Puja Upadhyay's Blog, page 15

November 9, 2017

एक ख़ूबसूरत लड़की की ख़ातिर सिफ़ारिशी चिट्ठी

तुम्हें सौंदर्य इतना आक्रांत क्यूँ करता है? उसकी सुंदरता निष्पाप है। उसने कभी उसका कोई घातक इस्तेमाल नहीं किया। कभी किसी की जान लेना तो दूर की बात है, किसी का दिल भी नहीं तोड़ा। उसने हमेशा अपने सौंदर्य को एक बेपरवाही की म्यान में ढक कर रखा। तुम्हें ख़ुद से बचा कर रखा। तुम उसकी ख़ूबसूरती से इतना डरते क्यूँ हो कि जैसे वो कोई बनैला जानवर हो...भूखा...तुम्हारे समय और तुम्हारे प्रेम का भूखा?

उसकी ख़ूबसूरती को लेकर पैसिव नहीं हो सकते तुम? थोड़े सहनशील। ऐसा तो नहीं है कि दुखता है उसका ख़ूबसूरत होना। उसकी काली, चमकती आँखें तुम्हें देखती हैं तो तकलीफ़ होती है तुम्हें? सच बताओ? तुम्हारा डर एक भविष्य का डर है। प्रेम का डर है। आदत हो जाने का डर है। ऐसे कई लोगों के भीषण डर के कारण वो उम्र भर अपराधबोध से ग्रस्त रही। एक ऐसे अपराध की सज़ा पाती रही जो उसने किया ही नहीं था। ख़ुद को हर सम्भव साधारण दिखाने की पुरज़ोर कोशिश की। शृंगार से दूर रही, सुंदर रंगों से दूर रही...यहाँ तक कि आँखों में काजल भी नहीं लगाया कभी। अब उम्र के साथ उसके रूप की धार शायद थोड़ी कम गयी है, इसलिए उसने फिर से तुम्हें तलाशा।

तुम रखो ना अपने बदन पर अपना जिरहबख़्तर। तुम रखो अपनी आत्मा को उससे बहुत बहुत ही दूर। मत जुड़ने दो उससे अपना मन। लेकिन इतना तो कर सकते हो कि जैसे गंगा किनारे बैठ कर बात कर सकते हैं दो बहुत पुराने मित्र। एक दूसरे को नहीं देखते हुए, बल्कि सामने की धार को देखते हुए। ना जाओ तुम उसके साथ Bern, लेकिन बनारस तो चल सकते हो?

उसे तुम्हारी वाक़ई ज़रूरत है। ज़िंदगी के इस मोड़ पर। देखो, तुम नहीं रहोगे तो भी ज़िंदगी चलती रहेगी। उसे यूँ भी अपनी तन्हाई में रहने की आदत है। लेकिन वो सोचती है कभी कभी, तुम्हारा होना कैसा होगा। तुम्हारे होने से सफ़र के रंग सहेजना चाहेगी वो कि तुम्हारे लिए भेज सके काग़ज़ में गहरा लाल गुलाल...टेसू के फूलों से बना हुआ। तुम किसी सफ़र में जाओ तो सड़कों पर देख लो मील के पत्थर और उसे भेज दो whatsapp पर किसी एकदम ही अनजान गाँव का कोई gps लोकेशन। ज़िंदगी बाँटी जा सकती है कितने तरह से। थोड़ी सी जगह बनाओ ना उसके लिए अपनी इस ज़िंदगी में। बस थोड़ी सी ही। अनाधिकार तो कुछ भी माँगेगी नहीं वो। लेकिन कई बरस की दोस्ती पर इतना सा तो माँग ही सकती है तुमसे।

किसी नीले चाँद रात एक बाईक ट्रिप हो। सुनसान सड़कों पर रेसिंग हो। क़िस्से हों। कविताएँ। एक आध डूएट गीत। ग़ालिब और फ़ैज़ हों। मंटो और रेणु हों।

हम प्रेम की ज़रूरत को अति में देखते हैं। प्रेम की जीवन में अपनी जगह है। लेकिन उसके बाद जो बहुत सा विस्तार है। बहुत सा ख़ालीपन। उसमें दोस्त होते हैं। हाँ, डरते हुए दोस्त भी...कि तुमसे प्यार हो जाएगा, तुम्हारी लत लग जाएगी। ये सब ज़िंदगी का हिस्सा है। वो जानती है कि वो कभी भी love-proof नहीं होगी। उससे प्यार हो जाने का डर हमेशा रहेगा। लेकिन इस डर से कितने लोगों को खोती रहेगी वो ज़िंदगी में। और कब तक।

सुनो ना ज़िद ही मानो उसकी। समझो थोड़ा ना उस ज़िद्दी लड़की को जिसे तुम पंद्रह की उमर से जानते हो। She needs you. Really. कुछ वक़्त अपना लिख दो ना उसके नाम। थोड़ा दुःख तुम भी उठा लो। क्या ही होगा। कितना ही दुखेगा। पिलीज। देखो, हम सिफ़ारिश कर रहे हैं उसकी। अच्छी लड़की है। ख़तरनाक है थोड़ी। सूयसाइडल है। डिप्रेस्ड हो जाती है कई बार। लेकिन अधिकतर नोर्मल रहेगी तुम्हारे सामने। दोस्ती रखोगे ना उससे? प्रॉमिस?
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Published on November 09, 2017 22:10

पलाश में जो चिंगारी लहकती थी, उसका पता 'मोह' था

तुम्हें उसके बनाए शहर बहुत अच्छे लगते हैं। तुम कहते हो अक्सर। तुम्हारे शहरों में जा के रहने का मन करता है। वहाँ का आसमान कितने रंग से भरा होता है। वहाँ की बारिश में हमेशा उम्मीद रहती है कि इंद्रधनुष निकलेगा। कैसे तो दिलकश लोग रहते हैं तुम्हारे शहरों में। सड़कें थरथराती हैं। दिल धड़कता है थोड़ा सा तेज़। लड़कियाँ कैसी तो होती हैं, बहती हुयी नज़्म जैसीं। तुम ये जो शहर लिखती हो, उनमें मेरे नाम से एक फ़्लैट बुक कर दो ना? मैं भी छुट्टी में वहाँ जा कर कभी हफ़्ता दो हफ़्ता रहूँगा। अपनी तन्हाई में ख़ुश...इर्द गिर्द की ख़ूबसूरती में सुकून से जीता हुआ। बिना किसी घड़ी के वक़्त गुज़रता रहे। बस जब मियाद पूरी हो जाए तो नोटिस आ जाए, कि साहब कल आपको फ़्लैट ख़ाली करना है। मैं चैन से अपनी आधी पढ़ी हुयी किताबें...कुछ तुम्हारी पसंद के गीत और बहुत सी ख़ामोशी के साथ लौट आऊँ एक ठहरी हुयी ज़िंदगी में।

तुम्हें मैंने कभी बताया कि मैं ये शहर क्यूँ लिखती हूँ?

दुनिया के किसी भी शहर में तसल्ली से रोने को एक कोना नहीं मिलता, इसलिए।
दिल में, आत्मा में, प्राण में...दुःख बहुत है और वक़्त और भी ज़्यादा, इसलिए।
लेकिन सबसे मुश्किल ये, कि बातें बहुत हैं और लोग बिलकुल नहीं, इसलिए।

लेकिन तुम्हें क्या। तुम जाओ। मेरे बनाए शहरों में रहो। तुम्हें मुझसे क्या मतलब। कुछ ख़ास चाहिए शहर में तो वो भी कह दो। समंदर, नदी, झरने...मौसम... लोग। सब कुछ तुम्हारी मर्ज़ी का लिख दूँगी। इसके सिवा और कुछ तो कर नहीं सकती तुम्हारे लिए। तो इतना सही। जिसमें तुम्हारी ख़ुशी।

मास्टर चाभी चाहिए तुमको? नहीं मेरी जान, वो तो नहीं दे सकती। उसके लिए तुम्हें मेरा दिल तोड़ना पड़ेगा। सिर्फ़ उन लोगों को इन शहरों में कभी भी आने जाने की इजाज़त मिल जाती है। दिल तोड़ने की पहली शर्त क्या है, मालूम? 
तुम्हें मुझसे इश्क़ करना पड़ेगा। 
ये तुम अफ़ोर्ड नहीं कर पाओगे। सो, रहने दो। जब दिल करे, लौट आना वापस दुनिया में। मैंने तुम्हारे लिए ख़ास शहर लिख दिया है। "मोह"। नाम पसंद आया? शहर भी पसंद आएगा। पक्का। सिगरेट की डिब्बी से खुलता है रास्ता उसका। कोडवोर्ड सवाल जवाबों में है। वहाँ पूछेगा तुमसे, 'हम क्लोरमिंट क्यूँ खाते हैं?' तुम मुस्कुराना और दरबान की हथेली में माचिस की एक तीली रख देना। मुस्कुराना ज़रूर, बिना तुम्हारे डिम्पल देखे तुम्हें एंट्री नहीं मिलेगी। 
मोह कोई बहुत मुश्किल शहर नहीं है। दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत शहरों में से एक है। बहुत से लोग रहना चाहते हैं इस शहर में। मौक़ा मिले तो सारे लोग ही, भले कुछ कम वक़्त के लिए सही। लेकिन रहना ज़रूर चाहते हैं। शहर में जाओगे तो कई लोग मिलेंगे। दिलकश क़िस्म के। बिलकुल तुम्हारी पसंद वाले। हँसती लड़कियाँ कि जिन्हें दुनिया की फ़िक्र नहीं होती। बेहद ख़ूबसूरत सड़कें कि जिनके दोनों ओर पलाश के जंगल हैं...लहकते हुए, कि इन जंगलों में कभी पतझर नहीं आता। हमेशा मार्च ही रहता है मोह की सड़कों पर...लाल टहकते पलाश वाला मौसम। होली की फगुनाहट में बौराया मौसम। सजता संवरता मौसम। तुम्हारे गालों पर लाल अबीर रगड़ने को और बदमाशी से फिर भाग जाने को तैयार मौसम। 
नीली नदियाँ होंगी जिनका पानी मीठा होगा। नदी किनारे मयखाने होंगे जिनमें बड़े प्यारे कवि और किस्सागो मिलेंगे तुम्हें। सब तुम्हारी पसंद के लोग। वो कौन सब पसंद हैं तुम्हें - रेणु, मंटो, इस्मत...सब ही। मंटो तो ख़ास इसलिए होगा कि मुझे भी पसंद है बेहद। तुम उससे मेरे बारे में मत पूछना। तुम्हें जलन होगी। मंटो के हम ख़ास फ़ेवरिट हैं। उतना प्यार वो किसी और से नहीं करता। मंटो से लेकिन बात करोगे तो उसके साथ बैठ कर दारू पीनी पड़ेगी। उस पब में नॉन-अलकोहोलिक कुछ नहीं मिलता। पानी तक नीट नहीं मिलता वहाँ। शीशा ज़रूर ट्राई करना वहाँ, ख़ास तौर से ग्रीन ऐपल फ़्लेवर वाला। उफ़्फ़ो, हर चीज़ में सिंबोलिस्म मत खोजो। कुछ ख़ास नहीं, मुझे बहुत अच्छा लगता है वो फ़्लेवर इसलिए। वहाँ अगर अकेले बैठोगे तो शायद मेरी याद आए, ऐसा हुआ तो मेरे लिए एक पोस्टकार्ड ज़रूर लिखना। 
तुम्हारे लिए शहर में कई गलियाँ होंगी और किताबों की कई सारी दुकानें भी। तुम्हारी पसंद के फ़ूड स्टॉल्ज़ भी होंगे। माने, जितना मुझे मालूम है तुम्हारे बारे में, उस हिसाब से। बाक़ी पिछले कई सालों में तुम अगर बहुत बदल गए होगे तो हमको मालूम नहीं। तुम्हारे फ़्लैट में किचन भी होगा छोटा सा। मेरे शहर का खाना पसंद नहीं आए तुम्हें तो ख़ुद से खाना बना कर भी खा सकते हो। वैसे तो सारे फ़्लैट्स में कुक होती है लेकिन फिर भी, अपने हाथ के खाने का स्वाद ही और है। मेरी पसंद का खाना खाने का मन करे तो मेरे घर की ओर निकल आना। शहर के सबसे अच्छे फ़ूड स्टॉल्ज़ मेरे घर के इर्द गिर्द ही होते हैं। वहाँ कढ़ी चावल बहुत अच्छा मिलता है। इसके अलावा मीठे की हज़ार क़िस्में। रसगुल्ला, काला जामुन, पैनकेक...पान क़ुल्फ़ी...क्या क्या तो। इन फ़ैक्ट, Starbucks भी है वहाँ। पर तुम वहाँ जा के मेरी पसंद की आइस्ड अमेरिकानो मत पीना, वरना सोचोगे कि हम पागल हो गए हैं कि इतनी कड़वी कॉफ़ी पीते हैं। 
हाँ, फूल तुम्हें कौन से पसंद हैं? बोगनविला लगा दूँ तुम्हारे फ़्लैट के बाहर? या वही जंगली गुलाब जो तुम्हारे उस वाले घर में थे जहाँ से फूल तोड़ना मना था। क्या है ना कि बोगनविला ज़िद्दी पौधा है। मेरी तरह। ध्यान ना भी दोगे तो भी खिलता रहेगा हज़ार रंगों में। समय पर बता देना। वक़्त लगता है फूल आने में। वरना कहोगे क्या ही झाड़ झंखाड़ लगा दिए हैं तुम्हारे फ़्लैट पर। और कोई भी छोटी बड़ी डिटेल जो तुम्हारे रहने को ख़ुशनुमा कर सके, बता देना। ठीक?
ख़ास तुम्हारे लिए लिखा है शहर। पूरी तरह से जीना इसे। जब तक कि दिल ना भर जाए। बस एक ही हिदायत है। मुझे तलाशने की कोशिश मत करना। मैं कभी मिल भी गयी तो क़तरा के निकल जाना। कि जानते हो, एंट्री गेट पर वो माचिस की तीली ही क्यूँ माँगता है मेरे शहर का दरबान तुमसे? 
इसलिए कि अगर तुम्हें मुझसे प्यार हो गया तो हमारे उस शहर में रहते ही इस असल दुनिया को आग लगा दे...और हम कभी लौट नहीं पाएँ। 
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Published on November 09, 2017 10:01

November 8, 2017

तुम तोड़ोगे, पूजा के लिए फूल?

