Puja Upadhyay's Blog, page 20
October 30, 2016
बसना अफ़सोस की तरह। सीने में। ताउम्र।
अलग अलग शौक़ होते हैं लोगों के। मेरा एक दिल अज़ीज़ शौक़ है इन दिनों। अफ़सोस जमा करने का। बेइंतहा ख़ूबसूरत मौसम भी होते हैं। ऐसे कि जो शहर का रंग बदल दें। इस शहर में एक मौसम आया कि जिसे यहाँ के लोग कहते हैं, ऑटम। फ़ॉल। देख कर लगा कि फ़ॉल इन लव इसको कहते होंगे। वजूद का सुनहरा हो जाना। कि जैसे गोल्ड-प्लेटिंग हो गयी हो हर चीज़ की। गॉथेन्बर्ग। मेरी यादों में हमेशा सुनहरा।
यहाँ की सड़कें यूँ तो नोर्मल सी ही सड़कें होती होंगी। बैंगलोर जैसी। दिल्ली जैसी नहीं की दिल्ली की सड़कों से हमेशा महबूब जुड़े हैं। यारियाँ जुड़ी हैं। मगर इन दिनों इन सड़कों पर रंग बिखरता था। सड़कों पर दोनों ओर क़तार में सुनहले पेड़ लगे हुए थे। मैंने ऐसे पेड़ पहली और आख़िरी बार कश्मीर में देखे थे। तरकन्ना के पेड़। ज़मीन पर गिरे हुए पत्तों का पीला क़ालीन बिछा था। हवा इतनी तेज़ चलती थी कि सारे पत्ते कहीं भागते हुए से लगते थे। उस जादुई पाइप प्लेयर की याद आती थी जिसने चूहों को सम्मोहित कर लिया था और वे उसके पीछे पीछे चलते हुए नदी में जा के डूब गए थे। ये पत्ते वैसे ही सम्मोहित सड़कों पर दीवाने हुए भागते फिरते थे। इस बात से बेख़बर कि ट्रैफ़िक सिग्नल हरा है या लाल। उन्हें कौन महबूब पुकारता था। वे कहाँ खिंचे चले जाते थे? मुझे वो वक़्त याद आया जब याद यूँ बेतरह आती थी जब कोई ऐसा शहर पुकारता था जिसकी गलियों की गंध मुझे मालूम नहीं।
कई दिनों से मेरा ये आलम भी है कि सच्चाई और कहानियों में अंतर महसूस करने में मुश्किल हो रही है। दिन गुज़रता है तो यक़ीन नहीं होता कि कहीं से गुज़र कर आए हैं। लगता है काग़ज़ से उतर कर ज़िंदा हुआ कोई शहर होगा। कोई महबूब होगा सुनहली आँखों वाला।
हम जिनसे भी कभी मुहब्बत में होते हैं, हमें उनकी आँखों का रंग तब तक याद रहता है जब तक कि उस मुहब्बत की ख़ुशबू बाक़ी रहे। याने के उम्र भर।
शहर की सफ़ाई करने वाले कर्मचारियों ने पीले पत्ते बुहार कर सड़क के किनारे कर दिए थे। तेज़ हवा चलती और पत्ते कमबख़्त, बेमक़सद दौड़ पड़ते शहर को अपनी बाँहों में लिए बहती नदी में डूब जाने को। मैं किसी कहानी का किरदार थी। तनहा। लड़की कोई। उदास आँखों वाली। लड़की ने एक भागते पत्ते को उठाया और कहा तुम सूने अच्छे नहीं लगते और उसपर महबूब का नाम लिखा अपनी नीली स्याही से। पत्ते को बड़ी बेसब्री थी। हल्के से हवा के झोंके से दौड़ पड़ा और पुल से कूद गया नीचे बहते पानी में। जब तक पत्ता हवा में था लड़की देखती रही महबूब का नाम। नदी के पानी में स्याही घुल गयी और अब से सारे समंदरों को मालूम होगा उसके महबूब का नाम। मैंने देखा लड़की को। सोचा। मैं लिखूँ तुम्हारा नाम। मगर फिर लगा तुम्हारे शहर का पता बारिशों को नहीं मालूम।
लड़की भटक रही थी बेमक़सद मगर उसे मिलती हुयी चीज़ों की वजह हुआ करती थी। धूप निकली तो सब कुछ सुनहला हो गया। आसमान से धूप गिरती और सड़क के पत्तों से रेफ़्लेक्ट होती। इतना सुनहला था सब ओर कि लड़की को लगा उसकी आँखें सुनहली हो जाएँगी। उसे वो दोस्त याद आए जिनकी आँखों का रंग सुनहला था। वो महबूब भी। और वे लड़के भी जो इन दोनों से बचते हुए चलते थे। शहर के पुराने हिस्से में एक छोटे से टीले पर एक लाल रंग की बेंच थी जिसके पास से एक पगडंडी जाती थी। उसे लगा कि ये बेंच उन लड़कों के लिए हैं जिन्हें यहाँ बैठ कर कविताएँ पढ़नी हैं और प्रेम पत्र लिखने हैं। ये बेंच उन लोगों के लिए हैं जिनके पास प्रेम के लिए जगह नहीं है।
ये पूरा शहर एक अफ़सोस की तरह बसा है सीने में। ठीक मालूम नहीं कि क्यों। ठीक मालूम नहीं कि क्या होना था। ठीक मालूम नहीं कि इतना ख़ूबसूरत नहीं होना था तो क्या होना था। उदास ही होना था। हमेशा?
हाथों में इतना दर्द है कि चिट्ठियाँ नहीं लिखीं। पोस्टकार्ड नहीं डाले। ठंढे पानी से आराम होता था। सुबह उठती तो उँगलियाँ सूजी हयीं और हथेली भी। कुछ इस तरह कि रेखाओं में दिखते सारे नाम गड़बड़। डर भी लगता। कहीं तुम्हारा नाम मेरे हाथों से गुम ना जाए। जब हर दर्द बहुत ज़्यादा लगता तो दोनों हथेलियों से बनाती चूल्लु और घूँट घूँट पानी पीती। दर्द भी कमता और प्यास भी बुझती।
वो दिखता। किसी कहानी का महबूब। हँसता। कि इतना दुःख है। काश इतनी मुहब्बत भी होती। मैं मुस्कुराती तो आँख भर आती। हाथ उठाती दुआ में। कहती। सरकार। आमीन।

कई दिनों से मेरा ये आलम भी है कि सच्चाई और कहानियों में अंतर महसूस करने में मुश्किल हो रही है। दिन गुज़रता है तो यक़ीन नहीं होता कि कहीं से गुज़र कर आए हैं। लगता है काग़ज़ से उतर कर ज़िंदा हुआ कोई शहर होगा। कोई महबूब होगा सुनहली आँखों वाला।
हम जिनसे भी कभी मुहब्बत में होते हैं, हमें उनकी आँखों का रंग तब तक याद रहता है जब तक कि उस मुहब्बत की ख़ुशबू बाक़ी रहे। याने के उम्र भर।

लड़की भटक रही थी बेमक़सद मगर उसे मिलती हुयी चीज़ों की वजह हुआ करती थी। धूप निकली तो सब कुछ सुनहला हो गया। आसमान से धूप गिरती और सड़क के पत्तों से रेफ़्लेक्ट होती। इतना सुनहला था सब ओर कि लड़की को लगा उसकी आँखें सुनहली हो जाएँगी। उसे वो दोस्त याद आए जिनकी आँखों का रंग सुनहला था। वो महबूब भी। और वे लड़के भी जो इन दोनों से बचते हुए चलते थे। शहर के पुराने हिस्से में एक छोटे से टीले पर एक लाल रंग की बेंच थी जिसके पास से एक पगडंडी जाती थी। उसे लगा कि ये बेंच उन लड़कों के लिए हैं जिन्हें यहाँ बैठ कर कविताएँ पढ़नी हैं और प्रेम पत्र लिखने हैं। ये बेंच उन लोगों के लिए हैं जिनके पास प्रेम के लिए जगह नहीं है।
ये पूरा शहर एक अफ़सोस की तरह बसा है सीने में। ठीक मालूम नहीं कि क्यों। ठीक मालूम नहीं कि क्या होना था। ठीक मालूम नहीं कि इतना ख़ूबसूरत नहीं होना था तो क्या होना था। उदास ही होना था। हमेशा?

वो दिखता। किसी कहानी का महबूब। हँसता। कि इतना दुःख है। काश इतनी मुहब्बत भी होती। मैं मुस्कुराती तो आँख भर आती। हाथ उठाती दुआ में। कहती। सरकार। आमीन।
Published on October 30, 2016 17:19
September 1, 2016
थेथरोलोजी वाया भितरिया बदमास

नोट: ये अलाय बलाय वाली पोस्ट है। आप कुछ मीनिंगफुल पढ़ना चाहते हैं तो कृपया इस पोस्ट पर अपना समय बर्बाद ना करें। धन्यवाद।
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दोस्त। आज ऊँगली जल गयी बीड़ी जलाते हुए तो तुम याद आए। नहीं। तुम नहीं। हम याद आए। तुम्हें याद है हम कैसे हुआ करते थे?
***
ये वो दिन हैं जब मैं भूल गयी हूँ कि मेरे हिस्से में कितनी मुहब्बत लिखी गयी है। कितनी यारियाँ। कितने दिलकश लोग। कितने दिल तोड़ने वाले लोग। इन्हीं दिनों में मैं वो कहकहा भी भूल गयी हूँ जो हमारी बातों के दर्मयान चला आता था हमारे बीच। बदलते मौसम में आसमान के बादलों जैसा। तुम आज याद कर रहे हो ना मुझे? कर रहे हो ना?
***
हम। मैं और तुम मिल कर जो बनते थे...वो बिहार वाला हम नहीं...बहुवचन हम...लेकिन हमारा हम तो एकवचन हो जाता था ना? नहीं। मैं और तुम। एक जैसे। जाने क्या। क्यूँ। कैसे। कब तक?
हम। जिन दिनों हम हुआ करते थे। मैं और तुम।
तुम्हारे घर के आगे रेलगाड़ी गुज़रती थी और मैं यहाँ मन में ठीक ठीक डिब्बे गिन लेती थी। याद है? पटना के प्लैट्फ़ॉर्म पर हम कभी नहीं मिले लेकिन अलग अलग गुज़रे हैं वहाँ से अपने होने के हिस्से पीछे छोड़ते हुए कि दूसरा जब वहाँ आए तो उसे तलाशने में मुश्किल ना हो।
हम एक ऐसे शहर में रहते थे जहाँ घड़ी ठीक रात के आठ बजे ठहर जाती थी। तब तक जब तक कि जी भर बतिया कर हमारा मन ना भर जाए। गंगा में आयी बाढ़ जैसी बातें हुआ करती थीं। पूरे पूरे गाँव बहते थे हमारे अंदर। पूरे पूरे गाँव रहते थे हमारे अंदर। नहीं? इन गाँवों के लोग कितना दोस्ताना रखते थे एक दूसरे से। दिन में दस बार तो आना जाना लगा हुआ रहता था। कभी धनिया पत्ता माँगने तो कभी खेत से मूली उखाड़ने। झालमूढ़ि में जब तक कच्चा मिर्चा और मूली ना मिले, मज़ा नहीं आता। झाँस वाला सरसों का तेल। थोड़ा सा चना। सीसी करते हुए खाते जाना। तित्ता तित्ता।
लॉजिक कहता है तुम वर्चुअल हो। आभासी। आभासी मतलब तो वो होता है ना जिसके होने का पहले से पता चल जाए ना? उस हिसाब से इस शब्द का दोनों ट्रान्सलेशन काम करता है। याद क्यूँ आती है किसी की? इस बेतरह। क्या इसलिए कि कई दिनों से बात बंद है? तुमसे बात करना ख़ुद से बात करने को एक दरवाज़ा खोले रखना होता था। तुमसे बात करते हुए मैं गुम नहीं होती थी। तुम ज़िद्दी जो थे। अन्धार घर में भुतलाया हुआ माचिस खोजना तुमरे बस का बात था बस। हम जब कहीं बौरा कर भाग जाने का बात उत करने लगते थे तुम हमको लौटा लाते थे। मेरे मर जाने के मूड को टालना भी तुमको आता था। बस तुमको। सिर्फ़ एक तुमको।
सुगवा रे, मोर पाहुना रे, ललका गोटी हमार, तुम रे हमरे पोखर के चंदा...तुम हमरे चोट्टाकुमार। जानते हो ना सबसे सुंदर क्या है इस कबीता में? इस कबीता में तुम हमरे हो...हमार। उतना सा हमरे जितना हमारे चाहने भर को काफ़ी हो। कैसे हो तुम इन दिनों? हमारे वो गाँव कैसे उजड़ गए हैं ना। बह गए सारे लोग। सारे लोग रे। आज तुम्हारा नाम लेने का मन किया है। देर तक तुमसे बात करने का मन किया है। इन सारे बहे हुए लोगों और गाँवों को गंगा से छांक कर किसी पहाड़ पर बसा देने का मन किया है। लेकिन गाँव के लोग पहाड़ों पर रहना नहीं जानते ना। तुम मेरे बिना रहना जानते हो? हमको लगता था तुम कहीं चले गए हो रूस के। घर का सब दरवाज़ा खुला छोड़ के। लेकिन तुम तो वहीं कोने में थे घुसियाए हुए। बीड़ी का धुइयाँ लगा तो खाँसते हुए बाहर आए। आज झगड़ लें तुमसे मन भर के? ऐसे ही। कोई कारण से नहीं। ख़ाली इसलिए कि तुमको गरिया के कलेजा जरा ठंढा पढ़ जाएगा। बस इसलिए। बोलो ना रे। कब तक ऐसे बैठोगे चुपचाप। चलो यही बोल दो कि हम कितना ख़राब लिखे हैं। नहीं? कहो ना। कहो कि बोलती हो तो लगता है कि ज़िंदा हो।
मालूम है। इन दिनों मैंने कुछ लिखा नहीं है। वो जो लिखने में सुख मिलता था, वो ख़त्म हो गया है। कि मैंने बात करनी ही बंद कर दी है। काहे कि हमेशा ये सोचने लगी हूँ कि ये भी कोई लिखने की बात है। वो जो पहले की तरह होता था कि साला जो मेरा मन करेगा लिखेंगे, जिसको पढ़ना है पढ़े वरना गो टू द (ब्लडी) भाड़। इन दिनों लगता है कि बकवास लिखनी नहीं चाहिए, बकवास करनी भी नहीं चाहिए। लेकिन वो मैं नहीं हूँ ना। मैं तो इतना ही बोलती हूँ। तो ख़ैर। जिसको कहते हैं ना, टेक चार्ज। सो। फिर से। लिखना इसलिए नहीं है कि उसका कोई मक़सद है। लिखना इसलिए है कि लिखने में मज़ा आता था। कि जैसे बाइक चलाने में। तुम्हें फ़ोन करके घंटों गपियाने में। तेज़ बाइक चलाते हुए हैंडिल छोड़ कर दोनों हाथ शाहरुख़ खान पोज में फैला लेने में। नहीं। तो हम फिर से लिख रहे हैं। अपनी ख़ुशी के लिए। जो मन सो।
हम न आजकल बतियाना बंद कर दिए हैं। लिखना भी। जाने क्या क्या सोचते रहते हैं दिन भर। पढ़ते हैं तो माथा में कुछ घुसता ही नहीं है। चलो आज तुमको एक कहानी सुनाते हैं। तुम तो नहींये जानते होगे। ई सब पढ़ सुन कर तुमरे ज्ञान में इज़ाफ़ा होगा। ट्रान्सलेशन तो हम बहुत्ते रद्दी करते हैं, लेकिन तुम फ़ीलिंग समझना, ओके? तुम तो जानते हो कि हारूकी मुराकामी मेरे सबसे फ़ेवरिट राईटर हैं इन दिनों। तो मुराकामी का जो नॉवल पढ़ रहे हैं इन दिनों उसके प्रस्तावना में लिखते हैं वो कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कई काम उलटे क्रम से किए हैं। उन्होंने पहले शादी की, फिर नौकरी, और आख़िर में पढ़ाई ख़त्म की। अपने जीवन के 20s में उन्होंने Kokubunji में एक छोटा सा कैफ़े खोला जहाँ जैज़ सुना जा सकता था। वो लिखते हैं कि 29 साल की उम्र में एक बार वे एक खेल देखने गए थे। वो साल १९७८ का अप्रील महीना था और जिंग़ु स्टेडीयम में बेसबाल का गेम था। सीज़न का पहला गेम Yakult Swallows against the Hiroshima Carp। वे उन दिनों याकुल्ट स्वालोज के फ़ैन थे और कभी कभी उनका गेम देखने चले जाते थे। वैसे स्वॉलोज़ माने अबाबील होता है। अबाबील बूझे तुम? गूगल कर लेना। तो ख़ैर। मुराकामी गेम देखने के लिए घास पर बैठे हुए थे। आसमान चमकीला नीला था, बीयर उतनी ठंढी थी जितनी कि हो सकती थी, फ़ील्ड के हरे के सामने बॉल आश्चर्यजनक तरीक़े से सफ़ेद थी...मुराकामी ने बहुत दिन बाद इतना हरा देखा था। स्वालोज का पहला बैटर डेव हिल्टन था। पहली इनिंग के ख़त्म होते हिल्टन ने बॉल को हिट किया तो वो क्रैक पूरे स्टेडियम में सुनायी पड़ा। मुराकामी के आसपास तालियों की छिटपुट गड़गड़ाहट गूँजी। ठीक उसी लम्हे, बिना किसी ख़ास वजह के और बिना किसी आधार के मुराकामी के अंदर ख़याल जागा: 'मेरे ख़याल से मैं एक नॉवल लिख सकता हूँ'।
