Puja Upadhyay's Blog, page 14
December 30, 2017
साल 2017 - कच्चा हिसाब किताब
ज़िंदगी की भागदौड़ में साल गुम होते जाते हैं और एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल होता है। मेरे लिए लेकिन साल दो हज़ार एक मुकम्मल साल रहा। कुछ लोगों के कारण। एक शहर के कारण। निर्मल वर्मा के कारण। एक छोटे से ईश्वर के कारण। और सब में इस समझदारी के कारण कि छोटे छोटे सुखों को थाम कर ज़िंदगी के बड़े बड़े दुःख बर्दाश्त किए जा सकते हैं।
मेरी शादी का दशक पूरा हो गया। ज़िंदगी का एक तिहाई लगभग। छोटे बड़े झगड़ों के साथ, और छोटे बड़े झगड़ों के कारण हम दोनों के बीच का प्यार बढ़ता गया है, पागलपन भी। मैं अभी भी रोज़ सुबह उठती हूँ तो कई बार उसके सोते हुए चेहरे को ग़ौर से देखती हूँ...प्यार से...अरमान से...सुकून से...कि मैं इस लड़के से आज भी कितना कितना प्यार करती हूँ। कुणाल मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है। सबसे ख़ूबसूरत। उसे प्यार जताना छोटी छोटी चीज़ों में नहीं आता, लेकिन उसे कोई एक बड़ी सी गिफ़्ट देना आता है, कि जो साल भर चले। २०१६ में उसने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड ख़रीद दी। मेरी स्क्वाड्रन ब्लू की RC कॉपी मेरी वालेट में रहती है। मैं उसे दुनिया का सबसे छोटा लव लेटर कहती हूँ। इस साल मन उदासियों से भरता गया था। किसी चीज़ को लेकर कोई उत्साह नहीं रहा और कोई चाहत, कोई अरमान, कोई ख़्वाहिश नहीं। लेकिन न्यू यॉर्क जाने का मन था। वहाँ जा कर जैक्सन पौलक की पेंटिंग देखने का मन था। कुणाल ने मेरी दो दिन की न्यू यॉर्क की ट्रिप बुक कर दी। अकेले। कि उसे फ़ुर्सत नहीं थी, ऑफ़िस का काम था बहुत। ह्यूस्टन से न्यू यॉर्क तीन घंटे की फ़्लाइट थी लगभग। वक़्त इतना ही था कि म्यूज़ीयम औफ़ माडर्न आर्ट देख सकूँ और MET म्यूज़ीयम देख सकूँ। लेकिन ये एक छोटी ट्रिप उसकी ओर से तोहफ़ा थी...कि जिसकी रौशनी में सब खिला खिला सा लगे।
इस साल मैंने निर्मल वर्मा को पहली बार डिस्कवर किया। 'अंतिम अरण्य' से शुरू किया और सफ़र 'वे दिन', 'धुंध से उठती धुन', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत(आधी पढ़ी है अभी)' और गाहे बगाहे रोमियो जूलियट और अँधेरा पर रहा। निर्मल को पढ़ना एक सफ़र है। उनके लिखे में बहुत सी जगह रहती है कि जिसमें कोई पाठक जा के रह सकता है। हमारे जीवन में रिश्तों के नाम बहुत संकुचित शब्दों में रख दिए गए हैं, निर्मल हमारे लिए रिश्तों की नयी डिक्शनरी बनाते हैं। प्रेम और मित्रता से परे भी कुछ रिश्ते होते हैं, निर्मल के किरदारों को समझना, ख़ुद को समझना और ख़ुद को माफ़ करना है। अपराधबोध से मुक्त होना है। निर्मल को पढ़ना, रिश्तों की शिनाख्त करते हुए उन्हें बेनाम रहने देना है। 'वे दिन' को पढ़ते हुए फ़ीरोज़ी स्याही में अंडरलाइन करना है, 'छोटे छोटे सुख'। एक चिथड़ा सुख पढ़ते हुए किसी छूटे हुए बचपन के प्रेम को याद कर लेना है। आप निर्मल को पढ़ नहीं सकते, उनके प्रेम में पड़ सकते हैं बस। उनकी डायरी, 'धुंध से उठती धुन' को पढ़ते हुए ख़ुद को एक लेखक के तौर पर थोड़ा बेहतर समझ पायी। अपने लिखे में रखे हुए सच के छोटे छोटे टुकड़ों के लिए ख़ुद को माफ़ कर पायी। अपने किरदारों से, सच और कल्पना के बीच प्यार करने और उन्हें बिसरा देने और सहेज देने के बीच के बारीक जाल को बुनती रही। निर्मल आपको तलाश लेते हैं। मैंने पहले कई बार उन्हें पढ़ने की कोशिश की, पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। अब उन्हें पढ़ना एक ऐसे प्रेम में होना है जिसमें ग़लतियाँ करने से बिछोह नहीं मिलता है। 'धुंध से उठती' धुन का मेरे पास होना इस बात की राहत देता है कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छे लोग मेरे दोस्त हैं।
Good Morning New York. न्यू यॉर्क। ज़िंदगी में दो ही बार शहरों से प्यार हुआ है। पहली बार दिल्ली। और अब न्यू यॉर्क। बहुत साल पहले एक लड़के ने प्रॉमिस किया था, तुम न्यू यॉर्क आओ तो सही, तुम्हें इस शहर से प्यार हो जाए, ये मेरी ज़िम्मेदारी। ऐसे वादे लोग बेवजह करते नहीं। शहर में होता है कुछ ख़ास। कुछ शहरों में आत्मा होती है। जीती जागती। दिल होता है, धड़कता हुआ। सड़क के नीचे चलने वाली मेट्रो में थरथराता हुआ। मेरी ज़िंदगी में न्यू यॉर्क का आना किसी कहानी जैसा था। हज़ार प्लॉट ट्विस्ट्स के बीच मुकम्मल होता। मैं एयरपोर्ट से न्यू यॉर्क जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। Penn स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखता शहर था...कुछ कुछ पटना जैसा, पुल थे, हावड़ा जैसे...और प्यार हुआ था पहली नज़र का। दिल्ली जैसा ही एकदम। कि धक से लगा था जब पहली बार ही देखा था शहर को। कि मैं भूल गयी थी कि शहरों से भी प्यार हो सकता है। पेन स्टेशन के ठीक बाहर ही मेरा होटल था। पैदल चलते हुए देख रही थी शहर को आँख भर भर के। उसकी प्राचीनता, उसका नयापन...थोड़ी ठंढ और हल्की गरमी। कि शहर से बेवजह ही प्यार हो चुका था। कि मेरे लिए प्यार और पसंद में यही अंतर होता है। पसंद करने की वजहें होती हैं, प्यार की नहीं। मुझसे पूछो कि क्यूँ प्यार करती हो तुम न्यू यॉर्क से तो मेरे पास कोई वजह नहीं होगी। कोई भी वजह नहीं। दिल पर हाथ रखूँगी और कहूँगी, सुनो मेरे दिल की धड़कन...डीकोड कर लो। बस। मेरे पास शब्द नहीं हैं। वहाँ की इमारतें। उसका सब-वे सिस्टम। वहाँ खो जाना। म्यूज़ीयम में जैक्सन pollock को देखना। Monet को देखना, बिना जाने हुए कि वो है। टाइम्ज़ स्क्वेयर। सेंट्रल पार्क। फ़्लैटआयरन बिल्डिंग। ब्रॉडवे। राह चलते ख़रीद लेना एक स्कार्फ़, सिर्फ़ उस लम्हे की याद के लिए। लौटते हुए लिए आना एक चाँदी की अँगूठी, 'love' लिखा हो जिसमें। रख लेना उस पूरे पूरे शहर को दिल में पजेसिव होकर। नहीं भेजना एक भी पोस्टकार्ड किसी को भी। अकेले भटकना म्यूज़ीयम में। भर भर आँख नदी हो आना। बहना हज़ार रंगों में। हुए जाना। न्यू यॉर्क।
अभिषेक। किसी कहानी जैसा लड़का। कितना करता अपने शहर से प्यार। शहर की छोटी छोटी चीज़ों से। सेंट्रल स्टेशन की छत से। सड़कों से। पैदल चलने से। मैं चकित हुए जाती। उसे पता है कॉफ़ी पीने की सबसे अच्छी जगह। देखो, ये है 'Carnegie Hall', यहाँ पर सब बड़े बड़े लोग परफ़ॉर्म करने आते हैं। मैं खड़ी देखती। कहती। ये हॉल नहीं है, सपना है। जब मैं यहाँ कहानी सुनाने आऊँगी, तो तुम आओगे सुनने? उसे कितने सालों से पढ़ रही हूँ। उसका लिखा हास्य पढ़ कर आँख नम हो जाती है। बैरीकूल और उसका वो मैथमैटिकल लव लेटर। याद आते हैं वे शुरुआती ब्लॉगिंग के दिन कि जब लगता नहीं था कि वर्चूअल दुनिया सच में कहीं एग्ज़िस्ट भी करती है। उन दिनों कहाँ कभी सोचा था कि अभिषेक से मिलेंगे भी तो न्यू यॉर्क में पहली बार। उसने कहा था बहुत साल पहले, एक नोवेल का प्लॉट देने वाला शहर है न्यू यॉर्क। ठीक डेढ़ दिन के समय में कहाँ जाएँ और कैसे, उसके होने से यक़ीन था कि भुतलाएँगे नहीं इस शहर में। उसने कहा था, 'भुलाना मुश्किल है इस शहर में', दरसल, 'भुलाना मुश्किल है उस शहर को' भी तो। बिना प्लान के अचानक आ जाना शहर और मिल जाना अचानक ही। ब्लॉगिंग के टाइम से जिन लोगों को पढ़ रहे हैं, कमोबेश सबसे मिलकर यही लगता है, उन दिनों हमने कहानियों में भी अपने होने का बहुत बहुत सच लिखा था। कि किसी से भी मिलना वैसा ही है जैसा हमने सोचा था उन्हें पढ़ कर। कि अभिषेक से मिलना आसान होना था। अच्छा होना था। अभिषेक से मिल कर लगता है एकदम अच्छा और भला होना भी कितना सुकूनदेह है। कि उसका बहुत उदार होना...kind होना...ज़िंदगी के प्रति एक भलेपन में विश्वास करना सिखाता है। उससे मिलना एक छोटा सा सुख है। अपने आप में मुकम्मल। शुक्रिया लड़के एक एकदम से भटक जाने वाली लड़की के लिए एक शहर आसान कर देने के लिए। तुम जब 'वे दिन' पढ़ोगे, जब जानोगे, एक छोटा सुख क्या होता है। कभी तो पढ़ोगे ही। अगली बार कभी मिलेंगे तो फ़ुर्सत से मिलेंगे। बातों की फ़ुर्सत रखेंगे। इस बार तो भागते शहर को बस थोड़ा सा ही देख सके। अगली बार...फिर कभी...
इस साल मैंने एक और चीज़ सीखी। जो मन में आए वो किए जाना। अफ़सोस के कमरे ढहा देना। एक एकदम ही अजनबी लड़के से मिली, शिव टंडन। एक रैंडम सी शाम, बहुत सी बातें। कॉफ़ी। कुछ ग़ज़लें और कितनी अचरज भरी कहानियाँ कि जितनी ज़िंदगी में ही हो सकती हैं। हम किसी अजनबी से मिल कर कितना मुकम्मल सा महसूस कर सकते हैं। कि शहर कैसे थोड़ा कम पराया लगने लगता है, अपना शहर बैंगलोर ही। इसलिए कि अपरिचित होते हुए भी किसी से को कनेक्ट महसूस होने पर अपने मन को डांट धोप के शांत नहीं कराया, उसके नाम एक शाम लिखी। ये बहुत सुंदर था। बहुत।
इसी तरह लीवायज़ में जींस ख़रीदने गयी थी और जींस फ़िट ना होने का रोना रो रही थी, वहीं पर खड़ी एक और लड़की से ही। फिर बात होते होते पहुँची UX डिज़ाइन पर। पता चला वो IIT गुवाहाटी में डिज़ाइन पढ़ाती है। whatsapp पर वहाँ के प्लेस्मेंट सेल के बंदे का नम्बर दिया उसने तो मैंने देखा कि वो रॉयल एनफ़ील्ड चलाती है...अचरज कि ऐसे रैंडम भी कोई मिलता है क्या जिससे इतनी चीज़ें कॉमन लगें। फिर हमने whatsapp पर कई बार कितनी कितनी तो बातें कीं और पाया कि हम ग़ज़ब अच्छी तरह से समझते हैं एक दूसरे को। उसके लिखे हुए में मुझे कोई चीज़ बाँधती है। शीतल नाम है उसका और ये लगता है कि हम गाहे बगाहे जुड़े रहेंगे एक दूसरे से।
कि इस साल से मैंने मानना शुरू किया है कि दुनिया एक काइंड जगह है और लोग अच्छे हैं और जादू होता है। साल की शुरुआत में मैंने पूजा शुरू की। मैंने पिछले लगभग नौ सालों से कभी पूजा नहीं की थी। अब एक छोटे से ईश्वर के सामने सर झुकाने से लगता है जैसे कोई ठहार मिल गया हो। जैसे शिकायत करने को कोई जगह हो जहाँ देर सेवर सुनवायी होगी। कि मन अब भी उदास होता है, दुखी होता है, लेकिन अशांत नहीं होता। कि मैं बहुत हद तक सुलझती गयी हूँ। शांत होती गयी हूँ। जिसने कई कई साल ज़िंदगी के उलझन में काटे हैं, उसके लिए ये छोटा सा सुख भी बहुत बड़ा है।
इस साल मैंने अपनी सोलो स्टोरीटेलिंग की शुरुआत की। नाम रखा, छूमंतर। मेरी पहली स्टोरीटेलिंग में क़रीबन पचास लोग आए थे। एक एकदम नए नाम के लिए ये एक तरह का रेकर्ड था। इससे बहुत उम्मीद पुख़्ता हुयी। ख़ुद पर यक़ीन आया कि मैं कहानी सुना सकती हूँ। बाद के सेशन में लोग बहुत कम आए लेकिन ऑडीयन्स के साथ कमाल का जुड़ाव रहा। पिछली स्टोरीटेलिंग में ऑडीयन्स भर भर आँख थी...जैसे मेरा दिल भर आया था, वैसे ही। मैंने जाना कि तालियों का शोर ही नहीं, गहरी चुप्पी भी देर तक याद रहती है।
इसी साल दैनिक जागरण ने नीलसन से हिंदी किताबों के बेस्ट-सेलर के लिए सर्वे कराया। इसके पहले लिस्ट में मेरी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' सातवें नम्बर पर रही। ये मेरे लिए अचरज भरी बात थी। मैंने किताब का बहुत कम प्रमोशन किया था और मेरे प्रकाशक पेंग्विन ने तो एकदम न के बराबर। सिर्फ़ वर्ड औफ़ माउथ पर किताब इतने लोगों ने ख़रीद कर पढ़ी ये मेरे लिए जादू जैसा था कि हमने कम्यूनिकेशन में पढ़ा था इस फ़ेनॉमना के बारे में। मेरी किताब के बारे में हमेशा दोस्तों ने कहा है कि तुम कुछ आसान लिखो, तुम्हारी किताब क्लिष्ट है। लोगों को समझ नहीं आएगी। पर मुझे पढ़ने वालों का एक अपना वर्ग रहा जिन्हें किताब इतनी पसंद आयी कि वे किताब को आगे बढ़ाते गए। पाठकों का इतना प्यार मेरे लिए बहुत बड़ी राहत है। कि मुझे जो कहानियाँ सुनानी हैं, वे सुनाऊँ, पढ़ने वाले लोग ख़ुद मिल जाएँगे किताब को। तो साल के अंत में, तीन रोज़ इश्क़ के सभी पाठकों को बहुत बहुत प्यार और शुक्रिया।
साल का आख़िरी और सबसे ज़रूरी शुक्रिया मेरी बेस्ट फ़्रेंड स्मृति के नाम। कि मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ वो मुझे बहुत प्यार करती है। मेरे गुनाहों के साथ। मेरी बेवक़ूफ़ियों और पागलपन के साथ। मेरे सही ग़लत की उलझनों के साथ और बावजूद भी। बिना शर्तों के प्यार। बिना किसी अंतिम मियाद के। बहुत कम लोग इतने ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि जिनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई एक शख़्स भी हो जो उन्हें पूरी तरह प्यार कर सके। उसका होना मेरे पागल ना होने की वजह है। वो मुझे सम्हाल लेती है। वो मुझे बचा लेती है। हर बार।
ज़िंदगी और ईश्वर का शुक्रिया। इतना उदार होने के लिए। और उन छोटे छोटे सुखों के लिए कि जिनकी याद को थामे काट ली जा सकती है दुःख की लम्बी, काली रात भी।
सितम्बर। तुम्हारे होने का शुक्रिया। कि जाने कितने अगले सालों तक कोई पूछेगा कि तुम ख़ुश कब थी, पूरी पूरी...तो मैं सुख से भर भर आँख भरे...नदी की तरह छलछलाती...प्रेम में होती हुयी कहूँगी...सितम्बर २०१७ में।
आख़िर में, बस इतना...
***
ज़िंदगी
बस इतना करम रखना
कि कोई पूछे कभी
‘तुम किस चीज़ की बनी हो, लड़की?’
