Puja Upadhyay's Blog, page 21

April 26, 2016

द राइटर्स डायरी: आपने किसी को आखिरी बार खुश कब देखा था?


आपने आखिरी बार किसी के चेहरे पर हज़ार वाट की मुस्कान कब देखी थी? थकी हारी, दबी कुचली नहीं. असली वाली मुस्कान. कि जिसे देख कर ही जिन्दगी जीने को जी करे. जिसे दैख कर उर्जा महसूस हो. किसी अजनबी को यूं ही मुस्कुराते या गुनगुनाते कब देखा था? राह चलते लोगों के चेहरों पर एक अजीब सा विरक्त भाव क्यूँ रहता है...किसी की आँखों में आँखें डाल कर क्यूँ नहीं देखते लोग? ये कौन सा डर है? ये कौन सा दुःख है कि साए की तरह पीछे लगा हुआ है. 
खुल कर मुस्कुराना...गुनगुनाते हुए चलना कि कदम थिरक रहे हों...जरा सा झूमते हुए से...ओब्सीन लगता है...गलीज...कि जैसे हम कोई गुनाह कर रहे हों. कि जैसे दुनिया कोई मातम मना रही हो सफ़ेद लिबास में और हम होलिया रहे हैं. बैंगलोर में ही ऐसा होता है कि पटना में भी होने लगा है हमको मालूम नहीं. सब कहाँ भागते रहते हैं. दौड़ते रहते हैं. हम जब सुबह का नाश्ता साथ कर रहे होते हैं मुझे देर हो जाती है रोज़...मैं धीरे खाती हूँ और खाने के बीच बीच में भी बात करती जाती हूँ. मेरे दोस्त जानते हैं. मैं उसकी हड़बड़ी देखती हूँ. उसे ऑफिस को देर हो रही होती है. ये पांच मिनट बचा कर हम क्या करेंगे. जो लोग सिग्नल तोड़ते हैं या फिर खतरनाक तेज़ी से बाइक चलाते हैं उन्हें कहाँ जाना होता है इतनी हड़बड़ी में. 
आजकल तो फिर भी मुस्कान थोड़ी मद्धम पड़ गयी है वरना एक वक़्त था कि मेरी आँखें हमेशा चमकती रहती थीं. मुझे ख़ुशी के लिए किसी कारण की दरकार नहीं होती थी. ख़ुशी मेरे अन्दर से फूटती थी. बिला वजह. सुबह की धूप अच्छी है. होस्टल में पसंद का कोई खाना बन गया. खिड़की से बाहर देखते हुए कोई बच्चा दिख गया तो उसे मुंह चिढ़ाती रही. ऑफिस में भी हाई एनर्जी बैटरी की तरह नाचती रहती दिन भर. कॉलेज में तो ये हाल था कि किसी प्रोजेक्ट के लिए काम कर रहे हैं तो तीन दिन लगातार काम कर लिए. बिना आधा घंटा भी सोये हुए. लोग तरसते थे कि मैं एक बार कहूँ, मैं थक गयी हूँ. अजस्र ऊर्जा थी मेरे अन्दर. जिंदगी की. मुहब्बत की. मुझे इस जिंदगी से बेइंतेहा मुहब्बत थी. 
हम सब लोग उदास हो गए हैं. हम हमेशा थके हुए रहते हैं. चिड़चिड़े. हँसते हुए लोग कहाँ हैं? मुस्कुराना लोगों को उलझन में डालता है कि मैं कोई तो खुराफात प्लान कर रही हूँ मन ही मन. ये गलत भी नहीं होता है हमेशा. कि खुराफात तो मेरे दिमाग में हमेशा ही चलती रहती है. अचानक से सब डरे हुए लोग हो गए हैं. हम डरते हैं कि कोई हमारी ख़ुशी पर डाका डाल देगा. कि हमारी ख़ुशी को किसी की नज़र लग जायेगी. ख़ुशी कि जो रोज धांगी जाने वाली जींस हुआ करती थी...सालों भर पहनी जाने वाली, अब तमीज, तबियत और माहौल के हिसाब से पहनी जाने वाली सिल्क की साड़ी हो गयी है कि जो माहौल खोजती है. आप कहीं भी खड़े खड़े मुस्कुरा नहीं सकते. लोग आपको घूरेंगे. मेरा कभी कभी मन करता है कि राह चलते किसी को रोक के पूछूं, 'तुमने किसी को आखिरी बार हँसते कब देखा था?'.
रही सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है. अजीब लगेगा सुनने में मगर कई बार मेरे घर में ऐसा हुआ है कि चार लोग बैठे हैं हॉल में और सब अपने अपने फोन पर व्हाट्सएप्प पर एक दूसरे से ही किसी ग्रुप के भीतर बात कर रहे हैं. मुझे अक्सर क्लास मॉनिटर की तरह चिल्लाना पड़ता है कि फ़ोन नीचे रखो और एक दूसरे से बात करो. कभी कभी सोचती हूँ वायफाय बंद कर दिया करूँ. मैं पिछले साल अपने एक एक्स-कलीग से मिलने गयी थी स्टारबक्स. राहिल. मैंने उससे ज्यादा बिजी इंसान जिंदगी में नहीं देखा है. क्लाइंट्स हमेशा उसके खून के प्यासे ही रहते हैं. उन्हें हमेशा उससे कौन सी बात करनी होती है मालूम नहीं. वे भूल जाते हैं कि वो इंसान है. कि उसका पर्सनल टाइम भी है. इन फैक्ट हमने अपने क्लाइंट्स को बहुत सर चढ़ा भी रखा है. राहिल जब मिलने आया तो उसने अपने दोनों फोन साइलेंट पर किये और दोनों को फेस डाउन करके टेबल पर रख दिया. कि मेसेज आये या कॉल आये तो डिस्टर्ब न हो. कोई आपको अपना वक़्त इस तरह से देता है माने आपने इज्जत कमाई है. उसके ऐसा करने से मेरे मन में उसके प्रति सम्मान बहुत बढ़ गया. रेस्पेक्ट जिसको कहते हैं. म्यूच्यूअल रेस्पेक्ट. वो उम्र में कमसे कम पांच साल छोटा है मुझसे जबकि. मैं किसी से मिलती हूँ तो मोबाइल साइलेंट पर रखती हूँ. अधिकतर फोन कॉल्स उठाती नहीं हूँ. मुझे फोन से कोफ़्त होती है इन दिनों. मैं वाकई किसी बिना नेटवर्क वाली जगह पर छुट्टियाँ मनाने जाना चाहती हूँ. 
और चाहने की जहाँ तक बात आती है. मैं कुछ ज्यादा नहीं. बस चिट्ठियां लिखना चाहती हूँ. ये जानते हुए भी कि ऐसा सोचना खुद को दुःख के लिए तैयार करना है. मैं जवाब चाहती हूँ. मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे चिट्ठियां लिखे. मगर इतना जरूर कि मेरी लिखी चिट्ठियों का जवाब आये. 
आज ऐसा इत्तिफाक हुआ कि फोन पर बात करते हुए कुछ कमबख्त दोस्त लोग सिगरेट पीते रहे. हम इधर कुढ़ते भुनते रहे कि इन दिनों एकदम सिगरेट को हाथ नहीं लगायेंगे. मैं सिगरेट बिलकुल नहीं पीती. बेहद शौकिया. कभी छः महीने में एक बार एक सिगरेट पी ली तो पी ली. हाँ इजाजत की माया की तरह मुझे भी अपने बैग में सिगरेट का पैकेट रखने का शौक़ है. मेरे पास अक्सर सिगरेट रहती है. लाइटर भी. RHTDM का वो सीन याद आ रहा है जिसमें लाइट कटती है और मैडी कहता है, 'अच्छा है...मेरे पास माचिस है'. दिया मिर्जा कहती है, 'तुम सिगरेट पीते हो?'. मैडी कहता है, 'अरे मेरे पास माचिस है तो मैं सिगरेट पीता हूँ, मेरे पास कैंची है तो मैं नाई हो गया...व्हाट सॉर्ट ऑफ़ अ लॉजिक इस दैट'. मेरे बैग से लाइटर निकलता है तो मैं भी यही कहती हूँ. हालाँकि बात ये है कि लाइटर कैंडिल जलाने के लिए रखे जाते हैं.
ख़ुशी गुम होती जा रही है. आप कुछ कीजिये अपनी ख़ुशी के लिए. अपने बॉस, अपने जीवनसाथी, अपने माता-पिता, अपने दोस्तों, अपने बच्चों की ख़ुशी के अलावा...कुछ ऐसा कीजिये जिसमें आपको ख़ुशी मिलती हो. इस बारे में सोचिये कि आपको क्या करने से ख़ुशी मिलती है. दौड़ने, बागवानी करने, अपनी पसंद का खाना बनाने में, दारू पीने में, सुट्टा मारने में, डांस करने में, गाने में...किस चीज़ में? उस चीज़ के लिए वक़्त निकालिए. जिंदगी बहुत छोटी है. अचानक से ख़त्म हो जाती है. 
दूसरी बात. आपको किनसे प्यार है. दोस्त हैं. महबूब हैं. परिवार के लोग हैं. पुराने ऑफिस के लोग. उनसे मिलने का वक़्त निकालिए. यकीन कीजिये अच्छा लगेगा. आपको भी. उनको भी. जिंदगी किसी मंजिल पर पहुँचने का नाम नहीं है. ये हर लम्हा बीत रही है. इसे हर लम्हे जीना चाहिए. जिंदगी से फालतू लोग निकाल फेंकिये. जिनके पास आपके लिए फुर्सत नहीं है उनके लिए आपके पास वक़्त क्यूँ हो. उन लोगों के साथ वक़्त बिताइए जिन्हें आपकी कद्र हो. जिन्हें आप अच्छे लगते हों. और सुनने में ये भी अजीब लगेगा, लेकिन लोगों को हग किया कीजीये, जी हाँ, वही जादू की झप्पी. सच में काम करती है. मेरी बात मान कर ट्राय करके देखिये. शुरू में थोड़ा अजीब, चेप टाइप भले लगे, लेकिन बाद में अच्छा लगने लगेगा. सुख जैसा. सुकून जैसा. बचपन के भोलेपन जैसा. 
और सबसे जरूरी. खुद से प्यार करना. कोई भी परफेक्ट नहीं होता है. आपसे गलितियाँ होंगी. पहले भी हुयी होंगी. पिछली गलतियों को माफ़ नहीं करेंगे तो आगे गलितियाँ करने में कितना डर लगेगा. इसलिए खुद को हर कुछ दिन में क्लीन स्लेट देते रहिये. हम एक नए दौर में जी रहे हैं जिसमें कुछ भी ज्यादा दिनों नहीं चलता. उदासियाँ ओढ़ने का क्या फायदा. मूव ऑन.
यही सब बातें मैं खुद को भी कहती हूँ. इस दुनिया को जरा सी और खुशी की जरूरत है. जरा मुस्कुराईये. मुहब्बत से. 
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Published on April 26, 2016 14:08

मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.

प्रेम हर बार सम् से शुरू होता है. मैं विलंबित ख्याल में आलाप लेती हूँ. मेरी आवाज़ तुम्हें तलाशती है. ठीक सम् पर मिलती हैं आँखें तुमसे...ठहर कर फिर से शुरू होता है गीत का बोल कोई...सांवरे...

प्रेम को हर बार चाहिए होती है नयी भाषा. नए प्रतीक. नए शहर. नए बिम्ब. प्रेम आपको पूरी तरह से नया कर देता है. हम सीखते हैं फिर से ककहरा कि जो उसके नाम से शुरू होता है. वक़्त की गिनती इंतज़ार के लम्हों में होती है.
प्रेम आपको आप तक ले कर आता है. मैंने बचपन में हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत छः साल तक सीखा है. संगीत विशारद की डिग्री भी है. गुरु भी अद्भुत मिले थे. मैंने अपनी जिंदगी में किसी को उस तरह गाते हुए नहीं सुना है. फिर जिंदगी की कवायद में कहीं खो गया संगीत.
मैंने हारमोनियम ग्यारह साल बाद छुआ है. मगर ठीक ठीक संगीत छूट गया था देवघर छूटने के साथ ही १९९९ में. बात को सत्रह साल हो गए. देवघर में हमारा अपना घर था. पटना में किराए का अपार्टमेंट था. गाने में शर्म भी आती थी कि लोग परेशान होंगे. शाश्त्रीय संगीत को शोर ही समझा जाता रहा है. फिर घर छूटा. दिल्ली. बैंगलोर. 
संगीत तक लौटी हूँ. पहली शाम हमोनियम पर आलाप शुरू किया तो पाया कि सारे स्वर इस कदर भटके हुए हैं कि एकबारगी लगा कि हारमोनियम ठीक से ट्यून नहीं है. मगर फिर समझ आया कि मुझे वाकई रियाज किये बहुत बहुत साल हो गए हैं. आखिरी बार जब रियाज किया था तो एक्जाम था. उन दिनों सारे राग अच्छे से गाया करती थी. छोटा ख्याल, विलंबित ख्याल. तान. आलाप. पकड़. छः साल लगातार संगीत सीखते हुए ये भी महसूसा था कि आवाज़ वाकई नाभि से आती महसूस होती है. पूरा बदन एक साउंडबॉक्स हो जाता है. संगीत अन्दर से फूटता है. उन दिनों लेकिन मन से तार नहीं जुड़ता था. टेक्निक थी लेकिन आत्मा नहीं. वरना शायद संगीत को कभी नहीं छोड़ती.

इन दिनों बहुत मन अशांत था. मैं ध्यान के लिये योग नहीं कर सकती. मन को शांत करने के लिए सिर्फ संगीत का रास्ता था. सरगम का आलाप लेते हुए वैसी ही गहरी साँस आती है. मन के समंदर का ज्वारभाटा शांत होने लगता है. हारमोनियम ला कर पहला सुर लगाया, 'सा' तो आवाज़ कंठ में ही अटक रही थी. गला सूख रहा था. ठहर भी नहीं पा रही थी. सुरों को साधने में बहुत वक़्त लगेगा. हफ्ते भर के रियाज में इतना हुआ है कि सुर वापस ह्रदय से निकलते हैं. मन से. सारे स्वर सही लगने लगे हैं. अभी सिर्फ शुद्ध स्वरों पर हूँ. कोमल स्वरों की बारी इनके बाद आएगी.
प्रेम. संगीत के सात शुद्ध स्वर. 
मेरे अंतस से निकलते. मैं होती जा रही हूँ संगीत. इसी सिलसिले में सुबह से पुरानी ठुमरियों को सुन रही थी. ये सब बहुत पहले सुना था. उन दिनों समझ नहीं थी. उन दिनों क्लासिकल सुनना अच्छा नहीं लगता था. न हिन्दुस्तानी न वेस्टर्न. शायद वाकई क्लासिक समझने के लिए सही उम्र तक आना पड़ता है. जैज़ भी पिछले एक साल से पसंद आ रहा है. संगीत के साथ अच्छी बात ये है कि आप उससे प्रेम करते हैं. उसे समझने की कोशिश नहीं करते. मुझे सुनते हुए राग फिलहाल पकड़ नहीं आयेंगे. शायद किसी दिन. मगर मेरा वो करने का मन नहीं है. मैं अपने सुख भर का गा लूं. अपने को सहेजने जितना सुन लूं...बस उतना काफी है.

