Puja Upadhyay's Blog
November 16, 2025
तुम्हें पता है, There is only one absolute unit of longing, loneliness and love. ‘बस यूँ ही, तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था।'
*** आज एक नए कैफ़े में आई हूँ, बहुत सुंदर नाम है इसका। Paper& Pie. आगा शाहिद अली की कविता Stationery की एक पंक्ति है, The world is full of paper, write to me. काग़ज़ से बहुत लगाव है। इतना कि इस दुनिया को इसलिए आग लगाने का मन नहीं करता कि कभी कभी लगता है ये दुनिया काग़ज़ पर लिखी हुई है, शायद। इसे पानी में तैरने वाली नाव बनना है आख़िर को।
पेपर ऐंड पाई।
कुछ दिन पहले ऑफिस के एक पुराने कलीग से मिलना था, तो उसके घर के पास की जगह गए थे। उसने इस कैफे का पता दिया था, कि अच्छी जगह है। हम हड़बड़ में मिले थे। एक घंटा टाइप्स…बोला, अगली बार फुर्सत में मिलेंगे। और हम कहे, कि फुर्सत नहीं मिलेगी कभी…इतना भी मिल लेंगे तो ठीक है। कैफ़े की थीम सफेद थी। कैरमेल कलर का फर्नीचर। शोर नहीं। कम्फर्टेबल। अच्छा लगा।
हर नाम का एक क़िस्सा होता है। हमको इस किस्से से हमेशा मतलब क्यों होता है? इस कैफे के नाम के साथ के लोगो था। जैसे स्टारबक्स का लोगो एक साईरन(siren) है…इन दिनों नई कंपनी के नाम, लोगो वग़ैरह के बारे में सोच रहे, रिसर्च कर रहे। दिमाग़ में यही सब चल रहा था। इंदिरानगर के कैफे में पहली बार आए थे…इसी लोगो का एक फोटो खींच कर दोस्त को भेजा। उसने पूछा ये क्या है? और हमने कहा कि प्रूफ कि लोगो से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कुछ भी रख लो नाम, कैसा भी बना लो लोगो।
आज बहुत साल बाद इंदिरानगर ऐसे इत्मीनान से आए हैं। यहाँ पहली बार घर था…दस साल रही उसी घर में। भयंकर नास्टैल्जिया घेरता है। मैं इस इलाक़े के सभी पेड़ों को पहचानती हूँ। फूलों के मौसम में कहाँ फूल आयेंगे, वो भी। सारी गालियाँ, सारे चौराहे, आसमान का हर टुकड़ा चीन्हा हुआ लगता है। कभी-कभी उस लड़की की याद आने लगती है जो यहाँ अठारह साल पहले आई थी। दिल्ली के अपने सारे प्यारे दोस्तों को छोड़ कर…उस एक लड़के का हाथ थामे जिससे मुहब्बत की थी। चमकीले, रूई के फाहे की तरह हल्के दिन थे…घर में कोई फर्नीचर नहीं था। हम वाक़ई दो बक्से लेकर आए थे। कपड़े और किताबें, बस…और ढेर सारा प्यार। एक नए शहर में नई शुरुआत करने।
जिस घर में रह रही हूँ, एक साल भी नहीं हुआ है। मकान-मालिक ने खाली करने कह दिया है। बात सही है, मकान-मालिक है। जब उसका मन करे, खाली करने को बोल सकता है। लेकिन ऐसे दो बच्चे, सास, एक पति-पत्नी…बड़ा सा परिवार है, बहुत सारा सामान…चार कमरों का घर है। किराया भी बहुत ज़्यादा है। इस घर में 3000sq.ft. के आसपास का अपना लॉन है। बच्चों को बहुत अच्छा लगता था यहाँ से वहाँ दौड़ते रहते थे दिन भर। बड़े शहरों में अपना गार्डन या लॉन होना तो एकदम ही मुश्किल है। इतने सालों में ऐसे खुली ज़मीन वाला कोई घर नहीं देखा कभी। विला के सामने गोल्फ कोर्स है। सुबह सूरज उगता हुआ दिखता था…बच्चे धूप में कुनमुना के उठते थे। गहरे गुलाबी रंग की बोगनविला थी। विंडचाइम नाचती रहती थी, अक्सर। उसकी धुन नींद में झूलती रहती। गार्डन में एक ओर बार बना हुआ है, उसके सामने छोटा सा पौंड है…गोल्फ कोर्स के लिए। लेकिन वहाँ सुबह-सुबह कभी कभी लिखने बैठती थी। धुंध में। ठंढ में। चाँदनी रात में स्टडी टेबल से चांद उगता हुआ दिखता था। कई बार सूरज उगने के टाइम-लैप्स बनाए। ये ऐसा घर था, जिसमें कुछ साल इत्मीनान से रहने का मन था। अपने से ज़्यादा, बच्चों के लिए। ये उनके दौड़ने-भागने-खेलने कूदने के दिन हैं। सभी दोस्तों के बच्चे आते थे तो सबको खूब मन लगता था। पर ठीक इसलिए है, कि जो चीज़ अपनी नहीं, उससे ज़्यादा लगाव क्यों होना…शायद ज़्यादा दिन रुक जाते, तो ज़्यादा दुखता। अभी तो इतनी सुंदर जगह रह रहे हैं, इसका यक़ीन भी ठीक से नहीं हुआ था। सपने जैसा ही लगता था कई बार। कुछ ऐसा इत्तिफ़ाक़ रहा कि बच्चों के जन्म के छह साल में चौथे घर में जा रहे हैं। जिससे भी बात करेंगे, अपना घर ख़रीदने की तरफ़दारी करेगा…कि जैसा भी हो, घर अपना होना चाहिए।
कुँवर नारायण की एक कविता है, बहुत सुंदर। कई साल पहले अनुराग को ज़िद कर के कुछ लिखने को कहा था, तो यही कविता काग़ज़ पर लिख के दी थी उसने…उस दिन भी दुखा था इसे पढ़ना। शायद उन दिनों वह भी घर शिफ्ट कर रहा था। फ़िलहाल, याद नहीं…लेकिन यह कविता आज शाम से मन में घूम रही है…
कभी कभी इतना बेघर हो जाता है मन
कि कपड़े बदलते हुए भी लगता है
जैसे घर बदल रहा हूँ
- कुँवर नारायण
इस साल दिवाली बहुत सुंदर थी। घर पर सब के सो जाने के बाद दिल शुक्रगुज़ार था। तो मकान मालिक को एक लंबा, सुंदर सा मेसेज लिखा। जान-पहचान के सभी लोगों का कहना है कि उसी मेसेज के कारण मक़ान मालिक ने घर ख़ाली करने को कहा है। पता नहीं कैसे, पर सबको इस तरह की फीलिंग समझ में आती है, सिवाए मेरे। कि कोई उनके घर में रह कर इतना ख़ुश है, उसे इस घर की अच्छी चीज़ों से फ़र्क़ पड़ता है…कोई घर की हर छोटी-बड़ी चीज़ को नोटिस करता है, उससे जीवन में आई सुंदरता को लेकर शुक्रगुज़ार है…मेरा ये acknowledgement ही उन्हें अच्छा नहीं लगा। हम सोचते रहते हैं, कि दुनिया इस तरह की हो जाएगी तो हम बदल तो नहीं जाएँगे। कितनी कम बार होता है कि आपको कुछ अच्छा लगे और आप उन्हें बता पायें। कितनी ज़्यादा बार होता है कि कुछ अच्छा लगे, कोई अच्छा लगे तो आप चुप ही रहते हैं। Status-quo जो मेंटेन करना होता है। जबकि ज़िंदगी में बदलाव के सिवा कुछ भी परमानेंट नहीं है, लोग बदलाव से इतना डरते हैं कि हर बदलाव को बुरे की तरह ही सोचते हैं…जब कि बदलाव अच्छे के लिए भी तो हो सकता है, या कि कुछ अलग के लिए ही हो जाये…इसे अच्छे-बुरे के काले-सफेद में न बाँटें। हमने जितने घर बदले हैं, हर बार पिछले घर से कुछ अलग, कुछ बेहतर, कुछ सुंदर ही मिला है। शायद सिर्फ़ बदलाव की बात नहीं है, बात है कि हमारी मर्जी से नहीं हो रहा। फिर ऐसे समय पर हो रहा है जब बहुत कुछ ऐसे ही बदल रहा होता है…साल ख़त्म हो रहा होता है, नए साल के नए प्लान्स बन रहे होते हैं। छुट्टी मनाने जायेंगे…फिर लौटते ही घर बदलना होगा। ऐसे में छुट्टी पर जाने की जगह घर में रह कर खूब सी पार्टी करने का मन कर रहा। एक तरह का क्लोजर। पता नहीं क्या। कोई अफ़सोस न बाक़ी रहे।
ये साल बहुत तेज़ी से बीता। बहुत व्यस्त रही, पारिवारिक चीज़ों में। सीखा यह कि जो मिला है, उसमें संतोष होना चाहिए। कि सब कुछ तो किसी को भी नहीं मिलता। तो कुछ न कुछ तो रहेगा ही अफसोस के खाते में। फिर, न चाहते हुए भी इतने अफ़सोस जमा हो गए हैं दिल में, लिखने चलें तो बचा हुआ जीवन कम पड़ जाये। फिर क्या मालूम, कितना जीवन बचा है। Camus कहते थे, जीवन में सब कुछ absurd है। कुछ भी प्लान नहीं कर सकते। Camus की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हो गई थी। वे सिर्फ़ 46 साल के थे। उनके साथ उनका पब्लिशर भी था। One must imagine Sisyphus happy.
- Camus
बदलाव के साथ, ज़िंदगी में होने वाली सारी अब्सर्डिटी समझते हुए, हम फिर भी खुश रह सकते हैं…छोटी छोटी चीज़ों में। ख़ुशी कोई अल्टीमेट डेस्टिनेशन नहीं हो सकता। रोज़ की छोटी-छोटी चीज़ें अगर हमें ख़ुशी नहीं दे सकतीं तो हम कुछ भी हासिल कर लें, हमेशा कुछ और चाहिए होगा। मैं बेटियों को भी सिखाने की कोशिश करती हूँ, कि चाह का कोई अंत नहीं। जो सुंदर है, जो पास है, जो अपना है…उसके लिए खुश रहें तो ख़ालीपन कहीं होगा ही नहीं…और बिना खालीपन के उदासी रहेगी कहाँ?
मैंने लैवेंडर वाली चाय ऑर्डर की…कप से भाप उठ रही थी। उसपर हथेली रखी तो पुरानी कहानी की पंक्ति याद आई, उसकी शिराएँ लैवेंडर रंग की हैं। कितनी सुंदर कलाई थी, काटने में दुख हुआ था, कहानी में भी। चाय पीते हुए सोचती रही, शाम से कितनी काली कॉफ़ी पी रखी है, याद नहीं। कड़वाहट नहीं आती ज़ुबान पर, न दिल में। जाने कैसे हो गया है दिल इतना फॉरगिविंग।
हाँ, मुझसे छूट गया है तुम्हारा हाथ। लेकिन यही कायनात है, इक रोज़ सिगरेट पीते हुए सोचा था, मैं तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहती हूँ और कायनात ने मान लिया था। पिछली बार डेंटिस्ट के पास गई थी तो सोच रही थी, ख़ुशी का कोई ऐसा इंटेंस लम्हा नहीं है कि इमोशनल एनेस्थीसिया की तरह काम कर सके। तो कायनात ने सोचा, कुछ लम्हे लिख दे मेरे हिस्से में।
मुझसे छूट गया है तुम्हारा हाथ। लेकिन मुझे मालूम है तुम्हारे ब्रांड की सिगरेट, तुम्हारा फ़ेवरिट कलर और तुम्हारे पसंद की ड्रिंक। मन करे तो मैं भी विस्की पी कर आउट हो सकती हूँ। मन करे तो कहानी में तुम्हें रख सकती हूँ सहेज कर। कि मेरे पास हैं ऐसे शब्द जिनमें से तुम्हारी ख़ुशबू आती है।
तुम्हें पता है, there is only one absolute unit of longing, loneliness and love.
‘बस यूँ ही, तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था।’
October 18, 2025
Tight hugs. Unforgettable goodbyes. Normal days. Grateful heart.
