Puja Upadhyay's Blog, page 22

February 18, 2016

डैलस डायरी: God is a postman.

परसों डैलस आई हूँ. ये डैलस में मेरा तीसरा ट्रिप है. डैलस न्यूयॉर्क की तरह नहीं है कि जिसमें रोज़ रोज़ कुछ नया होता रहे ऐसा कहते हैं लोग. कुछ को आश्चर्य भी होता है कि मैं बोर कैसे नहीं होती. मैं करती क्या हूँ दिन दिन भर. ये रोजनामचा उनके लिए लिख रही हूँ, और खुद के लिए भी. इसमें बहुत कुछ सच होगा और उससे ज्यादा झूठ. ये दिनों का सिलसिलेवार ब्यौरा नहीं है ये मेरे मन में खुलती एक खिड़की है...कि मैं अपने जिस घर में तकरीबन पिछले आठ सालों से रह रही हूँ उसको जाता हुआ एक स्ट्रीट लैम्प है...मैं कई बार उसके नीचे खड़ी होकर उस स्ट्रीट लैम्प को ऐसे देखती हूँ जैसे पहली बार देख रही हूँ. एक ही रास्ते पर कई बार गुज़रते हुए भी रास्ता वही नहीं होता. हम वो देखते हैं जैसी हमारी मनः स्थिति रहती है. कि मुझे चीज़ों को देख नहीं सकती...मैं अक्सर उनसे गुज़रती रहती हूँ. 
बैंगलोर से डैलास लगभग चौबीस घंटे का सफ़र हो जाता है. जेट लैग के कारण पहला दिन तो पूरा ही सोते हुए बीतता है. हम डैलस के टाइम के हिसाब से कोई २ बजे दोपहर को होटल में आये. खाना मंगवाया. वेज फ्राइड राइस में अंडा डाल दिए थे लोग. हर जगह वेज का अलग अलग डेफिनेशन होता है. थक गए थे. खाना नहीं खाए. सो गए. दोपहर के 3 बजे के सोये हुए पूरी शाम सोते रहे और अगली भोर 4 बजे भूख से नींद खुली. दो वक़्त का खाना मिस हो गया था. कुछ बिस्किट वगैरह खा के घर वालों के पास रोना रो रहे थे कि इस होटल के पास खाने वाने को कुछ नहीं है. भूख से मर रहे हैं वगैरह. उसपर पानी भी खरीद के नहीं लाये थे और कल यहाँ इन लोगों ने हॉट वाटर सिस्टम की सफाई वगैरह की थी...तो नल से काला पानी आ रहा था. तो प्यासे भी मर रहे थे.   फिर कमरे की खिड़की से पर्दा हटा के झांके तो देखते है कि भगवान् ने पूरा पूरा पेंट का डिब्बा ही उलट दिया है आसमान पर. बाहर मौसम में ठंढक होगी लेकिन हम दीवानों की तरह बाहर भागे. मोबाइल फोन और कमरे की चाभी के साथ. उफ़. क्या ही सुबह ही. गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग की. ठंढ थोड़ी से ज्यादा. मैं बाँहें फैलाए नाच रही थी गोल गोल गोल. कितना सुन्दर...ओह कितना सुन्दर...पूरा पूरा आसमान... ठंढी हवा अच्छी लग रही थी. ताजगी भरी. ओसभीगी. 
साढ़े छः बजे नाश्ता और पानी दोनों मिला. खाने का असल स्वाद भूख से आता है. थोड़े से फल. पैनकेक. एक स्लाइस ब्रेड और दो कप अच्छी कॉफ़ी. बगल वाली टेबल पर हिन्दुस्तानी लड़के हिंदी में बतिया रहे थे. 'गर्म कपड़े पहन लेना आज, मेरी कल लंका लग गयी थी'. मैं बैंगलोर में हिंदी के लिए तरसती रहती हूँ और हिंदी मुझे मिलती है यहाँ डैलस में आ के. मन किया उनसे बात करने का. मगर फिर लगा पता नहीं क्या सोचेंगे. तो रहने दिया. 
कुछ दोस्तों को फोन किया. पर मन किसी में लग नहीं रहा था. गुलाबी सुबह का जादू मन पर चढ़ रहा था. नोटबुक में कुछ कहानियां लिखी हुयी थीं. खुले आसमान के नीचे रेत पर बाल खोये सोयी हुयी एक लड़की. किसी के साथ सिर्फ तारे देखना चाहती थी. पूरी रात. बिना एक शब्द कुछ भी कहे हुए. उससे पूछा. ऐसी भी होती है क्या मुहब्बत? रूह का होना महसूस कैसे होता है. कभी हुआ है कि तुम्हारी आँखों का देखा हुआ कुछ किसी के शब्दों को छू जाए. क्लॉउडे मोने और कर्ट कोबेन और कभी कभी संगीत का कोई टुकड़ा ऐसा ही होता है. रूह की भाषा में बोलता हुआ. कुछ तो है बाबू. कौन कहता है? सिगरेट. धुआं भरता जाता है मेरे कमरे में कहीं. धूप जैसा. मैं सुनना चाहती हूँ. कहना चाहती हूँ. मैं होना चाहती हूँ एक मुकम्मल लम्हा. 
दोपहर को वालमार्ट जा के बहुत सा खाने और पीने का सामान लायी हूँ. कटे हुए आम की फांकें. खरबूजा. चेरी. स्ट्रॉबेरी. ब्लूबेरी. पीच(आडू). कुछ रेडी टू ईट जैसा भी कुछ. सलाद. चिप्स. बहुत सा कुछ. इस होटल में शटल सर्विस सिर्फ ग्यारह बजे तक है लेकिन जो मुझे ड्राप करने गया था, उसने कहा वो मुझे पिक भी कर लेगा. मैंने जब कॉल किया तो होटल में जिसने फोन उठाया वो बोली कि अभी पिक नहीं कर सकते, लेकिन पीछे से उसकी आवाज़ थी...उसे हाँ बोल दो...मुझे पिक करने जो लड़की आई उसका नाम शायला था. मैं उससे बातें करती आई पूरे रास्ते. मुझे अच्छा लगता है ऐसे गप्पें मारना. कमरे में आई तो धूप इतरा रही थी. कमरे पर कब्जा जमा के. मैंने अपने लिए माइक्रोवेव में पास्ता गर्म किया. मैं धूप के साथ कुछ भी खा सकती हूँ. फीका, बेस्वाद ब्रोकली वाला पास्ता भी.

डैलस में जहाँ रहती हूँ उसे रिचर्डसन कहते हैं. अमेरिका में डाउनटाउन का कांसेप्ट है. जैसे कि शहर है डैलस. उसके इर्द गिर्द बहुत सारे छोटे छोटे रिहाइशी इलाके बने हुए हैं जहाँ पर लोग रहते हैं जैसे रिचार्डसन, प्लानो. ऑफिस या बिजनेस के लिए लोग डाउनटाउन जाते हैं और फिर लौट के घर कि जो शहर के बाहर बसा होता है. मैं पिछले दो बार से जब भी आई थी हयात रीजेंसी में ठहरी थी जो कि एक होटल है. इस बार मैं एक स्टूडियो सेट-अप में ठहरी हूँ. यहाँ पर एक कमरा. एक छोटा सा लिविंग एरिया जिसमें टीवी, स्टडी टेबल और एक सोफा है. इसके अलावा एक छोटा सा किचेन है. 
होटल से पोस्ट ऑफिस सर्च किया तो देखा कि सबसे पास का पोस्ट ऑफिस लगभग ढाई किलोमीटर दूर था. यहाँ पर दूरी माइल में नापी जाती है. तो लगभग १.५ माइल. आना जाना मिला कर लगभग ५ किलोमीटर. रिसेप्शन पर बंदी थोड़ा चकित हुयी कि मैं इतनी दूर पैदल आना जाना चाहती हूँ. ये एरिया मेरे होटल से पीछे की तरफ से रास्ते में था. रिचार्डसन में भी इस इलाके में मैं कभी नहीं गयी थी. इस बार ख़ास मुश्किल ये थी कि आईफोन नहीं है तो विंडोज फोन का इस्तेमाल कर रही हूँ और मुझे गूगल मैप्स की आदत है. इस फोन में मैप्स हर बार स्क्रीन लॉक होते ही बंद हो जाता था और मुझे फिर से सर्च करना पड़ता था. 
यहाँ से रास्ता ढलवां था. मेरा अब तक डैलस का अनुमान था कि ये एकदम फ़्लैट सतह पर बना हुआ है और यहाँ बिलकुल ही चढ़ाई या उतार नहीं हैं. मगर यहाँ सामने पहाड़ी इलाका जैसा महसूस हो रहा था. दूर दूर तक पसरी हुयी ढलवां वादी...छोटे छोटे पहाड़ीनुमा टीले. सड़क पर तरतीब से कतार में बने हुए छोटे छोटे घर. घरों के सामने पुराने पेड़. कमोबेश हर पेड़ पर झूले. झूलों की संख्या से अंदाज़ा लग जाता था कि घर में कितने बच्चे हैं और किस ऊंचाई के हैं. हर घर के सामने बैठने का छोटा सा हिस्सा कि जिसमें कुर्सियां लगी हुयीं. अधिकतर घरों के आगे ज़मीन में खूबसूरत पौधे लगे थे. 
घरों के ख़त्म होने के बाद दोनों ओर पेड़ों का जंगल शुरू हो गया. पतझर के दिन हैं. कहीं एक भी हरा पत्ता भी नहीं दिख रहा था. सूखे पेड़ों के पीछे गहरा नीला आसमान दिखता था. एक पुल आया. पुल के नीचे एक छोटी सी पहाड़ी नदी बह रही थी. बिलकुल पतली सी धारा थी शांत पानी की मगर उसमें परिवर्तित होते पेड़ और गहरा नीला आसमान. सब इतना खूबसूरत था क्योंकि अप्रत्याशित था. मैंने सोचा भी नहीं था कि रास्ता ऐसा खूबसूरत पहाड़ी रास्ता होगा कि जिसमें शांत पेड़, चुप पानी और सांस की तरह साथ चलती हवा के झोंके होंगे. रेडियो पर जॉर्ज माइकल का केयरलेस व्हिस्पर बज रहा था. कुछ जैज़ भी बजता रहा था जो मैंने कभी सुना नहीं था. रेडियो जॉकी की खुशनुमा आवाज़ थी. धूप जैसी. मैं उस पुल पर खड़ी सोच रही थी कि जिंदगी कितनी खूबसूरत है. कि अनजाने रास्तों पर चलने में कितना सुकून है.  पोस्ट ऑफिस पहुंची तो देखा कि वो सरकारी अमेरिकन पोस्ट ऑफिस नहीं है. उस इलाके की चिट्ठियां पहुँचाने के लिए एक प्राइवेट पोस्ट वाली सर्विस है. मगर वहां पर कुछ बेहतरीन कार्ड्स थे. चीनी मिट्टी की खूबसूरत कलाकृतियाँ थीं. कोई लोकल आर्टिस्ट थी जिसने बनाया था सब. फूलों वाले प्लेट. गोथिक स्टाइल की ऐशट्रे और ऐसी ही कुछ चीज़ें. वहाँ बहुत देर तक चीज़ों को देखती रही और सोचती रही कि मेरे दोस्तों में किसे कौन सी चीज़ पसंद आएगी. अगर मैं वाकई खरीद के ले जा सकती तो इनमें से कौन सी चीज़ें खरीदती. दोस्तों को हम वाकई अपने दिल में बसाए चलते हैं. चीज़ें इतनी दूर से लाने में टूट जातीं वरना कुछ तो इतनी खूबसूरत थीं कि छोड़ने का मन न करे. वहां हैण्डमेड साबुन थे. कमाल की खुशबू वाले. मैंने ऐसे साबुन कभी देखे ही नहीं थे. एक कार्ड ख़रीदा और एक साबुन कि जिससे लेमनग्रास जैसी कोई गंध आती थी. 
दुनिया जितनी बाहर है उतनी ही अन्दर भी है. एक अल्टरनेट दुनिया. वापसी में मैं उन चीज़ों के बारे में सोचती रही. गहरे हरे-नीले-भूरे रंग की ऐश ट्रे. सिगरेट की तलब उट्ठी बहुत जोर की और याद का एक खुशबूदार हवा का झोंका साथ साथ चलने लगा. बालों को उलझाते हुए. मैं उसकी उँगलियाँ तलाशने लगीं कि बालों को सुलझा दे, हौले से. इक नन्ही सी पीली गोली जुबान पर रक्खी. उससे जादू का इक स्वाद घुलने लगा और मैं इस दुनिया में होती हुयी भी ख्वाबों में जीने लगी. यहाँ सेटिंग तो सारी डैलस की थी मगर लोग मेरी पसंद के थे. उसने सिगरेट के तीन कश लेकर मेरी ओर बढ़ाई तो आँख भर आई. फिर देखा कि कोई धुंआ नहीं है. शायद आँखों में धूल पड़ गयी थी. सोचा कि उसे बताऊँ कि ये शहर चिट्ठियां लिखने के लिए बहुत मुफीद है. इन खूबसूरत पेड़ों के नीचे बैठ कर पानी की गंध छूते हुए ख़त लिखेंगे तो उनसे तिलिस्म का दरवाजा खुल जाएगा. 
सूखे हुए पेड़ों की टहनियां कुछ यूं फैली हुयी थीं कि जैसे किसी ने बाँहें फैलाई हों. टहनियों पर धूप पड़ रही थी और उनके सिरे एकदम सुनहले लग रहे थे. आसमान में चाँद का आधा टुकड़ा भी था. साथ साथ चलता. एक जगह बैगनी फूल खिले हुए दिखे. उन्हें देख कर याद का कोई रंग टहका सीने में कहीं. मैं पूरे रास्ते तसवीरें खींचती आई थी. कमरे पर आई तो भूख लग गयी. चेरी धो कर बाउल में रखी. खिड़की से धूप अन्दर आ रही थी. मैं धूप में अपने लिए एक छोटा सा कुशन रख कर दीवार से टिक कर बैठी थी. किताब, कागज़ और अपनी कलमों के साथ. डूबते सूरज और चेरी का मीठा कत्थई स्वाद जुबां पर. 
आसमान में फिर से गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग के बादल थे. मैंने इतनी खूबसूरत शाम बहुत दिनों बाद देखी थी. यहाँ सब खुला खुला भी था. मैं गोल गोल घूम कर शाम के रंग देखती जाती. ऐसा महसूस होता कि खुदा एक कासिद है. मेरे सारे ख़त पहुँच जाते हैं तुम तक. और कि ये दुनिया जिसने इतनी सुन्दर बनायी. उसने तुम्हारा मन बनाया होगा. मन. खुद को देखती हूँ इन रंगों में डूबी हुयी. इतनी खूबसूरती में भीगती. सुकून से भरा भरा महसूसती हूँ को. मुहब्बत से भरा भरा भी. 
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Published on February 18, 2016 03:02

डैलस डायरी: The God is a postman.