तो चूम सकूँ उसका माथा, और कह सकूँ
‘प्यार की’
मेरी शादी का दशक पूरा हो गया। ज़िंदगी का एक तिहाई लगभग। छोटे बड़े झगड़ों के साथ, और छोटे बड़े झगड़ों के कारण हम दोनों के बीच का प्यार बढ़ता गया है, पागलपन भी। मैं अभी भी रोज़ सुबह उठती हूँ तो कई बार उसके सोते हुए चेहरे को ग़ौर से देखती हूँ...प्यार से...अरमान से...सुकून से...कि मैं इस लड़के से आज भी कितना कितना प्यार करती हूँ। कुणाल मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है। सबसे ख़ूबसूरत। उसे प्यार जताना छोटी छोटी चीज़ों में नहीं आता, लेकिन उसे कोई एक बड़ी सी गिफ़्ट देना आता है, कि जो साल भर चले। २०१६ में उसने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड ख़रीद दी। मेरी स्क्वाड्रन ब्लू की RC कॉपी मेरी वालेट में रहती है। मैं उसे दुनिया का सबसे छोटा लव लेटर कहती हूँ। इस साल मन उदासियों से भरता गया था। किसी चीज़ को लेकर कोई उत्साह नहीं रहा और कोई चाहत, कोई अरमान, कोई ख़्वाहिश नहीं। लेकिन न्यू यॉर्क जाने का मन था। वहाँ जा कर जैक्सन पौलक की पेंटिंग देखने का मन था। कुणाल ने मेरी दो दिन की न्यू यॉर्क की ट्रिप बुक कर दी। अकेले। कि उसे फ़ुर्सत नहीं थी, ऑफ़िस का काम था बहुत। ह्यूस्टन से न्यू यॉर्क तीन घंटे की फ़्लाइट थी लगभग। वक़्त इतना ही था कि म्यूज़ीयम औफ़ माडर्न आर्ट देख सकूँ और MET म्यूज़ीयम देख सकूँ। लेकिन ये एक छोटी ट्रिप उसकी ओर से तोहफ़ा थी...कि जिसकी रौशनी में सब खिला खिला सा लगे।
इस साल मैंने निर्मल वर्मा को पहली बार डिस्कवर किया। 'अंतिम अरण्य' से शुरू किया और सफ़र 'वे दिन', 'धुंध से उठती धुन', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत(आधी पढ़ी है अभी)' और गाहे बगाहे रोमियो जूलियट और अँधेरा पर रहा। निर्मल को पढ़ना एक सफ़र है। उनके लिखे में बहुत सी जगह रहती है कि जिसमें कोई पाठक जा के रह सकता है। हमारे जीवन में रिश्तों के नाम बहुत संकुचित शब्दों में रख दिए गए हैं, निर्मल हमारे लिए रिश्तों की नयी डिक्शनरी बनाते हैं। प्रेम और मित्रता से परे भी कुछ रिश्ते होते हैं, निर्मल के किरदारों को समझना, ख़ुद को समझना और ख़ुद को माफ़ करना है। अपराधबोध से मुक्त होना है। निर्मल को पढ़ना, रिश्तों की शिनाख्त करते हुए उन्हें बेनाम रहने देना है। 'वे दिन' को पढ़ते हुए फ़ीरोज़ी स्याही में अंडरलाइन करना है, 'छोटे छोटे सुख'। एक चिथड़ा सुख पढ़ते हुए किसी छूटे हुए बचपन के प्रेम को याद कर लेना है। आप निर्मल को पढ़ नहीं सकते, उनके प्रेम में पड़ सकते हैं बस। उनकी डायरी, 'धुंध से उठती धुन' को पढ़ते हुए ख़ुद को एक लेखक के तौर पर थोड़ा बेहतर समझ पायी। अपने लिखे में रखे हुए सच के छोटे छोटे टुकड़ों के लिए ख़ुद को माफ़ कर पायी। अपने किरदारों से, सच और कल्पना के बीच प्यार करने और उन्हें बिसरा देने और सहेज देने के बीच के बारीक जाल को बुनती रही। निर्मल आपको तलाश लेते हैं। मैंने पहले कई बार उन्हें पढ़ने की कोशिश की, पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। अब उन्हें पढ़ना एक ऐसे प्रेम में होना है जिसमें ग़लतियाँ करने से बिछोह नहीं मिलता है। 'धुंध से उठती' धुन का मेरे पास होना इस बात की राहत देता है कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छे लोग मेरे दोस्त हैं।
Good Morning New York. न्यू यॉर्क। ज़िंदगी में दो ही बार शहरों से प्यार हुआ है। पहली बार दिल्ली। और अब न्यू यॉर्क। बहुत साल पहले एक लड़के ने प्रॉमिस किया था, तुम न्यू यॉर्क आओ तो सही, तुम्हें इस शहर से प्यार हो जाए, ये मेरी ज़िम्मेदारी। ऐसे वादे लोग बेवजह करते नहीं। शहर में होता है कुछ ख़ास। कुछ शहरों में आत्मा होती है। जीती जागती। दिल होता है, धड़कता हुआ। सड़क के नीचे चलने वाली मेट्रो में थरथराता हुआ। मेरी ज़िंदगी में न्यू यॉर्क का आना किसी कहानी जैसा था। हज़ार प्लॉट ट्विस्ट्स के बीच मुकम्मल होता। मैं एयरपोर्ट से न्यू यॉर्क जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। Penn स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखता शहर था...कुछ कुछ पटना जैसा, पुल थे, हावड़ा जैसे...और प्यार हुआ था पहली नज़र का। दिल्ली जैसा ही एकदम। कि धक से लगा था जब पहली बार ही देखा था शहर को। कि मैं भूल गयी थी कि शहरों से भी प्यार हो सकता है। पेन स्टेशन के ठीक बाहर ही मेरा होटल था। पैदल चलते हुए देख रही थी शहर को आँख भर भर के। उसकी प्राचीनता, उसका नयापन...थोड़ी ठंढ और हल्की गरमी। कि शहर से बेवजह ही प्यार हो चुका था। कि मेरे लिए प्यार और पसंद में यही अंतर होता है। पसंद करने की वजहें होती हैं, प्यार की नहीं। मुझसे पूछो कि क्यूँ प्यार करती हो तुम न्यू यॉर्क से तो मेरे पास कोई वजह नहीं होगी। कोई भी वजह नहीं। दिल पर हाथ रखूँगी और कहूँगी, सुनो मेरे दिल की धड़कन...डीकोड कर लो। बस। मेरे पास शब्द नहीं हैं। वहाँ की इमारतें। उसका सब-वे सिस्टम। वहाँ खो जाना। म्यूज़ीयम में जैक्सन pollock को देखना। Monet को देखना, बिना जाने हुए कि वो है। टाइम्ज़ स्क्वेयर। सेंट्रल पार्क। फ़्लैटआयरन बिल्डिंग। ब्रॉडवे। राह चलते ख़रीद लेना एक स्कार्फ़, सिर्फ़ उस लम्हे की याद के लिए। लौटते हुए लिए आना एक चाँदी की अँगूठी, 'love' लिखा हो जिसमें। रख लेना उस पूरे पूरे शहर को दिल में पजेसिव होकर। नहीं भेजना एक भी पोस्टकार्ड किसी को भी। अकेले भटकना म्यूज़ीयम में। भर भर आँख नदी हो आना। बहना हज़ार रंगों में। हुए जाना। न्यू यॉर्क।
अभिषेक। किसी कहानी जैसा लड़का। कितना करता अपने शहर से प्यार। शहर की छोटी छोटी चीज़ों से। सेंट्रल स्टेशन की छत से। सड़कों से। पैदल चलने से। मैं चकित हुए जाती। उसे पता है कॉफ़ी पीने की सबसे अच्छी जगह। देखो, ये है 'Carnegie Hall', यहाँ पर सब बड़े बड़े लोग परफ़ॉर्म करने आते हैं। मैं खड़ी देखती। कहती। ये हॉल नहीं है, सपना है। जब मैं यहाँ कहानी सुनाने आऊँगी, तो तुम आओगे सुनने? उसे कितने सालों से पढ़ रही हूँ। उसका लिखा हास्य पढ़ कर आँख नम हो जाती है। बैरीकूल और उसका वो मैथमैटिकल लव लेटर। याद आते हैं वे शुरुआती ब्लॉगिंग के दिन कि जब लगता नहीं था कि वर्चूअल दुनिया सच में कहीं एग्ज़िस्ट भी करती है। उन दिनों कहाँ कभी सोचा था कि अभिषेक से मिलेंगे भी तो न्यू यॉर्क में पहली बार। उसने कहा था बहुत साल पहले, एक नोवेल का प्लॉट देने वाला शहर है न्यू यॉर्क। ठीक डेढ़ दिन के समय में कहाँ जाएँ और कैसे, उसके होने से यक़ीन था कि भुतलाएँगे नहीं इस शहर में। उसने कहा था, 'भुलाना मुश्किल है इस शहर में', दरसल, 'भुलाना मुश्किल है उस शहर को' भी तो। बिना प्लान के अचानक आ जाना शहर और मिल जाना अचानक ही। ब्लॉगिंग के टाइम से जिन लोगों को पढ़ रहे हैं, कमोबेश सबसे मिलकर यही लगता है, उन दिनों हमने कहानियों में भी अपने होने का बहुत बहुत सच लिखा था। कि किसी से भी मिलना वैसा ही है जैसा हमने सोचा था उन्हें पढ़ कर। कि अभिषेक से मिलना आसान होना था। अच्छा होना था। अभिषेक से मिल कर लगता है एकदम अच्छा और भला होना भी कितना सुकूनदेह है। कि उसका बहुत उदार होना...kind होना...ज़िंदगी के प्रति एक भलेपन में विश्वास करना सिखाता है। उससे मिलना एक छोटा सा सुख है। अपने आप में मुकम्मल। शुक्रिया लड़के एक एकदम से भटक जाने वाली लड़की के लिए एक शहर आसान कर देने के लिए। तुम जब 'वे दिन' पढ़ोगे, जब जानोगे, एक छोटा सुख क्या होता है। कभी तो पढ़ोगे ही। अगली बार कभी मिलेंगे तो फ़ुर्सत से मिलेंगे। बातों की फ़ुर्सत रखेंगे। इस बार तो भागते शहर को बस थोड़ा सा ही देख सके। अगली बार...फिर कभी...
इस साल मैंने एक और चीज़ सीखी। जो मन में आए वो किए जाना। अफ़सोस के कमरे ढहा देना। एक एकदम ही अजनबी लड़के से मिली, शिव टंडन। एक रैंडम सी शाम, बहुत सी बातें। कॉफ़ी। कुछ ग़ज़लें और कितनी अचरज भरी कहानियाँ कि जितनी ज़िंदगी में ही हो सकती हैं। हम किसी अजनबी से मिल कर कितना मुकम्मल सा महसूस कर सकते हैं। कि शहर कैसे थोड़ा कम पराया लगने लगता है, अपना शहर बैंगलोर ही। इसलिए कि अपरिचित होते हुए भी किसी से को कनेक्ट महसूस होने पर अपने मन को डांट धोप के शांत नहीं कराया, उसके नाम एक शाम लिखी। ये बहुत सुंदर था। बहुत।
इसी तरह लीवायज़ में जींस ख़रीदने गयी थी और जींस फ़िट ना होने का रोना रो रही थी, वहीं पर खड़ी एक और लड़की से ही। फिर बात होते होते पहुँची UX डिज़ाइन पर। पता चला वो IIT गुवाहाटी में डिज़ाइन पढ़ाती है। whatsapp पर वहाँ के प्लेस्मेंट सेल के बंदे का नम्बर दिया उसने तो मैंने देखा कि वो रॉयल एनफ़ील्ड चलाती है...अचरज कि ऐसे रैंडम भी कोई मिलता है क्या जिससे इतनी चीज़ें कॉमन लगें। फिर हमने whatsapp पर कई बार कितनी कितनी तो बातें कीं और पाया कि हम ग़ज़ब अच्छी तरह से समझते हैं एक दूसरे को। उसके लिखे हुए में मुझे कोई चीज़ बाँधती है। शीतल नाम है उसका और ये लगता है कि हम गाहे बगाहे जुड़े रहेंगे एक दूसरे से।
कि इस साल से मैंने मानना शुरू किया है कि दुनिया एक काइंड जगह है और लोग अच्छे हैं और जादू होता है। साल की शुरुआत में मैंने पूजा शुरू की। मैंने पिछले लगभग नौ सालों से कभी पूजा नहीं की थी। अब एक छोटे से ईश्वर के सामने सर झुकाने से लगता है जैसे कोई ठहार मिल गया हो। जैसे शिकायत करने को कोई जगह हो जहाँ देर सेवर सुनवायी होगी। कि मन अब भी उदास होता है, दुखी होता है, लेकिन अशांत नहीं होता। कि मैं बहुत हद तक सुलझती गयी हूँ। शांत होती गयी हूँ। जिसने कई कई साल ज़िंदगी के उलझन में काटे हैं, उसके लिए ये छोटा सा सुख भी बहुत बड़ा है।
इस साल मैंने अपनी सोलो स्टोरीटेलिंग की शुरुआत की। नाम रखा, छूमंतर। मेरी पहली स्टोरीटेलिंग में क़रीबन पचास लोग आए थे। एक एकदम नए नाम के लिए ये एक तरह का रेकर्ड था। इससे बहुत उम्मीद पुख़्ता हुयी। ख़ुद पर यक़ीन आया कि मैं कहानी सुना सकती हूँ। बाद के सेशन में लोग बहुत कम आए लेकिन ऑडीयन्स के साथ कमाल का जुड़ाव रहा। पिछली स्टोरीटेलिंग में ऑडीयन्स भर भर आँख थी...जैसे मेरा दिल भर आया था, वैसे ही। मैंने जाना कि तालियों का शोर ही नहीं, गहरी चुप्पी भी देर तक याद रहती है।
इसी साल दैनिक जागरण ने नीलसन से हिंदी किताबों के बेस्ट-सेलर के लिए सर्वे कराया। इसके पहले लिस्ट में मेरी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' सातवें नम्बर पर रही। ये मेरे लिए अचरज भरी बात थी। मैंने किताब का बहुत कम प्रमोशन किया था और मेरे प्रकाशक पेंग्विन ने तो एकदम न के बराबर। सिर्फ़ वर्ड औफ़ माउथ पर किताब इतने लोगों ने ख़रीद कर पढ़ी ये मेरे लिए जादू जैसा था कि हमने कम्यूनिकेशन में पढ़ा था इस फ़ेनॉमना के बारे में। मेरी किताब के बारे में हमेशा दोस्तों ने कहा है कि तुम कुछ आसान लिखो, तुम्हारी किताब क्लिष्ट है। लोगों को समझ नहीं आएगी। पर मुझे पढ़ने वालों का एक अपना वर्ग रहा जिन्हें किताब इतनी पसंद आयी कि वे किताब को आगे बढ़ाते गए। पाठकों का इतना प्यार मेरे लिए बहुत बड़ी राहत है। कि मुझे जो कहानियाँ सुनानी हैं, वे सुनाऊँ, पढ़ने वाले लोग ख़ुद मिल जाएँगे किताब को। तो साल के अंत में, तीन रोज़ इश्क़ के सभी पाठकों को बहुत बहुत प्यार और शुक्रिया।
साल का आख़िरी और सबसे ज़रूरी शुक्रिया मेरी बेस्ट फ़्रेंड स्मृति के नाम। कि मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ वो मुझे बहुत प्यार करती है। मेरे गुनाहों के साथ। मेरी बेवक़ूफ़ियों और पागलपन के साथ। मेरे सही ग़लत की उलझनों के साथ और बावजूद भी। बिना शर्तों के प्यार। बिना किसी अंतिम मियाद के। बहुत कम लोग इतने ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि जिनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई एक शख़्स भी हो जो उन्हें पूरी तरह प्यार कर सके। उसका होना मेरे पागल ना होने की वजह है। वो मुझे सम्हाल लेती है। वो मुझे बचा लेती है। हर बार।
ज़िंदगी और ईश्वर का शुक्रिया। इतना उदार होने के लिए। और उन छोटे छोटे सुखों के लिए कि जिनकी याद को थामे काट ली जा सकती है दुःख की लम्बी, काली रात भी।
सितम्बर। तुम्हारे होने का शुक्रिया। कि जाने कितने अगले सालों तक कोई पूछेगा कि तुम ख़ुश कब थी, पूरी पूरी...तो मैं सुख से भर भर आँख भरे...नदी की तरह छलछलाती...प्रेम में होती हुयी कहूँगी...सितम्बर २०१७ में।
आख़िर में, बस इतना...***
ज़िंदगी
बस इतना करम रखना
कि कोई पूछे कभी
‘तुम किस चीज़ की बनी हो, लड़की?’