उसके बाल बहुत ख़ूबसूरत थे। हमेशा से। माँ से आए थे वैसे ख़ूबसूरत बाल। भर बचपन और दसवीं तक हमेशा माँ उसके बाल एकदम से छोटे छोटे काट के रखती। कानों तक। फिर जब वो बारहवीं तक आयी तो उसने ख़ुद से छोटी गूँथना सीखा और माँ से कहा कि अब वो अपने बालों का ख़याल ख़ुद से रख लेगी इसलिए अब बाल कटवाए ना जाएँ।  उन दिनों बालों में लगाने को ज़्यादा चीज़ें नहीं मिलती थीं। उसपर उतने घने बालों में कोई रबर बैंड, कोई क्लचर लगता ही नहीं था। वो कॉलेज के फ़ाइनल ईयर तक दो चोटी गूँथ के भली लड़कियों की तरह कॉलेज जाती रही। पटना का मौसम वैसे भी खुले बाल चलने वाला कभी नहीं था, ना पटना का माहौल कि जिसमें कोई ख़ूबसूरत लड़की सड़क पर बाल खोल के घूम सके। सिर्फ़ बृहस्पतवार का दिन होता था कि उसके बाल खुले रहते थे कि वो हफ़्ते में दो दिन बाल धोती थी तो एक तो इतवार ही रहता था। दिल्ली में एक ऐड्वर्टायज़िंग एजेन्सी में ट्रेनिंग के लिए join किया तो जूड़ा बनाना सीखा कि दो चोटियाँ लड़कियों जैसा लुक देती थीं, प्रोफ़ेशनल नहीं लगती उसमें। जूड़ा थोड़ा फ़ोर्मल लगता है। उन दिनों उसके बाल कमर तक लम्बे थे।
दिल्ली में ही IIMC में जब सिलेक्शन हुआ तो अगस्त के महीने में क्लास शुरू हुयी। ये दिल्ली का सबसे सुहाना सा मौसम हुआ करता था। लड़की उन दिनों कभी कभी बाल खोल के घूमा करती थी, ऐसा उसे याद है। ख़ास तौर से PSR पर। वहाँ जाने का मतलब ही होता था बाल खोलना। बहती हवा बालों में कितनी अच्छी लगती है, ये हर बार वो वहाँ जा के महसूसती थी। दिल्ली में नौकरी करते हुए, बसों में आते जाते हुए फिर तो बाल हमेशा जूड़े में ही बंधे रहते। असुरक्षित दिल्ली में उसके बालों की म्यान में तलवार जैसी छुपी हुआ करती थी कड़े प्लास्टिक या मेटल की तीखी नोक वाली पिन। फिर दिल्ली का मौसम। कभी बहुत ठंध कि जिसमें बिना टोपी मफ़लर के जान चली जाए तो कभी इतनी गरमी कि बाल कटवा देने को ही दिल चाहे। मगर फिर भी। कभी कभी जाड़े के दिनों में वो बाल खुले रखती थी। ऐसा उसे याद है।
बैंगलोर का मौसम भी सालों भर अच्छा रहता है और यहाँ के लोग भी बहुत बेहतर हैं नोर्थ इंडिया से। तो यहाँ वो कई बार बाल खोल के घूमा करती। अपनी flyte चलते हुए तो हमेशा ही बाल खोल के चलाती। उसे बालों से गुज़रती हवा बहुत बहुत अच्छी लगती। वो धीरे धीरे अपने खुले बालों के साथ कम्फ़्टर्बल होने लगी थी। यूँ यहाँ के पानी ने बहुत ख़ूबसूरती बहा दी लेकिन फिर भी उसके बाल ख़ूबसूरत हुआ करते थे। 
इस बीच एक चीज़ और हुयी कि लोगों ने उसके बालों से आती ख़ुशबू पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था। उसके बाल धोने का रूटीन अब ऐसा था कि बुधवार को बाल धोती थी कि शादीशुदा औरतों का गुरुवार को बाल धोना मना है। होता कुछ यूँ था कि ऑफ़िस में उसकी सीट पर जाने के रास्ते में कूलर पड़ता था...सुबह सुबह जैसा कि होता है, बाल धो कर ऑफ़िस भागती थी तो बाल हल्के गीले ही रहते थे...उसे कानों के पीछे और गर्दन पर पर्फ़्यूम लगाना पसंद था। तेज़ी से भागती थी ऑफ़िस तो सीढ़ियों के पास बैठी लड़की बोलती थी, ज़रा इधर आओ तो...गले लगती थी और कहती थी...तुम्हारे बालों से ग़ज़ब की ख़ुशबू आती है...अपने फ़्लोर पर पहुँचती थी तो एंट्री पोईंट से उसकी सीट के रास्ते में कूलर था...कूलर से हवा का झोंका जो उठता था, उसके बालों की ख़ुशबू में भीग कर बौराता था और कमरे में घूम घूम जाता था। सब पूछते थे उससे। कौन सा शैंपू, कौन सा कंडीशनर, कि लड़की, ग़ज़ब अच्छी ख़ुशबू आती है तुम्हारे बालों से। लड़की कहती थी, मेरी ख़ुशबू है...इसका पर्फ़्यूम या शैम्पू से कोई सम्बंध नहीं है। 
लड़की को अपने बाल बहुत पसंद थे। उनका खुला होना भी उतना ही जितना कि चोटी में गुंथा होना या कि जूड़े में बंधा होना। बिना बालों में उँगलियाँ फिराए वो लिख नहीं सकती थी। इन दिनों अपने अटके हुए उपन्यास पर काम कर रही थी तो रोज़ रात को स्टारबक्स जाना और एक बजे, उसके बंद हो जाने तक वहीं लिखना जारी था। इन दिनों साड़ी पहनने का भी शौक़ था। कि बहुत सी साड़ियाँ थीं उसके पास, जो कि कब से बस फ़ोल्ड कर के रखी हुयी थीं। ऐसे ही किसी दिन उसने हल्के जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी तो बालों में फूल लगाने का मन किया। घर के बाहर गमले में बोगनविला खिली हुयी थी। उसने बोगनविला के कुछ फूल तोड़े और अपने जूड़े में लगा लिए। ये भी लगा कि ये किसी गँवार जैसे लगेंगे...सन्थाल जैसे। कोई जंगल की बेटी हो जैसे। ज़िद्दी। बुद्धू। लेकिन फूल तो फूल होते हैं, उनकी ख़ूबसूरती पर शहराती होने का दबाव थोड़े होता है। वो वैसे भी अपने मन का ही करती आयी थी हमेशा। 
बस इतना सा हुआ और ख़यालों ने पूरा लाव लश्कर लेकर धावा बोल दिया...
***
तुम्हें कोई वैसे प्यार नहीं कर सकेगा जैसे तुम ख़ुद से करती हो। Muse तुम्हारे अंदर ही है, बस उसके नाम बदलते रहते हैं। उसकी आँखों का रंग। उसकी हँसी की ख़ुशबू। उसकी बाँहों का कसाव। तुम भी तो बदलती रहती हो वक़्त के साथ। 
कितनी बार, कितने फूलों के बाग़ से गुज़री हो...जंगलों से भी। कितनी बार प्रेम में हुयी हो। चली हो उसके साथ कितने रास्ते। कितने प्रेमी बदले तुमने इस जीवन में? बहुत बहुत बहुत।
लेकिन ऐसा कभी क्यूँ नहीं हुआ कि किसी ने कभी राह चलते तोड़ लिया हो फूल कोई और यूँ ही तुम्हारे जूड़े में खोंस दिया हो? बोगनविला के कितने रंग थे कॉलेज की उन सड़कों पर जहाँ चाँद और वो लड़का, दोनों तुम्हारे साथ चला करते थे। पीले, सफ़ेद, सुर्ख़ गुलाबी, लाल...या कि वे फूल जिनके नाम नहीं होते थे। या कि गमले में खिला गुलाब कोई। कभी क्यूँ नहीं दिल किया उसका कि बोगनविला के चार फूल तोड़ ले और हँसते हुए लगा दे तुम्हारे बालों में। 
कितनी बार कितनों ने कहा, तुम्हारे बाल कितने सुंदर हैं। उनसे कैसी तो ख़ुशबू आती है। कि टहलते हुए कभी खुल जाता था जूड़ा, कभी टूट जाता था क्लचर, कभी भूल जाती थी कमरे पर जूड़ा पिन। खुले बाल लहराते थे कमर के इर्द गिर्द। 
कि क्या हो गया है लड़कों को? वे क्यूँ नहीं ला कर देते फूल, कि लो अपने जूड़े में लगा लो इसे...कितना तो सुंदर लगता है चेहरे की साइड से झाँकता गुलाब, गहरा लाल। कि कभी किसी ने क्यूँ नहीं समझा इतना अधिकार कि बालों में लगा सके कोई फूल? कि ज़िंदगी की ये ख़ूबसूरती कहाँ गुम हो गयी? ये ख़ुशबू। हाथों की ये छुअन। यूँ महकी महकी फिरना?
बहुत अलंकार समझ आता है उसको। मगर फूल समझ में आते हैं? या कि लड़की ही। हँसते हुए पूछो ना उससे, यमक अलंकार है इस सवाल में, 'तुम तोड़ोगे पूजा के लिए फूल?'
शाम में पहनना वाइन रंग की सिल्क साड़ी और गमले में खिलखिलाते बोगनविला के फूल तोड़ लेना। लगा लेना जूड़े में। कि तुम ही जानती हो, कैसे करना है प्यार तुमसे। ख़ुश हो जाओगी किस बात से तुम। और कितना भी बेवक़ूफ़ी भरा लगे किसी को शायद जूड़े में बोगनविला लगाना। तुम्हारा मन किया तो लगाओगी ही तुम। 
फिर रख देना इन फूलों को उसकी पसंद की किताब के पन्नों के बीच और बहुत साल बाद कभी मिलो अगर उससे तो दे देना उसको, सूखे हुए बेरंग फूल। कि ये रहे वे फूल जो कई साल पहले तुम्हें मेरे बालों में लगाने थे। लेकिन उन दिनों तुम थे नहीं पास में, इसलिए मैंने ख़ुद ही लगा लिए थे। अब शुक्रिया कहो मेरा और चलो, मुझे फूल दिला दो...मैं ले चलती हूँ ड्राइव पर तुम्हें। ट्रेक करते हुए चलते हैं जंगल में कहीं। खिले होंगे पलाश...अमलतास...गुलमोहर...बोगनविला...जंगली गुलाब...कुछ भी तो।
ख़्वाहिश बस इतनी सी है कि तुम अपने हाथों से कोई फूल लगा दो मेरे बालों में...कभी। अब कहो तुम ही, इसको क्या प्यार कहते हैं?
***
तुम उसे समझना चाहते हो? समझने के पहले देखो उसे। मतलब वैसे नहीं जैसे बाक़ी देखते हैं। उसकी हँसती आँखों और उसकी कहानियों के किरदारों के थ्रू। उसे देखो जब कोई ना देखता हो।
उसके घर के आगे दो गमले हैं। जिनमें बोगनविला के तीन पौधे हैं। वो उनमें से एक पौधे को ज़्यादा प्यार करती है। सबसे ज़्यादा हँसते हुए फूल इसी पौधे पर आते हैं। ख़ुशनुमा। इस पौधे के फूलों के नाम बोसे होते हैं। गीत होते हैं। दुलार भरी छुअन होती है। इस पेड़ के काँटे उसे कभी खरोंचते भी नहीं।
दोनों बेतरतीब बढ़े हुए पौधे हैं। जंगली। घर घुसने के पहले लगता है किसी जंगल में जा रहे हों। लड़की सुबह उठी। सीने में दुःख था। प्यास थी कोई। कई दिनों से कोई ख़त नहीं आया। दुनिया के सारे लोग व्यस्त हैं बहुत।
सुख के झूले की पींग बहुत ऊँची गयी थी, आसमान तक। लेकिन लौट कर फिर ज़मीन के पास आना तो था ही। कब तक उस ऊँचे बिंदु से देख कर पूरी दुनिया की भर भर आँख ख़ूबसूरती ख़ुश होती रहती लड़की।
मुझे कोई चिट्ठियाँ नहीं लिखता।
दोनों गमलों में एक एक मग पानी डाला उसने। फिर उसे लगा पौधों को बारिश की याद आती हो शायद। लेकिन जो पौधे कभी बारिश में भीगे नहीं हों, उन्हें बारिश की याद कैसे आएगी? जिससे कभी मिले ना हों उसे मिस करते हैं जैसे, वैसे ही?
पौधों के पत्ते धुलने के लिए पानी स्प्रे करने की बॉटल है उसके पास। हल्की नीली और गुलाबी। उसने बोतल में पानी भरा और अपने प्यारे पौधे के ऊपर स्प्रे करने लगी। उसकी आँखें भरी हुयी थीं। अबडब आँसुओं से। इन आँसुओं को सिर्फ़ धूप देखती है या फिर आसमान। बहुत साल पहले लड़की आसमान की ओर चेहरा करके हँसा करती थी। लड़की याद करने की कोशिश करती है तो उसे ये भी याद नहीं आता कि हँसना कैसा होता है। वो देर तक आँसुओं में अबडब पौधे के ऊपर पानी स्प्रे करती रही। बोगनविला के हल्के नारंगी फूल भीग कर हँसने लगे। हल्की हवा में थिरकने लगे। कितने शेड होते हैं फूलों में। गुलाबी से सफ़ेद और नारंगी। पहले फूल भीगे। फिर पत्ते। फिर पौधों का तना एकदम भीग गया।