अंग्रेज़ी में ये शब्द, 'epiphany' है। मुझे अभी इसका ठीक ठीक हिंदी शब्द याद नहीं आ रहा।
मुराकामी को थी ठीक वो अहसास याद है। जैसे आसमान से उड़ती हुयी कोई चीज़ आयी और उन्होंने अपनी हथेलियों में उसे थाम लिया। उन्हें मालूम नहीं था कि ये चीज़ उनके हाथों में क्यूँ आयी। उन्हें ये बात तब भी नहीं समझ आयी थी, अब भी नहीं आती। जो भी वजह रही हो, ये घटना घट चुकी थी। और ठीक उस लम्हे से उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गयी थी।
खेल ख़त्म होने के बाद मुराकामी ने शिनजकु की ट्रेन ली और वहाँ से एक जिस्ता काग़ज़ और एक फ़ाउंटेन पेन ख़रीदा। उस दिन उन्होंने पहली बार काग़ज़ पर कलम से अपना नॉवल लिखना शुरू किया। उस दिन के बाद से हर रोज़ अपना काम ख़त्म कर के सुबह के पहले वाले पहर में वे काग़ज़ पर लिखते रहते क्यूँकि सिर्फ़ इसी वक़्त उन्हें फ़ुर्सत मिलती। इस तरह उन्होंने अपना पहला छोटा नॉवल, Hear the Wind Sing लिखा।
कितना सुंदर है ऐसा कुछ पढ़ना ना? मुझे अब तो वे दिन भी ठीक से याद नहीं। मगर ऐसा ही होता था ना लिखना। अचानक से मूड हुआ और आधा घंटा बैठे कम्प्यूटर पर और लिख लिए। ना किसी चीज़ की चिंता, ना किसी के पढ़ने का टेंशन। हम किस तरह से थे ना एक दूसरे के लिए। पाठक भी, लेखक भी, द्रष्टा भी, क्रिटिक भी। लिखना कितने मज़े की चीज़ हुआ करती थी उन दिनों। कितने ऐश की। फिर हम कैसे बदल गए? कहाँ चला गया वो साधारण सा सुख? सिम्पल। साधारण। सादगी से लिखना। ख़ुश होना। मुराकामी उसी में लिखते हैं कि वो ऐसे इंसान हैं जिनको रात ३ बजे भूख लगती तो फ्रिज खंगालते हैं...ज़ाहिर तौर से उनका लिखना भी वैसा ही कुछ होगा। तो बेसिकली, हम जैसे इंसान होते हैं वैसा ही लिखते हैं।
बदल जाना वक़्त का दस्तूर होता है। बदलाव अच्छा भी होता है। हम ऐसे ही सीखते हैं। बेहतर होते हैं। मगर कुछ चीज़ें सिर्फ़ अपने सुख के लिए भी रखनी चाहिए ना? ये ब्लॉग वैसा ही तो था। हम सोच रहे हैं कि फिर से लिखें। कुछ भी वाली चीज़ें। मुराकामी। मेरी नयी मोटरसाइकिल, रॉयल एंफ़ील्ड, शाम का मौसम, बीड़ी, मेरी फ़ीरोज़ी स्याही। जानते हो। हमारे अंदर एक भीतरिया बदमास रहता है। थेथरोलौजी एक्सपर्ट। किसी भी चीज़ पर घंटों बोल सकने वाला। जिसको मतलब की बात नहीं बुझाती। होशियार होना अच्छा है लेकिन ख़ुद के प्रति ईमानदार होना जीने के लिए ज़रूरी है। हर कुछ दिन में इस बदमास को ज़रा दाना पानी देना चाहिए ना?
और तुम। सुनो। बहुत साल हो गए। कोई आसपास है तुम्हारे? लतख़ोर, उसको कहो मेरी तरफ़ से तुम्हें एक bpl दे...यू नो, bum पे लात :)
कहा नहीं है इन दिनों ना तुमसे।
लव यू। बहुत सा। डू यू मिस मी? क्यूँकि, मैं मिस करती हूँ। तुम्हें, हमें। सुनो। लिखा करो।
Published on September 01, 2016 07:24
June 20, 2016
लड़की धुएँ से टांक देती उसकी सफ़ेद शर्ट्स में अपना नाम

जिन दिनों तुम नहीं होते हो जानां। तलाशनी होती है अपने अंदर ही कोई अजस्र नदी। जिसका पानी हो प्यास से ज़्यादा मीठा। जिससे आँखें धो कर आए गाढ़ी नींद और पक्के रंग वाले सपने। जिस नदी के पानी में डूब मर कर की जा सके एक और जन्म की कामना।
***
लड़की धुएँ से टांक देती उसकी सफ़ेद शर्ट्स में अपना नाम। लड़के की जेब से मिलती माचिस। उसके बैग में पड़े रहते लड़की की सिगरेट के ख़ाली डिब्बे। लड़की चेन स्मोकिंग करती और लड़के की दुनिया धुआँ धुआँ हो उठती। वो चाहता चखना उसके होंठ लेकिन नहीं छूना चाहता सिगरेट का एक कश भी। लड़के की उँगलियों में सिर्फ़ बुझी हुयी माचिस की तीलियाँ रहतीं। लड़की को लाइटर से सिगरेट जलाना पसंद नहीं था। लड़के को धुएँ की गंध पसंद नहीं थी। धुएँ के पीछे गुम होती लड़की की आँखें भी नहीं। लड़की के बालों से धुएँ की गंध आती। लड़का उसके बालों में उँगलियाँ फिराता तो उसकी उँगलियों से भी सिगरेट की गंध आने लगती। लड़के की मर्ज़ी से बादल नहीं चलते वरना वो उन्हें हुक्म देता कि तब तक बरसते रहें जब तक लड़की की सारी सिगरेटें गीली ना हो जाएँ। इत्ती बारिश कि धुल जाए लड़की के बदन से धुएँ की गंध का हर क़तरा। वो चाहता था कि जान सके जिन दिनों लड़की सिगरेट नहीं पीती, उन दिनों उससे कैसी गंध आती है। सिगरेट उसे रक़ीब लगता। लड़की धुएँ की गंध वाले घर में रहती। लड़का जानता कि इस घर का रास्ता मौत ने देख रखा है और वो किसी भी दिन कैंसर का हाथ पकड़ टहलती हुयी मेहमान की तरह चली आएगी और लड़की को उससे छीन कर ले जाएगी। वो लड़की से मुहब्बत करता तो उसका हक़ होता कि लड़की से ज़िद करके छुड़वा भी दे लेकिन उसे सिर्फ़ उसकी फ़िक्र थी…किसी को भी हो जाती। लड़की इतनी बेपरवाह थी कि उसके इर्द गिर्द होने पर सिर्फ़ उसे ज़िंदा रखने भर की दुआएँ माँगने को जी चाहता था।
वो खुले आसमान के नीचे सिगरेट पीती। उसके गहरे गुलाबी होठों को छू कर धुआँ इतराता हुआ चलता कि जैसे जिसे छू देगा वो मुहब्बत में डूब जाएगा। मौसम धुएँ के इशारों पर डोलते। जिस रोज़ लड़की उदास होती, बहुत ज़्यादा सिगरेट पीती…आँसू उसकी आँखों से वाष्पित हो जाते और शहर में ह्यूमिडिटी बढ़ जाती। सब कुछ सघन होने लगता। कोहरीले शहर में घुमावदार रास्ते गुम हो जाते। यूँ ये लड़की का जाना पहचाना शहर था लेकिन था तो तिलिस्म ही। कभी पहाड़ की जगह घाटियाँ उग आतीं तो कभी सड़क की जगह नदी बहने लगती। लड़की गुम होते शहर की रेलिंग पकड़ के चलती या कि लड़के की बाँह। लड़का कभी कभी काली शर्ट पहनता। उन दिनों वो अंधेरे का हिस्सा होता। सिर्फ़ माचिस जलाने के बाद वाले लम्हे में उसकी आँखें दिखतीं। शहद से मीठीं। शहद रंग की भीं। उससे मिल कर लड़की का दुखांत कहानियाँ लिखने का मन नहीं करता। ये बेइमानी होती क्यूँकि पहाड़ के क़िस्सों में हमेशा महबूब को किसी घाटी से कूद कर मरना होता था। लड़की को सुख की कल्पना नहीं आती थी ठीक से। प्रेम के लौट आने की कल्पना भी नहीं। यूँ भी पहाड़ों में शाम बहुत जल्दी उतर आती है। लड़की उससे कहती कि शाम के पहले आ जाया करे। वो जानती थी कि जब वो लड़के की शर्ट की बाँह पकड़ कर चलती है तो उसकी सिगरेट वाली गंध उसकी काली शर्ट में जज़्ब हो जाती है। फिर बेचारा लड़का रात को ही ठंढे पानी में पटक पटक कर सर्फ़ में शर्ट धोता था ताकि धुएँ की गंध उसके सीने से होते हुए उसके दिल में जज़्ब ना हो जाए। धुएँ की कोई शक्ल नहीं होती, जहाँ रहता है उसी की शक्ल अख़्तियार कर लेता है। अक्सर लड़की से मिल कर लौटते हुए लड़का देखता कि घरों की चिमनी से उठता धुआँ भी लड़की की शक्ल ले ले रहा है।
लड़की सिगरेट पीने जाती तो आँख के आगे बादल आते और धुआँ। वो चाहती कि बालों का जूड़ा बना ले। या कि गूँथ ले दो चोटियाँ कि जहाँ धुएँ की घुसपैठ ना हो सके। मगर उसकी ज़िद्दी उँगलियाँ खोल देतीं जो कुछ भी उसके बालों में लगा हुआ होता, क्लचर, रबर बैंड, जूड़ा पिन। खुले बालों में धुआँ जा जा के झूले झूलता। लड़के को समझ नहीं आता, क़त्ल का इतना सामान होते हुए भी लड़की ने सिगरेट को क्यूँ चुना है अपना क़ातिल। उससे कह देती। वो अपने सपनों में चाकू की धार तेज़ करता रहता। लड़की की सफ़ेद त्वचा के नीची दौड़ती नीली नसों में रक्त धड़कता रहता। लड़का उसके ज़रा पीछे चलता तो देखता उसके बाल कमर से नीचे आ गए हैं। उसकी कमर की लोच पर ज़रा ज़रा थिरकते। लड़की अक्सर किसी संगीत की धुन पर थिरकती चलती। उसके पीछे चलता हुआ वो हल्के से उसके बाल छूता…उसकी हथेली में गुदगुदी होती।
उन्हें आदत लग रही थी एक दूसरे की…लड़के को पासिव स्मोकिंग की…लड़की को रास्ता भटक जाने की। या कि उसके बैग में सिगरेट, माचिस वग़ैरह रख देने की। लड़की देखती धुआँ लड़के को चुभता। इक रोज़ जिस जगह लैम्पपोस्ट हुआ करता था वहाँ बड़े बड़े काँटों वाली कोई झाड़ी उग आयी। लड़के ने सिगरेट जलाने के लिए अंधेरे में माचिस तलाशी तो उसकी ऊँगली में काँटा चुभ गया। अगली सुबह लड़की की नींद खुली तो उसने देखा ऊँगली पर ज़ख़्म उभर आया है, ठीक उसी जगह जहाँ लड़के को काँटा चुभा था। ये शुरुआत थी। कई सारी चीज़ें जो लड़के को चुभती थीं, लड़की को चुभने लगीं। जैसे कि एक दूसरे से अलग होने का लम्हा। वे दिन जब उन्हें मिलना नहीं होता था। वे दिन जब लड़का शहर से बाहर गया होता था। कोई हफ़्ता भर हुआ था और लड़की बहुत ज़्यादा सिगरेट पीने लगी थी। ऐसे ही किसी दीवाने दिन लड़की जा के अपने बाल कटा आयी। एकदम छोटे छोटे। कान तक। उस दिन के बाद से शहर का मौसम बदलने लगा। तीखी धूप में लड़के की आँखें झुलसने लगी थीं। गरमी में वो काले कपड़े नहीं पहन सकता। जिन रातों में उसका होना अदृश्य हुआ करता था उन रातों में अब उसके सफ़ेद शर्ट से दिन की थकान उतरती। वो नहीं चाहता कि लड़की उसकी शर्ट की स्लीव पकड़ कर चले। यूँ भी गरमियों के दिन थे। वो अक्सर हाफ़ शर्ट या टी शर्ट पहन लिया करता। लड़की को उसका हाथ पकड़ कर चलने में झिझक होती। इसलिए बस साथ में चलती। सिगरेट पर सिगरेट पीती हुयी। अब ना बादल आते थे ना उसके बाल इतने घने और लम्बे थे कि धुआँ वहाँ छुप कर बादलों को बुलाने की साज़िश रचता। लड़का उसकी कोरी गर्दन के नीचे धड़कती उसकी नस देखता तो उसके सपने और डरावने हो जाते। लड़की के गले से गिरती ख़ून की धार में सिगरेटें गीली होती जातीं। लड़का सुबकता। लड़की के सर में दर्द होने लगता।
उनके बीच से धुआँ ग़ायब रहने लगा था। धुएँ के बग़ैर चीज़ें ज़्यादा साफ़ दिखने लगी थीं। जैसे लड़की को दिखने लगा कि लड़के की कनपटी के बाल सफ़ेद हो गए हैं। लड़के ने नोटिस किया कि लड़की के हाथों पर झुर्रियाँ पड़ी हुयी हैं। कई सारी छोटी छोटी चीज़ें उनके बीच कभी नहीं आती थीं क्यूँकि उनके बीच धुआँ होता था। लड़की ने सिगरेट पीनी कम करके वैसी होने की कोशिश की जैसी उसके ख़याल से लड़के को पसंद होनी चाहिए। चाहना का लेकिन कोई ओर छोर नहीं होता। लड़की ने सिगरेट पीनी लगभग बंद ही कर दी थी। लेकिन किसी किसी दिन उसका बहुत दिन करता। ख़ास तौर से उन दिनों जब धूप भी होती और बारिश भी। ऐसे में अगर वो सिगरेट पी लेती तो लड़का उससे बेतरह झगड़ता। सिगरेट को दोषी क़रार देता कि उन दोनों के बीच हमेशा किसी सिगरेट की मौजूदगी रहती है। लड़की कितना भी कम सिगरेट पीने की कोशिश करती, कई शामों को उसका अकेलापन उसे इस बेतरह घेरता कि वो फिर से धुएँ वाले घर में चली जाती। वहाँ से उसके लौटने पर लड़का बेवफ़ाई के ताने मारता। इन दिनों लड़के के बैग में ना माचिस होती थी, ना सिगरेट के ख़ाली डिब्बे। इन दिनों लड़की का दिल भी ख़ाली ख़ाली रहता। और मौसम भी।
वो एक बेहद अच्छी लड़की हो गयी थी इन दिनों…और इन्ही दिनों लड़के को लगता था, उसे किसी बुरी लड़की से इश्क़ हुआ था…किसी बुरी लड़की से इश्क़ हो जाना चाहिए।
Published on June 20, 2016 13:54
May 26, 2016
इसलिए तीन बिन्दियाँ | God is a postman (8)

पानी के विस्तार को देख कर मन नदी हुआ जाता है। अपने समंदर को तलाशता हुआ। नदी जब पहली बार पहाड़ों से उतरती है तो उसे कौन बताता है रास्ता। अपनी बेपरवाही में पत्थरों से टकराती, छिलती, राह बदलती नदी चलती जाती है। सही रास्ता तो कोई भी नहीं होता। नदी के कान में कौन फूंकता है समंदर के होने का मंत्र। कोई गुमराह नहीं करता नदी को?