परसों डैलस आई हूँ. ये डैलस में मेरा तीसरा ट्रिप है. डैलस न्यूयॉर्क की तरह नहीं है कि जिसमें रोज़ रोज़ कुछ नया होता रहे ऐसा कहते हैं लोग. कुछ को आश्चर्य भी होता है कि मैं बोर कैसे नहीं होती. मैं करती क्या हूँ दिन दिन भर. ये रोजनामचा उनके लिए लिख रही हूँ, और खुद के लिए भी. इसमें बहुत कुछ सच होगा और उससे ज्यादा झूठ. ये दिनों का सिलसिलेवार ब्यौरा नहीं है ये मेरे मन में खुलती एक खिड़की है...कि मैं अपने जिस घर में तकरीबन पिछले आठ सालों से रह रही हूँ उसको जाता हुआ एक स्ट्रीट लैम्प है...मैं कई बार उसके नीचे खड़ी होकर उस स्ट्रीट लैम्प को ऐसे देखती हूँ जैसे पहली बार देख रही हूँ. एक ही रास्ते पर कई बार गुज़रते हुए भी रास्ता वही नहीं होता. हम वो देखते हैं जैसी हमारी मनः स्थिति रहती है. कि मुझे चीज़ों को देख नहीं सकती...मैं अक्सर उनसे गुज़रती रहती हूँ. 
बैंगलोर से डैलास लगभग चौबीस घंटे का सफ़र हो जाता है. जेट लैग के कारण पहला दिन तो पूरा ही सोते हुए बीतता है. हम डैलस के टाइम के हिसाब से कोई २ बजे दोपहर को होटल में आये. खाना मंगवाया. वेज फ्राइड राइस में अंडा डाल दिए थे लोग. हर जगह वेज का अलग अलग डेफिनेशन होता है. थक गए थे. खाना नहीं खाए. सो गए. दोपहर के 3 बजे के सोये हुए पूरी शाम सोते रहे और अगली भोर 4 बजे भूख से नींद खुली. दो वक़्त का खाना मिस हो गया था. कुछ बिस्किट वगैरह खा के घर वालों के पास रोना रो रहे थे कि इस होटल के पास खाने वाने को कुछ नहीं है. भूख से मर रहे हैं वगैरह. उसपर पानी भी खरीद के नहीं लाये थे और कल यहाँ इन लोगों ने हॉट वाटर सिस्टम की सफाई वगैरह की थी...तो नल से काला पानी आ रहा था. तो प्यासे भी मर रहे थे.   फिर कमरे की खिड़की से पर्दा हटा के झांके तो देखते है कि भगवान् ने पूरा पूरा पेंट का डिब्बा ही उलट दिया है आसमान पर. बाहर मौसम में ठंढक होगी लेकिन हम दीवानों की तरह बाहर भागे. मोबाइल फोन और कमरे की चाभी के साथ. उफ़. क्या ही सुबह ही. गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग की. ठंढ थोड़ी से ज्यादा. मैं बाँहें फैलाए नाच रही थी गोल गोल गोल. कितना सुन्दर...ओह कितना सुन्दर...पूरा पूरा आसमान... ठंढी हवा अच्छी लग रही थी. ताजगी भरी. ओसभीगी. 
साढ़े छः बजे नाश्ता और पानी दोनों मिला. खाने का असल सवाल भूख से आता है. थोड़े से फल. पैनकेक. एक स्लाइस ब्रेड और दो कप अच्छी कॉफ़ी. बगल वाली टेबल पर हिन्दुस्तानी लड़के हिंदी में बतिया रहे थे. 'गर्म कपड़े पहन लेना आज, मेरी कल लंका लग गयी थी'. मैं बैंगलोर में हिंदी के लिए तरसती रहती हूँ और हिंदी मुझे मिलती है यहाँ डैलस में आ के. मन किया उनसे बात करने का. मगर फिर लगा पता नहीं क्या सोचेंगे. तो रहने दिया. 
कुछ दोस्तों को फोन किया. पर मन किसी में लग नहीं रहा था. गुलाबी सुबह का जादू मन पर चढ़ रहा था. नोटबुक में कुछ कहानियां लिखी हुयी थीं. खुले आसमान के नीचे रेत पर बाल खोये सोयी हुयी एक लड़की. किसी के साथ सिर्फ तारे देखना चाहती थी. पूरी रात. बिना एक शब्द कुछ भी कहे हुए. उससे पूछा. ऐसी भी होती है क्या मुहब्बत? रूह का होना महसूस कैसे होता है. कभी हुआ है कि तुम्हारी आँखों का देखा हुआ कुछ किसी के शब्दों को छू जाए. क्लॉउडे मोने और कर्ट कोबेन और कभी कभी संगीत का कोई टुकड़ा ऐसा ही होता है. रूह की भाषा में बोलता हुआ. कुछ तो है बाबू. कौन कहता है? सिगरेट. धुआं भरता जाता है मेरे कमरे में कहीं. धूप जैसा. मैं सुनना चाहती हूँ. कहना चाहती हूँ. मैं होना चाहती हूँ एक मुकम्मल लम्हा. 
दोपहर को वालमार्ट जा के बहुत सा खाने और पीने का सामान लायी हूँ. कटे हुए आम की फांकें. खरबूजा. चेरी. स्ट्रॉबेरी. ब्लूबेरी. पीच(आडू). कुछ रेडी टू ईट जैसा भी कुछ. सलाद. चिप्स. बहुत सा कुछ. इस होटल में शटल सर्विस सिर्फ ग्यारह बजे तक है लेकिन जो मुझे ड्राप करने गया था, उसने कहा वो मुझे पिक भी कर लेगा. मैंने जब कॉल किया तो होटल में जिसने फोन उठाया वो बोली कि अभी पिक नहीं कर सकते, लेकिन पीछे से उसकी आवाज़ थी...उसे हाँ बोल दो...मुझे पिक करने जो लड़की आई उसका नाम शायला था. मैं उससे बातें करती आई पूरे रास्ते. मुझे अच्छा लगता है ऐसे गप्पें मारना. कमरे में आई तो धूप इतरा रही थी. कमरे पर कब्जा जमा के. मैंने अपने लिए माइक्रोवेव में पास्ता गर्म किया. मैं धूप के साथ कुछ भी खा सकती हूँ. फीका, बेस्वाद ब्रोकली वाला पास्ता भी.

डैलस में जहाँ रहती हूँ उसे रिचर्डसन कहते हैं. अमेरिका में डाउनटाउन का कांसेप्ट है. जैसे कि शहर है डैलस. उसके इर्द गिर्द बहुत सारे छोटे छोटे रिहाइशी इलाके बने हुए हैं जहाँ पर लोग रहते हैं जैसे रिचार्डसन, प्लानो. ऑफिस या बिजनेस के लिए लोग डाउनटाउन जाते हैं और फिर लौट के घर कि जो शहर के बाहर बसा होता है. मैं पिछले दो बार से जब भी आई थी हयात रीजेंसी में ठहरी थी जो कि एक होटल है. इस बार मैं एक स्टूडियो सेट-अप में ठहरी हूँ. यहाँ पर एक कमरा. एक छोटा सा लिविंग एरिया जिसमें टीवी, स्टडी टेबल और एक सोफा है. इसके अलावा एक छोटा सा किचेन है. 

होटल से पोस्ट ऑफिस सर्च किया तो देखा कि सबसे पास का पोस्ट ऑफिस लगभग ढाई किलोमीटर दूर था. यहाँ पर दूरी माइल में नापी जाती है. तो लगभग १.५ माइल. आना जाना मिला कर लगभग ५ किलोमीटर. रिसेप्शन पर बंदी थोड़ा चकित हुयी कि मैं इतनी दूर पैदल आना जाना चाहती हूँ. ये एरिया मेरे होटल से पीछे की तरफ से रास्ते में था. रिचार्डसन में भी इस इलाके में मैं कभी नहीं गयी थी. इस बार ख़ास मुश्किल ये थी कि आईफोन नहीं है तो विंडोज फोन का इस्तेमाल कर रही हूँ और मुझे गूगल मैप्स की आदत है. इस फोन में मैप्स हर बार स्क्रीन लॉक होते ही बंद हो जाता था और मुझे फिर से सर्च करना पड़ता था. 
यहाँ से रास्ता ढलवां था. मेरा अब तक डैलस का अनुमान था कि ये एकदम फ़्लैट सतह पर बना हुआ है और यहाँ बिलकुल ही चढ़ाई या उतार नहीं हैं. मगर यहाँ सामने पहाड़ी इलाका जैसा महसूस हो रहा था. दूर दूर तक पसरी हुयी ढलवां वादी...छोटे छोटे पहाड़ीनुमा टीले. सड़क पर तरतीब से कतार में बने हुए छोटे छोटे घर. घरों के सामने पुराने पेड़. कमोबेश हर पेड़ पर झूले. झूलों की संख्या से अंदाज़ा लग जाता था कि घर में कितने बच्चे हैं और किस ऊंचाई के हैं. हर घर के सामने बैठने का छोटा सा हिस्सा कि जिसमें कुर्सियां लगी हुयीं. अधिकतर घरों के आगे ज़मीन में खूबसूरत पौधे लगे थे. 
घरों के ख़त्म होने के बाद दोनों ओर पेड़ों का जंगल शुरू हो गया. पतझर के दिन हैं. कहीं एक भी हरा पत्ता भी नहीं दिख रहा था. सूखे पेड़ों के पीछे गहरा नीला आसमान दिखता था. एक पुल आया. पुल के नीचे एक छोटी सी पहाड़ी नदी बह रही थी. बिलकुल पतली सी धारा थी शांत पानी की मगर उसमें परिवर्तित होते पेड़ और गहरा नीला आसमान. सब इतना खूबसूरत था क्योंकि अप्रत्याशित था. मैंने सोचा भी नहीं था कि रास्ता ऐसा खूबसूरत पहाड़ी रास्ता होगा कि जिसमें शांत पेड़, चुप पानी और सांस की तरह साथ चलती हवा के झोंके होंगे. रेडियो पर जॉर्ज माइकल का साइलेंट व्हिस्पर बज रहा था. कुछ जैज़ भी बजता रहा था जो मैंने कभी सुना नहीं था. रेडियो जॉकी की खुशनुमा आवाज़ थी. धूप जैसी. मैं उस पुल पर खड़ी सोच रही थी कि जिंदगी कितनी खूबसूरत है. कि अनजाने रास्तों पर चलने में कितना सुकून है.  पोस्ट ऑफिस पहुंची तो देखा कि वो सरकारी अमेरिकन पोस्ट ऑफिस नहीं है. उस इलाके की चिट्ठियां पहुँचाने के लिए एक प्राइवेट पोस्ट वाली सर्विस है. मगर वहां पर कुछ बेहतरीन कार्ड्स थे. चीनी मिट्टी की खूबसूरत कलाकृतियाँ थीं. कोई लोकल आर्टिस्ट थी जिसने बनाया था सब. फूलों वाले प्लेट. गोथिक स्टाइल की ऐशट्रे और ऐसी ही कुछ चीज़ें. वहाँ बहुत देर तक चीज़ों को देखती रही और सोचती रही कि मेरे दोस्तों में किसे कौन सी चीज़ पसंद आएगी. अगर मैं वाकई खरीद के ले जा सकती तो इनमें से कौन सी चीज़ें खरीदती. दोस्तों को हम वाकई अपने दिल में बसाए चलते हैं. चीज़ें इतनी दूर से लाने में टूट जातीं वरना कुछ तो इतनी खूबसूरत थीं कि छोड़ने का मन न करे. वहां हैण्डमेड साबुन थे. कमाल की खुशबू वाले. मैंने ऐसे साबुन कभी देखे ही नहीं थे. एक कार्ड ख़रीदा और एक साबुन कि जिससे लेमनग्रास जैसी कोई गंध आती थी. 
दुनिया जितनी बाहर है उतनी ही अन्दर भी है. एक अल्टरनेट दुनिया. वापसी में मैं उन चीज़ों के बारे में सोचती रही. गहरे हरे-नीले-भूरे रंग की ऐश ट्रे. सिगरेट की तलब उट्ठी बहुत जोर की और याद का एक खुशबूदार हवा का झोंका साथ साथ चलने लगा. बालों को उलझाते हुए. मैं उसकी उँगलियाँ तलाशने लगीं कि बालों को सुलझा दे, हौले से. इक नन्ही सी पीली गोली जुबान पर रक्खी. उससे जादू का इक स्वाद घुलने लगा और मैं इस दुनिया में होती हुयी भी ख्वाबों में जीने लगी. यहाँ सेटिंग तो सारी डैलस की थी मगर लोग मेरी पसंद के थे. उसने सिगरेट के तीन कश लेकर मेरी ओर बढ़ाई तो आँख भर आई. फिर देखा कि कोई धुंआ नहीं है. शायद आँखों में धूल पड़ गयी थी. सोचा कि उसे बताऊँ कि ये शहर चिट्ठियां लिखने के लिए बहुत मुफीद है. इन खूबसूरत पेड़ों के नीचे बैठ कर पानी की गंध छूते हुए ख़त लिखेंगे तो उनसे तिलिस्म का दरवाजा खुल जाएगा. 
सूखे हुए पेड़ों की टहनियां कुछ यूं फैली हुयी थीं कि जैसे किसी ने बाँहें फैलाई हों. टहनियों पर धूप पड़ रही थी और उनके सिरे एकदम सुनहले लग रहे थे. आसमान में चाँद का आधा टुकड़ा भी था. साथ साथ चलता. एक जगह बैगनी फूल खिले हुए दिखे. उन्हें देख कर याद का कोई रंग टहका सीने में कहीं. मैं पूरे रास्ते तसवीरें खींचती आई थी. कमरे पर आई तो भूख लग गयी. चेरी धो कर बाउल में रखी. खिड़की से धूप अन्दर आ रही थी. मैं धूप में अपने लिए एक छोटा सा कुशन रख कर दीवार से टिक कर बैठी थी. किताब, कागज़ और अपनी कलमों के साथ. डूबते सूरज और चेरी का मीठा कत्थई स्वाद जुबां पर. 
आसमान में फिर से गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग के बादल थे. मैंने इतनी खूबसूरत शाम बहुत दिनों बाद देखी थी. यहाँ सब खुला खुला भी था. मैं गोल गोल घूम कर शाम के रंग देखती जाती. ऐसा महसूस होता कि खुदा एक कासिद है. मेरे सारे ख़त पहुँच जाते हैं तुम तक. और कि ये दुनिया जिसने इतनी सुन्दर बनायी. उसने तुम्हारा मन बनाया होगा. मन. खुद को देखती हूँ इन रंगों में डूबी हुयी. इतनी खूबसूरती में भीगती. सुकून से भरा भरा महसूसती हूँ को. मुहब्बत से भरा भरा भी. 
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Published on February 18, 2016 03:02

February 13, 2016

मेरा ये भरम रहने दो | कि तुम हो | मेरे जीने के लिए ये जरूरी है.


मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा कांधा. तुम्हारा सीना. तुम्हारा रुमाल. या कि तुम्हारे शब्द ही. 
हो सके हो मेरे लिए हो जाना बहुत ऊंचे पहाड़ों में धीमे उगते किसी पेड़ की गहरी खोह
मैं शायद तुम तक कभी पहुँच नहीं पाऊँगी मगर मुझे चाहिए होगा तुम्हारे होने का यकीन 
--//--
तुम मेरे मन में बहती चुप नदी हो 
--//--
मुझे लगता नहीं था कि कभी 'हम' हो सकते हैं. 
--//--मन की दीवारें होती हैं जिनसे रिसता रहता है अवसाद धीरे धीरे सीख लेगी मेरी रूहउन सीले शब्दों को सोखना 
मुझे तुम्हारी उँगलियों की फ़िक्र होती है तुमने मेरा मन छुआ था एक बार 
--//--
मुझे वो हिस्सा नहीं चाहिए इस दुनिया का जो सच में घटता है. मैं बहुत थक गयी हूँ. मैं लौट कर किताबों तक जा रही हूँ. 
--//--
मेरे पास कुछ भी नहीं है तुम्हें देने को मेरे टूटे दिल में जरा से दुःख हैंजरा सी उदासीतुम्हारे नाम करती हूँ 
--//--
काश कि मुझे आता प्रेम करनाऔर प्रेम में बने रहना
--//--
मेरा ये भरम रहने दो कि तुम होमेरे जीने के लिए ये जरूरी है. --//--

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Published on February 13, 2016 07:48

February 8, 2016

जादूगर, जो खुदा है, रकीब़ भी और महबूब भी

वे तुम्हारे आने के दिन नहीं थे. मौसम उदास, फीका, बेरंग था. शाम को आसमान में बमुश्किल दो तीन रंग होते थे. हवा में वीतराग घुला था. चाय में चीनी कम होती थी. जिन्दगी में मिठास भी.
फिर एक शाम अचानक मौसम कातिल हो उठा. मीठी ठंढ और हवा में घुलती अफीम. सिहरन में जरा सा साड़ी का आँचल लहरा रहा था. कांधे पर बाल खोल दिये मैंने. सिगरेट निकाल कर लाइटर जलाया. उसकी लौ में तुम्हारी आँखें नजर आयीं. होठों पर जलते धुयें ने कहा कि तुमने भी अपनी सिगरेट इसी समय जलायी है. 
ये वैसी चीज थी जिसे किसी तर्क से समझाया नहीं जा सकता था. जिस दूसरी दुनिया के हम दोनों बाशिंदे हैं वहाँ से आया था कासिद. कान में फुसफुसा कर कह रहा था, जानेमन, तुम्हारे सरकार आने वाले हैं. 
'सरकार'. बस, दिल के खुश रखने को हुज़ूर, वरना तो हमारे दिल पर आपकी तानाशाही चलती है. 
खुदा की मेहर है सरकार, कि जो कासिद भेज देता है आपके आने की खबर ले कर. वरना तो क्या खुदा ना खास्ता किसी रोज़ अचानक आपको अपने शहर में देख लिया तो सदमे से मर ही जायेंगे हम. 
जब से आपके शहर ने समंदर किनारे डेरा डाला है मेरे शब्दों में नमक घुला रहता है. प्यास भी लगती है तीखी. याद भी नहीं आखिरी बार विस्की कब पी थी मैंने. आजकल सरकार, मुझे नमक पानी से नशा चढ़ रहा है. बालों से रेत गिरती है. नींद में गूंजता है शंखनाद. 
दूर जा रही हूँ. धरती के दूसरे छोर पर. वहाँ से याद भी करूंगी आपको तो मेरा जिद्दी और आलसी कासिद आप तक कोई खत ले कर नहीं जायेगा.
जाने कैसा है आपसे मिलना सरकार. हर अलविदा में आखिर अलविदा का स्वाद आता है. ये कैसा इंतज़ार है. कैसी टीस. गुरूर टूट गया है इस बार सारा का सारा. मिट्टी हुआ है पूरा वजूद. जरा सा कोई कुम्हार हाथ लगा दे. चाक पे धर दे कलेजा और आप के लिये इक प्याला बना दे. जला दे आग में. कि रूह को करार आये. 
--- किसी अनजान भाषा का गीतरूह की पोर पोर से फूटता
तुम्हारा प्रेम
नि:शब्द.
--//--वोतुम्हारी आवाज़ में डुबोती अपनी रूह और पूरे शहर की सड़कों को रंगती रहती  तुम्हारे नाम से--//--
तर्क से परे सिर्फ दो चीज़ें हैं. प्रेम और कला. जिस बिंदु पर ये मिलते हैं, वो वहाँ मिला था मुझे.  मुझे मालूम नहीं कि. क्यों.
--//--
उसने जाना कि प्रेम की गवाही सिर्फ़ हृदय देता है। वो भी प्रेमी का हृदय नहीं। उसका स्वयं का हृदय।वह इसी दुःख से भरी भरी रहती थी। इस बार उसने नहीं पूछा प्रेम के बारे में। क्यूंकि उसके अंदर एक बारामासी नदी जन्म ले चुकी थी। इस नदी का नाम प्रेम था। इसका उद्गम उसकी आत्मा थी।
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उसने कभी समंदर चखा नहीं था मगर जब भी उसकी भीगी, खारी आँखें चूमता उसके होठों पर बहुत सा नमक रह जाता और उसे लगता कि वो समंदर में डूब रहा है।
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तुम जानती हो, उसके बालों से नदी की ख़ुशबू आती थी। एक नदी जो भरे भरे काले बादलों के बीच बहती हो।
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तुम मेरी मुकम्मल प्यास हो.
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नमक की फितरत है कच्चे रंग को पक्का कर देता है. रंगरेज़ ने रंगी है चूनर...गहरे लाल रंग में...उसकी हौद में अभी पक्का हो रहा है मेरी चूनर का रंग...और यूं ही आँखों के नमक में पक्का हो रहा है मेरा कच्चा इश्क़ रंग... फिर न पूछना आँसुओं का सबब.
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प्यास की स्याही से लिखनाउदास मन के कोरे खतऔर भेज देना उस एक जादूगर के पासजिसके पास हुनर है उन्हें पढ़ने का जो खुदा है, रकीब़ भी और महबूब भी
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वो मर कर मेरे अन्दरअपनी आखिर नींद में सोया है मैं अपने इश्वर की समाधि हूँ.
***----***
मैं तुम्हारे नाम रातें लिख देना चाहती हूँ ठंडी और सीले एकांत की रातें नमक पानी की चिपचिपाहट लिए बदन को छूने की जुगुप्सा से भरी रातें ---ये मेरे मर जाने के दिन हैं मेरे दोस्त मैं खोयी हूँ 'चीड़ों पर चाँदनी में' और तुम बने हुए हो साथ--/मैं तुम्हारे नाम ज़ख़्म लिख देना चाहती हूँमेरे मर जाने के बाद...तुम इन वाहियात कविताओं पर अपना दावा कर देनातुमसे कोई नहीं छीन सकेगा मेरी मृत्यु शैय्या पर पड़ी चादर तुम उसमें सिमटे हुए लिखना मुझे ख़त मेरी क़ब्र के पते परवहाँ कोई मनाहट नहीं होगी वहाँ सारे ख़तों पर रिसीव्ड की मुहर लगाने बैठा होगा एक रहमदिल शैतान  ---/मुझे कुछ दिन की मुक्ति मिली है मुझे कुछ लम्हे को तुम मिले होउम्र भर का हासिल बस इतना ही है.
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Published on February 08, 2016 16:12

