Puja Upadhyay's Blog, page 16

October 28, 2017

जानां, तुम्हारे बाद, किसी से क्या इश्क़ होगा


लिखते हुए समझ नहीं आ रहा उसे लिखूँ या उन्हें। प्रेम के बारे में लिखती हूँ तो उसे कहती हूँ, व्यक्ति की बात आती है तो उन्हें कहना चाहती हूँ।

आज बहुत दिन बाद उन्हें सपने में देखा। सपने की शुरुआत में कोई टीनेजर लड़की थी मेरे साथ। यही कोई अठारह साल के लगभग। पेज के कुछ उन रीडर्ज़ जैसी जिनसे मेरी कभी कभी बात हो जाती है। कोई ऐसी जो बहुत अपनी तो नहीं थी लेकिन प्यारी थी मुझे। मैं उसके साथ एनफ़ील्ड पर घूमने गयी थी कहीं। वहाँ पहाड़ थे और पहाड़ों से घाटी दिखती थी। एक ऊँचे पहाड़ पर कोई भी नहीं था। सुंदर मौसम था। बारिश हो रही थी। हम देर तक बारिश में भीगते रहे और बात करते रहे। प्रेम के बारे में, इसके साथ आते हुए दुःख सुख के बारे में। मेरे पास अनुभव था, उसके पास भोलापन। बहुत अच्छा लग रहा था एक दूसरे से बात कर के। हम दोनों एक दूसरे से सीख रहे थे।

वहाँ से मैं एनफ़ील्ड से ही आयी लेकिन आते आते वो लड़की कहाँ गयी, सो मुझे याद नहीं। मैं अकेले ही राइड कर रही थी मौसम बहुत गर्म था इसलिए कपड़े लगभग सूख गए थे लेकिन हेल्मट के नीचे बाल हल्के गीले थे। और कपड़ों का हल्का गीलापन कम्फ़्टर्बल नहीं था। अगले फ़्रेम में मैं उनके घर गयी हुयी हूँ। घर कुछ ऐसा है जैसे छोटे क़स्बों में घर हुआ करते हैं। छत पर कपड़े सूख रहे हैं। बालकनी है। पीछे छोटा सा आँगन है। काई लगी दीवारें हैं। मैं बहुत चाह कर भी शहर को प्लेस नहीं कर पायी कि शहर कौन सा है। ये उनका पैतृक गाँव नहीं था, ये उनके शहर का मकान नहीं था, ये मेरा पैतृक गाँव नहीं था, ये दिल्ली नहीं था, ये बैंगलोर नहीं था, ये ऐसा कोई शहर नहीं था जिसमें मैं कभी गयी हूँ लेकिन वहाँ उस मकान में अजीब अपनापन था। जैसे कि हम लोग पड़ोसी रहे हों और मेरा ऐसे उनके घर चले जाना कोई बहुत बड़ी बात ना हो। जबकि ये समझ थी कहीं कि मैं उनके घर पहली बार गयी हूँ।

भीतर का गीलापन। कपड़ों का सिमा हुआ होना जैसे बारिशों के दिन में कपड़े सूखे ना हों, हल्के गीले ही रहते हैं। कोरों किनारों पर। मैंने किसी से इजाज़त नहीं ली है, अपने कपड़े लेकर नहाने चली गयी हूँ। यहाँ का हिस्सा मेरे पटना के मकान का है। नहा के मैंने ढीली सी एक पैंट और टी शर्ट पहनी है। बाल हल्के गीले हैं। घर के बाहर औरतें बैठी हैं और बातें कर रही हैं। मैं उन्हें जानती नहीं हूँ। उनकी बेटी भी आयी हुयी है अपने कॉलेज की छुट्टियों से। जब उससे बात कर रही हूँ तो शहर दिल्ली हुआ जाता है। अपने JNU में किसी के हॉस्टल जैसा, वहाँ के गलियारे, लाल पत्थरों वाली बिल्डिंग कुछ पुराने दोस्तों के कमरे याद आ रहे हैं।शायद एक उम्र को मैं हमेशा JNU के हास्टल्ज़ से ही जोड़ती हूँ। उसकी हँसी बहुत प्यारी है। वो कह रही है कि कैसे उसे मेरा पढ़ना बहुत रास आ रहा है। मैं मुस्कुरा रही हूँ, थोड़ा लजा भी रही हूँ। हम किचन में चले आए हैं। उसे किसी ने बुलाया है तो वो चली गयी है।

ये किचन एकदम मेरे पटना वाले घर जैसा है। इसकी खिड़की पर निम्बू का पेड़ भी है। मैं उन्हें देखती हूँ। जिस प्यार की मुझे कोई समझ नहीं है। वैसे किसी प्यार में होते हुए। पूछती हूँ उनसे, ‘आप निम्बू की चाय पिएँगे?’, वे कहते हैं ‘तुम जो बनाओगी पी लेंगे, इसमें क्या है’। मैं कई उम्रों से गुज़रती हूँ वहाँ एक चाय बनाती हुयी। कई सारे सफ़र हुआ करते हैं हमारे बीच। खौलता हुआ पानी है। मैं चीनी डालती हूँ। दो कप नींबू की चाय में छह चम्मच चीनी पड़ती है। सब कुछ इतना धीमा है जैसे सपने में ही हो सकता है। खौलते पानी के बुलबुले एकदम सफ़ेद। मैं उन्हें देखती हूँ। वे कुछ कह नहीं रहे। बस देख रहे हैं। जाने कैसी नज़र से कि दिल बहुत तेज़ धड़कने लगा है। हाथ थरथरा रहे हैं। मुझे अभी चाय में पत्ती डालनी है। मैं इक थरथराहट में ही दो छोटी चम्मच पत्ती डालती हूँ। चाय का रंग दिख रहा है। गहरा आता हुआ। एकदम सफ़ेद दो प्यालियों में छानती हूँ चाय। वे खड़े हैं एकदम पास ही। कोई छह फ़ुट का क़द। साँवला रंग। एक लट माथे पर झूली हुयी जिसे हटा देने का अधिकार मुझे नहीं। उनकी आँखों का रंग देखने के लिए मुझे एकदम ही अपना सर पूरा ऊपर उठाना होता है। चाय में नींबू गारती हूँ तो सपने में भी अपनी उँगलियों से वो गंध महसूसती हूँ। चाय का रंग सुनहला होता है। मेरा हाथ कांपता है उन्हें चाय देते हुए।

दिल जानता है कि वो लम्हा है, ‘थी वस्ल में भी फ़िक्रे जुदाई तमाम शब’। कि वो सामने हैं। कि ये चाय बहुत अच्छी बनी है। कि मैं उनसे बहुत प्रेम करती हूँ। मुहब्बत। इश्क़। मगर ये, कि ये दोपहर का टुकड़ा कभी भी दुबारा नहीं आएगा। कि मैं कभी यूँ प्रेम में नहीं होऊँगी फिर। ताउम्र। कि सपना जितना सच है उतनी ज़िंदगी कभी नहीं होगी।

मैं नींद से उठती हूँ तो उनकी नर्म निगाहें अपने इर्द गिर्द पाती हूँ, जैसे कोई धूप की महीन शॉल ओढ़ा दे इस हल्की भीनी ठंढ के मौसम में। कि ये गंध। नींबू की भीनी गंध। अंतिम विदा कुछ ऐसे ही गमक में अपना होना रचता है। कि वो होते तो पूछती उनसे, आपके काँधे से अब भी अलविदा की ख़ुशबू आती है।

‘इश्क़’ इक ऐसी उम्र का शब्द है जब ‘हमेशा’ जैसी चीज़ें समझ आती थीं। इन दिनों मैं शब्दों की तलाश में यूँ भटकती हूँ जैसे ज़ख़्म चारागर की तलाश में। कौन सा शब्द हो कि इस दुखते दिल को क़रार आ जाए। इश्क़ में एक बचपन हमेशा सलामत रहता है। एक भोलापन, एक उम्मीद। कि इश्क़ करने में एक नासमझ सी हिम्मत और बिना किसी सवाल के भरोसा - दोनों चाहिए होते हैं। आसान कहाँ होता है तर्क की कसौटी पर हर सवाल का जवाब माँगना। कि वे दिन कितने आसान थे जब ज़िंदगी में शब्द बहुत कम थे। कि जब ऐसी हर महसूसियत को प्यार ही कहते थे, उसकी तलाश में दुनिया भर के शब्दकोश नहीं छानते थे। कि अच्छा था ना, उन दिनों इश्क़ हुआ उनसे और उन दिनों ये लगा कि ये इश्क़ ताउम्र चलेगा। सुबह की धूप की कसम, मैंने वादा सच्चा किया था। आपके बाद किसी से इश्क़ नहीं होगा।

हम इश्क़ को होने कहाँ देंगे। खड़ा कर देंगे उसको सवालों के कटघरे में। जिरह करेंगे। कहेंगे कि प्रूफ़ लाओ। कुछ ऐसा जो छू कर देखा जा सके, चखा जा सके, कुछ ऐसा जो रेप्लिकेट किया जा सके। फ़ोटोस्टैट निकाल के लाओ फ़ीलिंज़ का।

ऐसे थोड़े होता है सरकार। हमारे जैसे आवारा लोगों के दिल पर कुछ आपकी हुकूमत, आपकी तानाशाही थी तो अच्छा था। वहाँ से छूटा ये दिल आज़ाद हो गया है। अब कहाँ किसी के नज़र के बंधन में बांधे। अब कहाँ किसी के शब्दों में उलझे। अब तो दूर दूर से देखता है सब। भीगता है मगर डूबता नहीं। या कि किसी में ताब कहाँ कि खींच सके हमें हमारी ज़िद से बाहर। कितने तो भले लोग हैं सब। हमारी फ़िक्र में हमें छोड़ देते हैं…साँस लेते देते हैं…उड़ने देते हैं आज़ाद आसमान में।

गाने की लाइन आती है, सीने में उलझती हुयी, किसी बहुत पुराने इश्क़ की आख़िरी याद जैसी। ‘कितना सुख है बंधन में’। कि बहुत तड़प थी। आवाज़ के एक क़तरे के लिए जान दे देने की नौबत थी। कि चाँद दुखता था। कि जिसे देखा भी नहीं था कभी, जिसे सिर्फ़ शब्दों को छू कर महसूसा था, उसका इश्क़ इतना सच्चा, इतना पक्का था कि रूह से वादा माँग लिया, ‘अब तुम्हारे बाद किसी से इश्क़ ना होगा’।

कैसा था आपको देखना? छूना। चूमना आपकी उँगलियाँ? मज़ार पर जा कर मन्नत का कोई लाल धागा खोलना और बाँध लेना उससे अपनी रूह के एक कोने में गाँठ। कि इतना ही हासिल हो ज़िंदगी भर का। इंतज़ार के रंग में रंगना साल भर और इश्क़ को देना इजाज़त कि भले ख़ून से होली खेली जाए मगर मक़तल की रौनक़ सलामत रहे। साथ पी गयी सिगरेट के बुझे हुए हिस्से की गंध में डूबी उँगलियाँ लिख जाएँ कहानियाँ मगर बचा के रखें दुनिया की नज़र से। कि जिसे हर बार मिलें यूँ कि जैसे आख़िरी बार हो। कि मर जाएँगे अगली बार मिलने के पहले ही कहीं। कि सिर्फ़ एक गीत हो, पुराना, शबे तन्हाई का...चाय हो इलायची वाली और ठंढ हो बस। कह सकते हैं इश्क़ उसे?