इस वीडियो में तस्वीर देखी. आँख भर प्रेम देखा. उजास भरी आँखें. श्वेत बाल. बड़ी सी काली बिंदी. वीडियो प्ले हुआ और मुझे मेरा सम् मिल गया. मैं सुबह से एक इसी को सुन रही हूँ. मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.
'जमुना किनारे मोरा गाँव
साँवरे अइ जइयो साँवरे'
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Published on April 26, 2016 00:55

April 23, 2016

अदब का नाम, 'सरकार' | God is a postman (5)


गोधूली में बाइक की आवाज़ देर तक सुनाई देती रही. कि जैसे उसने जिंदगी दो फाँक बाँट दी हैं. अतीत और भविष्य. जैसे वर्त्तमान कुछ था ही नहीं. रूद्र अपने अतीत और भविष्य के बीच झूल रहा था बिना बीच के बिंदु पर रुके हुए. उस दिन पहली बार रूद्र को इतरां के मर जाने का डर लगा.
क्यूँ का जवाब उसके पास नहीं था. इत्ती सी इतरां. अभी एक लम्हा पहले यहीं थी. वादा करके गयी है कि कल आएगी. मगर ये सीने में किस विरह की हूक उठी है कि जैसे उससे क्या छिन गया हो. रूद्र भी गाँव के बाकी लोगों की तरह इतरां और माही में फर्क नहीं कर पा रहा था शायद. आसमां में चाँद की पतली सी रेख थी. कल की अमावस के होने को गहरा करती हुयी. इतरां के नहीं होने के अँधेरे को गहरा करती हुयी भी. रूद्र ने दरी निकाल कर आम के पेड़ के नीचे डाल दी थी. उसपर लेटा हुआ सोचता रहा कि चाँद किसकी याद में घुलता रहता था इतनी इतनी रातें. उसके लिए तो यहाँ जमीन पर इतरां है और ऊपर आसमान में माही. क्या ही चाहिए और. चाँद को एक पूरी अमावस की रात मोहलत थी कि अपने उदास चेहरे को धो पोंछ सके और अगले दिन मुस्कान की पतली रेख सा खिल सके, नया चाँद. 
यादों को फुर्सत कहाँ लेकिन. रूद्र सितारों में माही का नाम तलाशने लगा. बेतरतीबी से पड़े सितारे उसे उलझाते रहे. उसे कई बार लगता था कि उसे सारे सितारे याद हैं. कि जैसे किसी के साथ प्रेम में बिताये सारे लम्हे. कुछ कम तेज़ चमकते. कुछ ज्यादा. मगर प्रेम के हर लम्हे की मौजूदगी होती थी. अपने नियत स्थान पर. रूद्र बहुत साल बाद बगरो से अचानक मिल गया था संक्रांति के मेले में. अपने बेटे के साथ जलेबी खरीद रही थी. उसको देख कर बेतरह खुश और बेतरह उदासी के बीच रंग में ढल गयी. आँखों और होठों ने आधी आधी जिम्मेदारी ले ली. होठ मुस्कुरा रहे थे. आँखें भर आई थीं. माथे पर घूंघट खींच के पास आई और कहा, 'शहर में अब तक कोई कुरते का बटन टांकने वाली नहीं मिली का? ई लफुआ जैसन भर जिंदगी बिना बटन के कुरता पहनोगे?'. और फिर वो मेला मेला नहीं रहा, कच्चा मकान हो गया जहाँ बगरो उसकी ब्याहता थी और लजाये हुए लाड़ कर रही थी सुबह, काम पर जाने के पहले. फिरोजी कांच की चूड़ियों से एक आलपिन खोली और कुरते के बटन की जगह लगा दिया. रूद्र भूल गया था कि कुरते के बटन टांकने वाली कोई होती है...होगी. या कि उसके कुरते का बटन खुला है. कितनी सादगी से बगरो उसकी बिखरती हुयी दुनिया को एक आलपिन से टांक कर चली गयी थी. मेले में फिर उसका जी एकदम भी नहीं लगा. किताबों में भी नहीं. उसे माही से मिलने की हूक उठी. एक वही है जो पूरे धैर्य से उसकी कहानी सुनती है. फिर इतरां से भी मिल लेगा. माही का जाना उसे पहले से मालूम होता तो शायद तकलीफ कम होती. मगर यूं नन्ही इतरां की नब्ज़ में अटकती चिट्ठियों में मरने की खबर पढ़ना हिचकियों से अपना नाम अलगाने की तरह बेइंतेहा उलझा हुआ था. इस टूटने में भी उसे सम्हालने को इतरां का नन्हा वादा था. कल आने का. वो इतरां के लिए ठीक वही होना चाहता था जो माही उसके लिए थी...पनाह.

खाना खाने का भी दिल नहीं किया आज. सत्तू रखा था. थोड़ा काला नमक डाल के पी गया. प्याज काटने तक का मन नहीं था आज उसका.उसे माही से शिकायत करनी थी बगरो की...इतरां की भी. इतरां चंदर को देख कर ऐसी भागती क्यूँ गयी उसके पास? चंदर से तो रोज मिलती है न...रूद्र से पहली बार मिली है इतने सालों में. नालायक माही, इतनी प्यारी बच्ची को ऐसे छोड़ कर जाने का जी कैसे हुआ उसका. इतरां के बारे में सोचते हुए उसका दिल एक अजीब शंका से भर गया. कि जैसे इतरां भी उससे छिन जायेगी. रूद्र ने खुद को समझाने की कोशिश की कि माही की मौत का सदमा है जो उसे ऐसे वाहियात ख्यालों में उलझा रहा है. उसकी कच्ची नींदों में छोटी छोटी कब्रें आती रहीं. नदी में बहाए हुए बच्चे. कफ़न में लिपटे हुए गोदी में उठाये हुए बच्चे. वो पूरी पूरी रात नींद में चीखता रहा, इससे बेखबर कि उसकी चीखें इतरां को चुभेंगी. कि भले ही उसे इस बात से गुस्सा आये कि इतरां चंदर को देखते ही उसकी ओर भागती चली गयी थी, उसे ये नहीं मालूम कि इतरां का मन उसी के पास अटका हुआ रह गया है.
भोर को आसमान में गहरा लाल इंतज़ार उगा और रूद्र की टूटी नींद की दरारों में धूप भरती गयी. उस ने रामचरित मानस खोला और सुन्दर-काण्ड का पाठ करने लगा. उसके मन को थोड़ी शान्ति आई और वो गाँव का एक फेरा लगाने निकल पड़ा. गाँव में हल्ला हो चुका था कि रूद्र आया है. सब उसकी कहानियाँ सुनने को बेताब थे. रूद्र का घर गाँव के आखिर छोर पर था. वहाँ तक पहुँचते पहुँचते स्कूल का वक़्त हो गया था. इतरां अपनी स्कूल ड्रेस पहन कर तैयार थी बस स्कूल जाने के लिए. उसने बिना कुछ कहे आ कर रूद्र की ऊँगली पकड़ ली और बड़ी दीदी को बोल दिया कि आज वो रूद्र के साथ स्कूल चली जायेगी. उसे रास्ता मालूम है. रूद्र ने बहुत चाहा कि आते के साथ ही इतरां की अच्छी आदतें न बिगाड़े लेकिन इतरां की शैतान आँखों को देखते ही उसे अपना बदमाश बचपन याद आने लगा था. उनमें एक अलिखित समझौता हो गया कि आज स्कूल नहीं जाना है. इतरां उसे अपने हिसाब का गाँव दिखाना चाहती थी, रूद्र उसे अपने समय के अड्डे. यादव टोला से जरा आगे आम का पेड़ था जिसपर पूरी गर्मियां टीन बाबा पहरा देते थे. उनके पास एक डालडा का कनस्तर होता था और एक बड़ी सी लाठी जिससे वो ताबड़तोड़ किसी भी आमचोर का गधा जनम सुधार सकते थे. यहीं पर एक शहतूत का पेड़ भी था इतरां फट से पेड़ पर चढ़ी और अपनी दोनों मुट्ठियों में गहरे लाल शहतूत लिए उतरी. रूद्र और इतरां साथ में शहतूत खाते हुए भूल गए कि इसका गहरा लाल रंग बाद में कत्थई हो जाता है. जैसे अनुराग गहरा के प्रेम हो जाता है.
दोपहर को दोनों रूद्र की कैरावन में आ गए जहाँ रूद्र गुनगुनाते हुए खाना बना रहा था और इतरां गिलास और चम्मच से ताल दे रही थी. बड़ी सरकार के होते घर में सारे काम हिसाब से होते थे. घर का खाना भी सादा किसानों के घर का खाना होता था जिसमें मर्दों के हाथ कभी नहीं लगते थे. इतरां ने पहली बार किसी आदमी को खाना बनाते देखा था. घर पर तो किसी ने भंसा के चबूतरे पर भी पैर नहीं रखा था. सबका खाना आँगन में ही लगता था. रूद्र ने खाना बनाना बगरो के जाने के बाद सीखा था कि उसे मालूम था कि अब उसके जीवन में कोई दूसरी औरत नहीं आएगी. इतने साल हो गए उससे अब भी ढंग की रोटी नहीं बनती थी. आलू की भुजिया और अचार कच्ची पक्की रोटी में लपेट कर एक एक कौर करके रूद्र और इतरां खा रहे थे कि दांत काटी रोटी का रिश्ता बनायेंगे हम. रूद्र को अचानक से माँ के हाथ का खाना खाने की भूख जागी. उसने इतरां से पूछा कि दादी सरकार क्या बनाती हैं आजकल खाने में. इतरां चटोर, सब एक एक करके गिनाती गयी. बैगन का बचका. लाल साग. कद्दू के फूल का पकौड़ी. दुफ्फा. सब. शाम हो रही थी. इतरां रूद्र की ऊँगली पकड़ कर भारी क़दमों से घर चली. माही की चिट्ठियां इतरां को कुछ नयी ही खुराफात बता रही थी. इतरां घर के चबूतरे पर पहुंची और रूद्र की ऊँगली खींचते खींचते घर के आँगन में ले आई. रूद्र इतरां की नन्ही ऊँगली थामे घर में ऐसे दाखिल हुआ जैसे घर इतरां का ही हो और सारे अधिकार इतरां के हैं. दादी सरकार ने सोचा इन्दर आया है. भंसा से रोज की तरह उसके लिए निम्बू का शरबत लिए बाहर आई. सामने रूद्र को देख कर उन्हें चक्कर आ गया. भरभरा के फर्श पर गिरतीं लेकिन रूद्र भी सम्मोहन से जागा और उन्हें बांहों में भर लिया. बरसों से बिसरे जिस बेटे के नाम सिर्फ साल का एक दिन का व्रत आता था उसे सामने देख कर दादी सरकार इस तरह कलप के रोयीं कि जैसे चट्टान को काट कर नदी के बहने का रास्ता निकला हो. रात को खाना खा कर हाथ धो रहा था रूद्र और इतरां लालटेन और गमछा लिए खड़ी थी. सब इतना आसान भी हो सकता था? ये अधिकार कहाँ से आता है? नन्ही इतरां सबकी अना को अपने भोले बचपने में झुका सकती थी। 
रूद्र ने हथेली आँखों तक उठायी और जिस धीमी आवाज़ को सिर्फ धड़कन में सहेजा जा सके, इतरां का अदब का नाम पुकारा, 'सरकार'.
---पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की ५वीं किस्त है. पहली ४ इन लिंक्स पर
1. किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था.2. इतरां की माही. वो जीती जागती औरत थी या कंठ से फूटता लोकगीत?3. बचपन एक आवारा दिवास्वप्न था. बस.4. शब्द उसकी पनाह थे 
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Published on April 23, 2016 16:50

March 27, 2016

शब्द उसकी पनाह थे | God is a postman | (4)


ये उन दिनों की बात है जब रूद्र किसी का नहीं था. हवा पानी और मौसम के सिवा. बचपन से ही उसके विलक्षण होने के चर्चे होने लगे थे. किसी भी संगीत को क्षण में पकड़ लेने वाला रूद्र. 'सदा आनंद रहे एही द्वारे मोहन खेले होरी'. कहते थे कि उन दिनों घूमता फिरता मनमौजी रूद्र जिनके घर की दहलीज पर एक बार फाग गा देता, दुःख उस पूरे साल उनके घर का रास्ता भूल जाते.

रूद्र. बड़ी सरकार का मुंहबोला बेटा. सबसे बड़ा. सबसे जिद्दी. जिन दिनों लोग किसानी में खुश रहते थे और सोचते भी नहीं थे कि इंजिनियर लोग होते हैं जो बड़े बड़े पुल बनाते हैं. रेल लाइनें बिछवाते हैं. उनके बीच से ही उभर कर आते हैं. उन बचपन के बेलौस दिनों में एक बार हरिद्वार से आये साधुओं के पास बैठा चिलम गायब करने की जुगत लड़ाते रूद्र के कान में रुड़की की बात पड़ गयी...कि वहां से निकले एक लड़के ने बाँध बनाया है. कि पूरी पूरी नदी का पानी रोक सके और उससे बिजली निकल सके. बस. रूद्र को बिजली पकड़ने वाला वही इंजिनियर बनना था. सिविल इंजिनियर. घर के रोने धोने के बाद खाने पीने का सामान बाँधा गया. बाबूजी खुद हरिद्वार जा के उसे कॉलेज में दाखिला दिला आये. फिर चार साल उधर और रूद्र की अगली जिद. रूस जा के पढूंगा. तब जब कि रूस सिर्फ राजकपूर के रेडियो से चिल्लाते, 'सर पे लाल टोपी रूसी' के लिए जाना जाता था घर पर कोहराम मचा. रूद्र अपने साथ एक ग्लोब लेकर आया था. फीते से नाप कर दिखाया कि देख लो बड़ी सरकार. मैं सिर्फ तीन अंगुल दूर रहूँगा तुमसे. चिट्ठी लिखूंगा. तार भी भेजूंगा. बस मुझे जाने दो. पढ़ना लिखना जो है सो है, दुनिया घूमनी है मुझे. साहबजादे रूद्र. और उनकी जिद. चल दिए सामान बाँध कर रूस. पांच साल देखते देखते कट गए. लौट कर आया तो देखा कि बाबूजी के सर के बाल पकने लगे हैं. बिहार सरकार की सिविल सर्विसेस थी. देश उन दिनों आगे भागने के सपने देख रहा था और इस सपने की ऊर्जा का एक बड़ा श्रोत था नदी पर बने बांधों से आती जल-ऊर्जा से बनी विद्युत्. बिजली. सपनों में भी चमक आने लगी थी. जिस दिन गाँव तक बिजली की लाइन आई उसकी चमक सबसे ज्यादा बड़ी सरकार की आँखों में दिखी थी. वो बल्ब तो एक आध महीने जलने के बाद फिर बरसों बरस अन्धेरा रहा लेकिन उस लम्हे की ख़ुशी और गर्व को मिटाने को वक्त भी नाकामयाब रहा. इन दिनों एक और ऊर्जा थी. रूद्र के चेहरे पर. उसके दिल पर. दूर संथाल परगना के जिस जंगल में वह अपना अनुसन्धान कर रहा था उसके जीवन की डोर संभाल रखी थी बगरो ने. अठरह साल की बगरो. ताम्बई रंग और चमकती आँखों वाली बगरो. अपनी गहरे लाल पाड़ की सारी में गठे बदन वाली बगरो कि जो रूद्र का खाना पीना, रहना सब देखती थी. रूद्र ने उसे हिंदी और अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया था और बगरो ने उसे बारिश की भाषा, चिड़ियों का संगीत और झरनों की खुसपुस. बात पढ़ाने की आती तो बगरो हमेशा उससे एक कदम आगे निकल जाती. रूद्र गिटार पर कोई संथाल धुन ऐसी बजा सकता था कि बगरो खुद को नाचने से न रोक पाती लेकिन रूद्र बहुत सीख कर भी नहीं जान पाता कि तूत के सबसे मीठे लाल फल कहाँ मिलेंगे या कि भांग की बूटी जंगल में कहाँ मिलती है. 
प्रेम उनके बीच कविताओं में पनपता. रूद्र ने उसे अंग्रेजी सिखाने के पहले कवितायें पढ़नी शुरू कर दीं. 'एक प्रेमी की सटीक, घातक पहचान सिर्फ एक ही है- मैं इंतज़ार में हूँ.' रूद्र इंतज़ार में रहता. दिन. दुपहर. शाम. जंगल की आदत बहुत भीषण होती है. पहाड़ी झरने के पानी के स्वाद के बाद सब जगहों के पानी का स्वाद फीका लगता है. जंगली फूलों की खुशबू बाग़ के फूलों से ज्यादा तीखी होती है कि उनका होना किसी निमित्त मात्र नहीं होता. वे सिर्फ अपने लिए होते हैं. बगरो ऐसी ही थी. रूद्र की होती हुयी भी स्वतंत्र. रूद्र से प्रेम करते हुए भी उसकी परछाई नहीं बनती, बल्कि कई बार तो उसके होने की चमक इतनी ज्यादा होती कि रूद्र की चमक फीकी लगती. रूद्र को अक्सर उसे देख कर अपनी माँ, बड़ी सरकार की याद आती. वह कई बार सोचता कि घर में बगरो घुल पाएगी कि नहीं. बड़ी सरकार ने अपनी होने वाली बहू के लिए क्या क्या सपने संजोये होंगे. वो कभी कभी बगरो को अपनी बचपन में देखी हुयी भाभियों की तरह बनाना चाहता. एक बार उसके लिए शहर से ब्लाउज बनवा के लाया. उसे सीधे पाड़ की साड़ी पहनाई. बगरो ने उत्साह से पहन ली साड़ी लेकिन उसे देख कर रूद्र का दिल खुद बुझ गया. उसका प्रेम बगरो के अक्खड़ जंगली सौन्दर्य से था. उसके वाचाल होने और बेलौस होने से था. ये साड़ी का अंचल पकड़ शर्माती सकुचाती लड़की उसके लिए माँ भी ढूंढ लाती. ये एक तरह की क्रूरता थी. पिछली छुट्टियों में वो अपने क्वार्टर के आगे से कुछ फूलों के पेड़ ले गया था घर में लगाने के लिए. वे उसके रहते रहते ही हफ्ते भर में मर गए. उसे महसूस हो रहा था कि बगरो उस घर में नहीं रह पाएगी. उसे शायद ऐसी यायावरी की जिंदगी ही चुननी पड़ेगी जिसमें वे दोनों गाँव, जंगल, बस्ती भटकते रहेंगे. उसने बगरो के घर वालों से बात कर ली और अपने साथ उसे लेकर गाँव चला गया कि इसी बहाने माँ और बाबा उसे देख लेंगे और शायद पसंद भी कर लें.

