Puja Upadhyay's Blog, page 2
July 18, 2024
सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?
उसकी तस्वीर देखती हूँ। दिल में ‘धक’ से लगा है कुछ।
ब्लैक एंड वाइट तस्वीर है। मैं याद में उस तस्वीर के रंग तलाशती हूँ। उनकी आँखें कैसी लगती हैं धूप में? कैमरे के लेंस से उन्हें जी भर देखना चाहती हूँ। रुक के। फ्रेम सेट करने के लिए लेकिन ज़रूरी है कि धूप में हल्की सुनहली हुई उनकी आँखों के अलावा जो पूरा शख़्स है, वो फ्रेम में कितना फिट हो रहा है, ये भी देखूँ।
आँखों का कोई एक रंग नहीं होता। धूप में कुछ और होती हैं, चाँदनी में कुछ और। दिन में कुछ और, रात में कुछ और। प्रेयसी के सामने कुछ और, ज़माने के लिए कुछ और। ब्लैक ऐंड व्हाइट कैमरे में जो नहीं पकड़ आता, वो भी तो एक रंग होता है…सलेटी का कौन सा शेड है वो? डार्क ग्रे आइज़। मन फ़िल्म वाले कैमरे से उनकी तस्वीर खींचना चाहता है। निगेटिव में देखना चाहता है उन पुतलियों को…मीडियम के हिसाब से बदलते हैं रंग। उस नेगेटिव में स्याह सफ़ेद दिखता है और सफ़ेद स्याह। अच्छा लगता है कि मैंने फोटोग्राफी सीखने के दरम्यान डेवलपिंग स्टूडियो में बहुत सा वक़्त बिताया था। मैं याद में अपने प्रेजेंट की घालमेल करती हूँ। स्टूडियो में सिर्फ़ लाल रंग का बल्ब जलता है। लाल। मेरे दिल में धड़कता…मुहब्बत भरा…उस नाम में, उस रंग में रौशन। मैं निगेटिव लिए खड़ी हूँ, उसे डिवलप करते हुए मेरे पास ऑप्शन है कि मैं उन आँखों को थोड़ा गहरा या थोड़ा हल्का बना दूँ…मैं चुन सकती हूँ अपनी पसंद का ग्रे। मैं पॉज़िटिव को डेवलपर के घोल में डालती हूँ। सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?
कब खींची थी मैंने ये तस्वीर? याद नहीं आ रहा। लेकिन उन आँखों में चमकता हुआ एक सितारा है, इसे मैं पहचानती हूँ। मुहब्बत के नक्षत्र में जब इसका उदय हुआ था, तब इसका नामकरण मैंने ही किया था। यह सितारा मेरे नाम का है। मेरा अपना। जब कभी राह भटकती हूँ और ख़्यालों की दुनिया में ज़्यादा चलते हुए पाँव थक जाते हैं तो यह सितारा मुझसे कहता है, पूजा, यहाँ आओ। मेरे पास बैठो। यह तुम्हारे ठहरने की जगह है। यहाँ रहते हुए तुम्हें कहीं और भाग जाने का मन नहीं करेगा।
विलंबित लय में गाते हैं तो ताल साथ में सुनते हैं…लयकारी में आलाप लेते हुए ध्यान रखते हैं कि कहाँ पर ‘सम’ है। क्योंकि वहीं सब ख़त्म करना होता है। फिर से नया सुर उठाने के पहले।
सम सैंड ड्यून। पहली बार सुना था, तब से कई बार सोचा है कि क्यों उसका नाम सम है। मगर सिर्फ़ सोचा है, पूछा नहीं है। आजकल आसान है न सब कुछ जान लेना। गूगल कर लो, किसी दोस्त से पूछ लो, चैट जीपीटी से पूछ लो। ऐसे में किसी सवाल का जवाब नहीं चाहना। सिर्फ़ सवाल से मुहब्बत करना।
मुहब्बत। हमारे लिए सवाल नहीं है। स्टेटमेंट है। एक साधारण सा वाक्य। इसके साथ बाक़ी दुख नहीं आते सवालों की शक्ल में। ‘हमें आपसे मुहब्बत है’। There is a finality to love that I find hard to explain. Like the desire to keep typing every time I open my iPad and start writing something.
आज बहुत बहुत दिन बाद इत्मीनान की सुबह मिली थी। ऐसी सुबहें रूह की राहत होती हैं।
कभी कभी ऐसे में किसी को वीडियो कॉल करने का मन करता है। पर्दे हवा में नाच रहे हों। कभी जगजीत सिंह, तो कभी नुसरत बाबा की आवाज़ हो…कोई ग़ज़ल, कोई पुराना गीत…मद्धम बजता रहे, राहत की तरह। बहुत तेज़ हवा बह रही है, पर्दे हवा में नाच रहे हैं। हल्की धूप है। मैं सब्ज़ियाँ काटते काटते कभी उधर देख लेती हूँ। मन हल्का है।
खाना बनाते हुए उनकी याद क्यों आती है अभी फ़िलहाल? हमने जिनके साथ जीवन के बहुत कम लम्हे बिताये हों, उनके सिर्फ़ कुछ चंद फ़ोन-कॉल्स में उनके हिस्से का आसमान-ज़मीन सुना हुआ, देखा हुआ कैसे लगता है। हमारी मुहब्बत क़िस्सा-कहानी है। कविता है। डायरी है।
मैं मशरूम पास्ता बनाती हूँ अपने लिए। सोचती हूँ, किसी के ख़्याल और मुहब्बत में गुम। मुहब्बत में कितनी सारी जगह होती है। हमको बहुत अच्छा खाना बनाना नहीं आता। शौक़िया ही बनाते हैं। लेकिन इस कम खाना-बनाने खिलाने में भी हमारे हाथ का आलू पराठा और चिनियाबदाम की चटनी वर्ल्ड फ़ेमस है। कभी कभी इस फ़िरोज़ी किचन में खड़े होकर सोचते हैं। और कुछ हो न हो, मेरे दोस्तों को एक बार यहाँ आना चाहिए। और हमको उनके लिए आलू पराठा और चटनी बनानी चाहिए। इसके बाद एक कप नींबू की चाय हो, आधी-पूरी, मूड के हिसाब से। या फिर कॉफ़ी। सिगरेट हो। बातें हों। चुप्पी हो।
और अगर हम दोनों के दिल में लगभग बराबर-बराबर मुहब्बत या दोस्ती या लगाव हो…तो बारिश होती रहे, आसमान में सलेटी बादल रहें और हम इस सुकून में रहें कि दुनिया सुंदर है। जीने लायक़ है।
कि जिस घर का नाम Utopia है, जिसका होना नामुमकिन है। वो है। सच में। मेरा अपना है।
May 16, 2024
क्या करें लिखने के कीड़े का? मार दें?