आपको कभी ऐसा लगा है, किसी एक मोमेंट…कि यह सीन हमारी दुनिया का है ही नहीं…हमने अपनी अभीप्सा से कई हज़ार रियलिटीज़ वाले ब्रह्मांड से वो एक यूनिवर्स चुन ली है जहाँ यह हिस्सा होना था और वहाँ की जगह, ये हिस्सा हमारी इस यूनिवर्स में घटेगा…
कि चाह लेने से हमारी दुनिया बदल जाती है…भले पूरी की पूरी न सही और सारे वक्त न सही, लेकिन किसी छोटे वक़्फ़े सब कुछ ठीक वैसा होगा कि आपको आपकी मर्जी का एक लम्हा मिल जाये…
बशीर बद्र हमारे मन के स्याह में झाँकते हैं…गुनाहों के सीले कमरों में भी थोड़ा उजास होता है…मन आख़िर को वह क्यों माँगता है जो उसे नहीं माँगना चाहिए…वो लिखते हैं हमारे बारे में…
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है
मैं हर लम्हे में सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ एक लम्हा बहुत है
सब कुछ किसी को कहाँ मिलता है। कभी।
लेकिन किसी को हग कर रहे हों, तो आँखें बंद कर सकें…थोड़ा इत्मीनान, थोड़ी सी मोहलत, और अपराधबोध न फील करने की आज़ादी, शायद सब को मिलनी चाहिए। शायद सबको, तो फिर किसको नहीं मिलनी चाहिए?
पता नहीं। कुछ तो होते होंगे, गुनाहगार लोग…जिन्हें सज़ा मिली हो, कि जब भी किसी को हग करो…आँखें बंद नहीं कर सकोगे। कि It will always be a fleeting hug. कि तुम्हें हमेशा हज़ार लोग घूर रहे होंगे। कि मेला लगा होगा और उस मेले के बीच चलते मेट्रो स्टेशन पर तुम्हें किसी को गले लग कर अलविदा कहना होगा। कि उस जगह रुक नहीं सकते। कि अगली मेट्रो आने ही वाली है। कि हर बार बिछड़ना, मर जाना ही तो है। ग़ालिब ने जो कहा, जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे, जैसे कि क़यामत का, होगा कोई दिन और!
***
क्रश। पहली बार इस शब्द के बारे में पढ़ा था, तो किसी चीज़ को थूरने-चूरने के अर्थ में पढ़ा था। लेकिन समझ आने के कुछ ही दिनों में इसका दूसरा और ज़्यादा ख़तरनाक…वैसे तो मेटाफोरिकल, लेकिन बहुत हद तक सही शाब्दिक - लिटरल अर्थ समझ आया था। ‘क्रश’ उसे कहते थे जिसे प्यार नहीं कह सकते थे। थोड़ा सा प्यार। प्यार की फीकी सी झलक भर। लेकिन जानलेवा।
ये वो नावक के तीर थे जो गंभीर घाव करने वाले थे। इनसे बचने का कोई जिरहबख़्तर नहीं बना था।
इश्क़ को रोकने का जिरहबख़्तर होता भी नहीं…हम उसके बाद क्या करेंगे, अर्थात्…अपने एक्शन/कांड पर भले कंट्रोल रख लें…महसूस करने पर कोई कंट्रोल काम नहीं करता। अक्सर अचानक से होता है।
जैसे रात को तेज गाड़ी चलाते हुए, इकरार ए मुहब्बत का पहला गाना, ‘तुम्हें हो न हो, मुझको तो, इतना यकीं है…कि मुझे प्यार, तुमसे…नहीं है, नहीं है…’ अचानक से बजाने का मन करे। रात के साढ़े तीन-पौने चार हो गए थे। भोर साढ़े पाँच की फ्लाइट थी, किसी भी तरह साढ़े चार तक उड़ते-उड़ते एयरपोर्ट पहुंचना ही था। कुछ चीज़ों में जीवन बहुत प्रेडिक्टेबल रहा है। कुछ चीज़ों में बेतरह प्रेडिक्टेबल। मुहब्बत की हल्की सी ही थाप होती है दिल पर, इन दिनों। उसे पता है, दरवाज़ा नहीं खुलेगा…लेकिन मुहब्बत ढीठ है, थेथर है…एक बार पूछ ज़रूर लेती है, हम आयें? हम अपने-आप को दिलासा देते हुए गुनगुनाने लगते हैं, मुझसे प्याऽऽर तुमसे, नहीं है...मगर मैंने ये आज अब तक न जाना...कि क्यों प्यारी लगती हैं, बातें तुम्हारी, मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूँढूँ बहाना...
खैर, अच्छा ये हुआ कि फ्लाइट छूटी नहीं। ***
सुबह ज़ुबान पर कड़वाहट थी, पर मन मीठा था।
There is something about almost chain-smoking through the night. While not being drunk. एक नशा होता है जो अपने लोगों के साथ देर तक बतियाने से चढ़ता है। एक मीठा सा नशा।
सिगरेट का धुआँ मन के कोने-कोने पैठता जाता है। इसे समझाना मुश्किल है कि हमें क्या क्या सुनाई पड़ता है और क्या समझ आता है। ध्यान दो अगर, और रात बहुत गुज़र चुकी हो…सन्नाटे में जब सिगरेट का सिरा जला कर कश खींचते हैं तो तंबाकू के जलने की आवाज़ आती है, बहुत महीन, बहुत बारीक…जैसे किसी का हाथ छूटते हुए आप ज़ोर से न पकड़ें, बल्कि हौले से किसी के हाथ के ऊपर अपनी हथेली फिरा लें…वो बह जाये आपसे दूर, किसी पहाड़ी नदी के पानी की तरह।
फिर से कहते हैं न कि दुनिया में सब कुछ तो किसी को नहीं मिलता।
हम ज़्यादा नहीं चाहते। पर शायद इतना, कि किसी को hug करते हुए इतनी फुर्सत हो और इतनी तसल्ली कि आँखें बंद कर सकें। कि हड़बड़ी में न हग करें किसी को, जैसे कि दुनिया बर्बाद होने वाली है। बैंगलोर की भयंकर तन्हाई में इस एक चीज़ की कमी से मेरी जान जाने लगती है। दिल्ली जाती हूँ तो दोस्त बिछड़ते हुए दो बार गले मिलते हैं। एक बार तो अभी के लिए, और एक बार कि जाने कितने दिन बाद फिर मिलेंगे, एक बार और hug करने का मन है तो कर लेते हैं।
अक्सर हम उन लोगों के प्रेम में पड़ते हैं जिनमें हमारे जितनी गहराई होती है। लेकिन कभी कभी हम कुछ बेवकूफ के लड़कों के गहरे इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाते हैं। जिन्हें शायरी सुनाओ तो फिर उसका मतलब समझाना पड़ता है। क्या कहें किसी से कि, ‘यूँ उठे आह उस गली से हम, जैसे कोई जहाँ से उठता है…तुम्हारी गली देखनी थी, तुम्हारा घर, तुम्हारे घर के पर्दे…उसे कैसे समझायें कि मुझे तुम्हारे घर की खामोशी से मिलना था। तुम्हारी खिड़की से आसमान को देखना था। इस जरा सी मुहब्बत का ठिकाना दुनिया में कहीं नहीं होता। कि बेवकूफ लड़के, जब हम कहते हैं कि, ‘इश्क़ एक मीर भारी पत्थर है, कब ये तुझ नातवाँ से उठता है’, तो इसका मतलब यह नहीं है कि बॉडी-बिल्डिंग शुरू कर दो। इसका मतलब हम तुम्हारे हक़ में दुआयें पढ़ रहे हैं कि इश्क़ का भारी पत्थर उठाने के लिए तुम्हारा दिल मज़बूत हो सके…फिर हमारे जैसी तो दुआ क्या ही कोई माँगता होगा, कि तुम्हें इश्क़ हो...भले हमसे न को, किसी से हो...लेकिन तुम्हारा दिल जरा ना नाज़ुक रहे। आँख थोड़ी सी नम।
देख तो दिल कि जाँ से उठता है, ये धुआँ सा कहाँ से उठता है…
देख रहे हैं आसमान। धुएँ के पार। तुम्हारी किरमिच सी याद आती है। तुम्हारी इत्ती सी फ़िक्र होती है। मैं कुछ नहीं जानना चाहती तुम्हारे बारे में…लेकिन कहानी का कोई किरदार पूछता है तुम्हारे बारे में, कि अरे, उस लड़के का बचपन किस शहर में बीता था, तुम्हें याद है? मैं कहानी के किरदार को बहलाती हूँ, कि मुझे कुछ न मालूम है तुम्हारे बारे में, न याद कोई। कि दूर से मुहब्बत आसान थी, लेकिन इतनी आसान भी कहाँ थी।
दिल्ली जाते हैं तो जिनसे बहुत ज़ोर से मिलने का मन कर रहा होता है, ये कायनात उन्हें खींच कर ले आती है दिल्ली। हम बहुत साल बाद इकट्ठे बैठे उसकी पसंद की ड्रिंक पी रहे हैं। ओल्ड मौंक विथ हॉट वाटर। उसके पसंद का खाना खा रहे हैं। भात, दाल, आलू भुजिया। जाने कितने साल हो गए उसकी ज़िंदगी में यूँ शामिल और गुमशुदा हुए हुए। वीडियो कॉल पर ही देखते थे उसको। एक साथ सिगरेट फूंकते थे। सोचते थे, जाने कौन सा शहर मुकम्मल होगा। कि हम कहेंगे, हमारी सिगरेट जला दो। कि you give the best welcome hugs and the most terrible goodbye hugs. कि इतनी छोटी ज़िंदगी में तुमसे कितना कम-कम मिले हैं।
स्वाद का भी गंध के जैसा डायरेक्ट हिट होता है, कभी कभी। कभी-कभी इनका कोई कनेक्ट नहीं होता। एक पुराना दोस्त गोल्ड-फ्लेक पीता था। यूँ तो गाहे बगाहे कई बार गोल्ड फ्लेक पिए होंगे, उसकी गिनती कहाँ है। लेकिन कल शाम गोल्ड फ्लेक जलायी और पहले कश में एक अलविदा का स्वाद आया। सर्द पहाड़ों पर बहती नदी किनारे घने पेड़ होते हैं, उन सर्पीली सड़कों पर गाड़ी खड़ी थी। गुडबाय के पहले वाली सिगरेटें पी जा रही थीं। कभी कभी कोई स्वाद ज़ुबान पर ठहर जाता है। इत्ती-इत्ती सी सिगरेट, लेकिन कलेजा जल रहा था। मन तो किया पूरा डिब्बा फूँक दें। और ऐसा भी नहीं था कि फ्लाइट मिस हो जाती, बहुत वक्त था हमारे पास। लेकिन ये जो सिगरेट के धुएँ से गाढ़ा जमता जा रहा था दिल में कोलतार की तरह। उसकी तासीर से थोड़ा डरना लाज़िमी था। मेरे पास अभी भी वो पीला कॉफ़ी मग सलामत है जो उसने ला कर दिया था। उसके हिस्से का मग। जाने कैसे वो मिल गया था अचानक। यूँ मेरे हिस्से का तो वो ख़ुद भी नहीं था।
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मुहब्बत में स्पर्श की करेंसी चलती है। यहाँ बड़े नोटों का कोई काम नहीं होता। यहाँ रेज़गारी बहुत क़ीमती होती है। कि सिक्के ही तो पॉकेट में लिए घूमते हैं। यही तो खनखनाते हैं। इन्हें छू कर तसल्ली कर सकते हैं कि कोई था कभी पास।
स्पर्श को संबंधों में बांटा नहीं जा सकता। हम किसी का हाथ पकड़ते हुए ये थोड़े सोचते हैं कि वो हमारा प्रेमी है या मित्र है या कोई छोटा भाई-बहन या कि अपना बच्चा। हम किसी का हाथ पकड़ते हुए सिर्फ़ ये सोचते हैं कि वो हमारे लिए बहुत क़ीमती है और दुनिया के मेले में खो न जाये। हम उसक हाथ पकड़े पकड़े चलते हैं। झूमते हुए। कि हमें यकीन है कि भले कई साल तक न मिलें हम, इस फ़िलहाल में वो सच में हमारे पास है, इतना टैंजिबल कि हम उसे छू सकते हैं।