रूद्र घर की बारीकियों को उस वक़्त तक नहीं पहचानता था. घर में नौकर चाकर कभी थे नहीं. बगरो को देख कर किसी ने भी ये सोचा नहीं कि वो उसके साथ बराबरी से है. सबने बगरो की वेशभूषा देख कर सोचा कि माँ को आराम हो इसलिए रूद्र अपने साथ एक नौकरानी लेकर आया है जो बड़ी सरकार का ख्याल रखेगी. उन्होंने पूछने की जरूरत भी नहीं समझी कि बगरो कौन है, किसलिए आई है. रूद्र का कलेजा ऐसा कचका कि आंधी की तरह घर से बाहर निकल गया. सीधे आम के पेड़ की डाल पर. दिन भर घर नहीं लौटा और परेशान होता रहा कि किसको बताई जाए बात और कैसे. मगर लौटना तो था ही. शाम के झुटपुटे के पहले लौटा तो बाबूजी अपनी बैठकी में थे. बाबूजी ने कभी उसकी किसी बात को मना नहीं किया था. इसलिए उसने एक उम्मीद मानी थी दिल में कि शायद बाबूजी मान जायेंगे. संझा बाती के बात लालटेन लेकर वह बाबूजी के कमरे में पहुंचा. बाबूजी को बताया कि वह बगरो से प्रेम करता है. उससे शादी करना चाहता है. बाबूजी ने संयत होकर उसकी पूरी बात सुनी और आखिर में अपने हिस्से की बात समझाई. बगरो से शादी करने के बाद उनके परिवार को बहिष्कृत कर दिया जाएगा. उनके घर में कोई बेटी नहीं ब्याहेगा तो उसके छोटे भाइयों की शादी में बहुत मुश्किलें आएँगी. शायद किसी दूर के गाँव का कोई परिवार अपनी बेटी दे दे लेकिन वे सब भी बगरो को कभी अपने बराबर का नहीं मानेंगी. गाँव के किसी त्यौहार पर उनका न्योता नहीं आएगा और अभी जो तुम्हारी माँ सब जगह जाती रहती है उनका आना जाना भी बंद हो जाएगा. हम एक समाज में रहते आये हैं और इसके नियम तोड़ने की कुछ सजाएं हैं. प्रेम अपनेआप में एक बड़ी संस्था है और कभी कभी ऐसी संस्थाएं कुर्बानी मांगती हैं. रूढ़ियों को तोड़ने में तकलीफ सिर्फ तुम्हें नहीं, तुम्हारे पूरे परिवार को होगी. हम बहुत हद तक आत्मनिर्भर हैं और मैं तुम्हारे फैसले का सम्मान करूंगा. जरूरत पड़ी तो हम किसी नए गाँव जा कर भी बस सकते हैं. रास्ता आसान नहीं है. मैं तुम्हारे हर फैसले में तुम्हारे साथ हूँ, लेकिन अंतिम निर्णय तुम्हारा है. 
बाबूजी शायद मना कर देते तो रूद्र का खून उबाल मारता और वो कोई इन्किलाबी फैसला ले लेता लेकिन बाबूजी की व्यवहारिक मुश्किलें इतनी सच थीं कि उनके सामने कविताओं की दुनिया का कोई सौंदर्य नहीं ठहरता. रूद्र चाह कर भी अपने बड़े परिवार को अपनी ख़ुशी के लिए तकलीफों में नहीं डाल सकता था. वे त्याग के दिन थे. आत्माभिमान के दिन थे. रात गहरा गयी थी. ढिबरी की रौशनी में उसने देखा बगरो माँ के पैर दबा रही है और कोई उदास गीत गुनगुना रही है. ये नेरुदा की कविता से मिलता जुलता एक था. 'मैं आज दुनिया के सबसे उदास कविता हूँ...जीवन के इस निस्तार में प्रेम कितना छोटा सा लम्हा है मगर विरह...आह...एक जीवन भर का गीत है विरह'. शायद उसने बगरो को नेरुदा के गीत नहीं पढ़ाये होते तो उस रात का दर्द कुछ कम चुभता उसे. वह दृश्य रूह पर टंकित हो गया था. रौशनी में जरा जरा दिखती उसकी उदास आँखें. खटिया पर साथ गुनगुनाती माँ...बीच में पूछती सवाल...तुम इतनी उदास क्यों हो लड़की. कौन है जिसने तुमसे प्यार किया था कभी. क्या वो खो गया है? क्या वो मर गया है? रूद्र के दिल ने कहा...हाँ...वो खो गया है...और काश वो मर सकता.
रूद्र के पठन पाठन में बाबूजी का बहुत योगदान था. उन्होंने उसे दर्शन की बारीकियां समझाई थीं. रामचरितमानस के अंत में एक प्रश्नावली होती है. जब रूद्र को अपने किसी सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता तो वो इस प्रश्नावली से अपना सवाल पूछता था और उसके हिसाब से चलता था. आज बहुत बहुत साल बाद उसके पास एक ऐसी समस्या थी जिसके लिए वो इश्वर की थोड़ी मदद चाहता था. देर रात कमरे में माचिस की रौशनी में भगवान् राम को अपने पूरे मन से याद करते हुए रूद्र सवाल बुदबुदाया, 'क्या मुझे बगरो से शादी करनी चाहिए?'. जवाब में रामचरित मानस की वो चौपाई आई जो आज तक उसके किसी सवाल में नहीं आई थी...कि अक्सर इश्वर उसके साथ ही खड़े होते थे जीवन के सारे बड़े निर्णयों में.' होइही सोई जो राम रचि राखा. को करि तर्क बढ़ावै साखा'. मगर यहाँ प्रसंग में यह कहा गया है कि कार्य शुभ नहीं है और इसकी परिणति अच्छी नहीं होगी. 
रूद्र अगले दिन बगरो के घर गया और भरे मन से उसने उसके माता पिता से माफ़ी माँग ली. लौट कर अपना सामान समेटा. बगरो को अंतिम विदा की एक चिट्ठी लिखी. उसे समझाया कि उनका साथ संभव नहीं है कि वह उससे उम्र भर नफरत कर सकती है मगर रूद्र के हिसाब से वो रूद्र को कुछ दिन में भूल जायेगी और अपने जैसे किसी से शादी कर के लोकगीत गाती हुयी सुन्दर बच्चों की माँ बनेगी. इसके बाद रूद्र ने सिर्फ एक बैग में जीने लायक सामान भरा और यायावरी के रास्ते निकल पड़ा. उसकी बेचैन रूह को कहीं करार नहीं आना था. आध्यात्म मे लिए अभी उसकी आत्मा तैयार नहीं थी. अभी वहां विरह की भीषण वेदना थी. जब तक मन इस दुःख से बाहर निकल नहीं जाता, उसे इश्वर के पास शांति नहीं मिलती. ऋषिकेश में हफ्ते भर रहते हुए उसने अपनी जिंदगी के लिए एक मकसद और एक पनाह तलाशनी शुरू की...इन्ही दिनों उसे चिट्ठियां मिलीं. खून में बहती हुयीं. हवा में घुली हुयीं. गंगा के बर्फीले सफ़ेद पानी में उभर आती चिट्ठियां. उसकी नीली नसें तड़कतीं और वो बगरो की चहचहाहट को तलाशता मगर सिर्फ लहरों का शोर होता. गंगा का पानी उसकी सोच को और तीखा कर देता और उसे पहाड़ी झरनों का मीठा पानी याद आता. बगरो की गंध उसके काँधे पर साथ चलती. उसकी उँगलियों में गुंथती. 
पनाह. शब्दों में थी. रूद्र ने निश्चय कर लिया था कि वो अपने जीने के लिए कल्पना का एक वृहद् संसार रचेगा जिसमें पूरी दुनिया से चुनी हुयी कवितायें होंगी और ये कवितायें वो खुद चुन कर लाना चाहता था. एक लम्बे सफ़र के अंत में हमेशा एक किताबों की दुकान होती. एक अनजान भाषा का देश होता. अजनबी लोग होते. धीरे धीरे उसे कविताओं की गंध लगने लगी. जबकि दुनिया को कोई चीज़ इस छोर से उस छोर तक नहीं जोड़ती थी मगर वह पॉइंट्स प्लाट करते चलता. नयी भाषाएं सीखते चलता. टूटे शब्द. बिखरे शब्द. उम्मीद के शब्द. साथ बुनते चलते दुनिया के ऊपर रहमतों का रेशम दुशाला. याद की दुखती रातों में रूद्र दुशाले का एक कोना पकड़ कर सोता. यूँ ही चलते चलते एक दिन दुनिया छोटी पड़ गयी. रूद्र लौट कर अपने देश आ चुका था. उसके साथ थी पूरी दुनिया की कविता की किताबें. दिल्ली के पोस्ट ऑफिस में उसके पोस्ट बॉक्स में वो सारी किताबें सुरक्षित थीं. अब आवारगी को एक ठिकाना देना था. उसने अपने लिए एक कैरवन खरीदा और उसे पूरी तरह एक छोटी लाइब्रेरी और रहने के कमरे में परिवर्तित कर दिया. यहाँ किताबों की जगह थी और चिट्ठियों की दराज थी. सोने का कमरा. छोटा सा किचन. खाने का जरूरी सामान भर. 
जैसे सांस अटकती है रूद्र दिल्ली से वापस आ रहा था. घर. रास्ते के हर गाँव में रुकता हुआ. लोगों को कहानियां सुनाता. चिट्ठियां दिखाता. देर रात गिटार पर अलग अलग देशों के गीत गाता और हमेशा रात के अँधेरे के पहले सो जाता. उससे लैम्प, लालटेन या डिबरी से अब भी तकलीफ होती. कभी कभी पेट्रोमैक्स जला लेता कि जब किसी गाँव के बच्चे बहुत जिद करते. लौट कर आया तो सबसे पहले जो चीज़ महसूस हुयी उसे वो थी माही. मरहम जैसी माही. रूद्र उस दिन पहली बार खूब फूट फूट के रोया था. सिविल इंजीनियर रूद्र ने अपने मन पर भी तो बाँध बना रखा था जिसमें बगरो की सारी यादें ठहरी हुयी थीं. उस दिन उस बाँध से गिरते पानी से इतनी ऊर्जा निकल रही थी कि कई लोगों की जिंदगियां रोशन हो सकती थीं. माही से बात करना इतना आसान कैसे था. कि जैसे बिना बोले समझ जाती थी मन का सारा हाल. कुछ दिन में रूद्र को महसूस होने लगा कि उसके पांवों में जड़ें उगने लगी हैं. गाँव उसे बेतरह खींचता था. माँ, बाबा और माही का निश्छल प्रेम भी. अब रूद्र को बंधन में छटपटाहट होती थी. उसे विदा कहना नहीं आता था. इक रोज़ बस अपना कैरवन लेकर निकल गया बहुत बहुत दूर. फिर माही की खबर मिली कहीं से कि बेटी हुयी है. इतरां. मगर देश के दूसरे छोर से आते आते वक़्त लग गया. 
और यहाँ थी इतरां. और जा चुकी थी माही. 
रूद्र ने बहुत दिन बाद अपनी डायरी निकाली और रोलां बार्थ की कविता पर उसकी नज़र पड़ी...इस नन्ही इतरां ने अपनी मुट्ठी में उसका दिल बाँध रखा था. इत्ती सी इतरां. टिमिक टिमिक कैसे आँखें झपका कर कह रही थी. मैं कल आउंगी. पक्का. वादा. बहुत बहुत साल बाद रूद्र को एक पुरानी बात याद आई कि जब बगरो को घर लेकर आने वाला था तो बहुत लाड़ में कहा था उससे...'मुझे और कुछ नहीं, बस एक बेटी चाहिए...एकदम तुम्हारे जैसी...'.
रोलां कह रहा था...'प्रेमी की सटीक, जानलेवा पहचान एक ही है- मैं इंतज़ार में हूँ'.-----पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की चौथी किस्त है. पहली तीन इन लिंक्स पर
1. किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था.2. इतरां की माही. वो जीती जागती औरत थी या कंठ से फूटता लोकगीत?3. बचपन एक आवारा दिवास्वप्न था. बस.
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Published on March 27, 2016 10:36

March 12, 2016

बचपन एक आवारा दिवास्वप्न था. बस | God is a postman| (3)


दिवास्वप्नों के घर नहीं होते. वे पनाह तलाशने रास्तों के पास बैठे रहते हैं कि कोई उन्हें घर ले जाए. अनछक बारिशों में इतरां अपने नन्हे डगमग पैर लिए चलने लगी. गाँव की मिट्टी को बहुत दिन बाद किसी ने सुना था. उसकी गुलाबी एड़ियों में कीचड़ लगा रहता. गाँव की पगडंडी. खेत की मेड़. शिवाले के पास का पोखर. सब धांगती रहती इतरां. गरमी की दोपहरें तो उसकी पसंदीदा थीं. गाँव का कोई कोना न होगा जिसके बारे में इतरां को मालूम न था. उसके साथ गाँव के बच्चों की पूरी बानर टोली चलती थी. बस ऐसी ही किसी दोपहर इतरां को सांप ने काट लिया. लोग उठा कर सीधे पास वाले हॉस्पिटल भागे जहाँ इन्दर काम कर रहा था. वहां पहुंचे तो पता चला इन्दर औपरेशन थियेटर में है. इन्दर के दोस्त डॉक्टर हरि ने इतरां को देखा. एंटीवेनम दिया. पर्ची पर बाकी दवाइयों के नाम लिख रहा था कि देखा कि नीचे की ओर भूरे रंग में लिखा जा रहा है 'हरहरिया सांप'. इतरां इंजेक्शन लगते वक्त भी खीखी करके हँस रही थी. डौक्टर को जाने कैसे महसूस हुआ कि इतरां ने लिखे हैं वे टेढ़े मेढ़े शब्द, मगर उसने ख्याल को हवा में उड़ा दिया. गाँव से साथ आये हुये किसी ने लिखा होगा कि इतरां को किस सांप ने काटा है. मगर डॉक्टर हरि को उस दिन के बाद से किसी ने डॉक्टर हरि नहीं कहा, हरहरिया सांप ही कहते रहे. ये इतरां का पहला किस्सा था. बायीं हथेली के उलटी तरफ सांप के दांतों के दो निशान थे. गोल-गोल, काले. इतरां सांप के दांत के निशान को दिखा कर कहती, ये आधा किस्सा है. इसमें एक बिंदु और लगेगा. तुम देखना. ये उन दिनों की बात थी कि जब इतरां को कहानी के अंत में लगने वाली तीन बिंदियों के बारे में हरगिज़ पता नहीं हो सकता था.