अभी कलकत्ता आये हुए हैं…भाई-भौजाई…पापा…मेरे बच्चे, उसके बच्चे…सब साथ में गर्मी छुट्टी के मज़े ले रहे हैं। हमको भर दिन गपियाने में मन लग रहा है। आम लीची टाप रहे हैं सो अलग। मौसम अच्छा है। रात थोड़ी गर्म होती है हालाँकि, लेकिन इतनी सी गर्मी में हमको शिकायत मोड ऑन करना अच्छा नहीं लगता।
सब अच्छा है लेकिन लिखने का एक कीड़ा है जो मन में रेंगता रहता है। इस कीड़े को मार भी नहीं सकते कि हमको प्यारा है बहुत। इसके घुर-फिर करने से परेशान हुए रहते हैं। मन एकांत माँगता है, जो कि समझाना इम्पॉसिबल है। कि घर में सब लोग है, फिर तुमको कुछ इमेजिनरी किरदार से मिलने क्यूँ जाना है…हमको भी मालूम नहीं, कि क्यों जाना है। कि ये जो शब्दों की सतरें गिर रही हैं मन के भीतर, उनको लिखना क्यों है? कि कलकत्ता आते हैं तो पुरानी इमारतें, कॉलेज स्ट्रीट या कि विक्टोरिया मेमोरियल जा के देखने का मन क्यों करता है…देखना, तस्वीर उतारना…क्या करेंगे ये सब का? काहे ताँत का साड़ी पहन के भर शहर कैमरा लटकाये पसीना बहाये टव्वाने का मन करता है। इतना जीवन जी लिये, अभी तक भी मन पर बस काहे नहीं होता है? ये मन इतना भागता काहे है?
वो दोस्त जो शहर में है लेकिन अभी भी शहर से बाहर है, उसको भर मन गरिया भी नहीं सकते कि अचानक से प्रोग्राम बना और उसको बताये नहीं। एक पुरानी पड़ोसी रहती थीं यहीं, अभी फिर से कनेक्ट किए तो पता चला कि दूसरे शहर शिफ्ट हो गई हैं। कितने साल से लगातार आ रहे कोलकाता लेकिन अभी भी शहर अजनबी लगता है। कभी कभी तो खूब भटकने का मन करता है। दूसरे ओर-छोर बसे दोस्तों को खोज-खाज के मिल आयें। कैमरा वाले दोस्तों को कहें कि बस एक इतवार चलें शूट करने। भाई को भी कहें कि कैमरे को बाहर करे…बच्चों को दिखायें कि देखो तुम्हारी मम्मी सिर्फ़ राइटर नहीं है, फोटोग्राफर भी है। सब कुछ कर लें…इसी एक चौबीस घंटे वाले दिन में? कैसे कर लें?
यहाँ जिस सोसाइटी में रहते हैं वहाँ कुछ तो विवाद होने के कारण बिल्डर ने इमारतें बनानी बंद कर दीं। देखती हूँ अलग अलग स्टेज पर बनी हुई बिल्डिंग…कुछ में छड़ें निकली हुई हैं, कुछ में ढाँचा पूरा बन गया है खिड़कियाँ खुली हुई हैं…उनमें से कई टुकड़े आसमान दिखता है। मुझे अधूरापन ऐसे भी आकर्षित करता है। मैं हर बार इन इमारतों को देखते हुए उन परिवारों के बारे में सोचती हूँ जिन्होंने इन घरों के लिए पैसे दिए होंगे…कितने सपने देखे होंगे कि ये हमारा घर होगा, इसमें पूरब से नाप के इतने ग्राम धूप आएगी…इसकी बालकनी में कपड़े सूखने में इतना वक़्त लगेगा…कि इस दरवाज़े से हमारे देवता आयेंगे कि हम मनुहार करके अपने पुरखों को बुलाएँगे…कि यहाँ से पार्क पास है तो हमारे बच्चे रोज़ खेलने जा सकेंगे…कि हमारे पड़ोसी हमारे दोस्त पहले से हैं…एक अधूरी इमारत में कितने अधूरे सपने होते हैं।
Among other things, इन दिनों जीवन का केंद्रीय भाव गिल्ट है…चाहे हमारी identity के जिस हिस्से से देखें। एक माँ की तरह, एक थोड़ी overweight औरत की तरह, एक लेखक कि जो अपने किरदारों को इग्नोर कर रही है…उसकी तरह। लिखना माने बच्चों को थोड़ी देर कहीं और छोड़ के आना…उस वक़्त ऐसे गुनहगार जैसे फीलिंग आती है…घर रहती हूँ और किरदार याद से बिसरता चला जाता है, मन में दुखता हुआ…बहुत खुश होकर कुछ खूब पसंद का खा लिया तो अलग गिल्ट कि वज़न बढ़ जाएगा…हाई बीपी की दवाइयाँ दिल को तेज़ धड़कने से रोक देती हैं। पता नहीं ये कितना साइकोलॉजिकल है…लेकिन मुझे ना तेज़ ग़ुस्सा आता है, ना मुहब्बत में यूँ साँस तेज़ होती है। ये भी समझ आया कि ग़ुस्सा एक शारीरिक फेनोमेना है, मन से कहीं ज़्यादा। ब्लड प्रेशर हाई होने से पूरा बदन थरथराने लगता है…खून का बहाव सर में ऐसा महसूस होता है जैसे फट जाएगा…अब मुझे ग़ुस्सा आता है तो शरीर कंफ्यूज हो जाता है कि क्या करें…मन में ग़ुस्सा आ तो रहा है लेकिन बदन में उसके कोई सिंपटम नहीं हैं…जैसे भितरिया बुख़ार कहते हैं हमारे तरफ़। कि बुख़ार जैसा लग रहा है पर बदन छुओ तो एकदम नॉर्मल है। उसी तरह अब ग़ुस्सा आता भी है तो ऐसा लगता है जैसे ज़िंदगी की फ़िल्म में ग़लत बैकग्राउंड स्कोर बज रहा है…यहाँ डांस बीट्स की जगह स्लो वायलिन प्ले होने लगी है। दिल आहिस्ता धड़क रहा है।
क्या मुहब्बत भी बस खून का तेज़ या धीमा बहाव है? कि उन्हें देख कर भी दिल की धड़कन तमीज़ नहीं भूली…तो मुहब्बत क्या सिर्फ़ हाई-ब्लड प्रेशर की बीमारी थी…जो अभी तक डायग्नोज़ नहीं हुई? और इस तरह जीने का अगर ऑप्शन हो तो हम क्या करेंगे? कभी कभी लगता है कि बिना दवाई खाये किए जायें…कि मर जाएँ किसी रोज़ ग़ुस्से या मुहब्बत में, सो मंज़ूर है मुझे…लेकिन ये कैसी ज़िंदगी है कि कुछ महसूस नहीं होता। ये कैसा दिल है कि धड़कन भी डिसिप्लिन मानने लगी है। इस बदन का करेंगे क्या हम अब? कि हाथों में कहानी लिखने को लेकर कोई उलझन होगी नहीं…कि हमने दिल को वाक़ई समझा और सुलझा लिया है…
तो अब क्या? कहानी ख़त्म?
आज कलकत्ता में घर से भाग के आये। बच्चों को नैनी और घर वालों के भरोसे छोड़ के…कि लिखना ज़रूरी है। कि साँस अटक रही है। कि माथा भाँय भाँय कर रहा है। कि स्टारबक्स सिर्फ़ पंद्रह मिनट की ड्राइव है और शहर अलग है और गाड़ी अलग और रास्ता अलग है तो भी हम चला लेंगे। कि हम अब प्रो ड्राइवर बन गये हैं। भगवान-भगवान करते सही, आ जाएँगे दस मिनट की गाड़ी चला कर। कि हमारी गाड़ी पर भी अर्जुन की तरह ध्वजा पर हनुमान जी बैठे रहते हैं रक्षा करने के लिए। हनुमान जी, जब लड्डू चढ़ाने जाते हैं तो बोलते हैं, तुम बहुत काम करवाती हो रे बाबा! तुम्हारा रक्षा करते करते हाल ख़राब हो जाता है हमारा, तुम थोड़ा आदमी जैसा गाड़ी नहीं चला सकती? कौन तुमको ड्राइविंग लाइसेंस दिया?