डैम के जस्ट पहले बैराज बना हुआ था जिसमें पानी रोका जाता था डैम में छोड़ने से पहले। वहाँ लोगों के तैरने के लिए जगह थी। कपड़े बदलने का इंतज़ाम भी था। रूद्र और इतरां दोनों पानी में उतर गए थे। बहुत देर तक तैरने के बाद रूद्र पानी में फ़्लोट कर रहा था। उसे यूँ फ़्लोट करना बहुत पसंद था। स्थिर पानी पर पड़े रहना। बाँहें खोल कर। कई बार तो आँखें भी पानी के भीतर कर लेता और पानी के नीचे खुली आँखों से देखता आसमान। ख़ुश नीला। सफ़ेद बादल इधर उधर दौड़ते हुए। कान पानी के नीचे रहते थे तो कुछ सुनायी नहीं देता और सब कुछ पानी के थ्रू दिखायी देता। एक अलग ही दुनिया होती वो। सपनों के जैसी। बहुत शांत। एक तरह का ध्यान होता ये रूद्र के लिए। उसे रामायण की पंक्तियाँ याद आतीं। सरयू में ली राम की जल समाधि। वो अपने मन की शांति में उतरता। सारे ख़याल एक एक करके पानी में घुलते जाते। सारा दुःख भी।
इतरां के साथ डैम पर आने का प्लान भी इसलिए बनाया था कि थोड़ी देर फ़्लोट करेगा तो मन शांत होगा। इतरां के जाने का सोच सोच के उसकी रातों की नींद उड़ी हुयी थी इन दिनों।। इतरां कोई पाँच साल की रही होगी जब रूद्र ने उसे तैरना सिखाया था। लेकिन उसे फ़्लोट करने में हमेशा डर लगता रहा। इतने दिन हो गए कभी फ़्लोट नहीं करती। कितनी ही बार उसने समझाया। कर के दिखाया लेकिन नहीं। फ़्लोट करते हुए अपने ‘सम’ तक पहुँच रहा था रूद्र कि जब सारे ख़याल ग़ायब हो जाते और एक सुकूनदेह ब्लैंकनेस होती। ख़ालीपन। जिसमें कुछ दुखता नहीं। जैसे किसी दुस्वप्न में इतरां चीख़ी, ‘रूssssssssssद्र’ सेकंड के उस हिस्से में रूद्र की धड़कनें इतनी तेज़ हो गयीं कि जैसे इतरां मर चुकी हो। सारा दुःख। सारी घबराहट। अब क्या हुआ लड़की को, डूब तो नहीं रही। हड़बड़ाया और चारों ओर देखा ‘आइ एम फ़्लोटिंग’, इतरां की आवाज़ कानों से टकरायी और थोड़ी दूर में वो फ़्लोट करती दिखी। उस घबराहट में पहले रूद्र को इतना ग़ुस्सा आया कि पानी में ही थप्पड़ मारने का दिल किया। मगर फिर तैर कर बाहर निकल आया। लम्हे भर को ही इतरां को खोने का डर इतना ज़्यादा था कि कई दिनों तक उसकी धड़कन बढ़ी रहने वाली थी।
इन दिनों इतरां के साथ बिताए हुए लमहों को रिवाइंड में जी रहा था रूद्र। आज पानी में तैरते हुए फ़िल्म अपने पहले लम्हे तक पहुँच गयी थी। इतरां ने जैसे ‘cue’ पर पुकारा था रूद्र का नाम। जिस दिन पहली बार इतरां से मिला था। शाम के वक़्त इतरां बोल के गयी थी कि कल आएगी। उस रात पहली बार रूद्र को इतरां के मर जाने का डर लगा था। जैसे कभी आएगी ही नहीं लौट कर। फिर आज ये दूसरी बार था कि उसे लगा इतरां मर जाएगी। इतरां को खो देने डर बहुत गहरा था। डैम की ओवेरफ़्लो कैपैसिटी जितना गहरा। उसका ख़ुद का नाम उसकी तन्द्रा के गहनतम शांत को तोड़ चुका था।तर्क वहाँ तक नहीं पहुँचते। इतरां ने कैसे पुकारा था उसे। उसका नाम सिर्फ़ नाम था। नाम के साथ कोई भाव, राग, आवेश नहीं जुड़ा था। किसी बिंदु पर हम अपने समग्र में होते हैं। एक बिंदु पर पूरी तरह समग्र और सांद्र। ये बिंदु वक़्त और स्पेस से इतर हमारे होने में होता है। इतरां उसका नाम लेकर उस बिंदु को छू चुकी थी। उस बिंदु में शामिल हो चुकी थी। जैसे उस बेहद छोटे बिंदु की एक बहुत ही महीन चौहद्दी थी। इतरां। उसके होने के इर्द गिर्द। उसकी सीमारेखा। उसकी डेफ़िनिशन।
चीज़ों को उनकी जगह सील कर देने का एक ही तरीक़ा इंसान ने इजाद किया था। आग। शादी में आग के फेरे लिए जाते थे। चिट्ठियों पर लाल लाह को पिघला कर मुहर लगायी जाती थी। क़ैदियों को गरम लोहे से दाग़ दिया जाता था। रूद्र ने सिगरेट जला ली। यूँ वो इतरां के सामने कभी सिगरेट नहीं पीता था मगर इस लम्हे को आग में परख कर पक्का कर देना चाहता था। अपने नाम के होने को। सिगरेट का लाल सिरा उसका नाम जलाते जा रहा था। रूह के गहरे अंधेरे में। रू। द के आधे हिस्से को उसने अलगाया था उँगलियों की थिरकन से सिगरेट के सिरे पर की राख के साथ, कि धूप को रोकती इतरां खड़ी थी सामने, ‘मुझे भी दो’। उससे लड़ने का या समझाने का कोई फ़ायदा नहीं था। रूद्र सिर्फ़ मुस्कुराया। ‘मेरी सारी बुरी आदतें सीख ही लोगी या छोड़ोगी भी कुछ?’। सिगरेट का पहला कश लेते हुए इतरां के चेहरे पर इतनी शैतानी थी जैसे पहले दिन स्कूल बंक करने पर थी। ‘ट्रायल बाय फ़ायर रूद्र। बुरी आदतों के बाद भी अगर अच्छी रह गयी तब ना ग़ुरूर आएगा कि ज़िंदगी को अपने हिसाब से जिया है’। ‘ताब, यू नो, ताब होनी चाहिए…और बिना आग के ताब कहाँ से आएगी’। वे पीठ से पीठ टिकाए बैठे थे। हर कुछ कश के बाद सिगरेट पास करते। इतरां की जूठी सिगरेट गीली हो जाती थी। रूद्र को हँसी आ रही थी उसपर। ‘इत्ति सी इतरां, लेकिन बातें बनवा लो इससे बड़ी बड़ी। कहाँ से सीखी हो रे ऐसा गप्प बनाना?’ पूछते हुए भी रूद्र को इतरां का जवाब मालूम था। ‘तुमसे। और किससे’।
सिगरेट ख़त्म ही हुई थी कि एक चाय वाला पहुँच गया। इस वक़्त जैसे चाय की ही तलब थी। फिर दुनिया एकदम पर्फ़ेक्ट हो जाती। दोनों ने एक एक कप चाय ली और एक पलाश के पेड़ के नीचे जा बैठे। वहाँ हल्की हल्की छांव थी और नीचे बहुत से पलाश के फूल गिरे हुए थे। इतरां चाय पीते हुए पलाश के फूल की पंखुड़ियों को ऊँगली में मसल रही थी और उनका लाल रंग निकाल रही थी।
‘मैं अपना सीक्रेट सुनाऊँ रूद्र?’
‘हाँ। बता। ऐसा क्या है तेरे बारे में जो मैं भी नहीं जानता’।
इतरां ने अपनी बायाँ हाथ दिखाया रूद्र को। नब्ज़ के ठीक ऊपर दो गहरे काले निशान थे। एक दूसरे की सीध में।
‘तुम पहेलियाँ बूझते हो?’
‘तुम पूछो…देखता हूँ’
‘ये दो बिंदी देख रहे हो रूद्र। जब मैं छोटी थी तो मुझे साँप ने काट लिया था’
‘यही सीक्रेट है तेरा? मुझे मालूम है कि तेरी ही ख़ुराफ़ात से डॉक्टर हरि को सब कोई हरहरिया साँप बोलता है। मालूम है मुझे ये बात’। रूद्र उसकी बात को काटते हुए बोला।
‘नहीं। उफ़्फ़। रूद्र। पेशेंस। पूरी कहानी सुनो तुम। जब साँप ने मुझे काटा था तो मैं एक मिनट के लिए मर गयी थी’
‘कुछ भी…बेहोश हुयी होगी बस।’
‘यही सबको लगता है। लेकिन मैं बेहोश नहीं हुयी थी। मर गयी थी। मर के मैं जहाँ पहुँची वहाँ बहुत अंधेरा था और गहरी लाल रोशनी थी। जैसे फ़ोटो स्टूडीओ में होती है ना। वैसी। मुझे लगा कि मैं ओपेरेशन थिएटर में आ गयी हूँ। वहाँ कुछ महसूस नहीं हो रहा था। मैं बस थी। और कुछ ख़याल थे। जैसे सपनों में होते हैं। मुझे लगा कि कोई बुरा सपना है। मगर फिर ऐसा लगा कि माही है। कुछ बातें थीं जो मुझे उस वक़्त कुछ समझ नहीं आ रही थीं। बिंदुओं के बारे में। होने के बारे में। मैं बहुत छोटी थी ना। मगर अभी अचानक से समझ आयी हैं चीज़ें। देखो ये जो पहला बिंदु है ना। वो खुदा है। ईश्वर। सब कुछ इसी बिंदु पर शुरू और ख़त्म होता है। टाइम। स्पेस। सब कुछ सिर्फ़ एक पोईंट था। ये पहला बिंदु वो है। दूसरा बिंदु जो है, वो माँ है। माही। माही ने ईश्वर से कहा कि मेरी कहानी शुरू होनी चाहिए। उसने मुझे माँगा। ख़ुद को ईश्वर के सामने रख के। दूसरे बिंदु के आने से मेरा होना वजूद में आया…और असल पहेली अब आती है…तीसरे बिंदु की। तीसरा बिंदु होगा इश्क़। तुम इश्क़ समझते हो?’
‘नहीं। तुम समझाओ’।
‘देखो। जो तीसरा बिंदु होगा ना, इश्क़, वही इस पहेली का डिफ़ाइनिंग हिस्सा है। वो ऐसे कि देखो…ज़िंदगी एक कहानी होती है या एक इक्वेशन होती है…कहानी अधूरी भी हो सकती है मगर इक्वेशन सॉल्व हो जाता है अक्सर। तो ईश्वर से अगर मेरी ज़िंदगी की कहानी पूरी हो गयी, माने इक्वेशन सॉल्व हो गया तो ये तीसरा बिंदु जो होगा इश्क़, वो मेरी ज़िंदगी को मुकम्मल करेगा। तब इसकी जगह होगी यहाँ, इन बिंदुओं के ऊपर, ऐसे ∴ यानी कि ‘therefore’ जैसे किसी मैथ के इक्वेशन के अंत में लिखते हैं ना। जब लेफ़्ट और राइट दोनों तरफ़ की चीज़ें सुलझ जाती हैं तो। अगर मेरी ज़िंदगी का इश्क़ मुकम्मल हुआ तो ये बिंदु इन दोनों बिंदुओं के ऊपर उगेगा मेरी कलाई में। लेकिन अगर इस जन्म में मेरी ज़िंदगी में अधूरापन होगा, क्रमशः, टू बी कंटिन्यूड जैसा कुछ, कि अगर मेरी कहानी आधी ही रह जाने वाली है, इश्क़ अगर अधूरा छोड़ेगा मुझे तो जो तीसरा बिंदु होगा, वो इन दोनों बिंदुओं के आगे लगेगा, सीधी लकीर में, एक ellipsis … ’
‘ellipsis या कि therefore. यानी कि एक बिंदु उगेगा और उससे तुझे पता चलेगा कि तेरी ज़िंदगी अधूरी रहने वाली है या मुकम्मल?’
‘हाँ। तुम समझ रहे हो मैं क्या कह रही हूँ? अभी तो मुझे भी पूरी पूरी तरह ठीक से समझ नहीं आया है। लेकिन मुझे लगता है कि अगर कोई समझ सकता है इस बात को तो बस तुम ही हो। मेरी नब्ज़ में बहती चिट्ठियाँ भी तो और किसी को नहीं महसूस होतीं’।
‘तुझे कैसे यक़ीन है कि एक बिंदु उगेगा ही?’
‘जैसे मुझे हमेशा मालूम था कि एक दिन तुम चले आओगे अचानक से ज़िंदगी में। और रह जाओगे हमेशा के लिए’
‘लेकिन ये therefore वाला सिम्बल कोई नयी चीज़ नहीं है। तूने बंज़ारों को देखा है ना? वे इसी सिम्बल के गोदने गुदवाते हैं अपने बदन पर। हमेशा से’
‘हाँ रूद्र। उन्हीं को देख कर तो मुझे पहेली समझ आयी। वे ख़ुद को दिलासा देते हैं कि उनकी ज़िंदगी की कहानी उनके ख़ुद के हाथ में है, किसी खुदा के हाथ में नहीं’।
‘तुझे नहीं लगता कि तेरी ज़िंदगी तेरे ख़ुद के हाथ में है?’