कि वो इश्क़ परिभाषाओं का मोहताज कहाँ था जानां...वो तो बस यक़ीन था...सीने में धड़कता...तुम्हारे नाम के साथ। हम हर चीज़ की वजह कहाँ माँगते तह उन दिनों। वे दिन। कि जब इश्क़ था, बेहतर थे। सुंदर थे। ज़िंदा थे।

दुनियादारी में हमसे इश्क़ भी छूटा और हमेशा जैसी किसी चीज़ पर भरोसा भी। कैसा लगता है सूना सूना दिल। उजाड़। कि जिसमें मीलों बस्ती नहीं कोई। घर नहीं कोई। सराय नहीं। मयखाना भी नहीं। याद के रंग झर गए हैं सब उँगलियों से। वरना, जानां, लिखते तुम्हें एक आख़िरी ख़त…बग़ैर तुम्हारी इजाज़त के…कहते… ‘जानां, तुम्हारे बाद, वाक़ई किसी से इश्क़ ना होगा’।
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Published on October 28, 2017 20:59

October 20, 2017

इक अभागन का क़िस्सा

छह हफ़्ते के बच्चे को फीटस कहते हैं। एक नन्हें से दाने के बराबर होता है और उसका दिल बनना शुरू हो जाता है। ऐसा डॉक्टर बताती है। इसके साथ ये ज़रूरी जानकारी भी कि औरत इस बच्चे को जन्म नहीं दे सकती, बहुत ज़्यादा प्रॉबबिलिटी है कि बच्चा ऐब्नॉर्मल पैदा हो। लड़की का मैथ कमज़ोर होता है। उसे प्रॉबबिलिटी जैसी बड़ी बड़ी चीज़ें समझ नहीं आतीं। टकटकी बांधे देखती है चुपचाप। उसे लगता है वो ठीक से समझ नहीं पायी है।

तब से उसे मैथ बहुत ख़राब लगता है। उसने कई साल प्रॉबबिलिटी पढ़ने और समझने की कोशिश की लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि जहाँ कर्मों की बात आ जाती है वहाँ फिर मैथ कुछ कर नहीं सकता। ९९ पर्सेंटिज होना कोई ज़्यादा सुकून का बायस कैसे हो सकता है किसी के लिए। वो जानना चाहती है कि कोई ऐसा ऐल्गोरिदम होता है जो बता सके कि उसने डॉक्टर की बात मान के सही किया था या नहीं। उसने ज़िंदगी में किसी का दिल नहीं दुखाया कभी। जैसा बचपन के संस्कारों में बताया गया, सिखाया गया था वैसी ज़िंदगी जीती आयी थी। कुछ दिन पहले तो ऐसा था कि दुनिया उसे साथ बुरा करती थी तो तकलीफ़ होती थी, फिर उसने अपने पिता से इस बारे में बात की…पिता ने उसे समझाया कि हमें अच्छा इसलिए नहीं करना चाहिए कि हम बदले में दुनिया से हमारे प्रति वैसा ही अच्छा होने की उम्मीद कर सकें। हम अच्छा इसलिए करते हैं कि हम अच्छे हैं, हमें अच्छा करने से ख़ुशी मिलती है और हमारी अंतरात्मा हमें कचोटती नहीं। इसके ठीक बाद वो दुनिया से ऐसी कोई उम्मीद बाँधना छोड़ देती है।

अजन्मे बच्चे के चेहरे की रेखाएँ नहीं उभरी होंगी लेकिन उसने लड़की से औरत बनते हुए हर जगह उसे तलाशा है। दस साल तक की उम्र के बच्चों को हँसते खेलते देख कर उसे एक अजीब सी तकलीफ़ होती है। वो अक्सर सोचती है इतने सालों में अगर उसका अपना एक बच्चा हुआ होता तो क्या वो उसे कम याद करती? या अपने मैथ नहीं जानने पर कम अफ़सोस करती?

दुनिया के सारे सुखों में से सबसे सुंदर सुख होता है किसी मासूम बच्चे के साथ वक़्त बिताना। उससे बातें करना। उसकी कहानियाँ सुनना और उसे कहानियाँ सुनाना। पाँच साल पहले ऐसा नहीं था। उसे बच्चे अच्छे लगते थे। वो सबसे पसंदीदा भाभी, दीदी, मौसी हुआ करती थी। छोटे बच्चे उससे सट कर बैठ जाया करते गरमियों में। वो उनसे बहुत दुलार से बात करती। उसके पास अपनी सबसे छोटी ननद की राक्षस की कहानी के लिए भी वैसी ही उत्सुकता थी जैसे ससुर के बनाए हुए साइंस के थीअरम्ज़ के लिए थी। बच्चे उसके इर्द गिर्द हँसते खिलखिलाते रहते। उसका आँचल छू छू के देखते। उसकी दो चोटियाँ खींचना चाहते लेकिन वो उन्हें आँख दिखा देते और वे बदमाश वाली मुस्कान मुस्कियाते।

अपनी मर्ज़ी और दूसरी जाति में शादी करने के कारण उसके मायक़े के ब्राह्मण समाज ने उसे बाहर कर दिया था। वो जब बहुत साल बाद लौट कर गयी तो लोग उसे खोद खोद कर उसके पति के बारे में पूछते। बड़ी बूढ़ी औरतें उसके ससुर का नाम पूछती और अफ़सोस जतातीं। जिस घर ने उस बिन माँ की बेटी को दिल में बसा लिया था, उसके पाप क्षमा करते हुए, उस घर को एक ही नज़र से देखतीं। औरतें। बच्चे। पुरुष। सब कोई ही। हर नया व्यक्ति उससे दो चीज़ें जानना चाहता। माँ के बारे में, कि जिसे जाए हुए साल दर साल बीतते जा रहे थे लेकिन जो इस लड़की की यादों में और दुखती हुयी बसी जा रही थी और ससुराल के बारे में।

औरत के ज़िंदगी के दो छोर होते हैं। माँ और बच्चा। औरत की ज़िंदगी में ये दोनों नहीं थे। वो सोचती अक्सर कि अगर उसकी माँ ज़िंदा होती या उसे एक बच्चा होता तो क्या वो कोई दूसरे तरह की औरत होती? एक तरह से उसने इन दोनों को बहुत पहले खो दिया था। खो देने के इस दुःख को वो अजीब चीज़ों से भरती रहती। बिना ईश्वर के होना मुश्किल होता तो एक दिन वह पिता के कहने पर एक छोटे से कृष्ण को अपने घर ले आयी। ईश्वर के सामने दिया जलाती औरत सोचती उन्हें मन की बात तो पता ही है, याचक की तरह माँगने की क्या ज़रूरत है। वो पूजा करती हुयी कृष्ण को देख कर मुस्कुराती। सच्चाई यही है जीवन की। हर महीने उम्मीद बाँधना और फिर उम्मीद का टूट जाना। कई सालों से वो एक टूटी हुयी उम्मीद हुयी जा रही थी बस।

एक औरत कि जिसकी माँ नहीं थी और जिसके बच्चे नहीं थे।

बहुत साल पीछे बचपन में जाती, अपने घर की औरतों को याद करती। दादी को। नानी को। जिन दिनों दादी घर पर रहा करती, दादी के आँचल के गेंठ में हमेशा खुदरा पैसे रहते। चवन्नी, अठन्नी, दस पैसा। पाँच पैसा भी। घर पर जो भी बच्चे आते, दादी कई बार उनको घर से लौटते वक़्त अपने आँचल की गेंठ खोल कर वो पैसा देना चाहती उनकी मुट्ठी में। गाँव के बच्चों को ऐसी दादियों की आदत होती होगी। शहर के बच्चे सकपका जाते। उन्हें समझ नहीं आता कि एक रुपए का वे क्या करेंगे। क्या कर सकते हैं। वो अपने बचपन में होती। वो उन दिनों चाहती कि कभी ख़ूब बड़ी होकर जब बहुत से पैसे कमाएगी तो दादी को अपने गेंठरी में रखने के लिए पाँच सौ के नोट देगी। ख़ूब सारे नोट। लेकिन नोट अगर दादी ने साड़ी धोते समय नहीं निकाले तो ख़राब हो जाएँगे ना? ये बड़ी मुश्किल थी। दादी थी भी ऐसी भुलक्कड़। अब इस उम्र में आदत बदलने को तो बोल नहीं सकती थी। दादी के ज़िंदा रहते तक गाँव में उसका एक घर था। बिहार में जब लोग पूछा करते थे कि तुम्हारा घर कहाँ है तो उन दिनों वो गाँव का नाम बताया करती थी। अपभ्रंश कर के। जैसे कि दादी कहा करती थी। दनयालपुर।