सोचे तो थे कि ठीक एक घंटा में चले आयेंगे। लेकिन तीन बजे घर से निकले थे और साढ़े पाँच होने को आया। अब इतना सा लिख के घर निकल जाएँगे वापस। लिख के अच्छा लग रहा है। हल्का सा। आप लोग इसे पढ़ के ज़्यादा माथा मत ख़राब कीजिएगा। जब ब्लॉग लिखना शुरू किए थे तो ऐसे ही लिखते थे, जो मन सो। वैसे आजकल कोई ब्लॉग पढ़ता तो नहीं है, लेकिन कुछ लोगों के कमेंट्स पढ़ के सच में बहुत अच्छा लगता है। जैसे कोई पुराना परिचित मिल गया हो पुराने शहर में। उसका ना नाम याद है, न ये कि हम जब बात करते थे तो क्या बात करते थे…लेकिन इस तरह बीच सड़क किसी को पहचान लेने और किसी से पहचान लिये जाने का अपना सुख है। हम उस ख़ुशी को थोड़ा सा शब्दों में रखने की कोशिश करते हैं।
कुछ देर यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड्स लिखे। कुछ दोस्तों को। कुछ किरदारों को। कुछ ज़िंदगी को।
***
बहुत दिन बाद एक शब्द याद आया…हसीन।
और एक लड़का, कि जो धूमकेतु की तरह ज़िंदगी के आसमान पर चमकता है…कई जन्मों के आसमान में एक साथ…अचानक…कि उस चमक से मेरी आँखें कई जन्म तक रोशन रहती हैं…कि रोशनी की इसी ऑर्बिट पर उसे भटकना है, थिरकना है…और राह भूल जाना है, अगले कई जन्मों के लिए।
April 27, 2024
ढीठ याद के कच्चे क़िस्से

फिर एक रोज़ स्पॉटलाइट ऑफ होगी। आप जानेंगे कि सब कुछ सिर्फ़ एक नाटक था। और अब बाक़ी दर्शकों की तरह आपको भी लौट कर घर जाना है। आपकी कुछ ज़मीनी सच्चाइयाँ हैं, जो घर पर आपका इंतज़ार कर रही हैं।
पर उस एक रोज़ के उस छोटे से रोल के बाद आप कभी ठीक-ठीक दर्शक नहीं रह पाते। आपके अंदर एक स्टॉपवॉच चालू हो जाती है जो घड़ी घड़ी गिनती रहती है कि आपकी अति-साधारण ज़िंदगी का इतना हिस्सा बीता। आप ध्यान से उन वायलिन की धुनों को पकड़ने की कोशिश करते हैं जो वसंत की चाप में सुनी जा सकती हैं बस। सिर्फ़ एक किरदार निभाने के बाद आप अक्सर लौटना चाहते हैं। आप फूलों को गौर से देखते हैं। वसंत अपनी धमक में जिन पीले फूलों को यूँ ही आपके ऊपर गिरा देता है, आप उनकी पंखुड़ियों को उठा कर घर ले आते हैं और लगातार पलाश के फूलों के बारे में सोचते हैं। टेम्पल ट्री को देखते हुए यह भी कि बचपन से जितने मंदिर देखे उनमें कनेल रहा, उढ़ूल रहा, आक भी रहा…लेकिन उन्हें मंदिर के फूल क्यों नहीं कहते लोग?
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There is a myth that we can be selectively vulnerable.
लेकिन ऐसा होता नहीं है। दिल के दरवाज़े खोलते हैं तो आशिक़ों ही नहीं, दुश्मनों की भी पूरी फ़ौज भीतर घुस आती है। अब आप इतने क्रूर तो हैं नहीं कि दुश्मनों को भूखा मार दें…तो आपको सबके लिए रसद जुटानी पड़ती है। इतनी भसड़ में आप भूल जाते हैं कि दिल का दरवाज़ा आख़िर को खोला किस लिये था।
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जब अपने भीतर इतना अंधेरा हो कि हम कुछ भी देख न सकें तो हम भरी-भरी आँखों से बाहर की दुनिया को देखते हैं। वसंत में सारे फूल एक साथ नहीं खिलते। ट्रम्पेट ट्री के गुलाबी फूलों का मौसम ख़त्म होते होते अमलतास लहकने शुरू हो जाते हैं…अमलतास के गिरे हुए फूलों को चुन कर बुकमार्क बनाने चलो तो वायलेट फूलों का पेड़ ऐसा झमक के दिखता है कि हम उसका नाम गूगल सर्च करना ही भूल जाते हैं। किसी चीज़ का नाम जानना उसे अपने थोड़ा क़रीब करना है। जिस शहर का मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता, उसके एक बैगनी फूलों वाले पेड़ का मैं नाम पूछना भी नहीं चाहती। ये भी तो नहीं होता कि पेड़ को भूल जाऊँ आराम से…वो जो दोस्त नहीं था उस समय तक और जिसके साथ इस पहचाने सड़क में रास्ते भूलती जाती थी…उसे दिखाया था यह बैगनी फूलों से पूरा लदा हुआ पेड़। जाने उसे याद होगा या नहीं। मैं उसे बता दूँ कि मैं इस पेड़ को जब भी देखती हूँ तुम्हारी बेतरह याद आती है?
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ज़िंदगी में ख़ालीपन नहीं होता तो याद इतनी ढिठाई से आ कर नहीं रहती।
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थ्री-बॉडी प्रॉब्लम देखी। उसमें आख़िर में एक किरदार कहता है, विल के दिमाग़ में असल में क्या चल रहा है, यह सिर्फ़ विल जानता है, और कोई नहीं।
मेरे दिमाग़ में क्या चलता रहता है?
काग़ज़ की नाव पर बैठ विल अपनी हथेली खोलता है, बारिश गिर रही है उसकी हथेली पर। यह सपना है। क्योंकि उसके दिमाग़ को शरीर से निकाल कर क्रायो-फ्रीज़ करके कई सौ प्रकाश वर्ष दूर भेजा जा रहा है। सीरीज़ ख़त्म हो गई है। अगला सीजन पता नहीं कब आएगा। लेकिन मैं भी विल की तरह लूप में उसी बारिश वाली शाम धुंध में हूँ। हथेली पर पानी की बूँदें हैं। साथ में कौन है, मालूम नहीं। वह कितनी उदासी से कहता है, ‘किसी ने मुझे प्यार नहीं किया।’
मैं तो यह भी नहीं कह सकती।
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सिवाय इसके, कि मेरा दिल बेतरह टूटा हुआ है, मैं अपने बारे में कोई बात यक़ीन से नहीं कह सकती। मुझे इस टूटे हुए दिल के इर्द गिर्द सिर्फ़ शब्दों का जिरहबख्तर बनाना आता है। सो बना रही हूँ। कि ज़िंदगी सीज़फ़ायर नहीं करती। दुख कई रूपों में आता है। छर्रों से लेकर मिसाइलों तक। हर ओर बारूद की गंध है।
मेरी साँस अटकती है।
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मुझे लद्दाख की वो सड़क ध्यान रहती है, जो किसी और के जिये हुए की है शायद। ख़ाली सड़क पर चलती बाइक। दोनों हाथ छोड़ कर आसमान देखना। तनहा होना। लेकिन उदास नहीं होना।
इतना ही चाहिए। सिर्फ़ इतना।
April 17, 2024
मेरा दिल जलता हुआ सूरज है। बदन के समंदर में बुझता हुआ।

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उसके इर्द-गिर्द गुनहगार तितलियाँ उड़ती रहती थीं। उनमें से एक भी अगर हथेली पर बैठ गई तो किसी का खून करने की इच्छा भीतर घुमड़ने लगती थी।
पिछले कुछ सालों में जो बहुत सारा ग़ुस्सा बदन में जमा हो था और घड़ी घड़ी फट पड़ता था, क्या वो सिर्फ़ तेज़ी से बहता खून था? हाई-ब्लड प्रेशर इक छोटी सी गोली से कंट्रोल हो गया…उसके साथ ही दुनिया के प्रति हम थोड़े से कोमल हो गये। ग़ुस्सा थोड़ा सा कम हो गया।
क्या मुहब्बत भी इसी तरह वाक़ई बदन का कोई केमिकल लोचा है? किसी दवाई से इसी तरह बदन में बेहिसाब दौड़ती मुहब्बत को थोड़ा रेस्ट मिल जाएगा? वो किसी बस-स्टॉप पर रुक जायेगी? तुम्हारा इंतज़ार करेगी?