लड़की देखती रही बारिश में भीग कर गहरे रंग का हो जाना कैसा होता है। प्रेम में भीग कर ऐसे ही गहरे हो जाते हैं लोग। अपने लिखे में। अपनी चिट्ठियों में। अपनी उदासी में भी तो।
उसके सीने में बोगनविला का काँटा थोड़े चुभा था। शब्द चुभा था। अनकहा।
प्यार। ढेर सारा प्यार।
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Published on November 08, 2017 22:08

November 5, 2017

प्यार। पहला।

पहला प्यार। कि जो होता कम है, क्लास के दोस्त लोग बोल बोल के करवा ज़्यादा देते हैं। बिहार के छोटे शहरों, क़स्बों का प्यार होता कहाँ है। ख़यालों की उड़ान होती है। दरसल सबसे ज़्यादा कहानियाँ तो वहीं से शुरू होती हैं। मैंने आज तक अपने लिखे में कभी उस पहले प्यार के बारे में नहीं लिखा कि जहाँ से छायावाद के पहले बीज पनपे थे। एक छोटा सा क़स्बा था हमारा, देवघर। वहाँ के कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ा करते थे हम, सेंट फ़्रैन्सिस स्कूल, जसिडीह...स्कूल घर से सात किलोमीटर दूर था। बस से जाते थे वहाँ। वो हमारे क्लास में पढ़ता था। और हमारी बस से जाता था। गाल में बहुत ही गहरे गड्ढे पड़ते थे, डिम्पल। कि हम बस, उसी गड्ढे में गिर कर अपना हाथ, पैर, दिल...सब तुड़वाए हुए बैठे थे। 
7th में हमारे हिंदी के सर ने कह तो दिया था कि डाइअरी लिखो। लेकिन भई, उन दिनों बिहार में, इन फ़ैक्ट अभी भी...प्राइवसी नाम की कोई चिड़िया कहीं देखी नहीं जाती थी। और जो अगर कहीं ग़लती से दिख जाए और आप उसको चारा चुग्गा डाल कर अपनी डाइअरी में घोंसला बनाने दिए तो बाबू, बूझ लो...कोई दिन प्राइवसी चिरैय्या का टंगड़ी फ्राय बनेगा और आपकी कुटाई भी लगे हाथों फ़्री में। डाइअरी के पन्ने कोई भी पढ़ सकता है, लेकिन आपकी क़िस्मत ज़्यादा ख़राब हुयी, जैसे कि मेरी, तो सबसे पहले उनको मम्मी पढ़ लेगी। और फिर, बस, सत्यानास! यही सब फ़ालतू वाहियात चीज़ लिखने का शौक़ चढ़ा है तुमको। ई उमर पढ़ने लिखने का है कि यही सब प्यार मोहब्बत में पढ़ कर बर्बाद होने का है। रुको अभी तुम्हारे माथा से सब प्यार का भूत उतारते हैं। और ज़ाहिर तौर से इस भूत को उतारने के लिए कोई ओझा गुणी का ज़रूरत नहीं होता था...छोटे भाई को भेज कर गुलमोहर का छड़ी तुड़वाया जाता था छत से और बस। सट सट पड़ता था हाथ में कि ज़िंदगी में कभी कविता तो क्या कवि तक से तौबा कर लें हम। कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि भाई है नहीं जगह पर या हमारे धमकाने के कारण आ नहीं रहा है तो मम्मी हमी को भेज दी है छत से छड़ी लाने के लिए। लेकिन हुआ ये कि इसी कॉन्स्टंट पिटाई से एक ख़ास ब्रीड का जन्म हुआ, कि जिसको कहते हैं, थेत्थर। जो कि अक्सर लतख़ोर के कॉम्बिनेशन में पाया जाता है। हमारे बिहार में ऐसा कोई बच्चा नहीं हुआ है जो लड़कपन की दहलीज़ पर जा के थेत्थर ना घोषित हुआ हो। उसमें हम तो और ख़तरनाक थे, कि हमारा नाम था, 'टुपलोर' ज़रा सा कुछ हुआ नहीं कि आँख से ढल ढल आँसू। मार उर खा के चुपचाप कोने में टेसुआ बहाते रहते थे। 
लेकिन ऐसा दर्दनाक घटना कै बार घटे, समय के साथ होशियार होना ज़रूरी था। तो हम पहली बार अपनी ज़िंदगी के कोड साहित्य से उठाए। अपना पर्सनल कोडेड लिखायी कि जिसमें किसी लड़के का कहीं ज़िक्र है ही नहीं। कि हमने पूरी घटना लिखी, सिवाए उस एक चीज़ के कि जिसका हमारे दिल पर सबसे ज़्यादा असर हुआ है। सब कुछ इतने डिटेल में कि आज भी वो डाइअरी मिल जाए तो शब्द के बदले शब्द रिप्लेस करके बता दें कि उस दिन हुआ क्या था। आवश्यकता आविष्कार की जननी है, वहीं पता चला था हमको। बिना इंटर्नेट के युग में कौन सिखाएगा कि इस क़िस्म के कोड को Substitution Cipher कहते हैं। तो हर चीज़ के लिए एक शब्द था। उसके मुस्कुराने के लिए आसमान का रंग नीला था। जैसे कुछ परम्पराओं के पीछे की वजह हमें नहीं मालूम, हम बस वो करते चले आते हैं सवाल पूछे बिना...ये कुछ वैसा ही था। जिस किसी भी दिन, वो हमको देख कर मुस्कुराया हो। भले किसी घटिया जोक पर या कि उसके बैग को वापस देते समय। या ऐसा कोई भी और कारण तो उस दिन डाइअरी में एंट्री यही होती थी। 'आज आसमान का रंग नीला था'। अब ये लिखने के लिए तो पिटाई नहीं होती ना कि आसमान का रंग नीला था। हमको लगता है आज भी हमको नीला रंग इसलिए पसंद है, कि पहले प्यार की दहलीज़ पर जब हम रंग समझ रहे थे, हमने ख़ुशी का रंग नीला चुना था। 
इसी तरह नोर्मल दिन की कई घटनाओं को रिप्लेस करके लिखा गया प्रकृति के उपमानों से। नए वाक्यांश बनाए, मुहावरे जैसा कुछ लिखने की कोशिश की। 'आज चापकल से पानी बहुत मीठा आया। ख़ुद से चलाना भी नहीं पड़ा'। ग़ौर करने की बात ये है कि सोचने चलती हूँ कि क्या क्या खो गया तो उसमें बचपन के बहुत से ऐसे लम्हे हैं जो तकनीक ने हमसे छीन लिए। कि जैसे चापाकल था स्कूल में पानी पीने के लिए। अब चापाकल एयर ले लेता था तो उसके मुँह को हाथ से दबाए रखना होता था, जब तक कि दूसरा कोई हैंडिल चलाए। फिर जा के पानी आता था और दो लोग बारी बारी पानी पीते थे। क्लास से अगर पानी पीने बाहर जाना है तो अकेले नहीं जा सके, चापाकल चलाने के लिए भी तो कोई चाहिए। तो हम कई बार चापाकल के पानी की मिठास या कि कितने देर चलाना पड़ा पर भी लिखते रहते थे। क्लास में डांट खाने की अलग उपमा हुआ करती थी। कि जिसको तो दुबारा पढ़ के भी पेट भर जाता था। 
1998-99 की मेरी डाइअरी में दुनिया की जितनी ख़ूबसूरत चीज़ों का ज़िक्र आया है, वो चाहे गुलाब की कलियाँ हों...आसमान का रंग हो... हल्ला गला हो। कविता की महाघटिया घसीटन लाइनें हों। ये सब उस एक के लिए ही था कि जो मेरी नज़रों में दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत लड़का था। उन दिनों में प्यार कोई दुनिया को दिखाने की नहीं, दुनिया के छिपाने की चीज़ हुआ करती थी। मैं किसी को क्या बताती कि मुझे उसकी हैंड राइटिंग बहुत पसंद है। प्रेम में कुछ नहीं हो पाते हम, तो उस जैसे हो जाते हैं। हमारा नाम भी एक ही अक्षर से शुरू हुआ करता था, तो मैं अपना सिगनेचर एकदम उसके जैसा करती थी। उसके जैसे मोतियों वाले अक्षर लिखने के सपने देखती थी। उसके कमाल के सेन्स औफ़ ह्यूमर से कितना तो हँसती थी। उन दिनों लगता था, प्यार सिर्फ़ साथ में हँसना ही तो है। स्कूल बस से घर जाते हुए रास्ते में जो बातें करते रहते थे, बिना जाने समझे...उतना काफ़ी था। कि उन दिनों DDLJ आयी कहाँ थी और ना शाहरुख़ ने बेड़ा गरक किया था ये कह के कि 'प्यार दोस्ती है'। उन दिनों आयी थी 'दिल तो पागल है', और कि हर लड़की कि जिसका नाम पूजा था, अपने आपको माधुरी दीक्षित से कम कहाँ समझती थी। और राहुल, तो पूछो मत! 
10th के आख़िरी महीनों में हमें समझ आने लगता है बहुत ज़ोर से कि ये शहर छूट जाएगा। उन दिनों छूटना, सच में छूट जाना होता था। ये नहीं कि फ़ेस्बुक और whatsapp पर टच में रह लिए। फ़ोन पर बात कर लिए। ऐसा कुछ नहीं था। उन दिनों लैंडलाइन बहुत कम घरों में होता था और लैंडलाइन पर फ़ोन करने पर मम्मियाँ फ़ोन उठा लेती थीं फिर हलक सूखते आवाज़ नहीं निकलती थी, '____ से बात करनी है', उधर से सवाल आता, तुम कौन? और क़सम से, ये तुम कौन तो हमें अपना पूरा होना भुला देता था। कितना भी सोच के जाएँ कि फ़ोन पर किसी दोस्त का नाम लेंगे, उस समय हड़बड़ा जाते थे और कंठ सूख जाता था। ऐसा कोई दोस्त था भी नहीं जिसको साथ ले जा सकें फ़ोन करवाने के लिए, कि कोई लड़का बुला रहा है तो ज़्यादा पूछपाछ नहीं होती थी। ख़ैर, ये सब हसीन चीज़ें हमारी क़िस्मत में नहीं बदी थीं कि हमारे पास फ़ोन नम्बर ही नहीं था और ना इतनी हिम्मत कि फ़ोन कर सकें। 
दोस्त लोगों ने सुबह शाम चिढ़ा चिढ़ा के कन्फ़र्म ज़रूर कर दिया था कि हमको तो उससे प्यार है ही। हाँ, उसको है या नहीं ये पूछने का कोई तरीक़ा नहीं था। सिवाए हिंदी फ़िल्मों के। कि जो शाहरुख़ खान सिखा के गया था DDLJ में, जी हाँ। The one and only final proof of love... 'पलट' :) उफ़! आज भी वो लम्हा सोचती हूँ तो दिल की धड़कन बढ़ जाती है। क्या था कि उसके बस स्टॉप पर भतेरे लोग उतरते थे। जब तक सारी जनता उतरती रहती थी, हम बस के उधर की ही खिड़की पर टंगे रहते थे। वो बहुत मुश्किल से कभी मुड़ के देखता था। बहुत मुश्किल से ही कभी। स्टॉप से उसके घर को सीधी सड़क जाती थी, कोई पचास मीटर की। एक दिन हमने बहुत हिम्मत करके सोच ही लिया, आज तो मन में सवाल सोच के ही रहेंगे, चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए। उस दिन डर इतना लग रहा था जितना कभी फिर ज़िंदगी में किसी को प्रपोज़ करने में भी नहीं लगा। लड़का जैसे ही बस स्टॉप से उतर कर अपने घर की ओर चला, हमने अपने मन में सोचा, 'अगर ये तुमसे ज़रा भी प्यार करता है, यू नो, ज़रा भी, ['ज़रा' पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दे रहे थे मन में] तो ये पलट कर देखेगा। [और भगवान क़सम, दिल में एक ये शब्द बोलने के पहले कितना घबराए थे], पलट! ', वो ठीक उसी समय मुड़ा। देखा। मुस्कुराया। और वापस घर चला गया। बस इतना ही हुआ था। लेकिन उसका ठीक उस समय मुड़ना, मुझे इस बात का इतना पक्का यक़ीन करा गया था कि वो मुझसे प्यार करता है कि जितना दुनिया में किसी लड़के के प्यार पर कभी नहीं हुआ। लोग अपना दिल हथेली पे लिए, कविताओं में रच रच कर इश्क़ बयान करते रहे और मुझे यक़ीन नहीं हुआ कि जो उस उम्र में उसके एक लम्हे में पलट जाने पर हुआ था। कल्पना की उड़ान वही थी। मन में सोचा हुआ प्यार वैसा ही। कि उन दिनों अपने हिस्से का ही नहीं, उसके हिस्से का प्यार ख़ुद से भी कर लेते थे हम। इकतरफ़ा प्यार अपने आप में पूरा था। इसमें किसी और की जगह नहीं थी, ज़रूरत नहीं थी। 
स्कूल ख़त्म हुआ। हम लड़े झगड़े। अलग शहर में आ गए। फ़ोन पर ख़ूब ख़ूब बातें कीं। इश्क़ का इजहार किया। ब्रेक अप हुआ। चिट्ठी लिखी उसे। लम्बी। ऐसी कि उसके सारे दोस्तों ने पढ़े वो चार पन्ने। हम स्कूल के reunion में सब लोगों के साथ मिले। अजीब से कुछ। बातें भी नहीं कीं। आउट औफ़ टच रहे हमेशा। कभी जो मुश्किल से कहीं फ़ोर्मल से बात-चीत हो गयी सो हो गयी। 
स्कूल और प्यार के ख़त्म हुए कोई १८ साल हुए। वीकेंड हम लोग एक नॉस्टैल्जिया ट्रिप पर घूम रहे थे। स्क्रैप बुक। स्कूल के क्रश। उसके डिम्पल। उसकी हँसी। जाने क्या क्या कि पहला प्यार कोई किसी को दिखा के शो ऑफ़ करने के लिए तो करता नहीं है। चुपचाप ही करता है। अपने दिल की डाइअरी के लिए। 
स्कूल के दोस्त ने पूछा फिर, 'तुम उससे आख़िरी बार कब मिली थी'। लड़की हँसी इस ओर, और कहा, 'कभी नहीं'।




कि ज़िंदगी की तमाम सच्चाइयों में एक बात ये है कि जो स्कूल का पहला प्यार था...ज़िंदगी का...कि जिसके बारे में अपनी बेस्ट फ़्रेंड को रो रो कर कहा था, मैं उसको ज़िंदगी भर कभी नहीं भूल पाऊँगी...कभी नहीं। मैं उससे कभी नहीं मिली थी। कभी इत्मीनान से आमने सामने बैठ कर उससे बातें नहीं की थीं। कि मैं वाक़ई, उसे बिलकुल भी जानती नहीं थी...बिलकुल नहीं...