उसे कहानियाँ लिखना अच्छा लगता था। किसी किरदार को पाल पोस कर बड़ा करना। उसके साथ जीना ज़िंदगी। कहानियाँ लिखते हुए वो दो चोटी वाली लड़की हुआ करती थी। कॉलेज को भागती हुयी लड़की कि जिसकी माँ उसे हमेशा कौर कौर करके खाना खिला रही होती थी कि वो भुख्ले ना चली जाए कॉलेज। माँ जो हमेशा ध्यान देती थी कि आँख में काजल लगायी है कि नहीं घर से बाहर निकलने के पहले। कि दुनिया भर में सब उसकी सुंदर बेटी को नजराने के लिए ही बैठा है। माँ उसके कहे वाक्य पूरे करती। लड़की अपने बनाए किरदारों के लिए अपनी मम्मी हुआ करती। आँख की कोर में काजल लगा के पन्नों पर उतारा करती। ये उसके जीवन का इकमात्र सुख था।

सुख, दुःख का हरकारा होता है। औरत जानती। औरत हमेशा अपनी पहचान याद रखती। शादीशुदा औरत के प्यार पर सबका अधिकार बँटा हुआ होता। भरे पूरे घर में देवर, ननद, सास…देवरानी…कई सारे बच्चे और कई बार तो गाँव की बड़ी बूढ़ी औरतें भी होतीं जो उसके सिगरेट ला देने पर आशीर्वाद देते हुए सवाल पूछ लेतीं कि ई लाने से क्या होगा, ऊ लाओ ना जिसका हमलोग को ज़रूरत है।

ईश्वर के खेल निराले होते। औरत को बड़े दुःख को सहने के लिए एक छोटा सा सुख लिख देता। एक बड़ा सा शहर। बड़े दिल वाला शहर। शहर कि जिसके सीने में दुनिया भर की औरतों के दुःख समा जाएँ लेकिन वो हँस सके फिर भी कोई ऐसी हँसी कि जिसका होना उस एक लम्हे भर ही होता हो।

शहर में कोई नहीं पहचानता लड़की को। हल्की ठंढ, हल्की गरमी के बीच होता शहर। लड़की जूड़ा खोलती और शहर का होना मीठा हुआ जाता। शहर उसकी पहचान बिसार देता। वो हुयी जाती कोई खुल कर हँसने वाली लड़की कि जिसकी माँ ज़िंदा होती। कि जिसे बच्चे पैदा करने की फ़िक्र नहीं होती। कि जिसकी ज़िंदगी में कहानियाँ, कविताएँ, गीत और बातें होतीं। कि जिसके पास कोई फ़्यूचर प्लान नहीं होता। ना कोई डर होता। उसे जीने से डर नहीं लगता। वो देखती एक शहर नयी आँखों से। सपने जैसा शहर। कोई अजनबी सा लड़का होता साथ। जिसका होना सिर्फ़ दो दिन का सच होता। लड़की रंग भरे म्यूज़ीयम में जाती। लड़की मौने के प्रेम में होती। लड़की पौलक को देखती रहती अपलक। उसकी आँखों में मुखर हो जाते चुप पेंटिंग के कितने सारे तो रंग। सारे सारे रंग। लड़की देखती आसमान। लड़की पहचानती नीले और गुलाबी के शेड्स। शहर की सड़कों के नाम। ट्रेन स्टेशन पर खो जाती लेकिन घबराहट में पागल हो जाने के पहले उसे तलाश लेता वो लड़का कि जिसे शहर याद होता पूरा पूरा। लड़की ट्रेन में सुनाती क़िस्सा। मौने के प्रेम में होने को, कि जैसे भरे शहर में कोई नज़र खींचती है अपनी ओर, वैसे ही मौने की पेंटिंग बुलाती है उसे। बिना जाने भी खिंचती है उधर।

कुछ भी नहीं दुखता उन दिनों। सब अच्छा होता। शहर। शहर के लोग। मौसम। कपड़े। सड़क पर मिलते काले दुपट्टे। पैरों की थकान। गर्म पानी। प्रसाद में सिर्फ़ कॉफ़ी में डालने वाली चीनी फाँकते उसके कृष्ण भगवान।

शहर बसता जाता लड़की में और लड़की छूटती जाती शहर में। लौट आने के दिन लड़की एक थरथराहट होती। बहुत ठंढी रातों वाली। दादी के गुज़र जाने के बाद ट्रेन से उसका परिवार गाँव जा रहा था। बहुत ठंढ के दिन थे और बारिश हो रही थी। खिड़की से घुसती ठंढ हड्डियों के बीच तक घुस जा रही थी। वही ठंढ याद थी लड़की को। उसकी उँगलियों के पोर ठंढे पड़ते जाते। लड़की धीरे धीरे सपने से सच में लौट रही होती। कहती उससे, मेरे हाथ हमेशा गरम रहते थे। हमेशा। कितनी भी ठंढ में मेरे हाथ ठंढे नहीं पड़ते। लेकिन जब से माँ नहीं रही, पता नहीं कैसे तो मेरी हथेलियाँ एकदम ठंढी हो जाती हैं।

शहर को अलविदा कहना मुश्किल नहीं था। शहर वो सब कुछ हुआ था उसके लिए जो कि होना चाहिए था। लड़की लौटते हुए सुख में थी। जैसे हर कुछ जो चाहा था वो मिल गया हो। कोई दुःख नहीं छू पा रहा था उसकी हँसती हुयी आँखें। उसके खुले बालों से सुख की ख़ुशबू आती थी।

लौट आने के बाद शहर गुम होने लगा। लड़की कितना भी शहर के रंग सहेज कर रखना चाहती, कुछ ना कुछ छूट जाता। मगर सबसे ज़्यादा जो छूट रहा था वो कोई एक सपने सा लड़का था कि जिसे छू कर शिनाख्त करने की ख़्वाहिश थी, कि वो सच में था। हम अपने अतीत को लेकिन छू नहीं सकते। आँखों में रीप्ले कर सकते हैं दुबारा।

सुख ने कहा था कि दुःख आएगा। मगर इस तरह आसमान भर दुःख आएगा, ये नहीं बताया था उसने। लड़की समझ नहीं पाती कि हर सुख आख़िरकार दुःख में कैसे मोर्फ़ कर जाता है। दुःख निर्दयी होता। आँसुओं में उसे डुबो देता कि लड़की साँस साँस के लिए तड़पती। लड़की नहीं जानती कि उसे क्या चाहिए। लड़की उन डेढ़ दिनों को भी नहीं समझ पाती। कि कैसे कोई भूल सकता है जीवन भर के दुःख। अभाव। मृत्यु। कि वो कौन सी टूटन थी जिसकी दरारों में शहर सुनहले बारीक कणों की तरह भर गया है। जापानी फ़िलोस्फी - वाबी साबी। कि जिससे टूटन अपने होने के साथ भी ख़ूबसूरत दिखे।

महीने भर बाद जब हॉस्पिटल की पहली ट्रिप लगी तो औरत के पागलपन, तन्हाई और चुप्पी ने पूरा हथियारबंद होकर सुख के उस लम्हे पर हमला किया। नाज़ुक सा सुख का लम्हा था। अकेला। टूट गया। लड़की की उँगलियों में चुभे सुख के टुकड़े आँखों को छिलने लगे कि जब उसने आँसू पोंछने चाहे।

उसने देखा कि शहर ने उसे बिसार दिया है। कि शहर की स्मृति बहुत शॉर्ट लिव्ड होती है। औरत अपने अकेलेपन और तन्हाई से लड़ती हुयी भी याद करना चाहती सुख के किसी लम्हे को। लौट लौट कर जाना और लम्हे को रिपीट में प्ले करना उसे पागल किए दे रहा था। कई किलोमीटर गाड़ी बहुत धीरे चलाती हुयी औरत घर आयी और बिस्तर पर यूँ टूट के पड़ी कि बहुत पुराना प्यार याद आ गया। मौत से पहली नज़र का हुआ प्यार।

उसे उलझना नहीं चाहिए था लेकिन औरत बेतरह उलझ गयी थी। अतीत की गांठ खोल पाना नामुमकिन था। लम्हा लम्हा अलगा के शिनाख्त करना भी। सब कुछ इतने तीखेपन से याद था उसे। लेकिन उसे समझ कुछ नहीं आ रहा था। वो फिर से भूल गयी थी कि ज़िंदगी उदार हो सकती है। ख़्वाहिशें पूरी होती हैं। बेमक़सद भटकना सुख है। एक मुकम्मल सफ़र के बाद अलविदा कहना भी सुख है।

हॉस्पिटल में बहुत से नवजात बच्चे थे। ख़बर सुन कर ख़ुशी के आँसू रोते परिवार थे। औरत ख़ुद को नीले कफ़न में महसूस कर रही थी। उसे इंतज़ार तोड़ रहा था। दस साल से उसके अंदर किसी अजन्मे बच्चे का प्रेम पलता रहा था। दुःख की तरह। अफ़सोस की तरह। छुपा हुआ। कुछ ऐसा कि जिसकी उसे पहचान तक नहीं थी।

आख़िरकार वो खोल पायी गुत्थी कि सब इतना उलझा हुआ क्यूँ था। कि एक शादीशुदा औरत के प्यार पर बहुत से लोगों का हिस्सा होता है। उसका ख़ुद का पर्सनल कुछ भी नहीं होता। प्यार करने का, प्यार पाने का अधिकार होता है। कितने सारे रिश्तों में बँटी औरत। सबको बिना ख़ुद को बचाए हुए, बिना कुछ माँगे हुए प्यार करती औरत के हिस्से सिर्फ़ सवाल ही तो आते हैं। ‘ख़ुशख़बरी कब सुना रही हो?’ । सिवा इस सवाल के उसके कोई जवाब मायने नहीं रखते। उसका होना मायने नहीं रखता। वो सिर्फ़ एक औरत हो जाती है। एक बिना किनारे की नदी।

बिना माँ की बच्ची। बिना बच्चे की माँ।

दादी जैसा जीवन उसने नहीं जिया था कि सुख से छलकी हुयी किसी बच्चे की मुट्ठी पर अठन्नी धर सके लेकिन अपना पूरा जीवन खंगाल के उसने पाया कि एक प्यार है जो उसने अपने आँचर की गाँठ में बाँध रखा है। इस प्यार पर किसी का हिस्सा नहीं लिखाया है। किसी का हक़ नहीं।

वो सकुचाते हुए अपनी सूती साड़ी के आँचल से गांठ खोलती है और तुम्हारी हथेली में वो प्यार रखती है जो इतने सालों से उसकी इकलौती थाती है।

वो तुम्हारे नाम अपने अजन्मे बच्चे के हिस्से का प्यार लिखती है।  
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Published on October 20, 2017 14:18