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सब ओर गुनाहों की ख़ुशबू है। बदन में, आत्मा में। छुअन में। लिबास में। स्याही में।
मेरी ओर लपटें लपकती हैं, आँखों को लहकाती हुई। दिख नहीं रहा ठीक से। वो क्या है जो ठीक से नहीं जल रहा कि यहाँ इतना धुआँ है। क्या आँख से उठता है आँसू का बादल?
मेरा दिल जलता हुआ सूरज है। बदन के समंदर में बुझता हुआ।
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ख़ुशी की हर चीज़ से गुनाहों की गंध आती है।
गिल्ट। हमारे जीवन का केंद्रीय और स्थायी भाव है इन दिनों।
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कौन मेरे जलते हुए दिल पर आँसू छिड़क रहा है?
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मुझे पता है कि तुम आग के बने हो और मेरी दुनिया काग़ज़ की है। फिर भी, तुम्हें छू कर अपनी उँगलियाँ जलाना चाहती हूँ।
क्या हम छुअन के प्रति सबसे ज़्यादा निर्दयी इसलिए होते हैं क्योंकि यह सबसे ईमानदार इंद्रिय है? बातों से झूठ बोलना आसान है, आँखों से झूठ बोलना फिर भी थोड़ा मुश्किल, लेकिन किया जा सकता है, गंध तो अनुभव के हिसाब से अच्छी-बुरी होती है और बदलती रहती है, स्वाद भी…लेकिन स्पर्श…बिलकुल झूठ नहीं होता इसमें। हम ख़ुद को स्पर्श के प्रति फुसला नहीं सकते।
हमारा बदन एक बाग होता है, किसी को छूने भर से हमारे भीतर के सारे पौधे मर जाते हैं।
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ख़ुशबू is the most subjective sense of all. हमें सिखाया जाता है कि ये खुश-बू है, ये बद-बू है…नॉन-वेजीटेरियन जिस ख़ुशबू से दीवाने हो जाएँगे कि लार टपकने लगी, वेजीटेरिएंस माँस या मछली की उस गंध को बर्दाश्त नहीं कर सकते। मितली आती है, मन घूमता है।
किसी का लगाया हुआ इत्र आपको सिरदर्द दे सकता है…किसी के दो दिन से नहीं नहाए बदन से आते फ़ीरोमोन्स आपकी सोचने-समझने और सही निर्णय लेने की क्षमता को कुंद कर सकते हैं। मुझे रात-रानी की गंध एकदम बर्दाश्त नहीं होती। लिली की तेज़ गंध भी कई लोगों को पसंद नहीं होती। रजनीगंधा और गुलाबों की ख़ुशबू से शादियों का सजा हुआ कमरा और कार की याद रहती है।
लिखते हुए मुझे सिगरेट की गंध चाहिए होती है। एक समय शौक़ से चाहिये होती थी, अब ज़रूरत है।
मैं तुमसे हमेशा पब्लिक में मिली। तुम्हें गले लगाते हुए एक मिनट आँख बंद करके वहाँ रुक नहीं सकते थे। मैं तुम्हारी ख़ुशबू से अनजान रही। ख़ुशबू को पहचानने के लिए आँख बंद करनी ज़रूरी है। वरना देखा हुआ उस ख़ुशबू की आइडेंटिटी को भीतर थिर होने नहीं देता। मैंने तुम्हारी जैकेट उतरवा के उसे सूँघा…
एक दिन इस दुनिया में हम दोनों नहीं होंगे। लेकिन मेरी कहानियाँ होंगी। तुम्हारी भी। इन आधे अधूरे क़िस्सों में तुम पूरे पूरे महसूस होगे…अपनी ख़ुशबू, अपनी दमक में…उस लम्हे में ठहरे हुए जब घास के लॉन पर तुम्हें पहली बार दूर से देखा था। धूप की ख़ुशबू लपेटे हुए।
***
एक समय में अफ़सोस के पास एक छोटी सी मेज़ की दराज थी जिसमें मैंने चिट्ठियाँ रखी थीं, अधूरी। उन में तुम्हारा नाम नहीं था। उनके आख़िर में, हस्ताक्षर से पहले, ‘प्यार’ नहीं लिखा था। अब अफ़सोस की पूरी पूरी सल्तनत है। उसमें कई शहर हैं। समंदर हैं जो मुझे देखने थे तुम्हारे साथ। मौसम हैं जो तुमसे दूर के शहर में मेरे मन पर खुलते हैं। इतनी छोटी ज़िंदगी में जिया हुआ कितना कम है और मुहब्बत कितनी ज़्यादा। हिसाब कितना ग़लत है ना, सोचो तो!