मैं तो सिर्फ़, उससे प्यार करती थी। 
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Published on November 05, 2017 22:08

November 2, 2017

मौसम के नाम, प्यार

मौसम उनके बीच किसी किरदार की तरह रहता। किसी दोस्त की तरह जिसे उनकी सारी बातें पता होतीं। उन्हें कहना नहीं आता, लेकिन वे जिस मौसम का हाल पूछते थे वो किसी शहर का मौसम नहीं होता। वो किसी शहर का मौसम हो भी नहीं सकता था। वो मन का मौसम होता था। हमेशा से। 
कि पहले बार उसने क्यूँ भेजी थीं सफ़ेद सर्दियाँ? और लड़की कैसे थी ऐसी, गर्म पानी का सोता...लेकिन उसे ये कहाँ मालूम था कि ये गर्म पानी नहीं, खारे आँसू हैं...उसकी बर्फ़ ऊँगली के पोर पर आँसू ठहरता तो लम्हे भर की लड़ाई होती दो मौसमों में। दुनिया के दो छोर पर रहने वाले दो शहरों में भी तो। मगर अंत में वे दोनों एक सम पर आ के मान जाते। 
बीच के कई सालों में कितने मौसम थे। मौसम विभाग की बात से बाहर, बिगड़ैल मौसम। मनमानी करते। लड़की ज़िद करती तो लड़के के शहर में भी बारिश हो जाती। बिना छतरी लिए ऑफ़िस गया लड़का बारिश में भीग जाता और ठिठुरता बैठा रहता अपने क्यूबिकल में। 'पागल है ये लड़की। एकदम पागल...और ये मौसम इसको इतना सिर क्यूँ चढ़ा के रखते हैं, ओफ़्फ़ोह! एक बार कुछ बोली नहीं कि बस...बारिश, कोहरा...आँधी...वो तो अच्छा हुआ लड़की ने बर्फ़ देखी नहीं है कभी। वरना बीच गर्मियों के वो भी ज़िद पकड़ लेती कि बस, बर्फ़ गिरनी चाहिए। थोड़ी सी ही सही।' कॉफ़ी पीने नीचे उतरता तो फ़ोन करता उसे, 'ख़ुश हो तुम? लो, हुआ मेरा गला ख़राब, अब बात नहीं कर पाउँगा तुमसे। और कराओ मेरे शहर में बारिश'। लड़की बहुत बहुत उदास हो जाती। शाम बीतते अदरक का छोटा सा टुकड़ा कुतरती रहती। अदरक की तीखी गंध ऊँगली की पोर में रह जाती। उसे चिट्ठियाँ लिखते हुए सोचती, ये बारिश इस बार कितने दिनों तक ऐसे ही रह जाएगी पन्नों में। 
***
ठंढ कोई मौसम नहीं, आत्मा की महसूसियत है। जब हमारे जीवन में प्रेम की कमी हो तो हमारी आत्मा में ठंढ बसती जाती है। फिर हमारी भोर किटकिटाते बीतती है कि हमारा बदन इक जमा हुआ ग्लेशियर होता है जिसे सिर्फ़ कोई बाँहों में भींच कर पिघला सकता है। लेकिन दुनिया इतनी ख़ाली होती है, इतनी अजनबी कि हम किसी को कह नहीं सकते...मेरी आत्मा पर ठंढ उतर रही है...ज़रा बाँहों में भरोगे मुझे कि मुझे ठंढ का मौसम बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। 
लड़की की सिसकी में डूबी आवाज़ एक ठंढी नदी होती। कि जिसमें पाँव डाले बैठे रहो तो सारे सफ़र में थरथराहट होगी। कि तुम रास्ता भूल कर अंधेरे की जगह रौशनी की ओर चले जाओगे। एक धीमी, कांपती रौशनी की लौ तक। सिगरेट जलाते हुए जो माचिस की तीली के पास होती है। उतनी सी रौशनी तक। 
बर्फ़ से सिर्फ़ विस्की पीने वाले लोग प्यार करते हैं। या कि ब्लैक कॉफ़ी पीने वाले। सुनहले और स्याह के बीच होता लड़की की आत्मा का रंग। डार्क गोल्डन। नीले होंठ। जमी हुयी उँगलियाँ। तेज़ आँधी में एक आख़िरी बार तड़प कर बुझी हुयी आँखें।
वो किसी संक्रामक बीमारी की तरह ख़तरनाक होती। उसे छूने से रूह पर सफ़ेद सर्दियाँ उतरतीं। रिश्तों को सर्द करती हुयीं। एक समय ऐसा भी होता कि वो अपनी सर्द उँगलियों से बदन का दरवाज़ा बंद कर देती और अपने इर्द गिर्द तेज़ बहती बर्फ़ीली, तूफ़ानी नदियाँ खींच देती। फिर कोई कैसे चूम सकता उसकी सर्द, सियाह आँखें। कोई कैसे उतरते जाता उसकी आत्मा के गहरे, ठंढे, अंधेरे में एक दिया रखने की ख़ातिर।
लड़की कभी कभी unconsolable हो जाती। वहाँ से कोई उसे बचा के वापस ला नहीं पाता ज़िंदगी और रौशनी में वापस। हँसते हुए आख़िरी बात कहती। एक ठंढी हँसी में। rhetoric। ऐसे सवाल जिनके कोई जवाब नहीं होते।'लो, हम मर गए तुम पर, अब?'
***'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'
सबको इस बात पर आश्चर्य क्यूँ होता कि लड़की के पास बहुत से अनकहे शब्द हुआ करते। उन्हें लगता कि जैसे उसके लिए लिखना आसान है, वैसे ही कह देना भी आसान होता होगा। ऐसा थोड़े होता है।
कहने के लिए आवाज़ चाहिए होती है। आवाज़ एक तरह का फ़ोर्स होती। अपने आप में ब्लैक होल होती लड़की के पास कहाँ से आती ये ऊर्जा कि अपने ही प्रचंड घनत्व से दूर कर सके शब्द को...उस सघनता से...इंटेन्सिटी से...कोई शब्द जो बहुत कोशिश कर के बाहर निकलता भी तो समय की टाइमलाइन में भुतला जाता। कभी अतीत का हिस्सा बन जाता, कभी भविष्य का। कभी अफ़सोस के नाम लिखाता, कभी उम्मीद के...लेकिन उस लड़के के नाम कभी नहीं लिखाता जिसके नाम लिखना चाहती लड़की वो एक शब्द...एक कविता...एक पूरा पूरा उपन्यास। उसका नाम लेना चाहती लेकिन कहानी तक आते आते उसका नाम कोई एक अहसास में मोर्फ़ कर जाता।
लड़की समझती सारी उपमाएँ, मेटाफर बेमानी हैं। सब कुछ लिखाता है वैसा ही जैसा जिया जाता है। कविताओं में भी झूठ नहीं होता कुछ भी।
सुबह सुबह नींद से लड़ झगड़ के आना आसान नहीं होता। दो तीन अलार्म उसे नींद के देश से खींच के लाना चाहते लेकिन वहाँ लड़का होता। उसकी आँखें होतीं। उसकी गर्माहट की ख़ुशबू में भीगे हाथ होते। कैसे आती लड़की हाथ छुड़ा के उससे।
सुबह के मौसम में हल्की ठंढ होती। जैसे कितने सारे शहरों में एक साथ ही। सलेटी मौसम मुस्कुराता तो लड़की को किसी किताब के किरदार की आँखें याद आतीं। राख रंग की। आइना छेड़ करता, पूछता है। आजकल बड़ा ना तुमको साड़ी पहनने का चस्का लगा है। लड़की कहती। सो कहो ना, सुंदर लग रही हूँ। मौसम कहता, सिल्क की साड़ी पहनो। लड़की सिल्क की गर्माहट में होती। कभी कभी भूल भी जाती कि इस शहर में वो कितनी तन्हा है...वो लड़का इतना क़रीब लगता कि कभी कभी तो उदास होना भी भूल जाती।
कार की विंडो खुली होती। उसका दिल भी। दुःख के लिए। तकलीफ़ के लिए। लेकिन, सुख के लिए भी तो। सुबह कम होता ट्रैफ़िक। लड़की as usual गाड़ी उड़ाती चलती। किसी रेसिंग गेम की तरह कि जैसे हर सड़क उसके दिल तक जाती हो। गाना सुनती चुप्पी में, गुनगुनाती बिना शब्द के।
लड़की। इंतज़ार करती। गाने में इस पंक्ति के आने का। अपनी रूह की उलझन से गोलती एक गाँठ और गाती, 'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'।

और कहीं दूर देश में अचानक उसकी हिचकियों से नींद खुल जाती...ठंढे मौसम में रज़ाई से निकलने का बिलकुल भी उसका मन नहीं करता। आधी नींद में बड़बड़ाता उठता लड़का। 'प्यार करने की तमीज़ ख़ाक होगी, इस पागल लड़की को ना, याद करने तक की तमीज़ नहीं है'।
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Published on November 02, 2017 01:38

October 31, 2017

She rides a Royal Enfield ॰ चाँदनी रात में एनफ़ील्ड रेसिंग

दुनिया में बहुत तरह के सुख होते होंगे। कुछ सुख तो हमने चक्खे भी नहीं हैं अभी। कुछ साल पहले हम क्या ही जानते थे कि क़िस्मत हमारे कॉपी के पन्ने पर क्या नाम लिखने वाली है।

बैंगलोर बहुत उदार शहर है। मैं इससे बहुत कम मुहब्बत करती हूँ लेकिन वो अपनी इकतरफ़ा मुहब्बत में कोई कोताही नहीं करता। मौसम हो कि मिज़ाज। सब ख़ुशनुमा रखता है। इन दिनों यहाँ हल्की सी ठंढ है। दिल्ली जैसी। देर रात कुछ करने का मन नहीं कर रहा था। ना पढ़ने का, ना लिखने का कुछ, ना कोई फ़िल्म में दिल लग रहा था, ना किसी गीत में। रात के एक बजे करें भी तो क्या। घर में रात को अकेले ना भरतनाट्यम् करने में मन लगे ना भांगड़ा...और साल्सा तो हमको सिर्फ़ खाने आता है।

बाइकिंग बूट्स निकाले। न्यू यॉर्क वाले सफ़ेद मोज़े। उन्हें पहनते हुए मुस्कुरायी। जैकेट। हेल्मट। घड़ी। ब्रेसलेट। कमर में बैग कि जिसमें वॉलेट और घर की चाबी। गले में वही काला बिल्लियों वाला स्टोल कि जिसके साथ न्यू यॉर्क की सड़कें चली आती हैं हर बार। मुझे बाक़ी चीज़ों के अलावा, एनफ़ील्ड चलाने के पहले वाली तैयारी बहुत अच्छी लगती है। शृंगार। स्ट्रेच करना कि कहीं मोच वोच ना आ जाए।

गयी तो एनफ़ील्ड इतने दिन से स्टार्ट नहीं की थी। एक बार में स्टार्ट नहीं हुयी। लगा कि आज तो किक मारनी पड़े शायद। लेकिन फिर हो गयी स्टार्ट। तो ठीक था। कुछ देर गाड़ी को आइड्लिंग करने दिए। पुचकारे। कि खामखा नाराज़ मत हुआ कर। इतना तो प्यार करती हूँ तुझसे। नौटंकी हो एकदम तुम भी।

इतनी रात शहर की सड़कें लगभग ख़ाली हैं। कई सारी टैक्सीज़ दौड़ रही थीं हालाँकि। एकदम हल्की फुहार पड़ रही थी। मुझे अपनी एनफ़ील्ड चलने में जो सबसे प्यारी चीज़ लगती है वो तीखे मोड़ों पर बिना ब्रेक मारे हुए गाड़ी के साथ बदन को झुकाना...ऐसा लगता है हम कोई बॉल डान्स का वो स्टेप कर रहे हैं जिसमें लड़का लड़की की कमर में हाथ डाल कर आधा झुका देता है और फिर झटके से वापस बाँहों में खींच कर गोल चक्कर में घुमा देता है।

कोई रूह है मेरी और मेरी एनफ़ील्ड की। रूद्र और मैं soulmates हैं। मैं छेड़ रही थी उसको। देखो, बदमाशी करोगे ना तो अपने दोस्त को दे देंगे चलाने के लिए। वो बोला है बहुत सम्हाल के चलाता है। फिर डीसेंट बने घूमते रहना, सारी आवारगी निकल जाएगी। आज शाम में नील का फ़ोन आया था। वो भी चिढ़ा रहा था, कि अपनी एनफ़ील्ड बेच दे मुझे। मैं उसकी खिंचाई कर रही थी कि एनफ़ील्ड चलाने के लिए पर्सनालिटी चाहिए होती है, शक्ल देखी है अपनी, एनफ़ील्ड चलाएगा। और वो कह रहा था कि मैं तो बड़ी ना एनफ़ील्ड चलाने वाली दिखती हूँ, पाँच फ़ुट की। भर भर गरियाए उसको। हम लोगों के बात का पर्सेंटिज निकाला जाए तो कमसे कम बीस पर्सेंट तो गरियाना ही होगा।