इतरां बचपन से ही किस्सागो थी. हवा से कहानियां बुनती. बातें इतरां को छू कर गुज़रतीं तो अपना रंग बदलने लगतीं. उसमें किसी भी किस्से को सुखान्त करने का हुनर था. उसके लिए मौत कोई दुःख भरी चीज़ नहीं थी. वो मौत का किस्सा सुनाती तो कुछ यूं कि उसकी माँ माही अपने मायके गयी है. इश्वर के यहाँ बहुत सुख से रह रही है. लौट आएगी दुनिया में कुछ दिन रह कर. हाँ, यहाँ सबको उसकी याद आती है लेकिन हर औरत अपने मायके में भी तो रहना चाहती है कुछ दिन कि उसके मायके में सब कुछ उसकी मर्जी का होता है. फिर नन्ही इतरां बिलकुल गंभीर होकर ग़ालिब का शेर सुनाती, 'हमको मालूम है जन्नत की हकीकत इसलिए, दिल के खुश रखने को तेरा हर ख्याल अच्छा है’. तो कायदे से इतरां ने कोई बुरी खबर कभी किसी को सुनाई ही नहीं थी. लोगों को पूरा विशवास था कि इतरां की जुबान पर माँ सरस्वती विराजती हैं. गाँव की लड़कियां उसके इर्द गिर्द अपने प्रेमियों के किस्से लिए डोलती थीं. 'बोल मेरी इतरां, वो मिलेगा न मुझे, दशहरा के मेले में...बोल मेरी इतरां...होली पर वो घर आएगा इस साल कि नहीं?' इतरां के पास हर सवाल के लिए एक कहानी होती थी. वो पूरे डीटेल में बताती थी कि महबूब कहाँ अटक गया है...बस इतरां के बिम्ब उसकी अपनी दुनिया के होते थे. इतरां को पूरा पूरा गाँव मिल कर बिगाड़ रहा था. सब ही उसे सर चढ़ाते थे. खास तौर से जब से सांप ने काटा था और लोगों को डर लगा था कि माही की तरह इतरां भी अचानक उनसे छिन जायेगी तब से वे माही के साथ के लम्हे लम्हे को ऐसे जीते जैसे वाकई कल मौत आ ही जानी है. बाकी बच्चों ने सजा का स्वाद चखना शुरू कर दिया था, मगर इतरां को अभी तक किसी ने एक थप्पड़ भी नहीं मारा था.

दादी सरकार इतरां को बढ़ते हुए देख रही थी. इतरां एकदम माही पर गयी थी. जबसे बोलना शुरू किया था इतनी तेज़ तेज़ बोलती थी कि लगता था सांस लेना भूल न जाए. छोटी दूरी के धावक जैसी थी उसकी बातें. इतरां के लिए हमेशा वक़्त कम पड़ जाता था, वो नींद में भी कहानियां बड़बड़ाती रहती थी. 'चाची को कुएं पर कपड़े गयी तो रास्ते में माही मिली थी. चाँद से उतर कर आयी थी. अब वो परी बन गयी थी. चाची की साड़ी की सलवटें परी माँ ने गायब कर दीं. परी माँ ने आज सुनहले पंख लगाए थे. उनके बालों से हरसिंगार की खुशबू आती थी. मैंने उनके बाल सूंघे थे. देखो. मेरी उँगलियाँ देखो'. दादी सरकार उसकी नन्ही उँगलियाँ चूमती तो पातीं कि उनसे वाकई हरसिंगार की खुशबू आ रही होती. बेमौसम. माही की याद की तरह.

इन्ही दिनों इतरां हर चीज़ गौर से देखने लगी थी. चीज़ों को अपने हिसाब से समझने की कोशिश करती. जो समझ नहीं आता उसे कहानियों में रचने लगती. अगले दिन जितिया था. बच्चों के लिए किया जाने वाला पर्व. टोली में चवन्नी को ही इन चीज़ों की कहानी मालूम थी. उसने भाव खाते हुए बस इतना ही बताया था कि जिसके जितने बच्चे होते हैं उसे उतने सारे झिन्गली के पत्ते चाहिए होते हैं. अगली सुबह इतरां को पता चला कि झिन्गली के पत्ते तोड़ने के लिए सीढ़ी आई है और उससे बड़े बच्चों की पलटन को जिम्मा सौंपा गया है कि घर में सब के लिए पत्ते तोड़ लिए जाएँ. बस इतरां लड़ झगड़ के गोहाल के छत पर चढ़ के तैयार. उसने हाल में गिनती सीखी थी तो एक बार में दस ही पत्ते समझ में आते उसे. घर भर के साथ-आठ बच्चे नीचे से चिल्ला चिल्ला कर संख्याएं बता रहे थे. बड़े भैय्या लोग दीदियों को डांट रहे थे कि फिर सांप ने काटा अगर इतरां को तो वो सांप पकड़ के उनको भी उससे कटवा देंगे. इस शोर शराबे में इतरां को एक ही चीज़ याद रह गयी. दादी सरकार के हिस्से सात पत्ते आये थे. लेकिन सात पत्ते क्यों. उसके तो सिर्फ पांच चाचा थे और कोई फुआ भी नहीं थी. इतरां ने सोचा कि आज शायद प्रसाद खाने बड़े वाले चाचा आ जायेंगे कि जिसके नाम से सब दादी सरकार को बिसरा माय कहती हैं. 
घर भर में सबकी पूजा निपटते निपटते दोपहर हो आई. बिसरा चचा का कोई ठिकाना नहीं था और तो और घर में कोई बात भी नहीं कर रहा था उनके आने की...लेकिन इतरां को पूरा यकीन था कि उसके चचा आयेंगे. दोपहर को प्रसाद में ठेकुआ मिल गया और आगे की कहानी किसी से सुनने की कोई उम्मीद नहीं रही तो इतरां चुपचाप अपनी पसंदीदा जगह की ओर चल पड़ी. स्कूल के पीछे एक छोटा सा पोखर था जिसके पास से नहर बहती थी. नहर किनारे बहुत से आम के पेड़ थे. गर्मी के दिनों में इतरां घर से फरार होकर यहीं आम के पेड़ की सबसे ऊंची डाली पर बैठी रहती. प्यास लगती तो नहर से पानी पी लेती. यहाँ से गाँव को आती सड़क का आखिरी छोर भी दिखता था. अक्सर यहाँ से इतरां शाम को ही लौटती जब इन्दर की राजदूत दूर से दिखने लगती. आज इतरां उदास थी. ऐसा कभी नहीं हुआ था कि उसे किसी ने आने की उम्मीद बंधे और वो ना आये. वो खुद को कोई कहानी सुना कर बहला भी नहीं पा रही थी. उसने कलाई पर ऊँगली रखी कि आज माही ने कौन सी चिट्ठी लिखी है उसे लेकिन आज माही गुस्सा थी उसपर कि वो गरमी में पेड़ पर बैठी है. लू लग जायेगी. इतरां माही से कट्टी कर बैठी. आज उसे अकेले आने पर अफ़सोस हो रहा था. चवन्नी अपने घर बुला रहा था. उसके घर शहर से रिश्तेदार आये थे और साथ में रूह अफज़ा लेते आये थे. आज इतरां घर आती तो उसके साथ चवन्नी को भी एक गिलास रूह अफज़ा पीने को मिल जाता. लेकिन इतरां अपने चाचा से अकेले मिलना चाहती थी. शाम होने को आई. थोड़ी देर में सूरज डूब जाता. इतरां को प्यास लग रही थी. उसने एक नज़र दूर सड़क के आखिरी छोर तक डाली...वहाँ से कोई गाड़ी आती दिखी. वो दिल में जानती थी कि ये ही उसके चचा हैं. वो पेड़ से उतर कर नहर पर चली आई और मुंह हाथ धो कर पानी पीने लगी.

गाड़ी ठीक उसी के पेड़ के नीचे आ के रुकी. गाड़ी का दरवाज़ा खुला. इतरां ने बहुत लोग तो नहीं देखे थे अपनी छोटी सी जिंदगी में मगर फिर भी उस शख्स जैसे किसी को उसने कभी नहीं देखा था. न अपने गाँव में. न बाबूजी के अस्पताल में और ना अपने किसी किस्से में. उसके काँधे से जरा नीचे के लम्बे बाल थे और उसने कई सारी छोटी छोटी चोटियाँ बना रखी थीं. ऊपर एक गहरे नीले रंग का ढीला सा कुर्ता पहन रखा था जिसपर कई रंग की चिप्पियाँ लगी थीं. गले में बहुत सी मालाएं. उँगलियों में अंगूठियाँ. हाथों में रंग बिरंगे कड़े. मगर जो चीज़ सबसे ज्यादा उसे खींच रही थी वो थी उसकी आँखें. सूरज उसकी आँखों की सीध में था और उसकी रौशनी भी दुलार से छू रही थी उसकी आँखों को...सोने के रंग की थी उसकी आंखें. तरल. पानी जैसीं. इतरां की नब्ज़ में माही की चिट्ठियां बहुत तेज़ी से धकधक करके जमा होने लगीं. इतरां लेकिन माही से कट्टी थी और उसे माही की कोई बात नहीं सुननी थी. उसे डर था कि माही कहेगी कि इससे बात मत करो. ये झोले में बच्चों को भर कर ले जाने वाला डाकू है. इतरां को पहली बार जरा सा डर लगा मगर उसने कमर पर हाथ रख कर उससे ऐसे सवाल किया जैसे वो गाँव की सीमारेखा की इकलौती रक्षक हो और उसका काम है गाँव में जाने वाली हर विपदा को रोकना. उससे लड़ेगी कैसे ये नहीं सोचा उसने मगर उसका रास्ता रोक कर खड़ी जरूर हो गयी. गाँव के ग्राम देवता का मन में ध्यान किया और पूछा उससे, 'कौन हो तुम?'. वो कुछ बोला नहीं ठठा के हँस पड़ा और इतरां को गोद में उठा के आसमान की ओर उछाल दिया. इतरां को लगा वो तितली है...आसमान से नीचे आएगी ही नहीं. वो हँसता रहा 'इतरमिश्री. इतरजिद्दी. इतरपिद्दी. इतरझूठी. इतरमिट्ठी. इतरचिट्ठी...नालायक...तेरी माही ने बताया नहीं तुझे कि मैं आने वाला हूँ. रूद्र नाम है मेरा'. एक गोल गोल चक्कर घुमा कर उसने इतरां को नीचे उतारा. इतरां की दुनिया में सब कुछ तेज़ी से घूम रहा था. माही की चिट्ठियां सारी समझ आने लगी थीं. इतरां ने कुछ नहीं कहा. रूद्र की ऊँगली अपनी नब्ज़ पर रखी. वो जानती थी रूद्र को माही की चिट्ठियां पढ़ना आता है. मगर वो नहीं जानती थी कि माही की चिट्ठियां पढ़ कर रूद्र को चक्कर आ जाएगा. वो एकदम अचानक घुटनों के बल बैठ गया, उसकी आँखों के ठीक सामने. इतरां ने देखा रूद्र की आँखों में माही का पानी बह रहा था. भर भर छलछलाता. उसे पकड़ कर सीने से लगा लिया उसने. हिचकियाँ आ रही थीं उसे. इतरां को भूकंप याद आया. ऐसे ही थरथरा रही थी जमीन उस दिन भी. इतरां उसके कान में माही की चिट्ठियां सुना रही थी, 'माही मायके गयी है...खुश है वहां'. रूद्र ने कुछ कहा नहीं बस चुपचाप जूते उतारे और पेड़ पर चढ़ता गया. सबसे ऊपर की इतरां की पसंदीदा डाली पर पहुँच गया और इतरां को साथ में बिठा लिया. 'तुझे पता है तू यहाँ इस डाल पर क्यूँ बैठती है?'...नन्ही इतरां बस सर हिला कर इनकार कर पायी. 'ये पेड़ मैंने अपने बचपन में रोपा था. यहाँ पूरी पूरी गर्मियों रहता था...उन दिनों इसको आवारा होना कहते थे...मेरी इतरां...बंजारामिजाजी तुझे विरासत में मिली है...बंजारों से मिली है कभी?'. इतरां यहाँ बिसरा चचा से मिलने आई थी. उसे मालूम नहीं था कि ये कौन था, रूद्र. मगर उसे ऐसा लग रहा था कि उसके नन्हे से दिल में जो बहुत से लोग थे, माही, दादी सरकार, इन्दर, बड़ी चाची, चवन्नी...सबको जरा जरा बाहर करके रूद्र अपने लिए बहुत सी जगह घेरता जा रहा है. कि कहीं कोई चिट्ठियां हैं जो रूद्र ने अपनी भिंची मुट्ठियों में बंद कर रखी हैं.
इतरां को ये भी लगा कि उसकी आँखों में जरा जरा सुनहला मिल रहा है और वो गहरी काली से जरा जरा भूरी हुयी जा रही हैं. कि जैसे रूद्र को तितलियों की भाषा आती है और ये भी कि रूद्र के पास उसके उन सवालों के जवाब हैं जो वो किसी से पूछ नहीं पाती, कि जैसे बिसरा कौन है.