दिल्ली की एक दोपहर हम सीपी में थे। दोस्त का इंतज़ार करते हुए। लंच के लिए। गाड़ी पार्क करवा दिए थे। उसके आने में टाइम था, सोचे सिगरेट पी लेते हैं। तो एक छोटा बच्चा बोला, दीदी हमको चाय पिला दो। नॉर्मली हम चाय तो पीते नहीं। लेकिन वो बोला कि पिला दो, तो उसके साथ हम भी पी पीने का सोचे…दो चाय बोल दिए। आइस-बर्स्ट का मेंथोल और चाय में पड़ी अदरक…ऐसा ख़तरनाक कॉम्बिनेशन था कि थोड़े से हाई हो गए। फिर सोचे कि दिल्ली में यही हाल तो रहता है, हवा पानी का असर मारिजुआना जैसा होता है। कितना मैजिकल है किसी शहर से इतना प्यार होना।
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हम इन दिनों बिखरे बिखरे से रहते हैं। तसल्ली से लेकिन। किसी चीज़ की हड़बड़ी नहीं होती। सिवाए, जनवरी के आने की... और कभी कभी, अब तो, वो भी नहीं लगता।
96 फ़िल्म में एक सीन है। जानू, राम के घर आई हुई है। वे बारिश में भीग गए थे, इसलिए उसने नहाने के बाद राम की ही शर्ट पहनी है। भूख लगी है तो जानू ने खाना बनाया है। अपनी अपनी थाली में दोनों खाना खा रहे हैं। राम उससे पूछता है, तुम खुश हो...सीन में तमिल में पूछता है, सबटाइटल्स इंग्लिश में हैं लेकिन उस एक सीन में मुझे तमिल समझ आने लगती है। जानू कहती है, हाँ हाँ, बहुत ख़ुश हूँ...राम कहता है, बेवकूफ, अभी नहीं। ऐसे...जीवन में। जानू ठहर जाती है...और उसका जवाब होता है, कि संतोष है।
मुझसे मेरे करीबी जब पूछते हैं, कि क्या लगता है, तुम्हें जो मिला, वो तुम डिजर्व करती हो...तो हम ठीक ठीक नकारते नहीं। कि डिज़र्व तो क्या ही होता है। जो दुख मिला, क्या वह हम डिजर्व करते थे...तो फिर सुख की यह जो छहक आई है हमारे हिस्से, इसे सवाल में क्यों बाँधे? क्यों न जियें ऐसे कि जिस ऊपर वाले के हाथ में सब कुछ है, वो हमारा हमसे बेहतर सोच रहा है। कि सुख और दुख साइक्लिक हैं। कि फ़िलहाल, हमारे पास बहुत है। और जो थोड़ा नहीं है, सो ठीक है। कि सब कुछ दुनिया में किसी को भी कहाँ मिलता है। कि चाह लो, तो जितना चाहते हैं...और जितने की सच में जरूरत थी। उतना तो मिल ही जाता है।
***मुझे लिख के ख़ुशी मिलती है। हम खूब खूब लिखते हैं। लेकिन इन दिनों डायरी से शुरू कर के मैकबुक तक आते आते समय पूरा हो जाता है। इसलिए कई सारी चिट्ठियाँ पेंडिंग हैं। कई सारी कहानियाँ भी। कुछ लोग हैं जिनसे मिलने का बहुत मन है। लेकिन वे दुनिया के दूसरे छोर में रहते हैं।
***ख़ुशी के बारे में सबसे अचरज की बात ये हैं कि बहुत कम लोग हैं जिन्हें सच में पता होता है कि उन्हें किस चीज़ से ख़ुशी मिलती है। वे कभी ठहर के देख नहीं पाये, सोच नहीं पाये कि उनका मन कब शांत रहता है। कब उन्हें कहीं और भागने की हड़बड़ी नहीं होती। किस से मिल कर किसी और की कमी महसूस नहीं होती।
ख़ुद को थोड़ा वक़्त देना गुनाह नहीं है। ख़ुद को थोड़ा जानना समझना। भले आपको लगे कि आप मेटामॉर्फ़ोसिस वाला कीड़ा हैं...लेकिन आईने में देखिए तो सही :) क्या पता आपको मालूम चले, आप बैटमैन हैं :D
Happy Diwali. अपना मन और आपका घर रोशन रहे।
March 24, 2025
जादू टूटता भी तो है।
There are monsters inside my heart. Every couple of days or months I need to go on a holiday to let them lose in the wilderness of solitude. They graze upon silent hours and come back to their cell, voluntarily. When I fail to do so, they keep ramming against the bars of my heart. I live, anxiously. Afraid the bars are not strong enough, and maybe, not even my heart.
Everyone tells me I should be thankful and grateful to the universe that has given me everything. I am, eternally grateful. Yet, I don’t understand the insane desire to get away. क्या इसे ही मन से आवारा होना कहते हैं। क्या एक सुंदर घर बसाना मुझे कभी नहीं आयेगा? क्या हम सुख से भाग रहे हैं?
मन इतना अशांत क्यों होता है?
आज मन बहुत विरक्त हुआ है सुबह से ही। स्विमिंग नहीं गए। वरना थोड़ा यह सोच कर अच्छा लगता है कि मन का कोई इलाज नहीं है लेकिन एक घंटा तैर लेने के कारण शरीर होता बेहतर रहेगा। एड्रेनलिन पंप हो जाता है तो एनर्जी लेवल ठीक रहता है दिन भर। लेकिन गए नहीं। हाई बीपी की दवाई चलनी शुरू हुई है। जैसे ही ये दवाई शुरू होती है, दो चीज़ें होती हैं…मन एकदम शांत हो जाता है, इतना कि जैसे आइलैंड के आसपास का समंदर होता ही…उसमें कोई लहरें नहीं उठतीं। और दूसरी चीज़ कि बहुत नींद आती है, इतनी थकान और आलस कि दिन भर सोने के सिवाये कोई काम करने का मन नहीं करता। न कोई किताब पढ़ने का का कहीं घूमने या घर का और कोई भी काम करने का। Procrastination मोड में चला जाता है।
हम जो हमेशा फाइट या फ्लाइट के मोड में रहते हैं, दिमाग़ एक तरह से हार मान जाता है…और कुछ भी नहीं करता।
गाहे बगाहे यूँ भी होता है कि दिल में दर्द उठने लगता है। मुझे समझ नहीं आता कि क्यों। डेढ़-दो साल पहले कार्डियोलॉजिस्ट को दिखाया था, उस समय सब कुछ ठीक था। फिर ऐसे रहे-रहे दर्द और हॉट-फ़्लैश क्यों होते हैं…ऐसा लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है, लेकिन ठीक-ठीक समझ नहीं आता कि कहाँ। क़ायदे से, हॉस्पिटल जा के फुल-बॉडी चेक-अप कराना चाहिए, लेकिन हम जानते हैं कि हमको एक लंबी छुट्टी चाहिए। सोच ये भी नहीं पा रहे कि अकेले जायें या किसी दोस्त के साथ।
अजीब उलझन है। समझ नहीं आता। अकेले रहना है या किसी दोस्त के साथ। घर पर बच्चों को छोड़ कर सोलो ट्रिप पर जाते हैं तो भयंकर गिल्टी भी फील होता है। मॉम-गिल्ट से कैसे पार पाती हैं औरतें पता नहीं। इतना ज़्यादा सेंसिटिव क्यों ही होना…फिर ये भी तो है कि ख़ुद को एकदम से विरक्त कर भी पाते तो क्या कर ही लेते।
मुझे फिक्शन के टुकड़े लिखने में सबसे ज़्यादा खुशी मिलती थी। कोई एक किरदार, यूँ सामने नज़र से गुज़र गया। जितना सा उस समय दिख पाया, उतना सा ही लिख पाये। पिछले कुछ सालों में ढूँढ ढूँढ कर अपने पसंद की औरतों के लिखने के किस्से पढ़े। कि शायद कोई रास्ता मिले, लेकिन उन्होंने लिखा नहीं है इस बारे में। इस्मत की काग़ज़ी है पैरहन पढ़ते हुए दो चीज़ों को जाने की हुलस थी, वो कैसे लिखती हैं और लिखते हुए जो जीवन में सवाल आते हैं इस इमेजिनरी के लिए, उसके लिए ख़ुद को कैसे तैयार या डिफेंड करती हैं। उनके लिखे में ये दोनों नहीं मिला मुझे। एलिस मुनरो अच्छी लगती रहीं, उनकी कहानियों का ट्विस्ट, उनकी कहानियों के किरदार…लेकिन जब से जाना कि उन्होंने अपनी नाबालिग बेटी के सेक्सुअल असॉल्ट को कहानी में बरता लेकिन अपने उस पति के साथ रहीं और बेटी को भी नहीं बचाया…तब से चाहने के बावजूद उनकी कहानियाँ नहीं पढ़ पा रही। लेखन और लेखक का जीवन अलग होता है, लेकिन जब लेखक का कोई fatal flaw इस तरह से उजागर होता है तो फिर हम उस लगाव के साथ उसे नहीं पढ़ पाते। नेरूदा के बारे में जान कर ऐसा ही कुछ हुआ था। अब भी उनका लिखा पसंद आता है लेकिन फिर भी उससे मन उस तरह से नहीं जुड़ पाता। जैसे बाहर की हवा लगने के बाद मूढ़ी थोड़ा मेहा जाता है, उसका खनक चला जाता है तो खाने में उतना मजा नहीं आता। लेखक ऐसा ही होता है…एकदम खनकता हुआ होना चाहिए। ये लाइन कहाँ खींची जानी चाहिए, भगवान जाने…कुछ लोगों को ये भी बहुत बुरा लगता है कि कोई लेखक सिगरेट-शराब पीता है या किसी ख़ास राजनीतिक विचारधारा का है या उसके कई प्रेम-संबंध रहे। मेरे लिए ये सब मायने नहीं रखता…अधिकतर किसी की कला को उसके व्यक्तित्व से अलग रख कर देखने की कोशिश करते हैं। यह भी तो है कि ग़लतियाँ और गुनाह तो सबके होते हैं।
यूँ भी गलती के हिसाब से न सज़ा बराबर की होती है, ना माफ़ी।
आज एकदम कहीं मन नहीं लग रहा था। मॉल में स्टारबक्स में बैठी हूँ। सामने एस्कलेटर लगे हुए हैं। कोई बच्चा नीचे आने वाले एस्कलेटर पर ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है। उसे मजा आ रहा एक-एक सीढ़ी ऊपर चढ़ने पर भी नीचे आने में। हम भी अक्सर ऐसा ही करते हैं ना…समय का एस्कलेटर हमें फ्यूचर में ले जा रहा होता है और हम समय की उलट दिशा में, अतीत में पीछे जा रहे होते हैं। जानते हुए कि ये ख़तरनाक है। कि हमें चोट लग सकती है। और ये भी कि आख़िर को हमें आगे ही जाना पड़ेगा। हम छोटे से बच्चे हैं। बहुत तेज दौड़ने वाले धावक नहीं कि एस्केलेटर की दुगुनी स्पीड से चढ़ाई पर दौड़ सकें और ऊपर जा सकें। उस स्थान पर जहाँ एक एस्कलेटर ऊपर आ रहा, एक नीचे की ओर जा रहा है।
सुबह एडोलोसेंस देखने की कोशिश की। थोड़ी देर देखने के बाद हिम्मत नहीं हुई। छोटे बच्चों को एक्टिंग में देखना दुखता है। मालूम है ये एक्ट कर रहे हैं, फिर भी। क्यूंकि एक्टिंग करना किसी और के जिए हुए को थोड़ी देर को ही सही, जीना होता है।