***
शब्दों का कोई मोल नहीं होता। जान के सिवा।
किसी समय जब ज़िंदगी इतनी मुश्किल लगी थी कि उससे आसान किसी ऊँची इमारत से कूदना या फंदे में झूल जाना था उस समय कविता की किसी पंक्ति को पढ़ के, किसी किताब को सीने से लगा कर लगा था कि हमारा दुख जीने वाले लोग थे दुनिया में और उन्होंने इस लम्हे से गुज़र कर आगे भी जिया है…हम भी कर सकते हैं ऐसा।
लिखना सिर्फ़ ये दिलासा है कि हम अकेले नहीं हैं। हम लिखते हैं लेखकों/कवियों का हमें जिलाये रखने का जो क़र्ज़ है, उसको थोड़ा-बहुत उतारने के ख़ातिर।
और अपनी कहानियाँ जो सुनाने का मन करता है, सो है ही।
इतने दिन में यही लगता है कि ब्लॉग हमारा घर है। लौट के हमें यहीं आना था।
सो, हम आ गए हैं।
April 16, 2024
पैटर्न-ब्रेक
हम पाते हैं कि हमारे सबसे सुंदर सुख और हमारे सबसे जानलेवा दुखों का एक सिरा हमारे अतीत में होता है। कई बार हम याद का धागा पकड़े हुए पीछे की ओर चलते जाते हैं अतीत के ठीक उस लम्हे को आइडेंटिफाई कर लेते हैं जहाँ इस दुख या सुख को पहली बार जिया था। लेकिन जब हम अतीत के इस धागे का दूसरा सिरा नहीं ढूँढ पाते हैं तो बेतरह उलझ जाते हैं।
बहुत साल पहले की बात है। छत्तरपुर मंदिर गई थी एक परिचित के साथ। मूर्ति के सामने हाथ जोड़े और वापस लौटने को पलटी कि उन्होंने कन्धा पकड़ के रोका, कि पहले पाँच कदम देवता की ओर से पीठ नहीं फेरते हैं। हमने पाँच कदम उल्टे रखे, मंदिर से बाहर की ओर…यह एक बात मुझे उस समय से कभी बिसरी नहीं।
लेकिन ये बात सिर्फ़ देवता पर नहीं, लोगों पर भी लागू होने लगी धीरे धीरे। जाने कितने कदम तक। गिनती में तो वैसे ही हमारा हाथ थोड़ा तंग है।
हम पीछे की ओर जाते हुए नहीं समझ पाते हैं कि हमें रुकना कहाँ है। जन्म-पार की यात्रा करते हुए हम तलाशते रहते हैं किसी गहरी स्मृति को…कई बार हमारे साथ कोई और व्यक्ति भी इसी तरह उलझा हुआ होता है। कि तुम

तुम्हारे लिए क्या आसान रहा यूँ मेरी हथेली पकड़ के सीने पर रखना, कि देखो ना, दिल कितनी तेज़ धड़क रहा है! वही रैंडम हार्टबीट पासवर्ड हो गई…कि जन्मों के परे आना जाना कर लेते हैं हम उस धड़कन का धागा पकड़ के…हमारे पास लौटने की एक जगह है।
ज़िंदगी में क़िस्सा मुकम्मल तब तक ही लगता है न जब तक आपको इस बात का यक़ीन हो कि समय लीनियर है और हमेशा आप सिर्फ़ आगे की ओर बढ़ेंगे…वन-वे। जैसे ही आपको लगे कि सब कुछ एक वर्तुल है…कि यह सब हो चुका है पहले…कई बार और होगा…यूँ मिलना, बिछड़ना…तलाशना…
तुमसे दुबारा मिल कर समझ आया कि हमको किसी से भी सिर्फ़ एक बार मिलने में इतना डर क्यों लगता है। और कि तुमसे एक बार और मिलना क्यों ज़रूरी था। क्योंकि ग्राफ़ में सीधी लकीर खींचने के लिए दो को-ऑर्डिनेट्स चाहिए होते हैं। इसके बाद हम थोड़ा बहुत तलाश सकते हैं तुम्हें टाइमलाइन पर। फिर कभी भी न मिलो, तो भी चलेगा।
चल जाएगा, लेकिन चलाना मत, ओके?
April 14, 2024
थोड़ा सा आसमान, थोड़ी सी ज़मीन

पिछले कुछ दिनों, लगभग साल भर से बैंगलोर में ख़रीदने के लिए घर देख रहे हैं। कई सारे बिल्डर्स के फ़्लैट्स देखे। विला भी और अपार्टमेंट भी। एक चीज़ जो मुझे समझ नहीं आती है, वो ये है कि आर्किटेक्ट्स को या फिर सोसाइटी प्लैनर्स को धूप और हवा से दिक़्क़त क्या है! मैं यह समझती हूँ कि सारे घरों में ढेर सारी खिड़कियाँ और दरवाज़े धूप और हवा के हिसाब से नहीं बन सकते। लेकिन जिन फ़्लैट्स में हो सकते हैं, वहाँ भी नहीं हैं। एक पूरा पूरा टावर है जिसकी दीवार पूरब की ओर है लेकिन उस दीवार में खिड़की नहीं है। न ही पश्चिम की ओर खिड़कियाँ हैं। इस तरह अधिकतर घर या अपार्टमेंट जो हैं उनमें खिड़कियाँ और बालकनी दक्षिण और उत्तर की ओर हैं। जितनी बड़ी सोसाइटीज हैं उनमें सारे घर क़तार से पूरब से पश्चिम की ओर बनाये गये हैं जिससे सारे घर एक दूसरे की धूप छेकते हैं और इसमें भी को क़तार के आख़िर वाले घर हैं, वहाँ भी धूप और हवा के आने जाने की जगह नहीं है।
कल मैं यहाँ एक बड़े बिल्डर का मॉडल फ्लैट देखने गई। वह मॉडल फ़्लैट इतना क्लॉस्ट्रोफोबिक था कि अब तक भी मुझे पेट में अजीब सी घबराहट महसूस हो रही है। इन सारे घरों में एक छोटा सा कमरा ‘मेड रूम’, या कि घर में फुल टाइम रहने वाली किसी कामवाली के लिए होता है। बड़े और छोटे बिल्डर्स के सारे फ़्लैट्स में एक चीज़ कॉमन रही कि इस कमरे में कभी कोई खिड़की नहीं होती। क्या घर में काम करने वाला इंसान जेल में रहे? बिना खिड़की के कमरे में कैसे रह सकता है कोई…सिर्फ़ रात में सोने की बात हो, तब भी! हम इतने अमानवीय क्यों हैं, कैसे हैं! क्या इन घरों को डिज़ाइन करने वाले लोग मशीन हो गये हैं। ये क्या सर्वर रूम डिज़ाइन हो रहा कि खिड़की की ज़रूरत नहीं! और ये एक बिल्डर की बात नहीं है कि आपको लगे कि शायद किसी एक व्यक्ति का ध्यान नहीं गया होगा। इन कमरों में एक रोशनदान तक नहीं होता। मैं हर बार घर देखने जाती हूँ तो इतना उदास लौटती हूँ कि कई दिन तक मन सीला-सीला रहता है। 4-5 Cr के घर डिज़ाइन करने वाले लोग ऐसे हैं।
खिड़की से बाहर देखने वाले लोग कहाँ चले गए?