मगर इस लम्हे दूर सड़क से राजदूत आती दिख रही थी. इन्दर घर लौट रहा था. इतरां, जो रोज उसे देखते ही पेड़ से धम से कूद कर सड़क की ओर भागती थी आज जरा सा रूद्र के पास सरक आई. रूद्र ने उसकी मुट्ठी खोली और उसमें एक छोटी सी काले रंग की टिकिया रखी. 'इसे पानी में घोल कर सियाही बनती है. कल मैं तुझे कागज़ पर लिखना सिखाऊंगा. सुबह आ जायेगी न?'...इतरां ने पलकें टिमिक टिमिक झपका कर कहा, 'वादा'...और पेड़ से उतरी और राजदूत की दिशा में हल्के क़दमों उड़ चली जैसे जमीन भी उसकी है, आसमान भी और इस बार उसकी लिखी चिट्ठी लेकर चाँद तक चला जायेगा रूद्र. उसका रूद्र.---पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की तीसरी किस्त है. पहली दो यहाँ पर
1. किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था.2. इतरां की माही. वो जीती जागती औरत थी या कंठ से फूटता लोकगीत? 
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Published on March 12, 2016 22:16

बचपन एक आवारा दिवास्वप्न था. बस. [3]


दिवास्वप्नों के घर नहीं होते. वे पनाह तलाशने रास्तों के पास बैठे रहते हैं कि कोई उन्हें घर ले जाए. अनछक बारिशों में इतरां अपने नन्हे डगमग पैर लिए चलने लगी. गाँव की मिट्टी को बहुत दिन बाद किसी ने सुना था. उसकी गुलाबी एड़ियों में कीचड़ लगा रहता. गाँव की पगडंडी. खेत की मेड़. शिवाले के पास का पोखर. सब धांगती रहती इतरां. गरमी की दोपहरें तो उसकी पसंदीदा थीं. गाँव का कोई कोना न होगा जिसके बारे में इतरां को मालूम न था. उसके साथ गाँव के बच्चों की पूरी बानर टोली चलती थी. बस ऐसी ही किसी दोपहर इतरां को सांप ने काट लिया. लोग उठा कर सीधे पास वाले हॉस्पिटल भागे जहाँ इन्दर काम कर रहा था. वहां पहुंचे तो पता चला इन्दर औपरेशन थियेटर में है. इन्दर के दोस्त डॉक्टर हरि ने इतरां को देखा. एंटीवेनम दिया. पर्ची पर बाकी दवाइयों के नाम लिख रहा था कि देखा कि नीचे की ओर भूरे रंग में लिखा जा रहा है 'हरहरिया सांप'. इतरां इंजेक्शन लगते वक्त भी खीखी करके हँस रही थी. डौक्टर को जाने कैसे महसूस हुआ कि इतरां ने लिखे हैं वे टेढ़े मेढ़े शब्द, मगर उसने ख्याल को हवा में उड़ा दिया. गाँव से साथ आये हुये किसी ने लिखा होगा कि इतरां को किस सांप ने काटा है. मगर डॉक्टर हरि को उस दिन के बाद से किसी ने डॉक्टर हरि नहीं कहा, हरहरिया सांप ही कहते रहे. ये इतरां का पहला किस्सा था. बायीं हथेली के उलटी तरफ सांप के दांतों के दो निशान थे. गोल-गोल, काले. इतरां सांप के दांत के निशान को दिखा कर कहती, ये आधा किस्सा है. इसमें एक बिंदु और लगेगा. तुम देखना. ये उन दिनों की बात थी कि जब इतरां को कहानी के अंत में लगने वाली तीन बिंदियों के बारे में हरगिज़ पता नहीं हो सकता था.

इतरां बचपन से ही किस्सागो थी. हवा से कहानियां बुनती. बातें इतरां को छू कर गुज़रतीं तो अपना रंग बदलने लगतीं. उसमें किसी भी किस्से को सुखान्त करने का हुनर था. उसके लिए मौत कोई दुःख भरी चीज़ नहीं थी. वो मौत का किस्सा सुनाती तो कुछ यूं कि उसकी माँ माही अपने मायके गयी है. इश्वर के यहाँ बहुत सुख से रह रही है. लौट आएगी दुनिया में कुछ दिन रह कर. हाँ, यहाँ सबको उसकी याद आती है लेकिन हर औरत अपने मायके में भी तो रहना चाहती है कुछ दिन कि उसके मायके में सब कुछ उसकी मर्जी का होता है. फिर नन्ही इतरां बिलकुल गंभीर होकर ग़ालिब का शेर सुनाती, 'हमको मालूम है जन्नत की हकीकत इसलिए, दिल के खुश रखने को तेरा हर ख्याल अच्छा है’. तो कायदे से इतरां ने कोई बुरी खबर कभी किसी को सुनाई ही नहीं थी. लोगों को पूरा विशवास था कि इतरां की जुबान पर माँ सरस्वती विराजती हैं. गाँव की लड़कियां उसके इर्द गिर्द अपने प्रेमियों के किस्से लिए डोलती थीं. 'बोल मेरी इतरां, वो मिलेगा न मुझे, दशहरा के मेले में...बोल मेरी इतरां...होली पर वो घर आएगा इस साल कि नहीं?' इतरां के पास हर सवाल के लिए एक कहानी होती थी. वो पूरे डीटेल में बताती थी कि महबूब कहाँ अटक गया है...बस इतरां के बिम्ब उसकी अपनी दुनिया के होते थे. इतरां को पूरा पूरा गाँव मिल कर बिगाड़ रहा था. सब ही उसे सर चढ़ाते थे. खास तौर से जब से सांप ने काटा था और लोगों को डर लगा था कि माही की तरह इतरां भी अचानक उनसे छिन जायेगी तब से वे माही के साथ के लम्हे लम्हे को ऐसे जीते जैसे वाकई कल मौत आ ही जानी है. बाकी बच्चों ने सजा का स्वाद चखना शुरू कर दिया था, मगर इतरां को अभी तक किसी ने एक थप्पड़ भी नहीं मारा था.

दादी सरकार इतरां को बढ़ते हुए देख रही थी. इतरां एकदम माही पर गयी थी. जबसे बोलना शुरू किया था इतनी तेज़ तेज़ बोलती थी कि लगता था सांस लेना भूल न जाए. छोटी दूरी के धावक जैसी थी उसकी बातें. इतरां के लिए हमेशा वक़्त कम पड़ जाता था, वो नींद में भी कहानियां बड़बड़ाती रहती थी. 'चाची को कुएं पर कपड़े गयी तो रास्ते में माही मिली थी. चाँद से उतर कर आयी थी. अब वो परी बन गयी थी. चाची की साड़ी की सलवटें परी माँ ने गायब कर दीं. परी माँ ने आज सुनहले पंख लगाए थे. उनके बालों से हरसिंगार की खुशबू आती थी. मैंने उनके बाल सूंघे थे. देखो. मेरी उँगलियाँ देखो'. दादी सरकार उसकी नन्ही उँगलियाँ चूमती तो पातीं कि उनसे वाकई हरसिंगार की खुशबू आ रही होती. बेमौसम. माही की याद की तरह.

इन्ही दिनों इतरां हर चीज़ गौर से देखने लगी थी. चीज़ों को अपने हिसाब से समझने की कोशिश करती. जो समझ नहीं आता उसे कहानियों में रचने लगती. अगले दिन जितिया था. बच्चों के लिए किया जाने वाला पर्व. टोली में चवन्नी को ही इन चीज़ों की कहानी मालूम थी. उसने भाव खाते हुए बस इतना ही बताया था कि जिसके जितने बच्चे होते हैं उसे उतने सारे झिन्गली के पत्ते चाहिए होते हैं. अगली सुबह इतरां को पता चला कि झिन्गली के पत्ते तोड़ने के लिए सीढ़ी आई है और उससे बड़े बच्चों की पलटन को जिम्मा सौंपा गया है कि घर में सब के लिए पत्ते तोड़ लिए जाएँ. बस इतरां लड़ झगड़ के गोहाल के छत पर चढ़ के तैयार. उसने हाल में गिनती सीखी थी तो एक बार में दस ही पत्ते समझ में आते उसे. घर भर के साथ-आठ बच्चे नीचे से चिल्ला चिल्ला कर संख्याएं बता रहे थे. बड़े भैय्या लोग दीदियों को डांट रहे थे कि फिर सांप ने काटा अगर इतरां को तो वो सांप पकड़ के उनको भी उससे कटवा देंगे. इस शोर शराबे में इतरां को एक ही चीज़ याद रह गयी. दादी सरकार के हिस्से सात पत्ते आये थे. लेकिन सात पत्ते क्यों. उसके तो सिर्फ पांच चाचा थे और कोई फुआ भी नहीं थी. इतरां ने सोचा कि आज शायद प्रसाद खाने बड़े वाले चाचा आ जायेंगे कि जिसके नाम से सब दादी सरकार को बिसरा माय कहती हैं. 
घर भर में सबकी पूजा निपटते निपटते दोपहर हो आई. बिसरा चचा का कोई ठिकाना नहीं था और तो और घर में कोई बात भी नहीं कर रहा था उनके आने की...लेकिन इतरां को पूरा यकीन था कि उसके चचा आयेंगे. दोपहर को प्रसाद में ठेकुआ मिल गया और आगे की कहानी किसी से सुनने की कोई उम्मीद नहीं रही तो इतरां चुपचाप अपनी पसंदीदा जगह की ओर चल पड़ी. स्कूल के पीछे एक छोटा सा पोखर था जिसके पास से नहर बहती थी. नहर किनारे बहुत से आम के पेड़ थे. गर्मी के दिनों में इतरां घर से फरार होकर यहीं आम के पेड़ की सबसे ऊंची डाली पर बैठी रहती. प्यास लगती तो नहर से पानी पी लेती. यहाँ से गाँव को आती सड़क का आखिरी छोर भी दिखता था. अक्सर यहाँ से इतरां शाम को ही लौटती जब इन्दर की राजदूत दूर से दिखने लगती. आज इतरां उदास थी. ऐसा कभी नहीं हुआ था कि उसे किसी ने आने की उम्मीद बंधे और वो ना आये. वो खुद को कोई कहानी सुना कर बहला भी नहीं पा रही थी. उसने कलाई पर ऊँगली रखी कि आज माही ने कौन सी चिट्ठी लिखी है उसे लेकिन आज माही गुस्सा थी उसपर कि वो गरमी में पेड़ पर बैठी है. लू लग जायेगी. इतरां माही से कट्टी कर बैठी. आज उसे अकेले आने पर अफ़सोस हो रहा था. चवन्नी अपने घर बुला रहा था. उसके घर शहर से रिश्तेदार आये थे और साथ में रूह अफज़ा लेते आये थे. आज इतरां घर आती तो उसके साथ चवन्नी को भी एक गिलास रूह अफज़ा पीने को मिल जाता. लेकिन इतरां अपने चाचा से अकेले मिलना चाहती थी. शाम होने को आई. थोड़ी देर में सूरज डूब जाता. इतरां को प्यास लग रही थी. उसने एक नज़र दूर सड़क के आखिरी छोर तक डाली...वहाँ से कोई गाड़ी आती दिखी. वो दिल में जानती थी कि ये ही उसके चचा हैं. वो पेड़ से उतर कर नहर पर चली आई और मुंह हाथ धो कर पानी पीने लगी.

गाड़ी ठीक उसी के पेड़ के नीचे आ के रुकी. गाड़ी का दरवाज़ा खुला. इतरां ने बहुत लोग तो नहीं देखे थे अपनी छोटी सी जिंदगी में मगर फिर भी उस शख्स जैसे किसी को उसने कभी नहीं देखा था. न अपने गाँव में. न बाबूजी के अस्पताल में और ना अपने किसी किस्से में. उसके काँधे से जरा नीचे के लम्बे बाल थे और उसने कई सारी छोटी छोटी चोटियाँ बना रखी थीं. ऊपर एक गहरे नीले रंग का ढीला सा कुर्ता पहन रखा था जिसपर कई रंग की चिप्पियाँ लगी थीं. गले में बहुत सी मालाएं. उँगलियों में अंगूठियाँ. हाथों में रंग बिरंगे कड़े. मगर जो चीज़ सबसे ज्यादा उसे खींच रही थी वो थी उसकी आँखें. सूरज उसकी आँखों की सीध में था और उसकी रौशनी भी दुलार से छू रही थी उसकी आँखों को...सोने के रंग की थी उसकी आंखें. तरल. पानी जैसीं. इतरां की नब्ज़ में माही की चिट्ठियां बहुत तेज़ी से धकधक करके जमा होने लगीं. इतरां लेकिन माही से कट्टी थी और उसे माही की कोई बात नहीं सुननी थी. उसे डर था कि माही कहेगी कि इससे बात मत करो. ये झोले में बच्चों को भर कर ले जाने वाला डाकू है. इतरां को पहली बार जरा सा डर लगा मगर उसने कमर पर हाथ रख कर उससे ऐसे सवाल किया जैसे वो गाँव की सीमारेखा की इकलौती रक्षक हो और उसका काम है गाँव में जाने वाली हर विपदा को रोकना. उससे लड़ेगी कैसे ये नहीं सोचा उसने मगर उसका रास्ता रोक कर खड़ी जरूर हो गयी. गाँव के ग्राम देवता का मन में ध्यान किया और पूछा उससे, 'कौन हो तुम?'. वो कुछ बोला नहीं ठठा के हँस पड़ा और इतरां को गोद में उठा के आसमान की ओर उछाल दिया. इतरां को लगा वो तितली है...आसमान से नीचे आएगी ही नहीं. वो हँसता रहा 'इतरमिश्री. इतरजिद्दी. इतरपिद्दी. इतरझूठी. इतरमिट्ठी. इतरचिट्ठी...नालायक...तेरी माही ने बताया नहीं तुझे कि मैं आने वाला हूँ. रूद्र नाम है मेरा'. एक गोल गोल चक्कर घुमा कर उसने इतरां को नीचे उतारा. इतरां की दुनिया में सब कुछ तेज़ी से घूम रहा था. माही की चिट्ठियां सारी समझ आने लगी थीं. इतरां ने कुछ नहीं कहा. रूद्र की ऊँगली अपनी नब्ज़ पर रखी. वो जानती थी रूद्र को माही की चिट्ठियां पढ़ना आता है. मगर वो नहीं जानती थी कि माही की चिट्ठियां पढ़ कर रूद्र को चक्कर आ जाएगा. वो एकदम अचानक घुटनों के बल बैठ गया, उसकी आँखों के ठीक सामने. इतरां ने देखा रूद्र की आँखों में माही का पानी बह रहा था. भर भर छलछलाता. उसे पकड़ कर सीने से लगा लिया उसने. हिचकियाँ आ रही थीं उसे. इतरां को भूकंप याद आया. ऐसे ही थरथरा रही थी जमीन उस दिन भी. इतरां उसके कान में माही की चिट्ठियां सुना रही थी, 'माही मायके गयी है...खुश है वहां'. रूद्र ने कुछ कहा नहीं बस चुपचाप जूते उतारे और पेड़ पर चढ़ता गया. सबसे ऊपर की इतरां की पसंदीदा डाली पर पहुँच गया और इतरां को साथ में बिठा लिया. 'तुझे पता है तू यहाँ इस डाल पर क्यूँ बैठती है?'...नन्ही इतरां बस सर हिला कर इनकार कर पायी. 'ये पेड़ मैंने अपने बचपन में रोपा था. यहाँ पूरी पूरी गर्मियों रहता था...उन दिनों इसको आवारा होना कहते थे...मेरी इतरां...बंजारामिजाजी तुझे विरासत में मिली है...बंजारों से मिली है कभी?'. इतरां यहाँ बिसरा चचा से मिलने आई थी. उसे मालूम नहीं था कि ये कौन था, रूद्र. मगर उसे ऐसा लग रहा था कि उसके नन्हे से दिल में जो बहुत से लोग थे, माही, दादी सरकार, इन्दर, बड़ी चाची, चवन्नी...सबको जरा जरा बाहर करके रूद्र अपने लिए बहुत सी जगह घेरता जा रहा है. कि कहीं कोई चिट्ठियां हैं जो रूद्र ने अपनी भिंची मुट्ठियों में बंद कर रखी हैं.
इतरां को ये भी लगा कि उसकी आँखों में जरा जरा सुनहला मिल रहा है और वो गहरी काली से जरा जरा भूरी हुयी जा रही हैं. कि जैसे रूद्र को तितलियों की भाषा आती है और ये भी कि रूद्र के पास उसके उन सवालों के जवाब हैं जो वो किसी से पूछ नहीं पाती, कि जैसे बिसरा कौन है.

