Puja Upadhyay's Blog, page 24

November 22, 2015

द राइटर्स डायरी: जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?

इस साल मैंने लगभग ८६००० किलोमीटर का सफ़र तय किया है. कई सारे शहर घूमे हैं. कितनी सड़कें. कितने लोग. कितने समंदर. नदियाँ. झीलें. मुझे लोगों से बात करना पसंद है. मैं उन्हें खूब कहानियां सुनाती हूँ. उनके खूब किस्से सुनती हूँ. ---
बचपन का शहर एक पेड़ होता है जिसकी जड़ें हमारे दिल के इर्द गिर्द फैलती रहती हैं. जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है हम इन जड़ों की गहराई महसूस करते हैं. इन जड़ों में जीवन होता है. हम इनसे पोषित होते हैं. घर. होता है. घर की जड़ें होती हैं. तुम कहाँ के रहनेवाले हो...के जवाब वालीं. हमारा गाँव दीनदयालपुर है. हम देवघर में पले-बढ़े. पटना से कॉलेज किये. दिल्ली से इश्क़ और मर जाने के लिए एक मुकम्मल शहर की तलाश में हैं. कई सारे शहर मुझ से होकर गुज़रे इन कई सालों में. मुझे सफ़र में होना पसंद है. सफ़र के दरमयान मैं अपने पूरे एलेमेंट्स में होती हूँ. बंजारामिजाजी विरासत में मिली है. पूरी दुनिया देख कर समझ आया कि एक दुनिया हमारे अन्दर भी होती है. जहाँ हर शहर अपने गाँव की कोई याद खींचे आता है. रेणु का लिखा इसलिए रुला रुला मारता है कि उसमें भागलपुरी का अंश मिलता है. इसलिए मेरे पापा मेरी पूरी किताब पढ़ते हैं तो उन्हें याद रहता है गाँव...अदरास...इसलिए जब विकिपीडिया पर पढ़ती हूँ कि अंगिका लुप्तप्राय भाषा की कैटेगरी में है तो मेरे अन्दर कोई गुलाब का पौधा मरने लगता है. अगर मेरे बच्चे हुए तो उन्हें कैसे सिखाउंगी अंगिका. उनकी पितृभाषा होगी अंगिका. मैं क्या दे सकूंगी उन्हें. हिंदी और अंग्रेजी बस. इनमें खुशबू नहीं आती. मैं कैसे बताऊँ उस छटपटाहट को कि जब कोई डायलॉग मन में तो भागलपुरी में उभरता है मगर उसको आवाज़ नहीं दे सकती कि मेरे पास शब्द नहीं हैं. कि मैं न अपनी दादी के बारे में लिख पाउंगी कभी न नानीमाय के बारे में. मैं अपना गाँव देखती हूँ जहाँ अधिकतर कच्चे घर अब पक्के होते गए हैं और उनमें बड़े बड़े ताले लटके हुए हैं. हाँ, गाँव का कुआँ अब सूखा नहीं है. बड़ा इनारा अब कोई जाता नहीं पानी लेने के लिए. सबके घर में बिजलरी की बोतल आ गयी है. दूर शहर में रह कर गाँव के लिए रोना बेईमानी है. मगर याद आता है तो क्या करूँ. जितना सहेजना चाहती हूँ न सहेजूँ? पापा को बोलते हुए सुनती हूँ तो कितने मुहावरे, रामायण की चौपाइयां, मैथ के इक्वेशन सब एक साथ कह जाते हैं...रौ में...उनकी भाषा में कितने शब्द हैं. मैंने ये शब्द कैसे नहीं उठाये...कहाँ से तलाशूँ. कहाँ पाऊँ इन्हें.
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किसी को एक कहानी सुना रही थी, 'हूक' पर अटक गयी. हूक किसे कहते हैं. मैं मुट्ठी भर अंग्रेजी के शब्दों में उसे कैसे बताऊँ कि हूक किसे कहते हैं. ये शब्द नहीं है. अहसास है. उसने किया होगा कभी इतनी शिद्दत से प्रेम कि समझ पाए हूक को?
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तुम्हारी किसी कविता को पढ़ कर जो 'मौसिम' विलगता है मन में...'विपथगा' का मतलब भूलती हूँ मैं...और माँ के हाथ के खाने के स्वाद को कहते हैं हूक. कहाँ से समझाऊं मैं उसे. मुझसे फोन पर बात कर रहा होता है और पीछे कहीं से उसकी माँ पुकार रही होती है उसको, 'आबैछियो', चीखता है वो...मैं हँसती हूँ इस पार. जाओ. जाओ. किसी बेरात दुःख या ख़ुशी पर माँ की याद चुभती है. सीने में. शब्द है 'माय गे...कुच्छु छै ऐखनी घरौ मैं...बड्डी भूख लग्लौ छौ'. हूक. चूड़ा दही का स्वाद है. भात खाते हुए आधे पेट उठना है कि माँ के सिवा किसी को मालूम नहीं कि हमको कितने भात का भूख है.
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हम जिस शहर लौट कर जाना चाहते हैं, वहाँ जा नहीं सकते...क्यूंकि वो शहर नहीं, साल होता है. सन १९९९. फरवरी.
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हूक तुमसे कभी न मिलने का फैसला है. इश्क़ से की गयी वादाखिलाफी है. तुम्हारी हथेली में उगता एक पौधा है...कि जिसकी जड़ों की निशानी हैं रेखाएं...जिनमें न मेरा नाम लिखा है न चेहरा.
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तुमसे मिले बिना मर जाने की मन्नत है. बदनसीबी है. दिल के पैमाने से छलकता मोह है. ---तुम्हें दफ्न करने के बाद कितने शहर दफन किये उस मिट्टी में. कितने समन्दरों से सींचा दिल का बंजर कोना मगर उसे भी रेगिस्तान बनने की जिद है. कितना कुछ समेटती रहती हूँ शहरों से. क्राकोव में एक कब्रिस्तान देखा था. वहाँ लोग छोटे छोटे पत्थर ला के रख जाते थे कब्रों पर. उनकी याद की यही निशानी होती थी. गरीबी के अपने उपाय होते हैं. तुम्हारी कब्र पर याद का ऐसा ही कोई भारी पत्थर है. शहरों से पूछती हूँ तुम्हारा पता. बेहद ठंढी होती हैं दुनिया की सारी नदियाँ. उनपर बने कैनाल्स पर के लोहे के पुल दो टुकड़ों में बंटते हैं...बीचो बीच ताकि स्टीमर आ जा सके. मैं बर्फीले पानी में अपनी उँगलियाँ डुबोये बैठी हूँ. सारा का सारा फिरोजी रंग बह जाए. सुन्न हो जाएँ उँगलियाँ. फिर शायद तुम्हें पोस्टकार्ड लिखने की जिद नहीं बांधेंगी.  काश तुम्हें भूल जाना भी लिखना भूल जाने जितना आसान होता.
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तुम मेरी जड़ों तक पहुँचते हो. मुझे मालूम नहीं कैसे. तुम्हारे शब्दों को चख कर गाँव के किसी भोज का स्वाद याद आता है. पेट्रोमैक्स और किरासन तेल की गंध महसूस होती है उँगलियों में. अगर नाम कोई बीज होता तो कितने शहरों में तुम्हारी याद के दरख़्त खड़े हो चुके होते.
तुम्हें पढ़ती हूँ तो हूक सी उठती है. और मैं साँस नहीं ले पाती. ---
तुम्हारी सिगरेट के पैकेट में दो ही बची रह गयी हैं. जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?
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इधर बहुत दिनों से किसी चीज़ की फुर्सत नहीं मिली है. सोचने भर की नहीं. आज जरा इत्मीनान है. जाने क्यूँ मौत के बारे में सोच रही हूँ.
कि मैं किताबें पढ़ते हुए मर जाना चाहूंगी.
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Published on November 22, 2015 10:07