इनर रिंग रोड एकदम ख़ाली। बहुत तेज़ चलाने के लिए लेकिन चश्मे दूसरे वाले पहनने ज़रूरी हैं। इन चश्मों में आँख में पानी आने लगता है। हेल्मट का वाइज़र भी इतना अच्छा नहीं है तो बहुत तेज़ नहीं चलायी। कोई अस्सी पर ही उड़ाती रही बस। इनर रंग रोड से घूम कर कोरमंगला तक गयी और लौट कर इंदिरानगर आयी। एक मन किया कि कहीं ठहर कर चाय पी लूँ लेकिन फिर लगा इतने दिन बाद रात को बाहर निकली हूँ, चाय पियूँगी तो सिगरेट पीने का एकदम मन कर जाएगा। सो, रहने ही दिए। वापसी में धीरे धीरे ही चलाए। लौट कर घर आने का मन किया नहीं। तो फिर मुहल्ले में घूमती रही देर तक। स्लो चलती हुयी। चाँद आज कितना ही ख़ूबसूरत लग रहा था। रूद्र की धड़कन सुनती हुयी। कैसे तो वो लेता है मेरा नाम। धकधक करता है सीने में। जब मैं रेज देती हूँ तो रूद्र ऐसे हुमक के भागता है जैसे हर उदासी से दूर लिए भागेगा मुझे। दुनिया की सबसे अच्छी फ़ीलिंग है, रॉयल एनफ़ील्ड ५०० सीसी को रेज देना। फिर उसकी आवाज़। उफ़! जिनकी भी अपनी एनफ़ील्ड है वो जानते हैं, इस बाइक को पसंद नहीं किया जा सकता, इश्क़ ही किया जा सकता है इससे बस।

मुहल्ले में गाड़ियाँ रात के डेढ़ बजे एकदम नहीं थीं। बस पुलिस की गाड़ी पट्रोल कर रही थी। मैंने सोचा कि अगर मान लो, वो लोग पूछेंगे कि इतनी रात को मैं क्यूँ पेट्रोल जला रही हूँ तो क्या ही जवाब होगा मेरे पास। मुझे लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी हमेशा से बहुत अच्छी लगती है। मैं हल्के हल्के गुनगुना रही थी। ख़ुद के लिए ही। 'ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त, कौन हो तुम बतलाओ'। एनफ़ील्ड की डुगडुग के साथ ग़ज़ब ताल बैठ रहा था गीत का। कि लड़कपन से भी से मुझे कभी साधना या फिर सायरा बानो बनने का चस्का कम लगा। हमको तो देवानंद बनना था। शम्मी कपूर बनना था। अदा चाहिए थी वो लटें झटकाने वालीं। सिगरेट जलाने के लिए वो लाइटर चाहिए था जिसमें से कोई धुन बजे। मद्धम।

सड़क पर एनफ़ील्ड पार्क की और फ़ोन निकाल के फ़ोटोज़ खींचने लगी। ज़िंदगी के कुछ ख़ूबसूरत सुखों में एक है अपनी रॉयल एनफ़ील्ड को नज़र भर प्यार से देखना। पीली रौशनी में भीगते हुए। उसकी परछाईं, उसके पीछे की दीवार। जैसे मुहब्बत में कोई महबूब को देखता है। उस प्यार भरी नज़र से देखना।

सड़क पर एक लड़का लड़की टहल रहे थे। उनके सामने बाइक रोकी। बड़ी प्यारी सी लड़की थी। मासूम सी। टीनएज की दहलीज़ पर। मैंने गुज़ारिश की, एक फ़ोटो खींच देने की। कि मेरी बाइक चलाते हुए फ़ोटो हैं ही नहीं। उसने कहा कि उसे ये देख कर बहुत अच्छा लगा कि मैं एनफ़ील्ड चला रही हूँ। मैंने कहा कि बहुत आसान है, तुम भी चला सकती हो। उसने कहा कि बहुत भारी है। अब एनफ़ील्ड कोई खींचनी थोड़े होती है। मैंने कहा उससे। हर लड़की को गियर वाली बाइक ज़रूर चलानी चाहिए। उसमें भी एनफ़ील्ड तो एकदम ही क्लास अपार्ट है। कहीं भी इसकी आवाज़ सुन लेती हूँ तो दिल में धुकधुकी होने लगती है। मैं हर बार लड़कियों को कहती हूँ, मोटर्सायकल चलाना सीखो। ये एक एकदम ही अलग अनुभव है। इसे चलाने में लड़के लड़की का कोई भेद भाव नहीं है। अगर मैं चला सकती हूँ, तो कोई भी चला सकता है।

पिछले साल एनफ़ील्ड ख़रीदने के पहले मैंने कितने फ़ोरम पढ़े कि कोई पाँच फुट दो इंच की लड़की चला सकती है या नहीं। वहाँ सारे जवाब बन्दों के बारे में था, छह फुट के लोग ज्ञान दे रहे थे कि सब कुछ कॉन्फ़िडेन्स के बारे में है। अगर आपको लगता है कि आप चला सकते हैं तो आप चला लेंगे। मुझे यही सलाह चाहिए थी मगर ऐसी किसी अपने जैसी लड़की से। ये सेकंड हैंड वाला ज्ञान मुझे नहीं चाहिए था।

तो सच्चाई ये है कि एनफ़ील्ड चलाना और इसके वज़न को मैनेज करना प्रैक्टिस से आता है। ज़िंदगी की बाक़ी चीज़ों की तरह। हम जिसमें अच्छे हैं, उसकी चीज़ को बेहतर ढंग से करने का बस एक ही उपाय है। प्रैक्टिस। एक बार वो समझ में आ गया फिर तो क्या है एनफ़ील्ड। फूल से हल्की है। और हवा में उड़ती है। मैंने दो दिन में एनफ़ील्ड चलाना सीख लिया था। ये और बात है कि पापा ने सबसे पहले राजदूत सिखाया था पर पटना में थोड़े ना चला सकते थे। कई सालों से कोई गियर वाली बाइक चलायी नहीं थी।

अभी कुछ साल पहले सपने की सी ही बात लगती थी कि अपनी एनफ़ील्ड होगी। कि चला सकेंगे अपनी मर्ज़ी से ५०० सीसी बाइक। कि कैसा होता होगा इसका ऐक्सेलरेशन। क्या वाक़ई उड़ती है गाड़ी। वो लड़की नाम पूछी मेरा। हाथ मिलायी। मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गए जब देवघर में एक दीदी हीरो होंडा उड़ाया करती थी सनसन। हमारे लिए तो वही रॉकस्टार थी। तस्वीर खींचने को जो लड़की थी, उसे बताया मैंने कि एनफ़ील्ड पति ने गिफ़्ट की है पिछले साल, तो वो लड़की बहुत आश्चर्यचकित हो गयी थी।

दुनिया में छोटे छोटे सुख हैं। जिन्हें मुट्ठी में बांधे हुए हम सुख की लम्बी, उदास रात काटते हैं। तुम मेरी मुट्ठी में खुलता, खिलखिलाता ऐसा ही एक लम्हा हो। आना कभी बैंगलोर। घुमाएँगे तुमको अपने एनफ़ील्ड पर। ज़ोर से पकड़ के बैठना, उड़ जाओगे वरना। तुम तो जानते ही हो, तेज़ चलाने की आदत है हमको।

ज़िंदगी अच्छी है। उदार है। मुहब्बत है। अपने नाम पर रॉयल एनफ़ील्ड है।
इतना सारा कुछ होना काफ़ी है सुखी होने के लिए।
सुखी हूँ इन दिनों। ईश्वर ऐसे सुख सबकी क़िस्मत में लिक्खे।
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Published on October 31, 2017 14:43

October 30, 2017

प्यार। ढेर सारा प्यार।

कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि पूरी शाम मुस्कुराने के कारण गालों में दर्द उठ गया हो. मैं उस वक़्त आसमान की ओर आँखें करती हूँ और उस उपरवाले से पूछती हूँ 'व्हाट हैव यु डन टु मी?' मैं शाम से पागलों की तरह खुश हूँ, अगर कोई बड़ा ग़म मेरी तरफ अब तुरंत में फेंका न तो देख लेना.
- उस लड़की में दो नदियाँ रहती थीं, [page no. 112, तीन रोज़ इश्क़]

30 August, 2017
आज वो दूसरी वाली नदी में उफान आया है।
धूप की नदी। सुख की। छलकती। बहती किनारे तोड़ के। खिलखिलाती।

याद करती एक शहर। दिल्ली की हवा में बजती पुराने गानों की धुन कैसी तो।  किसी पार्क में झूला झूलती लड़कियाँ खिलखिला के हँसतीं। छत पर खड़ा एक लड़का देखता एक लड़की को एक पूरी नज़र भर कर। चाय मीठी हुई जाती कितनी तो। लड़की अपने अतीत में होती। लड़का कहता, मुझे बस, ना, तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए। कहते हुए उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर लेता। बात को कई साल बीत जाते लेकिन लड़की नहीं भूलती उसका कहना। बिछड़े हुए कई साल बीत जाते। लड़की देखती फ़ोन में एक बच्चे की तस्वीर। टूटे हुए सपने से बहता हुआ आता प्यार कितना तो। लड़की मुस्कुराती फ़ोन देख कर। असीसती अपने पुराने प्रेमी के बेटे को।

कहाँ रख दूँ इतनी सारी मुस्कान।
किसके नाम लिख दूँ। वसीयत कर दूँ। मेरे सुख का एक हिस्सा उसे दे दिया जाए। थोड़ी धूप खिले उसकी खिड़की पर। उसकी आँखों में भी। उसके शहर का ठंढा मौसम कॉफ़ी में घुलता जाए। कॉफ़ी कप के इर्द गिर्द लपेटी हुयी उँगलियाँ। कितने ठंढे पड़ते हैं तुम्हारे हाथ। नरम स्वेड लेदर के दास्ताने पहनती लड़की। कॉफ़ी शॉप पर भूल जाती कि टेबल के सफ़ेद नैपकिन के पास रह जाते दास्ताने। लड़का अगली रोज़ जाता कॉफ़ी शॉप तो वेट्रेस कहती, 'आपकी दोस्त के दास्ताने रह गए हैं यहाँ, ले लीजिए'। उसके गर्म हाथों को दास्ताने की ज़रूरत नहीं लेकिन पॉकेट में रख लेता है। फ़ोल्ड किए। नन्हें दास्ताने। कोई जा कर भी कितना तो रह जाता है शहर में।

कभी होता है, बहुत प्यार आ रहा होता है...इस प्यार आने का अचार कैसे डालते हैं मालूम ही नहीं। कहाँ रखते हैं इसको। भेजते हैं कैसे। किसको। जैसे लगता है कभी कभी। कोई सामने हो और बस टकटकी लगा के देखें उसको। कि जब बहुत तेज़ी से भागती हैं चीज़ें आँखों के सामने से तो रंग ठीक ठीक रेजिस्टर नहीं होते। लड़की चाहती कि उस रिकॉर्डिंग को पॉज़ कर दे। स्लो मोशन में ठीक उस जगह ठहरे कि जब उसका चेहरा हथेलियों में भरा था। उसका माथा चूमने के पहले देखे उसकी आँखों का रंग। याद कर ले शेड। कि कभी फिर दुखे ना ब्लैक ऐंड वाइट तस्वीरों में उसकी आँखों का रंग होना सलेटी।

प्यार। ढेर सा प्यार। बहुत ख़ूब सा। शहर भर। दिल भर। काग़ज़ काग़ज़ क़िस्सों भर। और भर जाने से ज़्यादा छलका हुआ।
किरदारों के नाम कैसे हों? 'मोह', शहर का नाम, 'विदा' लड़की का नाम, 'इतरां'। मगर सारे किरदार भी फीके लगें कि तुम्हारी हँसी के रंग जैसा कहाँ आए हँसना मेरे किसी किरदार को। तुम्हारी आवाज़ की खनक नहीं रच पाऊँ मैं किसी रंग की कलम से भी। कि चाहूँ कहना तुमसे, सामने तुम्हारे रहते हुए। एक शब्द ही। प्यार।

हमको कुछ चाहिए भी तो नहीं था।
हमको कभी कुछ चाहिए नहीं होता है। कभी कभी लिखने को एक खिड़की भर मिल जाए। एक पन्ना हो। चिट्ठी हो कोई। अटके पड़े नॉवल का नया चैप्टर हो। तुम्हारी हथेली हो सामने। उँगलियों से लिखती जाऊँ उसपर हर्फ़ हर्फ़ कर के जो कहनी हैं बातें तुमसे। कौन सी बातें ही? नयी बातें कुछ? चाँद देखा तुमने आज? आज जैसा चाँद पहले कहाँ निकला था कभी। आज जैसा प्यार कहाँ किया था पहले कभी भी तो। पर पहले तुम कहाँ मिले थे। किसी और से कैसे कर  लेती तुम्हारे हिस्से का, तुम्हारे जैसा - प्यार।

कैसे होता है। जिया हुआ एक लम्हा कितने दिनों तक रौशन होता है। वो पल भर का आँख भर आना। मालूम नहीं सुख में या दुःख में। बीतता हुआ लम्हा। बिसरता हुआ कोई। पूछूँ तुमसे। क्यूँ? मगर तुम्हारे पास तो सारे सवालों के जवाब होते हैं। और बेहद सुंदर जवाब। सवालों से सुंदर। कितना अच्छा है इसलिए तुमसे बात करना। कहीं कुछ अटका नहीं रहता। कुछ चुभता नहीं। कुछ दुखता नहीं। सब सुंदर होता। सहज। सत्यम शिवम् सुंदरम। जैसा शाश्वत कुछ। लम्हा ऐसा कि हमेशा के लिए रह जाए। ephemeral and eternal.