तो चूम सकूँ उसका माथा, और कह सकूँ
‘प्यार की’
Published on December 30, 2017 22:12
December 15, 2017
ठहर ठहर के बढ़ती, अधूरी, लम्बी कहानी...पुकारती। कलपती। लेती राहत की साँस।
उसकी उँगलियों के पोर पर हमेशा स्याही लगी होती। अक्सर फ़ीरोज़ी रंग की। कभी कभी पीली और बहुत कम ही और किसी रंग की। जैसे कोई नन्ही ईश्वर अपने लिए एक छोटी सी दुनिया बनाते बनाते एक ब्रेक लेने उठी हो थोड़ी देर के लिए...थोड़ी थकान से...या कि सिगरेट पीने को ही। थोड़ी ही देर में फिर से काग़ज़ क़लम थामनी है तो फिर क्यूँ ही रगड़ के हाथ धोने की मेहनत की जाए। गीले हाथों से माचिस जलाने में दिक़्क़त होगी अलग।
***
इन दिनों पढ़ने वाली किताबों में कई ईश्वर और उनके कुछ पैग़म्बर आते जाते रह रहे हैं। राम। बुद्ध। कर्मपा। दलाई लामा। हनुमान। वो सोचती। अचानक से इतने सारे ईश्वर उसके इर्दगिर्द क्यूँ मिल रहे हैं। उसपर सबसे इतना याराना जैसे पिछले कई सालों की कोई नाराज़गी रही ही नहीं हो।
देवघर जैसे किसी शहर में बचपन बिताने से ये होता है कि बच्चा मानते हुए बड़ा होता है कि भोले बाबा की तरह सभी ईश्वर आसानी से माफ़ कर देने वाले और ख़ूब ख़ूब प्यार करने वाले होते हैं।
***
उन दिनों इतरां को मालूम नहीं था कि उसका नाम मोक्ष था। मुझे मालूम था बस। मैंने रचा था उसका गोरा कांधा। उसके काँधे से उड़ती गंध। मैं तलाश रही थी उसके लिए एक शहर कि जिसका नाम मोह हो। इतरां कलप रही थी। और इतरां के साथ मैं भी। हम पिछले एक पूरे साल से कलप रहे हैं। कि किसी से सिर्फ़ एक बार मिलकर कैसा होता है इस डर को जीना कि हम अब इस ज़िंदगी में कभी दुबारा नहीं मिलेंगे। तलाश की नाउम्मीदी की हद कहाँ होती है। इतरां कहाँ कहाँ तलाशती है उसे। उसके काँधे के टैटू को। उसकी राख रंग की आँखों को। उसकी तलाश के साथ मैं भी घबराती हूँ कितना। हूक हुयी जाती हूँ। सर्दियों में बर्फ़ पड़ती है उस शहर में और नाज़ुक जीव-जंतुओं के लिए शेल्टर बना दिए जाते हैं। मैं बर्फ़ में खड़ी जमती जाती हूँ। अहिल्या कैसे हुयी होगी पत्थर। मैं पूछूँ, इस सर्द मौसम भर मुझे अपने दिल में पनाह दे सकोगे?इतरां ने कितनी भाषाएँ सीख लीं इस बीच। अब वो उस शख़्स को नहीं तलाशती लेकिन एक शब्द तलाशती है जो इस कलप को परिभाषित कर सके। कोई शब्द। कोई शहर। कोई एक पीर कि जो मृत्यु के पहले माथे पर हाथ रख के कह दे... मत रो...रो मत...दुनिया की किताबों के शब्द इतरां की आत्मा का हाल नहीं लिख सकते थे। छुट्टी पर आयी इतरां दादी सरकार की गोद में सर रख कर रोना चाहती थी...लेकिन दादी सरकार रामायण पाठ कर रही थी। बाल काण्ड। गोबर से लीपा हुआ गोसाईंघर था और अगरबत्ती, कपूर और कनेल के फूलों की मिलीजुली गंध। इतरां के लिए ये बचपन की सबसे आश्वस्त करने वाली गंध रही है हमेशा से। गोसाईंघर में दादी सरकार पूरे घर से पहले उठ कर नहा धो कर, माथे पर आँचल खींचे पूजा पर बैठ जातीं थीं। जब इतरां को शब्दों के मायने भी नहीं मालूम थे, तब से वो चुपचाप गोसाईंघर के एक अंधेरे कोने में चुपचाप बैठी दादी सरकार को सुनती रहती थी। दादी सरकार की थिर आवाज़ और वाल्मीकि रामायण के श्लोक जो कि इतरां को लगभग पूरे समझ आते थे। दादी सरकार इंद्र द्वारा दिति के पुत्रों के वध के समय कहे गए 'मा रुद' 'मा रुद' और फिर उनके जन्म के बाद उनके रखे हुए नाम, मारुत का हिस्सा पढ़ रही थी। सूर्योदय इतरां के मन के अंधेरे में भी हो रहा था। ऊँचे वाले रोशनदान से सूरज की किरणें सीधी दादी सरकार के आँचल पर गिर रही थीं और माथे पर खींचे लाल आँचल से छिटक कर कमरे में लाल रंग फैल रहा था। प्रेम का रंग। करुणा का रंग। आस्था का रंग। यही तो था वो शब्द कि जिसके लिए इतरां ने पूरी दुनिया की भाषाएँ तलाश ली थीं। उसके कलपते दिल पर इंद्र के शब्द जो मृत्यु से ज़्यादा शक्तिशाली थे। मन में मंत्र उभरने लगा। संजीवन मंत्र। शहर कि जिसमें साँस ली जा सकती थी। जिया जा सकता था। सतयुग का शहर। मारुत।
***
इन दिनों पढ़ने वाली किताबों में कई ईश्वर और उनके कुछ पैग़म्बर आते जाते रह रहे हैं। राम। बुद्ध। कर्मपा। दलाई लामा। हनुमान। वो सोचती। अचानक से इतने सारे ईश्वर उसके इर्दगिर्द क्यूँ मिल रहे हैं। उसपर सबसे इतना याराना जैसे पिछले कई सालों की कोई नाराज़गी रही ही नहीं हो।
देवघर जैसे किसी शहर में बचपन बिताने से ये होता है कि बच्चा मानते हुए बड़ा होता है कि भोले बाबा की तरह सभी ईश्वर आसानी से माफ़ कर देने वाले और ख़ूब ख़ूब प्यार करने वाले होते हैं।
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उन दिनों इतरां को मालूम नहीं था कि उसका नाम मोक्ष था। मुझे मालूम था बस। मैंने रचा था उसका गोरा कांधा। उसके काँधे से उड़ती गंध। मैं तलाश रही थी उसके लिए एक शहर कि जिसका नाम मोह हो। इतरां कलप रही थी। और इतरां के साथ मैं भी। हम पिछले एक पूरे साल से कलप रहे हैं। कि किसी से सिर्फ़ एक बार मिलकर कैसा होता है इस डर को जीना कि हम अब इस ज़िंदगी में कभी दुबारा नहीं मिलेंगे। तलाश की नाउम्मीदी की हद कहाँ होती है। इतरां कहाँ कहाँ तलाशती है उसे। उसके काँधे के टैटू को। उसकी राख रंग की आँखों को। उसकी तलाश के साथ मैं भी घबराती हूँ कितना। हूक हुयी जाती हूँ। सर्दियों में बर्फ़ पड़ती है उस शहर में और नाज़ुक जीव-जंतुओं के लिए शेल्टर बना दिए जाते हैं। मैं बर्फ़ में खड़ी जमती जाती हूँ। अहिल्या कैसे हुयी होगी पत्थर। मैं पूछूँ, इस सर्द मौसम भर मुझे अपने दिल में पनाह दे सकोगे?इतरां ने कितनी भाषाएँ सीख लीं इस बीच। अब वो उस शख़्स को नहीं तलाशती लेकिन एक शब्द तलाशती है जो इस कलप को परिभाषित कर सके। कोई शब्द। कोई शहर। कोई एक पीर कि जो मृत्यु के पहले माथे पर हाथ रख के कह दे... मत रो...रो मत...दुनिया की किताबों के शब्द इतरां की आत्मा का हाल नहीं लिख सकते थे। छुट्टी पर आयी इतरां दादी सरकार की गोद में सर रख कर रोना चाहती थी...लेकिन दादी सरकार रामायण पाठ कर रही थी। बाल काण्ड। गोबर से लीपा हुआ गोसाईंघर था और अगरबत्ती, कपूर और कनेल के फूलों की मिलीजुली गंध। इतरां के लिए ये बचपन की सबसे आश्वस्त करने वाली गंध रही है हमेशा से। गोसाईंघर में दादी सरकार पूरे घर से पहले उठ कर नहा धो कर, माथे पर आँचल खींचे पूजा पर बैठ जातीं थीं। जब इतरां को शब्दों के मायने भी नहीं मालूम थे, तब से वो चुपचाप गोसाईंघर के एक अंधेरे कोने में चुपचाप बैठी दादी सरकार को सुनती रहती थी। दादी सरकार की थिर आवाज़ और वाल्मीकि रामायण के श्लोक जो कि इतरां को लगभग पूरे समझ आते थे। दादी सरकार इंद्र द्वारा दिति के पुत्रों के वध के समय कहे गए 'मा रुद' 'मा रुद' और फिर उनके जन्म के बाद उनके रखे हुए नाम, मारुत का हिस्सा पढ़ रही थी। सूर्योदय इतरां के मन के अंधेरे में भी हो रहा था। ऊँचे वाले रोशनदान से सूरज की किरणें सीधी दादी सरकार के आँचल पर गिर रही थीं और माथे पर खींचे लाल आँचल से छिटक कर कमरे में लाल रंग फैल रहा था। प्रेम का रंग। करुणा का रंग। आस्था का रंग। यही तो था वो शब्द कि जिसके लिए इतरां ने पूरी दुनिया की भाषाएँ तलाश ली थीं। उसके कलपते दिल पर इंद्र के शब्द जो मृत्यु से ज़्यादा शक्तिशाली थे। मन में मंत्र उभरने लगा। संजीवन मंत्र। शहर कि जिसमें साँस ली जा सकती थी। जिया जा सकता था। सतयुग का शहर। मारुत।
Published on December 15, 2017 09:28
December 8, 2017
धूप में छप-छप नहाता दिल के आकार के पत्तों वाला पौधा - प्यार
"दो दिन में तुम क्या सब-कुछ जान सकते हो?" फिर कुछ देर बाद हँसकर उसने मेरी ओर देखा, "यही अजीब है।" उसने कहा, "हम एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं!""मैंने कभी सोचा नहीं...""मैंने भी नहीं..." उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, "इससे पहले मुझे या ख़याल भी नहीं आया था।""तुम्हें यह बुरा लगता है...इतना कम जानना...!""नहीं..." उसने कहा, "मुझे यह कम भी ज़्यादा लगता है..." वह मीता के बालों से खेलने लगी थी। "हम उतना ही जानते हैं, जितना ठीक है।" कुछ देर बाद उसने कहा।"मैं यह नहीं मानता।""यह सच है..." उसने कहा, "तुम अभी नहीं मानोगे...पहले हम नहीं सोचते...बाद में, इट इज़ जस्ट मिज़री..."उसका स्वर भर्रा सा-सा आया। मैंने उसकी ओर नहीं देखा। मिज़री...मुझे लगा जैसे यह शब्द मैंने पहली बार सुना है। "तुम विश्वास करते हो?""विश्वास...किस पर?" मैंने तनिक विस्मय से उसकी ओर देखा।"वे सब चीज़ें...जो नहीं हैं।""मैं समझा नहीं।"वह हँसने लगी।"वे सब चीज़ें जो हैं...लेकिन जिनसे हमें आशा नहीं रखनी चाहिए...।"उसका सवार इतना धीमा था कि मुझे लगा जैसे वह अपने-आप से कुछ कह रही है...मैं वहाँ नहीं हूँ।धुंध उड़ रही थी। हवा से नंगी टहनियाँ बार-बार सिहर उठती थीं। कहीं दूर नदी पर बर्फ़ टूट जाती थी और बहते पानी का ऊनींदा-सा स्वर जाग उठता था।
- वे दिन ॰ निर्मल वर्मा
***इस साल के अंत में कुछ ऐसा हुआ कि पोलैंड जाने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया।क्रैको से प्राग सिर्फ़ तीन सौ किलोमीटर के आसपास है। मैं सर्दियों में प्राग देखना चाहती हूँ। कैसल। नदी। ठंढ। मैं अपनी कहानियों में उस शहर में तुम्हारे लिए कुछ शब्द छोड़ आती हूँ। तुम फिर कई साल बाद जाते हो वहाँ। उन शब्दों को छू कर देखते हो। और मेरी कहानी को पूरा करने को उसका आख़िरी चैप्टर लिखते हो।
साल की पहली बर्फ़ गिरने को उतने ही कौतुहल से देखते होंगे लोग? जिन शहरों में हर साल बर्फ़ पड़ती है वहाँ भी? क्या ठंढे मौसम की आदत हो जाती है? मैं क्यूँ करती हूँ उस शहर से इतना प्यार?
मैंने बर्फ़ सिर्फ़ पहाड़ों पर देखी है। समतल ज़मीन पर कभी नहीं। शहरों में गिरती बर्फ़ तो कभी भी नहीं। पहाड़ों पर यूँ भी हमें बर्फ़ देखने की आदत होती है। घुटनों भर बर्फ़ में चलना वो भी कम ऑक्सिजन वाली पहाड़ी हवा में, बेहद थका देने वाला होता है। मुझे याद है उस बेतरह थकान और अटकी हुयी साँस के बाद पीना हॉट चोक्लेट विथ व्हिस्की। वो गर्माहट का बदन में लौटना। साँस तरतीब से आना। वहाँ रेस्ट्रॉंट में कई सारे वृद्ध थे। जो बाहर जाने की स्थिति में नहीं थे। उनके परिवार के युवा बाहर बर्फ़ में खेल रहे थे। मैंने वहाँ पहली बार इतनी बर्फ़ देखी थी। स्विट्सर्लंड में। zermatt और zungfrau।
शायद मुझे जितना ख़ुद के बारे में लगता है, उससे ज़्यादा पसंद है ठंढ। दिल्ली की भी सर्दियाँ ही अच्छी लगती हैं मुझे। फिर पिछले कई सालों में दिल्ली गयी कहाँ हूँ किसी और मौसम में।
कल पापा से बात करते हुए उनसे या ख़ुद से ही पूछ रही थी। हमें कोई शहर क्यूँ अच्छा लगता है। आख़िर क्या है कि प्यार हो जाता है उस शहर से। मुझे ये बात याद ही नहीं थी कि न्यू यॉर्क समंदर किनारे है। या नदी है उधर। पता नहीं कैसे। मैं वहाँ सिर्फ़ म्यूज़ीयम देखने गयी थी। मेट्रो से अपने होटेल इसलिए गयी कि मेट्रो और टैक्सी में बराबर वक़्त लगेगा। ये तो भूल ही गयी कि टैक्सी से जाने में शहर दिखेगा भी तो। जब कि अक्सर तुमसे बात होती रही तुम्हारे शहर के बारे में।फिर वो सारा कुछ किसी काल्पनिक कहानी का हिस्सा क्यूँ लगता रहा?
किताबों और शहरों से मुझे प्यार हो जाता है। धुंध से उठती धुन की एक कॉपी लानी है मुझे तुम्हारे लिए। पता नहीं कैसे। फिर उस कॉपी को तुम्हें देने के लिए मिलेंगे किसी शहर में। जैसे 'वे दिन' के साथ हुआ था। कुछ थ्योरीज कहती हैं कि हर चीज़ में जान होती है। पत्थर भी सोचते हैं। किताबें भी। तो फिर तुम्हारे पास रखी हुयी इस किताब के दिल में क्या क्या ना ख़याल आता होगा?
कुछ किताबें होती हैं ना, पढ़ने के बाद हम उन्हें अपने पसंदीदा लोगों को पढ़ा देने के लिए छटपटा जाते हैं। कि हमसे अकेले इतना सुख नहीं सम्हलता। हमें लगता है इसमें उन सबका हिस्सा है, जिनका हममें हिस्सा है। जो हमारे दुःख में हमें उबार लेते हैं, वे हमारे सुख में थोड़ा बौरा तो लें।
वे दिन ऑनलाइन मंगाने के पहले सोचा था तुमसे पूछ लूँ, तुमने नहीं पढ़ी है तो एक तुम्हारे लिए भी मँगवा लेंगे। फिर तुमने सवाल देखा नहीं तो मैंने दो कॉपी ऑर्डर कर दी थी। कि अगर अच्छी लगी तो तुम्हें भी भिजवा दूँगी। इस साल कैसी कैसी चीज़ें सच होती गयीं कि पूरा साल ही सपना लगता है। कितनी सुंदर थी ज़िंदगी। कितनी सुंदर है। अपने दुःख के बावजूद। अपने छोटे छोटे सुख में बड़े बड़े दुखों को बस थोड़ी सी शिकन के साथ जी जाती हुयी। शिकायत नहीं करती हुयी।
मुझे ट्रैंज़िट वाली चीज़ें बहुत अच्छी लगती हैं। ये सोचना कि कोई पोस्टकार्ड नहीं होगा। किसी ने उसे उठाया होगा और मेल में अलग रखा होगा, सॉर्ट किया होगा शहरों के हिसाब से। कितने लोगों के हाथों से गुज़रा होगा काग़ज़ का एक टुकड़ा, तुम्हारे हाथों तक पहुँचने के पहले। एक दोस्त को कुछ किताबें भेजी हैं। वे उसके शहर के पोस्ट ऑफ़िस के लिए बैग कर दी गयी हैं। मैं अभी से उसके चेहरे के हाव-भाव सोच कर मुस्कुरा रही हूँ। क्या उसे अच्छा लगेगा? क्या वो नाराज़ होगा? क्या मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्मी हूँ?
इतना पता है कि मुझे ज़िंदगी को थोड़ा और ख़ूबसूरत बनाना अच्छा लगता है। दो तरह के लोग होते हैं, एक वे, जो दुनिया को वही लौटाते हैं जो दुनिया ने उन्हें दिया...एक वो जो दुनिया को वो लौटाते हैं जो वे ख़ुद चाहते रहे हैं हमेशा। मैं दूसरी क़िस्म की हूँ। मुझे अच्छा लगता है ये सोच कर कि कोई मेरे लिए फूल ख़रीदेगा। मुझे वो सजीले गुलदस्ते उतने पसंद नहीं, लेकिन ज़रबेरा, लिली, और कभी कभी कार्नेशन अच्छे लगते हैं। मैं अपने दोस्तों के लिए अक्सर फूल ख़रीद कर ले जाती हूँ। कि उन्हें अच्छा लगता है। मैं कोई कुरियर भेजती हूँ तो सुंदर पैकिजिंग करती हूँ। चिट्ठियाँ लिखने के लिए सुंदर काग़ज़ दुनिया भर से खोज कर लाती हूँ। मुझे ये सोच कर अच्छा लगता है कि मैंने किसी को कुछ भेजा तो रैंडम नहीं भेजा...कुछ ख़ास भेजा। कुछ प्यार से भेजा। कुछ ऐसा भेजा जो देख कर कोई मुस्कुराए। कि किसी को चिट्ठी लिखना इतना ख़ास क्यूँ है मालूम? कि इस भागदौड़ की मल्टी-टास्किंग दुनिया में कोई घंटों आपके बारे में सोचता रहा और काग़ज़ पर उतरता रहा क़रीने से शब्द... सलीक़े वाली अपनी बेस्ट हैंडराइटिंग में।
और तुम्हें पता है। बहुत सालों में एक तुम्हीं हो, जिसे कहा है, एक चिट्ठी लिखना मुझे। चिट्ठी। 'वे दिन' में रायना कहती है, वे चीज़ें जो हैं तो, लेकिन उनसे आशा नहीं रखनी चाहिए। सबके पास फ़ुर्सत का अभाव है। समय बहुत क़ीमती है। उसमें भी व्यस्त लोगों का समय। लेकिन फिर भी। मैं तुमसे इतनी सी चाह रखती हूँ कि तुम मुझे एक चिट्ठी लिखोगे कभी।
तुमने किसी को आख़िरी बार हैप्पी बर्थ्डे वाला कार्ड कब दिया था? या नए साल पर? मेरा मन कर रहा है कि बचपन की तरह काग़ज़, स्केच पेन, ग्लिटर, स्टिकर और रंग बिरंगी चिमकियाँ ख़रीद कर लाऊँ और एक कार्ड बनाऊँ तुम्हारे लिए। शायद मेरे पास कुछ अच्छे शब्द हों तुम्हारे नाम लिखने को। पता है, मैं और मेरा भाई अपने स्कूल टाइम तक अपने स्कूल फ़्रेंड्ज़ को नए साल पर कार्ड देते थे। फिर हर नए साल की सुबह दोनों अपने अपने कार्ड जोड़ते थे कि किसको ज़्यादा कार्ड मिले। फिर उन कार्ड्ज़ को डाइऐगनली स्टेपल कर के हैंगिंग सा बनते थे और कमरे की दीवार पर चिपका देते थे। मुझे वे दिन याद आते हैं। तुम मुझे मेरा बचपन बहुत याद दिलाते हो। जैसे कि पता नहीं कोई दूर दराज़ के रिश्ते में लगते हो कुछ, ऐसा। कि हमारे बचपन का कोई हिस्सा जुड़ना चाहिए कहीं। या कि हम किसी शादी में मिलें अचानक और कोई नानी बात करते करते बतला दे, अरे ऊ घोड़ीकित्ता वाली तुमरे पापा की फुआ है ना...उसी के दामाद के साढ़ू का बेटा है...ऐसे कोई तो उलझे रिश्ते जो इमैजिन करने में कपार दुखा जाए।
हमको भागलपुरी बोलना आज तक नहीं आया ढंग से लेकिन ठीक ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे एक समय में। संगत का असर। फिर कुछ लोग डाँटे कम, प्यार से बात ज़्यादा किए। फिर कितने नए शब्द होते हैं हमारे बीच। Kenopsia. Moment of tangency. Caramel। हर शब्द में एक कहानी।
मैंने ज़िंदगी जितनी सच में जी है, उससे कहीं ज़्यादा याद में और कल्पना में जी है। सपने में और पागलपन में भी। मगर कितनी सारी चीज़ें जो कहीं नहीं हैं, ऐसे मेरे शब्दों में रहती हैं। कितने चैन से। कितने इत्मीनान से। तुम भी तो।
ढेर सारा प्यार। लो आज मेरे शहर का पूरा आसमान तुम्हारे नाम। इसके सारे रंग तुम्हारे। बादलों में बनते सारे हसीन नज़ारे और नीले रंग में मुस्कुराता आसमान, सूरज, चाँद सब। ***
एक मुस्कुराता पौधा
जिसके दिल की आकृति वाले पत्ते
धूप में छप-छप करते
खिड़की पर नहा रहे हैं
ऐसे ही सुख से
मेरे दिल को सजाता है
तुम्हारा प्यार
- वे दिन ॰ निर्मल वर्मा
***इस साल के अंत में कुछ ऐसा हुआ कि पोलैंड जाने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया।क्रैको से प्राग सिर्फ़ तीन सौ किलोमीटर के आसपास है। मैं सर्दियों में प्राग देखना चाहती हूँ। कैसल। नदी। ठंढ। मैं अपनी कहानियों में उस शहर में तुम्हारे लिए कुछ शब्द छोड़ आती हूँ। तुम फिर कई साल बाद जाते हो वहाँ। उन शब्दों को छू कर देखते हो। और मेरी कहानी को पूरा करने को उसका आख़िरी चैप्टर लिखते हो।
साल की पहली बर्फ़ गिरने को उतने ही कौतुहल से देखते होंगे लोग? जिन शहरों में हर साल बर्फ़ पड़ती है वहाँ भी? क्या ठंढे मौसम की आदत हो जाती है? मैं क्यूँ करती हूँ उस शहर से इतना प्यार?