October 18, 2017

मुहब्बत एक सवाल नहीं है कि मैं तुम्हें कोई जवाब दे सकूँ


तुम ये कान्फ़्लिक्ट फ़ितरतन लिए आयी हो। तुम्हारी आत्मा इस कश्मकश से ही बनी है। उसके सारे रेशे। तुम्हारा सारा दुःख।
कि महसूस लें वो सारा कुछ जो नैचुरल है। स्वाभाविक है। जी लें इतना इंटेन्स कि जैसा जीना आता है। खोल दें ख़ुद को पुर्ज़ा पुर्ज़ा। इजाज़त दे दें मुहब्बत को कि हमें नेस्तनाबूद कर दे। तोड़ दे इतने टुकड़ों में और बाँट दें इतने हज़ार पन्नों, किरदारों में कि सब मिला कर भी कभी हो नहीं पाएँ पूरे के पूरे। 
कि मिलो बहुत हज़ार साल बाद कभी। कई जन्मपार कभी। किसी और ऑल्टर्नट रीऐलिटी में। पूछ सकूँ तुमसे, माँग सकूँ उस रोज़ भी। कह सकूँ, भले हिचकते हुए ही सही। 'Can I get a hug?' तुम हँसो कि हम जानें कि वाक़ई कोई मिसिंग टुकड़ा है मेरा। तुम्हारे पास। जिगसा पज़ल का कोई हिस्सा। कि हर मुहब्बत हमें वो एक टुकड़ा लौटाती है जिसकी तलाश में हम किसी चकरघिन्नी की तरह पूरी दुनिया भटक रहे होते हैं। कि मेरे पैरों में इतनी आवारगी इसलिए बसी है कि मेरी रूह के टुकड़े पूरी दुनिया में बिखरे पड़े हैं।

या कि बंद कर दें किवाड़ और बचा ले जाएँ ख़ुद को इस तूफ़ान से। जीना सीख लें ये जानते हुए कि मेरी कहानी का कोई किरदार, abandoned, जी रहा है दुनिया के किसी और छोर पर के किसी शहर पर। कि वो जब रात को पुकारे मुझे और जिरह करे किसी ईश्वर से कि उसने मुझे थोड़ी और हिम्मत क्यूँ नहीं दी तो मेरे पास उसे देने को पन्ने भर की जगह न हो अपनी ज़िंदगी में। कि ख़त्म हो चुकी कहानी में फ़ुट्नोट की तरह कहाँ शामिल होती है मुहब्बत। ऐसे तो सिर्फ़ मौत शामिल होती है।

कि फिर लड़ लें किसी ईश्वर से, कि कुछ लोगों को इतना टूटा-फूटा क्यूँ बनाते हो। कि इतने सारे लोग जो मुझे पढ़ते हैं, और जो कुछ लोग मेरे दोस्त हैं... उनमें से कौन है जिसे बता सकें...कि कितना डर डर के जी है ज़िंदगी। कौन समझेगा इस तरह के लिखने के पीछे किस तरह का टूटना छुपाया गया है। कि कितने मौत मरता है कोई किसी एक किरदार का टूटा हुआ दिल रचने के लिए। कैसा तो बचकाना है ये सब। कितना ऊब से भरा हुआ। कितना रिपीट पर चलता हुआ। वही बिम्ब। वही किरदार। फिर से वही इन्फ़िनिट लूप।

तो फिर हम क्यूँ जीते हैं फिर भी हर बार वही एक कहानी? 
इसलिए कि अभी भी मुहब्बत बहुत रेयर है...बहुत दुर्लभ है। पूछो अपने इर्दगिर्द के लोगों से कि उन्होंने आख़िर बार कब बहुत मुहब्बत महसूस की थी। ख़ुद से ही पूछो कितने साल पहले महसूस किया था दिल का यूँ धड़कना। मिले थे किसी से कि जिसकी ख़ातिर दुनिया का मानचित्र बदल कर एक शहर खींच लेने की ख़्वाहिश हुयी थी अपने दिल के एकदम पास कभी। कि अब भी उसकी आँखों का रंग नया होता है। उसकी हँसी की नर्माहट भी। या कि उसके साथ चलते हुए जो भरोसा होता है वो एकदम ही नया है। कि ज़िंदगी के कितने लाखों शेड्स हैं और मुहब्बत के कितने कितने कितने इंद्रधनुष। कि कोई मुहब्बत कभी रिपीट नहीं होती। बस प्लॉट होता है सेम। कि कोई नहीं मिलता है उस तरह से पहली बार, ना कोई बिछड़ता ही है वैसे दुनिया की भीड़ में। कि हर अलविदा अलग इंटेन्सिटी से दुखता है सीने में।

कि फिर। मुहब्बत फिर। तुम्हारा नाम एक चीख़ है। मेरे कलेजे को चाक करती हुयी। एक चुप चीख़।

सुनी है तुमने? नहीं? तुम्हारी नींदों में नहीं चुभती कोई चीख़?

तो फिर, मेरी जान। तुमने मुझसे प्यार नहीं किया है कभी। और सुनो। ईश्वर अभी भी मेहरबान है तुम पर। अपने सपनों पर बिठा के रखो सच्चे, ईमानदार वाले दरबान कि जो ख़यालों के किसी दुःख को छूने ना दें तुम्हारी आँखें। तुम किसी की दुआ में जी रहे हो कि मेरा इश्क़ तुम्हारी आँखें चूम कर चला आया बस।

कि मेरा इश्क़ क़ातिल है। फ़ितरतन क़ातिल।
और मैं तुमसे प्यार करती हूँ। बहुत प्यार।
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Published on October 18, 2017 04:49

October 17, 2017

सुख और सपने में कितना अंतर होता है?


मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो बेवजह ही क़िस्मत को कोसते और गरियाते रहते हैं। या कि ईश्वर को ही। इन दिनों अच्छा है सब। कोई ख़ास दुःख, तकलीफ़ नहीं है। बड़े बड़े दुःख हैं, जिनके साथ जीना सीख रहे हैं। दोपहर मेरे पढ़ने का समय होता है। आज धनतेरस है। मन भी जाने कहाँ, किस देस, किस शहर, किस टाइम ज़ोन में उलझा हुआ है। टेबल पर ठीक ऊपर के रैक में वो किताबें रखी हैं जो मैं इस बार की अमरीका की ट्रिप से लायी हूँ। इसके सिवा कुछ और किताबें हैं जो मैं दिन दिनों पढ़ती हूँ. अभी ब्रश करना, नहाना, पूजा, नाश्ता...सब कुछ ही बाक़ी है। आज बाज़ार जा के ख़रीददारी भी करनी है। रैक की ओर देखा और सोचा, धुंध से उठती धुन निकालती हूँ और जो पहला पन्ना खुलेगा, उसे यहाँ सहेज दूँगी। अस्तु।

***

28 सितम्बर, 1987
आज शाम पार्टी है। रामू अमेरिका जा रहे हैं - एक साल के लिए। वह दिल्ली में उन कम, बहुत कम मित्रों में से हैं, जिनसे खुल कर वार्तालाप होता था। उनके ना होने से ख़ाली शामों का सिलसिला शुरू होगा।
यह ठीक है। मैं यही चाहता हूँ। सर्दियाँ शुरू हो रही हैं। रिकार्ड है, अनपढ़ी, अधपढ़ी किताबें हैं और सबसे अधिक, अधलिखा अधूरा उपन्यास...
कहानी चल रही है। मैं इतनी अधूरी चीज़ों के बीच हूँ, कि यह सोच कर घबराहट होती है, कि उनका अंत कहाँ और कैसा होगा, मुझे कहाँ ले जाकर छोड़ेगा।
श्रीकांत की अंतिम किताब पढ़ते हुए बहुत बेचैनी होती है। वह कितने ऊँचे-नीचे स्तरों पर चढ़ते-उतरते रहते थे। कोई हिसाब है? न्यूयार्क के अस्पताल में लेटे हुए, नालियों से जुड़े हुए, सूइयों से बींधे हुए, पट्टियों से बँधे हुए...मैंने उनका नाम लिया, तो कहीं दूर-सुदूर से आए और आँखें खोल दीं। मैंने उनका हाथ दबाया, वह देखते रहे...उन्होंने मृत्यु को थका डाला, मृत्यु ने उन्हें...आख़िर दोनों ने हथियार डाल दिए - उनकी मृत्यु एक तरह का शांति समझौता था...सीज फ़ायर के अदृश्य काग़ज़ पर दोनों के हस्ताक्षर थे!
बोर्खेस की कविताएँ, एक ऋषि अंधेरे में ताकते हुए, उन सब छायाओं के समकालीन, जो इस धरती पर रेंग रही थीं, एक दृष्टिहीन द्रष्टा! एक असाधारण कवि...

3 अक्टूबर, 1987
दुःख: अंतहीन डूबने का ऐंद्रिक बोध, साँस ना ले पाने की असमर्थता, जबकि हवा चारों तरफ़ है, जीने की कोशिश में तुम्हारी मदद करती हुयी...तुम ख़तरे की निशानी के परे जा चुके हो, और अब वापसी नहीं है...
पेज संख्या - 91

***
23 अक्टूबर, 1987
ऐसे दिनों में लगता है, जीना, सिर्फ़ जीना, सिर्फ़ साँस लेना, धरती पर होना, चलना, सिर्फ़ देखना - यह कितनी बड़ी ब्लैसिंग  है : अपनी तकलीफ़ों, दुखों, अधूरे गड़बड़ कामों के बावजूद...और तब हमें उन लोगों की याद आती है, जो इतने बड़े थे और जिन्हें इतनी छोटी-सी नियामत भी प्राप्त नहीं है, जो धरती पर रेंगती हुयी च्यूँटी को उपलब्ध है! हम जीने के इतने आदी हो गए हैं, कि 'जीवन' का चमत्कार नहीं जानते। शायद इसी शोक में प्रूस्त ने कहा था, "अगर आदत जैसी कोई चीज़ नहीं होती, तब ज़िंदगी उन सबको अनिवार्यत: सुंदर जान पड़ती, जिन्हें मृत्यु कभी भी घेर सकती है - यानी उन सबको, जिन्हें हम 'मानवजाति' कहते हैं"।
पेज संख्या - 93 
~  यह मौसम नहीं आएगा फिर ॰ धुंध से उठती धुन ॰ निर्मल वर्मा 
***