मगर इस लम्हे दूर सड़क से राजदूत आती दिख रही थी. इन्दर घर लौट रहा था. इतरां, जो रोज उसे देखते ही पेड़ से धम से कूद कर सड़क की ओर भागती थी आज जरा सा रूद्र के पास सरक आई. रूद्र ने उसकी मुट्ठी खोली और उसमें एक छोटी सी काले रंग की टिकिया रखी. 'इसे पानी में घोल कर सियाही बनती है. कल मैं तुझे कागज़ पर लिखना सिखाऊंगा. सुबह आ जायेगी न?'...इतरां ने पलकें टिमिक टिमिक झपका कर कहा, 'वादा'...और पेड़ से उतरी और राजदूत की दिशा में हल्के क़दमों उड़ चली जैसे जमीन भी उसकी है, आसमान भी और इस बार उसकी लिखी चिट्ठी लेकर चाँद तक चला जायेगा रूद्र. उसका रूद्र.---पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की तीसरी किस्त है. पहली दो यहाँ पर
1. किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था.2. इतरां की माही. वो जीती जागती औरत थी या कंठ से फूटता लोकगीत? 
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Published on March 12, 2016 22:16

इतरां की माही. वो जीती जागती औरत थी या कंठ से फूटता लोकगीत? |God is a postman| (2)

कहानी का पहला भाग: किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था.--//--
माही नहीं रही. मगर सिर्फ अपने बदन में. उसकी रूह पिंजरे से आजाद होकर यूं बिखरी कि इत्र हो गयी. पूरा गाँव माही से सिंचता. सारी औरतें. फसलें. त्यौहार. और जिंदगी भी. माही होती इतरां में...बसती जाती...किस्सा दर किस्सा दर किस्सा.

गाँव भर की स्त्रियाँ माही को याद कर कर के आँसू आँसू बहातीं लेकिन इतरां को देखते ही आँसुओं का स्वाद बदल जाता. उसे गोद में उठाते ही माही खोयी हुयी नदी बन जाती सरस्वती. इतरां को मालूम भी नहीं था कि हर बार अपने स्पर्श में गाँव की हर स्त्री एक किस्सा रख जाती थी उसके ह्रदय में. वो किस्सा जो वो सिर्फ माही को सुना सकती थीं. माही उस पूरे गाँव में इकलौती थी जो बचपन में बिछड़े प्रेमी का किस्सा सुन कर किसी को ये नहीं कहती कि भूल जा....इसी में तेरे घर का भला है. माही कहती थी 'जी ले, यही एक जिंदगी मिली है सोनी...देख ले उसे जी भर के...अगली बार होली पर आएगा मेरे घर तो मैं तेरे हाथ उसके लिए पुए भिजवा दूँगी. जरा सा इश्क़ कर ले. कुछ गलत सही नहीं होता इस दुनिया में'. माही उस पूरे गाँव के लिए डाकिये का भूरा झोला थी...डाकघर के आगे लगा लाल डिब्बा थी. जो सारा प्रेम औरतों ने जाने किस किस के हिस्से कर रखा था, जो मन्नतें अपनी साड़ी की कोर में बाँध रखी थीं, सब माही के नाम होता गया. माही के पहले किसी ने जाना नहीं था कि औरतें प्रेम से भरी होती हैं. उन्हें कोई मिलता नहीं जिसके नाम ये सारा प्रेम लिख सकें. किस्से में अपरिभाषित बहुत कुछ होता जिसके लिये माही अपने शब्द गढ़ती. दुनिया उसे अवैध करार देती लेकिन अवैध प्रेम दुखता भले था, मरता नहीं. खेत में फसल के साथ बहुत सी खरपतवार भी उग जाती थी. समय समय पर किसान ये खर-पतवार उखाड़ते रहते थे कि फसल अच्छी हो. मगर कभी कभी होता था कि पीछे की बाड़ी में औरत अपने हिस्से के पौधे लगा लेती. नीम्बू. गुड़हल. गेंदा. गुलदाउदी. मिर्ची. औरत के हिस्से की जमीन में हर किस्म के पौधे को उगने की इजाजत थी. कभी कभी उन पौधों पर जहरीले जंगली फूल भी आ जाया करते थे. उन दिनों माही अपने डॉक्टर पति से बात कर लिया करती थी. उसकी दुनिया के कौन से नियम थे कोई नहीं जानता मगर माही अगर एक बार कुछ माँग ले तो इश्वर की भी क्या ही मजाल कि मना कर दे. माही का मन बहती नदी सा साफ़ रहता था. नदियाँ हमेशा पाप पुण्य से परे रही हैं. उन्होंने सदियों सदियों स्त्रियों के प्रेम को पनाह दी है.
स्त्री के प्रेम में असीम धैर्य होता है. उसके होने में होती हैं कितनी चिट्ठियां. लोकगीत यूं ही नहीं फूटते कंठ से. तुलसीचौरा में खिलते हर नन्हे फूल को स्त्री के प्रेम का पता होता है. अभिशप्त तुलसी हमेशा पूजाघर से निर्वासित रहती लेकिन बिना तुलसी दल के कृष्ण की पूजा भी अधूरी रहती. माही को कहने वाली सारी बातें इतरां को तबसे सुनाई जाती थीं कि जब इतरां को शब्दों का अर्थ मालूम भी नहीं था. उसके इर्द गिर्द माही नहीं होते हुए भी हर सिम्त थी. इतरां छः महीने की ही हुयी थी. वसंत पंचमी का दिन था. आँगन में बच्चे खेल रहे थे. बच्चों ने बोलना सीखा तो खाना मांगने और दूध के लिए मचलना शुरू किया. त्यौहार का दिन था तो घर में खीर बनी थी. दादी उसे जरा जरा पीढ़े पर बिठा कर कौर कौर खिला रही थी. इतरां ने कटोरी को देखा...आसमान में चमकते चाँद को देखा और सीधे आसमान की ओर ऊँगली उठा कर कहा, 'माही'. बड़ी सरकार के अन्दर चांदनी की नदी में ऐसा उफान आया कि इकबारगी लगा कि उनकी सांसें अटक जायेगीं और वो डूब जाएँगी. मगर फिर अपनी माही का चाँद सा चेहरा याद आया और उसी दिन बड़ी सरकार सिर्फ इतरां की बन गयीं. भूल गयी कि इतरां की माँ थी, माही...उनके जिगर का टुकड़ा माही...रेगिस्तान की प्यास बुझा कर मीठी हँसी की पौध लगाने वाली खिलखिल नदी थी उनकी माही...माही का सारा प्यार और याद दिल में यूं भुला दिया कि जैसे खोयी हुयी नदी...सरस्वती...मगर बड़ी सरकार भूल गयीं कि सरस्वती सिर्फ एक खोयी हुयी नदी नहीं विद्या और संगीत की देवी भी हैं. उनके ह्रदय से लुप्त होती माही अपनी इतरां की रूह में बहने लगी. बड़ी सरकार ने चांदी का भरा हुआ खीर का कटोरा उठाया और हँस कर कहानी सुनाने लगी, 'मेरी लाड़ो इतरां...ये देखो...एक कटोरी चन्दा है मेरे पास...चाँद के टुकड़े टुकड़े खिला रही तुझे...देखो तो...कितना मीठा है न चाँद?'. इतरां हंसती रहती तो उसकी किलकारी में गाँव भर के कुओं में मीठा पानी आता.
माही अदृश्य हो कर इतरां में बहती थी. कितने किस्से होंगे कि माही को सुनाने थे इतरां को. माही की सारी बातें इतरां की धमनियों में दौड़ती थीं. कभी कभी इतरां अपनी एकदम सफ़ेद कलाई के पास दादी की ऊँगली रखती और कहती कि दादी सरकार, देखो न माँ की चिट्ठी यहाँ अटकने लगी है. फिर वो खोल खोल कर अपनी माँ की चिट्ठियां सुनाती. जन्नत में उसकी माँ कितनी खुश थी. माँ के रहने के लिए वहाँ बहुत बड़ा मकान था. मकान की दीवारों पर ग़ालिब और मीर के शेर लिखे हुए थे. कायदे से बड़ी सरकार को और बाकी लोगों को भी उसी समय टोकना चाहिए था कि बच्ची को जन्नत की सारी चीज़ें गलत पता चल रही हैं. उसकी माँ स्वर्ग गयी है. वहाँ पर रामायण की चौपाई भले खुदी होगी लेकिन ग़ालिब और मीर के शेर तो हरगिज़ नहीं होंगे. मगर वो इतने ऐतबार के साथ कलाई पर अपनी दादी की ऊँगली रख कर चिट्ठी पढ़ती कि उसकी भोली दादी का दिल नहीं होता कि सच बोल कर बच्ची का दिल तोड़ दे. यूँ भी स्वर्ग देखा ही किसने है. हो सकता है इतरां सच ही कहती हो. जो मान लो ग़ालिब और मीर वहीं रहते ही होंगे तो क्या फर्क पड़ जाएगा.

बड़ी सरकार की बहनें कभी कभार परब त्यौहार पर आतीं तो उनको समझातीं. 'बिसरा की माय, इतरां को बाद में बहुत दिक्कत होगी. ये जो तुम रामायण की चौपाइयों के बीच बीच में ग़ज़ल गुनगुनाने लगती हो उसी का असर है. कहीं देखा है कि इतनी छोटी बच्ची ग़ालिब और मीर का नाम भी ले. इस कलमुये रेडियो को बाहर कर. ये मर्दों के चोंचले मर्दों को ही शोभा देते हैं' बड़ी सरकार हल्के हल्के हँसतीं, जब से माही अचानक चली गयी थी उन्हें किसी 'बाद' पर कोई यकीन नहीं होता. इतरां उन दिनों सोचती कि ये बिसरा कौन है जिसके नाम पर सब दादी सरकार को बुलाती हैं. मगर घर में कोई भी बिसरा के बारे में बात नहीं करता. इतरां को पहली बार वहीं से बिसरने का अर्थ मालूम चला था. बिसारना यानी भूल जाना. मगर इतरां तो कुछ भी नहीं भूली थी कभी. उसे अभी भी अपनी माँ की गहरी गुलाबी साड़ी याद थी. जो सारे गीत वो गुनगुनाती थी वो भी. हाँ एक गंध हुआ करती थी माँ के आसपास. वो गंध उसे कहीं भी नहीं मिलती. परी माँ से खुशबू आती थी लेकिन पूजाघर जैसी. अलग अलग मौसमों में अलग अलग. कभी कनेल, कभी गुलाब और कभी कभी कमल की भी. अक्सर हरसिंगार लेकिन कभी भी माही जैसी खुशबू नहीं. नन्ही इतरां सोचती कि वो अपने माँ की खुशबू खोजने चाँद पर जायेगी. उसे यकीन था कि उसकी माही चाँद है. 
किस्सों के अलावा इतरां का दिल कहीं लगता था तो वो था गज़लों में, अपने नाम की कहानी वो दादी सरकार से कितनी बार सुन चुकी थी. यही कहानी इतरां जब गाँव के बाकी बच्चों को सुनाती तो उसमें कई और किरदार जुड़ते चले जाते. इतरां का घर उन दिनों ब्रिन्दावन में होता और जगजीत को ग़ज़ल गाने के लिए कान्हा ने बुलाया होता था. आखिर में कान्हा की बांसुरी और जगजीत की गायकी की जुगलबंदी हुयी और मृदंग की थाप से आवाज़ आ रही होती...इतरां...---पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की दूसरी किस्त है. 
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Published on March 12, 2016 13:53

इतरां की माही. वो जीती जागती औरत थी या कंठ से फूटता लोकगीत? [2]

कहानी का पहला भाग: किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था.--//--
माही नहीं रही. मगर सिर्फ अपने बदन में. उसकी रूह पिंजरे से आजाद होकर यूं बिखरी कि इत्र हो गयी. पूरा गाँव माही से सिंचता. सारी औरतें. फसलें. त्यौहार. और जिंदगी भी. माही होती इतरां में...बसती जाती...किस्सा दर किस्सा दर किस्सा.

गाँव भर की स्त्रियाँ माही को याद कर कर के आँसू आँसू बहातीं लेकिन इतरां को देखते ही आँसुओं का स्वाद बदल जाता. उसे गोद में उठाते ही माही खोयी हुयी नदी बन जाती सरस्वती. इतरां को मालूम भी नहीं था कि हर बार अपने स्पर्श में गाँव की हर स्त्री एक किस्सा रख जाती थी उसके ह्रदय में. वो किस्सा जो वो सिर्फ माही को सुना सकती थीं. माही उस पूरे गाँव में इकलौती थी जो बचपन में बिछड़े प्रेमी का किस्सा सुन कर किसी को ये नहीं कहती कि भूल जा....इसी में तेरे घर का भला है. माही कहती थी 'जी ले, यही एक जिंदगी मिली है सोनी...देख ले उसे जी भर के...अगली बार होली पर आएगा मेरे घर तो मैं तेरे हाथ उसके लिए पुए भिजवा दूँगी. जरा सा इश्क़ कर ले. कुछ गलत सही नहीं होता इस दुनिया में'. माही उस पूरे गाँव के लिए डाकिये का भूरा झोला थी...डाकघर के आगे लगा लाल डिब्बा थी. जो सारा प्रेम औरतों ने जाने किस किस के हिस्से कर रखा था, जो मन्नतें अपनी साड़ी की कोर में बाँध रखी थीं, सब माही के नाम होता गया. माही के पहले किसी ने जाना नहीं था कि औरतें प्रेम से भरी होती हैं. उन्हें कोई मिलता नहीं जिसके नाम ये सारा प्रेम लिख सकें. किस्से में अपरिभाषित बहुत कुछ होता जिसके लिये माही अपने शब्द गढ़ती. दुनिया उसे अवैध करार देती लेकिन अवैध प्रेम दुखता भले था, मरता नहीं. खेत में फसल के साथ बहुत सी खरपतवार भी उग जाती थी. समय समय पर किसान ये खर-पतवार उखाड़ते रहते थे कि फसल अच्छी हो. मगर कभी कभी होता था कि पीछे की बाड़ी में औरत अपने हिस्से के पौधे लगा लेती. नीम्बू. गुड़हल. गेंदा. गुलदाउदी. मिर्ची. औरत के हिस्से की जमीन में हर किस्म के पौधे को उगने की इजाजत थी. कभी कभी उन पौधों पर जहरीले जंगली फूल भी आ जाया करते थे. उन दिनों माही अपने डॉक्टर पति से बात कर लिया करती थी. उसकी दुनिया के कौन से नियम थे कोई नहीं जानता मगर माही अगर एक बार कुछ माँग ले तो इश्वर की भी क्या ही मजाल कि मना कर दे. माही का मन बहती नदी सा साफ़ रहता था. नदियाँ हमेशा पाप पुण्य से परे रही हैं. उन्होंने सदियों सदियों स्त्रियों के प्रेम को पनाह दी है.
स्त्री के प्रेम में असीम धैर्य होता है. उसके होने में होती हैं कितनी चिट्ठियां. लोकगीत यूं ही नहीं फूटते कंठ से. तुलसीचौरा में खिलते हर नन्हे फूल को स्त्री के प्रेम का पता होता है. अभिशप्त तुलसी हमेशा पूजाघर से निर्वासित रहती लेकिन बिना तुलसी दल के कृष्ण की पूजा भी अधूरी रहती. माही को कहने वाली सारी बातें इतरां को तबसे सुनाई जाती थीं कि जब इतरां को शब्दों का अर्थ मालूम भी नहीं था. उसके इर्द गिर्द माही नहीं होते हुए भी हर सिम्त थी. इतरां छः महीने की ही हुयी थी. वसंत पंचमी का दिन था. आँगन में बच्चे खेल रहे थे. बच्चों ने बोलना सीखा तो खाना मांगने और दूध के लिए मचलना शुरू किया. त्यौहार का दिन था तो घर में खीर बनी थी. दादी उसे जरा जरा पीढ़े पर बिठा कर कौर कौर खिला रही थी. इतरां ने कटोरी को देखा...आसमान में चमकते चाँद को देखा और सीधे आसमान की ओर ऊँगली उठा कर कहा, 'माही'. बड़ी सरकार के अन्दर चांदनी की नदी में ऐसा उफान आया कि इकबारगी लगा कि उनकी सांसें अटक जायेगीं और वो डूब जाएँगी. मगर फिर अपनी माही का चाँद सा चेहरा याद आया और उसी दिन बड़ी सरकार सिर्फ इतरां की बन गयीं. भूल गयी कि इतरां की माँ थी, माही...उनके जिगर का टुकड़ा माही...रेगिस्तान की प्यास बुझा कर मीठी हँसी की पौध लगाने वाली खिलखिल नदी थी उनकी माही...माही का सारा प्यार और याद दिल में यूं भुला दिया कि जैसे खोयी हुयी नदी...सरस्वती...मगर बड़ी सरकार भूल गयीं कि सरस्वती सिर्फ एक खोयी हुयी नदी नहीं विद्या और संगीत की देवी भी हैं. उनके ह्रदय से लुप्त होती माही अपनी इतरां की रूह में बहने लगी. बड़ी सरकार ने चांदी का भरा हुआ खीर का कटोरा उठाया और हँस कर कहानी सुनाने लगी, 'मेरी लाड़ो इतरां...ये देखो...एक कटोरी चन्दा है मेरे पास...चाँद के टुकड़े टुकड़े खिला रही तुझे...देखो तो...कितना मीठा है न चाँद?'. इतरां हंसती रहती तो उसकी किलकारी में गाँव भर के कुओं में मीठा पानी आता.
माही अदृश्य हो कर इतरां में बहती थी. कितने किस्से होंगे कि माही को सुनाने थे इतरां को. माही की सारी बातें इतरां की धमनियों में दौड़ती थीं. कभी कभी इतरां अपनी एकदम सफ़ेद कलाई के पास दादी की ऊँगली रखती और कहती कि दादी सरकार, देखो न माँ की चिट्ठी यहाँ अटकने लगी है. फिर वो खोल खोल कर अपनी माँ की चिट्ठियां सुनाती. जन्नत में उसकी माँ कितनी खुश थी. माँ के रहने के लिए वहाँ बहुत बड़ा मकान था. मकान की दीवारों पर ग़ालिब और मीर के शेर लिखे हुए थे. कायदे से बड़ी सरकार को और बाकी लोगों को भी उसी समय टोकना चाहिए था कि बच्ची को जन्नत की सारी चीज़ें गलत पता चल रही हैं. उसकी माँ स्वर्ग गयी है. वहाँ पर रामायण की चौपाई भले खुदी होगी लेकिन ग़ालिब और मीर के शेर तो हरगिज़ नहीं होंगे. मगर वो इतने ऐतबार के साथ कलाई पर अपनी दादी की ऊँगली रख कर चिट्ठी पढ़ती कि उसकी भोली दादी का दिल नहीं होता कि सच बोल कर बच्ची का दिल तोड़ दे. यूँ भी स्वर्ग देखा ही किसने है. हो सकता है इतरां सच ही कहती हो. जो मान लो ग़ालिब और मीर वहीं रहते ही होंगे तो क्या फर्क पड़ जाएगा.