मैंने बर्फ़ सिर्फ़ पहाड़ों पर देखी है। समतल ज़मीन पर कभी नहीं। शहरों में गिरती बर्फ़ तो कभी भी नहीं। पहाड़ों पर यूँ भी हमें बर्फ़ देखने की आदत होती है। घुटनों भर बर्फ़ में चलना वो भी कम ऑक्सिजन वाली पहाड़ी हवा में, बेहद थका देने वाला होता है। मुझे याद है उस बेतरह थकान और अटकी हुयी साँस के बाद पीना हॉट चोक्लेट विथ व्हिस्की। वो गर्माहट का बदन में लौटना। साँस तरतीब से आना। वहाँ रेस्ट्रॉंट में कई सारे वृद्ध थे। जो बाहर जाने की स्थिति में नहीं थे। उनके परिवार के युवा बाहर बर्फ़ में खेल रहे थे। मैंने वहाँ पहली बार इतनी बर्फ़ देखी थी। स्विट्सर्लंड में। zermatt और zungfrau।
शायद मुझे जितना ख़ुद के बारे में लगता है, उससे ज़्यादा पसंद है ठंढ। दिल्ली की भी सर्दियाँ ही अच्छी लगती हैं मुझे। फिर पिछले कई सालों में दिल्ली गयी कहाँ हूँ किसी और मौसम में।
कल पापा से बात करते हुए उनसे या ख़ुद से ही पूछ रही थी। हमें कोई शहर क्यूँ अच्छा लगता है। आख़िर क्या है कि प्यार हो जाता है उस शहर से। मुझे ये बात याद ही नहीं थी कि न्यू यॉर्क समंदर किनारे है। या नदी है उधर। पता नहीं कैसे। मैं वहाँ सिर्फ़ म्यूज़ीयम देखने गयी थी। मेट्रो से अपने होटेल इसलिए गयी कि मेट्रो और टैक्सी में बराबर वक़्त लगेगा। ये तो भूल ही गयी कि टैक्सी से जाने में शहर दिखेगा भी तो। जब कि अक्सर तुमसे बात होती रही तुम्हारे शहर के बारे में।फिर वो सारा कुछ किसी काल्पनिक कहानी का हिस्सा क्यूँ लगता रहा?
किताबों और शहरों से मुझे प्यार हो जाता है। धुंध से उठती धुन की एक कॉपी लानी है मुझे तुम्हारे लिए। पता नहीं कैसे। फिर उस कॉपी को तुम्हें देने के लिए मिलेंगे किसी शहर में। जैसे 'वे दिन' के साथ हुआ था। कुछ थ्योरीज कहती हैं कि हर चीज़ में जान होती है। पत्थर भी सोचते हैं। किताबें भी। तो फिर तुम्हारे पास रखी हुयी इस किताब के दिल में क्या क्या ना ख़याल आता होगा?
कुछ किताबें होती हैं ना, पढ़ने के बाद हम उन्हें अपने पसंदीदा लोगों को पढ़ा देने के लिए छटपटा जाते हैं। कि हमसे अकेले इतना सुख नहीं सम्हलता। हमें लगता है इसमें उन सबका हिस्सा है, जिनका हममें हिस्सा है। जो हमारे दुःख में हमें उबार लेते हैं, वे हमारे सुख में थोड़ा बौरा तो लें।
वे दिन ऑनलाइन मंगाने के पहले सोचा था तुमसे पूछ लूँ, तुमने नहीं पढ़ी है तो एक तुम्हारे लिए भी मँगवा लेंगे। फिर तुमने सवाल देखा नहीं तो मैंने दो कॉपी ऑर्डर कर दी थी। कि अगर अच्छी लगी तो तुम्हें भी भिजवा दूँगी। इस साल कैसी कैसी चीज़ें सच होती गयीं कि पूरा साल ही सपना लगता है। कितनी सुंदर थी ज़िंदगी। कितनी सुंदर है। अपने दुःख के बावजूद। अपने छोटे छोटे सुख में बड़े बड़े दुखों को बस थोड़ी सी शिकन के साथ जी जाती हुयी। शिकायत नहीं करती हुयी।
मुझे ट्रैंज़िट वाली चीज़ें बहुत अच्छी लगती हैं। ये सोचना कि कोई पोस्टकार्ड नहीं होगा। किसी ने उसे उठाया होगा और मेल में अलग रखा होगा, सॉर्ट किया होगा शहरों के हिसाब से। कितने लोगों के हाथों से गुज़रा होगा काग़ज़ का एक टुकड़ा, तुम्हारे हाथों तक पहुँचने के पहले। एक दोस्त को कुछ किताबें भेजी हैं। वे उसके शहर के पोस्ट ऑफ़िस के लिए बैग कर दी गयी हैं। मैं अभी से उसके चेहरे के हाव-भाव सोच कर मुस्कुरा रही हूँ। क्या उसे अच्छा लगेगा? क्या वो नाराज़ होगा? क्या मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्मी हूँ?
इतना पता है कि मुझे ज़िंदगी को थोड़ा और ख़ूबसूरत बनाना अच्छा लगता है। दो तरह के लोग होते हैं, एक वे, जो दुनिया को वही लौटाते हैं जो दुनिया ने उन्हें दिया...एक वो जो दुनिया को वो लौटाते हैं जो वे ख़ुद चाहते रहे हैं हमेशा। मैं दूसरी क़िस्म की हूँ। मुझे अच्छा लगता है ये सोच कर कि कोई मेरे लिए फूल ख़रीदेगा। मुझे वो सजीले गुलदस्ते उतने पसंद नहीं, लेकिन ज़रबेरा, लिली, और कभी कभी कार्नेशन अच्छे लगते हैं। मैं अपने दोस्तों के लिए अक्सर फूल ख़रीद कर ले जाती हूँ। कि उन्हें अच्छा लगता है। मैं कोई कुरियर भेजती हूँ तो सुंदर पैकिजिंग करती हूँ। चिट्ठियाँ लिखने के लिए सुंदर काग़ज़ दुनिया भर से खोज कर लाती हूँ। मुझे ये सोच कर अच्छा लगता है कि मैंने किसी को कुछ भेजा तो रैंडम नहीं भेजा...कुछ ख़ास भेजा। कुछ प्यार से भेजा। कुछ ऐसा भेजा जो देख कर कोई मुस्कुराए। कि किसी को चिट्ठी लिखना इतना ख़ास क्यूँ है मालूम? कि इस भागदौड़ की मल्टी-टास्किंग दुनिया में कोई घंटों आपके बारे में सोचता रहा और काग़ज़ पर उतरता रहा क़रीने से शब्द... सलीक़े वाली अपनी बेस्ट हैंडराइटिंग में।
और तुम्हें पता है। बहुत सालों में एक तुम्हीं हो, जिसे कहा है, एक चिट्ठी लिखना मुझे। चिट्ठी। 'वे दिन' में रायना कहती है, वे चीज़ें जो हैं तो, लेकिन उनसे आशा नहीं रखनी चाहिए। सबके पास फ़ुर्सत का अभाव है। समय बहुत क़ीमती है। उसमें भी व्यस्त लोगों का समय। लेकिन फिर भी। मैं तुमसे इतनी सी चाह रखती हूँ कि तुम मुझे एक चिट्ठी लिखोगे कभी।
तुमने किसी को आख़िरी बार हैप्पी बर्थ्डे वाला कार्ड कब दिया था? या नए साल पर? मेरा मन कर रहा है कि बचपन की तरह काग़ज़, स्केच पेन, ग्लिटर, स्टिकर और रंग बिरंगी चिमकियाँ ख़रीद कर लाऊँ और एक कार्ड बनाऊँ तुम्हारे लिए। शायद मेरे पास कुछ अच्छे शब्द हों तुम्हारे नाम लिखने को। पता है, मैं और मेरा भाई अपने स्कूल टाइम तक अपने स्कूल फ़्रेंड्ज़ को नए साल पर कार्ड देते थे। फिर हर नए साल की सुबह दोनों अपने अपने कार्ड जोड़ते थे कि किसको ज़्यादा कार्ड मिले। फिर उन कार्ड्ज़ को डाइऐगनली स्टेपल कर के हैंगिंग सा बनते थे और कमरे की दीवार पर चिपका देते थे। मुझे वे दिन याद आते हैं। तुम मुझे मेरा बचपन बहुत याद दिलाते हो। जैसे कि पता नहीं कोई दूर दराज़ के रिश्ते में लगते हो कुछ, ऐसा। कि हमारे बचपन का कोई हिस्सा जुड़ना चाहिए कहीं। या कि हम किसी शादी में मिलें अचानक और कोई नानी बात करते करते बतला दे, अरे ऊ घोड़ीकित्ता वाली तुमरे पापा की फुआ है ना...उसी के दामाद के साढ़ू का बेटा है...ऐसे कोई तो उलझे रिश्ते जो इमैजिन करने में कपार दुखा जाए।
हमको भागलपुरी बोलना आज तक नहीं आया ढंग से लेकिन ठीक ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे एक समय में। संगत का असर। फिर कुछ लोग डाँटे कम, प्यार से बात ज़्यादा किए। फिर कितने नए शब्द होते हैं हमारे बीच। Kenopsia. Moment of tangency. Caramel। हर शब्द में एक कहानी।
मैंने ज़िंदगी जितनी सच में जी है, उससे कहीं ज़्यादा याद में और कल्पना में जी है। सपने में और पागलपन में भी। मगर कितनी सारी चीज़ें जो कहीं नहीं हैं, ऐसे मेरे शब्दों में रहती हैं। कितने चैन से। कितने इत्मीनान से। तुम भी तो।
ढेर सारा प्यार। लो आज मेरे शहर का पूरा आसमान तुम्हारे नाम। इसके सारे रंग तुम्हारे। बादलों में बनते सारे हसीन नज़ारे और नीले रंग में मुस्कुराता आसमान, सूरज, चाँद सब। ***
एक मुस्कुराता पौधा
जिसके दिल की आकृति वाले पत्ते
धूप में छप-छप करते
खिड़की पर नहा रहे हैं
ऐसे ही सुख से
मेरे दिल को सजाता है
तुम्हारा प्यार
Published on December 08, 2017 23:43
December 6, 2017
तुम मेरे प्राण में बसे हो
कुछ चीज़ें मुझे हिंदी में ही समझ आती हैं। मैं इनका ठीक ठीक मतलब समझा नहीं सकती हूँ किसी को। मन। प्राण। आत्मा। ये सब अलग अलग हैं। ये कहाँ हैं मालूम नहीं। लेकिन प्यार होता है तो कुछ है जो सबको एक ही रंग में रंग देता है।फ़िल्म The Grandmaster में आख़िर अलविदा में वो उसे बता रही है कि कैसे सालों साल उसने उसे याद रखा है। वे मिल नहीं पाए और अब ज़िंदगी ख़त्म हो रही है। फ़िल्म मैंडरिन में है। उसके डाइयलॉग्ज़ के सब्टायटल्ज़ के दो वर्ज़न हैं। उसमें एक में वो कहती है "i really cared about you" दूसरे वर्ज़न में कहती है, "you are in my heart of hearts". भाषा नहीं समझ आती है, लेकिन वो सर झुकाए बताती जा रही है कई बातें और आख़िर में मिस्टर इप की आँखों में देख कर इतना सा ही कहती है तो कैसे तो कुछ अंदर तक टूट जाता है और हिंदी में एक ही पंक्ति आती है उसके लिए। 'तुम मेरे प्राण में बसे हो'। तुम्हें कैसे बताऊँ कैसा होता है ये सोच सोच कर बिखरना कि जिस किसी से एक बार मिले हैं, उससे शायद ज़िंदगी में दुबारा कभी ना मिलें। मतलब कभी भी नहीं। अनुपम ने मुझे Bisociation सिखाया था और उसकी ख़ूब प्रैक्टिस भी करायी थी। शायद इसलिए आज भी मैं सबसे ज़्यादा इसी का इस्तेमाल करती हूँ। इसका अर्थ है कोई दो एकदम अलग चीज़ों के बीच में कोई सम्बंध निकालना। मेटाफ़र बनाना। और लिखना। जैसे कि रंग नीला और बिल्ली। मैं पिछले कुछ दिनों में कहानियों से गुज़री हूँ। अपनी स्टोरीटेलिंग में मैंने 'ख़ुशबुओं का सौदागर' कहानी सुनायी। इसमें वो सौदागर एक लड़की की गंध तलाश रहा होता है, गंध जो उसके बालों से उड़ती है...इतरां की कहानी ऐसी जगह ठहरी है जब वो उस लड़के से सिर्फ़ एक ही बार मिली होती है कुलधरा में और फिर उसे तलाशती रहती है पूरी दुनिया में। इस डर को जीते हुए कि शायद वे फिर कभी ना मिलें। लिखते हुए वो डर एक शब्द था जो मुझे मालूम नहीं था। जीते हुए वो शब्द एक नाम हो गया है। तुम्हारा। मेरे बालों में तुम्हारे हाथों की उलझन रह गयी है। फिर पिछले कुछ दिनों में बनारस का गाना सुना...बनारसिया...फिर पापा बनारस गए और बताए कि बनारस में दीवाली देरी से मनायी जाती है, कि वे नाव से घाटों पर जले हुए असंख्य दिये देख रहे हैं और ये बहुत सुंदर है। बनारस में मरने वालों को मोक्ष मिल जाता है। लोग वहाँ अपनी आख़िरी साँस लेने के लिए जाते हैं। मेरे मन में बहुत धुँधली सी याद है बनारस की। गंगा के पानी की। गलियों की। और पान की। बहुत साल पहले एक लड़के से प्यार था बहुत। उन दिनों बस इतना शौक़ था कि मैं जब मरती रहूँ तो वो पास रहे। मुझे उसके साथ ज़िंदगी का कोई भी हिस्सा जीने का कोई शौक़ नहीं था। वो लड़का कहता है हमारे बीच जो था उसको प्यार नहीं कहते हैं। कि उसको मुझसे प्यार नहीं था कभी। मैं उसको समझाती हूँ। कि इतना ही होता है प्यार। इसी को कहते हैं। मुझे जाने क्यूँ इस दुनिया का कोई शहर ऐसा नहीं लगा जहाँ तुम मुझसे मिल सको। या तो मैं कोई एक नया शहर देख आऊँ या रच दूँ एक नया शहर तुमसे मिलने को। कल जाने क्यूँ लगा कि हमें बनारस में मिलना चाहिए। इस दुनिया से अलग मेरा वो कौन सा हिस्सा है जो तुम्हारा हो गया है। मेरी आत्मा के कौन से धागे तुमसे जा उलझे हैं? मन। प्राण। आत्मा। में कैसे बस जाता है कोई। तुम कौन हो जो मेरी आत्मा में रहते हो? मैंने अपने जीवन में कभी ऐसा प्यार किया हो मुझे याद नहीं आता। ये कौन सा रंग है जो मेरी उँगलियों से झरता है। कौन सी नदी मेरी अंजलि से निकलती है। मेरे अंचल में बंधी तुम्हारे नाम की कौन सा मन्नत है। ये कौन सा दुःख मोल लिया है मैंने। तुम्हें मालूम है, मेरा उपन्यास अधूरा क्यूँ पड़ा है? क्यूँकि इतरां के जिस प्रेमी से उसे प्रेम होना था, उससे मुझे भी प्यार है...बहुत गहरा। और मैं उसका दिल तोड़ने से डरती हूँ। मृत्यु से भी। और जाने क्या सोच कर मैंने तुम्हारा नाम रखा, मोक्ष। कि मेरी जान, आह मेरी जान, जीते जी मोक्ष नहीं मिलता। प्यार। बहुत।
Published on December 06, 2017 23:30
जादू का तमाशा, उर्फ़, ज़िंदगी
कल बहुत दिन बाद Sleepless in Seattle दुबारा देख रही थी। जो चीज़ें हमने ख़ुद से नहीं देखी होती हैं उनपर कभी ध्यान नहीं जाता है। जैसे कि कितनी सारी फ़िल्मों में न्यू यॉर्क है। एम्पायर स्टेट बिल्डिंग है। इस इमारत की लाइटें हैं। इस फ़िल्म में हीरो बता रहा है कि कैसे उस लड़की को पहली बार मिला था, जब पहली बार उसका हाथ पकड़ा था, उस वक़्त जादू था...और उसे बस मालूम था कि बस यही है वो लड़की। कि उनके बीच जादू जैसा कुछ है।
कल मैं इस फ़िल्म को देखते हुए सोच रही थी कि मेरी ज़िंदगी में जादू जैसा कितना रहा है। कितनी कितनी बार। कितने लोगों से मिली हूँ और लम्हों में कुछ एकदम अलग था, जैसे स्टार्डस्ट जैसा कुछ...जादू कोई बारीक ग्लिटर जैसा। तब लगता है शायद मैं ही जादू की बनी हूँ कि इतना सारा कुछ तिलिस्मी मेरे इर्द गिर्द घटता रहता है। वरना ऐसे कमाल के लोग कैसे मिलते मुझे ज़िंदगी में। एक दोस्त कहता है मेरे बारे में...तुम साधारण चीज़ों को भी इतने ग़ौर से देखती हो कि तुम्हें वो यूनीक लगती हैं। लोगों को ख़ास महसूस करा देती हो, उनके ख़ुद के बारे में। ये वाक़ई मेरी सुपरपॉवर है
Published on December 06, 2017 03:45
December 4, 2017
फुटकर चिप्पियाँ : #simpleharmonicmotion
'तुम ये बाल धो कर मुझसे मिलने आना बंद करो'
'क्यूँ? मेरे बाल धोने से टेक्टानिक प्लेट्स में हलचल होती है? भूकम्प आते हैं?'
'नहीं। ईमान डोलता है। वो भूकम्प से ज़्यादा ख़तरनाक है'
'है तो सही'
'क्या लगाती हो तुम बालों में आख़िर? कौन सा शैंपू है ये?'
अब उसे कौन बताए कि लड़की कोई साधारण लड़की तो है नहीं, मेरी कहानी का किरदार है। उसकी रगों में इत्र दौड़ता है। चाँद से मीठी। प्यास सी तीखी। रूद्र की इतरमिश्री। मेरी इतरां।
इतरां मुस्कुरायी और बालों से जूड़ा पिन निकाला। उसके कमर तक लम्बे बाल हवा में झूम गए। इतरां अपना चेहरा लड़के के एकदम क़रीब लायी, एक बदमाश लट उसके गालों में गुदगुदी करने लगी। हौले से इतरां ने उसके कानों में कहा...