धुंध से उठती धुन को पढ़ने के पहले निर्मल के लिखे कितने सारे उपन्यासों से गुज़रना होगा। कितनी कहानियों को कहानी मान कर चलना होगा सिर्फ़ इसलिए कि हम जब इस डायरी में देखें उनके लिखे हुए नोट्स तो पहचान लें कि ज़िंदगी और कहानी अलग नहीं होती।

ख़ुद को माफ़ कर सकें उन किरदारों के लिए जिनका ज़रा सा जीवन हमने चुरा कर कहानी कर दिया। कि कौन होता है इतना काइंड, इतना उदार कि दे सके पूरा हक़, कि हाँ, लिख लो मुझे। जितने रंगों में लिखना चाहो तुम। कौन हो इतना निर्भीक कि कह सके, तुम्हारे शब्दों से मुझे डर नहीं लगता। कि तुम्हारी कहानी में मेरे साथ कभी बुरा नहीं होगा, इतना यक़ीन है मुझे। या कि अगर तुम क़त्ल भी कर दो किरदार का, तो इसलिए कि असल ज़िंदगी का कोई दुःख किरदार के नाम लिख कर मिटा सको मेरी ज़िंदगी की टाइम्लायन से ही। कि निर्मल जब कहते हैं 'वे दिन' में भी तो, सिर्फ़ साँस लेना कितनी बड़ी ब्लेसिंग है। कि तुम भी तो। कितनी बड़ी ब्लेसिंग हो।

कला हमें अपने मन के भावों की सही सही शिनाख्त करना सिखाती है। हम जब अंधेरे में छू पाते हैं किसी रात का कोई दुखता लम्हा तो जानते हैं कि इससे रंगा जा सकता है antagonist का सियाह दिल। कला हमें रहमदिल होना सिखाती है। संगीत का कोई टुकड़ा मिलता है तो हम साझा करते हैं किसी के साथ और देखते हैं कि सुख का एक लम्हा हमारे बीच किसी मौसम की तरह खिला है।

दुःख गाढ़ा होता है, रह जाता है दिल पर, बैठ जाता है किसी भार की तरह काँधे पर। जैसे कई योजन चलना पड़े दिल भारी लिए हुए। आँख भरे भरे समंदर लिए हुए।

सुख हल्का होता है। फूल की तरह। तितली की तरह। क्षण भर बैठता है हथेली पर और अपने रंग का कोई भी अंश छोड़े बिना अगले ही लम्हे आँखों से ओझल हो जाता है। तितली उड़ती है तो हम भी उसकी तरह ही भारहीन महसूस करते हैं ख़ुद को। पंखों के रंगों से सजे हुए भी। सुख हमें हमेशा हल्का करता है। मन, आँख, आत्मा। सब पुराने गुनाह बहा आते हैं किसी प्राचीन नदी में और हो जाते हैं नए। अबोध। किलकते हुए।

कभी अचानक से होता है। कोई एक दिन। कोई एक शहर। कोई एक शख़्स। सुख, किसी अपरिचित की तरह मिलता है। किसी पुराने प्रेमी की तरह जिसे पहचानने में एक लम्हा लगता है और फिर बस, मन में धूप ही धूप उगती है। हम एकदम से ही शिनाख्त नहीं कर सकते सुख की...ख़ास तौर से तब, जब वो किसी दूर के शहर से लम्बा सफ़र कर के आ रहा हो। हमें वक़्त लगता है। उसे धो पोंछ कर देखते हैं हम ठीक से। छू कर। पानी का एक घूँट बाँट कर चखते हैं उसकी मिठास। सुख के होने का ऐतबार नहीं होता हमें इसलिए सड़क पार करते हुए हम चाहते हैं कि पकड़ लें एक कोना उसकी सफ़ेद शर्ट की स्लीव का। सुख को लेकिन याद होते हैं हम। वो साथ चलते हुए हाथ सहेज कर पॉकेट में नहीं रखता। सुख हमारा ख़याल रखता है। सुख हमें जीने का स्पेस देता है। सुख हमारे लिए आसमान रचता है और ज़मीन भी। सुख हमारे लिए एक शहर होता है।

सुख हमें नयी परिभाषाएँ रचने का स्पेस देता है। कि कभी कभी किसी दूसरे शहर के समय में ठहरी हुयी घड़ी होती है सुख। कभी लिली की सफ़ेद गंध। कभी मन की बर्फ़ीली झील पर स्केटिंग करने और गिर कर हँसने की कोई भविष्य की याद होता है सुख। इक छोटे से काँच के गोले में नाचते हैं नन्हें सफ़ेद कण कि जिन्हें देखकर मन सीखता है यायावरी फिर से। कौन जाने कैसी गिरती है किसी और शहर में बर्फ़। कोई किताब होती है उसके हाथों की छुअन बचाए ज़रा सी अपनी मार्जिन पर।

बहुत दूर के दो शहरों में लोग एक साथ थरथराते हैं ठंढ और अपनी बेवक़ूफ़ी के कारण। कि कोई सेंकता है महोगनी वाले कैंडिल की लौ पर अपने हाथ और भेजता है एक गर्माहट भरा सुख का लम्हा फ़ोन से कई समंदर पार। बताती है लड़की उसे कि सफ़ेद लिली सूंघ कर देखना किसी फ़्लोरिस्ट की दुकान पर। बहुत दिन बाद एक मफ़लर बुनने भर को चाह लेना है सुख। एक पीला, लेमन येलो कलर का मफ़लर। ऊन के गोले लिए रॉकिंग चेयर पर बैठी रहे और जलती रहे फ़ायरप्लेस में महोगनी की गंध लिए लकड़ियाँ।

सुख और सपने में कितना अंतर होता है?

सिल्क की गहरी नीली साड़ी में मुस्कुराना उसे देख कर और उसकी हँसी को नज़र ना लगे इसलिए ज़रा सा कंगुरिया ऊँगली से पोंछ लेना आँख की कोर का काजल और लगा देना उसके कान के पीछे। इतना सा टोटका कर के हँसना उसके साथ। कि दुनिया कितनी सुंदर। कितनी उजली और रौशन है। कि प्रेम कितना भोला, कितना सुंदर और कितना उदार है। 
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Published on October 17, 2017 02:05

October 15, 2017

कि जिनकी हँसी का अत्तर मोलाया जा सके सिर्फ़ आँसू के बदले

1. खुदा, हमारे इश्क़ पर बस इतनी इनायत करना
हमारा रक़ीब सिर्फ़ 'वक़्त' हो
कोई शख़्स नहीं कि जो छीन ले जाए
तुमको मेरी बाँहों से कहीं दूर
तुम्हारे ख़्वाबों से बिसार दे मेरी आँखें
तुम्हारी कविताओं से मेरी देहगंध
और तुम्हारी उँगलियों से सिगरेट वो बेरहम, बेसबब, बेदिल
वक़्त के बीतते पहर हों
ना कि कोई मुस्कुराती आँखों वाली लड़की
कि जिसे साड़ी पहनने का सलीक़ा हो
कि जिसके गालों में पड़े हल्के गड्ढे की रियल एस्टेट वैल्यू
न्यू यॉर्क के पॉश इलाक़े से भी ज़्यादा हो,
'प्रायस्लेस'/ बेशक़ीमत
कि जिसके दिल के आगे जंग लगा, पुराना 'नो एंट्री' बोर्ड ठुका हो रक़ीबों के हिस्से न आएँ कभी
सफ़ेद शर्ट्स और
बेक़रीने से इस्त्रि किए हुए ब्लैक पैंट्स
कि जिनके माथे पर झूलती लट को डिसप्लिन सिखाने को
किसी का जी ना चाहे
कि जिनकी हँसी का अत्तर
मोलाया जा सके सिर्फ़ आँसू के बदले दिल में ख़ाली जगह रखो तो
हर कोई चाहता है करना उसपर अवैध क़ब्ज़ा
इसलिए बना दो ऊँची चहारदिवारी
दरवाज़े पर बिठा दो स्टेनगन वाले ख़तरनाक गार्ड
कोई अंदर आने ना पाए
कोई भी नहीं सीने के बीचों बीच एक सुरंग खुदवा दो
जिसके दरवाज़े की चाभी सिर्फ़
बूढ़े वक़्त के पास हो
कि जो अंदर आए
देखे तुम्हें
मगर चाह कर भी
ना कर पाए तुमसे प्रेम
2. चौराहों का दोष नहीं
कि वे प्रेम की सड़क पर पड़े हुए
भाग जाने को नए शहरों के नाम सुझाते
नयी दिल्ली। न्यू यॉर्क। पुराना प्रेम रह जाता पुराने शहर में
इंतज़ार की पुरानी शराब में तब्दील होता हुआ आख़िर को लौट कर आता पुराना प्रेमी
नए प्रेम के गहरे ज़ख़्म लिए हुए
काँच प्याली की पुरानी शराब में
डुबो कर रखता कच्चा, टूटा दिल जब कि उसे चाहिए
कि कच्चे दिल को कर दे
हवस की आग के हवाले
बदन की रख से भर जाते हैं सारे ज़ख़्म सारे ख़ानाबदोश चारागर मर गए
पुराने शहर में कोई भी तो नहीं बचा
जो दरवाज़े की कुंडी पर टांग सके रूह को
बदन जलाने से पहले जानां, वो अभिशप्त चौराहा था
जिसने तुम्हें उस लड़की का रेगिस्तान दिल दिखलाया
रूहों को जिस्म के खेल समझ नहीं आते
उस लड़की को चूम लेना
उसे मुक्त करना था
तुम्हें क़ैद।
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Published on October 15, 2017 23:03

October 13, 2017

तुम मेरा न्यू यॉर्क हो

तो हम कितने अलग हैं बाक़ियों से?

असल सवाल सिर्फ़ एक यही होता है। तुम्हारे जीवन में कोई था, ऐसा कि जिसके साथ कोई एक लम्हा तुमने उतनी शिद्दत से जी लिया जैसे कि मेरे साथ। कि क्या तुम ऐसे सबके ही साथ होते हो या मैं कुछ ख़ास थी। कुछ ख़ास। मैथमैटिकल टर्म में, 'डेल्टा' स्पेशल, डिफ़्रेंट। कि सब कुछ बाक़ियों जैसा ही था, लेकिन ज़रा सा अलग। कि इसी ज़रा से अलग में हमारी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत कहानियाँ हैं।

कि जैसे मेरी ज़िंदगी में तुम्हारे जैसा कोई नहीं था। कोई हो भी नहीं सकता है ना। कोई दो लोग एक जैसे नहीं होते। लेकिन फिर भी कोई एक कैटेगरी होती है जिसमें बाक़ी सारे लोग एक तरफ़ और तुम एक तरफ़ होते हो। तो वो कौन सी बात है जो तुम्हें ख़ास बनाती है?