लिखते हुए थोड़ी देर को हम किसी किरदार का ग़म-ख़ुशी अपने भीतर महसूस कर रहे होते हैं। बहुत साल पहले जब इश्क़ तिलिस्म लिख रही थी तो उसमें दादी सरकार का किरदार था। एक रोज़ ऐसे ही स्टारबक्स में उसका एक चैप्टर लिख रही थी जब इतरां अपने ब्लैक-आउट से जूझने के लिए तिलिसमपूर जा रही थी। उस रोज़ आज की तरह ही स्टारबक्स में बैठे थे। ये इंदिरानगर ब्रांच था, यहाँ फर्स्ट फ्लोर पर ऊंची टेबल थी और आगे रेक्टैंगयुलर टेबल। बाहर कांच से शहर दिख रहा था। भागता हुआ। तभी अचानक से तिलिसमपूर के गाँव का वो आँगन दिखा जहाँ रूद्र दादी सरकार को बताने आया है कि वो इतरां को इलाज के लिए शहर ले कर जा रहा है। ठीक वहीं बड़ी सरकार ने देखा भय और उनके प्राण छूट गए…यह मेरी आँखों के सामने घटा था। मैंने अपने जीवन में मृत्यु को इतने क़रीब से एक ही बार देखा था। यह काल्पनिक मृत्यु थी लेकिन जैसे सीने के बीच कोई तलवार घुंप गई। मैं फूट-फूट के रो पड़ी थी, जैसे किसी ने मेरे किसी अपने की मृत्यु का समाचार दिया हो। यह मेरे उपन्यास के प्लॉट में था ही नहीं। यह चैप्टर कहीं था ही नहीं। लेकिन मैं अपने किरदारों के हाथ इतनी बेबस थी कि चाह कर भी यह चैप्टर मूल उपन्यास से डिलीट नहीं कर सकती थी। मैंने उस चैप्टर को पूरा लिखा। उसके आगे का उपन्यास भी लिखा। लिखते हुए कितना कुछ भीतर महसूस होता है, हम इसे ठीक ठीक बता भी नहीं सकते। समझा नहीं सकते। कि उपन्यास ख़त्म करना एक लंबे रिश्ते को तोड़ कर आगे बढ़ जाना होता है। लेकिन ये ब्रेक-अप आसान नहीं होता। उपन्यास के किरदार आपके इर्द-गिर्द बने रहते हैं।
और एक दिन अचानक से वे आपको छोड़ कर चले जाते हैं। मैं स्टेज पर थी। दिल्ली में। जो मेरा दुनिया का सबसे प्यारा शहर है। मैं अपनी कहानी पूरी तरह भूल गई। एकदम ब्लैंक। ऐसा कुछ दोस्तों के साथ एग्जाम टाइम में होता था कि पढ़े हुए सवाल दिमाग़ से उड़ गए। मेरे साथ कभी नहीं होता था। मुझे भूलना आता ही नहीं था। फिर मेरे बनाए किरदार तो मेरे भीतर रहते हैं, यहाँ से जाएँगे कहाँ।
मैंने कहानी सुनानी शुरू की…और लगा जैसे मेले में हाथ छूट गया हो किसी का। इतरां, रुद्र, मोक्ष, दादी सरकार…सब एक पानी की दीवार के पीछे थे। मुझे कुछ याद नहीं था। यह अब मेरी कहानी थी ही नहीं। मुझे हमेशा लगता था लिखना जादू है। की वाक़ई सरस्वती का आशीर्वाद है। वरना अच्छा-बुरा, कोई कहानी नहीं लिख सकते थे हम। लिखने से ज़्यादा मज़ा मुझे सिर्फ़ कहानी सुनाने में आता था। This was my forte, this was who I always was, a phenomenal storyteller. मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ हो कि मैं कोई क़िस्सा-कहानी सुना रही हूँ और सुनने वाले का ध्यान भटक जाये। एक जादू था जो मेरे भीतर रौशन हो जाता था। हम ख़ुद एक तिलिस्म, एक जादू, एक अचरज बन जाया करते थे। उस लड़की से मुझे बहुत प्यार था जो स्टेज पर कहानी सुनाने आती थी।
उस रोज़ वो जादू टूट गया।
कि जैसे बदन एक जादू भरा मर्तबान था और मेरे हाथ से गिर कर टूट गया और सारा जादू हवा हो गया।
जादू तलाशना होता तो मुझे मालूम था कि कहाँ जा के खोजते हैं…लेकिन जादू होना फिर से कैसे सीखते हैं। यह तो ख़ुद-बख़ुद होता था। मुझे यह करना नहीं आता।
हम जादूगर नहीं थे, जादू थे।
जादू करना सीख लेते, जादू होना कैसे सीखें। कहाँ से सीखें। मालूम नहीं।
मुझे यह भीतर-भीतर खा रहा है। चाह के भी हम कुछ कर नहीं पा रहे। लिखने का मन करता है और कहीं दूर भाग जाने का। खूब घूमने का। दरिया किनारे। गंगा-किनारे। किसी मंदिर के फर्श पर बैठना सर टिकाये हुए। गाड़ी चलाते जाना, तेज और तेज। पता नहीं, ये कभी फिर से होगा या नहीं।
लेकिन काश कि हो पाये।
कोई पुराना इंटरव्यू सुन रहे थे कहीं, आनंद बख्शी का… उनकी एक कविता के अंत में आती है लाइन। यही उनकी किताब का शीर्षक भी है…पर लगता है, शायद यही दुआ हो आख़िर भी…
मैं जादू हूँ, मैं चल जाऊँगा…
March 21, 2025
एक घूँट चाय
साल 2025 मेरी ज़िंदगी में थोड़ा जल्दी आ गया। Hongkong में थी और वहाँ इंडिया से डेढ़ घंटा पहले है समय। वो डेढ़ घंटा कवर करने के लिए यह साल बहुत तेज रफ़्तार भाग रहा है। कुछ दिन पहले देखा कि तीन महीने बीत गए और मैंने कोई भी पोस्ट नहीं लिखी। जब कि इतना कुछ चल रहा है जीवन में। आज बस यूँ ही लिख रहे हैं...लहरें जो मन में उठ रहीं, यहाँ बिखर जायें...
मुराकामी का नावेल “नॉर्वेजियन वुड” मुझे बहुत पसंद है। खास तौर से, जहाँ वह शुरू होता है। प्लेन लैंड करते समय लड़का सोचता है कि उस लड़की के गुज़रे हुए लगभग एक साल हो गया है और अब उसे उसका चेहरा पूरा याद करने में एक मिनट लगता है। इतना भूल जाना काफ़ी है कि उसके बारे में अब लिखा जा सके। जब उसके गुज़रे हुए ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था तो वह उसके बारे में नहीं लिख सकता था क्यूंकि यह बहुत दुखता था।
हम में से सारे लोग अपने दुख के बारे में नहीं लिख सकते। लेकिन किसी और के लिखे में अपने दुख का हिस्सा देख कर थोड़ी राहत ज़रूर पा लेते हैं। किताब पढ़ना तन्हाई और मिलने के बीच की जगह है। हमारे हाथ में फिजिकली एक किताब होती है, हम छू रहे होते हैं किसी का लिखा हुआ और मन से हम विषय पर लिखी हुई जगह और अपने जिए हुए जगह के बीच के एक क्रॉसफेड में होते हैं। गाँव और कीचड़ भरी पगडंडी हर किसी के मन में अलग खुलती है। जंगल भी। मृत्यु और उससे उपजा दुख भी।
मुझे अपनी किताबों से बहुत प्यार है। मेरे जीवन में प्यारे ऐसे लोग हमेशा बने रहे जिन्हें किताबों से बहुत-बहुत प्यार रहा। प्रमोद सिंह की एक किताब है, अजाने मेलों में…उसकी पहली कहानी एक व्यक्ति के बारे में है जो पूरी दुनिया में भटक कर एक ऐसी किताबों की आलमारी ढूँढ रहा है जो सबसे अच्छी हो…देश-विदेश घूमने के बाद और कई अद्भुत लोगों से मिलने के बाद भी उसे उनकी अलमारियों में कोई ख़ास बात नहीं दिखी। लेकिन एक छोटे से गाँव में, एक छोटे से परिवार के पास एक अद्भुत किताबों की आलमारी थी…वैसी ही जिसे देख कर उसकी आँखें फटी रह जाएँ…वैसी ही जैसा वह कई दिनों से तलाश रहा था। मुझे धुंधली सी यह कहानी एक बार पढ़ने के बाद हमेशा याद रही। जैसे प्रमोद जी के पॉडकास्ट रहे, ज़िंदगी की खामोशी में घुले हुए हमेशा। मैं बैंगलोर 2008 में आई थी…घर परिवार दोस्तों को छोड़ कर। एक छोटे से दो कमरे के घर को घर बना रही थी। किचन में अक्सर कुछ गुनगुनाती खाना बनाती रहती थी। लूप में वे पॉडकास्ट चलते रहते थे, जिनमें बहुत सी बतकही थी…कुछ बेहद सुंदर फिल्मी और ग़ैर-फिल्मी धुनों के साथ रचे बसे…कोई भरे हुए घर में माचिस खोज रहा है और लड़के को सिगरेट और माचिस लाने भेज रहा है…कोई दीदी की गुलाबी चप्पल के बारे में कहता है कि कैसी बेढ़ब थी वो चप्पल, लेकिन तुम्हारे पैर में कितनी सुंदर लगती थी…तो कहीं जरा सा जापान को जान लेने की बात है और पीछे में ला वियों रोज़ गा रही हबारी मिसोरा की आवाज़ है…उन दिनों Shazam तो था नहीं, तो कोई धुन पसंद आई तो महीनों बौराए उसे खोजते रहते थे। पिछले साल भोपाल में प्रमोद जी से मिले तो उन्हें बताया कि उनके पॉडकास्ट एक अकेली लड़की के लिए, जो शादी के बाद नया घर बसा रही थी…परिवार और दोस्तों को छोड़ कर एक अनजान और अजनबी भाषा के शहर में आई थी…वे पॉडकास्ट मेरा मायका थे। मेरे गाँव का घर। दीदी, बड़ी माँ, दादा … वे सारे लोग जो मुझसे छूट गए थे मुझे वे उन रिकॉर्डिंग में मिलते थे। कि हम कभी अकेले नहीं पड़े, कभी भी नहीं।
मैंने अक्सर देखा है कि जो लोग मुझे ब्लॉग पढ़ कर जानते हैं उनके सामने सहज होना आसान होता है। इसलिए कि वे मेरे भीतर की बेतरतीबी को जानते हैं। जिन्हें मैं ब्लॉग पढ़ कर जानती हूँ, उनसे कभी भी मिली हूँ ऐसा जगा है कि उन्हें हमेशा से जानती थी। ब्लॉग पर लिखा एकदम मन का होता था। उस समय सोशल मीडिया के फिल्टर अस्तिव में ही नहीं आए थे। हम एकदम ही सच्ची डायरी लिखते थे कई बार यह सोचते हुए कि कौन ही पढ़ेगा और क्या ही फ़र्क़ पड़ेगा…इनमें से कौन ही बहस करेगा।
एक हैं हमारी…प्रत्यक्षा…2005-08…याद नहीं कब इनका ब्लॉग पहली बार पढ़े, लेकिन उन दिनों जब सब लोग खूब खूब लिखते थे, हम खूब खूब पढ़ते थे। सोचते थे कैसा टटका स्वाद लगता है पढ़ने में। ऐसे मीठे-धूप सेकते लोग। ऐसा रंग-भीगा आसमान। प्रत्यक्षा इसलिए भी अच्छी लगती थीं कि वे संगीत के बारे में लिखती थीं, शास्त्रीय संगीत के बारे में…अपनी माँ के गाने के बारे में और कभी कभी अपने गाने के बारे में भी…पहर दोपहर ठुमरी में एक कहानी है, सजनवा तुम क्या जानो प्रीत… हम अब भी कभी उस कहानी को पढ़ लेते हैं, लगता है उँगली के पोर में बाँस का एक महीन तिनका घुस गया है…अभी भी निकला नहीं है, दुखता है…उनके पानी वाले रंग देखते हैं। संगीत…रंग…और शब्द…सबमें उनकी कहानी उतनी ही सुंदर है। एक बार उन्होंने पेरिस में The Shakespeare and Company के सामने की एक तस्वीर डाली थी…बस ऐसे ही…हम पेरिस गए तो लगभग दस किलोमीटर का चलना हो गया, लेकिन किताबों की उस पुरानी दुकान के आगे कुर्सी पर बैठ कर ख़ुशी हुई…अपने प्यारे किसी के जिए हुए में किसी दूसरे समय में ठहर गए…
फेसबुक पर देखते हैं कभी कभी धूप में भीगा उनका कमरा। सोचते हैं। ऐसे सुंदर लोग होते हैं। इसी दुनिया में। इतने सुंदर लोग।