सोचती हूँ तो लगता है कि बाहर की ओर कोई देखता कहाँ है। चाँद, सूरज और सूर्यास्त या सूर्योदय की तलाश कौन करता है मेरे सिवा। छत तो आलरेडी ग़ायब हो गई है सब जगह से। छोटे बच्चों के बहुत से कपड़े धोने के बाद उन्हें पसार के सुखाने और उतारने का समय नहीं रहता था। उसपे कई बार बारिश आती थी, इसलिए वॉशर और ड्रायर वाली मशीन ले ली। इस घर में आये इतने महीने हो गए हैं, यहाँ पर कपड़े पसारने का इंतज़ाम नहीं हुआ है। यहाँ छत पर अलगनी है ही नहीं। फिर यहाँ कार्पेंटर बुलाना इतना मुश्किल है कि एक अदद अलगनी लगाने का काम महीनों से नहीं हो पाया है। कल रात कपड़े धोये थे और इतना गर्म मौसम है कि ड्रायर नहीं चलाया। आज बहुत दिन बाद कपड़े पसारे। भोर में छह बजे हवा ठंढी थी। धूप बस निकलने को ही थी। कपड़े पसार कर उन्हें उतारना, तह करना…धूप में सूखे कपड़ों में एक ख़ुशनुमा गंध होती है। जो कि जीवन से चली गई है।
एक समय के बाद हमारी ख़ुशी बड़ी बड़ी चाहनाओं में नहीं, छोटी छोटी ज़रूरतों में बसने लगती है। दोस्त आया था, अभी दो दिन पहले…उससे पूछे, तुम्हें किस चीज़ से ख़ुशी मिलती है। उसने कहा, अभी, इस मोमेंट। मैं हाथ से भात दाल खाना चाहता हूँ। हम पूछे, भात दाल के साथ कौन सी सब्ज़ी…तो कहता है, उबली हुई भिंडी। हमको हमेशा से भात-दाल के साथ भिंडी का भुजिया अच्छा लगता है, लेकिन ये उबली हुई भिंडी तो दिमाग़ में कोई इमेज भी नहीं बना पा रही है। खा के देखना होगा कि ये क्या कॉम्बिनेशन है। पता नहीं लोगों को कैसे जानते हैं और उनके बारे में क्या क्या जानना होता है, लेकिन दोस्ती का एक बहुत ज़रूरी हिस्सा होता है अपने किसी दोस्त को हाथ से बना के खाना खिला सकना। मेरी बेस्ट फ्रेंड स्मृति एक बार हमको छुहारे की खीर खिलायी थी। उस दिन के पहले हम कभी खाये नहीं थे छुहारे का खीर, लेकिन उस दिन के बाद भी कभी ख़ुद से बना के खाये नहीं…मन लौटता रहता है उसके उस दिल्ली वाले फ़्लैट में। प्री-कोविड का समय जब लगता था कि कमसेकम ज़िंदगी में ये चीज़ तो हमेशा रहेगी कि शहर दिल्ली में स्मृति का घर है, अपना घर। लेकिन सब कुछ बदल गया पिछले चार-पाँच सालों में। एक प्यारी दोस्त है, पूजा, जिन दिनों हम चाय नहीं पीते थे, उन दिनों ज़िद करके एक दिन हमको अपने हाथ से बना के अदरक की चाय दी, कि पी ले, मर नहीं जाएगी एक दिन चाय पी लेने से। खाँसी में उसके हाथ की अदरक की चाय सच में बहुत अच्छी लगी। कुणाल के एक दोस्त को मेरे हाथ का आलू-पराठा इतना पसंद है कि जब भी घर आता है, पक्का बनाते hain उसके लिए। पता नहीं हाथ के खाने का स्वाद क्या होता है, लेकिन कुछ तो है जो हम तलाशते रहते हैं। मैं जब मम्मी को बहुत ज़्यादा मिस करती हूँ तो खाना बनाना चाहती हूँ। कि मेरे हाथ से लगभग वैसा खाना बनता है जैसा वो बनाती थी।
घर होता क्या है? What does it mean to feel ‘at home’. हम जो फ़ितरतन बंजारे हैं, कैसे ठहरते हैं किसी जगह…कैसे मानते हैं किसी शहर को अपना घर? कि हमेशा कहीं भाग जाने को जी क्यों मचलता रहता है। हमेशा हमेशा एक बाइक हो, थोड़े से कपड़े हों…एक टेंट हो। हम कहाँ भागना चाहते हैं, और किससे? ऐसा तो नहीं है कि इस शहर में मनुहार करके बहुत लोग मिलते हैं। इस शहर की तन्हाई के बावजूद कहीं भाग जाने को जी क्यों करता है? घर ख़रीदने के नाम से घबराहट क्यों होती है? हम कौन सी ज़िंदगी जीना चाहते हैं? सब कुछ होने के बावजूद वो क्या है जो नहीं है।
जब भी बाइक के बारे में पढ़ती हूँ, मन घबराने लगता है। दूर तक की पहाड़ों की सड़क। दोनों तरफ़ कोई भी नहीं। सिर्फ़ हवा का शोर। जहां पहुँच रहे हैं, वहाँ सारे अजनबी लोग। लिखने को बहुत सारा कुछ। पढ़ने को कुछ कविताओं की किताबें।
Utopia.
My utopia is both time and space. Having a lot of time at my hands. And a space of my own.
February 22, 2024
झूठे क़िस्से - १ हमारे लिए इंतज़ार की यूनिट इन्फ़िनिटी होती है।

बचपन से ही हम अपने आसपास पुनर्जन्म के क़िस्से सुनते-सीखते-समझते बड़े होते हैं। इससे हमें ये तो समझ आ जाता है कि ज़िंदगी में सब कुछ अभी ही जी लेने की हड़बड़ी नहीं है। कुछ चीज़ें हम अगले जन्म के लिए भी छोड़ सकते हैं।
ख़ास तौर से मुहब्बत।
कि बात जब कई जन्मों तक जा सकती है तो हम एक लम्बा इंतज़ार जी लेने में सहज होते हैं। कि हमारे लिए इंतज़ार की यूनिट इन्फ़िनिटी होती है।
***
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।
~ केदारनाथ सिंह
कविताएँ सबसे अच्छी वो होती हैं, जो सुनायी जाएँ। बहुत साल पहले, जब एक वर्चूअल दोस्त से पहली बार मिली थी, तो उसी के मुँह से कवि केदार की ये सुंदर कविता सुनी थी। उस वक्त मुझे लगा था कि यह कविता एक hyperbole है। अतिशयोक्ति अलंकार। किसी का हाथ इतना सुंदर थोड़े हो सकता है कि उसका हाथ थामते हुए हम पूरी दुनिया को उसके हाथों जैसा बना देना चाहें।
हमारी दोस्ती लगभग दो दशक पुरानी थी।
हमारे बीच कुछ नहीं था। चंद आवाज़ों, चिट्ठियों, खामोशियों और एक लम्बे बिछोह के सिवा।
जिनसे हम बहुत कम मिले हों, उनकी बहुत ज़्यादा याद कैसे आती है, मालूम नहीं। याद का सारा हिसाब किताब गड़बड़ ही है।
सर्दियों की एक शाम हम मिले तो चाँद लगभग नया ही था। दिल्ली के पुराने बागों में मंजर की भीनी सी ख़ुशबू थी। सूखे हुए पत्तों पर चलने की चरमराहट और गंध साथ महसूस होती थी। मेरे हिस्से इस महबूब शहर की रातें लगभग कभी नहीं आयी थीं। इसलिए ये ख़ास था। उसके साथ चलते हुए डर नहीं लगता था। न ज़िंदा का, न मरे हुए का। मैं उसे हॉरर नॉवल के बारे में सुना सकती थी। वो मेरी बेवक़ूफ़ी पे हँस सकता था।
उसकी गाड़ी में धूप और सिगरेट के धुएँ की गंध होती थी। Smoke and sunshine. गर्म दोपहरों की। या शायद ये उसकी ख़ुशबू थी। वो मेरे प्रति बहुत उदार था। सदय। मैंने काइंड शब्द का इस्तेमाल उसी से सीखा था। बसंत की किसी शाम उसने मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाया। मैंने सोचा कि उसे जो चाहिए, वो कहता क्यूँ नहीं…सिगरेट, लाइटर, पानी की बोतल। आख़िर उसे क्या चाहिए।
मैंने आने के पहले कहा था, मैं तुम्हारे रोज़मर्रा का ज़रा सा हिस्सा होना चाहती हूँ। तो मैं वही थी। उसके कॉफ़ी कप से ब्लैक कॉफ़ी चखती। उसके ब्रैंड की सिगरेट पीती। उसके इर्द गिर्द रहती, जैसे मेरे इर्द गिर्द मेरे शहर का मौसम रहता है। जाने मेरा शहर कौन सा है। जिसमें मैं रहती हूँ, या जो मेरे भीतर बसता है।
उसने जब मेरा हाथ थामा, तो इतनी बड़ी जिंदगी में मुझे पहली बार महसूस हुआ। कुछ कविताएँ अतिशयोक्ति अलंकार नहीं होतीं। कि ये figurative नहीं, literal कविता थी। कि इतना सुंदर भी किसी का हाथ होता है! नर्म, ऊष्मा से भरे। सफ़ेद, गुदगुदे, जैसे गूँथे हुए आटे की लोई के बने हों। मैंने अपनी ज़िंदगी में इतने सुंदर हाथ कभी भी नहीं देखे थे। छुए नहीं थे। महसूसे नहीं थे। ये कमाल बात थी।
मैं देर तक सोचती रही, एक आदमी में कितना कुछ होता है जो हम एकदम ही नहीं जानते। कि यारी दोस्ती के इतने साल हुए, मैंने कभी सड़क पार करते हुए भी कभी उसका हाथ नहीं थामा है। इतना इंडिपेंडेंट क्यूँ हैं हम।
कि क्या हाथ मिलाने और हाथ थामने में अंतर होता है? कि हम किसी बिछोह से डरते हैं?