'शैंपू नहीं मेरी जान, अफ़ीम...मेरे बालों से अफ़ीम की गंध उड़ती है'।***
ये दिन ख़तरनाक हैं। 'प्यार', 'प्रेम', 'इश्क़' जैसे शब्दों का मनमाना इस्तेमाल कर रही हूँ कि जैसे ना ये शब्द ख़त्म होंगे, ना मेरे दिल में प्रेम। एक स्त्री का हृदय अक्षयपात्र था। उसमें प्रेम कभी ख़त्म नहीं होता। कभी कभी वह भूखी सो जाती क्यूँकि उसकी इच्छा नहीं होती एक चुम्बन चखने की भी। लेकिन कभी कभी वह दोनों हाथों से प्रेम उलीचती। उसकी छोटी छोटी हथेलियों में कितना ही प्रेम आ सकता...उसके छोटे से हृदय में कितना अपार प्रेम था। समंदर जितना। इन दिनों मैं वह औरत हुयी जाती हूँ। इन दिनों प्रेम और मैं अलग नहीं...इन दिनों भय को निष्कासित कर दिया गया है उदास और तनहा रेगिस्तान में। इन दिनों कोई नहीं है और बहुत लोग हैं। इन दिनों, मैं वो उजड़ा हुआ गाँव हूँ जहाँ आवाज़ें रह गयी हैं। ख़ाली मकान रह गए हैं। इन दिनों, मौसम बहुत ख़ूबसूरत है और मेरी आत्मा उदार। जानां, चले आओ कि शायद ये मेरे जीवन का आख़िरी वसंत है।***उदास रातों में धूप के उस दिन की चमकीली याद...कि क्यूँ ना याद आए तुम्हारी...हाँ चाह रही हूँ मैं, कि लौट आओ तुम, देहरी पर देखूँ तुम्हें, खींचूँ आँचल माथे पर, घूँघट के अंदर मुसकाऊँ...दौड़ के जाऊँ जब लाने तुम्हारे लिए सुराही का ठंढा, सोन्हा पानी तो साथ नन्हीं आवाज़ों की एक खिलखिलाहट चले साथ में...चूड़ी, पायल, झुमके...सब हँसें हौले हौले...तुम्हारे लिए खींचूँ कुएँ से बाल्टी भर पानी कि तुम जल्दी से हाथ मुँह धो लो। पीढ़ा लगा दूँ तुम्हारे बैठने को और दोपहर का खाना परोस दूँ तुम्हें। भात, भुजा हुआ राहर का दाल, चोखा, बैगन का बचका और पापड़। तुम हाथ पकड़ लो तो चूड़ियाँ खिलखिलाने लगें फिर से। साथ में कौर खिलाना चाहो तुम। मैं बस, 'धत्तेरी के, बौरा गए हो का...देख लेगा कोई' कह सकूँ।तुम साइकिल पर बिठा कर ले जाओ मुझे आम का बग़ीचा दिखाने। टिकोला खिलाने। मैं सूती साड़ी के आँचल से खोलूँ नमक की ढेली। तुम पॉकेट से निकालो ब्लेड। नहर किनारे बैठ कर टिकोला कुतरते हुए हम झगड़ें हमारे होने वाले बच्चों के नाम पर। तुम्हें मालूम भी है अजन्मे बच्चे किस तरह कचोटते हैं सीने में। तुम तो बस इसे हँसी और लाड़ ही समझोगे। या कि तुम भी जितना महसूसते हो उसका छटाँक भर भी कह नहीं पाते। ये चाहती हूँ मैं। मुझसे मत पूछो कि मैं अकेली हूँ या कि उदास हूँ और तुम्हारे लौट आने की कल्पनाएँ बुनती हूँ। तुम्हें मालूम भी नहीं कि मैं क्या क्या कल्पनाएँ बुनती हूँ। सुनो। इतने दूर देश से लौटते हुए क्या ला रहे हो मेरे लिए तुम?***मौसम बहुत अच्छा था। पीलापन लिए शाम थी और हवा में खुनक। आज मैं बहुत देर घर पर रही और ये सोचा कि शाम गहराने दूँगी और घर की बत्तियाँ ऑन नहीं करूँगी। मैंने बहुत दिनों से रात को आते नहीं देखा है। शाम होते ही लाइट्स जला देती हूँ। सिगरेट की तलब हो रही थी लेकिन उसका कसैला स्वाद मेरी शाम के रंग चुरा लेता, इसलिए सिगरेट नहीं पी। वर्क टेबल पर बैठ कर आसमान देखा लेकिन लगा कि आज छत पर जाना चाहिए। शाम का पीलापन सुनहला और चमकदार था। बाद थोड़ी ही देर में ये धूसर और उदास हो जाता। मैंने अपना कैमरा निकाला और घर में ताला लगा कर छत पर चली गयी। आसमान बहुत ख़ूबसूरत था। गहरा नारंगी और लाल। पीला और धूसर। बहुत से शेड्स थे लाल के। बादलों का आना जाना भी जारी था। मैंने मूड के मुताबिक़ कुछ ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें खींचीं। छत के पेंट्हाउस के ऊपर वाली छत पर जाने के लिए एक छोटी सी लोहे की सलाखों वाली सीढ़ी है। मैं उससे ऊपर चली गयी। ये इस इलाक़े की सबसे ऊँची छत है। यहाँ से बहुत दूर का दिख जाता है। फिर इस छत पर कोई आता भी नहीं। बहुत देर तक और भी तस्वीरें खींची। शाम गहराने लगी तो फिर तस्वीर खींचने का मतलब नहीं था। सब ग्रेनी आता और क्लीन अप भी नहीं होता हमसे। आज ठंढी हवा इतनी ख़ूबसूरत चल रही थी कि बस। कल बुधवार है। बाल धो लेने का दिन। तो बस। परसों मूसलाधार बारिश हुयी है तो आज छत एकदम साफ़ थी। जैसे किसी ने बुहार दिया हो। मैं छत पर लेट गयी। एक सेकंड को सोचा कि योगा मैट ले आना चाहिए था। या कोई चादर या चटाई होती तो अच्छा लगता। मगर फिर इन चीज़ों पर ध्यान नहीं गया। किसी भी फ़र्श पर बैठने या लेटने का अपना सुख होता है। छत के इर्द गिर्द तीन फ़ीट की बाउंड्री है तो निश्चिन्त थी कि मुझे कोई देख नहीं सकता। मौसम गर्म है इन दिनों तो छत तपी हुयी थी और हल्की गर्माहट थी फ़र्श में। मैंने बाहें खोल रखी थीं। बाल लम्बे और घने होने का फ़ायदा ये है कि कड़ा हो फ़र्श तो भी चुभता नहीं है। हल्की हल्की हवा चल रही थी कि जो ठंढी थी। तपी हुयी ज़मीन की गर्माहट और हवा की ठंढ। हल्के हल्के बाल उड़ रहे थे हवा में। मैं देर तक बादलों को देखती रही। उनका आसमान में इधर उधर भागना। रात के गहराते हुए उनका रंग घुल कर सियाह होना। सब। हवा। जैसे पूरी दुनिया का अँधेरा इकट्ठा कर मेरी आँखों में सहेज देना चाहती थी। हर बार जब आँखों से गुज़रती, सब कुछ एक शेड और डार्क हुआ जाता। अँधेरा मेरे इर्द गिर्द जमा होता रहा। मैं अंधेरे में फ़्लोट कर रही थी। मेरा दिल किया कि मैं झूठ झूठ किसी को फ़ोन कर के कह दूँ। मेरा शहर बहुत याद करता है तुम्हें। और कि मुझे इश्क़ है तुमसे। बेतरह। कि तुम अपने शहर के आसमान का एक टुकड़ा मेरे नाम लिख दो प्लीज़...कि जानां, मेरे शहर में तो पूरा आसमान तुम्हारा ही है। खुले आसमान के नीचे, छत पर बाल बिखेरे सोयी हुयी इस पागल लड़की के दिल की तरह, सब तुम्हारा ही है। घर लौटी तो सारे कमरे अंधेरे थे। वर्क टेबल पर रखे ज़रबेरा के फूल काले अंधेरे के आगे कांट्रैस्ट में बहुत ख़ूबसूरत लग रहे थे। तुम्हारे वीतराग के सियाह बैक्ग्राउंड में मेरा गहरा लाल इश्क़। सुनो। इस तस्वीर में रंग मत तलाशना। ना मेरे शब्दों में इज़हार। कि तुम तो जानते ही हो, कि सब फ़रेब है जानां। फिर भी। इश्क़ तुमसे। तुम से ही।***मैंने तुम्हें सुना है। इंतज़ार की तरह।अपने फ़ेवरिट गाने में बोल शुरू होने के पहले बजते इन्स्ट्रमेंटल संगीत के ख़त्म होने के इंतज़ार की तरह। बहुत देर की चुप्पी के बाद की कविता की तरह। मैं तुम्हें सुनना चाहती हूँ। देर तक। अविराम। साँस की तरह। लय में। नियमित। और यक़ीन के साथ। कि तुम्हारी आवाज़ इस बात का सबूत हो कि मैं ज़िंदा हूँ। बारिश हवा को थका देती है। कितना पानी अपने साथ लिए कितने शहर भिगोना पड़ता है उसे। हवा हौले हौले मेरे घर के किवाड़ खटखटा रही है। उसे सुस्ताने के लिए बहुत सी घंटियों वाली विंडचाइम चाहिए ऐसा उसने कहा है। मैं हवा को सुनती हूँ। तुम्हारी आवाज़ की अनुगूँज लिए हुए।वर्क टेबल पर एक सफ़ेद लिली है जो अभी खिलेगी एक आध दिन में। तीन ज़रबेरा हैं। दो पीले, एक सफ़ेद। उनके पीछे का आसमान थोड़ा पीलापन लिए है...मगर ये पीलापन ऐसा नहीं है कि आसमान का रंग है...ऐसा कि रोशनी पीली है। सब कुछ एक पीलेपन में सरगत है...सराबोर है...डूबा हुआ है। मैं बहुत दिन बाद किसी की याद में कोल्ड्प्ले का गीत गाना चाहती हूँ। येलो। अँधेरा गिर नहीं रहा। इर्द गिर्द बह रहा है। लपेट रहा है मुझे। जैसे कोई काली शॉल हो। जाड़े के दिनों में। कम्फ़र्टिंग। मैं अपने इर्द गिर्द थोड़ा अँधेरा समेटती हूँ। अपने दिल में थोड़ी जगह बनाती हूँ, अंधेरे के लिए। घर की लाइट्स नहीं जलायी हैं। मैं सब कुछ अँधेरा होना महसूसना चाहती हूँ। फिर मैं तुम्हारा नाम लूँगी। और आइने में देखूँगी कि आँखों में कितनी चमक आती है।
या कि बजता है रात की चुप्पी में कौन सा राग ही।
'क्यूँ? मेरे बाल धोने से टेक्टानिक प्लेट्स में हलचल होती है? भूकम्प आते हैं?'
'नहीं। ईमान डोलता है। वो भूकम्प से ज़्यादा ख़तरनाक है'
'है तो सही'
'क्या लगाती हो तुम बालों में आख़िर? कौन सा शैंपू है ये?'
अब उसे कौन बताए कि लड़की कोई साधारण लड़की तो है नहीं, मेरी कहानी का किरदार है। उसकी रगों में इत्र दौड़ता है। चाँद से मीठी। प्यास सी तीखी। रूद्र की इतरमिश्री। मेरी इतरां।
इतरां मुस्कुरायी और बालों से जूड़ा पिन निकाला। उसके कमर तक लम्बे बाल हवा में झूम गए। इतरां अपना चेहरा लड़के के एकदम क़रीब लायी, एक बदमाश लट उसके गालों में गुदगुदी करने लगी। हौले से इतरां ने उसके कानों में कहा...
'शैंपू नहीं मेरी जान, अफ़ीम...मेरे बालों से अफ़ीम की गंध उड़ती है'।***
ये दिन ख़तरनाक हैं। 'प्यार', 'प्रेम', 'इश्क़' जैसे शब्दों का मनमाना इस्तेमाल कर रही हूँ कि जैसे ना ये शब्द ख़त्म होंगे, ना मेरे दिल में प्रेम। एक स्त्री का हृदय अक्षयपात्र था। उसमें प्रेम कभी ख़त्म नहीं होता। कभी कभी वह भूखी सो जाती क्यूँकि उसकी इच्छा नहीं होती एक चुम्बन चखने की भी। लेकिन कभी कभी वह दोनों हाथों से प्रेम उलीचती। उसकी छोटी छोटी हथेलियों में कितना ही प्रेम आ सकता...उसके छोटे से हृदय में कितना अपार प्रेम था। समंदर जितना। इन दिनों मैं वह औरत हुयी जाती हूँ। इन दिनों प्रेम और मैं अलग नहीं...इन दिनों भय को निष्कासित कर दिया गया है उदास और तनहा रेगिस्तान में। इन दिनों कोई नहीं है और बहुत लोग हैं। इन दिनों, मैं वो उजड़ा हुआ गाँव हूँ जहाँ आवाज़ें रह गयी हैं। ख़ाली मकान रह गए हैं। इन दिनों, मौसम बहुत ख़ूबसूरत है और मेरी आत्मा उदार। जानां, चले आओ कि शायद ये मेरे जीवन का आख़िरी वसंत है।***उदास रातों में धूप के उस दिन की चमकीली याद...कि क्यूँ ना याद आए तुम्हारी...हाँ चाह रही हूँ मैं, कि लौट आओ तुम, देहरी पर देखूँ तुम्हें, खींचूँ आँचल माथे पर, घूँघट के अंदर मुसकाऊँ...दौड़ के जाऊँ जब लाने तुम्हारे लिए सुराही का ठंढा, सोन्हा पानी तो साथ नन्हीं आवाज़ों की एक खिलखिलाहट चले साथ में...चूड़ी, पायल, झुमके...सब हँसें हौले हौले...तुम्हारे लिए खींचूँ कुएँ से बाल्टी भर पानी कि तुम जल्दी से हाथ मुँह धो लो। पीढ़ा लगा दूँ तुम्हारे बैठने को और दोपहर का खाना परोस दूँ तुम्हें। भात, भुजा हुआ राहर का दाल, चोखा, बैगन का बचका और पापड़। तुम हाथ पकड़ लो तो चूड़ियाँ खिलखिलाने लगें फिर से। साथ में कौर खिलाना चाहो तुम। मैं बस, 'धत्तेरी के, बौरा गए हो का...देख लेगा कोई' कह सकूँ।तुम साइकिल पर बिठा कर ले जाओ मुझे आम का बग़ीचा दिखाने। टिकोला खिलाने। मैं सूती साड़ी के आँचल से खोलूँ नमक की ढेली। तुम पॉकेट से निकालो ब्लेड। नहर किनारे बैठ कर टिकोला कुतरते हुए हम झगड़ें हमारे होने वाले बच्चों के नाम पर। तुम्हें मालूम भी है अजन्मे बच्चे किस तरह कचोटते हैं सीने में। तुम तो बस इसे हँसी और लाड़ ही समझोगे। या कि तुम भी जितना महसूसते हो उसका छटाँक भर भी कह नहीं पाते। ये चाहती हूँ मैं। मुझसे मत पूछो कि मैं अकेली हूँ या कि उदास हूँ और तुम्हारे लौट आने की कल्पनाएँ बुनती हूँ। तुम्हें मालूम भी नहीं कि मैं क्या क्या कल्पनाएँ बुनती हूँ। सुनो। इतने दूर देश से लौटते हुए क्या ला रहे हो मेरे लिए तुम?***मौसम बहुत अच्छा था। पीलापन लिए शाम थी और हवा में खुनक। आज मैं बहुत देर घर पर रही और ये सोचा कि शाम गहराने दूँगी और घर की बत्तियाँ ऑन नहीं करूँगी। मैंने बहुत दिनों से रात को आते नहीं देखा है। शाम होते ही लाइट्स जला देती हूँ। सिगरेट की तलब हो रही थी लेकिन उसका कसैला स्वाद मेरी शाम के रंग चुरा लेता, इसलिए सिगरेट नहीं पी। वर्क टेबल पर बैठ कर आसमान देखा लेकिन लगा कि आज छत पर जाना चाहिए। शाम का पीलापन सुनहला और चमकदार था। बाद थोड़ी ही देर में ये धूसर और उदास हो जाता। मैंने अपना कैमरा निकाला और घर में ताला लगा कर छत पर चली गयी। आसमान बहुत ख़ूबसूरत था। गहरा नारंगी और लाल। पीला और धूसर। बहुत से शेड्स थे लाल के। बादलों का आना जाना भी जारी था। मैंने मूड के मुताबिक़ कुछ ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें खींचीं। छत के पेंट्हाउस के ऊपर वाली छत पर जाने के लिए एक छोटी सी लोहे की सलाखों वाली सीढ़ी है। मैं उससे ऊपर चली गयी। ये इस इलाक़े की सबसे ऊँची छत है। यहाँ से बहुत दूर का दिख जाता है। फिर इस छत पर कोई आता भी नहीं। बहुत देर तक और भी तस्वीरें खींची। शाम गहराने लगी तो फिर तस्वीर खींचने का मतलब नहीं था। सब ग्रेनी आता और क्लीन अप भी नहीं होता हमसे। आज ठंढी हवा इतनी ख़ूबसूरत चल रही थी कि बस। कल बुधवार है। बाल धो लेने का दिन। तो बस। परसों मूसलाधार बारिश हुयी है तो आज छत एकदम साफ़ थी। जैसे किसी ने बुहार दिया हो। मैं छत पर लेट गयी। एक सेकंड को सोचा कि योगा मैट ले आना चाहिए था। या कोई चादर या चटाई होती तो अच्छा लगता। मगर फिर इन चीज़ों पर ध्यान नहीं गया। किसी भी फ़र्श पर बैठने या लेटने का अपना सुख होता है। छत के इर्द गिर्द तीन फ़ीट की बाउंड्री है तो निश्चिन्त थी कि मुझे कोई देख नहीं सकता। मौसम गर्म है इन दिनों तो छत तपी हुयी थी और हल्की गर्माहट थी फ़र्श में। मैंने बाहें खोल रखी थीं। बाल लम्बे और घने होने का फ़ायदा ये है कि कड़ा हो फ़र्श तो भी चुभता नहीं है। हल्की हल्की हवा चल रही थी कि जो ठंढी थी। तपी हुयी ज़मीन की गर्माहट और हवा की ठंढ। हल्के हल्के बाल उड़ रहे थे हवा में। मैं देर तक बादलों को देखती रही। उनका आसमान में इधर उधर भागना। रात के गहराते हुए उनका रंग घुल कर सियाह होना। सब। हवा। जैसे पूरी दुनिया का अँधेरा इकट्ठा कर मेरी आँखों में सहेज देना चाहती थी। हर बार जब आँखों से गुज़रती, सब कुछ एक शेड और डार्क हुआ जाता। अँधेरा मेरे इर्द गिर्द जमा होता रहा। मैं अंधेरे में फ़्लोट कर रही थी। मेरा दिल किया कि मैं झूठ झूठ किसी को फ़ोन कर के कह दूँ। मेरा शहर बहुत याद करता है तुम्हें। और कि मुझे इश्क़ है तुमसे। बेतरह। कि तुम अपने शहर के आसमान का एक टुकड़ा मेरे नाम लिख दो प्लीज़...कि जानां, मेरे शहर में तो पूरा आसमान तुम्हारा ही है। खुले आसमान के नीचे, छत पर बाल बिखेरे सोयी हुयी इस पागल लड़की के दिल की तरह, सब तुम्हारा ही है। घर लौटी तो सारे कमरे अंधेरे थे। वर्क टेबल पर रखे ज़रबेरा के फूल काले अंधेरे के आगे कांट्रैस्ट में बहुत ख़ूबसूरत लग रहे थे। तुम्हारे वीतराग के सियाह बैक्ग्राउंड में मेरा गहरा लाल इश्क़। सुनो। इस तस्वीर में रंग मत तलाशना। ना मेरे शब्दों में इज़हार। कि तुम तो जानते ही हो, कि सब फ़रेब है जानां। फिर भी। इश्क़ तुमसे। तुम से ही।***मैंने तुम्हें सुना है। इंतज़ार की तरह।अपने फ़ेवरिट गाने में बोल शुरू होने के पहले बजते इन्स्ट्रमेंटल संगीत के ख़त्म होने के इंतज़ार की तरह। बहुत देर की चुप्पी के बाद की कविता की तरह। मैं तुम्हें सुनना चाहती हूँ। देर तक। अविराम। साँस की तरह। लय में। नियमित। और यक़ीन के साथ। कि तुम्हारी आवाज़ इस बात का सबूत हो कि मैं ज़िंदा हूँ। बारिश हवा को थका देती है। कितना पानी अपने साथ लिए कितने शहर भिगोना पड़ता है उसे। हवा हौले हौले मेरे घर के किवाड़ खटखटा रही है। उसे सुस्ताने के लिए बहुत सी घंटियों वाली विंडचाइम चाहिए ऐसा उसने कहा है। मैं हवा को सुनती हूँ। तुम्हारी आवाज़ की अनुगूँज लिए हुए।वर्क टेबल पर एक सफ़ेद लिली है जो अभी खिलेगी एक आध दिन में। तीन ज़रबेरा हैं। दो पीले, एक सफ़ेद। उनके पीछे का आसमान थोड़ा पीलापन लिए है...मगर ये पीलापन ऐसा नहीं है कि आसमान का रंग है...ऐसा कि रोशनी पीली है। सब कुछ एक पीलेपन में सरगत है...सराबोर है...डूबा हुआ है। मैं बहुत दिन बाद किसी की याद में कोल्ड्प्ले का गीत गाना चाहती हूँ। येलो। अँधेरा गिर नहीं रहा। इर्द गिर्द बह रहा है। लपेट रहा है मुझे। जैसे कोई काली शॉल हो। जाड़े के दिनों में। कम्फ़र्टिंग। मैं अपने इर्द गिर्द थोड़ा अँधेरा समेटती हूँ। अपने दिल में थोड़ी जगह बनाती हूँ, अंधेरे के लिए। घर की लाइट्स नहीं जलायी हैं। मैं सब कुछ अँधेरा होना महसूसना चाहती हूँ। फिर मैं तुम्हारा नाम लूँगी। और आइने में देखूँगी कि आँखों में कितनी चमक आती है।
या कि बजता है रात की चुप्पी में कौन सा राग ही।
Published on December 04, 2017 21:34
November 23, 2017
ये सातवाँ था ब्रेक-अप और बारवीं मुहब्बत, दिल तोड़ने की तौबा मशीन हो रहे हो
ग़ुस्ताख़ हो रहे हो रंगीन हो रहे हो सारी हिमायतों की तौहीन हो रहे हो
वो और होते होंगे बस हैंडसम से लड़के तुम हैंडसम नहीं रे हसीन हो रहे हो
होठों पे जो अटकी है आधी हँसी तुम्हारीचक्खेंगे हम भी तुमको नमकीन हो रहे हो
ये सातवाँ था ब्रेक-अप और बारवीं मुहब्बत दिल तोड़ने की तौबा मशीन हो रहे हो
इतनी अदा कहाँ से तुम लाए हो चुरा के इतना नशा कहाँ पे तुम आए हो लुटाते छू लें तो जल ही जाएँ उफ़, इतने हॉट हो तुम हों दो मिनट में आउटटकीला शॉट हो तुम
थोड़ा रहम कहीं से अब माँग लो उधारी वरना तो मेरे क़ातिललो जान तुझपे वारी अब जान का मेरी तुमचाहे अचार डालो हम फ़र्श पे गिरे हैंपहले हमें उठा लो
इतना ज़रा बता दोतुम्हें पूरा भूल जाएँ या दोस्ती के बॉर्डर पर घर कोई बनाएँ लेकिन सुनो उदासी तुमपर नहीं फबेगीकल देखना कोई फिरअच्छी तुम्हें लगेगी
तुम फिर से रंग चखना तुम फिर अदा से हँसना दिल तोड़ना कोई फिर और ज़ख़्म भर टहकना तुम इक नया शहर फिरहोना कभी कहीं पर हम फिर कभी मिलेंगे आँखों में ख़्वाब भर कर
अफ़सोस की गली की कोठी वो बेच कर के लाना बुलेट नयी फिर घूमेंगे हम रगड़ केग़ालिब का शेर बकना विस्की में चूर हो के कहना दुखा था कितनायूँ हमसे दूर हो के
इस बार पर ठहरना जैसे कि बस मेरे हो मन, रूह या बदन फिर कोई जगह रुके हो हम फिर कहेंगे तुमसे ग़ुस्ताख़ हो गए हो तुम चूम के चुप करना और कहना तुम मेरे हो
वो और होते होंगे बस हैंडसम से लड़के तुम हैंडसम नहीं रे हसीन हो रहे हो
होठों पे जो अटकी है आधी हँसी तुम्हारीचक्खेंगे हम भी तुमको नमकीन हो रहे हो
ये सातवाँ था ब्रेक-अप और बारवीं मुहब्बत दिल तोड़ने की तौबा मशीन हो रहे हो
इतनी अदा कहाँ से तुम लाए हो चुरा के इतना नशा कहाँ पे तुम आए हो लुटाते छू लें तो जल ही जाएँ उफ़, इतने हॉट हो तुम हों दो मिनट में आउटटकीला शॉट हो तुम
थोड़ा रहम कहीं से अब माँग लो उधारी वरना तो मेरे क़ातिललो जान तुझपे वारी अब जान का मेरी तुमचाहे अचार डालो हम फ़र्श पे गिरे हैंपहले हमें उठा लो
इतना ज़रा बता दोतुम्हें पूरा भूल जाएँ या दोस्ती के बॉर्डर पर घर कोई बनाएँ लेकिन सुनो उदासी तुमपर नहीं फबेगीकल देखना कोई फिरअच्छी तुम्हें लगेगी
तुम फिर से रंग चखना तुम फिर अदा से हँसना दिल तोड़ना कोई फिर और ज़ख़्म भर टहकना तुम इक नया शहर फिरहोना कभी कहीं पर हम फिर कभी मिलेंगे आँखों में ख़्वाब भर कर
अफ़सोस की गली की कोठी वो बेच कर के लाना बुलेट नयी फिर घूमेंगे हम रगड़ केग़ालिब का शेर बकना विस्की में चूर हो के कहना दुखा था कितनायूँ हमसे दूर हो के
इस बार पर ठहरना जैसे कि बस मेरे हो मन, रूह या बदन फिर कोई जगह रुके हो हम फिर कहेंगे तुमसे ग़ुस्ताख़ हो गए हो तुम चूम के चुप करना और कहना तुम मेरे हो
Published on November 23, 2017 22:30
November 20, 2017
तुम मुझसे किसी कहानी में मिलोगे कभी?