मेले में मिलते हैं तो बहुत हुलस कर बात करने का मन होता है। वे कहीं और जा रही थीं, दो और दोस्तों के साथ…हम बेख़याली में चलते रहे साथ…सामने चाय वाले स्टाल्स थे…उनके दोस्त ने उनके हाथ में चाय का कुल्हड़ दे दिया…हम टाटा कहने को आए, कि ठीक है, हम फिर मिलते हैं…वे कहती हैं, ‘अरे, चाय का एक घूँट तो ले लो!’ हम अचरज में देखते हैं। वे बड़ी हैं हमसे उम्र में, अनुभव में, stature में…हर तरह से…हम उनकी चाय कैसे जुठा दें…लेकिन हम इस प्यार को जानते हैं, हाँ ये प्यार हमारे हिस्से आया बहुत कम। उस समय वे बस हमारे घर-परिवार की बड़ी दीदी हो गईं…ये मेरे लिए इतनी बड़ी बात थी कि ताउम्र याद रहेगी…हमेशा हमेशा…कि जैसे शायद हम रहे अपने से छोटों के लिए, कोई हमारे लिए भी हो सकता है…चाय का एक छोटा सा घूँट…मन प्राण में ख़ुशी का बिरवा रोपता हुआ…इस दुनिया के सुंदर होने और बने रहने की उम्मीद का बिरवा।
आज सुबह उठे तो मन खाली था। सोचा कुछ पढ़ लेते हैं।
किताबों से भरे हुए घर में होना एक कमाल की चीज़ है। आपने सामने कई दुनियाएँ खुली हुई होती हैं। वे लोग जो पूछते हैं कि इतनी किताबें क्यों ख़रीदती हो। क्या तुमने सारी किताबें पढ़ ली हैं जो तुम्हारे घर में हैं? तो बात इतनी ही है कि हम समग्र में कुछ नहीं पढ़ पाते हैं। पूरा पढ़ लेने से ही कौन सा किताब आ जाती है समझ में पूरी पूरी। निर्मल की ‘वे दिन’ कितने बार पढ़ चुकी हूँ, अब भी हर बार ख़ुद से पूछती हूँ कि जब वो पूछती है, ‘तुम विश्वास करते हो’ तो किस चीज़ पर विश्वास करने की बात कह रही है। मुझे नहीं आता समझ में…मैं बस भटकती हूँ उन किरदारों के साथ…दूसरे शहरों में, दूसरे लोगों से मिलते हुए।
पिछले कुछ सालों में हमारी ज़िंदगी बहुत विजुअल हो गई है। फ़ोन हमें कई दृश्य दिखाता है, कमोबेश ठीक-ठीक रंगों में। वीडियो भी। बिना देखे भी हमने बहुत कुछ देखा है। कई सारे रंग हमारी ज़िंदगी में घुले हैं। पहले ऐसा नहीं था, हमने सिर्फ़ पढ़ा था और पढ़ कर ही सोचते थे कि समंदर का फ़िरोज़ी रंग कैसा होता होगा। फ़िरोज़ी स्याही से लिखते थे और आँख बंद कर सोचते थे कोई ब्लैक शर्ट में कैसा दिखेगा। अब आप जो भी इमैजिन करते हैं, ऐसे AI ऐप्स आ गए हैं कि आपके सोचने के हिसाब से तस्वीर बना कर दिखा देंगे। अब सच में इमैजिन करना ही दुर्लभ होता जाएगा। सब कुछ दिख ही रहा है सामने तो आँख बंद कर के कुछ देखने की क्या ज़रूरत है।
दुख की दुनिया भीतर है। छोटी सी किताब है। आज यही किताब उठायी। दृश्य खुलता जाता है। इसका गाँव, कीचड़ वाला रास्ता, घर तक पहुँचने की यात्रा…सब खुलता है आँख के आगे। कुछ पन्ने पढ़ के रख दी किताब। अभी यह पढ़ने का मन नहीं है। इसे पढ़ते हुए घर तक पहुँचने की वे यात्राएँ याद आयीं जहाँ अंतिम दर्शन के लिए परिवार के लोग सफ़र कर रहे हैं। मैं ऐसे दो बार गई हूँ। एक बार दादी के गुज़र जाने पर, और एक बार अपने बड़े मामाजी के गुज़र जाने पर। इस विषय पर पढ़ना मुश्किल है…आप एक ख़ास मनःस्थिति में इसे पढ़ सकते हैं। किताब पढ़ने का बहुत मन है, कई बार उलटाती पलटाती हूँ। बीच के कुछ वाक्य पढ़ती हूँ। बेहद सुंदर, सुगढ़ गद्य। जिससे प्यास मिट सकती हो। लेकिन मन दुखता है। रख देती हूँ फिर से, कि आज नहीं।
इसे पढ़ते हुए उस अच्छे एडिटर के बारे में सोचा, जिसका ज़िक्र किताब के आख़िरी पन्ने में आता है। अनुराग। जो कई सालों से दोस्त है। एक अच्छा संपादक रचना से कई बार गुज़रता है, एक पाठक की तरह और एक एडिटर की तरह भी। उसका काम यह देखना है कि किताब में कोई नुक्स न रह जाये, कोई टाइपो की कील न निकली हो, जो पढ़ते हुए माथे में ठुक जाये। किताब की सरसता अपनी जगह है, टेक्स्ट का अप्रतिम परफेक्शन अपनी जगह। मन हिलग जाता है। सोचती हूँ, दुख की इस भीतरी दुनिया को साथ में रचते/ठीक-करते/सँवारते हुए, उसे कितना कुछ दुखा होगा। किताब में font, काग़ज़, बाइंडिंग, छपाई के लिए प्रेस का चुनाव…सब कुछ से अक्सर, अकेले जूझते हुए। कितना मुश्किल होगा यह…कई साल लगातार सुंदर किताबें रचने के ख्याल से भरे रहना।
मैंने उसे बहुत साल पहले देखा था। स्काइप की खिड़की में। किताबों और शब्दों से उलझता हुआ लड़का। उसके अनुवाद की हुई कविताएँ पढ़ते हुए मेरी अपनी हो गईं। हिंदी में कविताओं को पढ़ने में अलग मिठास आती है। इतने साल में अब भी वैसा ही है। एक एक शब्द किसी जौहरी की तरह बारीकी से नाप-चुन कर रखता हुआ। उसके लिए शब्द सोने से ज़्यादा क़ीमती हैं। उसके हाथ से गुज़र कर कोई किताब आती है तो ये भी सोचती हूँ कि उसने इसे कैसे पढ़ा होगा।
2008 से बैंगलोर में हूँ। यहाँ का स्टार्ट-अप कल्चर है। सबने कभी न कभी अपना कुछ करने का सोचा ही होगा। स्टार्ट-अप करने वाले एक सपना जी रहे होते हैं। मैंने अपने घर में यह देखा है। कुणाल को कई साल लगातार। ख़ुद भी कब से सोच रहे हैं कि एक स्टार्ट-अप खोलेंगे, लेकिन ऐसा सोचना और सच में एक कंपनी खोलने में बहुत अंतर होता है। एक ज़िद होती है, दुनिया को बेहतर करने की…और ये काबिलियत कि अपना सपना सबकी आँखों में रोप सकें। इन दिनों कुणाल दो कमाल के आइडियाज़ पर काम कर रहा है। मैंने पिछली बार उसके स्टार्ट-अप का कम्यूनिकेशन पूरा हैंडल किया था। एक बहुत अच्छी कहानी को उतने ही अच्छे ढंग से सुनाना होता है। मैं उस कंपनी में इम्प्लॉयड नहीं थी, उसकी फाउंडर थी। टेक बनाने और डिप्लॉय करने वो कहानी मेरी भी कहानी थी। अब फिर से वैसी कहानियाँ बन रही हैं।
मेरे भीतर अब कहानियाँ नहीं उगतीं, लेकिन कभी कभी पुरानी कहानियाँ सुनाने का मन करता है। मेरी ख़ुद की। धूप, समंदर, आसमान की कहानी। उन लड़कियों की जिन्हें प्यार होता था। जो चाय के एक घूँट पर मन में समंदर लिए चलती थीं। मुझे लगता है जैसे मेरे जैसे लोगों की दुनिया में कहीं जगह नहीं हैं। टू सेंसिटिव। ज़्यादा ही दुखता है, ज़्यादा ही ख़ुश हो लेते हैं। ज़्यादा मुहब्बत हो जाती है। ज़्यादा जलन होती है। कम में जीना आया ही नहीं। मेरे जैसी लड़कियों की कहीं जगह नहीं है दुनिया में, इसलिए कहानियों में अपने हिस्से की ज़मीन चाहते हैं हम। थोड़ी सी।
लिखना भी आदत है। शायद तैरने या साइकिल चलाने की तरह। बहुत साल छोड़ दें तो थोड़ा स्लो हो जाता है। लेकिन बस डेस्क पर बैठ भी जायें तो काफ़ी कुछ लिखा जाता है। इसे पहले की तरह ही ब्लॉग पर पोस्ट कर रहे हैं। कि आज के लिए मन में इतना ही कुछ है।
November 14, 2024
जन्मपार का इंतज़ार
पता नहीं किस साल की बात है, पर हम लिखना सीख गए थे और दो चार दस वाक्य लिख सकते थे। इन वाक्यों में बेसिरपैर की बातें ही होती होंगी, पर इतना बात बनाना आ गया था हमको। नानाजी पटना में रहते थे और हमें पोस्टकार्ड लिखते थे। ये ३० पैसे के जवाबी पोस्टकार्ड थे, जिन पर नानाजी का पता लिखा हुआ होता था। पता, जो आज भी ज़बानी याद है। इस ब्लैंक पोस्टकार्ड पर जल्दी से चिट्ठी लिख कर डाकिये को उसी समय दे सकते थे। बचपन की एक चीज़ अब भी याद है कि कई सारे जवाबी पोस्टकार्ड पड़े रह जाते थे और हम नानाजी को जवाब नहीं दे पाते थे। उस समय लिखने का धीरज विकसित नहीं हुआ था। चंद शब्दों की क़ीमत कितनी ज़्यादा होती है, हो सकती है…ये नहीं समझते थे। मम्मी हमेशा जवाब देती थी। अक्सर उसके जवाब में आख़िरी एक लाइन हम अपनी लिख देते थे। हम शायद std. 5 में थे जब मेरे नानाजी गुज़र गए। इस बात को कई साल हो गये हैं, लेकिन वे सादे-जवाबी पोस्टकार्ड जिन पर मुझे नानाजी के लिए चिट्ठी लिखनी थी, वे मेरे भीतर आज भी टीसते हैं। हम जैसे होते हैं, हमें दुनिया वैसी ही लगती है। मुझे कभी भरोसा नहीं हुआ कि कोई मेरी चिट्ठियों का जवाब भी लिखेगा। चिट्ठी, पोस्टकार्ड, पिक्चर पोस्टकार्ड…और बाद में ईमेल।
कुछ साल पहले संजय की किताब आयी, “मिट्टी की परात”, इसी नाम की कहानी में एक बहुत पुराना कमरा होता है, जिसमें एक बहुत पुरानी मिट्टी की परात होती है…यह मिट्टी की परात एक बच्चे से टूट जाती है। वह बच्चा इस गुनाह को अपने भीतर कितने साल जीता है, पढ़ते हुए महसूस होता है। बचपन के हमारे छोटे गुनाह होते हैं लेकिन हम सालों तक ख़ुद को सज़ा देते रहते हैं। अपने हिसाब से प्रायश्चित्त करते हैं…बस, ख़ुद को कभी माफ़ नहीं करते।
इस कहानी को पढ़ते हुए महसूस हुआ कि मेरे साथ कफ़स में और भी कुछ बाशिंदे हैं। कि बचपन की याद एक सॉलिटरी कन्फाइनमेंट नहीं है। कि हम इकलौते गुनाहगार नहीं। कितनी अजीब चीज़ है न कि हम कमरे में बंद हो कर ख़ुद को ही यातना देते रहते हैं। ना किसी से पूछते हैं, ना कहीं गुनाह क़बूलते हैं, ना कहीं माफ़ी माँगते हैं। अपनी ही कचहरी बिठाये, ख़ुद ही सज़ायाफ़ता मुजरिम, जज भी हम ख़ुद ही…