November 20, 2015

हमारी एक ही रकीब है...मौत

'ब्रितानी साम्राज्य के बारे में तो पढ़े हो ना बाबू, कि ब्रितानी साम्राज्य में कभी सूरज डूबता ही नहीं था...वैसा ही है हमारे शहज़ादे की सल्तनत...दिन या रात का कोई भी लम्हा ले लो...दुनिया के किसी छोर पर उनके सल्तनत का कोई बाशिंदा, उनके इश्क में गिरफ्तार...उनकी याद में शब्दों के बिरवे रोप रहा होगा...'
'ये आपको कैसे पता मैडम जी?'
'अरे मत पूछो बाबू...बहुत झोल है इस कारोबार में...हम पहले जानते तो ये इश्क की दुकानी न करते...खेत में हल चला लेते, छेनी हथौड़ी उठा लोहार बन जाते...आटा चक्की भी चला लेना इससे बेहतर है...ये इश्क मुहब्बत के कारोबार में घाटा ही घाटा है...आज तक कभी धेले भर कि कमाई भी नहीं हुयी है. दुनिया भर में रकीब भरे हुए हैं सो अलग.'
'जो मान लो आपको धोखा हुआ हो तो?'
'ना रे बाबू...ई रूह की इकाई है...इसके नाप में कोई घपला नहीं है. रकीबों के कविता में मीटर होता है न...मीटर समझते हो?'
'वही जो ग़ज़ल में होता है...वैसा ही कुछ न?'
'हाँ बाबु...वही...तो जब भी हमारा कोई रकीब कविता लिखता है...तो हमारा दिल उसी मीटर से धड़कने लगता है...१-२-१-२ या कभी छोटी बहर हुयी तो बस २-२ २-२.'
'छोटी बहर?'
'मुन्नी बेगम को सुना है?
अहले दैरो हरम रह गये | तेरे दीवाने कम रह गए
बेतकल्लुफ वो गैरों से हैं | नाज़ उठाने को हम रह गए'
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उस दिन के पहले कभी उन्हें गाते नहीं सुना था. तेरह चाँद की रात थी. मैडम जी कहती थीं कि तेरह नंबर बार बार उनकी जिंदगी में लौट कर आता है. चाँद को पूरा होने में कुछ दिन बाकी थे. उनके गाने में उदासी भरी खनक थी. जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाले लोग खुल कर उदास भी कहाँ हो पाते हैं. मैं सोचता था कि मैडम जी के कैलेण्डर में अमावस्या कभी आती भी होगी कि नहीं. उनकी हँसी में इक जरा सी फीकी उदासी का शेड हुआ करता था और उनकी गहरी उदासी में भी मुस्कुराहटों का नाईट बल्ब जलता था...ज़ीरो वाट का...उससे रौशनी नहीं आती...रौशनी का अहसास होता है.

मैडम जी बहुत खुले दिल की हैं. उनके सारे मातहत बहुत खुश रहते हैं. यूं समझ लो, लौटरी ही निकलती है उनके साथ काम करने की...कभी किसी से ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं की है. पूरे डिपार्टमेंट में किसी ने उन्हें चिल्लाते नहीं सुना है. अभी पिछले साल फिर से उन्हें जिले को बेस्ट एडमिनिस्ट्रेटेड डिस्ट्रिक्ट का अवार्ड मिला है. इतनी कम उम्र में, औरत हो कर भी ऐसा मुकाम कि बड़े बड़े सोचते रह जायें. जिस इलाके में जाती हैं लोग उनके कायल हो जाते हैं. हर जगह फब जाती हैं...हर जगह घुल जाती हैं. हमारी मैडम जी, क्या बताएं शक्कर ही हैं...मीठी एकदम. उनके रहते किसी चीज़ की चिंता की जरूरत नहीं. अभी पिछले महीने बेटे के कॉलेज की फीस देनी थी...जब जगह से इंतज़ाम करने के बाद भी दस हज़ार रुपये कम पड़ रहे थे. आखिरी दिन था. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. बेखयाली में सुबह से काम गलत सलत हुए जा रहे थे. कभी फाइल में गड़बड़ कर देता कभी लंचबौक्स किसी और जगह भूल आता. मैडम जी ने खाना खाने के बाद बुलाया और खुद पूछा कि बात क्या है. पैसों का सुन कर थोड़ा सा हँसी...मगर ये मज़ाक उड़ाने वाली हँसी नहीं थी कि चुभ जाती...ये बचपने वाली हँसी थी...जैसे बचपन में माँ को हँसते हुए सुना था कभी कभी.

'तुम गज़ब बकलोल हो रे...दुनिया में इतना बड़ा बड़ा आफत सब है और तुम ई जरा सा दस हज़ार से लिए सुबह से बौरा रहे हो...इस मुसीबत का तो सबसे आसान उपाय है न. पैसे दे देंगे तो कोई दिक्कत नहीं होगी ना? हमको जब बेमौसम ताड़ का कोआ खाने का मन होता है तो तुमको मालूम होता है न कि कौन जगह जा के मिलेगा जाते सीजन में...हम बोलते हैं तुमको तो ला के देते हो कि नहीं? तो तुमको कुछ चाहिए तो हम हैं न तुम्हारे लिए. तुमको का लगता है जी...खाली सैलरी के लिए तुम काम करते हो कि हमारे लिए काम करते हो?'

एक बार जो मैडम जी के साथ काम कर लिया हो उसका फिर किसी के साथ काम करना मुश्किल ही होता था. डिपार्टमेंट के बाकी बाबूसाहब लोग बंधुआ मजदूर की तरह ट्रीट करते थे. हमारा भी जी है ऐसा कहाँ सोचा होगा कोई. उनके लिए तो बस अर्दली हैं हम. उनके हिसाब से सोना-जागना-खाना-पीना सब. यही सब काम हम मैडम जी के लिए भी करते थे लेकिन प्यार का दो बोल में बहुत अंतर हो जाता है. सरकार सैलरी देती थी लेकिन हमारे लिए तो सरकार मैडम जी ही...और कोई सरकार हम कभी जाने नहीं.
एक दिन ऐसे ही इवनिंग कॉलेज के फॉर्म्स ले आयीं कि तुम एडमिशन ले लो. पढ़ाई में हम तुम्हारा हेल्प कर देंगे. बारवीं पास के लिए दुनिया बहुत छोटी है. ग्रेजुएट हो जाओगे तो बहुत दूर तक जा सकोगे. होशियार तो तुम बहुत हो, हमको दिखता है साफ़. जिन्दगी भर यही चौथी ग्रेड का काम थोड़े करोगे...कल को शादी होगा...बच्चे होंगे...जरा आगे बढ़ जाओगे तो समाज में इज्जत बढ़ेगा, उसपर लड़की अच्छी मिलेगी सो अलग. हमको उस समय तो पढ़ना आफत ही लग रहा था...लेकिन मैडम जी कभी दिक्कत होने नहीं दीं. मेरा क्लास शुरू होते ही खुद से ड्राइव करके घर जाने लगी थीं. डिपार्टमेंट में बहुत बार लोग दबे मुंह बोला भी कि रात बेरात समय ठीक नहीं है...कोई दुर्घटना हो गया तो कौन जिम्मेदारी लेगा. मैडम जी को लेकिन मुंह पर बोलने का हिम्मत तो दुनिया में किसी को था नहीं. मैडम जी अपने लिए एक लाइसेंसी रिवोल्वर खरीद लायीं. रात को प्रैक्टिस करतीं तो पूरा मोहल्ला गूंजा करता. बड़े बाबू एक बार मैडम को समझा रहे थे कि अकेले रात को ड्राइव करना सुरक्षित नहीं है अकेली औरत के लिए. मैडम जी बोलीं कुछ नहीं. रिवोल्वर निकाल कर डेस्क पर रख दिहिस कि ई हम्मर पार्टनर है...'कोल्ट...सिंगल एक्शन आर्मी', इससे ज्यादा केपेबल कोई आदमी है आपके पास तो बतलाइये...हम उसको साथ लेकर चला करेंगे. अब जेम्स बौंड ही आ जाए लड़ने तो पहले शायद उसको घर बिठा के ग़ज़ल सुनवाना पड़ेगा...लेकिन उसके अलावा हम सब कुछ हैंडल कर सकते हैं'.