कि जब आँख बंद करते हैं तो वो कौन सा लम्हा है जो रिपीट पर चल रहा होता है और जिसकी ख़ुशबू वजूद को गमका रही होती है। कि बहुत सालों बाद भी वो कौन सी चीज़ होगी जो तुम्हारा नाम लेते ही मुस्कान में बदल जाएगी?

कि जिसे बारिशें धुल नहीं सकती बदन से...ना आँसू आँख से...वो कौन सा स्पर्श है वो कौन सा लम्हा है जो वक़्त के इरेजर से मिट नहीं सकता।
कि वाक़ई वो कौन सी चीज़ है जो मेरे शब्दों में नहीं बंध सकती...कि जो मुझसे भी नहीं लिखी जा सकती। मेरे गुमान को तोड़ने वाला वो कौन सा लम्हा है...कौन सा अनुभव...कौन सा शख़्स...
शब्दों से परे वो क्या था जो जी लिया मैंने...हमने...

कभी फिर मिलोगे अगर तो शिनाख्त करूँगी चूम कर तुम्हारी आँखें कि याद के खारे पानी का स्वाद वही है या बदल गया है।
कि बात जब रिश्तों की आती है तो हमारे पास कितने कम शब्द होते हैं। कोई ऐसा कि जिसके लिए दोस्ती बहुत फीका और बेरंग सा शब्द लगे और प्रेम बहुत फ़्लैम्बॉयंट। कि जिसके लिए हम रचना चाहें कोई एक नया शब्द। कि जो अपूर्व और अद्भुत हो। समयातीत।

कि कभी ज़िंदगी में इस अहसास की पुनःआवृत्ति हो...तो हम उस शख़्स को...या तुम्हें ही...दुबारा भर सकें बाँहों में...गले लगाएँ कि जैसे ये पहली और आख़िरी बार हो...और शब्दों में रख दें एक नया शब्द...एक नया शहर...एक नया अहसास...हमेशा के लिए...

'तुम मेरा न्यू यॉर्क हो'।

[Photograph from the book I wrote this for you]
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Published on October 13, 2017 05:54

October 12, 2017

दस साल एक बहुत लम्बा अरसा होता है। ज़िंदगी का लगभग एक तिह...

दस साल एक बहुत लम्बा अरसा होता है। ज़िंदगी का लगभग एक तिहाई। वो भी तब, जब पहले दो तिहाई हिस्से किसी के साथ गुज़रें हों। बचपन से लेकर लड़कपन तक।

जब तुम गयी थी मम्मी। हमको सबने कहा कि वक़्त के साथ आसान होंगी चीज़ें। भूलना आसान। तुम्हारे नहीं होने के साथ जीना आसान। हुआ कुछ नहीं, सिवाए इसके कि दुनिया को इसके बारे में कहना बंद कर दिया। एक ही उदास कहानी कोई कितनी बार सुने। यूँ भी ठहरा हुआ कुछ किसी को अच्छा नहीं लगता।

लेकिन ठहरे हुए हम हैं। बहुत साल पुराने। हर पर्म्यूटेशन कॉम्बिनेशन को परखते। कि क्या कोई और ऑल्टर्नट रीऐलिटी हो सकती थी। इस ज़िंदगी पर बेतरह अफ़सोस करते हुए। जीने की कोई और राह निकालते हुए।

इतने सालों में हुआ ये बस कि तुम्हारे बारे में किसी से ना बात कर पाते हैं अब...ना कह पाते हैं किसी को कुछ भी। दुःख को इंटर्नलायज़ करना कहते हैं इसे शायद। एक ज़िंदा टीसते दुःख के साथ जीना। बहुत मुश्किल होता है कह पाना। इस दुःख को किसी दिशा में रख पाना। साँस ले पाना ही क़रीने से।

यूँ पिछले दस सालों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ख़ास जो तुमने मिस किया। लेकिन तुम होती तो यही छोटी छोटी बातें ख़ास होतीं। तुम होती तो मेरे ज़िंदगी का कोई मतलब होता मम्मी। इतनी बड़ी दुनिया के एक छोटे से कोने में सिमट कर नहीं जीती मैं। शायद किसी आसमान पर अपना नाम लिखने की ख़्वाहिश जो हम दोनों ने पाली थी...हम उसे सींचते। मैं तुम्हारे लिए तो ख़ास थी। सबसे स्पेशल।

तुम्हारे जाने के बाद कॉन्फ़िडेन्स हर कुछ दिन में रसातल में चला जाता है और मर जाने का ख़याल मेरे इस डिप्रेशन को बार बार उकसाता है, दुलराता है। अवसाद मुझे अकेला नहीं छोड़ता माँ। मैं लड़ना नहीं छोड़ती लेकिन थक जाती हूँ अक्सर। हर लम्हे लड़ लड़ के कितना ही जिए कोई। फिर ये अकेली लड़ाई है कि इसका बोझ किसी के साथ बाँटा नहीं जा सकता। परिवार के साथ नहीं। दोस्तों के साथ तो और नहीं।

बहुत बहुत बहुत साल हो गए।
आज तुम्हारी दसवीं बरसी है।

और अब भी बहुत बहुत बहुत दुखता है।

I love you ma, and I miss you. I miss you so much. 
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Published on October 12, 2017 21:45

October 11, 2017

'वे दिन' शूट. Pack up. Fade to सुख


उसे देख कर सहसा लगा, मैं बहुत सुखी हूँ। मझे लगा, एक ख़ास हद के बाद सब लोग एक-जैसे सुखी हो जाते हैं। जब तुम टिक जाते हो। किसी चीज़ पर टिक जाना...वह अपने में सुख ना भी हो, तुम उससे सुख ले सकते हो; अगर तुम ज़्यादा लालची न हो - यह उस शाम मैंने पहली बार जाना था। यह बहुत अचानक है और तुमसे बाहर है - उस फ़ोटो की तरह, जो तुम्हारी जानकारी के बिना किसी बाज़ारू फ़ोटोग्राफ़र ने सड़क पर खींच ली थी। बाद में तुम देखते हो तो हल्का-सा विस्माय होता था कि यह तुम हो...तुम चाहो तो उसे वापस कर सकते हो। लेकिन वह कहाँ है - तुम उसे वापस भी कर दो, तो भी वह वहाँ रहेगा...एक स्थिर चौंका-सा क्षण, जब तुम सड़क पार कर रहे थे...

- वे दिन, निर्मल वर्मा

***
उस चौराहे पर दो ओर ज़ेब्रा क्रॉसिंग थी और दोनों ओर के सिग्नल थे। जहाँ से उन्हें ठीक नब्बे डिग्री के अलग अलग रास्तों में जाना था। ये अच्छा था कि १८० डिग्री विपरीत वाले रास्ते लड़की को पसंद नहीं थे। उनमें इस बात का हमेशा भय होता था कि किसी का आख़िरी बार मुड़ कर देखना मिस कर जाएँगे। It's a shooting nightmare, वो अक्सर अपने दोस्तों को कहा करती थी। स्क्रीनराइटिंग के बाद डिरेक्शन करने से फ़ायदा ये होता था कि हर सीन अपनी पूरी पेचीदगी में लिखा होता था। ठीक वैसा जैसे उसके मन के कैमरे में दिखता था। सिनमटॉग्रफ़र उसके साथ कई कई दिन भटकता रहता था कि ठीक वही ऐंगिल पकड़ सके जो उसकी आँखों को दिखता है।

उस बिंदु से दूर तक जाती सड़क दिखती थी। लोगों के रेलमपेल के बावजूद। बहुत ज़्यादा भीड़ में भी कैसे एकदम टेलिफ़ोटो लेंस की तरह आप ठीक उस एक शख़्स पर फ़ोकस किए रखते हैं। दुनिया का सबसे अच्छा कैमरा भी उस तरह से चीज़ों को नहीं पकड़ सकता जैसे कि आपकी आँख देखती है। कि आँख के देखने में बहुत कुछ और महसूसियत भी होती है। लोगों का आना जाना। ट्रैफ़िक का धुआँ। एक थिर चाल में आगे बढ़ती भीड़। या कि तेज़ी से स्प्रिंट दौड़ता वो एक शख़्स। कि जिसे देख कर अचानक से लगे कि बस, सारी दुनिया ही हो रही है आउट औफ़ फ़ोकस। या कि ख़त्म ही। जैसे कुछ फ़िल्मों में होता है ना, विध्वंस। कोई सूनामी लहर आ रही हो दिल को नेस्तनाबूद करने या कि भूचाल और आसपास की सारी इमारतें गिर रही हों एक दूसरे पर ही। मरते हुए आदमी को ऐसा ही लगता होगा। ज़िंदगी छूट रही हो हाथ से। जिसे हेनरी कार्टीए ब्रेस्सों कहते हैं, 'द डिफ़ाइनिंग मोमेंट'।

इसे शूट करते हुए पहले हम क्रेन से एक लौंग शॉट लेंगे, इस्टैब्लिशिंग शॉट कि जिसमें आसपास की इमारतें, लोग, सड़क, ट्रैफ़िक सिग्नल, सब कुछ ही कैप्चर हो जाए। फिर क्रेन से ही हाई ऐंगल शॉट से दिखाएँगे लड़के को दौड़ते हुए... उसे कैमरा फ़ॉलो करने के लिए ऊपर से नीचे की ओर टिल्ट होता और टिल्ट होने के साथ ही ज़ूम इन भी करेगा किरदार पर...फिर हमें चूँकि उसकी नॉट-पर्फ़ेक्ट रन दिखानी है, हमें थोड़ा शेकी इफ़ेक्ट भी डालना पड़ेगा। इस सारे दर्मयान आसपास के लोग सॉफ़्ट्ली आउट और फ़ोकस रहेंगे। कि वो भीड़ में गुम ना जो जाए, इसलिए हम चाहेंगे कि किरदार बाक़ी शहर के हिसाब से सफ़ेद नहीं, कोई रंग में डूबा शर्ट पहने, कि जो लड़की का पसंदीदा रंग भी हो - नीला। सॉलिड डार्क कलर की शर्ट। फ़ीरोज़ी और नेवी ब्लू के ठीक बीच कहीं की। लिनेन की कि जिसमें आँसू जज़्ब करने की क्षमता हो। ख़याल रहे कि क्षमता ज़रूरी है, इस्तेमाल नहीं।