‘रूद्र, मेरे हाथ देखो…तुम्हें नहीं लगता खुदा के हाथ मुझसे ज़्यादा ख़ूबसूरत होते होंगे? मैं क्यूँ अपनी ज़िंदगी छीनूँ उसके हाथ से। लिखने दो ना जो उसका दिल करे…और फिर ज़्यादा कुछ होगा तो माही है ना। इसलिए तो वहाँ डेरा जमा के बैठी है। क्या बोलते हो तुम? कैसा लगा मेरा सीक्रेट? बताओ, मालूम था ये तुमको मेरे बारे में?’
‘मेरी इत्ती सी इतरां, तुझे कभी कभी सुन कर लगता है कि मुझे ख़ुद के बारे में भी कुछ नहीं मालूम है’
‘अच्छा, एक प्रॉमिस करोगे?’
‘अब क्या चाहिए तुझे?’
‘ये बात याद रखना। अगर कभी मैंने ज़िंदगी में तुमसे कहा कि मैं टैटू बनवाना चाहती हूँ तो मुझे ये वाली दोपहर याद दिला दोगे? हो सकता है मैं फिर भी खुदा को ओवररूल करना चाहूँ। मगर तुम याद दिला दोगे? बस इतना कि खुदा के हाथ मेरे हाथों से ज़्यादा ख़ूबसूरत हैं।’
‘और जो मेरा दिल किया खुदा को ओवररूल करने का तो? मैंने ईश्वर के हिस्से ज़िंदगी का एक निर्णय छोड़ा था। मैंने उसके हिसाब से जी है ज़िंदगी। तुम्हें भी उसी रास्ते जाने दूँ? तुम्हारा रास्ता रोकने का दिल करेगा तो? तुम्हें कहीं से लौटा लेने का दिल करेगा तो?’
‘कोई आसान सवाल नहीं है तुम्हारे पास जिसका मैं जवाब दे सकूँ?’
‘तुम्हारे सवालों की गहराई तुम्हारी अक़्ल से गहरी है। मैं क्या ही करूँ मेरी इतरां’
‘कुछ मत करो। मेरे हाथ ठंढे हो गए हैं। थोड़ी देर इन्हें अपने हाथ में लेकर बैठो बस।’
‘तुम्हारी जान इश्क़ में ही जानी है मेरी इतरां, दुनिया में और कोई आफ़त तुम्हें छू नहीं सकती’
‘अच्छा। चलो, एक सिम्पल सवाल पूछती हूँ अब तुमसे, व्हीली सिखाओगे?’
‘तुम्हें मना कर पाया हूँ किसी बात के लिए कभी। सिखा दूँगा। पहले बाइक पर ठीक से कंट्रोल करना सीख लो। अभी तो पूरा एक महीना है।’
‘एक गाना सुनाओ ना रूद्र। मन कैसा कैसा ना तो हो रहा है’
‘इत्तु, अभी कुछ भी और माँग लो। गाना नहीं हो पाएगा। तू ही गा दे कुछ।’
‘रेशमा को गाऊँ?’
‘अक्सर शबे तन्हाई में?’
‘हाँ’
‘हम दोनों मर जाएँगे रे इतरां’
‘ये वाली दोपहर हम कभी नहीं भूलेंगे ना? कभी भी नहीं ना?’
‘बीते हुए दिन ऐश के…’
इक गहरी ख़ामोशी में पानी ठहर गया था। बारिशों में बहुत बहुत दिन थे। इतरां की आवाज़ रूद्र की रूह पर खुरच कर लिख रही थी उसका ही नाम या कि पलाश के पेड़ के तने पर। दर्ज करती जा रही थी लम्हे की गंध। अभी तो उसने देखा ही नहीं था बचपन का गुज़रना फिर आवाज़ का ये मरहम था या ज़ख़्म। ये कौन सी टीस घुल रही थी। गीत ख़त्म होते होते दोनों की आँखें भर आयी थीं और इस पानी पर कोई बाँध नहीं था। कोई डैम नहीं। कोई बैराज नहीं। वे उस गीत में घुल गए थे। एक इनफ़ाईनाइट लूप में। हमेशा से, हमेशा तक।
***
लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. कहानी की ये 8वीं किस्त है. इसके पहले के हिस्सों के लिए इस लेबल पर क्रमवार पढ़ें।
इतरां: God is a postman
Published on May 26, 2016 09:23
May 24, 2016
व्हीली - स्लो मोशन पागलपन। God is a postman | (7)

‘दादी सरकार ने तुम्हारा नाम इतरां रख दिया। मैं होता ना तो हरगिज़ इतरां नहीं रखने देता।’
‘अच्छा। क्या ही नाम रखते तुम?’
‘आफ़त…तुम्हारा नाम सिर्फ़ और सिर्फ़ आफ़त रखा जा सकता था’।
पहले दिन बाइक ट्रिप से लौट कर रूद्र ने इतरां को बताया था कि वनस्थली रेसीडेंशियल स्कूल के लिए फ़ॉर्म ले आया है और वहाँ उसे जाना होगा कि गाँव में कोई अच्छा स्कूल नहीं है। इतरां ने कहा था कि रिज़ल्ट आने के दिन तक अगर रूद्र उसकी हर बात मानेगा तो वो इस बारे में सोचेगी। इसका मतलब ये भी था कि आने वाला एक महीना रूद्र को गाँव में ही रुकना पड़ेगा। उपाय ही क्या था। इतरां यूँ भी किसी छोटी चीज़ से तो मानने वाली थी नहीं।
दोनों मिल कर प्लान कर रहे थे कि क्या क्या किया जा सकता है एक महीने में। ये आख़िरी महीना था आज़ादी का। बचपने का। इसके बाद हॉस्टल जा कर इतरां को होशियार होना पड़ेगा और ख़ुद का ख़याल ख़ुद से रखना पड़ेगा। हालाँकि रूद्र कह रहा था उससे कि उसके लिए इतरां हमेशा वही छोटी सी बच्ची रहेगी जिसे वो पहली बार गाँव के बाहर मिला था, और जिसने कमर पर हाथ रख के डराते हुए कहा था कि उसकी इजाज़त के बिना कोई गाँव नहीं जा सकता।
बात इतरां की होती थी तो सारे नियम कैसे इधर उधर कर दिए जाते थे ये देखने लायक चीज़ थी। घर पर बड़ी सरकार ने सारा इंतज़ाम कर दिया था। इंदर का बहुत दिन से जीप ख़रीदने का मन भी था और गाँव से सबको आने जाने में भी आसानी हो जाती। बारिश के दिनों में अस्पताल जाने में या पेशेंट देखने जाने में दिक़्क़त होती थी। फिर ये भी तो था कि इतरां को साल में कई बार आना जाना पड़ेगा। उसके बक्से वक्से स्टेशन से लाने में काम आता। इसी बहाने घर में जीप आ गयी और इतरां ने इंदर की बाइक अपने नाम ही रख ली। अगले दिन उसने चवन्नी को फुसला लिया और उसके बाबूजी की कावासाकी आरटीज़ेड उठा लायी कि रूद्र और वो दोनों रोड ट्रिप पर मसानज़ोर डैम जाएँगे। तिलिसमपूर से कोई सौ किलोमीटर का रास्ता था और इतनी दूर रूद्र हरगिज़ इतरां के साथ बाइक पर पीछे बैठ के जाने के मूड में नहीं था। इतरां के साथ रहते हुए रूद्र भूल जाता था कि इतरां उसे अपना हीरो मानती है और उसे एक अच्छी मिसाल देनी चाहिए। इतरां के साथ होने में वो अपनी उम्र भूल जाता था और लड़कपन के उन दिनों में लौट जाता था जब कि कुछ टूटने का डर नहीं लगता था। इतरां के साथ जैसे उसपर भी टीनेज चढ़ रही थी।
डैम के पहले के रास्ते में नदी मिली थी और पूरे रास्ते अच्छा घास का मैदान था। इतरां ने रूद्र से बाइक बदल ली कि वो कावासाकी चलाएगी। नयी बाइक का अंदाज़ा नहीं था…गियर डाल कर जैसे ही क्लच छोड़ा ग़लती से ऐकसिलेरेटर पूरा घूम गया…हल्की बाइक थी…बाइक का अगला पहिया हवा में और आधे सेकंड की व्हीली…और फिर धड़ाम…बाइक ऊपर…इतरां नीचे। रूद्र के बाइक किनारे में फेंक के दौड़ने के पहले तक घुटने वुटने, कोहनी, छिल चुके थे। वो तो घास थी वरना और चोट आती। रूद्र ने पहले तो सारी हड्डियां हिला डुला कर देखीं कि कुछ टूटा तो नहीं है। फिर रूमाल निकाल कर ख़ून पोछा। पट्टी बांधी। इतरां रोनी सी शक्ल बनाए थी और रूद्र को हँसी आ रही थी बेतरह। ख़ूब देर घास पर पड़े पड़े हँसता रहा। और यहाँ इतरां का ख़ुराफ़ाती दिमाग़ कोई और ही प्लानिंग कर रहा था।
‘तुम्हें व्हीली आती है ना रूद्र?’
‘हाँ आती है। तो?’
‘मुझे सिखा दो।’
‘अच्छा। ये हाथ पैर छिला के मन नहीं भर…टूटेगा तब ठंढ पड़ेगा कलेजा में?’
‘मुझे व्हीली सिखा दो’
‘काहे सिखाएँ?’
‘क्यूँकि तुमको आता है’
‘तो?’
‘तो हमको वो सब सीखना है जो तुमको आता है।’
‘क्यूँ?’
‘क्यूँकि हमको तुम्हारे जैसा बनना है एकदम’
‘मेरे जैसा कैसा होता है?’
‘जिसको डर नहीं लगता’
‘तुमको डर लगता है?’
‘नहीं’
‘तो फिर मेरे जैसा क्या ही बनना है। हो ना तुम मेरे जैसी।’
‘हमको व्हीली सिखा दो’
‘नहीं सिखाए तो?’
‘तो हम ख़ुद से सीखेंगे और ज़्यादा चोट लगेगा’।
‘अभी पहले बाइक ठीक से चलाना सीख लो। फिर व्हीली भी सिखा देंगे’
‘प्रॉमिस?’
‘हाँ प्रॉमिस’
‘चलो ठीक है, पर व्हीली कर के तो दिखा दो…हम देखे भी नहीं हैं किसी को व्हीली करते हुए’
‘और जो मेरा हाथ पैर टूटा तो हम दोनों को घर कौन ले जाएगा?’
‘रूद्र, प्लीज़, हमको मालूम है तुमको बहुत अच्छे से व्हीली आता है। दिखा दो ना। नहीं तो हम हॉस्टल नहीं जाएँगे’।
कुछ लोग जन्म से ही बावले होते हैं। झक्की। पागल। दीवाने। बौराए। मस्त। अपने में खोए। उनकी अपनी ही दुनिया होती है। रूद्र ऐसा ही था। करने के पहले सोचने की आदत नहीं थी रूद्र को। अंग्रेज़ी में इसे डेरिंग करते हैं। हिंदी में पागलपन ही। ज़िंदा। ज़िंदादिल। बगरो के जाने के पहले रूद्र ऐसा ही था। ज़िंदगी से लबालब भरा हुआ। छलकता हुआ। मगर फिर जैसे प्याला टूट गया था और सारी ज़िंदगी बह गयी थी। रूद्र ने ख़ुद को समझा लिया था और हिसाब की ज़िदंगी जीता था। यूँ भी जिसके ईश्वर भी उसके फ़ैसलों के ख़िलाफ़ जाएँ उसके लिए अपील करने की जगह ही कहाँ बचती है फिर। माही के आने से कुछ दिन का ठहार लग रहा था लेकिन माही के जाते साथ रूद्र का बौरायापन फिर से दिशाहीन हो गया था। उसकी ज़िंदगी में शब्द बचे थे सिर्फ़। कहानियाँ। किताबें। लोगों की ज़िंदगी में इन्हें भरता रहता था बस। मगर इस सबके बीच इतरां अपने नन्हे क़दम रखते चली आयी थी। जिस दिन रूद्र का हाथ पकड़ घर में दुबारा लायी थी उस लम्हे ही वो रूद्र की ‘सरकार’ हो गयी थी। क़ायदे से उसे तानाशाह कहना चाहिए था कि इतरां जी भर कर मनमानी करती थी रूद्र के साथ। मगर फिर इतरां जैसा कोई आया कहाँ था रूद्र की ज़िंदगी में। टूटा फूटा रूद्र इतरां के हाथ में कच्ची मिट्टी हो जाता था। इतरां उसे मनचाहा आकार दे देती थी। ज़िंदगी फिर से ठहरने लगती थी। साँस यूँ आती जाती थी जैसे कि साँस लेना दुनिया का सबसे आसान काम हो। रूद्र को टूटने से डर कहाँ लगता था इतरां के साथ।
हमें अपने पागलपन को वश में करने में बहुत वक़्त लगता है। कई सारे मुलम्मे चढ़ाने पड़ते हैं। धीरे धीरे हम ख़ुद को भूलना सीखते हैं। ये भूलना मगर किसी सोए हुए ज्वालामुखी की तरह होता है। किसी भी दिन टेक्टानिक प्लेट्स हिलती हैं और अंदर का गरम लावा फूट कर बह निकलता है। लावा अपने रास्ते सब कुछ जलाता जाता है और फिर ऊर्वर मिट्टी बन जाता है। जिसमें फिर कुछ भी उगाया जा सकता है। चावल। मीठे फल। तम्बाकू या कि गहरे लाल गुलाब ही।
शैतान की बच्ची ऐसे ही थोड़े कहते थे इतरां को…दुनिया के सारे कांड उसे मालूम रहते थे। लेकिन ये रूद्र की व्हीली के बारे में चुग़लख़ोरी कौन किया है। आज कर के दिखाएगा तो कल ही बोलेगी कि हमको करना सिखाओ। बड़ी सरकार मार डालेगी अगर देखेगी कि इतरां व्हीली कर रही है। उसपर शैतान इतरां, गाँव के सारे लड़कों के सामने शो ऑफ़ करेगी अलग। व्हीली करना आसान नहीं है। उसपर बुलेट भारी बाइक होती है। उसका बैलेन्स बनाना आसान नहीं है। बात फैलेगी। कौन करेगा इस पगली से शादी फिर। रूद्र अपने आप को समझा रहा था जब कि उसे भी मालूम था कि इतरां के सामने हथियार डालने ही पड़ेंगे। एक बार लड़की ने बात पकड़ ली तो किसी की नहीं सुनेगी। दोनों घास पर पड़े हुए थे। वसंत की दोपहर थी। गरमियों की आहट और आम के बौर की महक से भरी हुयी। रूद्र इन लम्हों से जेबें भर लेना चाहता था। इतने सारे कि ज़िंदगी काटी जा सके उनके भरोसे।
इतरां ने तुरूप का पत्ता चला। एकदम से लाड़ से रूद्र के पास खिसक आयी और उसके कंधे पर अपना सर टिका दिया और गाल में गाल सटाते हुए कहा, ‘रूद्र, देखो, अगर तुम हमको व्हीली सिखा दोगे तो तुमको हम एक सीक्रेट बताएँगे।’
‘अच्छा तो इत्ति सी इतरां के बड़े बड़े सीक्रेट्स हैं जिनके बारे में जानने के लिए मुझे ही घूस देनी होगी। मुझे नहीं जानना तेरे किसी भी सीक्रेट के बारे में। अभी तो सिर्फ़ देखने की बात हो रही थी…ये सिखाने की बात कहाँ से आयी? मैं तुझे हरगिज़ व्हीली करके नहीं दिखा रहा।’
‘यानी तुम्हें पक्का आता है।’
‘देखो। इतरां। बहुत पिटोगी तुम अब। मैंने कब बोला मुझे व्हीली नहीं आती है। लेकिन मैं हरगिज़ तुझे दिखा नहीं रहा। तू फिर बदमाशी करेगी कि मुझे सीखना है। और ये चवन्नी के बाबूजी की बाइक तोड़ दोगी तुम अलग’।
‘अच्छा चलो कॉम्प्रॉमायज़। वैसे तो मैं नहीं करती। लेकिन मैं इतना प्यार और किसी से करती भी नहीं ना। तुम तो जानते हो रूद्र। तुम पूरी दुनिया में मेरे फ़ेवरिट हो। आज व्हीली दिखा दो बस, उसी में मैं तुम्हें एक एकदम कमाल का सीक्रेट बताउँगी’
‘मुझे तेरे सारे सीक्रेट्स पता हैं’
‘ये वाला नहीं पता है। ये हमको ख़ुद ही कल पता चला है’
‘चलो ठीक है। पहले बताओ। अगर काम का लगा तो व्हीली दिखा दूँगा’
‘नहीं। ऐसे तो तुम बेईमान हो, एक काम करते हैं। तुम व्हीली दिखा दो। फिर मैं सीक्रेट बताती हूँ। अगर तुमको अच्छा लगा तो व्हीली सिखा देना। फ़ेयर डील?’