मैडम जी में खाली टशन नहीं था. मर्द का कलेजा था उनका. बिना आवाज़ ऊंची किये अपनी बात दमदार तरीके से रखना हम उनसे सीखे हैं. कभी उनको लगा ही नहीं कि औरत होना कोई कमजोरी भी है. और लगता भी क्यूँ. उनके पिताजी आर्मी में कर्नल थे. शेरदिली उनको विरासत में मिली थी. बाकी मार्शल आर्ट्स ट्रेनिंग तो थी ही...उसपर रही सही कसर रिवोल्वर ने पूरी कर दी...उनसे जो भिड़ने आये भगवान् ही बचा सकता है उसको. 
देखते देखते दिन निकल गए. एक्जाम में हम डिस्टिंक्शन से पास हो गए. रिजल्ट लेकर मैडम जी के पास आये तो बोलती हैं अगले महीने प्रोमोशन के लिए अप्लाई कर दो अब से जान धुन कर पढ़ो. एक्जाम के पहले एक महीना का छुट्टी हम सैंक्शन कर देंगे. अफसर बनने का ख्वाब पहली बार मैडम जी ही रोपीं थीं आँख में. उन दिनों तो बस गाँव भर में में एक आध ही लोग बन पाए थे अफसर. मैं दिन दिन भर ऑफिस में खटता और फिर शाम होते ही मैडम जी लालटेन साफ़ करवा कर बैठकी में मेरी किताबें जमा करवा देतीं. ऐसी पर्सनल कोचिंग किसी को भी क्या मिली होगी. उनपर जैसे धुन सवार थी. किसको जाने क्या प्रूव करना था. 
साल में लगभग तीन चार बार उनके नाम किसी अस्पताल से ख़त आते. हमेशा गहरे नीले लिफ़ाफ़े में. जब भी ये ख़त आते मैडम जी जरा उदास रंगों के कपड़े पहनने लगतीं. घर में गज़लें बजतीं. फीका खाना बनवातीं. न मसाला. न हल्दी. बड़े मनहूस ख़त होते थे. उन दिनों मैडम जी सिर्फ ओल्ड मौंक पिया करती थीं. देर रात जागती रहतीं और सिगरेट के डिब्बे खाली होते रहते. उन्हीं दिनों मैंने उन्हें पहली बार बौक्सिंग प्रैक्टिस करते भी देखा था. अजीब जूनून चढ़ता था उनपर. आँखों में खून उतर आता. फिर एक दिन अचानक से देखता कि सुबह सुबह उन्होंने कोई सुर्ख गुलाबी साड़ी पहनी है. सूजी हुयी आँखों पर काला चश्मा चढ़ा लिया है. मैं जान जाता था कि मौसम बदल दिए गए हैं. अब अगली नीली चिट्ठी तक सब ठीक चलेगा. 
उस दिन एक्जाम देकर लौटा था. मूड अच्छा था. महीने भर से पागलों की तरह पढ़ रहा था. लौटते हुए मैडम जी के लिए रजनीगंधा के बहुत से फूल ले लिए. मैडम जी को खुशबूदार फूल बहुत पसंद थे. बहुत सी उनके पसंद की सब्जियां भी खरीद लीं...कि आज तो दो तीन आइटम बनायेंगे. ठेके पर से विस्की का अद्धा लिया कि आज तो मूड अच्छा ही होगा मैडम जी का...आराम से विस्की पियेंगी और खाना खायेंगी. पेपर अच्छा हुआ था तो लग रहा था कि शायद अफसर बन ही जाऊं. ख़ुशी ख़ुशी उनके घर का गेट खोल कर अन्दर घुसने को था कि पोर्टिको में गाड़ी लगी देखी. मैडम जी जल्दी घर आ गयीं थीं. घर की ओर आ ही रहा था कि मुन्नी बेगम की आवाज़ कानों में पड़ी, 'हम से पी कर उठा न गया, लड़खड़ाते कदम रह गए'. सत्यानाश! नीले लिफाफे को आज ही आना था. मनहूस. 
कॉल बेल पर ऊँगली रखते ही मैडम जी का ठहाका गूंजा और मैं जान गया कि टेप नहीं बज रहा...मैडम जी खुद गा रही थीं. दरवाजा किसी लड़के ने खोला. कोई पंद्रह साल उम्र रही होगी उसकी. मैडम जी ने बताया कि ये छोटे शाहज़ादे साहब हैं. दुनिया को अपने ठेंगे पर रखते हैं. बड़े होकर एस्ट्रोनॉट बनेंगे. फिलहाल किसी तरह मैनेज कर रहे हैं इस दुनिया को...जल्दी ही इनके पास इनका अपना स्पेसशिप होगा...इन्होने प्रॉमिस किया है कि हर प्लैनेट पर एक पोस्टऑफिस खोलेंगे और मुझे बहुत सारे पोस्टकार्ड भेजेंगे. मैंने उतना टेस्टी खाना अपनी जिंदगी में फिर कभी नहीं खाया है. रात को हँसी ठहाके गूंजते रहे. छोटे शाहज़ादे साहब अपने नानाजी के किस्से सुना रहे थे...अपनी मम्मा के किस्से सुना रहे थे और बस पूरी रात किस्सों-कहानियों में गुज़र गयी. मैंने चैन की साँस ली कि मैं फालतू घबरा रहा था.

मगर ये तूफ़ान से पहले की शांति थी.

इस बार कई कई कई दिनों तक घर में मुन्नी बेगम गाती रहीं. ग़ज़ल का एक एक शेर...एक एक शब्द याद हो गया था मुझे...गाना शुरू होने के पहले का संगीत...बीच का संगीत...सब कुछ...मैडम जी ने शायद खाना खाना कम कर दिया था. कुक रोज झिकझिक करती थी...कुछ तो खाया करो दीदी...ऐसे जान चला जाएगा. मैं अपनी आँखों के सामने उनको टूटते देख रहा था. वो आजकल बात भी कम किया करती थीं. ऑफिस का काम ख़त्म और मैं अपने घर वापस. रिजल्ट आने में अभी एक हफ्ता बाकी था. उस दिन बहुत खोज कर ताड़ का कोआ लेते आया कि मैडम जी शौक़ से कुछ तो खायेंगी. के जो भी बात उन्हें अंदर अन्दर खाए जा रही थी...अब उसके असर बाहर भी दिखने लगे थे.
'तो नीले लिफाफों में क्या आता है मैडम जी?'
'लिफाफों में उनकी कवितायें, गजलें, नज्में, कहानियां...जो कुछ भी उन्होंने लिखा होता है नया वो आता है. हर बार एक नए रकीब का चेहरा आता है...शाहज़ादे की मुहब्बत कुबूलनामा आता है इनमें'
'मगर वो आपको क्यूँ भेजते हैं ये सब...उन्हें मालूम नहीं होता कि आपको तकलीफ होती है'
'अरे बाबू, शाहज़ादे को इतनी फुर्सत कहाँ...इतनी फिकर कब...ये तो मैंने एक जासूस बिठा रखा है...वही भेजता रहता है मुझे ये सब...मर जाने का सामान'
'लेकिन मैडम जी, शहजादे को कभी आपसे इश्क था न?'
'अरे न रे पगले...कभी सुना है कि चाँद को इश्क़ हुआ है किसी से?, उनकी चांदनी में भीगे हुए खुद का अक्स देखा था आईने में एक बार...खुद से ही इश्क़ हुआ था उन दिनों...बस उतना ही था...सुन रहे हो, मुन्नी बेगम हमारे दिल का हाल गा रही हैं, 'देख कर उनकी तस्वीर को, आइना बन के हम रह गए'.

डॉक्टर कहते हैं उस रात उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा था. हॉस्पिटल में एडमिट कर के हफ्ते भर ऑब्जरवेशन कह दिया डॉक्टर ने. मेरा जोइनिंग लेटर भी मैडम जी के पते पर ही आया. लेटर बौक्स में एक नीला लिफाफा भी पड़ा था. दिल तो किया कि उसे वहीं आग लगा दूं. यूं ही कम आफत पड़ी है मैडम जी पर जो ये नीला लिफाफा और दे दूं उनको. कहीं कुछ हो गया तो क्या कह के खुद को माफ़ करेंगे.

हॉस्पिटल में उन्हें देखा तो वो करीबन खुश लग रही थीं. चेहरे की चमक लौट आई थी. नर्सेस से छेड़खानी कर रही थीं. मेरा ज्वायनिंग लेटर देख कर वो ख़ुशी से पगला गयीं...डॉक्टर्स तो घबरा गए कि उन्हें ख़ुशी के मारे हार्ट अटैक न आ जाए. मगर फिर उन्होंने नीला लिफाफा देखा और ख़ुशी जैसे फिर से हॉस्पिटल के उदास पर्दों के पीछे कहीं दुबक गयी. इस बार मैडम जी ने लिफाफा खुद नहीं खोला...मुझे दे दिया कि खोल कर पढ़ो. ख़त में दिल तोड़ने वाली इक नज़्म लिखी थी...कि अब लौट आओ...तुम्हारे बिना यहाँ जी नहीं लगता. ख़त पर तारीख साल २००५ की थी. मैंने कहा कि आपके शाहज़ादे इतनी बेख्याली में लिखते है कि दस साल पहले की तारीख डाल देते हैं. मैडम जी हमारी बात पर मुस्कुरा रही थीं...वही मुस्कराहट जिसमें एक छटांक भर ज़ख्म झलक जाता है...
'बाबु, हमारी एक ही रकीब हो सकती थी, वही एक रही है. मौत. किसी और की औकात जो हमारे होते शहज़ादे को अपने ख्यालों में भी सोच ले...कसम से सपनों में घुस के मारते'
'और शहजादे?'
'को गए हुए पंद्रह साल होने को आये, जीने के लिए कुछ खुशफहमियां चाहिए होती हैं. उन दिनों डिलीवरी होने वाली थी...और मेरी हालत देख कर डॉक्टर्स ने मुझे डिनायल में रहने दिया...मैंने उनकी डेड बॉडी तक नहीं देखी...शायद इसलिए आज तक कभी यकीन भी नहीं हुआ कि वो नहीं है इस दुनिया में...हम खुद को दिलासे देते रहते हैं कि वो किसी और के पहलू में हैं...कभी उठ कर हमारी चौखट पर दुबारा आयेंगे'
'तो शहजादे को आपसे इश्क था?'
'बेइंतेहा'
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ग़ज़ल ख़त्म होने को थी...लूप में फिर से प्ले होने के पहले...मुन्नी बेगम गा रही थीं...मुकम्मल...'पास मंजिल के मौत आ गयी, जब सिर्फ दो कदम रह गए'. ---
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Published on November 20, 2015 00:30