बड़ी सरकार की बहनें कभी कभार परब त्यौहार पर आतीं तो उनको समझातीं. 'बिसरा की माय, इतरां को बाद में बहुत दिक्कत होगी. ये जो तुम रामायण की चौपाइयों के बीच बीच में ग़ज़ल गुनगुनाने लगती हो उसी का असर है. कहीं देखा है कि इतनी छोटी बच्ची ग़ालिब और मीर का नाम भी ले. इस कलमुये रेडियो को बाहर कर. ये मर्दों के चोंचले मर्दों को ही शोभा देते हैं' बड़ी सरकार हल्के हल्के हँसतीं, जब से माही अचानक चली गयी थी उन्हें किसी 'बाद' पर कोई यकीन नहीं होता. इतरां उन दिनों सोचती कि ये बिसरा कौन है जिसके नाम पर सब दादी सरकार को बुलाती हैं. मगर घर में कोई भी बिसरा के बारे में बात नहीं करता. इतरां को पहली बार वहीं से बिसरने का अर्थ मालूम चला था. बिसारना यानी भूल जाना. मगर इतरां तो कुछ भी नहीं भूली थी कभी. उसे अभी भी अपनी माँ की गहरी गुलाबी साड़ी याद थी. जो सारे गीत वो गुनगुनाती थी वो भी. हाँ एक गंध हुआ करती थी माँ के आसपास. वो गंध उसे कहीं भी नहीं मिलती. परी माँ से खुशबू आती थी लेकिन पूजाघर जैसी. अलग अलग मौसमों में अलग अलग. कभी कनेल, कभी गुलाब और कभी कभी कमल की भी. अक्सर हरसिंगार लेकिन कभी भी माही जैसी खुशबू नहीं. नन्ही इतरां सोचती कि वो अपने माँ की खुशबू खोजने चाँद पर जायेगी. उसे यकीन था कि उसकी माही चाँद है. 
किस्सों के अलावा इतरां का दिल कहीं लगता था तो वो था गज़लों में, अपने नाम की कहानी वो दादी सरकार से कितनी बार सुन चुकी थी. यही कहानी इतरां जब गाँव के बाकी बच्चों को सुनाती तो उसमें कई और किरदार जुड़ते चले जाते. इतरां का घर उन दिनों ब्रिन्दावन में होता और जगजीत को ग़ज़ल गाने के लिए कान्हा ने बुलाया होता था. आखिर में कान्हा की बांसुरी और जगजीत की गायकी की जुगलबंदी हुयी और मृदंग की थाप से आवाज़ आ रही होती...इतरां...---पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की दूसरी किस्त है. 
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Published on March 12, 2016 13:53

किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था | God is a postman| (1)


इतरां क्या ही किसी की मुट्ठी में आती. दादी सरकार ने नाम ही ऐसा रक्खा था. खुद से उड़ती जाए हवा के पोर पोर में और जिसे एक बार छू ले वो घंटों गमकता रहे उसकी महकती आँखों के सुरूर में. इतरां जन्मी थी उस वक़्त जगजीत सिंह और चित्रा सिंह गा रहे थे रॉयल अल्बर्ट हॉल में. पंजाबी टप्पे. रेडियो पर कॉन्सर्ट आ रहा था.

बच्ची का नाम चित्रा रखने का मन था इन्दर का और माही को चित्रा नाम पसंद नहीं आया वर्ना तो एक ही मिनट में नाम पक्का हो जाता. यहाँ से किस्सा लम्बा चल निकला. क्या ही इन्दर और क्या ही माही, माँ बाप को कोई एक नाम पसंद ही नहीं आता. हर रोज नया नाम रख देते अपनी लाड़ली का. वो इस कदर ज़िंदा थी कि जैसे उसके पहले किसी में जान ही न हो. जिस कमरे में होती उजास फूटता. रंग जैसे दूध को हल्के सिन्दूर के हाथ से छू दिया गया हो. एकदम ही नर्म, नाज़ुक सफ़ेद में हल्का गुलाबी. बड़ी बड़ी आँखें और इत्ती कालीं कि टिम टिम चमकतीं. माथे पर एकदम काले हल्के घुंघराले बाल. दुनिया का कोई शब्द उसके लायक ही नहीं लगता. फूलों के नाम सोचे गए - अपराजिता, गुलाबो, चिरामिरा मगर नाम लेते ही चाँद में काले दाग जैसे लगते. मौसमों के नाम रखे गए लेकिन कोई मौसम नहीं ठहरता उसकी नीम नींद में मुस्कुराते होटों के सामने. बड़ी मुश्किल थी.

इक ऐसी ही शाम थी. दिन भर के लिए रखा गया नाम पसंद नहीं आ रहा था और इन्दर और माही उसके नए नाम के लिए सोच रहे थे कि अब क्या हो उसका नाम. रेडियो पर फिर से जगजीत सिंह के पंजाबी टप्पे आ रहे थे. इन्दर माही को मनाने की कोशिश में लगा था कि चित्रा कितना सुन्दर नाम है. इश्वर की बनायी तस्वीर ही तो है हमारी दुलरुआ बेटी. आँगन के बीच में एक गुदड़ी बिछाए बड़ी सरकार खुद से बच्ची की मालिश कर रही थीं. उनको पंजाबी बड़ी अच्छी लगती थी. ग़ज़ल के साथ गुनगुना रही थीं...'की लैना हैं मितरां तो...मिलने तो आ जांवां डर लगता हैं छितरां तों'. और फिर अचानक ही माही की ओर देख कर बोलीं, 'अरे माही, इत्तर को लाड़ से बोलो तो इतरां ही बनेगा न?'
'जी...ऐसा ही कुछ'
'तो हम आज से इसे इतरां बुलाया करेंगे...दुनिया में अपनी जैसी सिर्फ एक, कि जिसका नाम भी सिर्फ उसका अपना है. तुम दोनों का नाम पक्का हो जाए तो बता देना...मगर मेरे लिए ये आज से इतरां हो गयी.' 
और बस...उस दिन से वो सबके लिए ही इतरां हो गयी.

——
उन दिनों जगजीत सिंह का क्रेज था. वे सबको अच्छे लगते थे. अख़बारों में उनकी तस्वीर आती थी. लड़कपन की मासूमियत और गीत के बोलों की गहराई के बीच एक ऐसी आवाज़ कि बड़ी सरकार भी उनपर उतनी ही फ़िदा थीं कि जितना उनका सबसे छोटा और सबसे लाड़ला बेटा इंदर. उन दिनों अच्छा रेडियो सबके पास नहीं होता था, गांव भर में एक अच्छा रेडियो हो सकता था. इंदर ने ओवरटाइम कर कर अतिरिक्त पगार उठाई थी और उससे घर में रेडियो खरीद लिया था. दिन भर भले रेडियो बैठक में जमा रहता. कभी भाइयों के साथ खेत में रहता. कटाई के समय अक्सर टाली के ऊपर रखा रहता. मगर रात होते ही बड़ी सरकार के पास रेडियो अपने पैरों चल कर पहुँच जाता था. फिर घर में रोटियों और पंजाबी टप्पों की मीठी गंध एक साथ घुलती. और क्यूँ न जाता. इंदर को बाहर जा के पढ़ने का मन हुआ तो बड़ी सरकार ने ही तो बाबूजी को समझाया था कि उसे आगे जा के पढ़ने का मन है तो जाने दो न. बड़ी सरकार कभी घर के बाहर के मुद्दों में नहीं बोलती थीं इसलिए जब उन्होंने सिफारिश की तो बाबूजी ने उनका मन और मान दोनों रखा और छोटे को बाहर जा कर पढ़ने की इजाजत दे दी. 
उनका बड़ा सा परिवार था. बाबूजी गाँव के स्कूल में प्रिंसिपल थे. उनके सात बेटे थे. गाँव में बहुत पैत्रिक संपत्ति थी. खेती बाड़ी में लगा हुआ सीधा साधा किसानों का घर था. गाँव के बाकी परिवारों की तरह. सब भाई मिल कर मेहनत से खेतों में काम करते थे. घर के काम लायक उपज हो जाती थी. बहुत अमीरी नहीं थी लेकिन गरीबी भी नहीं थी. घर का छोटा बेटा इंदर लाड़ला था सबका. उसकी दुनिया देखने की ख्वाहिश थी. स्कूल में पूरे जिले में एक उसकी ही फर्स्ट डिविजन आई थी, वो भी डिस्टिंक्शन से...घर भर में एक वो ही बाहर गया था. बारहवीं की परीक्षा में उसने नंबर भी बहुत अच्छे लाये और डॉक्टरी का एक्जाम भी पास कर लिया. बाबूजी का सीना चौड़ा हो गया. इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी कि बेटा डॉक्टर बन गया. आसपास कई कई गाँव तक कोई डॉक्टर न था, न कोई उस पोस्टिंग पर आने को तैयार होता था. प्रैक्टिस की सुबह शिवाले ले जाने के लिए बड़ी सरकार ने खुद से गूंथ कर आक के फूलों की माला बनाई. आखिर ये सब करम तो इश्वर का ही था. बड़ी सरकार ख़ुशी के मौकों पर भोले बाबा को कभी नहीं भूलती थी.

देखते देखते इंदर को डॉक्टर बने दो साल बीत गए. घर में भाभियाँ अब मीठी छेड़ करने लगी थीं कि अब तो इसके हाथ पीले कर दीजिये. इन हाथों में इंजेक्शन शोभा नहीं देता. हमें हुक्म चलाने के लिये एक छोटी देवरानी चाहिये. बड़ी सरकार खुद से ढूंढ कर हीरा बहू लायी थी. छोटा सा चाँद चेहरा और छोटी लेकिन चमकीली आँखें. पूरे घर में खनकती रहती. उसके आने से पूरा घर जैसे जिन्दा हो गया था. नाम भी कितना मीठा था...माही. भारत की तीन नदियों में से एक कि जो पश्चिम की ओर बहती हैं. माही को कौन सा रेगिस्तान खींचता था. कौन सी प्यास सींचने को लबालब भरी रहती थी. आखिर कुछ सोच कर ही उसका नाम माही रखा होगा. उसके आने से घर में सिर्फ सुख ही सुख आता था. अलता लगे लाल पैर...कि उसका पैरा इतना अच्छा था कि आते साथ बड़ी बहू के भी पाँव भारी हो गयी. वो अपनी छोटी देवरानी पर निहारी निहारी जाती. माही, तेरा ही करम है जो मुझ अभागन के आँगन में चाँद खिलेगा. माही खिलखिल बहती रहती. बड़ी सरकार उसे इतना मानती थी कि जैसे बहू नहीं बेटी हो. सात बेटों की माँ के अन्दर भी शायद एक बेटी की कोई चाहना बाकी रही होगी और ये सारा प्रेम माही के हिस्से आया था.

माही जब पेट से हुयी तो जैसे पूरा गाँव ही बावला हो गया था उसकी ख़ुशी में. कभी फुलवारी नानी अपने मायके से बने लड्डू लिए आती थी कभी कांची फुआ उसके लिए चने के सबसे महीन पत्ते बीन कर साग बना देती. माही ने पहली बार जाना था कि सिर्फ उसे ही गाँव के हर घर के बारे में सब पता था नहीं था, गाँव की सारी औरतों ने भी उसकी पसंद की चीज़ें ऐसी ऐसी संदूक में भर रखी थीं जिसमें सिर्फ सबसे उजले सुखों की जगह रहती है. पूरे नौ महीनों के दरम्यान घर कहानियों से फलता फूलता रहता. आम के बौर की तरह कहानियां उगतीं. हर आने वाला उसका दिल लगाने को कोई न कोई किस्सा लिए आता. दूर के रिश्ते के मामा भी आते तो उसे पास बिठा कर अपने ग्रामदेवता की कहानियां सुनाते रहते. माही सर तक आँचल काढ़े हंसती खिलखिलाती रहती. रात ढलती तो बड़ी सरकार के साथ रात के फरमाईशी गीत सुना करती. उन दिनों रोज़ कोई न कोई माही के नाम कोई गाना सिफारिश कर देता. रेडियो पर लोग जानने लगे थे कि बिहार के छोटे से गाँव तिलिसमपूर में कोई माही रहती है कि जो पूरे गाँव की इतनी लाड़ली है कि रोज़ उसके नाम सिफारिशी गाने भेजे जायें.
——
बड़ी सरकार ने नाम रख दिया तो बस. पूरे घर की इतरां हो गयी वो. माँ की दुलारी. इतरदानी. इतरडिब्बी. इतरपरी. माही की इतरां...माही...इतरां की माँ माही.