और तुम। रह जाओ ना हमेशा के लिए। नहीं?
उन्हूँ...हमेशा वाले दिन अब समझ नहीं आते। तुम जी लो इस लम्हे को मेरे साथ। रंग में। ख़ुशबू में। छुअन में। कि सोचूँ कितना कुछ और कह पाऊँ कहाँ तुमसे। कौन शब्द में बांधे मन की बेलगाम दौड़ को। नदी हुए जाऊँ। बाँध में सींचती रही कितनी कहानियाँ मगर लड़की का मन, तुमसे मिलकर फिर से नदी हुआ जाता। पहाड़ी नदी। जो हँसती खिलखिल।

सपने में खिले, पिछली बरसात लगाए हुए गुलाब। आँख भर आए। सुख। जंगली गुलाबों की गंध आए सपनों में। टस लाल। कॉफ़ी की गंध। कपास की। किसी के बाँहों में होने की गंध। मुट्ठी में पकड़े उसके शर्ट की सलवटें। क्या क्या रह जाए? सपने से परे, सपने के भीतर?

कहूँ तुमसे। कभी। कह सकूँ। आवाज़ में घुलते हुए।
प्यार। ढेर सारा प्यार। 
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Published on October 30, 2017 13:54

कुछ बेशक़ीमत कमीने कि जिन्हें म्यूज़ीयम में रखना चाहिए

बहुत अदा से वो कहा करता था, 'नवाजिश, करम, शुक्रिया, मेहरबानी'। ज़रूरी नहीं है कि आपने कोई बहुत अच्छी चीज़ की हो...हो सकता है उसका ही कोई शेर पसंद आ गया और अपने हिसाब से कच्चे पक्के शब्दों में आपने तारीफ़ करने की कोशिश की हो...लेकिन उसका शुक्रगुज़ार होने का अन्दाज़ एक बेहद ख़ूबसूरत और रेयर रूमानियत से भरता था ज़िंदगी को। जैसे हम भूल गए हों शुक्रगुज़ार होना।

उसकी रौबदार आवाज़ की दुलार भारी डांट में 'बे' इतना अपना लगता था कि ग़लतियाँ करने का मन करता था। उसके साथ चलते हुए लगता था कोई ग़म छू नहीं सकता है। कितना सुरक्षित महसूस होता था। किसी ख़तरनाक शहर में उसके इर्द होने से सुकून हुआ करता था कितना। उसके साथ चलते हुए साड़ी के रंग और खिलते थे। गीत के सुर भी मीठे होते थे ज़्यादा। और सिगरेट, जनाब सिगरेट हुआ करती थी ऐसी कि जैसे दोस्ती का मतलब सिर्फ़ सिगरेट शेयर करके पीना है। 'बे, तू गीली कर देती है, अपनी ख़ुद की जला ले, मैं ना दे रहा'। कौन और लड़ सकता था मुझसे उसके सिवा।

था। कितना दुखता है ना किसी वाक्य के अंत में जब आता है। किसी रिश्ते के अंत में आता है तो भी तो।

कुछ लोग अचानक से बिछड़ गए। मुझे तेज़ चलने की आदत है। इतनी छोटी सी पाँच फुट दो इंच की लड़की की रफ़्तार इतनी तेज़ चलती होगी कोई उम्मीद नहीं करता। या कि लोगों को आहिस्ता चलने की आदत है। मुझे जाने कहाँ पहुँचना होता है। हमेशा एक हड़बड़ी रहती है पाँवों में।

कुछ लोग किस तरह रह जाते हैं अपने जाने के बाद भी। कि हम उन्हें ही नहीं, ख़ुद को भी मिस करते हैं, जो हम उनके साथ हुआ करते थे। जैसे कि अब कहाँ किसी को 'जान' कहते हैं। या कि कहेंगे ही कभी। मैं कौन हुआ करती थी कि दोस्तों को 'जान' कह कर मिलवाया करती थी। कि कैसे जान बसती थी कुछ लोगों में। अब जो वे नहीं हैं ज़िंदगी में...मेरी रूह के हिस्से छूटे हुए जाने कौन शहरों में भटक रहे हैं।

मुझे याद है आज भी वो सर्दियों का मौसम। हम कितने साल बाद मिल रहे थे। शायद पाँच साल बाद। उसे देखा तो दौड़ कर गयी उसकी तरफ़ और उसने बस ऐसे ही सिर्फ़ 'hug' नहीं किया, नीचे झुका और बाँहों में भींच कर ज़मीन से ऊपर उठा लिया। मेरे पैर हवा में झूल रहे थे। हँसते हँसते आँख भर आयी। 'पागल ही है तू। उतार नीचे। भारी हो गयी हूँ मैं।' हम हँसते ऐसे थे जैसे बचपन से भाग के आए हों। या कि लड़कपन से। कि जब दिल टूटने पर डर नहीं लगता था। उसे मिलवाया कुछ यूँ ही, 'हमारी जान से मिलिए'। दस साल यूँ ही नहीं हो जाते किसी दोस्ती को। कुछ तो पागलपन होता है दो लोगों में। उसमें भी मेरे जैसे किसी से। मेडल देने का मन करता है उसको।

कल रात उसने एक बच्चे की तस्वीर भेजी whatsapp पर। इस मेसेज के साथ कि तेरी बहुत याद आ रही है। बच्चे की तस्वीर में कुछ था जो अजीब तरह से ख़ुद की ओर खींच रहा था। मैं सोचती रही कि किसकी तस्वीर है, कि उसके बेटे को मैं अच्छे से पहचानती हूँ...फिर उसे भी इतने अच्छे से जानती तो हूँ कि उसके बचपन की किसी तस्वीर में पहचान लूँ। रात को सोचती रही कि किसकी तस्वीर होगी। रैंडम किसी बच्चे की फ़ोटो भेज दी क्या उसने।

सुबह पूछा उससे। किसकी फ़ोटो है। उसने बताया मेरे एक्स के बेटे की। मेरा मन ऐसे उमड़ा...दुलार...कि शब्द नहीं बचे। सोचती रही कि औरत का मन कितना प्यार बचाए रखे रखता है अपने पास। और कि दोस्त कैसे तो हैं मेरी ज़िंदगी में। कहाँ से कौन सा सुख लिए आते हैं मेरे लिए। सबसे चुरा के। मैं देर तक उस बच्चे की तस्वीर को देखती रही। उसकी आँखों में अपने पुराने प्यार को तलाशती रही, उसके चेहरे के कट में। उसकी मुस्कान को ही। फिर दो और क़रीबी दोस्तों को भेजी फ़ोटो। कि देखो। कौन सा प्यार कहाँ ख़त्म होता है।

कितने साल हुए। पुराना प्यार पुराना ही पड़ता है। ख़त्म नहीं होता कभी।
जिनसे भी कभी प्यार किया है। सबके नाम।
प्यार। बहुत सा।

***
कल बहुत दिन बाद एक पुराने दोस्त से बात हुयी। बहुत दिन बाद। और बहुत पुराना दोस्त भी। कहा उससे। कि देखो, तुम्हारे बिना जीने की आदत भी पड़ ही गयी। एक वक़्त ऐसा था कि एक भी दिन नहीं होता था कि उससे बात ना होती हो। हमारा वक़्त बंधा हुआ था। आठ बजे के आसपास उसका ऑफ़िस ख़त्म, मेरा ऑफ़िस ख़त्म और बातें शुरू। दिन में क्या लिखे पढ़े, कौन कैसा लिख-पढ़ रहा है से लेकर घर, गाँव, खेत पछार। सब कुछ ही चला आता था हमारी बातों में।

सालों साल हमने घंटों बातें की हैं। और समय भी वही। बाद में कभी कभी दिन में भी फ़ोन कर लिए और एक आध घंटा बात कर ली हो तो कर ली हो, लेकिन वक़्त ऐसा बंधा हुआ था शाम का कि घड़ी मिला ली जा सकती थी उससे। आठ बजे और फ़ोन रिंग।

मेरे दोस्त बहुत कम रहे हैं, लेकिन जो नियमित रहे हैं, उन्हें मालूम है कि वैसे तो मैं हर जगह देरी से जाऊँगी लेकिन अगर कोई रूटीन बंध रहा है तो उसमें एक मिनट भी देर कभी नहीं होगी।

कल अच्छा लगा उससे बात कर के। उसकी हँसी अब भी वैसी ही है। मन को बुहार के साफ़ कर देने वाली। शादी के बारे में बातें करते हुए उसे चीज़ें समझायीं। कि होते होते बनता है सम्बंध। आपसी समझ विकसित होने में वक़्त लगता है। हम दोनों हँसने लगे, कि हम कितने ना समझदार हो गए हैं वक़्त बीतते।

उम्र के इस पड़ाव पर हम नए दोस्त नहीं बनाते। पुराने हैं उन्हें ही सकेर के रखते हैं अपने इर्द गिर्द। चिट्ठियों में। फ़ोन कॉल्ज़ में। whatsapp मेसेज में। प्रेम की अपनी जगह है ज़िंदगी में, लेकिन ये उम्र प्रेम से ज़्यादा, दोस्ती का है। इस उम्र में ऐसे लोग जो आपको समझें। आपके पागलपन को समझें। जो आपके साथ कई साल से रहते आए हैं और ज़िंदगी के हर पहलू से जुड़े हुए हैं, ज़रूरी होते हैं। कि हम एक बेतरह तन्हा होते वक़्त में जी रहे हैं। सतही रिश्तों के भी। ऐसे में जो आपके अपने हैं। जो पुराने यार हैं, दोस्त हैं...उन्हें थोड़ा पास रखिए अपने। उनके पास उदासियों को धमका के भगा देने का हुनर होता है। आपको हमेशा हँसा देने का भी। वे आपका सेन्स औफ़ ह्यूमर समझते हैं। ये लोग बेशक़ीमत होते हैं।

मैं अपनेआप को ख़ुशक़िस्मत समझती हूँ कि मेरे पास कुछ ऐसे लोग हैं। कुछ ऐसे दोस्त हैं। मैंने ज़िंदगी में बहुत रिश्तों में ग़लती की है, लेकिन ये एक रिश्ता बहुत मुहब्बत से निभाया है। आज फ़्रेंडशिप डे नहीं है। लेकिन आज मेरा दिल भरा भरा है। कि मुझ जैसे टूटे-फूटे इंसान का दोस्त होना मुश्किल है। बहुत ही वायलेंट उदासी, सूयसाइडल शामें और एकदम से रिपीट मोड वाले सुख में जीती हूँ मैं। ऐसे में मेरे जैसा बुरा होना, मुझे judge नहीं करना। पर समझना या कि प्यार करना ही। आसान नहीं है। उन आफ़तों के लिए कि जो मेरी ज़िंदगी की राहतें हैं।

तुम जानते हो कि तुम बेशक़ीमत हो।
लव यू कमीनों। मेरी ज़िंदगी में रौनक़ बने रहना। यूँ ही।
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Published on October 30, 2017 03:44

October 28, 2017

जानां, तुम्हारे बाद, किसी से क्या इश्क़ होगा


लिखते हुए समझ नहीं आ रहा उसे लिखूँ या उन्हें। प्रेम के बारे में लिखती हूँ तो उसे कहती हूँ, व्यक्ति की बात आती है तो उन्हें कहना चाहती हूँ।

आज बहुत दिन बाद उन्हें सपने में देखा। सपने की शुरुआत में कोई टीनेजर लड़की थी मेरे साथ। यही कोई अठारह साल के लगभग। पेज के कुछ उन रीडर्ज़ जैसी जिनसे मेरी कभी कभी बात हो जाती है। कोई ऐसी जो बहुत अपनी तो नहीं थी लेकिन प्यारी थी मुझे। मैं उसके साथ एनफ़ील्ड पर घूमने गयी थी कहीं। वहाँ पहाड़ थे और पहाड़ों से घाटी दिखती थी। एक ऊँचे पहाड़ पर कोई भी नहीं था। सुंदर मौसम था। बारिश हो रही थी। हम देर तक बारिश में भीगते रहे और बात करते रहे। प्रेम के बारे में, इसके साथ आते हुए दुःख सुख के बारे में। मेरे पास अनुभव था, उसके पास भोलापन। बहुत अच्छा लग रहा था एक दूसरे से बात कर के। हम दोनों एक दूसरे से सीख रहे थे।

वहाँ से मैं एनफ़ील्ड से ही आयी लेकिन आते आते वो लड़की कहाँ गयी, सो मुझे याद नहीं। मैं अकेले ही राइड कर रही थी मौसम बहुत गर्म था इसलिए कपड़े लगभग सूख गए थे लेकिन हेल्मट के नीचे बाल हल्के गीले थे। और कपड़ों का हल्का गीलापन कम्फ़्टर्बल नहीं था। अगले फ़्रेम में मैं उनके घर गयी हुयी हूँ। घर कुछ ऐसा है जैसे छोटे क़स्बों में घर हुआ करते हैं। छत पर कपड़े सूख रहे हैं। बालकनी है। पीछे छोटा सा आँगन है। काई लगी दीवारें हैं। मैं बहुत चाह कर भी शहर को प्लेस नहीं कर पायी कि शहर कौन सा है। ये उनका पैतृक गाँव नहीं था, ये उनके शहर का मकान नहीं था, ये मेरा पैतृक गाँव नहीं था, ये दिल्ली नहीं था, ये बैंगलोर नहीं था, ये ऐसा कोई शहर नहीं था जिसमें मैं कभी गयी हूँ लेकिन वहाँ उस मकान में अजीब अपनापन था। जैसे कि हम लोग पड़ोसी रहे हों और मेरा ऐसे उनके घर चले जाना कोई बहुत बड़ी बात ना हो। जबकि ये समझ थी कहीं कि मैं उनके घर पहली बार गयी हूँ।