वैसे तो पेज पर कभी भी सच का कुछ एकदम नहीं लिखती हूँ। लेकिन कभी कभी लगता है कि सकेर देने के लिए और कोई भी जगह नहीं है मेरे पास। तो वैसे में। एक मुट्ठी सच यहीं रख देती हूँ।
कुछ महीनों पहले, ऐसे ही एक रैंडम सी शाम में एक लड़के से मिली थी। कुछ बातें की, थोड़ी कॉफ़ी पी और थोड़ा वक़्त साथ में बिताया। कल Coke Studio पर कोई गाना सुन रही थी। ऑटोप्ले में 'रंजिश ही सही' बजने लगा अगला...ये हमने उस दिन ऐसे ही गुनगुनाया था और एक लाइन पर अटक गए थे। याद ही नहीं आ रहा था कि कौन सी लाइन है। कल इसे सुनते हुए उसकी याद आयी।
रात आधी गुज़र गयी थी। Whatsapp पर मेसेज भेजा उसे। एक सुंदर कविता की कुछ पंक्तियाँ।
बात में यूँ ही बात हुयी तो उसने कहा, बात किया करो, ख़ुश रहोगी...मैंने कहा, वक़्त है तुम्हारे पास...
उसने जवाब दिया, 'वक़्त ही वक़्त है...हक़ से माँग कर देखो...माँगने वाले नहीं हैं।'
***
मुझे ये बात बहुत उदास कर गयी। इसकी दो सच्चाइयों के कारण। पहली ये कि मैं कभी किसी से हक़ से कुछ माँगती नहीं। किसी से भी नहीं। परिवार से नहीं। दोस्तों से नहीं। पति से भी नहीं। बेस्ट फ़्रेंड से भी नहीं। जब से माँ नहीं रही, मैंने हक़ से किसी से तो क्या ईश्वर से भी कभी कुछ नहीं माँगा। 'हक़' क्या होता है। कैसे जताते हैं हक़ किसी पर?
'माँगने वाले लोग नहीं हैं'। ये भी उतना ही सच है। मैंने देखा है, कभी कभी कोई कुछ इतने प्यार और अधिकार से माँग लेता है कि मना करने को एकदम दिल नहीं करता। छोटी छोटी चीज़ें जो नॉर्मली एकदम से मेरा दिमाग़ ख़राब कर देती हैं...जैसे कि कोई मुझे दीदी कहता है तो अधिकतर मुझे ग़ुस्सा आता है...लेकिन एक बार किसी एकदम ही रैंडम से लड़के ने सीधे जिज्जी ही कहा था...उसके उस अनाधिकार पर भी ग़ुस्सा नहीं आया। पता नहीं क्यूँ। शायद ईमानदारी से कहा होगा। शायद शब्द सही रहे होंगे। ठीक नहीं मालूम। पर उसे टोका नहीं। डाँटा नहीं।
ऐसे ही एक लड़की थी...मालूम नहीं कितने साल पहले...मगर उसने अधिकार जताया था...मेरी धूप पर, मेरी छांव पर, मेरे दुःख पर, मेरी यादों पर...और मैंने कहीं भी उसके लिए दरवाज़े बंद नहीं किए थे। ऐसी एक लड़की। थी।
मुझे माँगने में बहुत हिचक होती है। बहुत ज़्यादा। मरती रहूँगी लेकिन एक अंजुली जल नहीं माँगूँगी किसी से। एक शब्द से बुझेगी प्यास लेकिन कहूँगी नहीं किसी से। किसी किसी शाम बस इतना लगेगा कि दुनिया बहुत बेरहम है। कि जो लोग हमेशा ख़ुद को उलीचते रहते है वे कभी कभी एकदम ही ख़ाली हो जाते हैं। तो, ओ री दुनिया, मेरे हिस्से में भी तो थोड़ा प्यार रख।
फिर कभी कभी ऐसा रैंडम सा कोई होता है। कहता है, कैसे तो, हक़ से क्यूँ नहीं माँगती तुम। मुझे याद आते हैं बहुत से शब्द। दिल का गहरा ज़ख़्म भरता है। शब्द के कुएँ में प्यार भी।
***
मैं ऊनींदे होती हूँ जब उसका फ़ोन आता है। रात के ढाई बज रहे हैं।फ़ोन की स्क्रीन पर उसकी तस्वीर है। फ़ुल लेंथ। वो मुस्कुरा रहा है। मुझे लगता है फ़ोन की स्क्रीन छूने से मैं छू लूँगी उसको। मैं तकलीफ़ के अतल कुएँ में हूँ। सोचती हूँ उसका फ़ोन उठाऊँ या नहीं। लेकिन फिर रहा नहीं जाता।
मैं नींद में उलझी, नाम लेती हूँ उसका, 'सुनो, मैं सो चुकी हूँ।'। उसकी आवाज़ कोई थपकी है। माथे पर चूमा जाना है। उसकी आवाज़ उसका मेरे क़रीब होना है।
***
उसको मालूम नहीं है। पर उसने मुझे उस रात की मृत्यु से बचा लिया है। मैं अपनी बेस्ट फ़्रेंड को कहती हूँ। मेरा उसे 'फ़रिश्ते' बुलाने का मन करता है।
***
ज़िंदगी के किरदार सारे झूठे हैं।
सच सिर्फ़ कहानियों में मिलता है।
तुम मुझसे किसी कहानी में मिलोगे कभी?
Published on November 20, 2017 22:53
November 14, 2017
प्यारे बॉलीवुड, हम लड़कियों के लिए भी कुछ गाने लिख दो, हम भी तो इश्क़ करते हैं
आज शाम एक अजीब समस्या की तरफ़ ध्यान गया। “हिंदी फ़िल्मों में लड़कों के ऊपर गाने बहुत ही कम बने हैं”। ये आर्टिकल किसी बहुत ज़्यादा रीसर्च पर बेस कर के नहीं लिख रही हूँ, अपनी समझ और एक पूरी शाम और रात भर गाने याद से और गूगल से और यूट्यूब से तलाशने के बाद लिख रही हूँ। हिंदी गाने बचपन से सुनती आयी हूँ, उसमें भी ऐसा नहीं कि सिर्फ़ अपनी जेनरेशन के, पापा को गानों का इतना शौक़ था कि घर में दो टेप रिकॉर्डर रहते थे। उसमें से एक में एक ब्लैंक कैसेट हमेशा cue कर के रखा रहता था कि कहीं भी अच्छा गाना आए, चाहे वो कोई टीवी सीरियल हो, रेडीओ का कोई प्रोग्राम हो या ऐसे ही टीवी पर आता कुछ भी हो। ये गूगल और Shazam से बहुत पहले की बात है। उन दिनों कोई गाना अगर खो गया तो बस एक अधूरी धुन ही गुनगुनाहट में रह पाएगी, बस। वो धुन कभी ज़िंदगी में दुबारा मिलेगी, इसमें भी शक था। मेरी बचपन की सबसे ख़ुशनुमा यादों में वो इतवार के दिन हैं जब पापा टेप रिकॉर्डर निकालते थे और कोई पुराना कैसेट बजाते थे। कोई रेकर्ड किया हुआ कैसेट होता था तो उसमें रेकर्ड हुए गानों की लिस्ट उस कैसेट के ऊपर के कवर पर लिखते थे। ज़ाहिर सी बात है, बचपन से बड़े होने तक बहुत बहुत सारे गाने सुनते रहे। सिर्फ़ अपने जेनरेशन के ही नहीं, पापा के और मम्मी के जेनरेशन के भी। देवानंद दोनों के फ़ेवरिट थे, शम्मी कपूर हम सबके फ़ेवरिट थे, विश्वजीत माँ को बहुत अच्छा लगता था। इसके अलावा ग़ज़ल वग़ैरह जो सुनते आए सो तो थे ही थे। अंत्याक्षरी में हम अकेले कई कई लोगों की टीम को हमेशा हरा दे सकने लायक गानों का शब्दकोश हुआ करते थे। घर छूटा। आगे पढ़ाई के लिए दिल्ली। यहीं आ कर पहली बार नोकिया के फ़ोन और fm रेडीओ से रिश्ता जुड़ा। फिर तो सारे लेटेस्ट गाने हमेशा ही सुनते रहते थे। पुराने गानों के सिवा। हम इतना बैक्ग्राउंड इसलिए दे रहे हैं कि हम बिलकुल बॉलीवुड और हिंदी फ़िल्मों में डूबे हुए पले बढ़े हैं।
इसके अलावा छह साल शास्त्रीय संगीत सीखे हैं, जिसको वहाँ हिंदुस्तानी संगीत कहते थे। कहने का मतलब, गला मीठा हुआ करता था और घर पे लोग बाग़ जुटते थे या पिकनिक वग़ैरह हुआ तो हमेशा फ़रमाइशी गाने भी ख़ूब गए हैं। इसके अलावा लड़कपन और जवानी में जब प्यार मुहब्बत हुयी है तो घर में रोज़ शाम को कोई ना कोई गाना गाने की आदत हमेशा रही ही। मूड के हिसाब से। नया प्यार हुआ है तो ख़ुश वाले गाने, दिल टूटा है तो बस उदास, दर्द भरे नग़मे। ‘जब दिल ही टूट गया टाइप’। जिसको भी गाने का शौक़ रहता है, उसकी पसंद के कुछ फ़ेवरिट गाने हमेशा रहते हैं, ये गाने अक्सर उन गीतों से चुने जाते हैं कि जो उसके जेंडर का हो, जैसे मैं फ़ीमेल वोकल वाले गाने चुनती थी। ये तो हुयी ख़ुद के गाने की बात, फिर है कि ईश्वर की दया और जीन्स के सही चुनाव के कारण उम्र भर ख़ूबसूरत भी रहे हैं और इश्क़ वग़ैरह में भी कभी पीछे नहीं हटे। तो इस सिलसिले में कई मौक़ों पर बड़े ख़ूबसूरत और ज़हीन लड़कों ने हमको इम्प्रेस करने के लिए एक से एक गाने गए हैं। चाहे घर में शादी ब्याह का माहौल हो और दीदी के देवर लोग आए हों कि किसी नयी पार्टी में युगल गीत गाने की कोई बात चल जाए। हँसी ख़ुशी के माहौल में गाने अक्सर रोमांटिक ही गए जाते थे, ख़ुशी वाले। कई बार हुआ है कि गानों की कोई लाइन गाते हुए कोई किसी ख़ास तरीक़े से हमको देख कर मुस्कुराया हो, भरी महफ़िल से नज़र बचा कर। हम समझ गए हैं कि गीत के बोल भले लिखे किसी और ने हैं, इशारा सारा हमारी ओर है। हिंदी फ़िल्मों में चाँद पर गाने भी इतने हैं कि ख़ुद को कभी चाँद से कम ज़मीन पर समझे ही नहीं हम।
आज अचानक बात बहुत छोटी सी हुयी। एक दोस्त ने Whatsapp पर अपनी एक फ़ोटो भेजी। लड़का एक तो हैंडसम है, ड्रेसिंग सेन्स अच्छी है, फिर उसपर अदा बहुत है उसमें। जाड़ों के दिन हैं तो लम्बा ओवरकोट, गले में क़रीने से डाला हुआ मफ़लर। बेख़याली में खींची हुई तस्वीर थी, नीचे पता नहीं क्या तो देख रहा था। हल्की सी मुस्कान अटकी हुयी थी होठों की कोर पर। सब कुछ ही फ़ब रहा था उसपर। पर्फ़ेक्ट फ़ोटो थी। लेकिन whatsapp जैसे मीडीयम पर किसी की तारीफ़ में इतना क्या ही भाषण लिखेंगे। तो लगा कोई अच्छा गाना हो तो एक लाइन गुनगुना दें और क़िस्सा तमाम हो जाए। कुछ देर सोचने के बाद भी जब कोई गाने की लाइन नहीं याद आयी तो तस्वीर को दुबारा देखा…कि बौरा तो नहीं गए हैं कि कुछ सूझ ही नहीं रहा। दुबारा देखने पर ऐसा कुछ नहीं लगा, हम ईमानदारी से किसी की ख़ूबसूरती को देख कर एक अच्छा सा गाना गा देना चाहते थे। बस। थोड़ा शो-ऑफ़ भी करने को, कि देखो हम कितना अच्छा गाते हैं टाइप। बस इतना। हमारे इरादे एकदम नेक थे। ऐसी ख़ुशकिस्मती मेरी कई बार रही है कि ज़रा सा भी अच्छे तैयार होने पर कॉम्प्लिमेंट में कोई ना कोई गाना मिला ही है।
लेकिन कोई गाना याद नहीं आया। गूगल पर सर्च किए, ‘बेस्ट फ़ीमेल हिंदी सोंग्स औफ़ ऑल टाइम’। इसमें बहुत से नए गाने थे, और कोई भी अच्छे नहीं थे। अपनी याद के हिसाब से आशा भोंसले के गाए हुए गीतों को दिमाग़ में छान मारा। फिर गूगल पर देखा। अब तक दिमाग़ ख़राब हो चुका था कि फ़ीमेल सोलो आख़िर किन विषयों पर गए जाते हैं। फिर दूसरा ख़याल ये भी आया कि बॉलीवुड में गीतकार सारे पुरुष रहे हैं। कोई एक नाम भी नहीं है कि किसी स्त्री ने बहुत से अच्छे गाने लिखे हों। फिर लगा कि शायद मेरी जानकारी सही नहीं हो, मुझे वैसे भी बहुत ज़्यादा नाम याद नहीं रहते। गूगल ने लेकिन मेरे शक की पुष्टि की। फ़ीमेल आवाज़ में गाए गए कुछ बहुत अच्छे गाने तो हमेशा से याद भी थे कि बचपन से ख़ूब गाया है उन्हें। याद करके गानों की लिस्ट निकाली तो देखा कि ना केवल पुरुष औरतों की ख़ूबसूरती के बारे में गाना गाते हैं, बल्कि औरतें भी औरतों की ख़ूबसूरती के बारे में ही गा रही हैं। उदाहरण स्वरूप - ‘इन आँखों की मस्ती के परवाने हज़ारों हैं’, ‘बिजली गिराने मैं हूँ आयी, कहते हैं मुझको, हवा हवाई’, ‘मेरा नाम चिन चिन चू’। इसके अलावा जो दूसरा भाव फ़ीमेल वोकल में सुनने को मिलता है वो औरत के ख़यालों या अरमानों के बारे में होता है। एक स्टेटमेण्ट जैसे कि, 'ऐ ज़िंदगी गले लगा ले’, ‘आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’, ‘कई बार यूँ भी देखा है’, ‘चली रे, चली रे, जुनूँ को जिए’, ‘लव यू ज़िंदगी’, ‘धुनकी लागे' इत्यादि। ऐसा इसलिए कि ये सारे गाने पुरुषों ने लिखे हैं, उन्हें लगता है कि औरत या तो अपनी ख़ूबसूरती के बारे में सोच रही है, ‘सजना है मुझे, सजना के लिए’ जैसे गीतों में या कि ज़िंदगी के बारे में और अपनी भावनाओं के बारे में सोच रही है। उन्हें ये शायद समझ नहीं आता है कि कोई लड़की लड़के के बारे में भी सोचती है। जितने गीत मैंने अपनी याद में खंगाले और फिर जितने इंटर्नेट पर देखे, इस तरह किसी लड़की का लड़के के बारे में सोचना और लिखना/गाना सबसे ख़ूबसूरती से गुरुदत्त की फ़िल्म, साहब बीबी और ग़ुलाम के गाने, ‘भँवरा बड़ा नादान है’ में दिखाया गया है। मगर ऐसी सिचुएशन फ़िल्मों में बहुत कम दिखायी गयी हैं। जहाँ एक ओर लड़की बालकनी में खड़े हो कर बाल भी कंघी कर रही है, ‘घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही’ गुनगुना सकता है लड़का, लड़कियों के पास ऐसी कोई वोकैब्युलेरी ही नहीं है।
चूँकि समाज में अच्छी, पढ़ी लिखी, ख़ूबसूरत और इंटेलिजेंट लड़कियों की बेहद कमी है क्यूँकि अभी भी बहुत लड़कियों को वो माहौल नहीं मिला है जिसमें वे अपने बारे में सोच सकें, अपने फ़ैसले ख़ुद ले सकें, सपने देख सकें। स्कूल, कॉलेज, कोचिंग… कहीं भी जाइए लड़के ज़्यादा होंगे, लड़कियाँ कम। मैं अब बहुत ज़्यादा सामान्यीकरण कर रही हूँ, लेकिन अधिकतर ऐसा होता है कि लड़कियों को लड़कों से बात करने में कोई ज़्यादा मेहनत नहीं करनी होती है। तो जिसको एकदम साधारण तरीक़े से कहें तो लड़की को लड़के को पटाने के लिए कुछ नहीं करना होता है। उसका थोड़ा सा ख़ूबसूरत होना और ज़रा सा हँस के बात करना काफ़ी होता है। लेकिन अगर कोई लड़की इससे ज़्यादा कुछ करना चाहे तो? मान लीजिए कि लड़की किसी दिन बहुत सुंदर सी साड़ी में आयी हो और लड़के ने उसे देख कर गाना गाया हो, ‘चाँद सी महबूबा हो मेरी…’, लड़की शर्माए और खिल खिल जाए। ज़िंदगी की ख़ूबसूरत यादों में एक ऐसी शाम जमा हो जाए। अब इसी सीन को उलट दीजिए, लड़के ने एकदम ही क़ातिल क़िस्म की ब्लैक शर्ट और जीन्स पहनी है, बाल बेपरवाही से बिखरे हैं, चेहरे पर हद दर्जे की मासूमियत है। लड़की भी चाहती है कि उसे कहे ये सब, लेकिन हर लड़की मेरी तरह लेखक तो होती नहीं है कि सधे, सुंदर शब्दों में लिख सके इतना। वो भी तो चाहेगी कि कोई गीत हो जो गुनगुना सके एक पंक्ति अपने महबूब को देख कर। लेकिन हिंदी फ़िल्मों ने हमारे देश की आधी से ज़्यादा आबादी को वो शब्दकोश, वो वोकैब्युलेरी दी ही नहीं है। वो कहता है, लड़की हो, तुम्हें शब्दों से माथा पच्ची करने की ज़रूरत नहीं। तुम बस ख़ूबसूरत दिखो, उतना ही काफ़ी है तुम्हारे लिए। कोई ज़रूरत नहीं रिश्ते में अपनी ओर से दिमाग़ लगने की, ये सब लड़कों का काम है, वे गाएँगे तुम्हारे लिए गीत, तुम उनपर फ़िदा होना, बस। इससे ज़्यादा करना है तो उनके लिए खाने का कुछ बना के ले जाओ, उनके लिए रूमाल काढ़ दो। बस।
अलिशा चिनॉय की मेड इन इंडिया से मुझे कुछ उम्मीद थी, लेकिन गीत सुना तो देखा उन्हें भी बस ‘दिल चाहिए मेड इन इंडिया’, बदन कहीं का भी हो। ये और बात है कि मिलिंद सोमन को देख कर थोड़ी देर तक लिरिक्स की सारी शिकायतें रफ़ा दफ़ा हो जाती हैं। लेकिन आप ही कहिए, ये ट्रैजडी नहीं है कि मिलिंद के लिए गीत लिखा जाए और उसमें उसके मेड इन इंडिया दिल की बात हो बस? ये उसके हॉट्नेस की तौहीन है।