लैंडलाइन आया तो मुहल्ले में एक ही था। ज़रूरी खबर वहाँ से आ जाती थी। लिखते हुए भी वो घबराहट याद है कि जब वहाँ से एक अंकल लगभग दौड़ते हुए घर आये थे कि जल्दी चाहिए, पटना से फ़ोन आया है…अभी तुरंत चलिए। फिर हम लोग दौड़ते हुए उन के घर पहुँचे थे…फ़ोन बाजना शुरू हो चुका था। फिर वहाँ से बदहवासी में दौड़ते हुए घर आये हैं। खबर इतनी ही दी गई थी कि नानाजी की तबियत बहुत ख़राब है। ट्रेन पर बैठते हुए पहली बार घबराहट हुई। उसके पहले हमारे लिए ट्रेन में बैठना हमेशा ख़ुशी का सबब होता था। देवघर से पटना के रास्ते में पड़ने वाले सारे ट्रेन स्टेशन मुझे उसी क़तार में नियत अंतराल के साथ याद थे। कहाँ से कितना देर का सफ़र और बचा हुआ है। पर ये सब स्टेशन, हाल्ट…उस रोज़ बहुत धीमी रफ़्तार से गुज़रते दिख रहे थे। ननिहाल पहुँचे तो जिस चीज़ पर सबसे पहले ध्यान गया वो ये कि सीढ़ियाँ धुली हुई थीं। इसके पहले मैंने सीढ़ियाँ धुलते कभी नहीं देखी थीं। बिना गिरे उन सीढ़ियों पर दौड़ते ऊपर पहुँचे तो मालूम हुआ कि हम देर से पहुँचे हैं। कि सब लोग मसान को निकल गये हैं। धुली सीढ़ियों का हौल हमारे सीने पर ऐसा बैठा है कि आज भी धुली हुई सीढ़ियाँ देख कर धड़कन तेज हो जाती है। मेरे लिये यह मृत्यु का चेहरा था।
इसके बाद हमने वे सफ़ेद पोस्टकार्ड देखे जिनपर तेरहवीं का न्योता आता था। और अक्सर ये पोस्टकार्ड मिलते ही फाड़ दिये या फिर जला दिये जाते थे। उन दिनों तार से मृत्यु की खबर आती थी, ऐसा भी सुनते थे। कि डाकिया तार लेकर आया है तो औरतें अक्सर तार पढ़ने के पहले से रोना शुरू कर देती थीं…यक़ीन इतना पक्का होता था कि कोई बुरी खबर ही होगी। पापा कहते थे, no news means good news. कि आदमी परदेस में रह रहा है, सब कुछ ठीक चल रहा होगा, इसलिए चिट्ठी पतरी नहीं लिख रहा। कुछ दिक़्क़त होगी तब न लिखेगा।
बचपन में चिट्ठी लिखने की दूरी और करीबी बस नानाजी से थी। फिर मेरी स्कूल की बेस्ट फ्रेंड के पापा का ट्रांसफ़र दूसरे शहर हो गया। उसे कई साल चिट्ठियाँ लिखीं। दसवीं में आने तक। मेरे पास उसके नानीघर का पता भी था, कि गर्मी छुट्टियों में हम उसके नानीघर चिट्ठी भेजते थे। हम 10th के बाद पटना आ गये और मेरी इस दोस्त का पता खो गया। पता खोना मतलब उन दिनों दोस्त खोना होता था। 1999 तक शहर बदलना मतलब हमेशा के लिए बिछड़ना होता था। लड़कियों के लिए किसी भी और शहर जाने का कोई तरीक़ा था ही नहीं। हम सफ़र सिर्फ़ घूमने के लिए मम्मी-पापा के साथ जाते थे। वक़्त अपना पर्सनल होता है, शहर अपना पर्सनल हो सकता है…ऐसा कुछ उस समय ख़्याल में कहाँ आता था।
किसी से चाहा और बात हो गई, ऐसा सिर्फ़ तब होता था जब कोई हमारा पड़ोसी रहे, क्लास मेट हो या कि फिर फ़ैमिली फ्रेंड। ट्यूशन में पढ़ने वाले लोगों से दोस्ती करने का समय नहीं था। किसी को चाहना और उससे बात करने की इच्छा होना…यह हमारी फ़ितरत ही नहीं बन पाया। हमारे भीतर साल दर साल इंतज़ार जमा होता रहता था। हमने तारीख़ें गिनीं, महीने गिने, सालों साल गिने हैं…कि हम आज भी किसी का उम्र भर इंतज़ार कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि शायद हम कभी भी नहीं मिलें।
कला में ठहरना दो तीन जगहों पर देख कर मैंने ख़ुद के भीतर दर्ज किया है, अंडरलाइन करते हुए। बहुत साल पहले किताब पढ़ी थी, गॉन विथ द विंड…उसकी नायिका स्कार्लेट, बहुत दुख होने पर कहती है, मैं इसके बारे में कल सोचूँगी…after all, tomorrow is another day. वोंग कार वाई की फ़िल्म 2046 में एंड्रॉयड्स हैं जिनमें भावनायें देर से ज़ाहिर होती हैं। delayed emotional response कि दुख आज हुआ लेकिन आँसू कई दिन बाद निकलेंगे।
सोचती हूँ तो लगता है, Everything, ultimately is unfinished. हम इसलिए पुनर्जन्म में यक़ीन करते हैं। कि हमें इस बात की चिंता न हो कि कुछ अधूरा रह गया। जन्मपार के दुख। लिखते हुए मालूम नहीं था, क्या लिख रहे हैं। अब सोचती हूँ तो लगता है, ये जो हूक जैसा चुभता रहता है, सीने के बीच, बेवजह…साल दर साल…यह इंतज़ार का दुख है। कई जन्म पीछे से साथ चलता हुआ।
जल, वायु, अग्नि, आकाश, और पृथ्वी के अलावा, हम इंतज़ार के भी बने हैं।
November 7, 2024
मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट, कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं
हमारे देश में अधिकतर लोगों का वक़्त उनका ख़ुद का नहीं होता। गरीब हो कि अमीर, एक आधापापी अब तामीर में शामिल हो गई है। हम जहाँ हैं, वहाँ की जगह कहीं और होना चाहते हैं। समय की इस घनघोर क़िल्लत वाले समय में कुछ लोगों ने अपने लिए थोड़ा सा वक़्त निकाल रखा है। यह अपने लिए वाला वक़्त किसी उस चीज़ के नाम होता है जिससे दिल को थोड़ा करार आये…वो ज़रा सा ज़्यादा तेज़ भले धड़के, लेकिन आख़िर को सुकून रहे। यह किसी क़िस्म का जिम-रूटीन हो सकता है, कोई खेल हो सकता है, या कला हो सकती है।
इस कैटेगरी की सब-कैटेगरी में वो लोग जिन्होंने इस ख़ास समय में अपने लिए कला के किसी फॉर्म को रखा है। नृत्य, गायन, लेखन, पेंटिंग…इनके जीवन में कला का स्थान अलग-अलग है। कभी यह हमारी ज़रूरत होती है, कभी जीने की सुंदर वजह, कभी मन के लिये कोई चाराग़र। मेरे लिये अच्छी कला का एक पैमाना यह भी है कि जिसे देख कर, सुन कर, या पढ़ कर हमारे भीतर कुछ अच्छा क्रिएट करने की प्यास जागे। उस कथन से हम ख़ुद को जोड़ सकें। हमारे समकालीन आर्टिस्ट्स क्या बना रहे हैं, उनकी प्रोसेस कैसी है…उनके डर क्या हैं, उनकी पसंद की जगहें कौन सी हैं, वे कैसा संगीत सुनते हैं…किसी हमउम्र लेखक या पेंटर से मिलना इसलिए भी अच्छा लगता है कि वे हमारे समय में जी रहे हैं…हमारे परिवेश में भी। हमारे कुछ साझे सरोकार होते हैं। अगर लेखन में आते कुछ ख़ास पैटर्न की बात करें तो विस्थापन, आइडेंटिटी क्राइसिस, उलझते रिश्ते…बदलता हुआ भूगोल, भाषा का अजनबीपन…बहुत कुछ बाँटने को होता है।
कहते हैं कि how your spend your days is how you spend your life. मतलब कि हमारे जीवन की इकाई एक दिन होता है…और रोज़मर्रा की घटनायें ही हमारे जीवन का अधिकतर हिस्सा होती हैं। मैं बैंगलोर में पिछले 16 साल से हूँ…और कोशिश करने के बावजूद यहाँ की भाषा - कन्नड़ा नहीं सीख पायी हूँ। हाँ, ये होता था कि इंदिरानगर के जिस घर में दस साल रही, वहाँ काम करने वाली बाई और मेरी कुक की बातें पूरी तरह समझ जाती थी। मुझे कुछ क्रियायें और कुछ संज्ञाएँ पता थी बस। जैसे ऊटा माने खाना, केलसा माने काम से जुड़ी कोई बात, बरतिरा माने आने-जाने संबंधित कुछ, कष्ट तो ख़ैर हिन्दी का ही शब्द था, निदान से…मतलब आराम से…थिर होकर करना। उनकी बातचीत अक्सर घर के माहौल को लेकर होती थी…उसके बाद अलग अलग घरों में कामवालियों की भाषा नहीं समझ पायी कभी भी। मैं शायद भाषा से ज़्यादा उन दोनों औरतों को समझती थी। उन्होंने एक बीस साल की लड़की को घर बसाने में पूरी मदद की…उसकी ख़ुशी-ग़म में शामिल रही। उनको मेरा ख़्याल था…मुझे उनका। वे मेरा घर थीं, उतना ही जितना ही घर के बाक़ी और लोग। ख़ैर… घर के अलावा बाहर जब भी निकली तो आसपास क्या बात हो रही है, कभी समझ नहीं आया…सब्ज़ी वाले की दुकान पर, किसी कैफ़े में, किसी ट्रेन या बस पर भी नहीं…कुछ साल बाद स्टारबक्स आया और मेरे आसपास सब लोग अंग्रेज़ी में सिर्फ़ स्टार्ट-अप की बातें करने लगे। ये वो दिन भी थे जब आसपास की बातों को सुनना भूल गई थी मैं और मैंने अच्छे नॉइज़ कैंसलेशन हेडफ़ोन ले लिये थे। मैं लूप में कुछ इंस्ट्रुमेंटल ही सुनती थी अक्सर। 2015 में जब तीन रोज़ इश्क़ आयी तो मैं पहली बार दिल्ली गई, एक तरह से 2008 के बाद पहली बार। वहाँ मेट्रो में चलते हुए, कहीं चाय-सिगरेट पीते, खाना खाते हुए मैं अपने आसपास होती हुई बातों का हिस्सा थी। ये दिल्ली का मेरा बेहद पसंदीदा हिस्सा था। मुझे हमेशा से दिल्ली में पैदल चलना, शूट करना और कुछ से कुछ रिकॉर्ड करना भला लगता रहा है।
हिन्द-युग्म उत्सव में भोपाल गई थी। सुबह छह बजे की फ्लाइट थी, मैं एक दिन पहले पहुँच गई थी। सफ़र की रात मुझे यूँ भी कभी नींद नहीं आती। तो मेरा प्रोसेस ऐसा होता है कि रात के तीन बजे अपनी गाड़ी ड्राइव करके एयरपोर्ट गई। वहाँ पार्किंग में गाड़ी छोड़ी और प्लेन लिया। दिन भर भोपाल में दोस्तों से बात करते बीता। मैं वहाँ पर जहांनुमा पैलेस में रुकी थी, जो कि शानदार था। इवेंट की जगह पर शाम में गई, वहाँ इंतज़ाम देखा और उन लोगों के डीटेल लिए जिनसे अगले दिन इवेंट पर AI के बारे में बात करनी थी। भर रात की जगी हुई थी, तो थकान लग रही थी। रात लगभग 7-8 बजे जब रेस्टोरेंट गई डिनर करने के लिए तो हेडफ़ोन नहीं लिये। किंडल ले लिया, कि कुछ पढ़ लेंगे। कुछ सुनने का पेशेंस नहीं था। रेस्टोरेंट ओपन-एयर था। मैंने एक सूप और खाने का कुछ ऑर्डर कर दिया। मेरे आसपास तीन टेबल थे। दो मेरी टेबल के दायीं और बायीं और, और एक पीछे। इन तीनों जगह पर अलग अलग लोग थे और वे बातों में मशगूल थे। मुझे उनकी बातें सुनाई भी पड़ रही थीं और समझ भी आ रही थीं…यह एक भयंकर क्रॉसफेड था जिसकी आदत ख़त्म हो गई थी। मैं बैंगलोर में कहीं भी बैठ कर अकेले खाना खा सकती हूँ। सबसे ज़्यादा शोर-शराबे वाली जगह भी मेरे लिये सिर्फ़ व्हाइट नॉइज़ है जिसे मैं मेंटली ब्लॉक करके पढ़ना-लिखना-सोचना कुछ भी काम कर सकती थी। मैं चाह के भी किंडल पढ़ नहीं पायी…इसके बाद मुझे महसूस हुआ कि समझ में आने वाला कन्वर्सेशन अब मेरे लिये शोर में बदल गया है। एक शहर ने मुझे भीतर बाहर ख़ामोश कर दिया है।