‘शैतान की बच्ची। तेरे साथ कोई भी फ़ेयर डील होती है ज़िंदगी में। तानाशाही करती हो तुम’
‘रूद्र व्हीली दिखा दो। प्लीज़। देखो मिन्नत कर रहे हैं हम। वो भी हम। देखो। प्लीज़ बोले ना। मान जाओ वरना गुदगुदी लगा देंगे’
इतरां के पास रूद्र की सारी चाभियाँ थी। उसके पागलपन का कौन सा हिस्सा कैसे अन्लाक करना है सब पता था इतरां को। लाड़। दुलार। धमकी। सबका मिला जुला कॉम्बिनेशन थी शैतान। उससे जीतना क्या ही मुमकिन होता।
रूद्र ने कच्ची सड़क पर कावासाकी उतारी…उसे ख़ुद भी याद नहीं था कि आख़िरी बार व्हीली कब की थी। शायद बगरो को जिस दिन दशहरा मेला में घुमाने ले गया था उस दिन। धुँधली सी याद में तेज़ होती धड़कन और बगरो की घबरायी हुयी चीख़ थी जब उसने रूद्र को पहली बार व्हीली करते हुए देखा था। बगरो को कुछ भी बोल लो वो पैंट शर्ट पहनने को तैयार नहीं हुयी अब साड़ी में उसे बाइक पर बिठा कर व्हीली तो नहीं कर सकता था। अकेले ही की थी। हाँ उसके सपनों में एक ऐसा दिन ज़रूर था कि बगरो को ज़िद करके मना लेगा और किसी दूसरे देश में घूमते हुए पहाड़ों की धूप के बीच व्हीली करेगा…ऐसी तीखी ढलान पर कि उड़ने का अहसास आए। वे सपने अब किसी और जन्म के लगते थे। कभी बेहद धुँधले दिखते तो कभी एकदम चमकीले।
कावासाकी की रफ़्तार बढ़ती जा रही थी। बदन में बहते ख़ून की भी। दिमाग़ झनझना रहा था। पागलपन का स्वाद जिसने चखा हो उसकी ज़बान पर लौटता ज़ायक़ा बहुत तीख़ा लगता है। बहुत तेज़ बहती हवा। आम के बौर की गंध। पलाश का धुँधलाता लाल रंग। धूल का ग़ुबार। रूद्र चीख़ा था इतरां के लिए, ‘ज़ोर से पकड़ इतरां…हम उड़ने वाले हैं’। इतरां की उँगलियाँ उसके कंधों में धँसतीं गयीं थीं। एक लम्हे का बेतरह फ़ास्ट फ़ॉर्वर्ड था…बाइक की रफ़्तार बदन में ख़ून की रफ़्तार से तेज़ होती गयी। ठीक सम पर पहुँचते ही रूद्र ने फ़ुल ऐक्सेलरेटर मारा, हैंडिल को खींचा ऊपर और पहला पहिया हवा में…वे ज़मीन और आसमान के ठीक बीच थे…सच और सपने के ठीक बीच भी…व्हीली बमुश्किल दस सेकंड की थी लेकिन उसका हर सेकंड स्लो मोशन में महसूस हुआ था। धूल का स्वाद। आँख के आगे का आसमान। हैंडिल पर की ग्रिप। इतरां। रूद्र। दोनों। पागल। उस लम्हे दोनों एक ही थे। पागलपन में। रफ़्तार में। वक़्त के होने और ना होने के बीच।
जब दुनिया पागलपन की रफ़्तार से घूमनी बंद हुयी तो इतरां और रूद्र ने अपनी अपनी बाइक उठायी और एक दूसरे से रेस करते हुए मसानज़ोर डैम पहुँचे। डैम के पुल पर पानी की फुहार आ रही थी। डाइनमो पर पानी गिर रहा था और बिजली का उत्पादन हो रहा था। सूरज की किरणों में पानी की बूँदों से इंद्रधनुष बन रहा था। रूद्र को पुल बहुत पसंद थे। उसे लगता था पुलों पर बिताए हुए पलों की गिनती ज़िंदगी के दिनों में नहीं होती। ये बीच के लम्हे होते हैं। दो जगहों के बीच। दो लोगों के बीच भी। कहीं पहुँचते हुए कहीं से चलते हुए। बीच के लम्हे। हवा में अटके हुए लोग।
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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की 7वीं किस्त है. इसके पहले के हिस्सों के लिए इस लेबल पर क्रमवार पढ़ें।
इतरां: God is a postman
Published on May 24, 2016 04:30
May 19, 2016
दुनिया का सबसे ख़तरनाक, सबसे दिलफ़रेब शब्द- हमेशा | God is a postman (6)

इतरां के दसवीं के एक्ज़ाम के समय रूद्र घर आया हुआ था। इतरां की ज़िद थी। चिट्ठी आयी थी उसकी। ‘मैं नर्वस हो रही हूँ। तुम्हें मेरी कोई परवाह है भी कि नहीं। मेरा रिवीज़न करवा दो। फ़ेल हो गयी तो तुम डूब मरना’।
रूद्र की बहती हुयी ज़िंदगी को मनचाहा अगर कोई मोड़ सकता था तो वो बस इतरां ही थी। पूरा घर और गाँव काफ़ी नहीं था उसे बिगाड़ने को कि रूद्र के साथ भी मनमानी करती थी। रूद्र की यायावर ज़िंदगी में मील के पत्थर इतरां ही लगाती चलती थी। किताबें इस तेज़ रफ़्तार पढ़ती थी कि रूद्र को हर कुछ दिन में गाँव का चक्कर लगाना ही पड़ता था। इतरां की फ़रमाइशें भी तो दुनिया जहान से अलग होती थीं। बचपन से उसे कविताएँ पढ़ा रहा था रूद्र। वे किसी एक देश को चुनते और फिर वहाँ के साहित्य में डूबते। वहाँ के लोग। वहाँ का माहौल। वहाँ के लेखकों की चिट्ठियाँ। सब कुछ ही तो। आधे आधे में इतरां का जी नहीं भरता। कभी ज़िद करती कि वहाँ के पोस्टकार्ड देखने हैं। वहाँ के स्टैम्प्स देखने हैं। तब रूद्र दूर देश घूमने निकल जाता। सिर्फ़ इसलिए कि इतरां को पोस्टकार्ड भेज सके। फ़्रान्स। चेकस्लोवाकिया। कम्बोडिया। ग्रीस। इटली। नॉर्वे। कांगो। पेरू। हर बार की तस्वीरों के साथ आता वहाँ का संगीत। लोकगीतों की धुन। रूद्र उन दिनों घर आता तो देर शाम दोनों मिल कर गीत लिखा करते। वे जाड़ों के दिन होते थे अक्सर। रात को अलाव जला कर रूद्र अपना गिटार निकाल लाता। इतरां की त्वचा इतनी बारीक और सफ़ेद थी कि उसमें दौड़ती नसें दिखतीं। रूद्र जब उसकी नब्ज़ पर ऊँगली रखता तो इतरां की चिट्ठियाँ उसे सुनायी पड़तीं। रूद्र उसकी नब्ज़ चूम लेता। इतरां की चिट्ठियां उसके होठों पर गीत बन तड़पतीं। दूर गाँव के लोग पहली बार जानते कि उदासी हर वाद्य यंत्र पर एक ही सम्मोहन रचती है। उसकी धुनें गाँव के चूल्हों में घुलने लगतीं तो उनसे बहुत धुंआ निकलने लगता। औरतें आँचल की कोर से अपनी आँख का धुंआ पोछ्तीं तो उन्हें उसमें गाँठ लगाये चिट्ठियां मिल जातीं। वे गांठें जो माही के गुज़र जाने के बाद कभी नहीं खुलीं। हर बार धुलती साड़ियाँ और गांठें और पक्की होती जातीं। रूद्र का गीत इन गाँठों को खोलता। इन चिट्ठियों को भी।
थ्योरी के एक्ज़ाम हो गए थे सारे बस प्रैक्टिकल बाक़ी था। उसमें क्या ही पढ़ना था। इतरां रूद्र के साथ आम के पेड़ के पास बैठी हिसाब लगा रही थी कि एक्ज़ाम के बाद की छुट्टियों का क्या करना है। किस पेड़ पर कितने आम फलेंगे वग़ैरह। रूद्र किताब पढ़ रहा था, ‘Tonight I can write the saddest lines’। उसे इतरां को बताना था कि एक्ज़ाम के बाद उसे हॉस्टल जाना पड़ेगा पढ़ने के लिए, कि गाँव के आसपास कोई ढंग का स्कूल नहीं है। इसके लिए ज़रूरी था कि इतरां का मूड अच्छा रहे। बड़ी सरकार ने रूद्र को ज़िम्मेदारी दी थी कि इतरां को और कोई मना नहीं सकता था।
‘इतरां। तू मुझे रूद्र क्यूँ बुलाती है रे?’
‘रूद्र तुम बहुत नालायक हो। क़सम से। ख़ानदान भर के बच्चे तुमको बड़े पापा बुलाते हैं। आधा गाँव तुमको चाचा बुलाता है। तुमको संतोष नहीं होता…बचपन में सुधार दिए रहते। उस समय इतना सिर क्यूँ चढ़ाए’
‘तुमको ना सिर चढ़ाने से तुम्हारे ज़मीन पर रहने का कोई उपाय होता क्या?’
‘देखो। अब बहुत साल हो गए हैं। अब हम कुछ और नहीं बुला सकते। बिसरा, बेसरा…छी। ये कोई नाम है बुलाने का। इतना अच्छा नाम रखा काहे थे रूद्र जब कोई बुलाएगा ही नहीं इस नाम से। हम तुमको रूद्र छोड़ के कुछ नहीं बुलाएँगे। जो करना है कर लो’
‘सरकार। आपका क्या ही कर पाएगा कोई। कहिए। क्या चाहिए, दसवीं पास हो गया। अब क्या चाहिए इनाम में। सो कहिए।’
‘बाइक वाली रोड ट्रिप पर ले चलो’।
‘तुम्हें बाइक चलनी कहाँ आती है’
‘सिखा दो’
‘और मैं बाइक पर तुम्हारे पीछे बैठूँ? मेरी कोई इज़्ज़त है कि नहीं दुनिया में। एक बित्ते की लड़की के पीछे नहीं बैठ रहा मैं बाइक पर’
‘बित्ते भर की किसको बोल रहे हो। चार अंगुल नीचे हैं तुमसे बस। लास्ट टाइम हाइट नापे थे तो पाँच फ़ीट सात इंच के थे।’
‘तुम्हारा सिर्फ़ मैथ ख़राब होता तो फिर भी चल जाता…दिमाग़ ख़राब है तुम्हारा। उसका मैं क्या करूँ। मेरी हाइट छह चार है। समझी। चार अंगुल छोटी है मुझसे। हाइट ऊँची होने से क्या होता है। शक्ल देखी है आइने में। दूध के दाँत तो टूटे नहीं हैं। चलेगी बाइक ट्रिप पर। पहले बाइक चलाना सीखो।’
‘सिखा दो तुम। चलो। पापा की बाइक माँग के लाते हैं’
‘बड़ा ना इंदर दिया तुमको बाइक सीखने के लिए, उसपर एक्ज़ाम पर ध्यान दो अभी। गिर के हाथ पैर तोड़ेगी तो एक्ज़ाम कौन देगा। तुमरा रूद्र?’
‘छी। हम ना दिलवाएँगे तुमसे एक्ज़ाम। फ़ेल नहीं होना है हमको’।
‘तुम ना इतरां, बहुत पिटेगी एक दिन देख लेना। क्लास टॉपर थे हम।’
‘किसका हिम्मत जो हमको पीटे। सब डरता है हमसे यहाँ पर। और तुम्हारे टाइम में सिलेबस बहुत आसान था इसलिए तुम टॉप कर गए। हम लोग का कोर्स मुश्किल है।’
‘नंबरी बदमाश हो तुम। मालूम है ना तुमको’
‘हाँ। और ये भी कि बदमाश होना अच्छा होना से बेहतर है’
‘गप्प दो ख़ाली बड़ा बड़ा’
‘तुम्हीं से सीखे हैं’
‘कोई अच्छा चीज़ भी सीखी हो हमसे?’
‘तुमको कोई अच्छा चीज़ आता है?’
‘बहुत बढ़िया पिटाई करते हैं हम। पीट के दिखाएँ तुमको?’
‘बाइक चलाना सिखा के दिखाओ तो मानेंगे’
‘क्या मानोगी?’
‘जो तुम कहोगे सो मानेंगे’
‘प्रोमिस?’
‘पक्का प्रोमिस’
‘इंदर से बाइक कौन माँगेगा?’