February 7, 2016

फरिश्ते सुनते भी हैं

बच्चों के बारे में सुष्मिता ने पहली बार पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद सोचा था. उसका लिव-इन पार्टनर एक दूसरी जाति से था और उसे मालूम था कि घर वाले कभी उनकी शादी के लिए नहीं मानेंगे. उसने शुरू से ही खुद को समझा रखा था कि उम्र भर के किसी बंधन की कसमें नहीं खायेंगे. इक रोज़ वे दोनों फोटो-जर्नलिज्म के एक प्रोजेक्ट के लिए कैमरा ले कर गरीबों की झुग्गी झोपड़ी में घूम रहे थे. एक बेहद नीची छत वाला एक कमरा था. उसमें एक बेहद छोटा सा टीवी फिट था. दो बच्चे नीचे जमीन पर पसरे हुए थे. एक साड़ी का झूला बनाया हुआ था जिसमें एक दुधमुंहां बच्चा किहुंक किहुंक के रो रहा था. उसकी आवाज़ से सबको दिक्कत हो रही थी. आखिर उसकी माँ ने उसे झूले से निकाला और एक झापड़ और मार दिया, 'क्या करें दीदी दूध उतरता ही नहीं हैं, पेट भरेगा नहीं तो रोयेगा नहीं तो क्या करेगा'. फिर अपने में दुःख के अपार बोझ से टूटती बच्चे को दूध पिलाने लगी. सुष्मिता ने चाहा उस लम्हे को कैप्चर कर ले मगर उस दुःख को हमेशा के लिए ठहरा देना इतना अमानवीय लगा कि उसकी हिम्मत ही नहीं हुयी. बाहर आई तो नावक अचरज से उसे देख रहा था. 'अच्छी जर्नलिस्ट बनोगी तो कभी कभी जरा बुरा इंसान भी बनना पड़ता है. दुःख की दवा करने के लिए उसकी तसवीरें कैद करनी जरूरी हैं बाबू'. फाके के दिन थे. बीड़ी के लिए पैसे जुट पाते थे बस. चाय की तलब लगी थी और सर दर्द से फटा जा रहा था. वहाँ से चलते चलते कोई आधे घंटे पर एक चाय की टपरी आई. एक कटिंग चाय बोल कर दोनों वहीं पत्थरों पर निढाल हो गए. 
सुष्मिता इस पूरे महीने के पैसे की खिचखिच से थक गयी थी, दूर आसमान में देखती हुयी बोली, 'इस वक़्त अगर फ़रिश्ते यहाँ से गुज़र रहे हों तो कोई जान पहचान का यहाँ मिल जाए और एक सिगरेट पिला दे मुझे. बस इतना ही चाहिए'. नावक ने कुछ नहीं कहा बस मुस्कुरा कर दूर के उसी बस स्टॉप पर आँखें गड़ा दीं जहाँ सुष्मिता की नज़र अटकी हुयी थी. चाय बनने के दरम्यान वहाँ एक स्कूल बस रुकी और फुदकते हुए बच्चे उसमें से उतरे. अपनी लाल रंग की स्कर्ट और सफ़ेद शर्ट में एकदम डॉल जैसी लग रही थी बच्चियां. बस गुजरी तो उन्होंने देखा उनकी कॉलेज की एक प्रोफ़ेसर भी वहां से अपनी बेटी की ऊँगली थाम सड़क क्रॉस कर रही हैं. सड़क के इस पार आते हुए उन्होंने दोनों को देखा और चाय पीने रुक गयीं. अपने लिए एक डिब्बा सिगरेट भी ख़रीदा और सुष्मिता को ऑफर किया. उसने जरा झिझकते हुए दो सिगरेटें निकाल लीं. जैसे ही मैडम अपनी बेटी को लेकर वहां से गयीं सुष्मिता जैसे जन्मों के सुख में डूब उतराने लगी. सिगरेट का पहला गहरा कश था और उसकी आँखें किसी परमानंद में डूब गयीं. नावक लाड़ में बोला, 'सुम्मी...कुछ और ही माँग लिया होता...'. 'लालच नहीं करते नावक. इस जिंदगी में एक सिगरेट मिल जाए बहुत बड़ी बात होती है. तुम्हें माँगना होता तो क्या मांगते?'. नावक के चहरे पर एक बहुत कोमल मुस्कान उगने लगी थी. वो अभी तक मैडम के जाने की दिशा में देख रहा था. उनकी बेटी की पोनीटेल हिलती दिख रही थी. बच्ची काफी खुश थी और उसकी आवाज़ की किलकारी सुनाई पड़ रही थी. 'अगर वाकई फ़रिश्ते होंगे अभी तक अटके हुए...तो सुम्मी, मुझे तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए. एकदम तुम्हारे जैसी. यही बदमाश आँखें. यही बिगड़ी हुयी लड़कियों वाले तेवर और अपने पापा की इतनी ही दुलारी'. सुम्मी ने पहली बार अपना औरत होना महसूस किया था. शादी की नहीं, बच्चों की ख्वाहिश मन में किसी बेल सी उगती महसूस की थी. शादी की नहीं, बच्चों की ख्वाहिश मन में किसी बेल सी उगती महसूस की थी. फीकी हँसी में बोली, 'ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर'.
सिगरेट ख़त्म हो गयी थी. उन्होंने तय किया कि यहाँ से कमरे तक पैदल चला जाए और बचे हुए पैसों से आज रात चिकन बिरयानी खायी जाए. सुम्मी को ऐसी गरीबी बहुत चुभती थी. खास तौर से वे दिन जब कि सिगरेट के लिए पैसे नहीं बचते थे. उसे नावक का बीड़ी पीना एकदम पसंद नहीं था. कैसी तो गंध आती थी उससे उन दिनों. गंध तो फिर भी बर्दाश्त कर ली जाती मगर उस छोटे कमरे में बीड़ी की बची हुयी टोटियों को ढूंढते हुए नावक पर वहशत सवार हो जाती. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता कि यही नावक अच्छे खाते पीते घराने का है और पटना के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज से समाजशास्त्र में पी एच डी कर रहा है. उन दिनों वह कोई गरीब रिक्शा चलाने वाले से भी बदतर हो जाता था और सुम्मी से ऐसे पेश आता जैसे नावक उसका रेगुलर ग्राहक हो और सुम्मी बदनाम गलियों की सबसे नामी वेश्या. नावक को उसके शरीर से कोई लगाव नहीं होता. गालियों से उसकी रूह छिल छिल जाती. कौन सोच सकता था कि नावक जैसा लड़का सिर्फ बीड़ी पीने के बाद 'रंडी, बिस्तर, ग्राहक, दल्ला' जैसे शब्द इस चिकनी अदा के साथ बोलेगा कि रंगमंच की रोशनियाँ शरमा जाएँ. सुम्मी को उन दिनों यकीन नहीं होता था कि ऐसी भाषा नावक ने थियेटर करते हुए सीखी है या वाकई गुमनाम रेड लाइट एरिया जाता रहा है. उन रातों में 'मेक लव' जैसा कुछ नहीं होता. वे जानवरों की तरह प्रेम करते. सुम्मी को डेल्टा ऑफ़ वीनस याद आता. अनाईस निन की कहानियों के पहले का हिस्सा जब कि रईस व्यक्ति कि जो हर कहानी के सौ डॉलर दे रहा है, फीडबैक में बस इतना ही कहता, 'cut the poetry'. निन ने उन दिनों के बहुत से कवियों को जुटाया कि पैसों की जरूरत सभी को थी...उन दिनों के बारे में वह लिखती है, 'we had violent explosions of poetry.' 'हममें कविता हिंसक तरीके से विस्फोटित होती थी.' मुझे रात की तीखी कटती हुयी परतों में किताब की सतरें याद आयीं. दुनिया में कुछ भी पहली बार घटित नहीं हो रहा है. हम वो पहले लोग नहीं होंगे जिन्होंने प्रेम के बिना यह हिंसा एक दूसरे के साथ की है. आज की शाम तो वैसे भी ख़ास थी. नावक की एक ईमानदार ख्वाहिश ने सुम्मी को अन्दर तक छील दिया था. उस रात मगर वही हुआ जो हर उस रात को होता था जब महीने के आखिरी दिन होते थे और बीड़ी, सिगरेट सब ख़त्म हुआ करती थी. इस हिंसा में शायद सुम्मी के मन में दुनिया की सबसे पुरातन इच्छा ने जन्म लिया. जन्म देने की इच्छा ने. 
अगले दिन किसी मैगजीन में छपे नावक के पेपर का मेहनताना आ गया तो सब कुछ नार्मल हो गया. सुम्मी भूल भी गयी कि उसने कोई दीवानी ख्वाहिश पाल रखी है मन में कहीं. ये सेमेस्टर कॉलेज में सबसे व्यस्त सेमेस्टर होता भी था. कुछ यूं हुआ कि डेट निकल गयी और सुम्मी को ध्यान भी नहीं रहा कि गिनी हुयी तारीखों में आने वाले पीरियड्स लेट कैसे हो गए. क्लास में जब उसकी बेस्ट फ्रेंड ने फुसफुसा के पूछा, 'सुम्मी, पैड है तेरे पास?' तो सुम्मी जैसे अचानक से आसमान से गिरी. उसके और शाइना के डेट्स हमेशा एक साथ आते थे. तारीख आज से चार दिन पहले की थी. कुछ देर तो उसका दिमाग ब्लैंक हो गया. क्लास का एक भी शब्द उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था. जैसे ही क्लास ख़त्म हुयी भागती हुयी बाहर आई और बैग से सिगरेट का पैकेट निकाला. आज ही नावक के पैसों से नया डिब्बा खरीदा था. सिगरेट निकालने को ही हुयी कि उसपर लिखी वार्निंग पर नजर पड़ गयी. 'smoking when pregnant harms your baby' आज ही इस पैकेट पर ये वार्निंग लिखी होनी थी. सुम्मी ने खुद को थोड़ी देर समझाने की कोशिश की कि कौन सा इस बच्चे को जन्म दे पाएगी...क्या फर्क पड़ेगा अगर एक आध कश मार भी लेती है. मगर फिर ख्यालों ने उड़ान भरनी शुरू की तो सारा कुछ सोचती चली गयी. उसे सिर्फ एक अच्छी नौकरी का इन्तेजाम करना है. जो कि अगले एक महीने में उसे मिल जायेगी. अपनी सहेलियों के साथ दिल्ली में कमरा लेने का उसका प्रोग्राम पहले से सेट था. ये ऐसी सहेलियां थीं जिनसे किसी चीज़ के लिए कभी आग्रह नहीं करना पड़ा था. चारों मिल कर आपस में एक बच्चा तो पाल ही लेंगी तीनेक साल तक. उसके बाद तो स्कूल शुरू हो जाएगा. फिर तो किसी को दिक्कत नहीं होगी. सुम्मी को वैसे भी कॉलेज में ही लेक्चरर बनने का शौक़ था. उसका मन दो भागों में बंट गया था. सारे तर्क उसे कह रहे थे कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता. हिंदुस्तान में आज भी बिन ब्याही माँ के बच्चे इतनी आराम से नहीं पल सकते जितना कि वह सोच रही है. उसे ये भी मालूम था कि घर में लड़का देखना शुरू कर चुके हैं लोग. मगर कुछ शहर ऐसे होते हैं जिनकी सीमा में घुसते ही पुरानी रूढ़ियाँ पीछे रह जाती हैं. पटना ऐसी ही असीमित संभावनाओं का शहर था उसके लिए. यहाँ कुछ भी मुमकिन था. दिलेर तो वह थी ही, वर्ना आज भी पटना में कितनी लड़कियां लिव-इन में रह रही थीं. कल्पना के पंखों पर उड़ती उड़ती वह बहुत दूर पहुँच गयी थी. बच्चों के नाम सोचने शुरू किये. लड़के के, लड़कियों के. दोनों. कमरे के परदे. प्रेगनेंसी के समय क्या पहनेगी वगैरह वगैरह. ख्याल में डूबे हुए कब केमिस्ट की दुकान तक पहुँच गयी उसे पता ही नहीं चला. टेस्ट किट मांगते हुए उसका चेहरा किसी नव विवाहिता सा खिला हुआ था. न तो उसके चेहरे पर, न तो उसकी आत्मा में कोई अपराध बोध जगा था. कमरे पर आई तो सीधे बाथरूम न जा कर किताब खोल ली. किताब भी कौन सी, मित्रो मरजानी. हाँ...बेटी हुयी तो नाम रखेगी मित्रो...और बेटा हुआ तो...बहुत सोच के ध्यान आया कि नावक से शादी थोड़े करनी है...तो बेटे का नाम नावक रख सकती है. 
रात के आते आते सुम्मी ने अनगिन चाय के कप खाली कर के रख दिए थे. उसे अब भी समझ नहीं आ रहा था कि नावक को बताये या नहीं. आखिर दुआ तो उसकी क़ुबूल हुयी थी. बतानी तो चाहिए. उसने सोचा कि उसे आने देती है. उसके सामने ही टेस्ट करेगी और फिर दोनों एक ही साथ कन्फर्म करेंगी अपनी जिंदगी के सबसे खुशहाल दिन को. पर वो क्या कह के बताएगी...एक गुड न्यूज़ है या कि एक गड़बड़ हो गयी है. फिर अचानक से आये एक ख्याल से डर गयी. नावक को कृष्णा सोबती फूटी आँख नहीं सुहाती थी. वो उसे अपनी बेटी का नाम मित्रो तो हरगिज़ नहीं रखने देगा चाहे वो कितना भी लड़ झगड़ ले. उसके लौटने में अभी वक़्त था. सुम्मी ने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उनपर नाम लिखने लगी. कोई पांच टुकड़े थे जिनपर एक ही नाम लिखा था 'मित्रो'. उसने कागज़ के टुकड़े फाड़े और उन्हें ठीक से मोड़ कर छोटी सी कटोरी में रख दिया. कि नावक जब आएगा तो उसे एक पुर्जा चुन लेने को कहूँगी. अपनी बेईमानी पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा. ये तो दुनिया की सबसे पुरानी टेक्नीक है. फिर कलयुग है भई. कोई रात के दस बजे नावक कमरे पर आया. कमरा इस वक़्त हमेशा धुएं की गंध से भरा हुआ होता था, ऐशट्रे में अम्बार लगा होता था और सुम्मी किसी कोने में पढ़ रही होती थी. मगर आज कुछ बात और थी. कमरे में चावल की हलकी गंध आ रही थी. तो क्या सुम्मी ने खाना बनाया है. लड़की पागल हो गयी है क्या. एक आध कैंडल्स भी जल रहे थे. कमाल रूमानी माहौल था. 'पैसे आ जाने से इतनी रौनक. भाई कमाल हो सुम्मी. पहले पता होता तो दो चार और पेपर्स भेज दिया करता वक़्त पर छपने के लिए'. सुम्मी बाहर आई तो लाज की हलकी लाली थी उसके चेहरे पर. उसने बिना कुछ कहे टेस्ट किट दिखाया और बाथरूम में घुस गयी. पांच मिनट. दस मिनट. आधा घंटा. जब कोई हरकत नहीं हुयी तो नावक ने दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया. दस मिनट खटखटाने के बाद सुम्मी ने दरवाज़ा खोला. बाथरूम से उसकी परछाई बाहर निकली. नावक ने उसे उस तरह टूटा हुआ कभी नहीं देखा था. घबराये हुए उसके चेहरे को हाथों में भरा. सुम्मी ने टूटे शब्दों के बीच बताया कि उसे दिन भर धोखा हुआ कि वो प्रेग्नेंट है. पूरा पूरा दिन नावक. सच्ची. देखो. मुझे लगता रहा कि मेरे अन्दर कोई सांस ले रहा है. मैंने इसलिए सिगरेट भी नहीं पी. एक भी सिगरेट नहीं. ये सब मेरा भरम था. मगर कितना सच था. मुझे लगा फरिश्तों ने तुम्हारी बात भी सुन ली है. उस रात किसी ने खाना नहीं खाया. पूरी रात सिगरेट फूंकते बीती. सुम्मी और नावक के बीच कुछ उसी मासूम सी रात को टूट गया था. शहर छोड़ना तो बस एक फॉर्मेलिटी थी. नावक जानता था कि इस रिश्ते के लिए आगे लड़ने का हासिल कुछ नहीं है. दोनों बहुत प्रैक्टिकल लोग थे. अलविदा के नियम कायदे में बंधते हुए एक दूसरे को हँस कर विदा किया. --//--सुम्मी को अब सुम्मी कहने की हिम्मत किसी की नहीं होती. उम्र पैंतीस साल मगर आँखों में अब भी एक अल्हड़ लड़की सी चमक रहती है. वो मिसेज सुष्मिता सरकार हैं. शहर के डिप्टी मेयर की वाइफ और मुंगेर के जिला विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की प्रमुख. उनसे छोटे उन्हें सम्मान से देखते और उनके साथ वाले इर्ष्या से. उनके ड्रेसिंग सेन्स से शहर को फैशन की समझ आती. चाहे सरस्वती शिशु मंदिर का वार्षिक समारोह हो या कि किसी गाँव में नयी लाइब्रेरी का उद्घाटन, उसकी शख्सियत उसे सबसे अलग करती थी. भीड़ में गुम हो जाने वाला न उसका चेहरा था न उसका व्यक्तित्व.  
शादी के दस साल होने को आये थे और उसकी उम्र जैसे ठहर गयी थी. 
सहेलियां चुहल करतीं कि तुझे किस चीज़ की कमी है. पति है, परिवार है, समाज में नाम है. चाहिए ही क्या. वाकई मिसेज सरकार के पास वो सब कुछ था जिसके सपने देखती लड़कियां बड़ी होती हैं. मगर मिसेज सरकार की आँखों के पीछे ही सुम्मी रहती थी. अपने भूले हुए नाम की आवाज़ में. 
उसकी कोख जनती है नाजायज चिट्ठियां और अनाथ किरदार. वो चाहती है कि एक जरा सा सौंप सके खुद के जने बच्चे को. आँख का नीला रंग. ठुड्डी के डिम्पल. अपना लम्बा ऊंचा कद. दिनकर के प्रति अपनी दीवानगी. या कि अपना ठहरा हुआ निश्चल स्वाभाव ही. 
अभी तक उसे लगता था कि उसके अन्दर का खालीपन रूह का खालीपन है...मन का टूटा हिस्सा होना है. वो इसे भरती रहती थी लोगों से. गीतों से, कविताओं से और रंगों से. वो इन्द्रधनुष से रंग मांगती और रेशमा से उसकी आवाज़ की हूक...रेगिस्तान से उसकी प्यास तो समंदर से उसकी बेचैनी. मगर उसके अन्दर का खालीपन भरता नहीं. उसका चीज़ों को हिसाब से रखने से दिल भर जाता. अपने करीने से सजाये घर में उसे घुटन होने लगती. वो चाहती कि कोई आये और पूरा घर बिखेर डाले. उसे शिकायतें करने का दिल करता था. दुखती देह और बिना नींद वाली रातों का. वो चीज़ों को बेतरतीबी से रखती. कपड़े. किताबें. जूते. या कि लोग ही. सब कुछ बिखरा बिखरा रहता लेकिन उसकी जिंदगी का एक कोरा कोना भी नहीं भरता इन चीज़ों से. 
उसने जाना कि वह डरने लगी है. नवजात शिशुओं से. गर्भवती महिलाओं से. उन रिश्तेदारों से जो हमेशा उसके बढ़े हुए पेट को देख कर पूछतीं कि कोई खुशखबरी है क्या. वो चाहती कि खूब सारा एक्सरसाइज करके एकदम साइज ज़ीरो हो जाए ताकि किसी को ग़लतफ़हमी न हो. उसे डर लगता था अपने जीवन में होने वाली किसी भी अच्छी घटना से...क्यूंकि किसी को भी बताओ कि कोई अच्छी खबर है तो उसे सीधे उसके प्रेग्नेंट होने से जोड़ लिया जाता था...और उस खुशखबरी के सामने दुनिया के सारे सुख छोटे पड़ते.
बचपन के रिपोर्ट कार्ड में कभी लाल निशान नहीं लगा. इसलिए उसे मालूम नहीं था कि पूरी तैय्यारी करने के बावजूद जिंदगी के रिपोर्ट कार्ड में कभी कभी लाल निशान लग जाते हैं. स्कूल और कॉलेज के एक्जाम साल में दो बार होते थे. मगर यहाँ हर महीने एक एक्जाम होता था और गहरे लाल निशान लगते थे. खून की नमक वाली गंध उसे पूरे हफ्ते अस्पतालों की याद दिलाती रहती. टीबी वार्ड हुआ करता था उन दिनों. वो किससे मिलने जाती थी जामताड़ा के उस अस्पताल में? कोई मेंटल असायलम था. उसकी दूर के रिश्ते की एक मामी वहां एडमिट थी. उन्हें खुद की नसें काटने से रोकने के लिए अक्सर बेड से बाँध कर रखा जाता था. बाथरूम तक जाने के लिए नर्स आ कर भले उनके बंधन खोल देती थी लेकिन उसके अलावा सारे वक़्त उनके हाथ पैर बिस्तर से बंधे रहते थे. उस बिस्तर पर एक बहुत पुरानी घिसी हुयी फीकी गुलाबी रंग की चादर थी जिसपर किसी जमाने में नीले रंग के फूल बने होंगे. चादर पर वो खून के धब्बे देखती थी. कभी ताजा तो कभी कुछ दिन के सूखे हुए. जिस दीदी के साथ वहाँ जाती वो अक्सर उन दागों को धोने की कोशिश करती. मगर कॉटन की चादर थी. ज्यादा रगड़ने से फट जाती. मामी के बाल महीने में बस एक ही दिन धुलाये जाते. उस दिन के पहले वो रटती रहतीं कि 'तुम अशुद्ध हो'. वर्तमान में खून की गंध के साथ हमेशा उस हस्पताल की गंध और कॉटन की पुरानी चादर का रूखापन साथ चला आता था. मामी के मरने पर वो अंतिम क्रिया के पहले पहुँच नहीं सकी थी. जिन लोगों को हम आखिरी बार नहीं मिल पाते, न उनका पार्थिव शरीर देखते हैं, उनके चले जाने का यकीन कचपक्का सा होता है. 
खून की पहली पहचान उसे मामी के बिस्तर से हुयी थी. बचपन में उसे किसी ने बताया नहीं कि मामी को ऐसा कोई ज़ख्म नहीं है. वो जब भी वो लाल कत्थई निशान देखती तो डॉक्टरों को ज्यादा खूंख्वार होके घूरती. उसे पूरा यकीन था कि डॉक्टर्स उनके ऐसे ज़ख्मों की दवा नहीं कर रहे जो उन्हें सामने नहीं दिखते. उसका डॉक्टर्स के प्रति हलकी घृणा भी उन दिनों की देन थी. उसे अंग्रेजी दवाइयों पर यकीन ही नहीं होता. न रिसर्च पर. और उसे पक्का यकीन भी था कि अगर दवाई में भरोसा नहीं है तो उसकी इच्छाशक्ति के बगैर कोई भी दवा उसे ठीक नहीं कर सकती है. बढ़ती उम्र के इस पड़ाव पर जबकि मेनोपौज कुछ ही दिन दूर था उसे हर गुज़रता महीना एक स्टॉपवॉच की तरह उलटी गिनती करता हुआ दिखता. इन दिनों वह एग्स फ्रीज करने के बारे में भी सोचने लगी थी. नींद में उसे बाबाओं के सपने आते. जाग में उसे इश्वर का ख्याल. मगर हर महीने एक कमबख्त तारीख होती. उसका खौफ इस कदर था कि कैलेण्डर की तारीख से उठ कर उसकी नफरत उस संख्या के प्रति आ गयी. जिस महीने उसके पीरियड्स ७ तारिख को आते, उस पूरे महीने उसके लिए ७ नंबर बेहद मनहूस रहता. इसी नंबर वाली सड़क पर उसका एक्सीडेंट होता. और उन्हीं दिनों जब कि उसे इश्वर की सबसे ज्यादा जरूरत होती थी उसका धर्म उससे सिर्फ उसके देवता ही नहीं उसका मंदिर भी उससे छीन लेता. वो शिवलिंग पर सर रख कर रोना चाहती मगर फिर बहुत साल पहले मामी का अस्पताल बेड पर का बड़बड़ाना याद आ जाता. अशुद्ध हो तुम. अशुद्ध. मुझे मत छुओ. घर जा कर नहा लेना. तीखी गंध उसकी उँगलियों के पोर पोर जलाती. 
उसकी याद में वो कॉलेज का एक दिन आता कि जब उसने महसूस किया था कि माँ बनना क्या होता है. भले ही वो छलावा था मगर कमसे कम जिंदगी में एक ऐसा दिन था तो सही. पिछले हफ्ते भर से ब्लीडिंग रुक ही नहीं रही थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे बदन का सारा खून निचुड़ कर बह जाएगा. डॉक्टर के यहाँ जाने लायक ताकत भी नहीं बची थी. डॉक्टर शर्मा को घर बुलाया गया. बड़ी खुशमिजाज महिला थीं. सुम्मी के खास दोस्तों में से एक. कुछ टेस्ट्स लिखाए और थोड़ी देर गप्पें मारती रहीं. इधर उधर की बातों में दिल लगाये रखा. इसके ठीक तीन दिन बाद उनका फिर आना हुआ, इस बार सारी टेस्ट रिपोर्ट्स साथ में थीं. उससे बात करने के पहले मिस्टर सरकार से आधे घंटे तक बातें कीं. सुम्मी के लिए वे उसकी पसंद का गाजर का हलवा लेकर आई थीं. आज फिर उन्होंने बीमारी की कोई बात नहीं की. उनके जाने के बाद अनंग कमरे में आये थे. उनके चेहरे पर खालीपन था. एक लम्बी लड़ाई के बाद का खालीपन. 'सुम्मी, यूट्रस में इन्फेक्शन है. ओपरेट करके निकालना पड़ेगा. कोई टेंशन की बात नहीं है. छोटा सा ओपरेशन होता है.' कहते कहते उनकी आँखें भर आयीं थीं. देर रात तक दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोते रहे. सुबह कठिन फैसले लेकर आई थी. हॉस्पिटल की भागदौड़ शुरू हो गयी. इसके बाद का कुछ भी सुम्मी को ठीक से याद नहीं. रिश्तेदार. दोस्त. कलीग्स. सब मिलने आते रहे. देखते देखते महीना बीत गया और उसकी हालत में बहुत सुधार हो गया. इस ओपरेशन ने सुम्मी में बहुत कुछ बदल दिया. वो जिंदगी में पागलपन की हद तक चीज़ों को अपने कण्ट्रोल में रखती थी. घर के परदे. घर का डस्टर. गार्डन के फूल. सब कुछ उसकी मर्ज़ी से होता था. मगर अब सुम्मी ने खुद को अनंग के भरोसे छोड़ दिया था. जिसने जीवनभर साथ निभाने का वचन दिया है, कुछ उसका हक भी है और उसकी जिम्मेदारी भी. सुम्मी को आश्चर्य होता था कि उसके ठीक रहते अनंग ने कभी खुद से एक ग्लास पानी तक नहीं पिया मगर उसकी बीमारी में हर घड़ी यूं साथ रहे कि जैसे खुद के बच्चे भी शायद नहीं कर पाते. 
ऐसे ही किसी एक दिन अनंग उसके लिए एक गहरी नीले रंग की साड़ी लेकर आये कि तैयार हो जाओ, हमें बाहर जाना है. सुम्मी का मन नहीं था लेकिन उनकी ख़ुशी देखते हुए तैयार हो गयी. कोई सात आठ घंटे का सफ़र था. सुम्मी को नींद आ गयी. नींद खुली तो एक अनाथ आश्रम सामने था. अनंग ने कुछ नहीं कहा. वे अपने रिश्ते में ऐसी जगह पहुँच भी गए थे जब कहना सिर्फ शब्दों से नहीं होता. आश्रम में अन्दर घुसते ही एक छोटा सा तीर आ कर सुम्मी की साड़ी में उलझ गया. सामने एक तीन साल का बच्चा था. धनुष लिए दौड़ता आया. सुम्मी घुटनों के बल बैठ गयी, साड़ी के पल्लू से तीर निकालते हुए वो और अनंग साथ में बुदबुदाए, 'ज्यों नावक के तीर, दिखने में छोटे लगें, घाव करें गंभीर'. सारी फॉर्मेलिटी पूरी कर के वे बाहर आये. अनाथ आश्रम की हेड ने बच्चे का हाथ सुम्मी के हाथ में दिया और बच्चे से बोली, 'आज से ये आपकी मम्मी हैं'. सुम्मी का दिल भर आया था. आँखें भी. उसने उसका नन्हा ललाट चूमते हुए कहा, तुम्हारा एक ही नाम हो सकता है...नावक. 
घर लौटते हुए बहुत देर हो गयी थी. नावक सो गया था. सुम्मी आँगन में चाँद की रौशनी को देख रही थी कि अनंग पीछे से आये और उसे बाँहों में भर लिया. 'आँखें बंद करो और हथेली फैलाओ'. 'अनंग, आज मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए' मगर उसने आँखें बंद कर हथेली खोल दी. अब खोलो आँखें. चाँद रात में उसके चेहरे पर सुनहले धूप सा नूर फ़ैल गया. उसकी हथेली पर एक पैकेट सिगरेट और माचिस रखी थी. उसने सिगरेट का गहरा कश लिया और आसमान की ओर देखा. आह री लड़की. कुछ और ही माँग लिया होता और...मगर आज शायद अनंग की बारी थी मांगने की, 'तुम देखना...तुम्हारी बेटी होगी...बिलकुल तुम्हारे जैसी'.
और उस दिन फ़रिश्ते वाकई सुन रहे थे. डॉक्टर्स भी आश्चर्यचकित थे कि ऐसा कैसे हुआ. सुम्मी अनंग की गोद में अपनी बेटी को देख कर सुख में डूब रही थी कि अनंग ने कहा, इसका नाम मेरी पसंद से रखेंगे, 'मित्रो'. 
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Published on February 07, 2016 12:40