November 16, 2015

मुराकामी, मोने और जरा मनमर्जियाँ

मेरे गूगल मैप्स में एक दिन की हिस्ट्री उभर आई. मेरी करेंट लोकेशन से तुम तक पहुँचने में बहुत से देश...बहुत सा समंदर...बहुत से रास्ते लांघने पड़ते...गूगल कह रहा था...नो डायरेक्ट रूट फाउंड...सही ही तो है न. तुम तक पहुँचने का कोई सीधा रास्ता तो है नहीं.
बहुत से दुःख. बहुत सी उलझन. बहुत सी खुशफहमियों को छू कर गुज़रता है तुम तक पहुँचने का रास्ता. इसमें अवसाद के नीले दिन भी आते हैं...चुप्पी की गहरी खाई भी आती है...नमक भरा आँसुओं का समंदर भी आता है...हिचकियों के ऊंचे पहाड़ भी आते हैं...मगर बात है कि इन सब हादसों से गुज़र कर भी तुम्हारे पास जाने का कोई पक्का रास्ता मिलता नहीं. सोचना ये भी है न कि तुमसे मिल ही लेंगे...फिर? हर बार वही इंतज़ार के इंधन को जमा करते रहेंगे...जब बहुत सा इंतज़ार हो जाएगा...इतना कि तुम तक पहुंचा जा सके...फिर तुम्हारे शहर आने का रास्ता तलाशेंगे...
गूगल फिर कहेगा...नो डायरेक्ट रूट फाउंड. इस बार हम गूगल की बात मान लेंगे और तुम्हें तलाशने की इस हिस्ट्री को हमेशा के लिए डिलीट कर देंगे.
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मैंने एक मुराकामी की नावेल पढ़ी. फिर. मुराकामी आजकल मेरे पसंदीदा लेखक हैं. किताब का नाम है स्पुतनिक स्वीटहार्ट. इसमें एक लड़का है जो एक दिन एक लड़की को अपना घर शिफ्ट करने में मदद करता है. लड़का एक स्कूल में टीचर है. बच्चों को पढ़ाता है. लड़की उसे अक्सर रात बेरात फोन करती है. वो उनींदा बात करता है उससे, लड़की कहती है कि वो जानती है कि उसकी बातों का कोई सर पैर नहीं है...मगर लड़के को एक बार उस लड़के के हिस्से का भी सोचना चाहिए...वो इतनी देर रात नींद और ठंढ में चल कर इस फोन बूथ तक आई है...और सिक्के वाले इस फोन बूथ से उसे फोन कर रही है...लड़के का भी कोई फ़र्ज़ है उसकी बातें सुने. लड़का उसकी सारी बातें सुनता रहता है. कितने कितने दिन. इस पूरी दुनिया में एक उस लड़की के साथ ही उसे नजदीकी महसूस होती है. इक रोज उसे अचानक से पता चलता है कि लड़की गुम हो गयी है, 'डिसअपीयर्ड इन थिन एयर'. वो उस ग्रीक द्वीप पर जाता है जहां से वह गायब हुयी है. उसका कोई पता नहीं चलता. वो जानता है कि लड़की मरी नहीं है कहीं...उसे कैसे तो लगता है वो किसी अँधेरे कुँए में गिर गयी है. पुलिस और डिटेक्टिव लगे होते हैं मगर उसका कोई पता नहीं चलता. लड़का जानता है कि लड़की किसी दूसरी दुनिया में चली गयी है. जैसे आईने के दूसरी तरफ वाली. उसे इंतज़ार रहता है कि लड़की फोन करेगी. 
फोन की घंटी बजती है. लड़की उससे कह रही है, 'सुनो तुम्हें मुझे यहाँ आ कर मुझे यहाँ से ले जाना होगा...मैं एक फोन बूथ में हूँ जो मालूम नहीं किधर है...मगर तुम यहाँ आ कर मुझे ले जाना...अच्छा मैं फोन रख रही हूँ, मेरे पास सिक्के ख़त्म हो रहे हैं'.
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मुराकामी की दूसरी नावेल, नार्वेजियन वुड भी ऐसे ही कहीं ख़त्म होती है. मुझे दोनों बार ये किरदार बड़े अपने से लगे हैं. बड़े तुम्हारे से भी. तुमने अगर मुराकामी को नहीं पढ़ा है तो तुम्हें जरूर पढ़ना चाहिए. मेरा मुराकामी को ट्रांसलेट करने का भी मन कर रहा है. हिंदी में. इतनी खूबसूरत चीज़ें अपनी भाषा में नहीं होंगी तो भाषा गरीब ही रहेगी.
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आजकल मेरे दिन बहुत उलझन भरे बीत रहे हैं. इतना सारा कुछ हो जा रहा है लिखने को और फुरसत धेले भर की भी नहीं है. इसी चक्कर में सच और कल्पना का घालमेल हो जाता है. मुझे ध्यान नहीं रहता कि कितनी बातें सच में हुयी हैं और कितनी बातें सोची हुयी भर हैं.
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मैं एटलांटा में म्यूजियम गयी थी. वहां मैंने मोने(Monet) की पेंटिंग देखी. यूं इसके पहले भी मैंने मोने को देखा है मगर या तो मैं किसी और मूड में रही होउंगी कि ध्यान नहीं गया. हम कभी कभी एक खास मूड में होते हैं कि जब आर्टिस्ट को देख कर हैरत से भर जाते हैं. रेजोनेंस होता है...कि हम भी वही कुछ सोच रहे होते हैं कि जो आर्टिस्ट सोच रहा होता होगा. मोने की पेंटिंग में एक कोहरे में डूबी बिल्डिंग है. इस एक्जिबिट में पेटिंग के आगे शीशे की परत नहीं लगाई गयी थी कि जैसा अक्सर बाकी पेंटिंग्स में होता है. पेंटिंग की अपनी एनेर्जी होती है. अपना औरा. कि जो इस पेंटिंग में था. मैं बहुत देर तक उस पेंटिंग के सामने खड़ी उसे एक्टुक देखती रही. गुलाबी, बैगनी और लैवेंडर रंग की पेंटिंग इतनी जीवंत थी कि वाकई लगता था कोहरे के पीछे की बिल्डिंग दिख रही है. कोहरे की परतें थीं...और जैसे सब कुछ चलायमान था...वो पेटिंग न केवल जीवंत थी बल्कि मुखर भी थी...उसे देखते हुए मेरी आँखें भर आई थीं. कि दुनिया में कितनी खूबसूरती है. और कि हम कहाँ जा रहे हैं ऐसे भाग भाग के. उसके ठीक बगल में एक और पेंटिंग थी जिसमें वसंत ऋतु के पेड़ एक झील में रिफ्लेक्ट होते हैं...हरा, सुनहला, पीला गुलाबी...कई रंग थे. ये पेंटिंग मोने ने अपने नाव से बनायी थी. उसने एक नाव को स्टूडियो में कन्वर्ट कर दिया था. उस मौसम, उस धूप को मोने ने हमेशा के लिए पेंटिंग में कैप्चर कर दिया था.

आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. उनका लिखा कहीं हमारे मर्म को छूता है. it touches a raw nerve. कुछ टहकता है अन्दर. इसलिए महान आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. कर्ट कोबेन को पहली बार डिस्कवर किया था तो ऐसे ही लगा था कि जैसे रूह तक पहुँच रही हो उसकी आवाज़. मोने को देखती हूँ तो यूं ही उसके पेंटब्रश के स्ट्रोक्स...इतना रियल है सब...इतना सच. मैं आभासी दुनिया में कैद थी और जैसे अचानक ही इस दुनिया में पहुँच गयी हूँ जहाँ रंग ऐसे कच्चे हैं कि उँगलियों में लगे रह जाते हैं. 
किसी पेंटिंग की फोटो देखने और असल पेंटिंग देखने में कितना अंतर होता है ये भी पहली बार महसूस किया. कि कला को उसके असल रूप में देखने की जरूरत होती है. हम जो कॉन्सर्ट या ओपेरा की रिकोर्डिंग सुनते हैं और जो असल में लाइव ओपेरा होता है उसमें ज़मीन आसमान का अंतर होता है. मैंने पहली बार जब वियेना में ओपेरा सुना था तो इसी तरह सीने में अटका कुछ महसूस हुआ था. रूह को छूने वाला कुछ. 
और फिर मुझे लगता है कि इस दौर में शायद लोग आभासी के पीछे रियल का अनुभव भूलते जा रहे हैं. कितने लोग पेंटिंग्स देखना चाहते हैं. मेरे कुछ दोस्त अभी भी चकित होते हैं कि मुझे म्यूजियम में क्या देखना होता है. कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें पेंटिंग समझ नहीं आती है. मुझे भी पहले पेंटिंग समझ नहीं आती थी. लगता था कि क्या है कि लोग जान दिए रहते हैं पेंटिंग को लेकर. अब पहली बार महसूस किया है. ऐसी चीज़ जादू ही होती है. उसमें कैद एक लम्हा फॉरएवर के लिए वैसा ही रहेगा. हमेशा. तुम जब भी उस पेंटिंग के पास खड़े होगे तुम उस शहर, उस मौसम, उस फीलिंग तक पहुँच जाओगे. पहली बार महसूस हुआ कि काश मोने की एक पेंटिंग खरीद सकने लायक पैसे होते तो मैं भी एक पेंटिंग अपने घर में रखती. छोटी सी ही सही. मगर ऐसा जादू कि उफ़. 
विन्सेंट वैन गौग की आत्मकथा, लस्ट फॉर लाइफ एक जगह विन्सेंट करुणा से कहता है, 'कितनी दुःख की बात है कि गरीब आदमी के पास कला के लिए पैसे नहीं है. वो एक टुकड़ा कैनवस भी अपने घर पर नहीं रख सकता. उसे कला की सही समझ है. उसे पेंटिंग के भाव समझ आयेंगे. मगर अमीर आदमी कला खरीद सकता है जबकि उसे कला की कुछ भी समझ नहीं है और वह सिर्फ नाम के लिए ख्यात पेंटिंग्स खरीदता है कि अपने ड्राइंग रूम में टांग दे और अपने दोस्तों के सामने कह सके, ये पेंटिंग में इतने पैसों में खरीदी है.'.
मैंने शायद बहुत किताबें नहीं पढ़ी हैं. अपनी किताब को लेकर अभी भी संशय में रहती हूँ जब कि छपने के पांच महीने में 'तीन रोज़ इश्क़' का पहला एडिशन सोल्ड आउट हो गया, बिना किसी अतिरिक्त प्रचार प्रसार के...मुझे समझ नहीं आता कि मैं लोगों से क्या बात करूंगी. मैं किसी महान आर्टिस्ट के बारे में बात भी करूंगी तो उसकी टेक्निक या उसकी खासियत के बारे में नहीं...बल्कि उसे देखकर मुझे जो महसूस होता है उसके बारे में बात करूंगी. मुझे बहुत सी चीज़ें समझ नहीं आतीं. मॉडर्न आर्ट तो कई बार वाकई बदसूरत होता है. जैसे एटलांटा में एक एक्जीबिशन था फैशन पर. वहां एकक एक ड्रेस के पीछे आधे आधे घंटे की फिलोसफी थी. और ड्रेस न दिखने में खूबसूरत, न पहनने में प्रैक्टिकल. डिजाईन या फिर विसुअल आर्ट्स के बारे में मेरा मानना ये है कि डिजाईन को एक्प्लेनेशन की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए. अगर पढ़ कर समझना पड़े तो वो मेरे हिसाब की चीज़ नहीं.
कला भी इश्क़ जैसी होती है. यहाँ कोई चीज़ रूह तक पहुँचती है. लम्हे भर में और ताउम्र गिरफ्त में लेती है. यहाँ लॉजिक काम नहीं करता कि आको ये आर्टिस्ट पसंद आना चाहिए. मुझे पिकासो की पेंटिंग कमाल लगी थी. बेसिरपैर, लेकिन कमाल. उसके सिम्बोलिज्म को पढ़ कर उसको समझने से पहले भी पेंटिंग में कुछ था जो अपनी ओर खींचता था.
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और फिर जानती हूँ कि वोंग कार वाई को एक बार मिलने की ख्वाहिश कितनी जरूरी है. अंगकोर वात जाना क्यों रूह के लिए है...दिमाग और लॉजिक के लिए नहीं.
और इतना भी कि कहना किसी को...मैं एक बार आपकी उँगलियाँ चूमना चाहती हूँ...जिंदगी का एक मकसद कैसे हो सकता है. क्यूंकि कला समझने की नहीं, महसूसने की चीज़ है.
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लिखते हुए शिकागो में दिन उग आया है. कमरे की खिड़की से बेतरह खूबसूरत सुबह दिख रही है. आज मोने को देखने जाउंगी शिकागो म्यूजियम में. आज कुछ तसवीरें. मेरी आँखों से ऐसी दिखती है दुनिया.


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Published on November 16, 2015 05:26