भीतर का गीलापन। कपड़ों का सिमा हुआ होना जैसे बारिशों के दिन में कपड़े सूखे ना हों, हल्के गीले ही रहते हैं। कोरों किनारों पर। मैंने किसी से इजाज़त नहीं ली है, अपने कपड़े लेकर नहाने चली गयी हूँ। यहाँ का हिस्सा मेरे पटना के मकान का है। नहा के मैंने ढीली सी एक पैंट और टी शर्ट पहनी है। बाल हल्के गीले हैं। घर के बाहर औरतें बैठी हैं और बातें कर रही हैं। मैं उन्हें जानती नहीं हूँ। उनकी बेटी भी आयी हुयी है अपने कॉलेज की छुट्टियों से। जब उससे बात कर रही हूँ तो शहर दिल्ली हुआ जाता है। अपने JNU में किसी के हॉस्टल जैसा, वहाँ के गलियारे, लाल पत्थरों वाली बिल्डिंग कुछ पुराने दोस्तों के कमरे याद आ रहे हैं।शायद एक उम्र को मैं हमेशा JNU के हास्टल्ज़ से ही जोड़ती हूँ। उसकी हँसी बहुत प्यारी है। वो कह रही है कि कैसे उसे मेरा पढ़ना बहुत रास आ रहा है। मैं मुस्कुरा रही हूँ, थोड़ा लजा भी रही हूँ। हम किचन में चले आए हैं। उसे किसी ने बुलाया है तो वो चली गयी है।

ये किचन एकदम मेरे पटना वाले घर जैसा है। इसकी खिड़की पर निम्बू का पेड़ भी है। मैं उन्हें देखती हूँ। जिस प्यार की मुझे कोई समझ नहीं है। वैसे किसी प्यार में होते हुए। पूछती हूँ उनसे, ‘आप निम्बू की चाय पिएँगे?’, वे कहते हैं ‘तुम जो बनाओगी पी लेंगे, इसमें क्या है’। मैं कई उम्रों से गुज़रती हूँ वहाँ एक चाय बनाती हुयी। कई सारे सफ़र हुआ करते हैं हमारे बीच। खौलता हुआ पानी है। मैं चीनी डालती हूँ। दो कप नींबू की चाय में छह चम्मच चीनी पड़ती है। सब कुछ इतना धीमा है जैसे सपने में ही हो सकता है। खौलते पानी के बुलबुले एकदम सफ़ेद। मैं उन्हें देखती हूँ। वे कुछ कह नहीं रहे। बस देख रहे हैं। जाने कैसी नज़र से कि दिल बहुत तेज़ धड़कने लगा है। हाथ थरथरा रहे हैं। मुझे अभी चाय में पत्ती डालनी है। मैं इक थरथराहट में ही दो छोटी चम्मच पत्ती डालती हूँ। चाय का रंग दिख रहा है। गहरा आता हुआ। एकदम सफ़ेद दो प्यालियों में छानती हूँ चाय। वे खड़े हैं एकदम पास ही। कोई छह फ़ुट का क़द। साँवला रंग। एक लट माथे पर झूली हुयी जिसे हटा देने का अधिकार मुझे नहीं। उनकी आँखों का रंग देखने के लिए मुझे एकदम ही अपना सर पूरा ऊपर उठाना होता है। चाय में नींबू गारती हूँ तो सपने में भी अपनी उँगलियों से वो गंध महसूसती हूँ। चाय का रंग सुनहला होता है। मेरा हाथ कांपता है उन्हें चाय देते हुए।

दिल जानता है कि वो लम्हा है, ‘थी वस्ल में भी फ़िक्रे जुदाई तमाम शब’। कि वो सामने हैं। कि ये चाय बहुत अच्छी बनी है। कि मैं उनसे बहुत प्रेम करती हूँ। मुहब्बत। इश्क़। मगर ये, कि ये दोपहर का टुकड़ा कभी भी दुबारा नहीं आएगा। कि मैं कभी यूँ प्रेम में नहीं होऊँगी फिर। ताउम्र। कि सपना जितना सच है उतनी ज़िंदगी कभी नहीं होगी।

मैं नींद से उठती हूँ तो उनकी नर्म निगाहें अपने इर्द गिर्द पाती हूँ, जैसे कोई धूप की महीन शॉल ओढ़ा दे इस हल्की भीनी ठंढ के मौसम में। कि ये गंध। नींबू की भीनी गंध। अंतिम विदा कुछ ऐसे ही गमक में अपना होना रचता है। कि वो होते तो पूछती उनसे, आपके काँधे से अब भी अलविदा की ख़ुशबू आती है।

‘इश्क़’ इक ऐसी उम्र का शब्द है जब ‘हमेशा’ जैसी चीज़ें समझ आती थीं। इन दिनों मैं शब्दों की तलाश में यूँ भटकती हूँ जैसे ज़ख़्म चारागर की तलाश में। कौन सा शब्द हो कि इस दुखते दिल को क़रार आ जाए। इश्क़ में एक बचपन हमेशा सलामत रहता है। एक भोलापन, एक उम्मीद। कि इश्क़ करने में एक नासमझ सी हिम्मत और बिना किसी सवाल के भरोसा - दोनों चाहिए होते हैं। आसान कहाँ होता है तर्क की कसौटी पर हर सवाल का जवाब माँगना। कि वे दिन कितने आसान थे जब ज़िंदगी में शब्द बहुत कम थे। कि जब ऐसी हर महसूसियत को प्यार ही कहते थे, उसकी तलाश में दुनिया भर के शब्दकोश नहीं छानते थे। कि अच्छा था ना, उन दिनों इश्क़ हुआ उनसे और उन दिनों ये लगा कि ये इश्क़ ताउम्र चलेगा। सुबह की धूप की कसम, मैंने वादा सच्चा किया था। आपके बाद किसी से इश्क़ नहीं होगा।

हम इश्क़ को होने कहाँ देंगे। खड़ा कर देंगे उसको सवालों के कटघरे में। जिरह करेंगे। कहेंगे कि प्रूफ़ लाओ। कुछ ऐसा जो छू कर देखा जा सके, चखा जा सके, कुछ ऐसा जो रेप्लिकेट किया जा सके। फ़ोटोस्टैट निकाल के लाओ फ़ीलिंज़ का।

ऐसे थोड़े होता है सरकार। हमारे जैसे आवारा लोगों के दिल पर कुछ आपकी हुकूमत, आपकी तानाशाही थी तो अच्छा था। वहाँ से छूटा ये दिल आज़ाद हो गया है। अब कहाँ किसी के नज़र के बंधन में बांधे। अब कहाँ किसी के शब्दों में उलझे। अब तो दूर दूर से देखता है सब। भीगता है मगर डूबता नहीं। या कि किसी में ताब कहाँ कि खींच सके हमें हमारी ज़िद से बाहर। कितने तो भले लोग हैं सब। हमारी फ़िक्र में हमें छोड़ देते हैं…साँस लेते देते हैं…उड़ने देते हैं आज़ाद आसमान में।

गाने की लाइन आती है, सीने में उलझती हुयी, किसी बहुत पुराने इश्क़ की आख़िरी याद जैसी। ‘कितना सुख है बंधन में’। कि बहुत तड़प थी। आवाज़ के एक क़तरे के लिए जान दे देने की नौबत थी। कि चाँद दुखता था। कि जिसे देखा भी नहीं था कभी, जिसे सिर्फ़ शब्दों को छू कर महसूसा था, उसका इश्क़ इतना सच्चा, इतना पक्का था कि रूह से वादा माँग लिया, ‘अब तुम्हारे बाद किसी से इश्क़ ना होगा’।

कैसा था आपको देखना? छूना। चूमना आपकी उँगलियाँ? मज़ार पर जा कर मन्नत का कोई लाल धागा खोलना और बाँध लेना उससे अपनी रूह के एक कोने में गाँठ। कि इतना ही हासिल हो ज़िंदगी भर का। इंतज़ार के रंग में रंगना साल भर और इश्क़ को देना इजाज़त कि भले ख़ून से होली खेली जाए मगर मक़तल की रौनक़ सलामत रहे। साथ पी गयी सिगरेट के बुझे हुए हिस्से की गंध में डूबी उँगलियाँ लिख जाएँ कहानियाँ मगर बचा के रखें दुनिया की नज़र से। कि जिसे हर बार मिलें यूँ कि जैसे आख़िरी बार हो। कि मर जाएँगे अगली बार मिलने के पहले ही कहीं। कि सिर्फ़ एक गीत हो, पुराना, शबे तन्हाई का...चाय हो इलायची वाली और ठंढ हो बस। कह सकते हैं इश्क़ उसे?

कि वो इश्क़ परिभाषाओं का मोहताज कहाँ था जानां...वो तो बस यक़ीन था...सीने में धड़कता...तुम्हारे नाम के साथ। हम हर चीज़ की वजह कहाँ माँगते तह उन दिनों। वे दिन। कि जब इश्क़ था, बेहतर थे। सुंदर थे। ज़िंदा थे।

दुनियादारी में हमसे इश्क़ भी छूटा और हमेशा जैसी किसी चीज़ पर भरोसा भी। कैसा लगता है सूना सूना दिल। उजाड़। कि जिसमें मीलों बस्ती नहीं कोई। घर नहीं कोई। सराय नहीं। मयखाना भी नहीं। याद के रंग झर गए हैं सब उँगलियों से। वरना, जानां, लिखते तुम्हें एक आख़िरी ख़त…बग़ैर तुम्हारी इजाज़त के…कहते… ‘जानां, तुम्हारे बाद, वाक़ई किसी से इश्क़ ना होगा’।
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Published on October 28, 2017 20:59

October 20, 2017

इक अभागन का क़िस्सा

छह हफ़्ते के बच्चे को फीटस कहते हैं। एक नन्हें से दाने के बराबर होता है और उसका दिल बनना शुरू हो जाता है। ऐसा डॉक्टर बताती है। इसके साथ ये ज़रूरी जानकारी भी कि औरत इस बच्चे को जन्म नहीं दे सकती, बहुत ज़्यादा प्रॉबबिलिटी है कि बच्चा ऐब्नॉर्मल पैदा हो। लड़की का मैथ कमज़ोर होता है। उसे प्रॉबबिलिटी जैसी बड़ी बड़ी चीज़ें समझ नहीं आतीं। टकटकी बांधे देखती है चुपचाप। उसे लगता है वो ठीक से समझ नहीं पायी है।

तब से उसे मैथ बहुत ख़राब लगता है। उसने कई साल प्रॉबबिलिटी पढ़ने और समझने की कोशिश की लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि जहाँ कर्मों की बात आ जाती है वहाँ फिर मैथ कुछ कर नहीं सकता। ९९ पर्सेंटिज होना कोई ज़्यादा सुकून का बायस कैसे हो सकता है किसी के लिए। वो जानना चाहती है कि कोई ऐसा ऐल्गोरिदम होता है जो बता सके कि उसने डॉक्टर की बात मान के सही किया था या नहीं। उसने ज़िंदगी में किसी का दिल नहीं दुखाया कभी। जैसा बचपन के संस्कारों में बताया गया, सिखाया गया था वैसी ज़िंदगी जीती आयी थी। कुछ दिन पहले तो ऐसा था कि दुनिया उसे साथ बुरा करती थी तो तकलीफ़ होती थी, फिर उसने अपने पिता से इस बारे में बात की…पिता ने उसे समझाया कि हमें अच्छा इसलिए नहीं करना चाहिए कि हम बदले में दुनिया से हमारे प्रति वैसा ही अच्छा होने की उम्मीद कर सकें। हम अच्छा इसलिए करते हैं कि हम अच्छे हैं, हमें अच्छा करने से ख़ुशी मिलती है और हमारी अंतरात्मा हमें कचोटती नहीं। इसके ठीक बाद वो दुनिया से ऐसी कोई उम्मीद बाँधना छोड़ देती है।

अजन्मे बच्चे के चेहरे की रेखाएँ नहीं उभरी होंगी लेकिन उसने लड़की से औरत बनते हुए हर जगह उसे तलाशा है। दस साल तक की उम्र के बच्चों को हँसते खेलते देख कर उसे एक अजीब सी तकलीफ़ होती है। वो अक्सर सोचती है इतने सालों में अगर उसका अपना एक बच्चा हुआ होता तो क्या वो उसे कम याद करती? या अपने मैथ नहीं जानने पर कम अफ़सोस करती?