January 29, 2016

खोये हुये लोग सपने में मिलते हैं

कभी कभी सपने इतने सच से होते हैं कि जागने पर भी उनकी खुशबू उँगलियों से महसूस होती है. अभी भोर का सपना था. तुम और मैं कहीं से वापस लौट रहे हैं. साथ में एक दोस्त और है मगर उसकी सीट कहीं आगे पर है. ट्रेन का सफ़र है. कुछ कुछ वैसा ही लग रहा है जैसे राजस्थान ट्रिप पर लगा था. ट्रेन की खिड़की से बाहर छोटे छोटे पेड़ और बालू दिख रही है. ट्रेन जोधपुर से गुजरती है. मालूम नहीं क्यूँ. मैंने यूं जोधपुर का स्टेशन देखा भी नहीं है और जोधपुर से होकर जाने वाली किसी जगह हमें नहीं जाना है. सपने में ऐसा लग रहा है कि ये सपना है. तुम्हारे साथ इतना वक़्त कभी मिल जाए ऐसा हो तो नहीं सकता किसी सच में. इतना जरूर है कि तुम्हारे साथ किसी ट्रेन के सफ़र पर जाने का मन बहुत है मेरा. मुझे याद नहीं है कि हम बातें क्या कर रहे हैं. मैंने सीट पर एक किताब रखी तो है लेकिन मेरा पढ़ने का मन जरा भी नहीं है. कम्पार्टमेंट लगभग खाली है. पूरी बोगी में मुश्किल से पांच लोग होंगे. और जनरल डिब्बा है तो खिड़की से हवा आ रही है. मुझे सिगरेट की तलब होती है. मैं पूछती हूँ तुमसे, सिगरेट होगी तुम्हारे पास? तुम्हारे पास क्लासिक अल्ट्रा माइल्ड्स है.  
तुम्हारे पास एक बहुत सुन्दर गुड़िया है. तुम कह रहे हो कि घर पर कोई छोटी बच्ची है उसके लिए तुमने ख़रीदा है. गुड़िया के बहुत लम्बे सुनहले बाल हैं और उसने राजकुमारियों वाली ड्रेस पहनी हुयी है. मगर हम अचानक देखते हैं कि उसकी ड्रेस में एक कट है. तुम बहुत दुखी होते हो. तुमने बड़े शौक़ से गुड़िया खरीदी थी. 
फिर कोई एक स्टेशन है. तुम जाने क्या करने उतरे हो कि ट्रेन खुल गयी है. मैं देखती हूँ तुम्हें और ट्रेन तेजी से आगे बढ़ती जाती है. मैं देखती हूँ कि गुड़िया ऊपर वाली बर्थ पर रह गयी है. मैं बहुत उदास हो कर अपनी दोस्त से कहती हूँ कि तुम्हारी गुड़िया छूट गयी है. गुड़िया का केप हटा हुआ है और वो वाकई अजीब लग रही है, लम्बी गर्दन और बेडौल हाथ पैरों वाली. हम ढूंढ कर उसका फटा हुआ केप उसे पहनाते हैं. वो ठीक ठाक दिखती है. 
दिल में तकलीफ होती है. मैंने अपना सफ़र कुछ देर और साथ समझा था. आगे एक रेलवे का फाटक है. कुछ लोग वहां से ट्रेन में चढ़े हैं. मेरी दोस्त मुझसे कहती है कि उसने तुम्हें ट्रेन पर देखा है. मैं तेजी पीछे की ओर के डिब्बों में जाती हूँ. तुम पीछे की एक सीट पर करवट सोये हो. तुम्हारा चेहरा पसीने में डूबा है. मैं तुमसे थोड़ा सा अलग हट कर बैठती हूँ और बहुत डरते हुए एक बार तुम्हारे बालों में उंगलियाँ फेरती हूँ और हल्के थपकी देती हूँ. ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हें बहुत सालों से जानती हूँ और हमने साथ में कई शहर देखे हैं.

तुम थोड़ी देर में उठते हो और कहते हो कि तुम किसी एक से ज्यादा देर बात नहीं कर सकते. बोर हो जाते हो. तुम क्लियर ये नहीं कहते कि मुझसे बोर हो गए हो मगर तुम आगे चले जाते हो. किसी और से बात करने. मैं देखती हूँ तुम्हें. दूर से. तुम किसी लड़के को कोई किस्सा सुना रहे हो. किसी गाँव के मास्टर साहब भी हैं बस में. वो बड़े खुश होकर तुमसे बात कर रहे हैं. अभी तक जो ट्रेन था, वो बस हो गयी है और अचानक से मेरे घर के सामने रुकी है. मैं बहुत दुखी होती हूँ. मेरा तुमसे पहले उतरने का हरगिज मन नहीं था. तुमसे गले लग कर विदा कहती हूँ. मम्मी भी बस में अन्दर आ जाती है. तुमसे मिलाती हूँ. दोस्त है मेरा. वो खुश होती है तुम्हें देख कर. तुम नीचे उतरते हो. मैं तुम्हें उत्साह से अपना घर दिखाती हूँ. देखो, वहां मैं बैठ कर पढ़ती हूँ. वो छत है. गुलमोहर का पेड़. तुम बहुत उत्साह से मेरा घर देखते हो. जैसे वाकई घर सच न होके कोई जादू हो. मैं अपने बचपन में हूँ. मेरी उम्र कोई बीस साल की है. तुम भी किसी कच्ची उम्र में हो. ---कहते हैं कि सपने ब्लैक एंड वाइट में आते हैं. उनमें रंग नहीं होते. मगर मेरे सपने में बहुत से रंग थे. गुलमोहर का लाल. गुड़िया के बालों का सुनहरा. तुम्हारी शर्ट का कच्चा हरा, सेब के रंग का. बस तुम्हारा चेहरा याद नहीं आ रहा. लग रहा है किसी बहुत अपने के साथ थी मगर ठीक ठीक कौन ये याद नहीं. सपने में भी एक अजनबियत थी. इतना जरूर याद है कि वो बहुत खूबसूरत था. इतना कि भागते दृश्य में उसका चेहरा चस्पां हो रहा था. लम्बा सा था. मगर गोरा या सांवला ये याद नहीं है. आँखों के रंग में भी कन्फ्यूजन है. या तो एकदम सुनहली थीं या गहरी कालीं. जब जगी थी तब याद था. अब भूल रही हूँ. हाँ चमक याद है आँखों की. उनका गहरा सम्मोहन भी. 
सब खोये हुए लोग थे सपने में. माँ. वो दोस्त. और तुम. मुझे याद नहीं कि कौन. मगर ये मालूम है उस वक़्त भी कि जो भी था साथ में उसका होना किसी सपने में ही मुमकिन था. मैं अपने दोस्तों की फेरहिस्त में लोगों को अलग करना चाहती हूँ जो खूबसूरत और लम्बे हैं तो हँसी आ जाती है...कि मेरे दोस्तों में अधिकतर इसी कैटेगरी में आते हैं. रास्ता से भी कुछ मालूम करना मुश्किल है. जबसे राजस्थान गयी हूँ रेगिस्तान बहुत आता है सपने में. पहले समंदर ऐसे ही आता था. अक्सर. अब रेत आती है. रेत के धोरे पर की रेत. शांत. चमकीली. स्थिर. 
उँगलियों में जैसे खुशबू सी है...अब कहाँ शिनाख्त करायें कि सपने से एक खुशबू उँगलियों में चली आई है...सुनहली रेत की...
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Published on January 29, 2016 21:02

January 24, 2016

एक था इमलोज


उसका नाम लोरी था. ठीक ठीक मालूम नहीं क्यूँ. मगर इक शाम काफिया उसके साथ पहाड़ो पर चाँद की शूट पर गया था तो महसूस होता था...उसके साथ का हर लम्हा किसी स्वप्न की मानिंद होता था. जाग के किसी लम्हे उसके भागते दुपट्टे का कोर भी हाथ नहीं आ सकता. उसके साथ होते ही सपनों के चमकीले रंग खुलते थे. जो कहीं नहीं हो सकता था, वो होता था.