October 31, 2015

इश्क़ तिलिस्म


'आप गज़ब हैं मैडम जी. भोरे भोर कोई ओल्ड मौंक खोजता है का? अभी तो ठेका खुलबे नै किया होगा नै तो हम ला देते आपके लिए.'
'अरे न बाबू, क्या कहें. पीने का नहीं, चखने का मन हो रहा है. जुबान पर घुलता है उसका स्वाद. किसी पुरानी मीठी याद की तरह. एक ठो दोस्त हुआ करता था मेरा. बहुत साल पहले की बात है. बुलेट चलता था. तुम कभी मोटरसाइकिल चलाये हो?
'हाँ मैडम जी, राजदूत था हमरे बाबूजी के पास'
'अरे वाह. हम भी राजदूत ही चलाना सीखे थे पहली बार...तो रिजर्व का तो फंडा पता ही होगा तुमको.'
'हाँ मैडम जी, पेट्रोल ख़त्म होने पर भी जरा सा एक्स्ट्रा टंकी में जो रहता है...वोही न'
'हाँ हाँ...वोही...तो ऊ दोस्त हमरा रिजर्व में रहता था...माने...बहुत गम हो रहा...दिल टूटा हुआ है...किसी से बतियाने का मन कर रहा है...वैसेही...उसके लिए इश्क़ बॉर्डरलाइन पर हुआ करता था. हम ज़ब्त करके रखते थे खुद को...सब से इश्क़ ही हो जाएगा तो रोयेंगे कहाँ जा कर?'
'ऊ तो बात है...लेकिन आपका लड़की लोगन से कहियो दोस्ती नै था क्या?'
'उहूँ...लड़की लोग बहुत फीकी होती है...पनछेछर...बूझते हो न...हमसे बात करने में माथा ख़राब हो जाता है सबका...किसी को गुस्से में हरामी बोल दिए तो बस मुंह फुला के बैठ गयी. लड़का लोग बेहतर है न...और वैसे भी चूँकि हम लड़की हैं तो माँ...बहन का गाली हमको लगता नहीं है न...बुझे न...'
'गाली देना तो बहुत मुस्किल है मैडम जी...हमरी पिछली गर्लफ्रेंड हमको एही गाली के चलते छोड़ कर चली गयी थी...एक दिन साला गुस्से में उसके बाबूजी को कुछ बोल दिए थे'
'सब का अपना अपना कमजोरी होता है बाबू, हमरा भी था.'
'अच्छा आपको भी कौनो चीज़ का चस्का लगा था का मैडम जी?'
'अरे. गज़ब चस्का था. दिन रात खुमार में बीतता था. अब तो हम सुधर गए हैं. नै तो हमपर भी चढ़ता था नशा. कि ओह.'
'कौंची का आदत था मैडम जी?'
'अरे बाबू, इशक...का...इश्क का...इश्श्श्श्क ...आह वे दिन...वो लोग...वो जुबान पे चाशनी सा नाम उनका...शहज़ादे...'
'कहाँ के शहज़ादे थे हुज़ूर?'
'इश्क़ तिलिस्म के'
'हम तो कभी नाम नै सुने इसका'
'था एक तिलिस्म बाबू...हमने भी अपने तिलिस्म में कई शहज़ादे बंद करके रखे थे.'
'कहाँ मैडम जी...दरभंगा इस्टेट में का?'
'धत पगले, सब तिलिस्म ईट पत्थर का नहीं बना होता है...एक तिलिस्म रूह का भी होता है.'
'कभी कभी आपका बात हमको एकदम्मे नै समझ में आता है मैडम जी. ई रूह माने आत्मा ही ना...रूह का कैसन तिलिस्म होता है?'
'का बताएं बाबू...कैसन तिलिस्म होता था...अब तो सब बात ख़तम हो गया है...हम अपना खाली दिल लिए दुनियादारी में झोंक दिए खुद को. एक ज़माने में इश्क़ तिलिस्म हुआ करता था.'
'और कुछ बताइये न मैडम जी तिलिस्म के बारे में'
'तिस्लिम...हाँ...रूह का तिलिस्म था. देखो, कुछ लोगों के लिए इस दुनिया का इश्क़ काफी नहीं पड़ता...उन्हें इश्क़ और गहरा चाहिए होता है...इश्क के कई रंग होते हैं...गुलाबी से शुरू होते हुए गहरा नीला...तुमने आग की लौ देखी है न...वैसे ही होता जाता है इश्क...सबसे ऊंचाई पर पहुँचता है तो गहरा नीला हो जाता है. खुदा कुछ ख़ास लोगों को चुनता है ऐसे इश्क़ के लिए. उनका सुख और दुःख रूह तक पहुँचता है. सब लोग इस इश्क़ को बर्दाश्त नहीं कर पाते कि ये इश्क़ जब टूटता है तो रूह का एक हिस्सा हमेशा के लिए लापता हो जाता है. मैंने इस इस इश्क़ के इर्द गिर्द सीमा रेखा बना दी...कि ऐसे टूटे हुए लोग यूं भी दुनिया के लिए गुम चुके होते हैं. ये मेरी सल्तनत थी...जिसका नाम था 'इश्क़ तिलिस्म'.
'सच में था, ऐसा जगह कहीं पर?'
'हाँ. पता नहीं ये कौन दीवाने थे जिन्होंने मेरी आँखों में इस तिलिस्म का रास्ता देख लिया था...वे इश्क़ में डूबते तो बस बाशिंदे हो जाते तिलिस्म के...तिलिस्म सबकी रूहों के हिस्से से बनता जाता था और खूबसूरत...खुशरंग...और मायावी.'
'फिर तिलिस्म टूटा कैसे?'
'तिलिस्म में एक शहज़ादा था...मेरा सबसे फेवरिट...मुंहलगा एकदम...शेरो शायरी का शौक़ था हम दोनों को...एक दिन फैज़ का शेर सुनाते हुए कहता है, "और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा"...हम शेर का बाकी हिस्सा सुनाये उसको, "मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग"...तो बोलता है पहली सी मुहब्बत नहीं चाहिए...चाबी चाहिए...हमको तिलिस्म का चाबी दे दो...हम ई दिन रात यहाँ तुमरे तिलिस्म में बंधे बंधे नहीं बिता सकते हैं...हमरा दम घुटता है. हम बाहर भी हवा खाने जायेंगे...बाकी लड़की लोग को भी ताड़ेंगे...'
'फिर? नहीं दिए न चाभी उसको...गज़ब बोका नियन बोल रहा था...ई कोई शेयर्ड अपार्टमेंट थोड़े है कि सब्बे को एक एक ठो चाबी चाहिए'
'नहीं बाबू...दे दिए उसको चाबी...बहुत प्यारा था हमको...उसका एक्को बात टाल नै सकते थे हम'
'ऊ लौट के नहीं आया न?'
'अरे नहीं. लौट के नहीं आता तो ठीक था. वो महीनों, सालों गायब रहता...उसके इंतज़ार में तिलिस्म पर उदासी का मौसम गहराने लगता. तिलिस्म के बाशिंदे आत्महत्या करना चाहते. हर कुछ दिनों में कोई कलाई काट के मर जाता. कोई नदी में कूद कर जान दे देता'
'अरे बाबा रे...खतरनाक ही था एकदम'
'हाँ रे बाबू...मगर शहज़ादे को कोई फर्क नहीं पड़ता...वो सालों बाद भी ऐसे लौटता जैसे सारी सल्तनत उसकी ही है...और होती भी. वो पांच मिनट भी रुकता तो तिलिस्म में रहमतों की बारिश होती. सारे ज़ख्म भर जाते.'
'और कुछ बताइए न मैडम जी...कैसा दिखता था शहज़ादा?'
'सांवला सा था. सुनहली आँखें. लम्बा. छरहरा. उम्र जैसे उस तक आ कर ठहर गयी थी. लम्बे काँधे तक के हल्के घुंघराले बाल. उसके मुस्कुरा भर देने से दुआओं की नदी लबालब भर जाती थी. सारी बुरी आदतें भरी थीं उसमें. चेन स्मोकर था और शौकिया बीड़ी पीता था...जहन्नुम के आर्किटेक्चर पर काम कर रहा था. गज़ब प्यास का बना था वो. उसकी बांहों में होती थी तो और कुछ नहीं याद रहता. जिस्म से सांस. रूह से इश्क. दिल से सारे पुराने आशिकों के नाम. सब गुमशुदा हो जाते थे. डिस्क फॉर्मेट हो जाती थी पूरी की पूरी'
'फिर?'
'फिर. उससे मिलना जितना खूबसूरत था उसके जाने के बाद का खालीपन उतना ही खूंख्वार. उसके जाने के बाद इश्क़ तिलिस्म में बेतरतीब लोग भरते चले जाते. मैं इस बात का भी ख्याल रखना भूल जाती कि तिलिस्म में भटकते लोगों का कोई और ठौर नहीं है. मेरे मूड के हिसाब से वहां का माहौल बदलता...कभी वीराना...कभी रेगिस्तान...कभी समंदर. तिलिस्म के बाशिंदे कितना भी खुद को ढालने की कोशिश करते पर उन्हें करार नहीं आता. हम एक व्यूह का हिस्सा होते जा रहे थे...जहाँ से वापस लौटना हमें नहीं आता था'
'आप बचाने का कोसिस नै किये तिलिस्म को?'
'रूह का धागा यूं तो बहुत मज़बूत होता है लेकिन उसकी भी सीमा होती है. इश्क़ तिलिस्म की सबसे खूबसूरत बात थी कि यहाँ वक़्त ठहर गया था. हम अपने सबसे खूबसूरत लम्हों को बार बार जी सकते थे. दोहराव भी जानलेवा हो सकता है मुझे ये बात पहली सुसाइड से ही समझ लेनी चाहिए थी. मगर उसी दिन शहज़ादा लौटा था तिलिस्म में तो मैं सब छोड़ कर उसके पास भागती चली गयी थी. फिर साल दर साल मौतें होती रहीं और मैं उनसे कतरा के निकलती रही...डर इतना ज्यादा बढ़ गया था कि हिम्मत ही नहीं होती कि आंकड़ों को देखना कहाँ से शुरू करूँ. अपनी पसंदीदा यादों को लूप पर चलाते हुए लोग पागल होने लगे थे. इस पागलपन में उन्हें जिंदगी और मौत का अंतर समझ नहीं आने लगा था. मुझे उन दिनों जिंदगी का कोई मकसद नहीं दिखता था...जिस रोज़ मेरी रूह ने पहली बार मौत को छू लेने की ख्वाहिश की, मौत को तिलिस्म में आने को हलकी दरार मिल गयी...बस फिर उसने दबे पाँव अपना सम्मोहन फैलाया और तिलिस्म के सारे बाशिंदे दुआओं की नदी में डूब गए...मैंने उनमें से हर एक की लाश को खुद बाहर निकाला. उनकी कब्रें खोदीं...चिताएं जलायीं...और देर तक मौत की गंध में डूबी बैठी रही. तिलिस्म अब जानलेवा हो गया था. मैंने सोचा कि ताला बदल दूं मगर फिर जाने क्यों शहज़ादे का ख्याल आ गया..तो बस एक ख़त लिख कर रख दिया...फिर लौट कर इतने सालों में नहीं गयी हूँ'
'शहज़ादा लौटा क्या?'
'मालूम नहीं...एक बीड़ी पिलाओगे?'
'आप बीड़ी भी पीती हैं मैडम जी?'
'नहीं बाबू...शहज़ादे की एक यही चीज़ बाकी रह गयी है...उसके तो नहीं हो सके...बीड़ी के हो के रह गए हैं'.
'बस इतना.'
'बस इतना.' 
'देखो कहानी कहानी में बहुत वक़्त निकल गया. ठेका से एक ठो ओल्ड मौंक ला दो.'
'आप गज़ब हैं मैडम जी...ओल्ड मौंक, बीड़ी...आपको देखकर हरगिज़ नै लगता है कि आपको ई सब भी शौख होगा...अपने ऊ दोस्त को फोन कर लीजिये'
'अभी नहीं. चार पैग के बाद. कोक भी लेते आना साथ में'
'मैडम जी, चार पैग तो हो गए...अब?'
'एक और बना दो'
'ओके मैडम जी'
'क्या हुआ...ग्लास अब तक भरा क्यूँ नहीं?'
'भरा तो है मैडम जी...आइस भी डाली है...'
'नहीं बाबू...ग्लास खाली है...बीड़ी भी ख़त्म हो गयी...तुमको खम्बा लाने बोले थे न ओल्ड मौंक का...ये पव्वा काहे लेकर आये हो?'
'मैडम जी...आप काहे गुस्सा हो रही है....पूरा पैग बना दिए...और पव्वा कहाँ है...खम्बा ही तो है ओल्ड मौंक का...और ये दो ठो बण्डल रखा है न बीड़ी का...क्या हो गया मैडम जी?'
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दोपहर की कड़ी धूप का रंग बदलने लगा था...बुलेट की आवाज़ दिल की धड़कनों पर हावी हो रही थी. दोस्त ने आज किस जनम का बदला लिया था मालूम नहीं जो अपने साथ शहज़ादे को उठा लाया था बुलेट पर. सारी ओल्ड मौंक उतर गयी कमबख्तों को देख कर. शहज़ादे की मुस्कराहट से तिलिस्म ज़िंदा होने लगा था. मैंने शहज़ादे को झुक कर सलाम किया, बीड़ी का आखिरी गहरा कश मारा...हाई हील की सैंडिल तले चिंगारी बुझाई और एक उदास आखिरी लाइन कही उनसे 'गुस्ताखी माफ़ हो शहज़ादे' . दोस्त के साथ बुलेट पर बैठी...काँधे पर हाथ रखा, चुपके से उसके कान में कहा...'जान, मुझे यहाँ से दूर ले चलो...बहुत बहुत बहुत दूर'. बुलेट की पिकअप के दीवाने यूं ही नहीं थे हम. एक्सीलेरेटर पर उसका हाथ घूमा. उसने जोर का ठहाका मारा...जिसमें मेरी हँसने की आवाज़ मिलती गयी...हमारी साझी हँसी बुलेट की आवाज़ से भी ज्यादा ऊंची थी.