मुझे ख़ूब डर लगता है। ख़ूब रोना आता है।
इतना कि दिल्ली गयी तो इस बार मेले के पहले दिन तो यह यक़ीन करते गुजर गया कि ये जो इतने लोग मेरे इर्द-गिर्द हैं, मैं सपना नहीं देख रही। कि मैं सच में झप्पियों वाले इस शहर में हूँ। जो सालों साल मेरी दुखती आत्मा पर मरहम रखता है।
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इश्क़ तिलिस्म में एक हिस्सा है, कि जब इतरां और मोक्ष निज़ामुद्दीन की मज़ार पर जाते हैं। “संगमरमर की जाली पर मन्नत का लाल धागा बांधते हुए इतरां ने महसूसा कि मोक्ष साथ में है तो और कुछ माँगने की इच्छा ही नहीं है। फ़िलहाल को हमेशा में बदलने की कोई ख्वाहिश भी नहीं।”
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सपना था सब। बसंत था। हवा में खुनक थी। पीले फूल थे, तैरते और पैरों तले कुचले जाते हुए भी। क़व्वालियों में मुहब्बत थी। सुकून था। मैंने मज़ार के संगमरमर पे सर रखा। आँखें बंद कीं और पीर से कहा, “मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। कुछ भी नहीं।”
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इन दिनों मेरे पास कहानियाँ हैं ही नहीं। मेरे किरदार ज़िंदगी से लुका-छिपी खेल रहे हैं।
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उसने पूछा, “कुछ कहना बाक़ी तो नहीं रह गया।”
हम क्या कहते उसको। कि इस शहर में हमको दारू चढ़ जाती है पानी पीते हुए भी। कि हम थोड़े से टिप्सी हैं। कि हमको घर के दरवाज़े तक छोड़ दो। कि हम जिस रोज़ से आए हैं दिल्ली, एक ही गाना लूप में सुन रहे हैं, “अभी न जाओ छोड़ के, कि दिल अभी भरा नहीं।”। कि दिल भरा-भरा सा है और ख़ाली ख़ाली भी। कि शुक्रिया। तुम्हारी ज़िंदगी में इतना सा शामिल करने के लिए। ज़रा सी सिगरेट बाँटने के लिए। अपनी ड्रिंक से एक घूँट पी लेने देने के लिए।
कि लौट कर बहुत दुखेगा। लेकिन अभी ठीक है।
कि हम फिर कब मिलेंगे?
कि पिछले बार जब तुम मेरे शहर से लौट रहे थे तो तुमने मेरा माथा चूमा था। तब से ग़म मेरी आँखों का रुख़ करते डरते हैं।
क्या कहूँ उससे। क्या क्या। और कितना?
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उस रात मेरी नींद टूटी तो मेरा दिल बार बार खुद को समझा रहा था। कि गलती हो गयी। माफ़ी माँग रहा था। सब कुछ गड्ड-मड्ड था। सच। सपना। नींद। मृत्युतीत।
Indefinite goodbyes.
The stupid heart doesn’t even know.
If it wants to you love you a little less. Or love you a little more.
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My heart is the absolute unit of idiocy.
My head is a cacophony…a memory of my French classes taken long ago. A group of people trying to learn the right way to say, “I am very sorry”. It’s a soft chorus, everyone wants to feel it right too. They mumble and keep repeating, “Très désolé, Très désolé, Très désolé.”
It’s 4:30 am. I see a slightly foggy Delhi night from the balcony. My eyes are hurting. It’s a soul ache.
I’m up because my heart has become the same cacophonous class, softly mumbling to comfort itself.
Très désolé, I am in love.
‘I am very sorry, I am in love.’
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बहुत देर से मिले हो तुम।
लेकिन बहुत सब्र है मुझमें। मिलना फिर। किसी जन्म। लेकिन अगली बार इतनी देर से मत मिलना। और अगली बार इतनी कम देर के लिए मत मिलना। ज़्यादा ज़्यादा मिलना। रहना। रुकना।
बस।
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अगर मुहब्बत कोई मौसम है, तो तुम मेरा बसंत हो।
January 19, 2024
ये क़त्ल-ए-ख़ास था।
जिस दुनिया में औरतों को इंसान होने भर की इजाज़त नहीं मिलती। उसे उसी दुनिया में ईश्वर होना था। ऐसा ईश्वर जिसे पाप का भय नहीं था। कृष्ण की तरह। ‘तुम सब छोड़ कर मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारे सारे पाप क्षमा करता हूँ।’
सारे इकट्ठा हुए पाप जाते कहाँ थे? क्या उसकी दुनिया का चित्रगुप्त दारू पी कर हिसाब में गड़बड़ कर रहा था?