दुनिया के सारे सुखों में से सबसे सुंदर सुख होता है किसी मासूम बच्चे के साथ वक़्त बिताना। उससे बातें करना। उसकी कहानियाँ सुनना और उसे कहानियाँ सुनाना। पाँच साल पहले ऐसा नहीं था। उसे बच्चे अच्छे लगते थे। वो सबसे पसंदीदा भाभी, दीदी, मौसी हुआ करती थी। छोटे बच्चे उससे सट कर बैठ जाया करते गरमियों में। वो उनसे बहुत दुलार से बात करती। उसके पास अपनी सबसे छोटी ननद की राक्षस की कहानी के लिए भी वैसी ही उत्सुकता थी जैसे ससुर के बनाए हुए साइंस के थीअरम्ज़ के लिए थी। बच्चे उसके इर्द गिर्द हँसते खिलखिलाते रहते। उसका आँचल छू छू के देखते। उसकी दो चोटियाँ खींचना चाहते लेकिन वो उन्हें आँख दिखा देते और वे बदमाश वाली मुस्कान मुस्कियाते।

अपनी मर्ज़ी और दूसरी जाति में शादी करने के कारण उसके मायक़े के ब्राह्मण समाज ने उसे बाहर कर दिया था। वो जब बहुत साल बाद लौट कर गयी तो लोग उसे खोद खोद कर उसके पति के बारे में पूछते। बड़ी बूढ़ी औरतें उसके ससुर का नाम पूछती और अफ़सोस जतातीं। जिस घर ने उस बिन माँ की बेटी को दिल में बसा लिया था, उसके पाप क्षमा करते हुए, उस घर को एक ही नज़र से देखतीं। औरतें। बच्चे। पुरुष। सब कोई ही। हर नया व्यक्ति उससे दो चीज़ें जानना चाहता। माँ के बारे में, कि जिसे जाए हुए साल दर साल बीतते जा रहे थे लेकिन जो इस लड़की की यादों में और दुखती हुयी बसी जा रही थी और ससुराल के बारे में।

औरत के ज़िंदगी के दो छोर होते हैं। माँ और बच्चा। औरत की ज़िंदगी में ये दोनों नहीं थे। वो सोचती अक्सर कि अगर उसकी माँ ज़िंदा होती या उसे एक बच्चा होता तो क्या वो कोई दूसरे तरह की औरत होती? एक तरह से उसने इन दोनों को बहुत पहले खो दिया था। खो देने के इस दुःख को वो अजीब चीज़ों से भरती रहती। बिना ईश्वर के होना मुश्किल होता तो एक दिन वह पिता के कहने पर एक छोटे से कृष्ण को अपने घर ले आयी। ईश्वर के सामने दिया जलाती औरत सोचती उन्हें मन की बात तो पता ही है, याचक की तरह माँगने की क्या ज़रूरत है। वो पूजा करती हुयी कृष्ण को देख कर मुस्कुराती। सच्चाई यही है जीवन की। हर महीने उम्मीद बाँधना और फिर उम्मीद का टूट जाना। कई सालों से वो एक टूटी हुयी उम्मीद हुयी जा रही थी बस।

एक औरत कि जिसकी माँ नहीं थी और जिसके बच्चे नहीं थे।

बहुत साल पीछे बचपन में जाती, अपने घर की औरतों को याद करती। दादी को। नानी को। जिन दिनों दादी घर पर रहा करती, दादी के आँचल के गेंठ में हमेशा खुदरा पैसे रहते। चवन्नी, अठन्नी, दस पैसा। पाँच पैसा भी। घर पर जो भी बच्चे आते, दादी कई बार उनको घर से लौटते वक़्त अपने आँचल की गेंठ खोल कर वो पैसा देना चाहती उनकी मुट्ठी में। गाँव के बच्चों को ऐसी दादियों की आदत होती होगी। शहर के बच्चे सकपका जाते। उन्हें समझ नहीं आता कि एक रुपए का वे क्या करेंगे। क्या कर सकते हैं। वो अपने बचपन में होती। वो उन दिनों चाहती कि कभी ख़ूब बड़ी होकर जब बहुत से पैसे कमाएगी तो दादी को अपने गेंठरी में रखने के लिए पाँच सौ के नोट देगी। ख़ूब सारे नोट। लेकिन नोट अगर दादी ने साड़ी धोते समय नहीं निकाले तो ख़राब हो जाएँगे ना? ये बड़ी मुश्किल थी। दादी थी भी ऐसी भुलक्कड़। अब इस उम्र में आदत बदलने को तो बोल नहीं सकती थी। दादी के ज़िंदा रहते तक गाँव में उसका एक घर था। बिहार में जब लोग पूछा करते थे कि तुम्हारा घर कहाँ है तो उन दिनों वो गाँव का नाम बताया करती थी। अपभ्रंश कर के। जैसे कि दादी कहा करती थी। दनयालपुर।

उसे कहानियाँ लिखना अच्छा लगता था। किसी किरदार को पाल पोस कर बड़ा करना। उसके साथ जीना ज़िंदगी। कहानियाँ लिखते हुए वो दो चोटी वाली लड़की हुआ करती थी। कॉलेज को भागती हुयी लड़की कि जिसकी माँ उसे हमेशा कौर कौर करके खाना खिला रही होती थी कि वो भुख्ले ना चली जाए कॉलेज। माँ जो हमेशा ध्यान देती थी कि आँख में काजल लगायी है कि नहीं घर से बाहर निकलने के पहले। कि दुनिया भर में सब उसकी सुंदर बेटी को नजराने के लिए ही बैठा है। माँ उसके कहे वाक्य पूरे करती। लड़की अपने बनाए किरदारों के लिए अपनी मम्मी हुआ करती। आँख की कोर में काजल लगा के पन्नों पर उतारा करती। ये उसके जीवन का इकमात्र सुख था।

सुख, दुःख का हरकारा होता है। औरत जानती। औरत हमेशा अपनी पहचान याद रखती। शादीशुदा औरत के प्यार पर सबका अधिकार बँटा हुआ होता। भरे पूरे घर में देवर, ननद, सास…देवरानी…कई सारे बच्चे और कई बार तो गाँव की बड़ी बूढ़ी औरतें भी होतीं जो उसके सिगरेट ला देने पर आशीर्वाद देते हुए सवाल पूछ लेतीं कि ई लाने से क्या होगा, ऊ लाओ ना जिसका हमलोग को ज़रूरत है।

ईश्वर के खेल निराले होते। औरत को बड़े दुःख को सहने के लिए एक छोटा सा सुख लिख देता। एक बड़ा सा शहर। बड़े दिल वाला शहर। शहर कि जिसके सीने में दुनिया भर की औरतों के दुःख समा जाएँ लेकिन वो हँस सके फिर भी कोई ऐसी हँसी कि जिसका होना उस एक लम्हे भर ही होता हो।

शहर में कोई नहीं पहचानता लड़की को। हल्की ठंढ, हल्की गरमी के बीच होता शहर। लड़की जूड़ा खोलती और शहर का होना मीठा हुआ जाता। शहर उसकी पहचान बिसार देता। वो हुयी जाती कोई खुल कर हँसने वाली लड़की कि जिसकी माँ ज़िंदा होती। कि जिसे बच्चे पैदा करने की फ़िक्र नहीं होती। कि जिसकी ज़िंदगी में कहानियाँ, कविताएँ, गीत और बातें होतीं। कि जिसके पास कोई फ़्यूचर प्लान नहीं होता। ना कोई डर होता। उसे जीने से डर नहीं लगता। वो देखती एक शहर नयी आँखों से। सपने जैसा शहर। कोई अजनबी सा लड़का होता साथ। जिसका होना सिर्फ़ दो दिन का सच होता। लड़की रंग भरे म्यूज़ीयम में जाती। लड़की मौने के प्रेम में होती। लड़की पौलक को देखती रहती अपलक। उसकी आँखों में मुखर हो जाते चुप पेंटिंग के कितने सारे तो रंग। सारे सारे रंग। लड़की देखती आसमान। लड़की पहचानती नीले और गुलाबी के शेड्स। शहर की सड़कों के नाम। ट्रेन स्टेशन पर खो जाती लेकिन घबराहट में पागल हो जाने के पहले उसे तलाश लेता वो लड़का कि जिसे शहर याद होता पूरा पूरा। लड़की ट्रेन में सुनाती क़िस्सा। मौने के प्रेम में होने को, कि जैसे भरे शहर में कोई नज़र खींचती है अपनी ओर, वैसे ही मौने की पेंटिंग बुलाती है उसे। बिना जाने भी खिंचती है उधर।

कुछ भी नहीं दुखता उन दिनों। सब अच्छा होता। शहर। शहर के लोग। मौसम। कपड़े। सड़क पर मिलते काले दुपट्टे। पैरों की थकान। गर्म पानी। प्रसाद में सिर्फ़ कॉफ़ी में डालने वाली चीनी फाँकते उसके कृष्ण भगवान।

शहर बसता जाता लड़की में और लड़की छूटती जाती शहर में। लौट आने के दिन लड़की एक थरथराहट होती। बहुत ठंढी रातों वाली। दादी के गुज़र जाने के बाद ट्रेन से उसका परिवार गाँव जा रहा था। बहुत ठंढ के दिन थे और बारिश हो रही थी। खिड़की से घुसती ठंढ हड्डियों के बीच तक घुस जा रही थी। वही ठंढ याद थी लड़की को। उसकी उँगलियों के पोर ठंढे पड़ते जाते। लड़की धीरे धीरे सपने से सच में लौट रही होती। कहती उससे, मेरे हाथ हमेशा गरम रहते थे। हमेशा। कितनी भी ठंढ में मेरे हाथ ठंढे नहीं पड़ते। लेकिन जब से माँ नहीं रही, पता नहीं कैसे तो मेरी हथेलियाँ एकदम ठंढी हो जाती हैं।

शहर को अलविदा कहना मुश्किल नहीं था। शहर वो सब कुछ हुआ था उसके लिए जो कि होना चाहिए था। लड़की लौटते हुए सुख में थी। जैसे हर कुछ जो चाहा था वो मिल गया हो। कोई दुःख नहीं छू पा रहा था उसकी हँसती हुयी आँखें। उसके खुले बालों से सुख की ख़ुशबू आती थी।

लौट आने के बाद शहर गुम होने लगा। लड़की कितना भी शहर के रंग सहेज कर रखना चाहती, कुछ ना कुछ छूट जाता। मगर सबसे ज़्यादा जो छूट रहा था वो कोई एक सपने सा लड़का था कि जिसे छू कर शिनाख्त करने की ख़्वाहिश थी, कि वो सच में था। हम अपने अतीत को लेकिन छू नहीं सकते। आँखों में रीप्ले कर सकते हैं दुबारा।

सुख ने कहा था कि दुःख आएगा। मगर इस तरह आसमान भर दुःख आएगा, ये नहीं बताया था उसने। लड़की समझ नहीं पाती कि हर सुख आख़िरकार दुःख में कैसे मोर्फ़ कर जाता है। दुःख निर्दयी होता। आँसुओं में उसे डुबो देता कि लड़की साँस साँस के लिए तड़पती। लड़की नहीं जानती कि उसे क्या चाहिए। लड़की उन डेढ़ दिनों को भी नहीं समझ पाती। कि कैसे कोई भूल सकता है जीवन भर के दुःख। अभाव। मृत्यु। कि वो कौन सी टूटन थी जिसकी दरारों में शहर सुनहले बारीक कणों की तरह भर गया है। जापानी फ़िलोस्फी - वाबी साबी। कि जिससे टूटन अपने होने के साथ भी ख़ूबसूरत दिखे।

महीने भर बाद जब हॉस्पिटल की पहली ट्रिप लगी तो औरत के पागलपन, तन्हाई और चुप्पी ने पूरा हथियारबंद होकर सुख के उस लम्हे पर हमला किया। नाज़ुक सा सुख का लम्हा था। अकेला। टूट गया। लड़की की उँगलियों में चुभे सुख के टुकड़े आँखों को छिलने लगे कि जब उसने आँसू पोंछने चाहे।

उसने देखा कि शहर ने उसे बिसार दिया है। कि शहर की स्मृति बहुत शॉर्ट लिव्ड होती है। औरत अपने अकेलेपन और तन्हाई से लड़ती हुयी भी याद करना चाहती सुख के किसी लम्हे को। लौट लौट कर जाना और लम्हे को रिपीट में प्ले करना उसे पागल किए दे रहा था। कई किलोमीटर गाड़ी बहुत धीरे चलाती हुयी औरत घर आयी और बिस्तर पर यूँ टूट के पड़ी कि बहुत पुराना प्यार याद आ गया। मौत से पहली नज़र का हुआ प्यार।

उसे उलझना नहीं चाहिए था लेकिन औरत बेतरह उलझ गयी थी। अतीत की गांठ खोल पाना नामुमकिन था। लम्हा लम्हा अलगा के शिनाख्त करना भी। सब कुछ इतने तीखेपन से याद था उसे। लेकिन उसे समझ कुछ नहीं आ रहा था। वो फिर से भूल गयी थी कि ज़िंदगी उदार हो सकती है। ख़्वाहिशें पूरी होती हैं। बेमक़सद भटकना सुख है। एक मुकम्मल सफ़र के बाद अलविदा कहना भी सुख है।

हॉस्पिटल में बहुत से नवजात बच्चे थे। ख़बर सुन कर ख़ुशी के आँसू रोते परिवार थे। औरत ख़ुद को नीले कफ़न में महसूस कर रही थी। उसे इंतज़ार तोड़ रहा था। दस साल से उसके अंदर किसी अजन्मे बच्चे का प्रेम पलता रहा था। दुःख की तरह। अफ़सोस की तरह। छुपा हुआ। कुछ ऐसा कि जिसकी उसे पहचान तक नहीं थी।

आख़िरकार वो खोल पायी गुत्थी कि सब इतना उलझा हुआ क्यूँ था। कि एक शादीशुदा औरत के प्यार पर बहुत से लोगों का हिस्सा होता है। उसका ख़ुद का पर्सनल कुछ भी नहीं होता। प्यार करने का, प्यार पाने का अधिकार होता है। कितने सारे रिश्तों में बँटी औरत। सबको बिना ख़ुद को बचाए हुए, बिना कुछ माँगे हुए प्यार करती औरत के हिस्से सिर्फ़ सवाल ही तो आते हैं। ‘ख़ुशख़बरी कब सुना रही हो?’ । सिवा इस सवाल के उसके कोई जवाब मायने नहीं रखते। उसका होना मायने नहीं रखता। वो सिर्फ़ एक औरत हो जाती है। एक बिना किनारे की नदी।

बिना माँ की बच्ची। बिना बच्चे की माँ।

दादी जैसा जीवन उसने नहीं जिया था कि सुख से छलकी हुयी किसी बच्चे की मुट्ठी पर अठन्नी धर सके लेकिन अपना पूरा जीवन खंगाल के उसने पाया कि एक प्यार है जो उसने अपने आँचर की गाँठ में बाँध रखा है। इस प्यार पर किसी का हिस्सा नहीं लिखाया है। किसी का हक़ नहीं।

वो सकुचाते हुए अपनी सूती साड़ी के आँचल से गांठ खोलती है और तुम्हारी हथेली में वो प्यार रखती है जो इतने सालों से उसकी इकलौती थाती है।

वो तुम्हारे नाम अपने अजन्मे बच्चे के हिस्से का प्यार लिखती है।  
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Published on October 20, 2017 14:18