी लगता है। हालाँकि पहले घर में यामाहा rx १०० थी और सब लोग उसपर बहुत हाथ साफ़ किया है। आजकल भी एक मोटरसाइकल है। मगर वहाँ मोटरसाइकल को लेकर कोई जुनून नहीं है। फिर कुणाल के दोस्तों को भी शौक़ नहीं है। कुणाल के लिए मेरे बाइक चलाने से ज़्यादा डरावनी बात नहीं हो सकती। उसको हज़ार चीज़ों से डर लगता है। एनफ़ील्ड से गिरी तो कुछ ना कुछ टूटेगा ही। किसी को ठोक दिया तो उसको भी भारी नुक़सान होगा। उसपर मैं इत्ति सी जान और २०० किलो की मशीन। उसपे ५०० सीसी का इंजन। उसपर मेरा पागल दिमाग़ कि जो स्कूटी को ९० किमी प्रति घंटा पर उड़ाने को थ्रिल समझता था। ये सब जानते हुए। डरते हुए। फिर भी वो समझता है कि मेरे लिए एनफ़ील्ड क्यूँ ज़रूरी है। या मेरा सपना क्यूँ है। और इस सपने को उसने हक़ीक़त किया। मेरे लिए यही प्यार है। यही हमारी गहरी दोस्ती है। जहाँ आप दूसरे की कमज़ोरी नहीं, ताक़त बनते हैं।
उसने जब पहली बार मुझे एनफ़ील्ड पर देखा तब भी उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैं सच में चला लूँगी। उसे लगता था कि मैं ऐसे ही हवा में बात करती हूँ जब कहती हूँ की पापा ने मुझे राजदूत सिखायी थी। मगर धीरे धीरे मेरा भी कॉन्फ़िडेन्स बढ़ा और कुणाल का भी। हर बार जब पार्किंग से निकालती हूँ तो एनफ़ील्ड में पेट्रोल दौड़ता है और मेरी रगों में इश्क़। हर बार मुझे लगता है कि सपने देखने चाहिए। हर बार थोड़ा सा और प्यार हो जाता है उस लड़के से जिसके साथ २४ की उम्र में फेरे लिए थे मैंने। सात जनम तक, ५०० सीसी तक और जाने कितने किलोमीटर तक। जब तक मेरा दिल धड़के इसमें बस एक उसी का नाम है।
उसके लिए लिखी मेरी सबसे पसंदीदा लाइन। 'Of all the things I am, my love, what I love most, I am yours'.
चश्मेबद्दूर।
Published on November 16, 2016 23:44