लोरी को बचपन में किसी ने मज़ाक में कह दिया कि आँगन के इस शम्मी के पेड़ से तुम्हारी शादी हो गयी है. अब ये पेड़ तुम्हारा जीवनसाथी है. बच्ची ने भोलेपन में पूछा जीवनसाथी मने? तो उससे जरा ही बड़ी फागुन दी ने बताया कि बेस्ट फ्रेंड. उस दिन के बाद से लोरी की किसी से गहरी दोस्ती नहीं हुयी. उसके सारे दोस्त उसका मजाक उड़ाते थे कि लोरी का बेस्ट फ्रेंड एक पेड़ है. लोरी छोटी थी तब से स्कूल में बहुत से दोस्त होते थे उसके...ये अचानक से सबका रूठ जाना उसे बिलकुल रास नहीं आया. वो रोज़ घर आ कर शम्मी को सब कुछ सुनाती. शम्मी मगर उसके किसी सवाल का जवाब नहीं देता. हाँ सुनने का धैर्य उसमें असीमित था. वो सब कुछ सुन लेता था. घर की बातें भी. माँ का डर कि अगर पिताजी घर नहीं लौटे तो इस महीने का खर्चा कहाँ से आएगा...लोरी के लिए इस बार नयी स्कूल ड्रेस नहीं आ पाएगी या कि ये भी कि स्कर्ट को रात भर में सुखाने के लिए चूल्हे के ऊपर गरमाया जाता है और इसमें कोयले ख़त्म हो जाते हैं तो उसे ठंढा दूध ही पीना पड़ेगा रात में. लोरी ये सब समझती थी. और साथ में शम्मी का पेड़ भी.
धीरे धीरे लोरी बड़ी होती गयी और साथ में शम्मी का पेड़ भी. देखते देखते पेड़ की सबसे मोटी शाख पर एक बड़ा सा झूला लग गया. लोरी को बिलकुल अच्छा नहीं लगता कि उसके पेड़ पर मोहल्ले भर के बच्चे झूलें, आंटियां अपनी सासों की बुराई करें. मगर लोरी को समझाया गया कि वो भले ही सिर्फ शम्मी के पेड़ की है पूरी की पूरी और उसे इमानदारी से पेड़ के प्रति अपना प्रेम बिना बांटे बरकरार रखना है लेकिन शम्मी का पेड़ सिर्फ उसका नहीं है. उसपर बाकी लोगों का भी हक बनता है और उसे एक समझदार लड़की की तरह ये बात समझनी चाहिए और इस पर कोई हल्ला हंगामा खड़ा नहीं करना चाहिए. आखिर पेड़ ने तो कभी हामी नहीं भरी थी कि वो पूरा का पूरा लोरी का ही है और उससे किसी का कुछ भी जुड़ नहीं सकता. फिर ये भी तो बात थी कि पेड़ पर झूला पड़ जाने से लोरी को कोई दिक्कत तो नहीं थी. ऐसा थोड़े है कि उसके हिस्से का छीन कर किसी के हवाले किया जा रहा था. इतने बड़े पेड़ को वो अपने स्कूल बैग में लिए थोड़े न घूम सकेगी. लोरी बहुत समझदार बच्ची थी. सब समझ गयी. अब उसकी अपने शम्मी से अकेले में मुलाकातें काफी कम हो गयीं थीं. सिर्फ कभी कभी जब पूरनमासी की रात होती तो वह शम्मी के पास आ जाती और झूले पर हौले हौले झूलती रहती. या कभी कभी ऐसा दिन होता कि किसी ने उसको स्कूल में बहुत चिढ़ाया होता तो वो उसकी शिकायत करने शम्मी के पास आ जाती.
शम्मी का पेड़ उसकी जिंदगी में कम शामिल हो गया हो ऐसा नहीं हुआ कभी. लोरी की दुनिया में अब भी सब कुछ शम्मी के इर्द गिर्द ही घूमता था. जैसे जैसे उसकी उम्र सोलह के पास जा रही थी लोरी के सपनों का रंग बदलता जा रहा था. उसने शम्मी के पेड़ का नाम रखा था. दुनिया में उसके हिसाब से आदर्श प्रेमी...इमरोज़...आखिर शम्मी भी तो उसे अपनी सारी बातें करने देता था. कभी जलता नहीं था. कभी मना नहीं करता था. लोरी के दिन रात में अलग अलग चीज़ें घुलने लगी थीं. वो अक्सर अपने बैग में शम्मी के पत्ते लिए घूमती थी. उसे लगता था कि उसकी उँगलियों से एक ख़ास खुशबू आती है...इमरोज़ की. लोग उसे समझाते थे कि शम्मी के पत्तों में गंध नहीं होती और दुनिया में किसी भी इत्र का नाम इमरोज़ नहीं है. लोरी की उम्र में लेकिन खुदा पर भी यकीन नहीं होता और हवा में उड़ती आयतें भी दिखती हैं.
उसकी सारी दोस्तों के महबूब होने लगे थे. लोरी ने एक दिन देखा कि उसकी ही छोटी बहन धानी ने शम्मी के पेड़ पर अपने नाम पहला अक्षर प्रकार से खोद खोद कर लिख दिया. प्रकार की तीखी नोक लोरी के दिल को बेधती निकली थी. वो कितना ही अपनी बहन पर चीखी चिल्लाई मगर पेड़ पर लिखा अंग्रेजी का कैपिटल D और उसके इर्द गिर्द बना हुआ आधा दिल उसके सपनों में रात रात चुभता रहता. उसके लाख चाहने पर पेड़ पर खोदा हुआ कुछ गायब नहीं किया जा सकता था. उसे मिटाने के लिए उस पूरे हिस्से की छाल को हटाना होता. इससे इमरोज़ का दिल दुखता. लोरी को हिम्मत नहीं हो पायी कि वो तीखी ब्लेड से छील कर छाल का वो हिस्सा अलग कर दे. इमरोज़ शायद कहना चाहता होगा उससे कि वो सिर्फ एक पेड़ है, कुछ भी नहीं कर सकता अगर कोई उसपर अपना नाम लिख देना चाहे तो. इमरोज़ लेकिन जाने क्या कहना चाहता था. लोरी को कभी मालूम नहीं चल पाता. अब वो बचपन के दिन नहीं थे कि उसे रोज़ पानी देना होता था और अगली सुबह पत्तों के रंग से इमरोज़ की ख़ुशी या गम का पता चल जाता. लोरी हमेशा कहती थी कि जिस सुबह वो शम्मी में जल डालती है शम्मी के पत्तों का रंग ज्यादा चमकीला होता है. लोरी को जानने वाले उसकी किसी भी बात का यकीन करते थे...तो इस बात को मानने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती थी. लोरी ने चाहा कि उस जगह पर आर्किड के पौधे लगा दे. बेल के नीचे शायद वो एक अक्षर छिप जाएगा और उसे चैन से नींद आ सकेगी. कुछ छलावे भी जीवन में जरूरी होते हैं ये उसने पहली बार जाना था.
इकतरफे प्रेम के बहुत रंग होते हैं. लोरी की सहेलियों ने महसूस किया था कि लड़के दिल तोड़ने की कला एक ही स्कूल से सीख कर आते हैं. इस स्कूल में लड़कियों की एंट्री बंद थी. लोरी अपने इमरोज़ को रोज़ एक नए टूटे हुए दिल की दास्तान सुनाती और इमरोज़ अपनी पूरी पेशेंस के साथ सुनता. लोरी अब इमरोज़ से निशान मांगने लगी थी कि उसने लोरी की बात ठीक से सुनी कि नहीं. बातें सिंपल होती थीं कि जैसे अगर इमरोज़ को लगता है कि फलाना ने उस लड़के का प्रपोजल ठुकरा के ठीक किया तो कल सुबह जब लोरी उसके पास आएगी तो उसकी शाख पर एक तोता बैठा हुआ होना चाहिए. लोरी बहुत ख्याल रखती थी इमरोज़ का...कभी कोई उलटी सीधी माँग नहीं रख देती थी कि जैसे अगर उसकी बात सच है तो कल इमरोज़ की शाख पर फुलवारी चचा की भैंस चढ़ी हुयी मिले तब ही सबूत पर यकीन करेगी. इमरोज़ भी उसके सवालों के हिसाब से जवाब देता था. जैसे जैसे लोरी की उम्र बढ़ रही थी, उसकी खूबसूरती भी बढ़ती जा रही थी. ऐसे में इमरोज़ भी अक्सर उसे इश्क़ को बचाए रखने के लिए अपनी तरफ से कोशिशें कर लेता था. जब लोरी की सहेलियां उसे बहुत चिढ़ातीं तो लोरी को शक होने लगता कि उसकी और इमरोज़ की मुहब्बत सिर्फ उसके अपने दिमाग की उपज है. मगर फिर वो बायोलोजी की किताबें पढ़ती, कि जब जगदीश चन्द्र बोस ने कहा था कि पौधों में भी जान होती है. वो इमरोज़ की संगीत की समझ बचपन से विकसित कर रही थी. अब तो इमरोज़ जैज़ सुनकर झूमने ही लगता था. कभी कभी तो इमरोज़ तितलियों को अपनी ओर मिला लेता. उन दिनों लोरी को किसी न किसी कोटर में कभी फूल मिलते तो कभी कच्चे अमरुद और टिकोले. उसकी किसी सहेली के बॉयफ्रेंड को नहीं पता था कि लड़कियां चमकदार गोटे में लगी चीज़ें देख कर खुश भले हो जाएँ उनका दिल कच्ची अमिया और खट्टे अमरूदों में लगता है. ये बात इमरोज़ के सिवा किसी को मालूम ही नहीं होती थी. इमरोज़ किसी लड़के को ये सब बताता भी तो नहीं था.
लोरी के इमरोज़ की बराबरी किसी लड़के से हो ही नहीं सकती थी. यूं उसकी सारी सहेलियां भी अपने अपने महबूब को लेकर आसमान तक कल्पनाएँ करती थीं मगर लोरी की कविता की एक पंक्ति के आगे किसी की बात नहीं ठहरती थी. चाँद के साथ रोज खिड़की से झाँकने वाला महबूब किसी की किस्मत में कहाँ लिखा होता है. फिर इमरोज़ की जड़ें लोरी के घर में थी...वहां से उसे कौन निकाल सकता है. हर मुहब्बत की उम्र लेकिन आसमानों में तय होती है...और इमरोज़ कितना भी ऊंचा लगता हो लोरी की छोटी सी दुनिया में मगर खुदा के दरबार तक तो न उसकी कोई डाली पहुँचती थी न लोरी की कोई दुआ. घर वालों को जाने किस दिन लगा कि लोरी इमरोज़ के इश्क़ में कुछ ज्यादा ही दीवानी हो रही है. वे उसका नाम किसी गुमशुदा कॉलेज में लिखवा आये. दुनिया के दूसरे छोर पर खुले उस कॉलेज की जलवायु एकदम अलग थी. वहां शम्मी के पेड़ नहीं होते थे. लोरी गुलमोहर की नन्ही पत्तियां देखती और उसका नन्हा सा दिल दहकते गुलमोहरों की तरह जल उठता. बेरहम दुनिया ने इश्क़ के किसी रंग को कब समझा था जो लोरी की उदास आँखों और गीले खतों के कागज़ से जान जाए कि इमरोज़ को किसी दूसरे शहर भेजना कितना नामुमकिन है. 
ये वोही दिन थे जब लोरी चुप होती जा रही थी. उसके इर्द गिर्द शोर बढ़ता जा रहा था मगर उसका दिल उसकी आँखों की तरह शांत हो रहा था. ऐसी किसी चुप्पी शाम लोरी गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठी इमरोज़ को ख़त लिख रही थी कि सामने एक बेहद खूबसूरत लड़के को देख कर हड़बड़ा गयी. वो उसकी नोटबुक देख रहा था. उसने हरे रंग का हल्का कुरता पहन रखा था. लोरी के चेहरे पर अनायास मुस्कान आ गयी. ये वैसा ही रंग था जब बचपन में इमरोज़ को पानी देती थी तो शाम उतरते वो इतराने लगता था. मुहब्बत का रंग. शांत हरा. लड़के का नाम काफिया था. इस गुलमोहर के नीचे वो अक्सर सिगरेट पीने आता था. इधर कुछ दिन से चूँकि यहाँ लोरी स्केच किया करती थी वो कहीं और जा के कश मार लेता था. मगर जगहों की आदत भी लोगों से कम बुरी नहीं होती. पूरे दो हफ्ते तक लोरी रोज़ इसी गुलमोहर के नीचे इसी वक़्त दिखती थी. आज काफिया का दिल नहीं माना तो वो भी इधर ही चला आया. लोरी मुस्कुरा कर ख़त लिखती रही. काफिया अनमना सा सिगरेट फूंकता रहा. काफिया ने नोटिस किया कि जिस दिन वो हरे रंग का कुर्ता पहनता है लड़की के चेहरे पर मुस्कराहट खेलती रहती है. आखिर एक दिन उससे रहा नहीं गया तो उसने लोरी को टोक ही दिया...'मेरा नाम काफिया है, आपको हरा रंग बहुत पसंद है न?'...लोरी ने आँखें ऊपर उठायीं तो काफिया को लगा कि उसकी आँखें हरी हैं...सिर्फ इसलिए कि वो उसके रंग में रंग जाना चाहती है...लोरी ने कहा, 'मेरा नाम लोरी है'...'लेकिन लोरी में तो काफिया नहीं मिलता'...'जी?!' काफिया भी हड़बड़ा गया...जाने क्यूँ घबरा गया था वो...ऐसा कुछ कहने का इरादा तो नहीं था. पर उस दिन के बाद दोनों अक्सर बातें करने लगे थे. लोरी ने बहुत दिनों बाद किसी को पाया था जो उसकी बातें सिर्फ सुनता ही नहीं था, बल्कि वापस बातें भी करता था. हालाँकि लोरी ने कभी उसका हाथ नहीं पकड़ा था लेकिन उसकी ख्वाहिश होती थी कि वो जाने कि सिगरेट पीने से उँगलियाँ कैसी महकती हैं...इक रोज़ ऐसे ही गुलमोहर के नीचे पड़े सिगरेट के टुकड़े को लेकर सूंघ रही थी कि काफिया वहां आ गया. वो बुरी तरह झेंप गयी कि उसकी चोरी पकड़ी गयी थी.
लोरी ने अब तक अपनी ओर से बनायी हुयी दुनिया के रंग ही देखे थे. इमरोज़ का सारा इश्क़ उसके बनाए रंगों में घुलता था. ये सारे शुद्ध रंग होते थे. लाल. पीला. नीला. काफिया के साथ होने से रंगों में मिलावट होने लगी थी. एक दिन उसके लिए रजनीगंधा के फूल लेता आया तो शाम का रंग गुलाबी हो गया. एक दिन डार्क चोकलेट ले आया तो रातें नीली सियाह हो गयीं कि तारे और भी तेज़ चमकते महसूस होते थे और चाँद के किनारे इतने तीखे थे कि सपनों के कट जाने का डर लगता था. लोरी ने डर जाना नहीं था कि उसका दिल कभी टूटा नहीं था. मगर उसने कभी लौटती आवाज़ भी नहीं जानी थी. उसे मालूम नहीं था कि इश्क़ में किसी का एक नज़र भर देख लेना अपने पूरे वजूद को सुकून से भर लेना हो सकता है. इक रोज़ काफिया और लोरी ट्रेक करके पहाड़ों पर बर्फ की शूट पर गए थे. चाँद के स्वप्निल रंगों में सब जादू था. उसकी चुप्पी में बहुत सी जगह थी. मगर काफिया मिलना चाहता था...लोरी में बंधना चाहता था. काफिया की आवाज़ बहुत गहरी थी. रूह के किसी वाद्ययंत्र से निकलती. रात की ठंढ में कॉफ़ी का मग लोरी को देते हुए उसके कानों में गुनगुनाया...हवा की शरारत भरी सरगोशी के साथ. 'इश्क़. तुमसे. जानां.' लोरी ने पहली बार इस कदर ठंढ और थरथराहट महसूस की कि अचानक किसी की बाँहों में सिमटने को जी चाहा. उसे मालूम नहीं था किसी की बांहों में सिमटना क्या होता है मगर जब काफिया उसके इर्द गिर्द बंधा तो लोरी ने पहली बार खुद को मुकम्मल महसूस किया.
लोरी लौटी तो काफिया की हो चुकी थी. इक आवाज़ पर उसने अपनी जिंदगी के सारे पन्ने लिख दिए थे. जवाब देना कुछ लोगों के लिए कितना जरूरी हो जाता है. लोरी यूं हवा में घुल जाती और रह जाती यादों में सिर्फ एक प्रतिध्वनि की तरह और उसे अफ़सोस नहीं होता. मगर अब कोई था जो उसे हर लम्हा गुनगुनाता रहता था. हर बार अलग अलग सुर में, अलग अलग शब्दों में. शादी के बाद लोरी पेरिस चली गयी. अब उसे जगदीश चन्द्र बोस की किताबें पढ़ने वाला कोई नहीं मिलता था जो उसे कहे कि पेड़ों को भी अलविदा कहना चाहिए. शादी के एक दिन पहले रात को चुपचाप शम्मी के पेड़ के नीचे गयी. 'इमरोज़. अब कौन पुकारेगा तुम्हें इस नाम से...मेरी यादों में जैसे तुम गुम हो रहे हो...तुम्हारी यादों से वैसे ही मैं भी गुम हो जाउंगी न?' विदाई में सबके सीने लग के रोई और इमरोज़ की ओर बस एक नज़र भर देखा. इतने लोगों के सामने कैसे विदा कहती. उसका और इमरोज़ का रिश्ता तो बस उसकी दिल की धड़कनों तक था. इमरोज़ तक हवाएं उसकी महक बहुत दूर से तलाश कर लाती रहीं. कई बारिशों तक. मगर उस दिन के बाद लोरी ने इमरोज़ का नाम कभी नहीं लिया. ---//---इसके बहुत साल बाद कोई साल. 
हर माँ बेटे के अपने खेल होते हैं. सीक्रेट वाले. जो पूरे घर से छुपा कर खेले जाते हैं. धानी ने घर वालों के सामने एक ही शर्त रखी थी कि उसके लिए लड़का उसी शहर में ढूँढा जाये. वो अपने मायके के आसपास रहना चाहती है. यूं भी लोरी की शादी इतने सात समंदर पार हुयी थी कि घर वाले चाहते भी थे कि छोटी कमसे कम पास रहे. बेटियों के बिना घर सूना लगता है. धानी का दूल्हा बड़ा खूबसूरत बांका नौजवान था. शादी के साल होते ही घर में बेटे की किलकारियां गूंजने लगी. चूँकि उसका मायका इतना पास था तो रिवाज़ के हिसाब से धानी साल दो साल मायके में ही रहती थी. इन्ही दिनों उसके बेटे ने बोलना सीखा था. दोनों माँ बेटा गरमी की दुपहरों में पूरे घर से भाग कर शम्मी के पेड़ के नीचे चादर डाल कर पिकनिक मना रहे होते तो कभी झूला झूल रहे होते थे. तीखी गर्मियों में शम्मी का पेड़ पूरी तरह फ़ैल जाना चाहता कि धूप का कोई टुकड़ा उन्हें झुलसा न सके. धानी उन्हीं दिनों अपने बेटे को शब्द सिखा रही थी. 
शाम ढल आई थी...आम के बौर के मौसम थे...धानी झूले पर हल्के हल्के झूल रही थी और लाड़ में बेटे से पूछ रही थी, 'अच्छा, बताओ, मम्मा प्यारा बेटा को क्या बुलाती है जो कोई नहीं जानता?' फूल से खिलते उस बच्चे ने अपनी तोतली बोली में कहा 'इमलोज'...धानी उसे ठीक से समझा रही थी, 'इमलोज नहीं बेटा, फिर से बोलो...इम रो ज़'...बच्चा अपनी तुतलाहट को पूरे हिसाब से बाँध कर कहता है, 'इमरोज'. धानी खिलखिला उठती है. बेटे को गोदी में भर कर गोल गोल नाचती है और झूले में पींग दिए जाती है...ऊंची...ऊंची और ऊंची...
शम्मी के पेड़ की भाषा कोई नहीं जानता लोरी के सिवा. उसकी शाखों पर रोज़ तोतई रंगों का कोलाज होता है. उनकी सुर्ख लाल चोंच इश्क़ के रंग सी होती है. लाल. शम्मी की रुलाई को हरसिंगार थामे रहता है. जमीन के बहुत नीचे उनकी जड़ें आपस में गुंथ गयी हैं. जब इमरोज़ बहुत उदास होता है तो रात रात भर हरसिंगार के गले लग कर रोता है. अगली सुबह हरसिंगार के सफ़ेद फूलों की चादर बिछी होती है. लोग कहते हैं हरसिंगार के फूलों का मौसम साल में एक बार आता है. इमरोज़ को नहीं पता कि याद का मौसम कितने बार आता है. मगर जब भी धानी का नन्हा बेटा उसके इर्द गिर्द घूमता हुआ अपनी तोतली जुबान में कहता है, इमलोज, तो शम्मी के पेड़ के सारे पत्ते उड़ते उड़ते किसी दूर समंदर में गिर के मर जाना चाहते हैं...उस रात बेमौसम भी हरसिंगार के नीचे बहुत बहुत बहुत से फूल गिर जाते हैं...और कोई नहीं जानता कि याद का मौसम बेमौसम भी आता है. इश्क़ की तरह.