‘दादी सरकार।’
‘बाबू सब मिल के माथा चढ़ाया है तुमको। एक हम ही थोड़े हैं’।
एक्ज़ाम ख़त्म होते ही रूद्र इतरां को बाइक पर बिठा कर गाँव से बाहर वाले खेल के मैदान में ले गया। पहला टेस्ट था गिरी हुयी बाइक को उठाना। कि बाइक चलाने के पहले उसे मालूम होना चाहिए था कि बाइक को कैसे उठाना है। बाइक के कलपुर्ज़े दिखाए। हर चीज़ का फ़ंक्शन समझाया। स्पार्क प्लग साफ़ करना सिखाया। प्रैक्टिकल के पहले थ्योरी की ज़रूरत अच्छी तरह समझता था रूद्र। और आत्मनिर्भरता का भी। सीखने में वक़्त तो क्या ही लगना था। बस एक बार सिखाना था कि क्लच धीरे छोड़ते हैं। गियर कैसे बदलते हैं। ब्रेक हल्के दबा कर अंदाज़ा लगाओ कि कितनी ज़ोर से दबाने से बाइक रुकेगी। दो राउंड मारते ही इतरां ने पिक अप कर लिया और बाइक हवा से बातें करने लगी। बाइक को टर्न कर के सीधे सड़क पर उड़ाती चली इतरां। रूद्र के दिल में दुःख तूफ़ानी नदी की तरह उफन रहा था। पलाश लहके हुए थे। जंगल से गुज़रती सड़क पर और कोई गाड़ी नहीं थी। इतरां बाइक एकदम बैलेंस में चला रही थी। बगरो के जाने के बाद से रूद्र बहुत हद तक कंट्रोल फ़्रीक होता गया था। ज़िंदगी के हर मसले पर उसे चीज़ें अपने हाथ में चाहिए होती थीं। वो किसी की नहीं सुनता था। बस एक इतरां थी, कि जैसे बचपन में ऊँगली पकड़ कर घर के अंदर ले गयी थी, वैसे ही कभी भी उसका रूख मोड़ देती जिस दिशा में उसका दिल चाहे। उम्र में इतनी छोटी थी लेकिन रूद्र को लगता था कि इतरां के हाथों में उसकी ज़िंदगी सुरक्षित है। कि इतरां के साथ रहते हुए ऐसी कोई चीज़ नहीं हो सकती जो तकलीफ़ दे। इस लम्हे, बहुत साल बाद रूद्र को ऐसा लगा जैसे वो आज़ाद है। कि उसे फ़िलवक़्त और किसी चीज़ की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। जो है घर वापस जा के देखा जाएगा। अभी ये मौसम है। इस लम्हे इतरां है। तेज़ बाइक है। हवा है। रूद्र ने अपनी बाँहें खोलीं और पीछे की ओर झुकता गया। गहरा नीला आसमान दहके हुए पलाश के बीच झाँक रहा था कभी कभार। तेज़ हवा थी। उसके भरे हुए दिल में सुकून था। मुहब्बत थी बहुत। सालों में उसके होठों पर वे शब्द आए जो किसी भूली डायरी में रख दिए गए थे। वो किसी खुदा के लिए चीख़ा था, ‘आइ लव यू इतरां’। मगर आवाज़ उसके होठों से नहीं आयी थी। इतरां दीवानी हुयी थी। ‘This is the best day ever…’ और फिर, ‘आइssssss लssssssव यूssssss’…‘रूद्र’…जवाब में चिल्ला नहीं पाया था वो, हँसा था अपनी पगली इतरां पर। हल्की सी चपत लगायी थी उसके सर पर। ‘मेरी पगली, इतरां’।
ज़िंदगी में सब कुछ वापस आएगा। वे दिन नहीं आएँगे कि जब दिल टूटा नहीं था। कि जब ज़िंदगी का पहला ‘आइ लव यू’ इतरां ने रूद्र के नाम लिखा था। सबसे ज़्यादा मुहब्बत। सबसे तेज़ रफ़्तार। सबसे ज़्यादा बेपरवाही। ये वो दिन थे जब ज़िंदगी ने सबक़ नहीं दिए थे कि किन्हें आइ लव यू कहना है, किन्हें नहीं। किताबों और काग़ज़ों से बाहर के इन तीन लफ़्ज़ों ने पहली बार आवाज़ चखी थी। ये उसका सबसे सच्चा, सबसे मासूम आइ लव यू था। सबसे गहरा भी। ‘आइ लव यू दी मोस्ट इन दी वर्ल्ड, दी मोस्ट…आइ लव यू फ़ौरेवर रूद्र…’।
फ़ॉरएवर। दुनिया का सबसे ख़तरनाक। सबसे दिलफ़रेब शब्द। हमेशा।
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पहली बार लंबी कहानी लिख रही हूँ. इक किरदार है इतरां. जरा से शहर हैं उसके इर्द गिर्द और मुहब्बत वाले किरदार कुछ. देखें कब तक साथ रहती है मेरे. ये लंबी कहानी की 6ठी किस्त है. इसके पहले के हिस्सों के लिए इस लेबल पर क्रमवार पढ़ें।
इतरां: God is a postman
[featured photograph: Raman's Desert Storm]
Published on May 19, 2016 08:25
May 11, 2016
तुम्हें ख़तों में आग लगाना आना चाहिए

उन दिनों मैं एक जंगल थी। दालचीनी के पेड़ों की। जिसमें आग लगी थी।
और ये भी कि मैं किसी जंगल से गुज़र रही थी। कि जिसमें दालचीनी के पेड़ धू धू करके जल रहे थे। मेरे पीछे दमकल का क़ाफ़िला था। आँखों को आँच लग रही थी। आँखों से आँच आ रही थी। चेहरा दहक रहा था। कोई दुःख का दावनल था। आँसू आँखों से गिरा और होठों तक आने के पहले ही भाप हो गया। उसने सिगरेट अपने होठों में फँसायी और इतना क़रीब आया कि सांसें उलझने लगीं। उसकी साँसों में मेरी मुहब्बत वाले शहर के कोहरे की ठंढ और सुकून था। हमारे होठों के बीच सिगरेट भर की दूरी थी। सिगरेट का दूसरा सिरा उसने मेरे होठों से रगड़ा और चिंगरियाँ थरथरा उठी हम दोनों की आँखों में। मैंने उसकी आँखों में देखा। वहाँ दालचीनी की गंध थी। उसने पहला कश गहरा लिया। मुझे तीखी प्यास लगी।
वो हँसा। इतना डर लगता है तो पत्थर होना था। काग़ज़ नहीं।
कार के अंदर सिगरेट का धुआँ था। कार के बाहर जंगल के जलने की गंध। लम्हे में छुअन नहीं थी। गंध से संतृप्त लम्हा था। मैंने फिर से उसकी आँखें देखीं। अंधेरी। अतल। दालचीनी की गंध खो गयी थी। ये कोई और गंध थी। शाश्वत। मृत्यु की तरह। या शायद प्रेम की तरह। आधी रात की ख़ुशबू और तिलिस्म में गमकती आँखें। गहरी। बहुत गहरी। दिल्ली की बावलियाँ याद आयीं जिनमें सीढ़ियाँ होती थीं। अपने अंधेरे में डूब कर मरने को न्योततीं।
वो आग का सिर्फ़ एक रंग जानता था। सिगरेट के दूसरे छोर पर जलता लाल। उसने कभी ख़त तक नहीं जलाए थे। उसे आग की तासीर पता नहीं थी। सिगरेट का फ़िल्टर हमेशा आग को उसके होठों से एक इंच दूर रोक देता था। इश्क़ की फ़ितरत पता होगी उसे? या कि इश्क़ एक सिगरेट थी बस। वो भी फ़िल्टर वाली। दिल से एक इंच दूर ही रुक जाती थी सारी आग। मुझे याद आए उसकी टेबल पर की ऐश ट्रे में बचे हुए फिल्टर्स की। कमरे में क़रीने से रखे प्रेमपत्रों की भी। लिफ़ाफ़े शायद आग बचा जाते हों। किसी सुलगते ख़त को चूमा होगा उसने कभी? कभी होंठ जले उसके? कभी तो जलने चाहिए ना। मेरा दिल किया शर्ट के बटन खोल उसके सीने पर अपनी जलती उँगलियों से अपना नाम लिख दूँ। तरतीब जाए जहन्नुम में।
कारवाँ रुका। दमकल से लोग उतरे। बड़ी होज़ पाइप्स से पानी का छिड़काव करने लगे। पानी के हेलिकॉप्टर भी आ गए तब तक। मुझे हल्की सी नींद आ गयी थी। एक छोटी झपकी बस। जितनी जल्दी नहीं बुझनी चाहिए थी आग, उतनी जल्दी बुझ गयी। मुझे यक़ीन था ऐसा सिर्फ़ इसलिए था कि वो साथ आया था। समंदर। मैंने सपने में देखा कि इक तूफ़ानी रात समंदर पर जाते जहाज़ों के ज़ख़ीरे पर बिजली गिरी है। मूसलाधार बारिश के बावजूद आग की लपटें आसमान तक ऊँची उठ रही थीं। होठों पर नमक का स्वाद था। कोई आँसू था या सपने के समंदर का नमक था ये?
क्या समंदर किनारे दालचीनी का जंगल उग सकता है? अधजले जंगल की कालिख से आसमान ज़मीन सब सियाह हो गयी थी। सब कुछ भीगा हुआ था। इतनी बारिश हुयी थी कि सड़क किनारे गरम पानी की धारा बहने लगी। कुछ नहीं बुझा तो उसकी सिगरेट का छोर। मैंने उसे चेन स्मोकिंग करते आज के पहले नहीं देखा था कभी। लेकिन इस सिगरेट की आग को उसने बुझने नहीं दिया था। सिगरेट के आख़िरी कश से दूसरी सिगरेट सुलगा लेता।
मैंने सिगरेट का एक कश माँगने को हाथ बढ़ाया तो हँस दिया। तुम तो दोनों तरफ़ से जला के सिगरेट पीती होगी। छोटे छोटे कश मार के। बिना फ़िल्टर वाली, है ना? मैं नहीं दे रहा तुम्हें अपनी सिगरेट।
बारिश में भीगने को मैं कार के बाहर उतरी थी। सिल्क की हल्की गुलाबी साड़ी पर पानी में घुला धुआँ छन रहा था। मैं देर तक भीगती रही। इन दिनों के लिए प्रकृति को माँ कहा जाता है। सिहरन महसूस हुयी तो आँखें खोली। दमकल जा चुका था। हमें भी वापस लौटना था अब। उसके गुनगुनाने की गंध आ रही थी मेरी थरथराती उँगलियों में लिपटती साड़ी के आँचल में उलझी उलझी। जूड़ा खोला और कंधे पर बाल छितराए तो महसूस हुआ कि दालचीनी की आख़िरी गंध बची रह गयी थी जूड़े में बंध कर लेकिन अब हवा ने उसपर अपना हक़ जता दिया था। उसने मुट्ठी बांधी जैसे रख ही लेगा थोड़ी सी गंध उँगलियों में जज़्ब कर के। सब कुछ जल जाने के बाद नया रचना पड़ता है। शब्दबीज रोपने होते हैं काग़ज़ में।
मैंने उसे देखा। ‘प्रेम’
उसने सिर्फ़ मेरा नाम लिया।‘पूजा’
Published on May 11, 2016 06:06
May 8, 2016
शीर्षक कहानी में दफ़्न है

आप ऐसे लोगों को जानते हैं जो क़ब्र के पत्थर उखाड़ के अपना घर बनवा सकते हैं? मैं जानती हूँ। क्यूँ जानती हूँ ये मत पूछिए साहब। ये भी मत पूछिए कि मेरा इन लोगों से रिश्ता क्या है। शायद हिसाब का रिश्ता है। शायद सौदेबाज़ी का हिसाब हो। इंसानियत का रिश्ता भी हो सकता है। यक़ीन कीजिए आप जानना नहीं चाहते हैं। किसी कमज़ोर लम्हे में मैंने क़ब्रिस्तान के दरबान की इस नौकरी के लिए मंज़ूरी दे दी थी। रूहें तो नहीं लेकिन ये मंज़ूरी ज़िंदगी के हर मोड़ पर पीछा करती है।
मैं यहाँ से किसी और जगह जाना चाहती हूँ। मैं इस नौकरी से थक गयी हूँ। लेकिन क़ब्रिस्तान को बिना रखवाले के नहीं छोड़ा जा सकता है। ये ऐसी नौकरी है कि मुफ़लिसी के दौर में भी लोग मेरे कंधों से इस बोझ को उतारने के लिए तैय्यार नहीं। इस दुनिया में कौन समझेगा कि आख़िर मैं एक औरत हूँ। मानती हूँ मेरे सब्र की मिसाल समंदर से दी जाती है। लेकिन साहब इन दिनों मेरा सब्र रिस रहा है इस मिट्टी में और सब्र का पौधा उग रहा है वहाँ। उस पर मेरे पहले प्रेम के नाम के फूल खिलते हैं। क़ब्रिस्तान के खिले फूल इतने मनहूस होते हैं कि मय्यत में भी इन्हें कोई रखने को तैय्यार नहीं होता।
मुझे इन दिनों बुरे ख़्वाबों ने सताया हुआ है। मैं सोने से डरती हूँ। बिस्तर की सलवटें चुभती हैं। यहाँ एक आधी बार कोई आधी खुदी हुयी क़ब्र होती है, मैं उसी नरम मिट्टी में सो जाना पसंद करती हूँ। ज़मीन से कोई दो फ़ीट मिट्टी तरतीब से निकली हुयी। मैं दुआ करती हूँ कि नींद में किसी रोज़ कोई साँप या ज़हरीला बिच्छू मुझे काट ले और मैं मर जाऊँ। यूँ भी इस पूरी दुनिया में मेरा कोई है नहीं। जनाज़े की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। मिट्टी में मुझे दफ़ना दिया जाएगा। इस दुनिया को जाते हुए जितना कम कष्ट दे सकूँ उतना बेहतर है।
मुझे इस नौकरी के लिए हाँ बोलनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन साहिब, औरत हूँ ना। मेरा दिल पसीज गया। एक लड़का था जिसपर मैं मरती थी। इसी क़ब्रिस्तान से ला कर मेरे बालों में फूल गूँथा करता था। दरबान की इस नौकरी के सिवा उसके पास कुछ ना था। उसने मुझसे वादा किया कि दूसरे शहर में अच्छी नौकरी मिलते ही आ कर मुझे ले जाएगा। और साहब, बात का पक्का निकला वो। ठीक मोहलत पर आया भी, अपना वादा निभाने। लेकिन मेरी जगह लेने को इस छोटे से क़स्बे में कोई तैय्यार नहीं हुआ। अब मुर्दों को तन्हा छोड़ कर तो नहीं जा सकती थी। आप ताज्जुब ना करें। दुनिया में ज़िंदा लोगों की परवाह को कोई नहीं मिलता साहब। मुर्दों का ख़याल कौन रखेगा।
कच्ची आँखों ने सपने देख लिए थे साहब। कच्चे सपने। कच्चे सपनों की कच्ची किरचें हैं। अब भी चुभती हैं। बात को दस साल हो गए। शायद उम्र भर चुभेगा साहब। ऐसा लगता है कि इन चुभती किरिचों का एक सिरा उसके सीने में भी चुभता होगा। मैंने उसके जैसी सच्ची आँखें किसी की नहीं देखीं इतने सालों में। बचपन से मुर्दों की रखवाली करने से ऐसा हो जाता होगा। मुर्दे झूठ नहीं बोलते। मैं भी कहाँ झूठ कह पाती हूँ किसी से इन दिनों। मालूम नहीं कैसा दिखता होगा। मेरे कुछ बाल सफ़ेद हो रहे हैं। शायद उसके भी कुछ बाल सफ़ेद हुए हों। कनपटी पर के शायद। उसके चेहरे की बनावट ऐसी थी कि लड़कपन में उसपर पूरे शहर की लड़कियाँ मर मिटती थीं। इतनी मासूमियत कि उसके हिस्से का हर ग़म ख़रीद लेने को जी चाहे। बढ़ती उम्र के साथ उसके चेहरे पर ज़िंदगी की कहानी लिखी गयी होगी। मैं दुआ करती हूँ कि उसकी आँखों के इर्द गिर्द मुस्कुराने से धुँधली रेखाएँ पड़ने लगी हों। उसने शायद शादी कर ली होगी। बच्चे कितने होंगे उसके? कैसे दिखते होंगे। क्या उसके बेटे की आँखें उसपर गयी होंगी? मुझे पूरा यक़ीन है कि उसके एक बेटा तो होगा ही। हमने अपने सपनों में अलग अलग बच्चों के नाम सोचे थे। उसे सिर्फ़ मेरे जैसी एक बेटी चाहिए थी। मेरे जैसी क्यूँ…मुझमें कुछ ख़ूबसूरत नहीं था लेकिन उसे मेरा साँवला रंग भी बहुत भाता था। मेरी ठुड्डी छू कर कहता। एक बेटी दे दो बस, एकदम तुम्हारे जैसी। एकदम तुम्हारे जैसी। मैं लजाकर लाल पड़ जाती थी। शायद मैंने किसी और से शादी कर ली होती तो अपनी बेटी का नाम वही रखती जो उसने चुना था। ‘लिली’। अब तो उसके शहर का नाम भी नहीं मालूम है। कुछ साल तक उसे चिट्ठियाँ लिखती रही थी मैं। फिर जाने क्यूँ लगने लगा कि मेरे ख़तों से ज़िंदगी की नहीं मौत की गंध आती होगी। मैं जिन फूलों की गंध के बारे में लिखती वे फूल क़ब्र पर के होते थे। गुलाबों में भी उदासियाँ होती थीं। मैं बारिश के बारे में लिखती तो क़ब्र के धुले संगमरमरी पत्थर दिखते। मैं क़ब्रिस्तान के बाहर भीतर होते होते ख़ुद क़ब्रिस्तान होने लगी थी।