इतरां की आँखों में नींद नहीं और सारे घर की नींद हराम. वो सारे समय आँखें खोले टुकुर टुकुर माही को देखती रहती. उसे सुलाने की कोई तरकीब काम ही नहीं करती. कई तरह के झूले लाये गए. बड़ी सरकार ने कोशिश की, गाँव की कई बूढी पुरानियों ने कोशिश की कि बच्ची कुछ सोया करे लेकिन इतरां तो बस इतरां थी. सोती नहीं और चुपचाप टुकुर टुकुर तकती रहती. माही उसे ठेहुने पर झुलाती रहती गीत गुनगुनाते हुए...'तू मेरी इतरां, मैं तेरी मितरां...पक्की अमिया...मिठियां चिठियाँ...रस की बोली...कुछ ना तोली...जब तक दुनिया...हैं हम सखियाँ...बोल री इतरां...बन मेरी मितरां...बोल मेरी इतरां...कौन तेरी मितरां?'. 
इश्वर सुख अगर बहुतायत में देता है तो उसकी अवधि कम कर देता है. बारिशों के दिन थे. रात भर मेघ लगे हुए थे. पूरा घर किचकिच हो रखा था. बारिश बंद हुए आधा पहर बीता होगा. रौशनी थी लेकिन उजाला फीका था. बड़ी सरकार की नींद इतरां के रोने से खुली. इतरां तो कभी रोती नहीं...क्या हुआ बच्ची को. सोचती सोचतीं माही के कमरे के पास आयीं. कमरा खटखटाया तो इन्दर ने दरवाजा खोला. पलंग पर इतरां की चीखें तेज़ होती जा रहीं थीं और माही गहरी नींद सोयी थी. चेहरे पर टूट चुकी मुस्कान की आखिरी उदास रेख थी. बड़ी सरकार ने इतरां को गोदी में लिया और माही के माथे पर प्यार से हाथ फेरा. माथा. जो पत्थर की तरह ठंढा था. बड़ी सरकार के दिल में उम्र भर के भय ने उझक कर देखा...'इन्दर...देखो ना...माही का माथा इतना ठंढा क्यों है'. इन्दर ने माथे पर हाथ रखा और हहरा के गिर गया. बड़ी सरकार ने माही को पूरी तरह झकझोरा लेकिन माही ने अपने हिस्से के दिन जी लिए थे. इन्दर ने सारी कोशिशें की...एड्रेनालिन का इंजेक्शन...सीपीआर...मगर वो जानता था कि ये सब बेमानी है. उस दिन उसे अपने डॉक्टर होने पर पहली बार अफ़सोस हुआ था. उसने खुद को कहा. 'माही नहीं रही'.

नहीं रहना क्या होता है? हम जब होते हैं कहाँ होते हैं?
माही नहीं रही. मगर सिर्फ अपने बदन में. उसकी रूह पिंजरे से आजाद होकर यूं बिखरी कि इत्र हो गयी. पूरा गाँव माही से सिंचता. सारी औरतें. फसलें. त्यौहार. और जिंदगी भी. माही होती इतरां में...बसती जाती...किस्सा दर किस्सा दर किस्सा.
---पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की पहली किस्त है. 
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Published on March 12, 2016 01:08

किस्से में एक नदी उगती थी. नदी में एक किस्सा पनपता था.


इतरां क्या ही किसी की मुट्ठी में आती. दादी सरकार ने नाम ही ऐसा रक्खा था. खुद से उड़ती जाए हवा के पोर पोर में और जिसे एक बार छू ले वो घंटों गमकता रहे उसकी महकती आँखों के सुरूर में. इतरां जन्मी थी उस वक़्त जगजीत सिंह और चित्रा सिंह गा रहे थे रॉयल अल्बर्ट हॉल में. पंजाबी टप्पे. रेडियो पर कॉन्सर्ट आ रहा था.

बच्ची का नाम चित्रा रखने का मन था इन्दर का और माही को चित्रा नाम पसंद नहीं आया वर्ना तो एक ही मिनट में नाम पक्का हो जाता. यहाँ से किस्सा लम्बा चल निकला. क्या ही इन्दर और क्या ही माही, माँ बाप को कोई एक नाम पसंद ही नहीं आता. हर रोज नया नाम रख देते अपनी लाड़ली का. वो इस कदर ज़िंदा थी कि जैसे उसके पहले किसी में जान ही न हो. जिस कमरे में होती उजास फूटता. रंग जैसे दूध को हल्के सिन्दूर के हाथ से छू दिया गया हो. एकदम ही नर्म, नाज़ुक सफ़ेद में हल्का गुलाबी. बड़ी बड़ी आँखें और इत्ती कालीं कि टिम टिम चमकतीं. माथे पर एकदम काले हल्के घुंघराले बाल. दुनिया का कोई शब्द उसके लायक ही नहीं लगता. फूलों के नाम सोचे गए - अपराजिता, गुलाबो, चिरामिरा मगर नाम लेते ही चाँद में काले दाग जैसे लगते. मौसमों के नाम रखे गए लेकिन कोई मौसम नहीं ठहरता उसकी नीम नींद में मुस्कुराते होटों के सामने. बड़ी मुश्किल थी.

इक ऐसी ही शाम थी. दिन भर के लिए रखा गया नाम पसंद नहीं आ रहा था और इन्दर और माही उसके नए नाम के लिए सोच रहे थे कि अब क्या हो उसका नाम. रेडियो पर फिर से जगजीत सिंह के पंजाबी टप्पे आ रहे थे. इन्दर माही को मनाने की कोशिश में लगा था कि चित्रा कितना सुन्दर नाम है. इश्वर की बनायी तस्वीर ही तो है हमारी दुलरुआ बेटी. आँगन के बीच में एक गुदड़ी बिछाए बड़ी सरकार खुद से बच्ची की मालिश कर रही थीं. उनको पंजाबी बड़ी अच्छी लगती थी. ग़ज़ल के साथ गुनगुना रही थीं...'की लैना हैं मितरां तो...मिलने तो आ जांवां डर लगता हैं छितरां तों'. और फिर अचानक ही माही की ओर देख कर बोलीं, 'अरे माही, इत्तर को लाड़ से बोलो तो इतरां ही बनेगा न?'
'जी...ऐसा ही कुछ'
'तो हम आज से इसे इतरां बुलाया करेंगे...दुनिया में अपनी जैसी सिर्फ एक, कि जिसका नाम भी सिर्फ उसका अपना है. तुम दोनों का नाम पक्का हो जाए तो बता देना...मगर मेरे लिए ये आज से इतरां हो गयी.' 
और बस...उस दिन से वो सबके लिए ही इतरां हो गयी.

——
उन दिनों जगजीत सिंह का क्रेज था. वे सबको अच्छे लगते थे. अख़बारों में उनकी तस्वीर आती थी. लड़कपन की मासूमियत और गीत के बोलों की गहराई के बीच एक ऐसी आवाज़ कि बड़ी सरकार भी उनपर उतनी ही फ़िदा थीं कि जितना उनका सबसे छोटा और सबसे लाड़ला बेटा इंदर. उन दिनों अच्छा रेडियो सबके पास नहीं होता था, गांव भर में एक अच्छा रेडियो हो सकता था. इंदर ने ओवरटाइम कर कर अतिरिक्त पगार उठाई थी और उससे घर में रेडियो खरीद लिया था. दिन भर भले रेडियो बैठक में जमा रहता. कभी भाइयों के साथ खेत में रहता. कटाई के समय अक्सर टाली के ऊपर रखा रहता. मगर रात होते ही बड़ी सरकार के पास रेडियो अपने पैरों चल कर पहुँच जाता था. फिर घर में रोटियों और पंजाबी टप्पों की मीठी गंध एक साथ घुलती. और क्यूँ न जाता. इंदर को बाहर जा के पढ़ने का मन हुआ तो बड़ी सरकार ने ही तो बाबूजी को समझाया था कि उसे आगे जा के पढ़ने का मन है तो जाने दो न. बड़ी सरकार कभी घर के बाहर के मुद्दों में नहीं बोलती थीं इसलिए जब उन्होंने सिफारिश की तो बाबूजी ने उनका मन और मान दोनों रखा और छोटे को बाहर जा कर पढ़ने की इजाजत दे दी. 
उनका बड़ा सा परिवार था. बाबूजी गाँव के स्कूल में प्रिंसिपल थे. उनके सात बेटे थे. गाँव में बहुत पैत्रिक संपत्ति थी. खेती बाड़ी में लगा हुआ सीधा साधा किसानों का घर था. गाँव के बाकी परिवारों की तरह. सब भाई मिल कर मेहनत से खेतों में काम करते थे. घर के काम लायक उपज हो जाती थी. बहुत अमीरी नहीं थी लेकिन गरीबी भी नहीं थी. घर का छोटा बेटा इंदर लाड़ला था सबका. उसकी दुनिया देखने की ख्वाहिश थी. स्कूल में पूरे जिले में एक उसकी ही फर्स्ट डिविजन आई थी, वो भी डिस्टिंक्शन से...घर भर में एक वो ही बाहर गया था. बारहवीं की परीक्षा में उसने नंबर भी बहुत अच्छे लाये और डॉक्टरी का एक्जाम भी पास कर लिया. बाबूजी का सीना चौड़ा हो गया. इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी कि बेटा डॉक्टर बन गया. आसपास कई कई गाँव तक कोई डॉक्टर न था, न कोई उस पोस्टिंग पर आने को तैयार होता था. प्रैक्टिस की सुबह शिवाले ले जाने के लिए बड़ी सरकार ने खुद से गूंथ कर आक के फूलों की माला बनाई. आखिर ये सब करम तो इश्वर का ही था. बड़ी सरकार ख़ुशी के मौकों पर भोले बाबा को कभी नहीं भूलती थी.

देखते देखते इंदर को डॉक्टर बने दो साल बीत गए. घर में भाभियाँ अब मीठी छेड़ करने लगी थीं कि अब तो इसके हाथ पीले कर दीजिये. इन हाथों में इंजेक्शन शोभा नहीं देता. हमें हुक्म चलाने के लिये एक छोटी देवरानी चाहिये. बड़ी सरकार खुद से ढूंढ कर हीरा बहू लायी थी. छोटा सा चाँद चेहरा और छोटी लेकिन चमकीली आँखें. पूरे घर में खनकती रहती. उसके आने से पूरा घर जैसे जिन्दा हो गया था. नाम भी कितना मीठा था...माही. भारत की तीन नदियों में से एक कि जो पश्चिम की ओर बहती हैं. माही को कौन सा रेगिस्तान खींचता था. कौन सी प्यास सींचने को लबालब भरी रहती थी. आखिर कुछ सोच कर ही उसका नाम माही रखा होगा. उसके आने से घर में सिर्फ सुख ही सुख आता था. अलता लगे लाल पैर...कि उसका पैरा इतना अच्छा था कि आते साथ बड़ी बहू के भी पाँव भारी हो गयी. वो अपनी छोटी देवरानी पर निहारी निहारी जाती. माही, तेरा ही करम है जो मुझ अभागन के आँगन में चाँद खिलेगा. माही खिलखिल बहती रहती. बड़ी सरकार उसे इतना मानती थी कि जैसे बहू नहीं बेटी हो. सात बेटों की माँ के अन्दर भी शायद एक बेटी की कोई चाहना बाकी रही होगी और ये सारा प्रेम माही के हिस्से आया था.

माही जब पेट से हुयी तो जैसे पूरा गाँव ही बावला हो गया था उसकी ख़ुशी में. कभी फुलवारी नानी अपने मायके से बने लड्डू लिए आती थी कभी कांची फुआ उसके लिए चने के सबसे महीन पत्ते बीन कर साग बना देती. माही ने पहली बार जाना था कि सिर्फ उसे ही गाँव के हर घर के बारे में सब पता था नहीं था, गाँव की सारी औरतों ने भी उसकी पसंद की चीज़ें ऐसी ऐसी संदूक में भर रखी थीं जिसमें सिर्फ सबसे उजले सुखों की जगह रहती है. पूरे नौ महीनों के दरम्यान घर कहानियों से फलता फूलता रहता. आम के बौर की तरह कहानियां उगतीं. हर आने वाला उसका दिल लगाने को कोई न कोई किस्सा लिए आता. दूर के रिश्ते के मामा भी आते तो उसे पास बिठा कर अपने ग्रामदेवता की कहानियां सुनाते रहते. माही सर तक आँचल काढ़े हंसती खिलखिलाती रहती. रात ढलती तो बड़ी सरकार के साथ रात के फरमाईशी गीत सुना करती. उन दिनों रोज़ कोई न कोई माही के नाम कोई गाना सिफारिश कर देता. रेडियो पर लोग जानने लगे थे कि बिहार के छोटे से गाँव तिलिसमपूर में कोई माही रहती है कि जो पूरे गाँव की इतनी लाड़ली है कि रोज़ उसके नाम सिफारिशी गाने भेजे जायें.
——
बड़ी सरकार ने नाम रख दिया तो बस. पूरे घर की इतरां हो गयी वो. माँ की दुलारी. इतरदानी. इतरडिब्बी. इतरपरी. माही की इतरां...माही...इतरां की माँ माही.

इतरां की आँखों में नींद नहीं और सारे घर की नींद हराम. वो सारे समय आँखें खोले टुकुर टुकुर माही को देखती रहती. उसे सुलाने की कोई तरकीब काम ही नहीं करती. कई तरह के झूले लाये गए. बड़ी सरकार ने कोशिश की, गाँव की कई बूढी पुरानियों ने कोशिश की कि बच्ची कुछ सोया करे लेकिन इतरां तो बस इतरां थी. सोती नहीं और चुपचाप टुकुर टुकुर तकती रहती. माही उसे ठेहुने पर झुलाती रहती गीत गुनगुनाते हुए...'तू मेरी इतरां, मैं तेरी मितरां...पक्की अमिया...मिठियां चिठियाँ...रस की बोली...कुछ ना तोली...जब तक दुनिया...हैं हम सखियाँ...बोल री इतरां...बन मेरी मितरां...बोल मेरी इतरां...कौन तेरी मितरां?'. 
इश्वर सुख अगर बहुतायत में देता है तो उसकी अवधि कम कर देता है. बारिशों के दिन थे. रात भर मेघ लगे हुए थे. पूरा घर किचकिच हो रखा था. बारिश बंद हुए आधा पहर बीता होगा. रौशनी थी लेकिन उजाला फीका था. बड़ी सरकार की नींद इतरां के रोने से खुली. इतरां तो कभी रोती नहीं...क्या हुआ बच्ची को. सोचती सोचतीं माही के कमरे के पास आयीं. कमरा खटखटाया तो इन्दर ने दरवाजा खोला. पलंग पर इतरां की चीखें तेज़ होती जा रहीं थीं और माही गहरी नींद सोयी थी. चेहरे पर टूट चुकी मुस्कान की आखिरी उदास रेख थी. बड़ी सरकार ने इतरां को गोदी में लिया और माही के माथे पर प्यार से हाथ फेरा. माथा. जो पत्थर की तरह ठंढा था. बड़ी सरकार के दिल में उम्र भर के भय ने उझक कर देखा...'इन्दर...देखो ना...माही का माथा इतना ठंढा क्यों है'. इन्दर ने माथे पर हाथ रखा और हहरा के गिर गया. बड़ी सरकार ने माही को पूरी तरह झकझोरा लेकिन माही ने अपने हिस्से के दिन जी लिए थे. इन्दर ने सारी कोशिशें की...एड्रेनालिन का इंजेक्शन...सीपीआर...मगर वो जानता था कि ये सब बेमानी है. उस दिन उसे अपने डॉक्टर होने पर पहली बार अफ़सोस हुआ था. उसने खुद को कहा. 'माही नहीं रही'.

नहीं रहना क्या होता है? हम जब होते हैं कहाँ होते हैं?
माही नहीं रही. मगर सिर्फ अपने बदन में. उसकी रूह पिंजरे से आजाद होकर यूं बिखरी कि इत्र हो गयी. पूरा गाँव माही से सिंचता. सारी औरतें. फसलें. त्यौहार. और जिंदगी भी. माही होती इतरां में...बसती जाती...किस्सा दर किस्सा दर किस्सा.
---पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की पहली किस्त है. 
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Published on March 12, 2016 01:08