धीरे धीरे धानी का बेटा बड़ा हो रहा था. उसने बड़े प्यार से उसका नाम विधान रखा था. उसका घर और मायका इतना पास था कि अक्सर आती जाती रहती. लोग भूल ही गए थे कि शम्मी के उस पेड़ को कभी इमरोज़ कह कर पुकारता था कोई. कि लोरी ने उसका नाम इमरोज़ के नाम पर रखा था. धानी के बेटे ने उसे इमलोज क्या कहना शुरू किया पूरा घर उसे इमलोज कहने लगा. बात यहाँ तक हुयी कि विधान कोई बदमाशी करता तो लोग उसे 'इमलोज का बच्चा' कह कर मारने को दौड़ते. लेकिन वो नन्हा सा विधान अब उतना छोटा नहीं रहा था. भाग कर बिल्ली की तरह अपने इमलोज की घनी शाखों पर छुप जाता. यूं हर किसी को उसके कांटे चुभते मगर जाने विधान और इमलोज की ये कैसी यारी थी कि आज तक बच्चे को एक खरोंच तक नहीं आई थी. मुहब्बत के दिन थे कि जब लोरी का वापस लौटना हुआ. बिना किसी को बताये वो अचानक पहुँच गयी थी कि सबको सरप्राइज देगी. घर के गेट से अन्दर घुसी तो देखती है कि माँ, बाबा, बड़ी मम्मी सब लोग उसके इमरोज़ को घेर कर खड़े हैं और प्यार मनुहार से एक एक करके बात कर रहे हैं. ये क्या अजूबा हरकत है सोचती वो दरवाज़े पर ही खड़ी थी कि धानी साड़ी का लपेटा लिए उधर से आई 'इमलोज के बच्चे, नीचे उतर वरना तेरे साथ साथ तेरे इमलोज की भी डाली तोड़ दूँगी'. 'नहीं...मम्मी...सॉरी...सॉरी'...प्लीज इमलोज को कुछ मत करना', इसके साथ ही धम्म से कोई पांच साल का बच्चा नीचे कूदा और सीधे हरसिंगार की ओर भागता आया और लोरी के पीछे छुप गया. जहाँ लोरी को देख कर घर वाले ख़ुशी से पागल हो जाते...यहाँ सब ऐसे घबराए जैसे उसके पीछे उन्होंने लोरी की जमीन हड़प ली हो. 'वो दीदी, कुछ नहीं ये तुम्हारा विधान का किया धरा है...इसी ने तुम्हारे इमरोज़ का नाम बिगाड़ा है'. लोरी को शायद खुद से उतना सदमा नहीं लगता लेकिन धानी के सफाई देने से बरसों पुराना बचपन का किस्सा याद आ गया कि जब उसने इमरोज़ पर अपने नाम का पहला अक्षर खोद दिया था.
रात भर लोरी को नींद नहीं आई. पैर पटकती कमरे में चहलकदमी करती सोचती रही कि ऐसा कौन सा अकाट्य तर्क हो कि जिसके सामने लोग शम्मी के पेड़ को काटने को राजी हो जाएँ. प्रेम का अधिकार भाव जब अपनी पूरी तीक्ष्णता के साथ मुखर होता है तो उसमें किसी तरह की करुणा नहीं रहती. लोरी कोई रियायत नहीं बरतना चाहती थी. आखिर उसे एक ऐसा कारण मिल ही गया जिसके आगे सब हार जाते.
'मम्मा, मैं इस बार एक बहुत ख़ास काम से आई हूँ...लेकिन लगता नहीं है कि ऐसा हो पायेगा'.
'अरे लोरी, ऐसा क्या हो गया...बता मुझे क्या मुश्किल है?'
'वो मम्मा, तुम तो जानती हो, शादी के सात साल होने को आये, कोई बाल बच्चा नहीं है. हम सब जगह दिखा के हार गए लेकिन डॉक्टर्स के हिसाब से कहीं कोई दिक्कत नहीं है. एक दिन पेरिस में एक बहुत पहुंचे हुए बाबा मिले. उन्हें मेरे बारे में सब पता था. ये भी कि घर में एक शम्मी का पेड़ है जिसका मैंने कोई नाम रखा है.'
'सच्ची. तब तो वाकई बहुत पहुंचे हुए बाबा थे...क्या कहा बाबा ने?'
'वो माँ...अब तो नहीं लगता है कि उनका कहा सच हो पायेगा. उन्होंने कहा है कि इसी शम्मी के पेड़ को काट कर उसके तने के भीतरतम हिस्से से एक लड्डू गोपाल की मूर्ति बनवा कर गंगा में विसर्जित करनी होगी. पेड़ शापित है. उसके कारण ही घर में संतान का अभाव है. अब तुम ही बताओ माँ, विधान और धानी के रहते कैसे पेड़ कटवा दूं मैं'
माँ आखिर माँ थी. इस वजह के आगे तो कोई तर्क वाजिब नहीं ठहरता. सबने निश्चय किया कि धानी और विधान को इस बारे में कुछ नहीं बताएँगे और जल्द से जल्द पेड़ कटवा देंगे ताकि लोरी वक़्त पर घर लौट सके और उसे टिकट पोस्टपोन नहीं करना पड़े. लोरी ने खुद से फोन करके बिजली से चलने वाली आरी का इन्तेजाम किया.
उधर धानी और विधान दोपहर को मीठी नींद सो रहे थे कि अचानक एक ही सपने से दोनों की आँख खुली और वे इमलोज को लेकर भयानक घबराहट में घिर गए. धानी ने एक सेकंड तो सोचा कि मन का वहम है मगर फिर कुछ था जो उसे तेजी से घर की ओर खींच रहा था. उसने मन को समझाया कि इसी बहाने लोरी से भी मुलाक़ात हो जायेगी. फटाफट तैयार होकर दोनों माँ बेटा चल दिए. घर की गली के मोड़ पर ही धानी का दिल आशंका से डोलने लगा. दरवाजे जैसे ही पहुंची वैसे ही इमलोज धराशायी हुआ. उसकी चीख इतनी गहरी थी कि इमलोज की जड़ें तक सिहर गयीं. लोरी का चेहरा सपाट चट्टान बना हुआ था जिसपर कुछ भी पढ़ना नामुमकिन था. इमलोज के सीने में दफ्न राज़ तो लेकिन और भी गहरे थे. हर पेड़ के तने में वर्तुल बने होते हैं जिससे पेड़ की उम्र पता चलती है. शम्मी के पेड़ के सबसे छोटे वलयों में स्पष्ट रूप से अंग्रेजी का L दिख रहा था. भीतरतम के वलय जो कि सबसे पुराने होते हैं. पेड़ के बचपन के. इसी अक्षर की अनुकृति थे मगर जैसे जैसे बाहरी वलय बन रहे थे, उनका कोण बदलता गया था और वो अंग्रेजी के V जैसे होते गए थे. विधान और लोरी दोनों ही चुप थे. शम्मी का पेड़ अपने दिल में इतने गहरे राज़ लिए जी रहा था कि उसके जीते जी किसी को नहीं मालूम चलता. ये कैसा इश्क़ था. ये कैसी चुप्पी थी.
उस साल के बाद हरसिंगार में कभी फूल नहीं आये. जाने क्यूँ धानी को ऐसा लगता था कि ये बात सिर्फ उसे मालूम है. घर में तो और किसी को अब ये भी याद नहीं कि कभी यहाँ एक शम्मी का पेड़ था...जिसका नाम था इमलोज.
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Published on January 24, 2016 12:21

January 23, 2016

कविताओं का जीवन में लौट आना

मुझे क्या हो गया है. ऐसा तो नहीं है कि मैंने पहले कवितायें नहीं पढ़ीं. या शायद नहीं पढ़ीं. बचपन में या कॉलेज के लड़कपन में पढ़ी होंगी. होश में ध्यान नहीं है कि आखिरी कौन सी कविता पढ़ी थी कि जिसे पढ़ कर लगे कि रूह को गीले कपड़े की तरह निचोड़ दिया गया है. कलेजे में हूक सी उठ जाए कि जैसे प्रेम में होता है...या कि विरह में. 
मैं बहुत दिन बाद कागज़ की कवितायें पढ़ रही हूँ. किताब को हाथ में लिए हुए उसके धागों को अपनी आत्मा के धागों से मिलता हुआ महसूस करती हूँ. पन्ना पलटते हुए शब्द मेरी ऊँगली की पोरों में घुलते घुलते लगते हैं. जैसे बरसों की प्यासी मैं और अब मुझे शब्द मिले हैं और मैं ओक ओक पी रही हूँ. समझती हूँ जरा जरा कि मुझे प्रेम की उत्कंठा नहीं थी जितनी किताबों की थी. मेरा मन पूरी दुनिया तज कर इस कमरे की ओर भागता है जहाँ मेरी इस बार की लायी किताबें सजी हुयी हैं. मुझे मोह हो रहा है. इन पर मेरा अपार स्नेह उमड़ता है. मन शब्दों में पगा पगा दीवानावार चलता है. 
सुबह को लगभग सात बजे उठ जाने की आदत सी है. उस वक़्त घर में सब सोये रहते हैं. शहर भी उनींदा रहता है और कोई आवाजें मेरा ध्यान भंग नहीं करतीं. खिड़की से रौशनी नहीं आती बस एक फीका उजास रहता है. ज़मीन पर पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है. दीवार की ओर एक पतला सा सिंगल गद्दा है जिसपर सफ़ेद चादर है जिसमें पीले और गुलाबी फूल बने हैं. कल मैं दो कुशन खरीद के लायी. मद्धम रंग के खूबसूरत कुशन कि जिन्हें देख कर आँखों को ठंढक मिले. आजकल कमोबेश रोज ही उठते हुए मेरा कुछ लिखने को दिल करता है. मगर आज जाने क्यूँ लिखने का मन नहीं था. 
कमलेश की किताब 'बसाव' को पढ़ने का मन किया. ये किताब अनुराग ने दिल्ली पुस्तक मेले में अपनी तरफ से गिफ्ट की है...कि तुम्हें कमलेश को पढ़ना चाहिए. किताब अँधेरे में खुलती है और जैसे जैसे कवितायें पढ़ती जाती हूँ ये किताब मन में किसी पौधे की तरह उगती है. बारिश के बाद की गीली, भुरभुरी मिट्टी...गहरी भूरी...और नए पत्तों की कोमल हरीतिमा. किताब मन में उगती है. जड़ें जमाती हुयी. मुझे याद नहीं मैंने ऐसी आखिरी किताब कब पढ़ी थी. अगला पन्ना पलटते हुए आँखों में होता है एक भोला इंतज़ार. बचपन के इतवारों की तरह कि जब घर की छत पर से देखा करते थे दूर का चौराहा कि आज कौन मेहमान आएगा. कौन से दोस्त. कौन वाले अंकल. झूले पर कौन झूलेगा साथ. ये कवितायें मुझे भर देती हैं एक सोंधी गंध से. गाँव में चूल्हा लगाती हुयी दादी याद आती है. लकड़ी से उठता धुआं और कोयले. लडुआ बनाने की तैय्यारी और गीला गुड़. मेरी नानी और मेरी माँ. शमशानों को पढ़ते हुए मुझे याद आते हैं वो पितर जो कहीं दूर आसमानों में हैं.
ऐसी भी होती है कोई किताब क्या...ऐसा होता है कवि और ऐसी होती हैं कवितायें...मन में साध जागती है कि हाँ...ऐसा ही होता है जीवन...और इसलिए जीना चाहिए. कि हम भर सकें खुद को. कि किताबें मुझे और वाचाल बनाती हैं. 
मैं पृष्ठ संख्या ७७ पर ठहरती हूँ. एक आधी तस्वीर खींचती हूँ. खिड़की से धूप उतर आई है. चौखुट धूप और किताब पर रखी है महीन होके. इस शहर में धूप कितनी दुर्लभ है. किताब पढ़ने के पहले फिर शब्द उतरते हैं मन पर. अपनी बोली में. वे शब्द जिन्हें भूले अरसा हुआ. दातुन. खजूर का पेड़. कुच्ची. कुइय्या. दिदिया. हरसिंगार. मौलश्री. तुलसी चौरा. एन्गना. भागलपुरी नहीं बोल पाने की कसक चुभती है. मन करता है कि चिट्ठियां लिखूं. अपने गुरुजनों को. कि जिन्होंने भाषा सिखाई. जिन्होंने लिखना सिखाया. जिन्होंने जीना सिखाया. और फिर मित्रों को. स्नेह भीगी चिट्ठियां. भरी भरी चिट्ठियां. 
मैं पढ़ती हूँ आगे, कुछ कहानियों जैसा है...प्राक्कथन. कविता के पीछे की कहानी. कैसे बसते हैं बसाव. इंद्र का सिंहासन डोलता है. दानवान, यज्ञवान, सत्यवान पौत्र अपने अपने हिस्से का पुण्य देते हैं. कहाँ चले गए थे ये किरदार. मेरे जीवन ही नहीं मेरी कहानियों से भी लुप्त हो गए थे. मैं सोचती हूँ कि कितनी चीज़ों से बने होते हैं हम. क्या क्या खो जाता है हर एक इंसान के जाने के साथ ही. अपने शहर से अलग होने के कारण हमसे छिन जाते हैं वो सारे वार्तालाप भी जो चौक चौराहों तक इतने सरल और सहज थे जैसे कि वो उम्र और वो जीवन. कि प्रेम कितना आसान था उन दिनों. मैं अपनी नोटबुक में लिखे कुछ शब्दों को उकेरा हुआ देखती हूँ और सहेजती हूँ जितना सा जीवन बाकी है. इस सब में ही मैं इस किताब की आखिरी कविता तक आती हूँ...और जैसे सारा का सारा जीवन ही एक कविता में रह जाता है. मुझ में. मेरे होने में. मेरी सांस में. 
उजाड़ माँ ने कहा था:अमुक 'राम' ने डीह का मंदिर बनवाया था -शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई थी पुजारी नियुक्त किया था. 
अब सब परदेस चले गए.जो लोग जल चढ़ा सकते थे वे नहीं रहे शिवालय खण्डहर हो गया.
माँ रोज सुबह नहा कर मंदिर में जल चढ़ाती रहती थी फिर वहाँ कुछ भी नहीं रहा शेष,मंदिर के ईंट पत्थर भी धीरे-धीरे राह में लगने लगे. 
माँ ने पूछा: क्या मेरे कर्मों में है मंदिर बनवाना,क्या मेरे बेटों के कर्मों में है मंदिर बनवाना!
पौत्र अभी गर्भ में नहीं आयेकौन माँ उन्हें डीह पर जनेगी.
माँ उनका प्रारब्ध पूछती है,माँ की आँखों में अनेक प्रश्न हैंअनुत्तरित,प्रश्नों में ही कहीं उत्तर छिपा हुआ है.
डीह शिवरात्रि को उजाड़ रहा हैमंदिर में जल चढ़ाने को कोई नहीं बचा. 
- कमलेश
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Published on January 23, 2016 21:30