दुनिया बहुत तन्हा जगह है साहब। इस तन्हाई को समझना है तो मरे हुए लोगों को सुनना कभी। मरे हुए लोग कभी कभी ज़िंदा लोगों से ज़्यादा ज़िंदा होते हैं। हर लाश का बदन ठंढा नहीं होता। कभी कभी उनकी मुट्ठियाँ बंद भी होती हैं। आदमी तन्हाई की इतनी शिकायत दीवारों से करता है। इनमें से कुछ लोग भी क़ब्रिस्तान आ जाया करें तो कमसे कम लोगों को मर जाने का अफ़सोस नहीं होगा। मुझे भी पहले मुर्दों से बात करने का जी नहीं करता था। लेकिन फिर जैसे जैसे लोग मुझसे कटते गए मुझे महसूस होने लगा कि मुर्दों से बात करना मुनासिब होगा। यूँ भी सब कितनी बातें लिए ही दफ़्न हो जाते हैं। कितनी मुहब्बत। कितनी मुहब्बत है दुनिया में इस बात पर ऐतबार करना है तो किसी क़ब्रिस्तान में टहल कर देखना साहिब। मर जाने के सदियों बाद भी मुर्दे अपने प्रेम का नाम चीख़ते रहते हैं।
मैं भी बहुत सारा कुछ अपने अंदर जीते जीते थक गयी थी। सहेजते। मिटाते। दफ़नाते। भुलाते। झाड़ते पोछते। मेरे अंदर सिर्फ़ मरी हुयी चीज़ें रह गयी हैं। कि मेरा दिल भी एक क़ब्रिस्तान है हुज़ूर। मौत है कि नहीं आती। शायद मुझे उन सारे मुर्दों की उम्र लग गयी है जिनकी बातें मैं दिन दिन भर सुना करती हूँ। रात भर जिन्हें राहत की दुआएँ सुनाती हूँ। हम जैसा सोचते हैं ज़िंदगी वैसी नहीं होती है ना साहेब। मुझे लगा था मुर्दों से बातचीत होगी तो शायद मर जाने की तारीख़ पास आएगी। शायद वे मुझे अपनी दुनिया में बुलाना चाहेंगे जल्दी। लेकिन ऊपरवाले के पास मेरी अर्ज़ी पहुँचने कोई नहीं जाता। सब मुझे इसी दुनिया में रखना चाहते हैं। झूठे दिलासे देते हैं। मेरे अनगिनत ख़तों की स्याही बह बह कर क़ब्रों पर इकट्ठी होती रहती है। वे स्याही की गंध में डूब कर अलग अलग फूलों में खिलते हैं। क़ब्रिस्तान में खिलते फूलों से लोगों को कोफ़्त होने लगी है। मगर फूल तो जंगली हैं। अचानक से खिले हुए। बिना माँगे। मौत जैसे। इन दिनों जब ट्रैफ़िक सिग्नल पर गाड़ियाँ रुकी रहती हैं तो वे अपनी नाक बंद करना चाहते हैं लेकिन लिली की तीखी गंध उनका गिरेबान पकड़ कर पहुँच ही जाती है उनकी आँखें चूमने।
आप इस शहर में नए आए हैं साहब? आपका स्वागत है। जल्दी ही आइएगा। कहाँ खुदवा दूँ आपकी क़ब्र? चिंता ना करें। मुझे बिना जवाबों के ख़त लिखने की आदत है। जी नहीं। घबराइए नहीं। मेरे कहने से थोड़े ना आप जल्द चले आइएगा। इंतज़ार की आदत है मुझे। उम्र भर कर सकती हूँ। आपका। आपके ख़त का। या कि अपनी मौत का भी। अगर खुदा ना ख़स्ता आपके ख़त के आने के पहले मौत आ गयी तो आपके नाम का ख़त मेज़ की दराज़ में लिखा मिलेगा। लाल मुहर से बंद किया हुआ। जी नहीं। नाम नहीं लिखा होगा आपका। कोई भी ख़त पढ़ लीजिएगा साहब। सारे ख़तों में एक ही तो बात लिखी हुयी है। खुदा। मेरे नाम की क़ब्र का इंतज़ाम जल्दी कर।
Published on May 08, 2016 05:44
May 4, 2016
चाँद मुहब्बत। इश्क़ गुनाह।

'तुम वापस कब आ रही हो?'
'जब दुखना बंद हो जाएगा तब।'
'तुम्हें यक़ीन है कि दुखना बंद हो जाएगा?'
'हाँ'
'कब?'
'जब प्रेम की जगह विरक्ति आ जाएगी तब।'
'इस सबका हासिल क्या है?'
'हासिल?'
'हाँ'
'जीवन का हासिल क्या होता है?'
'Why are you asking me, you are the one here with all the answers. What’s the whole fu*king point of all this.'
'Please don’t curse. I’m very sensitive these days.'
'ठीक है। तो बस इतना बता दो। इस सबका हासिल है क्या?'
'मुझसे कुछ मत पूछो। मैं प्रेम में हूँ। उसका नाम पूछो।'
'क्या नाम है उसका?'
'पूजा।'
'This is narcissism.'
'नहीं। ये रास्ता निर्वाण तक जाता है। मुझे मेरा बोधि वृक्ष मिल गया है।'
'अच्छा। कहाँ है वह?'
'नहीं। वो किसी जगह पर नहीं है। वो एक भाव में है।'
'प्रेम?'
'हाँ, प्रेम।'
'तो फिर? गौतम से सिद्धार्थ बनोगी अब? राजपाट में लौटोगी? निर्वाण से प्रेम तक?
'नहीं। ये कर्ट कोबेन वाला निर्वाण है।'
'मज़ाक़ मत करो। कहाँ हो तुम?''
'I am travelling from emptiness to nothingness.'
'समझ नहीं आया।'
'ख़ालीपन से निर्वात की ओर।'ट्रान्स्लेट करने नहीं समझाने बोले थे हम।'
'मुझे दूर एक ब्लैक होल दिख रहा है। मैं उसमें गुम होने वाली हूँ।'
'वापस आओगी?'
'तुम इंतज़ार करोगे?'
'मेरे जवाब से फ़र्क़ पड़ता है?'
'शायद।'
'Tell me why I’m in love with you.'
'Because you hurt. All over.''Do you need a hug?''You are touch phobic. Write a letter to me instead.' 'Will you please not come back. Die in the fu*king black hole. I can't see you hurting like this.''Are you sure?''You are sure you don't love me?''Yes.''मर जाओ'---उसकी हँसी। अचानक कंठ से फूटती। किसी देश के एयरपोर्ट पर अचानक से किसी दोस्त का मिल जाना जैसे।
याद में सुनहले से काले होते रंग की आँखें हैं…बीच के कई सारे शेड्स के साथ। उसकी हँसी के बैक्ड्राप में मोंटाज की क्रॉसफ़ेड होती हैं सारी की सारी। सुनहली। गहरी भूरी। कत्थई। कि जैसे वसंत के आने की धमक होती है। कि जैसे मौसमों के हिसाब से लगाए गए फूलों वाले शहर में सारे चेरी के पेड़ों पर एक साथ खिल जाएँ हल्के गुलाबी फूल। जैसे प्रेम हो और मन में किसी और भाव के लिए कोई जगह बाक़ी ना रहे। जैसे उसके होने से आसमान में खिलते जाएँ सफ़ेद बादलों के फूल। जैसे उसकी आँखों में उभर आए मेरे शहर का नक़्शा। जैसे उसकी उँगलियों को आदत हो मेरा नम्बर डायल करने की कुछ इस तरह कि अचानक ही कॉल आ जाए उसका।
उसी दुनिया में सब कुछ इतनी तेज़ी से घटता था जितनी तेज़ी से वो टाइप करती थी। सब कुछ ही उसकी स्पीड के हिसाब से चलता था। माय डार्लिंग, उसे तुम्हारे प्रेम रास नहीं आते। इसलिए उनका ड्यूरेशन इतनी तेज़ गति से लिखा जाता कि जैसे आसमान में टूटता हुआ तारा। शाम को टहलने जाते हुए दौड़ लगा ले पार्क के चारों ओर चार बार। टहलना भूल जाए कोई। उँगलियाँ भूल जाती थीं काग़ज़ क़लम से लिखना जब बात तुम्हारी प्रेमिकाओं की आती थी।
जैसे तेज़ होती जाए साँस लेने की आवाज़। तेज़ तेज़ तेज़।
कैसे हुआ है प्रेम तुमसे?
जैसे काफ़ी ना हो मेरे नाम का मेरा नाम होना। जैसे डर मिट गया हो। जैसे अचानक ही आ गया हो तैरना। जैसे मिल जाए बाज़ार में यूँ ही बेवजह भटकते हुए इंद्रधनुष के रंगों वाला दुपट्टा कोई। कुछ भी ना हो तुम्हारा होना।
बिना परिभाषाओं में बंधे प्रेम करने की बातें सुनी थीं पर ऐसा प्रेम कभी ज़िंदगी में बिना दस्तक के प्रवेश कर जाएगा ऐसा कब सोचा था। यूँ सोचो ना। क्या है। सिवा इसके कि तुम्हें मेरा नाम लेना पसंद है, कि जैसे झील में पत्थर फेंकना और फिर इंतज़ार करना कि लहरें तुम्हें छू जाएँगी…भिगा जाएँगी मन का वो कोरा कोना कि जिसे तुमने हर बारिश में छुपा कर रखा है। ठीक वहाँ फूटेगी ऑरीएंटल लिली की पहली कोपल और ठीक वहीं खिलेगा गहरे गुलाबी रंग की ऑरीएंटल लिली का पहला फूल। कि जैसे प्रेम का रंग होगा…और तुमसे बिछोह का। गहरा गुलाबी। चोट का रंग। गहरा गुलाबी। और हमारे प्रेम का भी।
प्रेम कि जो अपनी अनुपस्थिति में अपने होने की बयानी लिखता है। तुम चलने लगो गीली मिट्टी में नंगे पाँव तो ज़मीन अपने गीत तुम्हारी साँस में रोप दे। तुम गहरा आलाप लो तो पूरे शहर में गहरे गुलाबी ऑरीएंटल लिली की ख़ुशबू गुमस जाए जैसे भारी बारिश के बाद की ह्यूमिडिटी। तुम कोहरे में भी ना सुलगाना चाहो सिगरेट कोई। तुम्हारे होठों से नाम की गंध आए। तुम्हारी उँगलियों से भी।
और सोचो जानां, कोई कहे तुमसे, कि बदल गयी है दुनिया ज़रा ज़रा सी, आन अकाउंट अव आउर लव। कि अब तुम्हारा नाम P से शुरू होगा। तुम्हारा रोल नम्बर बदल गया है क्लास में। और अब तुम क्लास में एग्जाम टाइम में ठीक मेरे पीछे बैठोगे। तुम्हारे ग्रेड्स सुधर जाएँगे इस ज़रा सी फेर बदल से[चीटर कहीं के]। और जो आधे नम्बर से तुम उस पेरिस वाले प्रोग्राम के लिए क्वालिफ़ाई नहीं कर पाए थे। वो नहीं होगा। तुम जाओगे पेरिस। तुम्हारे साथ चले जाएगा उस शहर में मेरी आँखों का गुलमोहर भी। पेरिस के अर्किटेक्ट लोग कि जिन पर उसके इमॉर्टल लुक को क़ायम रखने की ज़िम्मेदारी है, वे परेशान हो जायेंगे कि पेरिस में इतने सारे गुलमोहर के पेड़ थे कहाँ। और अगर थे भी तो कभी खिले क्यूँ नहीं थे। तुम्हारा नाम P से होने पर बहुत सी और चीज़ें बदलेंगी कि जैसे तुम अचानक से नोटिस करोगे की मेरे दाएँ कंधे पर एक बर्थमार्क है जो मेरे नाम का नहीं, तुम्हारे नाम का है।
वो सारे लव लेटर जो तुमने अपनी प्रेमिकाओं को लिखे हैं सिर्फ़ अपने नाम का पहला अक्षर इस्तेमाल करते हुए वे सारे बेमानी हो जाएँगे। मेरे कुछ किए बिना, तुम्हारे प्रेम पर मेरा एकाधिकार हो जाएगा। यूँ भी ब्रेक अप के बाद तुम्हें कौन तलाशने आता। टूटने की भी एक हद होती है। तुम्हारे प्रेम से गुज़रने के बाद, कॉन्सेंट्रेशन कैम्प के क़ैदी की तरह उनकी पहचान सिर्फ़ एक संख्या ही तो रह जाती है। सोलहवें नम्बर की प्रेमिका, अठारवें नम्बर का प्रेमी। परित्यक्ता। भारत के वृंदावन की उन विधवाओं की तरह जिनका कान्हा के सिवा कोई नहीं होता। किसी दूसरे शहर में भी नहीं। किसी दूसरी यमुना के किनारे भी नहीं।
पागलों की दुनिया का खुदा एक ही है। चाँद। तो तुम्हारा नाम चाँद के सिवा कुछ कैसे हो सकता था। मेरे क़रीब आते हो तो पागल लहरें उठती हैं। साँस के भीतर कहीं। तुम्हें बताया किसी ने, तुम्हारा नया नाम? सोच रही हूँ तुम नाराज़ होगे क्या इस बात को जान कर। मेरी दुनिया में सब तुम्हें चाँद ही कहते हैं। कोई पागल नहीं रहता मेरी दुनिया में। एक मेरे सिवा। तुम मेरे खुदा हो। सिर्फ़ मेरे। मुझे प्रेम की परवाह नहीं है तो मुझे तुम्हारी नाराज़गी की परवाह क्यूंकर हो। बाग़ी हुए जा रही हूँ इश्क़ में। रगों में इंक़लाब दौड़ता है। कहता है कि चाँद को उसकी ही हुकूमत से निष्कासित कर कर ही थमेंगे। उसकी ख़्वाबगाह से भी। और मेरी क़ब्रगाह से तो शर्तिया।
मैंने तुम्हें देखने के पहले तुम्हारा प्रतिबिम्ब देखा था…आसमान के दर्पण में। बादलों के तीखे किनारों को बिजली से चमकाया गया था। उनके किनारे रूपहले थे।
मैं इस दुनिया से जा चुकी हूँ कि जहाँ सब कुछ नाम से ही जुड़ता था। इस रिश्ते का नाम नहीं था। मेरे लिए भी नाम ज़रूरी नहीं था। मेरे लिए मेरा नाम ही प्रेम है। उसकी आवाज़ ही हूँ मैं। और जानेमन, आवाज़ों का क्या रह जाता है।
वो तलाशे अगर तो कहना, ‘मैं उसकी प्रतिध्वनि थी’।
Published on May 04, 2016 04:41
May 1, 2016
Chasm
मुझे तुम्हारी कुछ याद नहीं है। रंग। गंध। स्पर्श। कुछ नहीं।
मुझे नहीं याद है कि तुम हँसते हुए कैसी लगती थी। एक्ज़ाम के लिए जाते हुए जब तुम्हारा पैर छूते थे तो उँगलियों की पोर में जो धूल लगती थी ज़रा सी वो याद है...कि उस वक़्त तुम अक्सर झाड़ू दे रही होती थी लेकिन तुम्हारी त्वचा का स्पर्श मुझे याद नहीं है। मुझे ये भी याद नहीं है कि तुम कैसे ख़ुश या उदास होती थी। तुम्हारी पसंद के गाने याद नहीं मुझे। सिवाए एक धुँधली सी स्मृति कि तुमको जौय मुखर्जी और बिस्वजीत पसंद था। एक गाना जो हम गाते थे और तुमको बहुत पसंद था, हम पिछले आठ सालों में नहीं सुने हैं। ना गाए हैं कभी।