उस दिन इश्क़ तिलिस्म बस बंद हुआ था. ख़त्म आज होता है.
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Published on October 31, 2015 23:33

October 23, 2015

दुआओं के पत्थर पर लिखा था जाने किसका तो नाम


सब कुछ दुआओं का ही था...सुनी, अनसुनी, ठुकराई हुयी...
लड़की खुदा से पूछना चाहती थी कि जिस अजनबी से कभी मिले भी नहीं, उसकी तकलीफें उसे नीम नींद में क्यूँ चुभती हैं. वो अपनी टूटी धड़कनों को किसी उदास नदी में बहा आना चाहती थी मगर उसे नहीं मिलता था कोई आँसुओं का पुल कि जिसके रास्ते वो वापस लौट सके नीली धूप के देश में वापस. उसके गीले कपड़ों में रहने लगी थीं बहुत सी चिड़ियाएं कि जिनकी चहचाहट से लड़के की नींद खुलती थी. 
उन दोनों के बीच दुआओं के पुल थे...वे अपने अपने छोर से देखते रहना चाहते एक दूसरे को लेकिन पुल के बीच होती रहती बारिशें और उनके हिस्से एक दूसरे की भीगी, उदास आँखें ही आतीं.
वो थक कर बैठना चाहते मगर चैन के पत्थर पर लिखा होता जाने किसका नाम. वे चाहते कि हज़ारों फीट गहरी नदी में छलांग लगा दें और एक साथ ही मर जाएँ. फिर शायद खुदा या शैतान के मोहल्ले में उन्हें अलॉट हो आमने सामने के मकान. उनके इर्द गिर्द दुनिया का कितना कारोबार चलता रहता लेकिन वे एक दूसरे को अपने ख्यालों में बेहद करीब रखते. लड़की अपनी चूड़ियों में बांध रखती उसकी आँखों का रंग तो लड़का अपनी शर्ट की पॉकेट में रखता लड़की की चोटियों से खुला हुआ रिबन. 
उन्हें कुछ जोड़ नहीं सकता था इसलिए वे सिगरेट पिया करते थे बेतरतीब...बेहिसाब...कि जब भी पुल के इस छोर पर लड़की के लाइटर की लौ लपकती, लड़का उस लम्हे एकदम साफ़ देख पाता उसका चेहरा...और जैसे ही लड़का जलाता लाइटर, लड़की जान जाती कि उसने आज कौन सा परफ्यूम लगाया है. वे देर तक अपनी उँगलियों में फंसी सिगरेट देखते रहते और उस दिन की कल्पना करते जब फायर ब्रिगेड वाले पुल की आग बुझा देंगे...वे टूटे हुए पुल के अपने अपने छोर से कूदेंगे...बीच हवा में भरेंगे एक दूसरे को बांहों में और फिर गिरते जायेंगे तेज़ी से...गहरी नदी के नीले पानी की ओर...साथ.
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Published on October 23, 2015 03:34

या कि जब तुम मुझे दोस्त बुलाते हो. या जान.


शहरों को पता होता है. चारागर गलियों का पता. शहर की पुरानी हवेलियों में रहते हैं पुराने नीम-हकीम. कि जो ख़तरा-ए-जान होते हैं कि उन्हें रूह का इलाज आता है. उनके लिए नहीं होती है एक ज़िन्दगी की कीमत कि वे टाँके डालते हैं सदियों तड़पती रूह में. उन्हें मालूम होता है कि हिज्र होता है कई जन्मों पुराना भी...के महबूब होता है कई जन्मों से लापता...कि उन्हें आता है उदास आँखें पढ़ने का हुनर इसलिए उनसे डरते हैं किताबों और रिसालों वाले डॉक्टर. 
तुम्हारे शहर की कातिल गलियां ढूंढती हैं मुझे...तुम्हारी धड़कनों का फरेब निकलता है मेरी तलाश में छुरा लेकर. मैं किसी गुमान में जीती हूँ कि तुम्हें मेरे सिवा कोई समझ नहीं सकता. मैं तुम्हारी नब्ज़ पर ऊँगली रख कर गिनाती हूँ तुम्हें तुम्हारे महबूबों का नाम. मैं पढ़ना जानती हूँ तुम्हारी धड़कनों की भाषा. कि मैं तुम्हारी प्रेमिका नहीं...चारागर हूँ. मेरे दोस्त. मेरी जान तुममें बसती है. 
मैं तुमसे पूछना चाहती हूँ इश्क़ के सिम्पटम्स कि बेचैनियों को विस्की फ्लास्क में कैद करना आता है मुझे. मैं बहुत दिन से तलाश रही हूँ इक सिगरेट केस कि जिसमें रखे जा सकें खतों के माइक्रोजीरोक्स. तुम माइक्रो ज़ेरोक्स समझते हो न मेरी जान? इन्ही चिप्पियों से जिंदगी के एक्जाम में चीटिंग की जा सकती है और लाये जा सकते हैं खूब सारे नंबर. तुम्हें क्लास में फर्स्ट आने का बहुत शौक़ था न हमेशा से? मैंने सारे सवालों के जवाब तुम्हारे लिए इकठ्ठा कर दिए हैं. लिखे नहीं हैं...जरूरत ही नहीं पड़ी. तुम्हें इतने लोगों ने ख़त लिखे हैं कि तुम्हें मेरे शब्दों की कोई जरूरत नहीं रही कभी.  
यूँ तुम खुद फ़रिश्ते हो. तुम सा चारागर दूसरा नहीं. मगर जानते तो हो. डॉक्टर्स आर द वर्स्ट पेशेंट्स. तुम खुद का इलाज नहीं कर सकते. तुम्हें चुभती भी तो मासूम चीज़ें हैं. तुम्हारी ऊँगली के पोर में चुभे हैं तितली के पंख. तुम्हारे पांवों में सुबह की ओस. तुम्हारी आँखों में चाँद नदी का पानी. तुम्हारे काँधे पर किसी का जूड़ापिन चुभे तो कोई भी निकाल सकता है, मगर किसी ने पीछे से तुम्हारे काँधे पर हाथ रखा और उसकी खुराफाती उँगलियों की पहली छुवन रह गयी. इसे देखने के लिए जो नज़र चाहिए वो न तुम्हारे पास है न तुम्हारे बाकी किसी डॉक्टर के पास.