January 20, 2016

आँखों के आखिरी यातना शिविर

स्टैंडिंग सेल्स
२ बाय २ बाय ६ फुट के टेलेफोन बूथ नुमा कमरे थे जिन्हें स्टैंडिंग सेल्स कहा जाता था. यहाँ कैदी बमुश्किल खड़े हो सकते थे. इन में प्रवेश करने के लिए नीचे की ओर एक छोटा सा दो फुट बाय दो फुट का लोहे की सलाखों वाला दरवाज़ा होता था. हवा के आने जाने को भी बस इतनी ही जगह होती थी. इन में बैठ कर घुसना होता था और फिर खड़े हो जाना होता था. कई बार इन सेल्स में चार कैदी तक भर दिए जाते थे. इन में न सांस लेने भर हवा होती थी न रौशनी भर उम्मीद. सबसे ज्यादा आत्महत्याएं इन स्टैंडिंग सेल्स वाले कैदी ही करते थे.
--//--
तुमने उसकी आँखें देखीं? उसकी आँखों में यही स्टैंडिंग सेल्स हैं. उसकी आँखों को न देखो तो उसके पूरे वजूद में पनाह जैसा महसूस होता है. उसकी हंसी, उसका रेशम का स्कार्फ...उसकी ऊँगली में चमकती गहरे लाल पत्थर की अंगूठी...और उसकी बातों का सम्मोहन...मगर उसके करीब मत जाना. उसकी आँखें टूरिस्म के लिए नहीं हैं. वहां कैद हो गए तो बस मौत ही तुम्हें मुक्ति देगी.

तुमसे बात करते हुए अगर वह दूर, किसी बिना पत्तियों वाले पेड़ को देख रही है तो खुदा का शुक्र मनाओ कि वह तुम पर मेहरबान है. शायद उसे तुम्हारी मुस्कराहट बहुत नाज़ुक लगी हो और वह अपने श्रम शिविर से तुम्हें बचाना चाहती हो. उससे ज्यादा देर बातें न करो. उसका मूल स्वाभाव इस तरह क्रूर हो चूका है कि वह खून करने के पहले सोचती भी नहीं. She kills on autopilot. But isn't that how all mercenaries are? All, but women. तुम्हें कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े पता हैं? After a point of time it should stop hurting. But it doesn't.

स्टैंडिंग सेल्स की दीवारों पर जंग लगे ताले हैं. गुमी हुयी चाभियाँ हैं. भूल गए जेलर्स हैं. भूख, प्यास और विरक्ति है. नाज़ी अमानवीय यातनाएं दे कर यहूदियों को जानवर बना देना चाहते थे मगर उन्होंने बचाए रक्खी जरा सी रंगीन चौक...बत्तखें, खरगोश और अपने अजन्मे, मृत और मृत्पाय बच्चों की किलकारी.

लड़की कह नहीं सकती किसी से...इस आँखों के श्रम शिविर को बंद करो. गिराओ बमवर्षक विमानों से ठीक जगह बम. जला दो फाइलें. मैं भूल जाना चाहती हूँ अपने गुनाह. किसी न्यूरेमबर्ग कोर्ट में लगवाओ मेरा मुकदमा भी या कि सड़क पर ही पास करो फैसला मेरे अपराधी होने का.

प्रेम उसकी दुनिया का अक्षम्य और सबसे जघन्य अपराध है. --//--

लाइन से खड़े हैं लोग दीवार की ओर मुंह कर कर. मेरे साथ और भी कई लोगों को फायरिंग स्क्वाड से उड़ाने का फैसला सुनाया गया. हवा में एक अजीब, निविड़ स्तब्धता ठहरी हुयी है. कोई सांस नहीं लेता यहाँ. मुझे अपने पहले जन्मदिन पर लाया केक और फूँक मार कर मोमबत्तियां बुझाना याद आ रहा है. हर बार बन्दूक चलती है और बारूद का धुआं उड़ता है.  आखिरी ख्वाहिश पूछने का रूमान बहुत पहले की दुनिया से छूट चूका है. मुझे कोई पूछे भी तो शायद मैं कोई इस तरह की ख्वाहिश बता नहीं पाऊँगी. मुझे जाने क्यूँ इक स्कूल के बच्चे याद आ रहे हैं. मैं वहां गयी नहीं हूँ शायद पर उस इकलौते स्कूल के बारे में पढ़ा है. नाजियों ने वहां मौजूद हर बच्चे को गोली मार दी थी. न उनका दोष पूछा गया था न उनकी आखिरी इच्छा. क्या ही होगी उन बच्चों की आखिरी इच्छा. कोई ख़ास फ्लेवर का आइसक्रीम...या चोकलेट...या शायद किसी दोस्त से किये गए झगड़े का समापन...मगर मेरी किताबें कहती हैं बच्चों को कमतर नहीं आंकना चाहिए. हो सकता है उनमें से किसी की ख्वाहिश देश का प्रधानमंत्री बनने की हो. 
कायदे से मुझे अपने इन अंतिम क्षणों में जीवन एक फिल्म रील की तरह चलता हुआ दिखाई पड़ना चाहिए. करीबी लोग स्लो मोशन में. मगर मेरे सामने खून में डूबे हुए लकड़ी के तख्ते हैं. बेढब और आड़े टेढ़े सिरों वाले. उन्हें आरी से काटा नहीं गया है, तोड़ कर छोटा किया गया है. इनके नुकीले सिरे भुतहा और डरावने हैं. अचानक मेरा ध्यान इन तख्तों के जरा ऊपर गया है. वहाँ एक सुर्ख पीला फूल अभी अभी खिला है. गोली की आवाज़ आती है. मेरे पहले तीन लोग और हैं जो मेरी बायीं ओर खड़े हैं. हवा बारूद की गंध से भरी हुयी है मगर हर फायर के साथ जरा और सान्द्र हो जाती है कि सांस लेने में तकलीफ होती है. अगली फायर के साथ मेरे ठीक दायीं ओर का कैदी धराशायी होता है और खून से वह पीला फूल पूरी तरह नहा कर सुर्ख लाल हो जाता है. कैदियों को किसी क्रम में सिलसिलेवार गोली नहीं मारी जा रही. मुझे आश्चर्य और सुख होता है. जिंदगी अपने आखिरी लम्हे तक अप्रत्याशित रही. अगली गोली निशाना चूक जाती है. कोई नौसिखुआ सैनिक होगा. शायद उसके हाथ कांप गए हों. मैं मुस्कुरा कर पीछे देखना चाहती हूँ. उसका उत्साह बढ़ाना चाहती हूँ कि तुम अगले शॉट में कर लोगे ऐसा. देखो, मैं कहीं भागी नहीं जा रही. मिसफायर की गोली जूड़े को बेधती निकली थी और इस सब के दरमयान बालों की लट जैसे लड़ कर आँखों के सामने झूल गयी. उस क्षणिक अँधेरे में तुम्हारी आँखें कौंध गयीं. किसी ने तुम्हें ठीक इसी लम्हे बताया है कि मुझे आज गोली मार दी जायेगी. तुम अचानक खड़े हो गए हो. तुम्हारी आँखों में कितने जन्म के आँसू हैं. तुम जानते हो, सीने में चुभते दर्द का मतलब. अब. मेरे ठीक सामने हो तुम. अश्कबार आँखें. आह! काश मैं ज़रा सा और जी पाती!
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Published on January 20, 2016 20:22

January 18, 2016

खुदा ने प्यास के दो टुकड़े कर के इक उसकी रूह बनायी...एक मेरी आँखें...

गुम हो जाना चाहती हूँ.
सोच रही हूँ कि खो जाने के लिये अपनी रूह से बेहतर जगह कहाँ मिलेगी. अजीब सी उदासी तारी है उंगलियों में. कि जाने क्या खो गया है. कोई बना है प्यास का...जैसे जैसे वो अंदर बसते जाता है उड़ती जाती हैं वो चीजें कि जिनको थाम कर जीने का धोखा पाला जाता है. मंटो की कहानी याद आती है कि जिसमें एक आदमी को खाली बोतलें इकठ्ठा करने का जुनून की हद तक शौक था.

अपनी दीवानावार समझ में उलीचती जाती हूँ शब्द और पाती हूँ कि मन का एक कोरा कोना भी नहीं भीगता. शहर का मौसम भी जानलेवा है. धूप का नामोनिशान नहीं. रंग नहीं दिखते. खुशबू नहीं महसूस होती. सब कुछ गहरा सलेटी. कुछ फीका उदास सफेद. कि जैसे थक जाना हो सारी कवायद के बाद.
मैं लिख नहीं सकती कि सब इतना सच है कि लगता है या तो आवाज में रिकौर्ड कर दूँ या कि फिल्म बनाऊँ कोई. शब्द कम पड़ रहे हैं. 
एक कतरा आँसू हो गयी हूँ जानां...बस एक कतरा...कि तुम्हारा जादू है, नदी को कतरा कर देने का. इक बार राधा को गुरूर हो गया था कि उससे ज्यादा प्रेम कोई नहीं कर सकता कृष्ण से...उसने गोपियों की परीक्षा लेने के लिये उन्हें आग में से गुजर जाने को कहा, वे हँसते हँसते गुजर गयीं, उनहोंने सोचा भी नहीं...कुछ अजीब हो रखा है हाल मेरा...सब कुछ छोटा पड़ता मालूम है...गुरूर भी...इश्क़ भी...और शब्द भी. सब कितना इनसिगनिफिकेंट होता है. इक लंबी जिन्दगी का हासिल आखिर होना ही क्या है.
दुनिया भर की किताबें हैं. इन्हें सिलसिलेवार पढ़ने का वादा भी है खुद से. मगर मन है कि इश्क़ का कोई कोरा कोना पकड़ कर सुबकता रहता है. उसे कुछ समझ नहीं आता. लिखना नहीं. पढ़ना नहीं. जब मन खाली होता है तो उसमें शब्द नहीं भरे जा सकते. उसे सिर्फ जरा सा प्रेम से ही भरा जा सकता है. दोस्तों की याद आती है. और शहर इक. 
कभी कभी देखना एक सम्पूर्ण क्रिया होती है...अपनेआप में पूरी. तब हम सिर्फ आँखों से नहीं देखते. पूरा बदन आँखों की तरह सोखने लगता है चीज़ें. बाकी सब कुछ ठहर जाता है. कोई खुशबू नहीं आती. कोई मौसम की गर्माहट महसूस नहीं होती. वो दिखता है. सामने. उसकी आँखें. उन आँखों में एक फीका सा अक्स. खुद का. उस फीके से अक्स की आँखों में होती है महबूब की छवि. मैं उस छवि को देख रही हूँ. वो इतना सूक्ष्म है कि होने के पोर पोर में है. दुखता. दुखता. दुखता. छुआ है किसी को आँखों से. उतारा है घूँट घूँट रूह में. देखना. इस शिद्दत से कि उम्र भर एक लम्हा भर का अक्स हो और जीने की तकलीफ को कुरेदे जाये. मेरे पास इस महसूसियत के लिए कोई शब्द नहीं है. शायद दुनिया की किसी जुबान में होगा. मैं तलाशूंगी. 
इश्क़ तो बहुत बड़ी बात होती है...रूह के उजले वितान सी उजली...मेरे सियाह, मैले हाथों तक कहाँ उसके नूर का कतरा आएगा साहेब...मैं ख्वाब में भी उसे छूने को सोच नहीं सकती...मेरे लिए तो बस इतना लिख दो कि इस भरी दुनिया में एक टुकड़ा लम्हा हो कि मैं उसे बस एक नज़र भर देख सकूँ उसे...मेरी आँखें चुंधियाती हैं...जरा सा पानी में उसकी परछाई ही दिखे कभी...आसमान में उगे जरा सा सूरज...भोर में और मैं उसकी लालिमा को एक बार अपनी आँखों में भर सकूं. क्या ऐसा हो सकेगा कभी कि मैं उसकी आँखों से देख सकूंगी जरा सी दुनिया. 
मैंने एक लम्हे के बदले दुःख मोलाये हैं उम्र भर के. हलक से पानी का एक कतरा भी नहीं उतरा है. कहीं रूह चाक हुयी है. कहाँ गए मेरे जुलाहे. बुनो अपने करघे पर मेरे टूटे दिल को सिलने वाले धागे. करो मेरे ज़ख्मों का इलाज़. जरा सा छुओ. अपनी रूह के मरहम से छुओ मुझे. 
खुदा खुदा खुदा. इश्क़ के पहले मकाम पर तकलीफ का ऐसा मंज़र है. आखिर में क्या हो पायेगा. ऐसा हुआ है कभी कि आपको महसूस हुआ है कि आपके छोटे से दिल में तमाम दुनिया की तकलीफें भरी हुयी हैं. मिला है कोई जिसने देख लिया है ज़ख़्मी रूह को. रूह रूह रूह. 
इस लरजते हुए. ज़ख़्मी. चोटिल. मन. रूह. को थाम लिया है किसी ने अपनी उजली हथेलियों में. कि जैसे गोरैय्या का बच्चा हो. बदन के पोर पोर में दर्द है. उसकी हथेलियों ने रोका हुआ है दर्द को. कहीं दूर तबले की थाप उठती है...धा तिक धा धा तिक तिक...
और सारा ज़ख्म कम लगता अगर यकीन होता इस बात पर कि ये तन्हाई में महसूस की हुयी तकलीफ है...आलम ये है साहेब कि जानता है रूह का सबसे अँधेरा कोना कि ठीक इसी तकलीफ में कोई अपनी शाम में डूब रहा होगा...
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Published on January 18, 2016 03:19