मुझे नहीं याद है कि तुम्हारे हाथ के खाने का स्वाद कैसा था। हमको दीदिमा के हाथ का आलू और बंधागोभी का सब्ज़ी याद है लेकिन तुम्हारा कुछ याद नहीं है। जब लोग कहते हैं कि उनको घर का खाना पसंद है तो वो अक्सर अपनी माँ, चाची या ऐसी किसी की बात कर रहे होते हैं...कभी कभी बीवियों की भी। मुझे बाहर का खाना पसंद है। मुझे इंडियन कुजीन नहीं पसंद है। बाहर जाते हैं तो मेक्सिकन, इटलियन...जाने क्या क्या खा आते हैं। पसंद से। लेकिन इंडियन कुछ नहीं पसंद आया। मेरे लिए तो घर का खाना तुम्हारे साथ ही चला गया माँ। अपने हाथ के खाने में तुम्हारा स्वाद नहीं आता कभी। हमको तो मालूम भी नहीं है कि तुम कौन ब्राण्ड का मसाला यूज़ करती थी। यहाँ साउथ में मोस्ट्ली MTR मिलता है। यूँ तो बाक़ी सब भी मिलता है लेकिन सामने जो दिखता है वही ले आते हैं। हमको खाना बनाना अच्छा नहीं लगता। लेकिन जो भी मेरे हाथ का खाना खाया है वो सब बोला है कि हम बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। हमको किसी को खाना खिलाने का शौक़ नहीं लगता है एकदम। कभी भी नहीं। हम किसी को बता नहीं सकते कि तुम कितना शौक़ से सबको खिलाया करती थी। मुझे याद नहीं है लेकिन एक फ़ोटो है जिसमें मेरे कॉलेज की दोस्त लोग आयी हुयी है और हम डाइनिंग टेबल पर खा रहे हैं। एक और दोस्त कहती है कि वो तुम्हारे जैसा ब्रेड पोहा बनाती है। हमको उसकी रेसिपी याद नहीं। उससे अपने माँ की ब्रेड पोहा की रेसिपी माँगना ख़राब लगेगा ना। देवघर में अभी भी तुम्हारी खाने की रेसिपी वाली ब्राउन डायरी है। लेकिन वो कौन से कोड में लिखी है कि तुम्हारे बिना खोल नहीं सकते उसको।
बैंगलोर में ठंढ नहीं पड़ती इसलिए स्वेटर की ज़रूरत नहीं पड़ी पिछले कई सालों से। पिछले साल डैलस जाना था तो तुम्हारे बने हुए स्वेटर वाला बक्सा खोला। बहुत देर तक सारे स्वेटर देखती रही। कुछ को तो छू छू कर देखा। सोचा कि कितना कितना अरसा लगा होगा इसमें से एक एक को बनाने में। मगर तुम मुझे स्वेटर बुनती हुयी याद में भी नहीं दिखी मम्मी।
तुम्हारे बिना जीने का कोई उपाय नहीं था इसके सिवा कि उन सारे सालों को विस्मृत कर दिया जाए। मेरी याद में ज़िंदगी के चौबीस साल नहीं हैं। मेरे बचपन की कोई कहानी नहीं है। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार तुम्हारी फ़ोटो कब देखी थी। कश्मीर के ऐल्बम रखे हुए हैं लेकिन पलटाती नहीं। जब तक दीदिमा थी तब तक फिर भी तुम्हारे होने की एक छहक थी उसमें। एक बार मिलने गए थे तो खाना खा रही थी...बोली एक कौर खिला देते हैं तुमको...मेरे साथ खा लो। हम पिछले आठ साल में शायद वो एक कौर ही खाए होंगे किसी और के हाथ से। दीदिमा तो तुमको भी खिला देती थी ना हमेशा। मामाजी को। हम बच्चा लोग को भी।
ये टूटन हमको कहाँ तक ले जाएगी मालूम नहीं। ख़ुद को कितना भी बाँध के रखते हैं कभी ना कभी कोई ना कोई फ़ॉल्ट लाइन दिख ही जाती है। कोई ना कोई भूचाल करवट बदलने लगता है। पिछले दो साल से मर जाने का मन नहीं किया था। लगा कि शायद हम उबर गए हैं। शायद वाक़ई हमको अब जीना आ ही जाएगा तुम्हारे बिना। लेकिन रिलैप्स होता है। परसों छत पर सनसेट देखने गए थे। ग़लती मेरी ही थी। अंतिम एप्रिल के महीने में हमको मालूम होना चाहिए था कि हम अभी कमज़ोर हैं। लेकिन हादसे बहुत दिन से नहीं होते हैं तो हम भूल जाते हैं कि उनके वापस लौट आने में लम्हा लगता है बस। छः माला की छत थी। सूरज डूब चुका था। मेरा दिल भी। हम जानते हैं कि दुनिया में किसी चीज़ से अटैचमेंट नहीं है मेरा। हमको सावधान रहना चाहिए। किसी को फ़ोन करने का मन नहीं किया। इक गर्म शाम सूरज के छोड़े गए लाल रंगों में बस डूब जाने का मन था। मालूम नहीं क्या बात करनी थी। कुछ दोस्तों को फ़ोन किया मजबूरी में। मुझे कोई आवाज़ चाहिए थी उस वक़्त। कुछ मज़ाक़। किसी की हँसी। किसी की भी। लगभग दो या तीन साल हो गए होंगे कि जब मर जाने को ऐसा बेसाख़्ता दिल चाहे। शायद मैं कभी नहीं जान पाऊँगी कि जीने की इच्छा से पूरा पूरा भरा भरा होना क्या होता है।
हमको मालूम नहीं है हम तुमको कहाँ कहाँ ढूँढते फिरते हैं। इस चीज़ से हमको डर लगता है बस। एक दिन किसी को कहने का मन किया कि अगली बार अगर हम साथ में खाना खाएँगे तो हमको एक कौर अपने हाथ से खिला देना। हमको ज़ब्त आता है तो उसको कहे नहीं ये बात लेकिन मम्मी, तुम ही सोचो। ऐसा चाहना ग़लत है ना। बता देते तो क्या सोचता वो भी। ऐसे कमज़ोर लम्हे हमको बहुत डराते हैं।
टूटा हुआ बहुत कुछ है। हम अपने आप को कहते चलते हैं कि हम बहुत मज़बूत हैं। बार बार बार बार। कि बार बार ख़ुद को कहते हुए इस बात पर यक़ीन आने भी लगता है कि शायद हम जी ही जाएँगे अपने हिस्से की उम्र। शायद कोई सुख होगा ज़िंदगी में कि जिसके लिए इतनी क़वायद है।
I'm incapable of love. Or of being loved.
I miss you ma. You were the last love of my life. The unrequited one. The unconfessed one. The one who never knew. How much I loved you.
I don't know what to do. I don't know how to live. I still don't know how to move on. I'm afraid beyond words. Beyond understanding. Beyond hurt and pain.
Nothing heals. But that's because you were not a wound. Your departure too is not. It's a soul ache. I miss the part of my soul that died with you.
I hope to see you soon.
Happy Birthday my love. My ma. My only one.
I shall always love you. always.
मुझे नहीं याद है कि तुम हँसते हुए कैसी लगती थी। एक्ज़ाम के लिए जाते हुए जब तुम्हारा पैर छूते थे तो उँगलियों की पोर में जो धूल लगती थी ज़रा सी वो याद है...कि उस वक़्त तुम अक्सर झाड़ू दे रही होती थी लेकिन तुम्हारी त्वचा का स्पर्श मुझे याद नहीं है। मुझे ये भी याद नहीं है कि तुम कैसे ख़ुश या उदास होती थी। तुम्हारी पसंद के गाने याद नहीं मुझे। सिवाए एक धुँधली सी स्मृति कि तुमको जौय मुखर्जी और बिस्वजीत पसंद था। एक गाना जो हम गाते थे और तुमको बहुत पसंद था, हम पिछले आठ सालों में नहीं सुने हैं। ना गाए हैं कभी।
मुझे नहीं याद है कि तुम्हारे हाथ के खाने का स्वाद कैसा था। हमको दीदिमा के हाथ का आलू और बंधागोभी का सब्ज़ी याद है लेकिन तुम्हारा कुछ याद नहीं है। जब लोग कहते हैं कि उनको घर का खाना पसंद है तो वो अक्सर अपनी माँ, चाची या ऐसी किसी की बात कर रहे होते हैं...कभी कभी बीवियों की भी। मुझे बाहर का खाना पसंद है। मुझे इंडियन कुजीन नहीं पसंद है। बाहर जाते हैं तो मेक्सिकन, इटलियन...जाने क्या क्या खा आते हैं। पसंद से। लेकिन इंडियन कुछ नहीं पसंद आया। मेरे लिए तो घर का खाना तुम्हारे साथ ही चला गया माँ। अपने हाथ के खाने में तुम्हारा स्वाद नहीं आता कभी। हमको तो मालूम भी नहीं है कि तुम कौन ब्राण्ड का मसाला यूज़ करती थी। यहाँ साउथ में मोस्ट्ली MTR मिलता है। यूँ तो बाक़ी सब भी मिलता है लेकिन सामने जो दिखता है वही ले आते हैं। हमको खाना बनाना अच्छा नहीं लगता। लेकिन जो भी मेरे हाथ का खाना खाया है वो सब बोला है कि हम बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। हमको किसी को खाना खिलाने का शौक़ नहीं लगता है एकदम। कभी भी नहीं। हम किसी को बता नहीं सकते कि तुम कितना शौक़ से सबको खिलाया करती थी। मुझे याद नहीं है लेकिन एक फ़ोटो है जिसमें मेरे कॉलेज की दोस्त लोग आयी हुयी है और हम डाइनिंग टेबल पर खा रहे हैं। एक और दोस्त कहती है कि वो तुम्हारे जैसा ब्रेड पोहा बनाती है। हमको उसकी रेसिपी याद नहीं। उससे अपने माँ की ब्रेड पोहा की रेसिपी माँगना ख़राब लगेगा ना। देवघर में अभी भी तुम्हारी खाने की रेसिपी वाली ब्राउन डायरी है। लेकिन वो कौन से कोड में लिखी है कि तुम्हारे बिना खोल नहीं सकते उसको।
बैंगलोर में ठंढ नहीं पड़ती इसलिए स्वेटर की ज़रूरत नहीं पड़ी पिछले कई सालों से। पिछले साल डैलस जाना था तो तुम्हारे बने हुए स्वेटर वाला बक्सा खोला। बहुत देर तक सारे स्वेटर देखती रही। कुछ को तो छू छू कर देखा। सोचा कि कितना कितना अरसा लगा होगा इसमें से एक एक को बनाने में। मगर तुम मुझे स्वेटर बुनती हुयी याद में भी नहीं दिखी मम्मी।
तुम्हारे बिना जीने का कोई उपाय नहीं था इसके सिवा कि उन सारे सालों को विस्मृत कर दिया जाए। मेरी याद में ज़िंदगी के चौबीस साल नहीं हैं। मेरे बचपन की कोई कहानी नहीं है। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार तुम्हारी फ़ोटो कब देखी थी। कश्मीर के ऐल्बम रखे हुए हैं लेकिन पलटाती नहीं। जब तक दीदिमा थी तब तक फिर भी तुम्हारे होने की एक छहक थी उसमें। एक बार मिलने गए थे तो खाना खा रही थी...बोली एक कौर खिला देते हैं तुमको...मेरे साथ खा लो। हम पिछले आठ साल में शायद वो एक कौर ही खाए होंगे किसी और के हाथ से। दीदिमा तो तुमको भी खिला देती थी ना हमेशा। मामाजी को। हम बच्चा लोग को भी।
ये टूटन हमको कहाँ तक ले जाएगी मालूम नहीं। ख़ुद को कितना भी बाँध के रखते हैं कभी ना कभी कोई ना कोई फ़ॉल्ट लाइन दिख ही जाती है। कोई ना कोई भूचाल करवट बदलने लगता है। पिछले दो साल से मर जाने का मन नहीं किया था। लगा कि शायद हम उबर गए हैं। शायद वाक़ई हमको अब जीना आ ही जाएगा तुम्हारे बिना। लेकिन रिलैप्स होता है। परसों छत पर सनसेट देखने गए थे। ग़लती मेरी ही थी। अंतिम एप्रिल के महीने में हमको मालूम होना चाहिए था कि हम अभी कमज़ोर हैं। लेकिन हादसे बहुत दिन से नहीं होते हैं तो हम भूल जाते हैं कि उनके वापस लौट आने में लम्हा लगता है बस। छः माला की छत थी। सूरज डूब चुका था। मेरा दिल भी। हम जानते हैं कि दुनिया में किसी चीज़ से अटैचमेंट नहीं है मेरा। हमको सावधान रहना चाहिए। किसी को फ़ोन करने का मन नहीं किया। इक गर्म शाम सूरज के छोड़े गए लाल रंगों में बस डूब जाने का मन था। मालूम नहीं क्या बात करनी थी। कुछ दोस्तों को फ़ोन किया मजबूरी में। मुझे कोई आवाज़ चाहिए थी उस वक़्त। कुछ मज़ाक़। किसी की हँसी। किसी की भी। लगभग दो या तीन साल हो गए होंगे कि जब मर जाने को ऐसा बेसाख़्ता दिल चाहे। शायद मैं कभी नहीं जान पाऊँगी कि जीने की इच्छा से पूरा पूरा भरा भरा होना क्या होता है।
हमको मालूम नहीं है हम तुमको कहाँ कहाँ ढूँढते फिरते हैं। इस चीज़ से हमको डर लगता है बस। एक दिन किसी को कहने का मन किया कि अगली बार अगर हम साथ में खाना खाएँगे तो हमको एक कौर अपने हाथ से खिला देना। हमको ज़ब्त आता है तो उसको कहे नहीं ये बात लेकिन मम्मी, तुम ही सोचो। ऐसा चाहना ग़लत है ना। बता देते तो क्या सोचता वो भी। ऐसे कमज़ोर लम्हे हमको बहुत डराते हैं।
टूटा हुआ बहुत कुछ है। हम अपने आप को कहते चलते हैं कि हम बहुत मज़बूत हैं। बार बार बार बार। कि बार बार ख़ुद को कहते हुए इस बात पर यक़ीन आने भी लगता है कि शायद हम जी ही जाएँगे अपने हिस्से की उम्र। शायद कोई सुख होगा ज़िंदगी में कि जिसके लिए इतनी क़वायद है।
I'm incapable of love. Or of being loved.
I miss you ma. You were the last love of my life. The unrequited one. The unconfessed one. The one who never knew. How much I loved you.
I don't know what to do. I don't know how to live. I still don't know how to move on. I'm afraid beyond words. Beyond understanding. Beyond hurt and pain.
Nothing heals. But that's because you were not a wound. Your departure too is not. It's a soul ache. I miss the part of my soul that died with you.
I hope to see you soon.
Happy Birthday my love. My ma. My only one.
I shall always love you. always.
Published on May 01, 2016 06:42