जब इश्क़ बराबरी से होता है तो फिर गानों पर लड़कों का ऐसा एकाधिकार क्यूँ? लड़कियों के पास होने चाहिए उनके क़िस्म के गीत। लड़कों को भी तो मालूम होना चाहिए किसी लय में डूबा हुआ स्त्री कंठ जब गुनगुनाता है प्रेम में होते हुए तो कैसे आत्मा तक पहुँचता है सुकून। या कि दिल टूटे में कोई औरत कैसे फुफकारती है तो दुनिया को जहन्नुम में झोंक देना चाहती है। कोई लड़की क्यूँ नहीं गाए कि जब लड़का उसको इम्प्रेस करने के लिए तेज़ मोटरसाइकिल चलाते आ रहा था और मोड़ पर गिरा था तो उसे तकलीफ़ हुयी थी, लेकिन वो हँसी थी ठठा कर उसके भोलेपन और बेवक़ूफ़ी पर। या कि लड़के की ब्लैक शर्ट कैसे उसे काला जादू लगती है। कि लड़के का डिम्पल ऐसा है कि उसे हँसते देख इश्क़ में गिर जाते हैं सब। या कि चूमना चाहती है उसे। या कि बारिश में भीगना चाहती है उसके साथ। या कि किसी रोड ट्रिप पर भाग जाना चाहती है दुनिया छोड़ कर उसके साथ। ये सब कुछ गुनगुना कर कहना चाहती है लड़की लेकिन वो गीत किसी ने लिखे नहीं हैं। अब जैसे देखिए, ‘जब हैरी मेट सेजल’ का गाना है, ‘ख़ाली है जो तेरे बिना, मैं वो घर हूँ तेरा’। यहाँ पर बिछोह में भी लड़की गा रही है लेकिन ये सोचते हुए कि लड़के को घर ख़ाली लग रहा है…और मैं वो घर हूँ। लेकिन इसी फ़िल्म का दूसरा गाना है, ‘यादों में’ कि जो लड़की की आवाज़ से शुरू होता है और लड़के की आवाज़ में दूसरा हिस्सा है…वहाँ वो गा रहा है कि उसे उसकी याद कैसे आ रही है। लेकिन लड़की क्यूँ नहीं गाती है कि उसकी याद में हैं कौन से शहर। कौन सी सड़कें। कौन से समंदर हैं जो उसकी साझा याददाश्त में हैं। वो क्या है जिसे वो भूलने से डरती है। अलविदा कहना कितना दुखता है।
नयी शुरुआतें हो रही हैं लेकिन अभी और भी लड़कियों को आगे आना पड़ेगा। लिरिक्स लिखने पड़ेंगे ताकि कई और लड़कियों को आवाज़ मिले। जब स्नेहा खानवलकर जैसी म्यूज़िक डिरेक्टर वोमनिया लिखती है और धुन में रचती है तो अनायास ही कई लड़कियों को एक आवाज़ मिलती है। एक उलाहना देने का तरीक़ा मिलता है। ‘माँगे मुझौंसा जब हाथ सेकनिया’, जैसी चीज़ महसूसने के बावजूद ऐसा तीखा मीठा उलाहना रचना हर औरत को नहीं आएगा। पीयूष मिश्रा का लिखा हुआ ‘तार बिजली से पतले हमारे पिया’, भी एक तरह से लड़कों/आदमियों के लिए लिखा हुआ गीत ही है।
लड़कियों को वो गीत चाहिए जो उनके माडर्न महबूब के जैसा हो। जो उनका ख्याल रखे। जो उनका संबल बने। जो उनके गुनाहों का बराबर का पार्ट्नर हो। जो फ़ेस्बुक पर कभी कभी प्यार का इज़हार कर सके। बॉलीवुड। प्लीज़। कुछ बेहद अच्छे गाने दो ना हमें, अपने बेहद ख़ूबसूरत महबूबों के इश्क़ में डूब कर गाने के लिए। उड़े जब जब ज़ुल्फ़े तेरी अब बहुत ओल्ड फ़ैशंड हो गया है। बहुत घिस भी गया है। कब तक हम मजबूरी में अंग्रेज़ी वाला लाना डेल रे का ब्लू जीन्स वाइट शर्ट गाते रहेंगे। हमें ज़रा ब्लू जीन्स और झक सफ़ेद कुर्ता वाला कोई गाना रच दो। तब तक हम ख़ुद को मधुबाला समझ के ज़रा उसके लिए 1958 में बनी फ़िल्म, हावड़ा ब्रिज का गाना गा देते हैं, ‘ये क्या कर डाला तूने, दिल तेरा हो गया, हँसी हँसी में ज़ालिम, दिल मेरा खो गया’।
इसके अलावा छह साल शास्त्रीय संगीत सीखे हैं, जिसको वहाँ हिंदुस्तानी संगीत कहते थे। कहने का मतलब, गला मीठा हुआ करता था और घर पे लोग बाग़ जुटते थे या पिकनिक वग़ैरह हुआ तो हमेशा फ़रमाइशी गाने भी ख़ूब गए हैं। इसके अलावा लड़कपन और जवानी में जब प्यार मुहब्बत हुयी है तो घर में रोज़ शाम को कोई ना कोई गाना गाने की आदत हमेशा रही ही। मूड के हिसाब से। नया प्यार हुआ है तो ख़ुश वाले गाने, दिल टूटा है तो बस उदास, दर्द भरे नग़मे। ‘जब दिल ही टूट गया टाइप’। जिसको भी गाने का शौक़ रहता है, उसकी पसंद के कुछ फ़ेवरिट गाने हमेशा रहते हैं, ये गाने अक्सर उन गीतों से चुने जाते हैं कि जो उसके जेंडर का हो, जैसे मैं फ़ीमेल वोकल वाले गाने चुनती थी। ये तो हुयी ख़ुद के गाने की बात, फिर है कि ईश्वर की दया और जीन्स के सही चुनाव के कारण उम्र भर ख़ूबसूरत भी रहे हैं और इश्क़ वग़ैरह में भी कभी पीछे नहीं हटे। तो इस सिलसिले में कई मौक़ों पर बड़े ख़ूबसूरत और ज़हीन लड़कों ने हमको इम्प्रेस करने के लिए एक से एक गाने गए हैं। चाहे घर में शादी ब्याह का माहौल हो और दीदी के देवर लोग आए हों कि किसी नयी पार्टी में युगल गीत गाने की कोई बात चल जाए। हँसी ख़ुशी के माहौल में गाने अक्सर रोमांटिक ही गए जाते थे, ख़ुशी वाले। कई बार हुआ है कि गानों की कोई लाइन गाते हुए कोई किसी ख़ास तरीक़े से हमको देख कर मुस्कुराया हो, भरी महफ़िल से नज़र बचा कर। हम समझ गए हैं कि गीत के बोल भले लिखे किसी और ने हैं, इशारा सारा हमारी ओर है। हिंदी फ़िल्मों में चाँद पर गाने भी इतने हैं कि ख़ुद को कभी चाँद से कम ज़मीन पर समझे ही नहीं हम।
आज अचानक बात बहुत छोटी सी हुयी। एक दोस्त ने Whatsapp पर अपनी एक फ़ोटो भेजी। लड़का एक तो हैंडसम है, ड्रेसिंग सेन्स अच्छी है, फिर उसपर अदा बहुत है उसमें। जाड़ों के दिन हैं तो लम्बा ओवरकोट, गले में क़रीने से डाला हुआ मफ़लर। बेख़याली में खींची हुई तस्वीर थी, नीचे पता नहीं क्या तो देख रहा था। हल्की सी मुस्कान अटकी हुयी थी होठों की कोर पर। सब कुछ ही फ़ब रहा था उसपर। पर्फ़ेक्ट फ़ोटो थी। लेकिन whatsapp जैसे मीडीयम पर किसी की तारीफ़ में इतना क्या ही भाषण लिखेंगे। तो लगा कोई अच्छा गाना हो तो एक लाइन गुनगुना दें और क़िस्सा तमाम हो जाए। कुछ देर सोचने के बाद भी जब कोई गाने की लाइन नहीं याद आयी तो तस्वीर को दुबारा देखा…कि बौरा तो नहीं गए हैं कि कुछ सूझ ही नहीं रहा। दुबारा देखने पर ऐसा कुछ नहीं लगा, हम ईमानदारी से किसी की ख़ूबसूरती को देख कर एक अच्छा सा गाना गा देना चाहते थे। बस। थोड़ा शो-ऑफ़ भी करने को, कि देखो हम कितना अच्छा गाते हैं टाइप। बस इतना। हमारे इरादे एकदम नेक थे। ऐसी ख़ुशकिस्मती मेरी कई बार रही है कि ज़रा सा भी अच्छे तैयार होने पर कॉम्प्लिमेंट में कोई ना कोई गाना मिला ही है।
लेकिन कोई गाना याद नहीं आया। गूगल पर सर्च किए, ‘बेस्ट फ़ीमेल हिंदी सोंग्स औफ़ ऑल टाइम’। इसमें बहुत से नए गाने थे, और कोई भी अच्छे नहीं थे। अपनी याद के हिसाब से आशा भोंसले के गाए हुए गीतों को दिमाग़ में छान मारा। फिर गूगल पर देखा। अब तक दिमाग़ ख़राब हो चुका था कि फ़ीमेल सोलो आख़िर किन विषयों पर गए जाते हैं। फिर दूसरा ख़याल ये भी आया कि बॉलीवुड में गीतकार सारे पुरुष रहे हैं। कोई एक नाम भी नहीं है कि किसी स्त्री ने बहुत से अच्छे गाने लिखे हों। फिर लगा कि शायद मेरी जानकारी सही नहीं हो, मुझे वैसे भी बहुत ज़्यादा नाम याद नहीं रहते। गूगल ने लेकिन मेरे शक की पुष्टि की। फ़ीमेल आवाज़ में गाए गए कुछ बहुत अच्छे गाने तो हमेशा से याद भी थे कि बचपन से ख़ूब गाया है उन्हें। याद करके गानों की लिस्ट निकाली तो देखा कि ना केवल पुरुष औरतों की ख़ूबसूरती के बारे में गाना गाते हैं, बल्कि औरतें भी औरतों की ख़ूबसूरती के बारे में ही गा रही हैं। उदाहरण स्वरूप - ‘इन आँखों की मस्ती के परवाने हज़ारों हैं’, ‘बिजली गिराने मैं हूँ आयी, कहते हैं मुझको, हवा हवाई’, ‘मेरा नाम चिन चिन चू’। इसके अलावा जो दूसरा भाव फ़ीमेल वोकल में सुनने को मिलता है वो औरत के ख़यालों या अरमानों के बारे में होता है। एक स्टेटमेण्ट जैसे कि, 'ऐ ज़िंदगी गले लगा ले’, ‘आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’, ‘कई बार यूँ भी देखा है’, ‘चली रे, चली रे, जुनूँ को जिए’, ‘लव यू ज़िंदगी’, ‘धुनकी लागे' इत्यादि। ऐसा इसलिए कि ये सारे गाने पुरुषों ने लिखे हैं, उन्हें लगता है कि औरत या तो अपनी ख़ूबसूरती के बारे में सोच रही है, ‘सजना है मुझे, सजना के लिए’ जैसे गीतों में या कि ज़िंदगी के बारे में और अपनी भावनाओं के बारे में सोच रही है। उन्हें ये शायद समझ नहीं आता है कि कोई लड़की लड़के के बारे में भी सोचती है। जितने गीत मैंने अपनी याद में खंगाले और फिर जितने इंटर्नेट पर देखे, इस तरह किसी लड़की का लड़के के बारे में सोचना और लिखना/गाना सबसे ख़ूबसूरती से गुरुदत्त की फ़िल्म, साहब बीबी और ग़ुलाम के गाने, ‘भँवरा बड़ा नादान है’ में दिखाया गया है। मगर ऐसी सिचुएशन फ़िल्मों में बहुत कम दिखायी गयी हैं। जहाँ एक ओर लड़की बालकनी में खड़े हो कर बाल भी कंघी कर रही है, ‘घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही’ गुनगुना सकता है लड़का, लड़कियों के पास ऐसी कोई वोकैब्युलेरी ही नहीं है।
चूँकि समाज में अच्छी, पढ़ी लिखी, ख़ूबसूरत और इंटेलिजेंट लड़कियों की बेहद कमी है क्यूँकि अभी भी बहुत लड़कियों को वो माहौल नहीं मिला है जिसमें वे अपने बारे में सोच सकें, अपने फ़ैसले ख़ुद ले सकें, सपने देख सकें। स्कूल, कॉलेज, कोचिंग… कहीं भी जाइए लड़के ज़्यादा होंगे, लड़कियाँ कम। मैं अब बहुत ज़्यादा सामान्यीकरण कर रही हूँ, लेकिन अधिकतर ऐसा होता है कि लड़कियों को लड़कों से बात करने में कोई ज़्यादा मेहनत नहीं करनी होती है। तो जिसको एकदम साधारण तरीक़े से कहें तो लड़की को लड़के को पटाने के लिए कुछ नहीं करना होता है। उसका थोड़ा सा ख़ूबसूरत होना और ज़रा सा हँस के बात करना काफ़ी होता है। लेकिन अगर कोई लड़की इससे ज़्यादा कुछ करना चाहे तो? मान लीजिए कि लड़की किसी दिन बहुत सुंदर सी साड़ी में आयी हो और लड़के ने उसे देख कर गाना गाया हो, ‘चाँद सी महबूबा हो मेरी…’, लड़की शर्माए और खिल खिल जाए। ज़िंदगी की ख़ूबसूरत यादों में एक ऐसी शाम जमा हो जाए। अब इसी सीन को उलट दीजिए, लड़के ने एकदम ही क़ातिल क़िस्म की ब्लैक शर्ट और जीन्स पहनी है, बाल बेपरवाही से बिखरे हैं, चेहरे पर हद दर्जे की मासूमियत है। लड़की भी चाहती है कि उसे कहे ये सब, लेकिन हर लड़की मेरी तरह लेखक तो होती नहीं है कि सधे, सुंदर शब्दों में लिख सके इतना। वो भी तो चाहेगी कि कोई गीत हो जो गुनगुना सके एक पंक्ति अपने महबूब को देख कर। लेकिन हिंदी फ़िल्मों ने हमारे देश की आधी से ज़्यादा आबादी को वो शब्दकोश, वो वोकैब्युलेरी दी ही नहीं है। वो कहता है, लड़की हो, तुम्हें शब्दों से माथा पच्ची करने की ज़रूरत नहीं। तुम बस ख़ूबसूरत दिखो, उतना ही काफ़ी है तुम्हारे लिए। कोई ज़रूरत नहीं रिश्ते में अपनी ओर से दिमाग़ लगने की, ये सब लड़कों का काम है, वे गाएँगे तुम्हारे लिए गीत, तुम उनपर फ़िदा होना, बस। इससे ज़्यादा करना है तो उनके लिए खाने का कुछ बना के ले जाओ, उनके लिए रूमाल काढ़ दो। बस।
अलिशा चिनॉय की मेड इन इंडिया से मुझे कुछ उम्मीद थी, लेकिन गीत सुना तो देखा उन्हें भी बस ‘दिल चाहिए मेड इन इंडिया’, बदन कहीं का भी हो। ये और बात है कि मिलिंद सोमन को देख कर थोड़ी देर तक लिरिक्स की सारी शिकायतें रफ़ा दफ़ा हो जाती हैं। लेकिन आप ही कहिए, ये ट्रैजडी नहीं है कि मिलिंद के लिए गीत लिखा जाए और उसमें उसके मेड इन इंडिया दिल की बात हो बस? ये उसके हॉट्नेस की तौहीन है।
जब इश्क़ बराबरी से होता है तो फिर गानों पर लड़कों का ऐसा एकाधिकार क्यूँ? लड़कियों के पास होने चाहिए उनके क़िस्म के गीत। लड़कों को भी तो मालूम होना चाहिए किसी लय में डूबा हुआ स्त्री कंठ जब गुनगुनाता है प्रेम में होते हुए तो कैसे आत्मा तक पहुँचता है सुकून। या कि दिल टूटे में कोई औरत कैसे फुफकारती है तो दुनिया को जहन्नुम में झोंक देना चाहती है। कोई लड़की क्यूँ नहीं गाए कि जब लड़का उसको इम्प्रेस करने के लिए तेज़ मोटरसाइकिल चलाते आ रहा था और मोड़ पर गिरा था तो उसे तकलीफ़ हुयी थी, लेकिन वो हँसी थी ठठा कर उसके भोलेपन और बेवक़ूफ़ी पर। या कि लड़के की ब्लैक शर्ट कैसे उसे काला जादू लगती है। कि लड़के का डिम्पल ऐसा है कि उसे हँसते देख इश्क़ में गिर जाते हैं सब। या कि चूमना चाहती है उसे। या कि बारिश में भीगना चाहती है उसके साथ। या कि किसी रोड ट्रिप पर भाग जाना चाहती है दुनिया छोड़ कर उसके साथ। ये सब कुछ गुनगुना कर कहना चाहती है लड़की लेकिन वो गीत किसी ने लिखे नहीं हैं। अब जैसे देखिए, ‘जब हैरी मेट सेजल’ का गाना है, ‘ख़ाली है जो तेरे बिना, मैं वो घर हूँ तेरा’। यहाँ पर बिछोह में भी लड़की गा रही है लेकिन ये सोचते हुए कि लड़के को घर ख़ाली लग रहा है…और मैं वो घर हूँ। लेकिन इसी फ़िल्म का दूसरा गाना है, ‘यादों में’ कि जो लड़की की आवाज़ से शुरू होता है और लड़के की आवाज़ में दूसरा हिस्सा है…वहाँ वो गा रहा है कि उसे उसकी याद कैसे आ रही है। लेकिन लड़की क्यूँ नहीं गाती है कि उसकी याद में हैं कौन से शहर। कौन सी सड़कें। कौन से समंदर हैं जो उसकी साझा याददाश्त में हैं। वो क्या है जिसे वो भूलने से डरती है। अलविदा कहना कितना दुखता है।
नयी शुरुआतें हो रही हैं लेकिन अभी और भी लड़कियों को आगे आना पड़ेगा। लिरिक्स लिखने पड़ेंगे ताकि कई और लड़कियों को आवाज़ मिले। जब स्नेहा खानवलकर जैसी म्यूज़िक डिरेक्टर वोमनिया लिखती है और धुन में रचती है तो अनायास ही कई लड़कियों को एक आवाज़ मिलती है। एक उलाहना देने का तरीक़ा मिलता है। ‘माँगे मुझौंसा जब हाथ सेकनिया’, जैसी चीज़ महसूसने के बावजूद ऐसा तीखा मीठा उलाहना रचना हर औरत को नहीं आएगा। पीयूष मिश्रा का लिखा हुआ ‘तार बिजली से पतले हमारे पिया’, भी एक तरह से लड़कों/आदमियों के लिए लिखा हुआ गीत ही है।
लड़कियों को वो गीत चाहिए जो उनके माडर्न महबूब के जैसा हो। जो उनका ख्याल रखे। जो उनका संबल बने। जो उनके गुनाहों का बराबर का पार्ट्नर हो। जो फ़ेस्बुक पर कभी कभी प्यार का इज़हार कर सके। बॉलीवुड। प्लीज़। कुछ बेहद अच्छे गाने दो ना हमें, अपने बेहद ख़ूबसूरत महबूबों के इश्क़ में डूब कर गाने के लिए। उड़े जब जब ज़ुल्फ़े तेरी अब बहुत ओल्ड फ़ैशंड हो गया है। बहुत घिस भी गया है। कब तक हम मजबूरी में अंग्रेज़ी वाला लाना डेल रे का ब्लू जीन्स वाइट शर्ट गाते रहेंगे। हमें ज़रा ब्लू जीन्स और झक सफ़ेद कुर्ता वाला कोई गाना रच दो। तब तक हम ख़ुद को मधुबाला समझ के ज़रा उसके लिए 1958 में बनी फ़िल्म, हावड़ा ब्रिज का गाना गा देते हैं, ‘ये क्या कर डाला तूने, दिल तेरा हो गया, हँसी हँसी में ज़ालिम, दिल मेरा खो गया’।
Published on November 14, 2017 17:44
November 12, 2017
दो दुनियाओं के बीच
जो लोग तुम्हें ज्ञान देते हैं कि दुःख इमैजिनेरी होता है उन्हें तुम खींच के थप्पड़ दिया करो। नहीं सच में। ये ऐसी चीज़ है कि ख़ुद समझ में आती है नहीं और चल देते हैं दुनिया का ज्ञान देने। वे गाल सहलाते भौंचक सामने खड़े हों, तब उनसे पूछो...लहरता हुआ गाल इमैजिनेरी है?