बैंगलोर में मेरे पास एक bhk फ्लैट है - Utopia, जिसे मैं अपने स्टडी की तरह इस्तेमाल करती हूँ। लिखना-पढ़ना-सोचना अच्छा लगता है इस स्पेस में। लेकिन शायद जो सबसे अच्छा लगता है वो है इस स्पेस में अकेले होना। ख़ुद के लिए कभी कभी खाना बनाना। अपनी पसंद के कपड़े पहनना…देर तक गर्म पानी में नहाना…स्टडी टेबल से बाहर की ओर बनते-बिगड़ते बादलों को देखना। यह तन्हाई और खामोशी मेरे वजूद का एक हिस्सा बन गई है। बहुत शोर में से मैं अक्सर यहाँ तक लौटना चाहती हूँ।
मुराकामी की किताबें मेरे घर में होती हैं। किंडल पर। और Utopia में भी। ६०० पन्ने की The wind up bird chronicles इसलिए ख़त्म कर पायी कि यह किताब हर जगह मेरे आसपास मौजूद थी। कुछ दिन पहले एक दोस्त से बात कर रही थी, कि The wind up bird chronicles कितना वीभत्स है कहीं कहीं। कि उसमें एक जगह एक व्यक्ति की खाल उतारने का दृश्य है, वह इतना सजीव है कि ज़ुबान पर खून का स्वाद आता है…उबकाई आती है…चीखें सुनाई पड़ती हैं। कि मैं उस रात खाना नहीं खा पायी। वो थोड़े अचरज से कहता है, But you like dark stuff, don’t you? दोस्त हमें ख़ुद को डिफाइन करने के लिए भी चाहिए होते हैं। मैंने एक मिनट सोचा तो ध्यान आया कि मैं सच में काफ़ी कुछ स्याह पढ़ती हूँ। कला में भी मुझे अंधेरे पसंद हैं।
दुनिया में कई कलाकार हैं। इत्तिफ़ाक़न मैं जिनके प्रेम में पड़ती हूँ, उनके जीवन में असह्य दुख की इतनी घनी छाया रहती है कि कैनवस पर पेंट किया सूरज भी उनके जीवन में एक फीकी उजास ही भर पाता है। शिकागो गई थी, तब वैन गो की बहुत सारी पेंटिंग्स देखी थीं। वह एक धूप भरा कमरा था। उसमें सूरजमुखी थे। मैं वहाँ लगभग फफक के रो देना चाहती थी कि वैन गो…तुमने कैसे बनाए इतने चटख रंगों में पेंटिंग्स जब कि तुम्हारे भीतर मृत्यु हौले कदमों से वाल्ट्ज़ कर रही थी। अकेले। कि पागलपन से जूझते हुए इतने नाज़ुक Almond Blossoms कैसे पेंट किए तुमने…कि स्टारी नाइट एक पागल धुन पर नाचती हुई रात है ना? मैं ऐसी रातें जाने कहाँ कहाँ तलाशती रहती हूँ। कि जब न्यू यॉर्क में MOMA में स्टारी नाइट देखी थी तो रात को टाइम्स स्क्वायर पर बैठी रही, रात के बारह बजे अकेले…चमकती रोशनी में ख़ुद को देखती…स्याही की बोतल भरती बूँद बूँद स्याह अकेलापन से…
यह दुनिया मुझे ज़रा कम ही समझ आती है। अधिकतर व्यक्ति जब कोई अच्छा काम कर रहे होते हैं तो वे चाहते हैं कि उन्हें एक मंच मिले, उन पर स्पॉटलाइट हो…वे गर्व मिश्रित ख़ुशी से सबके सामने अपनी उपलब्धियों के लिए कोई अवार्ड लेने जायें। मंच पर उन लोगों के नाम गिनायें जिन्होंने इस रास्ते की मुश्किलें आसान कीं…जो उनके साथ उनके मुश्किल दौर में खड़े रहे। ऐसे में दुनिया का अच्छाई पर भरोसा बढ़ता है और उन्हें लगता है मेहनत करने वाले लोग देर-सवेर सफलता हासिल कर ही लेते हैं। इन दिनों जिसे hustle कहते हैं। कि ऑफिस के अलावा भी कुछ और साथ-साथ कर रहे हैं। कि उन्होंने ख़ुद को ज़िंदा रखने की क़वायद जारी रखी है।
मुझे अपने हिसाब का जीवन मिले तो उसमें रातें हों…कहीं चाँद-तारे की टिमटिम रौशनी और उसमें हम अपनी कहानी सुना सकें। अंधेरा और रौशनी ऐसा हो कि समझ न आए कि जो सच की कहानी है और जो झूठ की कहानी है। कि किताब के किरदारों के बारे में लोग खोज-खोज के पूछते हैं कि कहाँ मिला था और मेरे सच के जीवन के नीरस होने को झूठ समझें। कि सच लिखने में क्या मज़ा है…सोचो, किसी का जीवन कहानी जितना इंट्रेस्टिंग होता तो वो आत्मकथा लिखता, उपन्यास थोड़े ही न।
मैं विरोधाभासों की बनी हूँ। एक तरफ़ मुझे धूप बहुत पसंद है और दूसरी तरफ़ मैं रात में एकदम ऐक्टिव हो जाती हूँ - निशाचर एकदम। घर में खूब सी धूप चाहिए। कमरे से आसमान न दिखने पर मैं अवसाद की ओर बढ़ने लगती हूँ। और वहीं देर रात शहर घूमना। अंधेरे में टिमटिमाती किसी की आँखें देखना। देर रात गाड़ी चलाना। यहाँ वहाँ भटकते किरदारों से मिलना…यह सब मुझे ज़िंदा रखता है।
एक सुंदर कलाकृति हमें कुछ सुंदर रचने को उकसाती है। हमारे भीतर के स्याह को होने का स्पेस देती है। हमें इन्स्पायर करती है। किसी के शब्द हमारे लिए एक जादू रचते हैं। कोई छूटा हुआ प्रेम हमारे कहानी की संभावनायें रचता है। हम जो जरा-जरा दुखते से जी रहे होते हैं…किसी पेंटिंग के सामने खड़े हो कर कहते हैं, प्यारे वैन गो…टाइट हग्स। तुम जहाँ भी रंगों में घूम रहे हो। प्यारे मोने, क्या स्वर्ग में तुम ठीक-ठीक पकड़ पाये आँखों से दूर छिटकती रौशनी को कभी?
मेरी दुनिया अचरज की दुनिया है। मैं इंतज़ार के महीन धागे से बँधी उसके इर्द गिर्द दुनिया में घूमती हूँ। जाने किस जन्म का बंधन है…उसकी एक धुंधली सी तस्वीर थी। खुली हुई हथेली में जाने एक कप चाय की दरकार थी या माँगी हुई सिगरेट की…बदन पर खिलता सफ़ेद रंग था या कोरा काग़ज़…
जाने उसके दिल पर लिखा था किस-किस का नाम…जाने कितनी मुहब्बत उसके हिस्से आनी थी…
मेरे हिस्से सिर्फ़ एक सवाल आया था…उसके काँधे से कैसी ख़ुशबू आती थी?
जलता हुआ दिल सिगरेट के धुएँ जैसा महकता है। भगवान ही जानता है कि कितनी पागल रातें आइस्ड वाटर पिया है। बर्फ़ीला पानी दिल को बुझाता नहीं। नशा होता है। नीट मुहब्बत का नशा। कि हम नालायक लोग हैं। बोतल से व्हिस्की पीने वाले। इश्क़ हुआ तो चाँद रात में संगमरमर के फ़र्श पर तड़पने वाले। आत्मा को कात लेते किसी धागे की तरह और रचते चारागार जुलाहों का गाँव कि जहाँ लोग टूटे हुए दिल की तुरपाई करने का हुनर जानते। कि हमारे लिये जो लोग ईश्वर ने बनाये हैं, वे रहते हैं कई कई किलोमीटर दूर…कि उनके शहर से हमारे शहर तक कुछ भी डायरेक्ट नहीं आता…न ट्रेन, न प्लेन, न सड़क…हर कुछ के रास्ते में दुनियादारी है…
हम थक के मुहब्बत के उसी ईश्वर से दरखास्त करते, कि दिल से घटा दे थोड़ी सी मुहब्बत…कि इतने इंतज़ार से मर सकते हैं हम। कि कच्ची कविताओं की उम्र चली गई। अब ठहरी हुई चुप्पियों में जी लें बची हुई उम्र।
लेकिन दिल ज़िद्दी है। आख़िर, किसी लेखक का दिल है, इस बेवक़ूफ़ को लगता है, हम सब कुछ लिख कर ख़त्म कर देंगे। लेकिन असल में, लिखने से ही सब कुछ शुरू होता है।
***
कलाई पर प्यास का इत्र रगड़ता है
बिलौरी आँखों वाला ब्रेसलेट
इसके मनके उसकी हथेलियों की तरह ठंढे हैं।
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इक जादुई तकनीक से कॉपी हो गये
महबूब के हाथ
वे हुबहू रिप्लीकेट कर सकते थे उसका स्पर्श
उसकी हथेली की गर्माहट, कसावट और थरथराहट भी
प्रेमियों ने लेकिन फेंक दिया उन हाथों को ख़ुद से बहुत दूर
कि उस छुअन से आती थी बेवफ़ाई की गंध।
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मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट
कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं
November 2, 2024
Be my love in the rain
बारिश सोचती हूँ। हम सब बारिश के मौसम में अलग बर्ताव करते हैं। बारिश के प्यार करने वाले कई क़िस्म के लोग होते हैं। कुछ लोग बारिश आते ही घर के भीतर भाग जाते हैं कि भीग न जायें। कुछ लोग दुकानों के आगे छज्जों के नीचे खड़े हो जाते हैं। बाइक वाले लोग पुल-पुलिया के नीचे भी बारिश के थम जाने का इंतज़ार करते हैं। हम जिस जलवायु के होते हैं, वह हमारा कुदरती बर्ताव निर्धारित करती है। हमारे तरफ़ बारिश ऐसे अचानक कभी भी नहीं बरसती थी…उसके आने का नियत मौसम होता था। जेठ की कड़कड़ाती गर्मी के बाद आती थी बारिश। ज़मीन से एक ग़ज़ब की गंध फूटती थी। बारिश होते ही हम हमेशा दौड़ कर बाहर आ जाते। यहाँ वहाँ ज़मीन पर बने गड्ढों में कूदते। छत से गिर कर आ रही पानी की धार में झरने जैसा नहाने का मज़ा आता। मगर यह बचपन की बात थी।
पता नहीं हम कब बड़े हो गये और बारिश हमसे छूट गई। हम पटना में रहते थे। यहाँ कुछ चीज़ें एकदम बाइनरी थीं…लड़कों के लिए और लड़कियों के लिए दुनिया एकदम अलग थी। उस समय थोड़ी कम महसूस होती थी, अब थोड़ी ज़्यादा महसूस होती है। लड़कपन में बहुत कुछ बदला…जैसे बारिश हमारे लिए सपने की चीज़ हो गई। सपने में भी हम बारिश से बचते-बचाते चलते थे। हम सालों भर अपने कॉलेज बैग में छाता लेकर जाते थे कि बेमौसम बारिश में भीग न जायें। उस दिन में तीन तरह के अचरज थे। पहला कि हम छाता ले जाना भूल गए। दूसरा कि उस रोज़ बारिश हो गई - बे-मौसम। और तीसरा कि उस रोज़ हमको सरप्राइज देने मेरा बॉयफ्रेंड अचानक शहर आया हुआ था और हम उससे मिल रहे थे।
वो मेरा पहला बॉयफ्रेंड था। उन दिनों बॉयफ्रेंड ही कहने का चलन था। पटना के जिस मुहल्ले में हम रहते थे वहाँ बहुत से गुलमोहर के पेड़ थे। उस रोज़ मैंने आसमानी रंग का जॉर्जेट का सलवार सूट पहना था। हम उस रंग को पानी-रंग भी कहते थे। कॉलेज में लंच के बाद के एक्स्ट्रा सब्जेक्ट्स वाले क्लास होते थे और फिर प्रोजेक्ट्स करने होते थे। उस रोज़ मैंने लंच के बाद के क्लास नहीं किए। हमारे कॉलेज के सामने कचहरी थी और उधर बहुत दूर दूर तक सुंदर सड़क थी। कोलतार की काली सड़कें, उनमें गड्ढे नहीं थे। सड़क पर पेड़ थे। भीड़ एकदम नहीं थी। उन दिनों शहर में लोग कम थे और दोपहर को मुख्य सड़कों पर ही लोग दिखते थे, भीतर वाली सड़कें कमोबेश ख़ाली हुआ करती थीं। हम पैदल चलते चलते कई किलोमीटर भटक चुके थे। ऑटो में बैठ कर अपने मुहल्ले के आसपास वाली सड़क पर उतर गये।