मैं जानती हूँ कैसा होता है तुम्हारे इश्क़ में होना. चाँद को गुदगुदी करना. सूरज से ठिठोली करना. समंदर सी प्यास में जीना. आसमान सा इंतज़ार ओढ़ना. सब पता है मुझे. इसलिए मुझे सिर्फ तुम्हारे ठीक हो जाने से मतलब है...कि तुम दुबारा टूट सको. तुम्हारी चारागरी के सिवा और कुछ नहीं चाहिए मुझे जिंदगी से.
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आखिर में मुझे कुछ पता नहीं होता कि मुझे क्या चुभता है. कि तुम मुझे दोस्त बुलाते हो. या जान.

या कि उसकी कलाई पर सिगरेट से जलाया हुआ तुम्हारा नाम.
या कि व्हीली करते हुए गिरने पर हुए मल्टीप्ल फ्रैक्चर्स
या कि माइग्रेन रात के डेढ़ बजे
या कि रूट कैनाल सर्जरी

या कि जब तुम मुझे दोस्त बुलाते हो. या जान.
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Published on October 23, 2015 02:48

October 11, 2015

सिगरेट एक आदिम तलब है. कि जो नींद और जाग का फर्क नहीं जानती.


शहर कभी कभी अपनी बत्तियां बुझा देता और खुद को गाँव होने के दिलासे देता. पॉवरकट की इन रातों में लड़की की नींद टूट जाती. आसमान एक फीके पीले रंग का होता. गर्मी की ठहरी हुयी दोपहरों का. जब ये रंग धूल का हुआ करता था. इस रंग का कोई नाम नहीं था. लड़की चाहती थी इस रंग में ऊँगली डुबा ले और जुबां से चख कर कहे...उदासी.

बिजली कट जाने से कहीं भी रौशनी की कोई लकीर नहीं होती जो रात के माथे पर चुभे और लड़की को अपने बेतरतीब घर में अमृतांजन ढूंढना पड़े. उसे याद नहीं आता कि वो आज से करीबन दस साल पहले अपने बैग में हमेशा अमृतांजन क्यूँ रखा करती थी. 
लड़की उन दिनों ख़ामोशी पहनना सीख रही होती. बिजली चले जाने से हर ओर चुप्पी होती. पंखों के चलने की आवाज़ नहीं होती. फ्रिज चुप पड़ा होता. सड़कों के स्ट्रीट लैम्प भी एक दूसरे से इशारे में ही बात करते थे, इसलिए बिजली कटने के बाद वे भी चुप देख ही पाते थे एक दूसरे को और ठंढी सांस भरते बस. 
सिगरेट एक आदिम तलब है. प्यास से गला सूखने की तरह. कि जो नींद और जाग का फर्क नहीं जानती. लड़की ने अँधेरे में अंदाज़ से सिगरेट का पैकेट तलाशा है. डाइनिंग टेबल पर दो पैकेट पड़े हैं. ब्लू लीफ और मार्लबोरो. उसे ध्यान है कि घर में बीड़ी भी है. ब्लू लेबल भी. फ्रिज में बर्फ भी. इन सब की याद सलीके से आती है उसे. किट किट किट आवाज़ है. चिंगारी दिखती है. पहला लाइटर काम नहीं करता. शायद फ्लूइड ख़त्म हो गया होगा. अँधेरे में मालूम नहीं कर सकती. वो याद करने की कोशिश करती है कि माचिस कहाँ मिलेगी घर में. पूजाघर में होगी कि नहीं. गैस के लाइटर से जलाई जाए. फिर वहीं टेबल पर दूसरा लाइटर मिल जाता है. अँधेरा और ख़ामोशी एक दूसरे के पर्याय हैं शायद. बिजली जाने के साथ बहुत सी आवाजें डूब जाती हैं. स्तब्ध रात है. दूसरे लाइटर से सिगरेट जलती है. कागज़ और अन्दर मुड़े-तुड़े टोबैको लीफ के पत्तों के जलने की आवाज़ आती है. ये बहुत ही फीकी आवाज़ है जो सिर्फ ऐसी एकदम चुप रातों में सुनी जा सकती है. लड़की एक लंबा, गहरा कश खींचती है. सिगरेट का लाल सिरा ज़रा तेज़ी से जलता है. उसे अपने दायें गाल पर लाल रौशनी महसूस होती है. दिखती है. 
रात बहुत शांत है. बहुत. बहुत दूर की रेलगाड़ी की आवाज़ आ रही है. स्टेशन लेकिन किसी और शहर का याद आता है उसे. एक शाम. सूरज डूब चुका था. रात इतनी चुप है कि उसे लगता है महबूब के दिल की धड़कन सुन सकती है. रात के सीने पर हाथ रखती है. महसूसती है अपनी कलाई से उठता इको. वो गहरी नींद सो रहा है. लड़की सॉफ्ट व्हिसल करती है. शोले की धुन. उसका दिल करता कि वो माउथऑर्गन बजाये. बहुत बहुत साल हो गए. रात की चुप में उसकी धीमी व्हिसल बहुत दूर तक जाती है. महबूब की खिड़की तक, चांदनी की तरह दबे पाँव उतरती है कमरे और चूम लेती है उसके होठ. उफ़...आज फिर उसने सिगरेट पी थी.

यूँ वो तानाशाही थी...मगर वे एक दूसरे को सरकार कहा करते थे. उन दिनों दुनिया का कारोबार बड़ी आसानी से चल रहा था. लोग एक दूसरे को धर्म के नाम पर मार देने को उतारू नहीं थे. ग़ुलाम अली के कॉन्सर्ट में वे एक दूसरे को एक तिरछी नज़र देख लेना चाहते थे कभी कभार. उन दिनों आज़ादी नहीं थी मगर ख्वाहिशों की दुनिया में एक आध छोटे गुनाहों की इज़ाज़त थी. उन दिनों गहरी नींद में चीखें नहीं दबी होती थीं. उन दिनों. नींद गहरी हुआ करती थी. हर शहर में बिजली चौबीस घंटे रहती थी. लड़की अपने एयरकंडीशंड कमरे में सोती थी. उसका होटल का कमरा नॉन-स्मोकिंग था और उसमें बालकनी नहीं थी. लड़की के पास बीड़ी भी नहीं हुआ करती थी उन दिनों और ना उसकी कलाई पर जले के निशान. उन दिनों उसकी कलाई पर महबूब के नाम का पहला अक्षर लिखा होता था. 
लड़की अँधेरा तलाशती चलती, शिकारी कुत्तों की तरह. अँधेरा उससे भागता रहता. कभी कभी वो हवाईजहाज में बैठती तो आधी धरती घूम आती मगर सूरज ठीक उसकी खिड़की के साथ साथ चलता रहता. झपकी भर भी नींद नहीं मिलती. जब से लड़के ने उसकी आँखें चूमी थीं, उसकी पलकें पारदर्शी हो गयीं थीं. उसे सोने के लिए अँधेरे की जरूरत पड़ती थी.

लड़की उसके शब्दों से छिलती थी. कटती थी. मगर फिर भी उसके शब्द मांगती थी. उसके शब्दों में इतनी धार थी कि सीने में धंस जाए तो जान चली जाए. लड़का जानता था. इसलिए अपने ख़त छुपा के रखता था. किसी शाम जब लड़की को बिलकुल मर जाने का मर करता तो उससे कहती...जीते जी तुमको कोई क्रेडिट नहीं दिया लेकिन कसम से, अपने मरने का क्रेडिट तुमको ही दे कर जायेंगे. पूरा का पूरा. 
लड़की बहुत कड़वी हो गयी थी इन दिनों. सस्ती सिगरेट की तरह. घटिया शराब की तरह. बासी कॉफ़ी की तरह. उसका प्याला कि जो इश्क़ से यूं लबालब भरा था कि छलका पड़ता था...खाली हो गया था...और टूट गया था. लेकिन वो किसी से भी नहीं कहना चाहती थी...यू नो...यू हैव टू लव मी बैक.
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Published on October 11, 2015 15:40