लड़की देखेगी कैमरापर्सन की ओर और परेशान होगी, कि कोई भी कहाँ कैप्चर कर पता है उतनी डिटेल में जैसे कि इंसान की आँख देखती है चीज़ों को। कितना कुछ छूट रहा है कैमरा से।

कैमरा मिड शॉट पर आ के रुका है जिसमें बना है जिसमें कि किरदार को फ़ॉलो करना मुश्किल है...फिर अचानक ही हमारा लीड कैरेक्टर मुड़ कर देखता है। एकदम अचानक। उसकी नज़र खींचती है चीज़ों को अपनी ओर जादू से। जैसे कैमरे को भी। लेंस के उस पार का कैमरापर्सन ठिठक जाता है। जैसे ठहर जाता है सब कुछ। पॉज़। किसी फ़िल्म में एकदम मृत्यु के पहले का आख़िरी लम्हा। एक आख़िरी मुस्कान। ज़िंदगी अपने पूरे रंग और खुलूस के साथ बादल जाती है एक ठहरे हुए लम्हे में। महसूस होता है। दिल की ठहरी हुयी धड़कन को भी। इसे ही जीना कहते हैं। बस इसे ही।

कि ज़िंदगी ऐसे किसी लम्हे को मुट्ठी में बांधे मुस्कुराती है कई सालों बाद तक भी। 'डेज़ औफ़ बीइंग वाइल्ड' का आख़िरी दृश्य होता है। लड़का अपनी आख़िरी साँसों के साथ याद कर रहा है। जो उसने कहा था। 'ये एक मिनट मैं अपनी पूरी ज़िंदगी याद रखूँगा'।

ट्रेन की आवाज़ आ रही होती है। पुरानी पटरियों को आदत है सुख और दुःख दोनों को अपने अपने अंजाम तक पहुँचा आती हैं। शिकायत नहीं करतीं। ज़्यादा माँगती नहीं। कैमरा लड़की के चेहरे पर टिका हुआ है। वो खिड़की से बाहर अंधेरे में अपनी आँखें देख रही है। नेचुरल लाइट में शूट करने के चलते हम उसकी आँखों में भरा पानी शूट नहीं कर पाते हैं। और फिर, सेल्युलॉड वंचित रह जाता है ख़ुशी से भरी आँखें रेकर्ड करने से।

मनुष्य के बदन में 'मन' कहाँ होता है, हम नहीं जानते। शायद हृदय के आसपास कहीं। लेकिन उस तक भी लिख कर ही पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। डिरेक्टर उम्मीद करता है कि इतना सा देख कर ऑडीयन्स अपनी ज़िंदगी के हिस्से जोड़ देगी। वो टूटे हुए हज़ारों हिस्से जिनसे मिल कर एक लम्हे का सुख बनता है। एक लम्हे का मुकम्मल। सुख।
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Published on October 11, 2017 10:00

October 8, 2017

ख़्वाब के हथकरघे पर बुनी हैंडलूम सूती साड़ी


मेरे पास बहुत सी सूती साड़ियाँ हैं जो मुझे बहुत पसंद हैं। पर सिर्फ़ मुझे ही। बाक़ी किसी को वे पसंद नहीं आतीं। मुझे कुछ ठीक नहीं मालूम कि मुझे वे इतनी क्यूँ पसंद हैं, एक तो उनका कॉटन बहुत अच्छा है। इन दिनों मुझे कपड़े उनकी छुअन से पसंद आते हैं। नेचुरल फैब्रिक उसपर हैंडलूम की साड़ियाँ। दो हज़ार के आसपास की फ़ैबइंडिया की हल्की, प्योर कॉटन साड़ियाँ। मुझे उनका नाम तो नहीं पता, बस ये है कि उन साड़ियों को देख कर विद्या सिन्हा की याद आती है। रजनीगंधा में कैसे अपना आँचल काँधे तक खींच रखा होता है उसने। उन साड़ियों से मुझे अपने गाँव की औरतें याद आती हैं। सिम्पल कॉटन की साड़ियाँ जो सिर्फ़ एक सेफ़्टी पिन पर पहन लेती हैं। जिनकी चूड़ियों में अक्सर कोई ना कोई आलपिन हमेशा रहता है।

वक़्त के साथ मेरा मन गाँव भागता है बहुत। इतना कि मैं समझा नहीं सकती किसी को भी।

तुमने वो घरोंदा का गाना सुना है, ‘मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है’? उसमें ज़रीना वहाब है और अमोल पालेकर। लेकिन यहाँ अमोल पालेकर बदमाशी भी करता है और शर्ट के बटन खोल कर लफुआ टाइप घूमता भी है। उसकी झालमुरी में मिर्ची डाल देता है, पानी पीते समय गिलास उढ़काता है अलग। सुनना वो गाना तुम। नहीं। माने सुनना नहीं, विडीओ देखना। बुद्धू। या उस दौर के बहुत से और गाने हैं। भले लोगों वाले। वो सुन लेना। मेरे लिए रूमान वहीं है, वैसा ही है। साड़ी में घूमती लड़की और साथ में कोई भला सा लड़का। लड़का कि जो हाथ पकड़ कर रोड क्रॉस करा दे। खो जाने पर तलाश ले भरे शहर की भीड़ में भी तुम्हें।

मैं तुमसे मिलने अपनी कोई कॉटन की साड़ी पहन कर आना चाहती हूँ। फिर हम चलेंगे साथ में छोटे छोटे सुख तलाशने कहीं। मुझे लगता है वो साड़ी पहनूँगी तो तुमको अच्छी लगेगी। तुम्हारा ध्यान भी जाएगा, शायद कोई कहानी भी हो तुम्हारे पास किसी साड़ी के मेहंदी रंग को लेकर। या की काँच की चूड़ियों की आवाज़ में घुलीमिली। हम लोग कितनी सुंदर चीज़ें भूलते जा रहे हैं, कि जैसे मैं बैठी हूँ रेलवे स्टेशन की किसी बेंच पर तुम्हारा इंतज़ार करते हुए। तुम पीछे से आकर चुपचाप से अपनी हथेलियाँ रख दो मेरी आँखों पर, मैं तुम्हारे हाथों की छुअन से तुम्हारी एक नयी पहचान चीन्हूँ कि जो मैं बंद आँखों से भी याद रख सकूँ। कि तुम कहो कि चाँदी के झुमके बहुत सुंदर लगते हैं मुझपर। या कि मैंने जो अँगूठी पहन रखी है दाएँ हाथ की सबसे छोटी ऊँगली में। लव लिखा हुआ है जिसमें। वो सुंदर है। कि तुम्हारे सामने मैं रहूँ तो तुम मुझे देखो। नज़र भर के। नज़रा देने की हद तक। आँख के काजल से लेकर माथे की बिंदी तक ध्यान जाए तुम्हारा। आँख के पनियाने से लेकर ठहाके के शोर तक भी तो।

मैंने तुम्हें अपने गाँव के बारे में बताया है कभी? नहीं ना। लेकिन अभी का गाँव नहीं। ख़्वाब ही बुन रहे हैं तो मेरे बचपन के गाँव में बुनेंगे। उन दिनों मासूमगंज से गाँव जाने के लिए रिक्शा लेना पड़ता था या फिर खेत की मेड़ मेड़ पैदल चलना होता था। धान की रोपनी का समय होता हो या कि आम के मंज़र का। यही दो चीज़ हमको बहुत ज़्यादा याद है गाँव का। मेड़ पर चलने में जूता चप्पल पहन कर चलना मुश्किल होता तो दोनों प्राणी चप्पल खोल कर झोले में डाल देते हैं और ख़ाली पैर चलते हैं। मुझे मिट्टी में चलना बहुत ना तो अच्छा लगता है। और मुझे कैसे तो लगता है कि तुमको मिट्टी में ख़ाली पैर चलने में कोई दिक़्क़त नहीं होगा। चलते हुए मैं तुमको अपना खेत दिखाऊँगी जहाँ ख़ुशबूदार धान उगाया जाता है जिसको हमारे ओर कतरनी कहते हैं। वहाँ से आगे आओगे तो एक बड़ा सा आम का पेड़ है नहर किनारे। उसपर हम बचपन में ख़ूब दिन टंगे रहे हैं। उसके नीचे बैठने का जगह बना हुआ है। हम वहाँ बैठ कर कुछ देर बतिया सकते हैं। आसपास किसी का शादी बियाह हो रहा होता हो तो देखना दस पंद्रह लोग जा रहा होगा साथ में और शादी के गीत का आवाज़ बहुत दूर से हल्का हल्का आएगा और फिर पास आते आते सब बुझा जाएगा।

हम उनके जाने के बाद जाएँगे, उसी दिशा में जहाँ वे लोग गए थे। तुमको हम अपने ग्रामदेवता दिखाएँगे। एक बड़े से बरगद पेड़ के नीचे उनको स्थापित किया गया है। उनका बहुत सा ग़ज़ब ग़ज़ब कहानी है, वो सुनाएँगे तुमको। वहाँ जो कुआँ है उसका पानी ग़ज़ब मीठा है। इतने देर में प्यास तो लग ही गया होगा तुमको। सो वहाँ जो बालटी धरा रहता है उसी से पानी भर के निकालना होगा। तुम लड़ना हमसे कि तुम बालटी से पानी निकालने में गिर गयी कुइय्यां में तो तुमको निकालेगा कौन। हम कहेंगे कि हमारे बचपन का गाँव है। बाप दादा परदादा। सवाल ही नहीं उठता कि तुमको ये कुआँ छूने भी दें। तुम बाहर के आदमी हो।