दुनिया के दो हिस्से होते हैं। एक सच की दुनिया और एक ख़यालों की दुनिया। अधिकतर लोगों के लिए सच की दुनिया काफ़ी होती है। वे उसमें जीते मरते, इश्क़ करते, परेशान होते जीते रहते हैं। वे कभी कभी ख़यालों की दुनिया में थोड़ी डुबकी लगाते हैं...कि जैसे ऐश्वर्या मेरे साथ डेट पर चल ले या कि कर्ट कोबेन ज़िंदा होता या कि निर्मल वर्मा को कोई चिट्ठी लिख रहे होते...इतना भर। कभी कभी। वे अपनी ज़िंदगी में व्यस्त रहते हैं...ख़ुश या दुखी, जो भी हों, इसी दुनिया के अंदर रहते हैं।
एक दुनिया होती है ख़यालों की। बड़ी सम्मोहक, बड़ी तिलिस्मी, बहुत ख़ूबसूरत। ये दुनिया सबको अच्छी नहीं लगती कि ये दुनिया ख़ुद ही बनानी पड़ती है। तो ये दुनिया वैसी ही होगी जैसी आप इसे बना पाएँगे। इस दुनिया के शहर, इस दुनिया की सड़कें, इस दुनिया के रंग...सब ख़ुद से रचने होते हैं। एक बुनियादी ढाँचा बनाना होता है, फिर सब कुछ आसान होता है।
ये दुनिया अक्सर पनाह होती है लेकिन कभी कभी क़त्लगाह भी होती है। मक़तल, you know. जहाँ क़त्ल किए जाते हैं। इस दुनिया के रंग तब दिखते नहीं कि सब स्याह होता है। रोशनी नहीं होती। धूप नहीं होती।
कुछ लोगों के लिए ये दुनिया भी उतनी ही सच होती है जितना तुम्हारे गाल पर लहरता हुआ थप्पड़। इसमें जाना आना अपने बस में नहीं रहता। सुबह उठ कर कौन से ख़याल अपनी गिरफ़्त में ले लेंगे, ये पहले से तय करना मुश्किल होता है। हम कभी नहीं जानते कि सुबह सुबह सूयसाइडल क्यूँ होते हैं। रात और भोर के बीच, सपनों के उस आयाम से होकर आने के दर्मयान क्या बदल जाता है।
ज़िंदगी में सब कुछ ख़ूबसूरत होगा या कि वैसा ही होगा जैसा एक दिन पहले था। एक लम्हा पहले था लेकिन ख़याल ने अगर धावा बोल दिया तो फिर इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सच की दुनिया कैसी है। कि कितना प्यार है दिल में। कि कितने लोग हैं जो आपकी जान की सलामती की दुआ माँगते हैं। हम किसी इमैजिनेरी दुःख में डूबते जाते हैं। हमें वहाँ से कोई बचा कर नहीं ला सकता। वो दुःख भी अपने सीने पर ही झेलना होता है। आत्मा में चुभता दुःख कोई। टीसता ज़ख़्म कोई। किसी किरदार के हिस्से का दुःख लिखने के पहले उसे जीना होता है हर साँस में।
ये दोनों दुनियाएँ अलग अलग दिशा में हैं और कभी कभी ये दुविधा में डाल देती हैं। एक चुनने को विवश करती हैं। एक प्रेम से दूसरे प्रेम तक जाने के रास्ते में एक लम्हा ऐसा होता है जब आप दो व्यक्तियों से प्रेम में होते हैं। एकदम बराबर के प्रेम में। यहाँ से चुनाव हो जाता है। आप या तो पहले प्रेम तक लौट आते हैं या कि दूसरे प्रेम तक चले जाते हैं। मगर वो एक बिंदु कि जब आप दो व्यक्तियों के प्रति बराबर प्रेम में होते हैं, वो लम्हा घातक होता है। वहाँ से आपका वजूद दो बराबर के टुकड़ों में बंट जाता है और आप कितना भी कोशिश कर लें, जो छूट गया है उसके दुःख से ख़ुद को उबारना नामुमकिन होता है। फिर वक़्त का मरहम होता है और धीरे धीरे जो छूट गया है उस दुःख के तीखे किनारे घिसता रहता है कि आप उसके साथ जीने की आदत डाल लें। दुःख कहीं जाता नहीं। हम उसके साथ जीना सीख लेते हैं। सच और कल्पना में ऐसी ही जंग छिड़ती है, कि आप दोनों के साथ नहीं रह सकते हो। एक चुनना ही होगा। हम जो भी चुनते हैं, दूसरी दुनिया दुखती है।
हम नहीं जानते कि किसी दिन सुबह उठते ही पहला ख़याल ख़ुदकुशी का क्यूँ आता है। ख़यालों की दुनिया में किस पुराने दुःख ने धावा बोला है। मैं कभी कभी वाइटल बीइंज़ के बारे में भी पढ़ती और समझने की कोशिश करती हूँ। सोते हुए हमारा मन कई आयामों में घूमता है। जाने कहाँ से कोई नेगेटिव सोच अपने साथ बाँध लाता है। ऐसे में कई बार हमारे वातावरण पर निर्भर करता है कि हम उस ख़याल से लड़ सकते हैं या समर्पण कर देते हैं। जिन दिनों धूप निकलती है और आसपास कुछ दोस्त होते हैं, ऐसे किसी ख़याल से लड़ना आसान रहता है। लेकिन जिस दिन धूप नहीं रहती और दोस्तों से बात किए हुए बहुत वक़्त हुआ रहता है...वैसे में ऐसा ख़याल एकदम पूरी तरह से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है।
मुझे दवाइयों और डाक्टर्ज़ पर भरोसा नहीं है। सर्दी, खाँसी बुखार तक में अधिकतर मुझे दवा खाना पसंद नहीं है...तो ऐसे में मन की परेशानी के लिए कौन सा डॉक्टर खोजने जाएँ, कहाँ? पागलखाने वाले डॉक्टर मुझे समझ नहीं आते। कि मुझे लगता है सायकाइयट्री पूरी की पूरी दूसरे लोगों को स्टडी करके डिवेलप हुयी है लेकिन लोगों को किसी जेनरल खाँचे में बाँटा ही नहीं जा सकता। हर इंसान की सोच, दूसरे इंसान से इतनी अलग होती है...हर स्टिम्युलुस के प्रति उसका रीऐक्शन एकदम अलग। तो जो बात दुनिया के हज़ार और लोगों के लिए सही हुयी हो, हो सकता है मैं अपवाद हूँ...मुझपर वो चीज़ लागू ना हो। ऐसे में मुझे स्पेसिफ़िक, एक केस की तरह तो पढ़ा नहीं जाएगा। मैं कितना ही बताऊँ किसी को अपनी ज़िंदगी के बारे में। पिछली बार जिस सायकाययट्रस्ट के पास गयी थी, उसकी उल्टी-पुल्टी सलाह के कारण उसी शाम जान ही दे देती, लेकिन दोस्तों ने बचा लिया।
तो इस इमैजिनेरी दुनिया के बेहद रियल दुखों का इलाज किसके पास है? ज़ाहिर है। दोस्तों के पास। लेकिन सवाल ये है, कि दोस्तों के पास वक़्त है?
दुनिया के दो हिस्से होते हैं। एक सच की दुनिया और एक ख़यालों की दुनिया। अधिकतर लोगों के लिए सच की दुनिया काफ़ी होती है। वे उसमें जीते मरते, इश्क़ करते, परेशान होते जीते रहते हैं। वे कभी कभी ख़यालों की दुनिया में थोड़ी डुबकी लगाते हैं...कि जैसे ऐश्वर्या मेरे साथ डेट पर चल ले या कि कर्ट कोबेन ज़िंदा होता या कि निर्मल वर्मा को कोई चिट्ठी लिख रहे होते...इतना भर। कभी कभी। वे अपनी ज़िंदगी में व्यस्त रहते हैं...ख़ुश या दुखी, जो भी हों, इसी दुनिया के अंदर रहते हैं।
एक दुनिया होती है ख़यालों की। बड़ी सम्मोहक, बड़ी तिलिस्मी, बहुत ख़ूबसूरत। ये दुनिया सबको अच्छी नहीं लगती कि ये दुनिया ख़ुद ही बनानी पड़ती है। तो ये दुनिया वैसी ही होगी जैसी आप इसे बना पाएँगे। इस दुनिया के शहर, इस दुनिया की सड़कें, इस दुनिया के रंग...सब ख़ुद से रचने होते हैं। एक बुनियादी ढाँचा बनाना होता है, फिर सब कुछ आसान होता है।
ये दुनिया अक्सर पनाह होती है लेकिन कभी कभी क़त्लगाह भी होती है। मक़तल, you know. जहाँ क़त्ल किए जाते हैं। इस दुनिया के रंग तब दिखते नहीं कि सब स्याह होता है। रोशनी नहीं होती। धूप नहीं होती।
कुछ लोगों के लिए ये दुनिया भी उतनी ही सच होती है जितना तुम्हारे गाल पर लहरता हुआ थप्पड़। इसमें जाना आना अपने बस में नहीं रहता। सुबह उठ कर कौन से ख़याल अपनी गिरफ़्त में ले लेंगे, ये पहले से तय करना मुश्किल होता है। हम कभी नहीं जानते कि सुबह सुबह सूयसाइडल क्यूँ होते हैं। रात और भोर के बीच, सपनों के उस आयाम से होकर आने के दर्मयान क्या बदल जाता है।
ज़िंदगी में सब कुछ ख़ूबसूरत होगा या कि वैसा ही होगा जैसा एक दिन पहले था। एक लम्हा पहले था लेकिन ख़याल ने अगर धावा बोल दिया तो फिर इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सच की दुनिया कैसी है। कि कितना प्यार है दिल में। कि कितने लोग हैं जो आपकी जान की सलामती की दुआ माँगते हैं। हम किसी इमैजिनेरी दुःख में डूबते जाते हैं। हमें वहाँ से कोई बचा कर नहीं ला सकता। वो दुःख भी अपने सीने पर ही झेलना होता है। आत्मा में चुभता दुःख कोई। टीसता ज़ख़्म कोई। किसी किरदार के हिस्से का दुःख लिखने के पहले उसे जीना होता है हर साँस में।
ये दोनों दुनियाएँ अलग अलग दिशा में हैं और कभी कभी ये दुविधा में डाल देती हैं। एक चुनने को विवश करती हैं। एक प्रेम से दूसरे प्रेम तक जाने के रास्ते में एक लम्हा ऐसा होता है जब आप दो व्यक्तियों से प्रेम में होते हैं। एकदम बराबर के प्रेम में। यहाँ से चुनाव हो जाता है। आप या तो पहले प्रेम तक लौट आते हैं या कि दूसरे प्रेम तक चले जाते हैं। मगर वो एक बिंदु कि जब आप दो व्यक्तियों के प्रति बराबर प्रेम में होते हैं, वो लम्हा घातक होता है। वहाँ से आपका वजूद दो बराबर के टुकड़ों में बंट जाता है और आप कितना भी कोशिश कर लें, जो छूट गया है उसके दुःख से ख़ुद को उबारना नामुमकिन होता है। फिर वक़्त का मरहम होता है और धीरे धीरे जो छूट गया है उस दुःख के तीखे किनारे घिसता रहता है कि आप उसके साथ जीने की आदत डाल लें। दुःख कहीं जाता नहीं। हम उसके साथ जीना सीख लेते हैं। सच और कल्पना में ऐसी ही जंग छिड़ती है, कि आप दोनों के साथ नहीं रह सकते हो। एक चुनना ही होगा। हम जो भी चुनते हैं, दूसरी दुनिया दुखती है।
हम नहीं जानते कि किसी दिन सुबह उठते ही पहला ख़याल ख़ुदकुशी का क्यूँ आता है। ख़यालों की दुनिया में किस पुराने दुःख ने धावा बोला है। मैं कभी कभी वाइटल बीइंज़ के बारे में भी पढ़ती और समझने की कोशिश करती हूँ। सोते हुए हमारा मन कई आयामों में घूमता है। जाने कहाँ से कोई नेगेटिव सोच अपने साथ बाँध लाता है। ऐसे में कई बार हमारे वातावरण पर निर्भर करता है कि हम उस ख़याल से लड़ सकते हैं या समर्पण कर देते हैं। जिन दिनों धूप निकलती है और आसपास कुछ दोस्त होते हैं, ऐसे किसी ख़याल से लड़ना आसान रहता है। लेकिन जिस दिन धूप नहीं रहती और दोस्तों से बात किए हुए बहुत वक़्त हुआ रहता है...वैसे में ऐसा ख़याल एकदम पूरी तरह से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है।
मुझे दवाइयों और डाक्टर्ज़ पर भरोसा नहीं है। सर्दी, खाँसी बुखार तक में अधिकतर मुझे दवा खाना पसंद नहीं है...तो ऐसे में मन की परेशानी के लिए कौन सा डॉक्टर खोजने जाएँ, कहाँ? पागलखाने वाले डॉक्टर मुझे समझ नहीं आते। कि मुझे लगता है सायकाइयट्री पूरी की पूरी दूसरे लोगों को स्टडी करके डिवेलप हुयी है लेकिन लोगों को किसी जेनरल खाँचे में बाँटा ही नहीं जा सकता। हर इंसान की सोच, दूसरे इंसान से इतनी अलग होती है...हर स्टिम्युलुस के प्रति उसका रीऐक्शन एकदम अलग। तो जो बात दुनिया के हज़ार और लोगों के लिए सही हुयी हो, हो सकता है मैं अपवाद हूँ...मुझपर वो चीज़ लागू ना हो। ऐसे में मुझे स्पेसिफ़िक, एक केस की तरह तो पढ़ा नहीं जाएगा। मैं कितना ही बताऊँ किसी को अपनी ज़िंदगी के बारे में। पिछली बार जिस सायकाययट्रस्ट के पास गयी थी, उसकी उल्टी-पुल्टी सलाह के कारण उसी शाम जान ही दे देती, लेकिन दोस्तों ने बचा लिया।
तो इस इमैजिनेरी दुनिया के बेहद रियल दुखों का इलाज किसके पास है? ज़ाहिर है। दोस्तों के पास। लेकिन सवाल ये है, कि दोस्तों के पास वक़्त है?
Published on November 12, 2017 19:31