अजीब दुनिया थी। सब उलट-पलट था जहाँ। वो कहकाशां को हुक्म देती तो उसके पैरों के नीचे घास के गलीचे की जगह बिछ जाता।
उम्र भर हुस्न की जिस खुख़री को उसने अपने गले पर रखा हुआ था कि जान दे देंगे, मर जाएँगे। आख़िर को उसे समझ आ गया कि उसके जान देने से किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता…तो उसने बस इतना किया कि खुख़री अपनी गर्दन से हटा ली और हाथ में थाम ली…
ये क़त्ल-ए-ख़ास था।
सिर्फ़ बहुत ख़ास लोगों को उसके हाथों, उस बदन की धारदार खुख़री से कट कर मर जाने का सौभाग्य मिलता था। उसके हाथों में सुलगायी सिगरेट से दागे जाने को लोग क़तार लगा कर खड़े रहते।
‘तुम कोई दाग तो दे दो, कि तुम्हें याद रख सकें!’ उसके प्रेमी उसके पास ब्रेख़्त के गोदने गुदवाए आते, “what’s left of kisses, wounds however leave scars”. औरत को रूह पर ज़ख़्म देने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने प्रेमियों के बदन के तिलिस्म को तोड़ा…वहाँ उसके दांतों के निशान थे, “you hurt me here”. ये नॉर्मल हिकी नहीं थी कि पंद्रह दिन में मिट जाती…ये जन्मपार के ज़ख़्म थे। लोग कई जन्मों तक उन birth marks के साथ पैदा होते। उसके होठों ने जिसे छू लिया होता, उसकी रूह का एक हिस्सा उस ज़ख़्म को अपने भीतर संजो के रख लेता। कि उसे पास देने के लिए प्रेम था ही नहीं, सिर्फ़ ज़ख़्म थे और दुःख था।
दुःख कि जो गाइडेड मिसाईल की तरह कई जन्मों तक पीछे लगा रहता। नवजात के जन्मते ही लोग सीना देखते, वहाँ टहकता हुआ ज़ख़्म होता। अधूरे इश्क़ का।
जिन्होंने भी उसे कभी भी छुआ होता, उनपर दाग होता। सिगरेट पीने वालों की उँगलियाँ सियाह होतीं। चूमने वालों के होंठ। और जो बदनसीब उसके साथ हमबिस्तर हुए होते, वे हिजड़े पैदा होते। कि उन्हें उसके बाद किसी औरत के साथ जिस्मानी सम्बंध बनाने का सुख मिलता ही नहीं।
जिन्हें उसने छुआ भी नहीं, सिर्फ़ बहुत क़रीब से देखा हो, वे ऐल्बाइनो पैदा होते। उनके बदन में कोई स्याह रंग होता ही नहीं। वे इतने सफ़ेद होते कि उमर भर धूप से भागे भागे फिरते। रात में ही देख पाते वे दुनिया अपनी लाल-लाल आँखों से। रात के इन बाशिंदों से धूप की कोई राजकुमारी कभी प्यार नहीं करती फिर।
उसके साथ सिगरेट पिए लोगों को आग से इतना डर लगता कि वे शादी की रस्म तक नहीं निभा पाते कभी। अग्नि के फेरे लेने के नाम से उन्हें भय ऐसा दबोचता कि वे अविवाहित ही नहीं कुँवारे रह जाते।
ऐसी औरत सिर्फ़ कहानियों में ज़िंदा रह सकती थी। लेकिन लड़की के पास इतना समय कहाँ कि जिलाए उसे साँस साँस। रचे उसके लिए प्रेमी। बनाए शहर। लिखे मौसम। तो कहानियों की ये औरत पैदा होने के पहले मर जाती। जबकि, क़सम से, लड़की चाहती कि इस औरत के सफ़ेद होते बालों को को देखे और पूछे उससे ही...कहाँ से आती है उत्कट जिजीविषा? प्रेम के सिवा जीवन का कोई और अर्थ है भी?
December 9, 2023
अधूरी कहानियों के सल्तनत की शहज़ादी

उम्र का तक़ाज़ा है। हम बहुत कुछ भूलने लगे हैं। चीज़ें कहीं रख कर भूल जाना। शहरों में अकेले जाती और अकेले लौटती हूँ तो कोई कमरे से निकलते हुए नहीं कहता, ठीक से देख लो, कुछ छूट तो नहीं गया। हम उन शहरों में छूटे हुए रह जाते हैं। कभी रातें छूट जाती हैं, कभी सुबह। कभी कोई मौसम रह जाता है बिना ठीक से देखे हुए। हम उस अनदेखे मौसम को अपने कपड़ों में टटोलते रहते हैं…कि सिल्क की इस साड़ी को तो उस शहर की आख़िरी डिनर पार्टी में पहनना था। कैसे भूल गयी मैं। बहुत साल पहले एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें दो लोग एक साथ चल रहे थे। ठंढ के दिन थे इसलिए लड़के ने लड़की का हाथ पकड़ पर अपनी कोट की जेब में रख लिया। वह लड़की जब उसके जीवन से जा चुकी थी, तब भी उसके उस कोट में उसे लड़की का हाथ महसूस होता था।
मैंने उसे पहली बार देखा तो उसने काला कोट पहना हुआ था। उसके इर्द गिर्द वसंत की ख़ुशबू थी। आसमान में मेरी पसंद के फूल खिले थे। उसके पैरों तले घास का ग़लीचा था। मैं उसे दुनिया से छुपा कर देखना चाहती थी, इसलिए मैंने हम दोनों के इर्द गिर्द धुएँ का एक पर्दा खींच दिया। मैं भूल गयी हूँ कि मैं उससे पहली बार कितने साल पहले मिली थी। कि पहली बार मिलते हुए ऐसा लगा कि मैं उसके इर्द गिर्द हमेशा से रही हूँ। उस छूटी हुयी सिगरेट की तरह जो बेहद ख़राब आदत थी।
उसकी सिफ़ारिश करते हुए उसके एक परिचित ने कहा कि वो अच्छा आदमी है। उसका परिचित शायद अच्छा आदमी रहा होगा। अच्छे आदमी दूसरे अच्छे आदमियों की यह कह कर तारीफ़ करते हैं कि वो अच्छा आदमी है। ख़राब लेखक, ख़ूबसूरत महबूब को दिल और क़िस्सों में बसाए रखते हैं, उसके अच्छे या ख़राब आदमी होने से बेपरवाह।
***
यह शहर बेहद ठंढा है। इसकी तासीर भी और इसका मौसम भी।
आजकल तो टेम्प्रेचर-कंट्रोल्ड स्विमिंग पूल का पानी भी ठंढा रहता है।
मुझे फ़ुरसत मिली तो मैंने धुएँ से रचे हाथ से सिगरेट छीन के पीने वाले दोस्त। कि उँगलियों में उलझ जाए उनकी बदमाशी, आँख में ठहर जाए उनकी मुस्कान। हम सोचते रह जाएँ कि ख़ूबसूरती का गोदाम तो आज ही शाम को हमने लूटा है, तो फिर आज इस ख़ुराफ़ाती के चेहरे पर इतनी रौशनी कैसे है। हम मजाज़ का शेर भूलना चाहते हैं सड़क क्रॉस करते हुए ही, “हुस्न को शर्मसार करना ही इश्क़ का इंतिक़ाम होता है।”
***
वैसे तो आज क़ायदे से इक आध छोटा मोटा गुनाह कर लेना चाहिए।
क्या है न…आज मेरे उस नालायक दोस्त का जन्मदिन है, जो भगवान क़सम, इतना भला है कि हरगिज़ कभी नरक नहीं जाएगा। उसके बिना तो हमारा मन लगेगा ही नहीं। तो ऐसा करते हैं, आज कुछ गुनाह कर लेते हैं, और उसके बही-खाते में लिखवा देते हैं, बतौर तोहफ़ा…कि तुमसे तो होगा नहीं। दोस्त आख़िर होते किस लिए हैं। इतना सारा अधूरा इश्क़ कर कर के छोड़े हो इस जन्म, सब को मुकम्मल करने के लिए मल्टिपल जन्म तो लेना ही होगा तुमको।
***
अधूरी कहानियों की एक सल्तनत थी। वहाँ की एक शहज़ादी थी। जिसके इर्द गिर्द कच्ची कहानियों के मौसम रहते थे। उसकी ज़ुबान पर टूटी-फूटी शायरी के मिसरे भटकते रहते थे। कभी कुछ पूरा नहीं करती। उसका दिल भी क़रीने से ठीक ठीक पूरा टूटा नहीं था।
वहाँ कुछ क़िस्से लूप में चलते थे, कुछ गाने लूप में बजते थे और कुछ लोगों को उमर भर उन्हीं लोगों से बार बार प्यार होता रहता था, जिनसे एक बार भी नहीं होना चाहिए था।
November 16, 2023
Emotional anaesthesia