किसी से साइकिल माँगें। आगे बिठा कर तुम चलाओ। लड़ो बीच में कि बाबू ऐसा घूमना है तो वेट कम करो तुम अपना। हम समझाएँ तुमको कि पैदल भी जा सकते हैं। तुम नहीं ही मानो। साइकिल दुनिया की सबसे रोमांटिक सवारी है। हैंडिल पकड़ कर बैठें हम और तुम्हारी बाँहों का घेरा हो इर्द गिर्द। थोड़ा सकचाएँ, थोड़ा लजाएँ। ग़ौरतलब है कि साड़ी पहन कर अदाएँ ख़ुद आ जाती हैं। जीन्स में हम कुछ और होते हैं, साड़ी में कुछ और।

हम जल्दी ही शिवालय पहुँच जाएँ। शिवालय में इस वक़्त और कोई नहीं होता, शंकर भगवान के सिवा। हम वहीं मत्था टेकें और शिवलाय के सामने बैठें, गप्पें मारते हुए। हल्का गरमी का मौसम हो तो हवाएँ गरम चलें। हवा के साथ फूलों की महक आए कनेर, जंगली गुलाब। तुम मेरे माथे पर की थोड़ी खिसक आयी बिंदी ठीक कर दो। मैं आँचल से थोड़ा तुम्हारा पसीना पोंछ दूँ।

हम बातें करें कि आज से दस साल पहले हम कहाँ थे और क्या कर रहे थे। कितने कितने शहर हम साथ में थे, आसपास क़रीब।

एक से दोस्तों के बीच भुतलाए हुए।
तलाशते हुए एक दूसरे को ही।

कर लो शिकायत वहीं डिरेक्ट बैठे हुए भगवान से
हम तुमसे पहले क्यूँ नहीं मिले।

और फिर सोचें। ये भी क्या कम है कि अब मिल गए हैं। 
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Published on October 08, 2017 18:51

October 4, 2017

'वे दिन', न्यू यॉर्क


मुझे कम महसूसना नहीं आता। रात के ढाई बजे मैं काग़ज़ क़लम उठा कर तुम्हें एक ख़त लिखना चाहती हूँ। फ़ीरोज़ी। लैवेंडर और पीले रंग से। मैं लिखना चाहती हूँ कि तुम कोई ऐसी दुआ हो जो मैंने कभी माँगी ही नहीं। माँग के पूरी होने वाली ख़्वाहिशें होती हैं। दुआएँ होती हैं। मन्नतें होती हैं। जो ईश्वर की तरफ़ से भेजी जाएँ…बोनस…वो फ़रिश्ते होते हैं। हमें ज़िंदगी के किसी कमज़ोर लम्हे में उबार लेने वाले। 
जितना लॉजिक मुझे समझ आता है, उस हिसाब से तुम्हें मैंने नहीं माँगा, तुम्हें ईश्वर ने भेजा है। जैसे मेरे हिस्से के कर्मों का फल रखने वाला कोई चित्रगुप्त का असिस्टेंट अचानक जागा और उसने देखा कि बहुत से अच्छे करम इकट्ठा हो गए हैं। या कि उसके पास जो दुनिया की भलाई का कोटा था उसमें एक नाम मेरा भी किसी ने सिफ़ारिश से डाल दिया। या कि उसे प्रमोशन चाहिए था और इसके लिए सिर्फ़ यही उपाय था कि धरती पर जो जीव उसे ऐलकेटेड है, वो उसके काम से बहुत ख़ुश हो। 
मैं कभी कभी बहुत तकलीफ़ में होती हूँ कि मुझे कम प्यार करना नहीं आता। ऐसे में कोई उम्मीद नहीं करती मैं किसी से, लेकिन कभी कभी होता है कि किसी की छोटी सी ही बात से मेरा दिल बहुत दुःख जाता है। बहुत ज़्यादा। ये तकलीफ़ इतनी जानलेवा हो जाती है कि रोते रोते शामें बीतती हैं और क़रार नहीं आता। कि कोई मेरे साथ बुरा क्यूँ करता है। मैं तो किसी का बुरा नहीं करने जाती कभी। इसमें ही पापा कहते हैं कि इंसान अच्छा इसलिए थोड़े करता है कि दुनिया उसके साथ अच्छा करे…इंसान अच्छा इसलिए करता है कि उसकी अंतरात्मा उसे कचोटे नहीं…उसकी अंतरात्मा चैन से रहे। सुकून से। हमको ये बात बहुत अच्छी लगी। उस दिन से हम और भी जो दुनिया से थोड़ा बहुत माँगना चाहते थे, सो भी अपनी हथेली बंद कर ली। 
इस बीच जैसे अचानक से कोई चित्रगुप्त होश में आया और उसे लगा कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छा होना चाहिए। मेरी लिखी किताब, ‘तीन रोज़ इश्क़’ दैनिक जागरण के कराए हिंदी किताबों की नील्सन बेस्टसेलर सर्वे में आठवें नम्बर पर आयी। मैंने ऐसा ना सोचा था, ना ऐसा चाहा था, ना ऐसा माँगा था। ये बोनस था। मुझे तो ये भी नहीं मालूम था कि इस देश में कितने लोग चुपके चुपके मेरी किताब पढ़ रहे हैं, बिना मुझे बताए, बिना पेंग्विन को बताए भी, शायद। बहुत दिन ख़ुमार में बीते। बौराए बौराए। 
पिछले साल ऑक्टोबर में स्वीडन गयी थी, उसके बाद फिर अपने ही शहर में थी। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में व्यस्त। मुझे घर बहुत अच्छे से रखना नहीं आता। लोगों का ख़याल भी नहीं। बस इतना है कि मेरे घर में रहते हुए किसी को परायापन नहीं लगता। मेरे दिल में बहुत जगह रहती है, सबके लिए। शायद मैं एक समय डिनर बनाना भूल जाऊँ या शाम के नाश्ते की जगह कहानी लिखती रह जाऊँ मगर इसके सिवा घर में किसी को कभी कुछ बुरा नहीं लगता। मेरे घर और मेरे दिल के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं(figuratively, यू नो, दिल कोई मकान थोड़े है)। इतनी व्यस्त रही की नोवेल पर काम एकदम ही छूट गया। ह्यूस्टन जाने की बात हुयी। वहाँ पर हरिकेन हारवे चला आया। जाने का प्लान दस दिन आगे खिसकाना पड़ा। 
ह्यूस्टन में एक सबर्ब है, वुडलैंड्स। वहाँ रुकी। ऐसे रिज़ॉर्ट में जहाँ पर वाइफ़ाई के थ्रू कहीं कॉल ही नहीं जा रहे थे। बिना बात किए अकबका जाती हूँ, सो अलग। पब्लिक ट्रांस्पोर्ट कुछ भी नहीं तो कहीं आना जाना नामुमकिन। इंडिया और अमेरिका के टाइम में ऐसा अंतर होता है कि किसी से बात करना इम्पॉसिबल होता है। जब तक मैं फ़्री होती, इंडिया में सब लोग सो चुके होते। रिज़ॉर्ट की शटल सिर्फ़ एक मॉल तक जाती थी। वहाँ लेकिन मुझे किताबों की दुकान मिल गयी, barnes एंड नोबल। चूँकि वहाँ से कहीं और नहीं जाना था तो मैं अक्सर किताबें पढ़ने चली जाती थी। वहीं ऐलिस मुनरो की कहानी डिस्कवर की। ऐसे में अधूरी कहानी सुनने के लिए भी तुम थे। इस भागती दौड़ती दुनिया में ज़रा सा कौन निकालता है किसी के लिए वक़्त। 
आज रात मन विह्वल हो गया। जब ईश्वर प्रार्थना मानना शुरू कर दे तो डर लगता है। मगर इस बार सुकून था। न्यू यॉर्क जाने का प्रोग्राम जिस तरह कैंसिल हो कर फिर से बना, वो किसी अलग कहानी के हिस्से है पूरी पूरी कहानी। दो हफ़्ते हो गए। आज टेबल पर कुछ तो देख रही थी कि घड़ी पर ध्यान चला गया। आँख के लेवल पर घड़ी थी। यही वाली पहन कर न्यू यॉर्क गयी थी और तब से इसका टाइम ज़ोन वापस से बदला ही नहीं है। उसमें पाँच बज रहे थे। कुछ दुखा। गहरे। मन में। अभी से दो हफ़्ते पहले इस वक़्त मैं ह्यूस्टन एयरपोर्ट पर थी और एक घंटे में मेरी फ़्लाइट का टाइम था। 
जो बहुत सारे दिन हम सबका अच्छा करते चलते हैं, उसका कोई कारण नहीं होता। लेकिन यूँ होता है कभी फिर,  कि एक दिन ज़िंदगी अचानक से हमारे नाम एक शहर लिख दे। भटकना और रंग लिख दे। सड़कें लिख दे और कॉफ़ी का ज़ायक़ा लिख दे। स्टेशनों के नाम और खो कर फिर मिल जाना लिख दे।
अतीत के बारे में सबसे ख़ूबसूरत चीज़ यही है कि उसे हमसे कोई नहीं छीन सकता। कोई भी हमारे पास्ट में जा के उन दिनों की एक चीज़ भी बदल नहीं सकता। ना मेरी चिट्ठियों का रंग। ना वो मेरी आँखों की चमक। ना वो संतोष वाली, सुख वाली मुस्कुराहट। 
ऐसी कोई एक भी घटना होती है ज़िंदगी में तो कई कई दिनों तक अच्छाई पर यक़ीन बना रहता है। मैं रात तक जगे यही सोचती हूँ कि मेरे साथ इतना अच्छा कैसे हो रहा है। कि मुझे अच्छाई की आदत ही नहीं है। लेकिन होना ऐसा ही चाहिए। छोटे छोटे सुख हों। एक कोई किताब हो कि जिसे ले जाना पड़े सात समंदर पार किसी के लिए। कहानियाँ हों। शब्द हों। 
तुम जितने से थे, बहुत थे। जैसे पानी को जहाँ रख दो, कोने दरारों में भर आता है। कोई मरहम जैसे। पता है, तुम्हारी सबसे अच्छी बात क्या थी? तुम्हारा होना बहुत आसान था। 
कभी कभी छोटे छोटे सुख, बड़े बड़े सुखों से ज़्यादा ज़रूरी होते हैं।मेरी इस छोटी सी ज़िंदगी में, ये इतना छोटा सा सुख होने का शुक्रिया न्यू यॉर्क।मैं तुमसे हमेशा प्यार करूँगी। हमेशा। 
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Published on October 04, 2017 17:40