उसने मेरा बैग मुझसे ज़बरदस्ती छीन के टांग लिया था। मुझे उसकी ये चीज़ बहुत अच्छी लगी थी। कि बैग भारी था। उसमें कॉलेज की सारी किताबें और नोटबुक थे। तुम थक गई होगी, इतना देर से बैग लेकर चल रही हो, हमको दे दो। इतना ही सरल था। बीस साल पुरानी बात है। लेकिन याद है। केयर और प्यार, बड़ी बड़ी चीज़ों में नहीं होता। और याद, ऐसी ही छोटी चीज़ें रहती हैं, ताउम्र। वहाँ गुलमोहर के पेड़ थे और सुंदर घर बने हुए थे। हम यूँ ही टहल रहे थे और बतिया रहे थे। पिछले कई घंटों से। मेघ लगे, और एकदम, अचानक बारिश होने लगी। मूसलाधार। मैं बहुत घबरा गई। आसपास न कोई दुकान थी, न कोई छज्जा…वहाँ सिर्फ़ घर थे और सारे घरों के आगे बड़े बड़े दरवाज़े थे। ‘भीग जाएँगे तो मम्मी बहुत डाँटेगी’ का लगातार मंत्र जाप जैसा बड़बड़ाना शुरू किए हम…हमको भीगने का डर जो था सो था, मम्मी की डाँट का उससे बहुत बहुत ज़्यादा डर था। कि हम भीगते हुए घर नहीं पहुँच सकते थे। उसने एक दो बार मेरा नाम लिया लेकिन हम अपने मन के एकालाप में एकदम ही नहीं सुने। आख़िर को उसने मेरे दोनों कंधों को पकड़ कर मुझे झकझोर दिया… “पम्मी! पम्मी! ऊपर देखो!” मैंने ऊपर देखा…ऊपर उसका सुंदर चेहरा था…और आसमान से पानी बरस रहा था…पूरे चेहरे पर बारिश…जैसे पानी बेतरह चूम रहा हो चेहरा…मैंने आँखें बंद की…ऐसा होता है मुहब्बत में भीगना। उस लम्हे मुझे आगत का डर नहीं था। कोई हमेशा का सपना नहीं था। बारिश हमारे इर्द गिर्द भारी पर्दा बन रही थी। कुछ नहीं दिख रहा था। उसने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था। मुझे अब घर भी लौटना था। हमारी हथेली में बारिश थी। हमारी हथेली में फिर भी थोड़ी गर्माहट थी।
गोलंबर आये तो भाई छाता लिए इतंज़ार कर रहा था। कि कहाँ से इतना भीगते आयी हो। तेज़ बारिश और तेज हवा। छाता के बावजूद भीगना तो था ही। इसलिए घर जा कर डाँट नहीं पड़ी। भाई माँ को चुग़ली नहीं किया कि पहले से भीगे हुए आए थे। उस दिन के बाद बारिश होती तो भाग कर आँगन जाते थे, सब कपड़ा अलगनी से उतारते थे। और फिर अगर घर में कोई नहीं होता था तो थोड़ा सा भीग लेते थे। चुपचाप। प्यार को भी दिल में ऐसे ही चोरी-छुपे रहने की इजाज़त थी।
कॉलेज में हम इतने भले स्टूडेंट थे। जब कि उन दिनों बुरा बनना बहुत आसान था। कॉलेज गेट के बाहर चाट-गुपचुप-झालमुरी खाने वाली लड़कियों तक को बुरी लड़कियों का तमग़ा मिल जाता था। उसके लिए क्लास बंक कर के फ़िल्म जाने जैसा गंभीर अपराध करने की ज़रूरत नहीं थी। हमारी अटेंडेंस 100% हुआ करती थी। हम कभी एक क्लास भी नहीं छोड़े, ऐसे में एक दिन भी कॉलेज नहीं आये तो प्रोफेसर को इतनी चिंता हो गई कि घर फ़ोन करने वाली थीं। वो तो भला हो दोस्तों का, कि उन्हें बहला-फुसला दिया वरना हम अच्छे-ख़ासे बीमार होने वाले थे कुछ दिनों के लिए।
मुहब्बत तो हमेशा से ही आउट-ऑफ़-सिलेबस थी। तो क्या हुआ अगर हम इस पेपर के सबसे अच्छे विद्यार्थी हो सकते थे।
वे लड़के जिनसे हमने १५-२० साल की कच्ची उम्र में मुहब्बत की थी, मुझे अब तक याद क्यों रह गये हैं। मैं यह सब भूल क्यों नहीं जाती? हमारी मुहब्बत में होना तो कुछ था ही नहीं। समोसे के पैसे बचा कर std कॉल करना। कभी-कभार डरते हुए चिट्ठियाँ लिखना। और बाद में ईमेल। याहू मेल ने वो सारी ईमेल डिलीट कर दीं, जिसमें से एक में उसने लिखा था कि तुम मेरी धूप हो…सनशाइन। बादलों वाले जिस शहर में मैं रहती हूँ…धूप के लिए मेरा पागलपन अब भी क़ायम है। मुझे लिखने को ऐसी खिड़की चाहिए जो पूरब की ओर खिलती हो।
मैं याद में इतना पीछे क्यों चलते जा रही हूँ! जब कि सपने में कुछ भी नहीं देखा है। कई रातों से लगातार सोई नहीं हूँ ढंग से। आँखें लाल दिख रही थी आईने में आज। जलन भी हो रही है और थकान भी।
दिल्ली पढ़ने गई तो अगस्त का महीना था। वो शहर में मेरी पहली रात थी। अकेले। मम्मी-पापा स्टेशन जा चुके थे। मैं हॉस्टल में थी। बहुत तेज़ बारिश शुरू हुई। IIMC हॉस्टल से भागते हुए बाहर निकली थी मैं। पीले हैलोजेन लाइट से भीगा हुआ कैंपस था। यहाँ भय नहीं था। मैं भीग रही थी। मैं नाच रही थी। मैं आज़ाद थी। ये मेरा अपना शहर था। मेरी मुहब्बत का शहर। दिल्ली से उस एक रात से हुई मुहब्बत ने मुझे कई साल तक जीने का हौसला दिया है।
बैंगलोर आयी तो जिस मुहल्ले में रहती थी यहाँ बहुत पुराने पेड़ थे। गुलमोहर। सेमल। सड़कों पर सुंदर घर थे। इस शहर की बारिश मेरी अपनी थी। मैं अक्सर चप्पल घर पर छोड़, बिना फ़ोन लिए, नंगे पाँव बारिश में भीगने चल देती थी। घर से थोड़ी दूर पर पंसारी की दुकान थी, जहाँ से सब्ज़ी-दूध-दही और बाक़ी राशन लिया करती थी। मैं वहाँ भीगते हुए पहुँचती। एक ऑरेंज आइस क्रीम ख़रीदती। हिसाब में लिखवा देती, कि पैसे बाद में दूँगी। बारिश में भीगती, ऑरेंज आइसक्रीम खाती सड़कों पर तब तक टहलती रहती जब तक भीग के पूरा सरगत नहीं हो जाती। घर लौटती और गर्म पानी से नहाती। कॉफ़ी या फिर नींबू की चाय बनाती। अक्सर मैगी भी। फिर चिट्ठियाँ लिखने बैठती, या फिर ब्लॉग पर कोई पोस्ट। ऐसा मैंने उन सारी दुपहरों में किया जब मेरी नौकरी नहीं होती थी।
2018 में वो गुलमोहरों वाला मुहल्ला मुझसे छूट गया। हम जिस सोसाइटी में आये यहाँ पेड़ नहीं थे। दूर दूर तक खुली सड़कें। बारिश छूट गई। फिर मैंने बारिश को जी भर के तलाशा। घर से कुछ दूर एक झील थी। एक शाम वहाँ बाइक लेकर ठीक पहुँची ही थी कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। मैंने स्पोर्ट शूज़ पहने थे। वे उतार कर डिक्की में रख दिये। पैदल वहाँ झील के किनारे चल दी। कच्ची सड़क में बहुत सा पानी भर गया था। कुछ कंकड़ भी थे। पैरों को कभी-कभी चुभते। झील पर बेतरह बारिश हो रही थी। आसमान और झील सब पानी के पर्दे में एकसार हो रखा था। बारिश रुकने के बाद मैंने चाय की टपरी पर सिगरेट ख़रीदी। एक कप कॉफ़ी पी। बारिश में सिगरेट भीग भीग जा रही थी। तो बार बार जला कर पी। उस एक रोज़ की बारिश ने मुझे कई महीनों तक ज़िंदा रहने का हौसला दिया।
रॉबर्ट फ्रॉस्ट की एक कविता है, बारिश और तूफ़ान के बारे में...इसकी एक पंक्ति है, "Come over the hills and far with me, and be my love in the rain." बारिश को लेकर मेरे पागलपन को देखते हुए एक दोस्त ने एक बार शेयर की थी, कि तुमको तो बहुत पसंद होगी। मैंने कभी पढ़ी ही नहीं थी। लेकिन पढ़ी, और फिर कितनी अच्छी लगी...कैसी आकुल प्रतीक्षा है इसमें...ऐसा घनघोर रोमांटिसिज्म...बारिश इन दिनों अपने घर की बालकनी से देखती हूँ। इक्कीसवें माले का वह घर बादलों में बना हुआ है। मैं दो तरफ़ की बालकनी खोल देती हूँ और देखती हूँ कि घर के भीतर बादल का एक टुकड़ा चला आया है। मैं बालकनी में खड़ी, भीगते हुए बादलों को देखती हूँ...शहर सामने से ग़ायब हो जाता है...बादलों के पीछे इमारतें लुक-छिप करती रहती हैं। आख़िर को मैं एक कॉफ़ी बना कर अपनी स्टडी टेबल पर बैठती हूँ और लिखने की बजाय सारे समय बादल ही देखती रहती हूँ।
बच्चे इस महीने पाँच साल के हो जाएँगे। मैंने उनको को बारिश से बचा कर नहीं रखा। उन्हें बारिश से प्यार करना सिखाया। वे बारिश होते ही बाहर भागते हैं। उनके साथ मैं भी। सड़क किनारे पानी में कूदते हुए। लॉन में आसमान की ओर चेहरा उठाए, जीभ बाहर निकाले बारिश को चखते ये मेरे बच्चे ही हैं…पानी में भीगते, लोटते, कूदते…उनके साथ मुझे भी इजाज़त है कि मन भर भीग लूँ। कि मेरे बच्चे, मेरी तरह ही, कभी बारिश में भीग कर बीमार नहीं पड़ेंगे।
***
उसने कहा, उसे मेरे साथ बारिश देखनी है।
मेरे मन के भीतर तब से बारिश मुसलसल हो रही है। मैं नहीं जानती उसका शहर बारिश को कैसे बरतता है। वो ख़ुद बारिश में भीगता है, मुझे मालूम है। मेरी सूती साड़ियाँ बारिश में भीगने को अपना नंबर गिन रही हैं। मैं एक पागल गंध में डूबी हुई हूँ।
***
A Line-storm Song [image error] [image error] [image error] [image error][image error]Robert Frost1874 – 1963
The line-storm clouds fly tattered and swift,
The road is forlorn all day,
Where a myriad snowy quartz stones lift,
And the hoof-prints vanish away.
The roadside flowers, too wet for the bee,
Expend their bloom in vain.
Come over the hills and far with me,
And be my love in the rain.
The birds have less to say for themselves
In the wood-world’s torn despair
Than now these numberless years the elves,
Although they are no less there:
All song of the woods is crushed like some
Wild, easily shattered rose.
Come, be my love in the wet woods; come,
Where the boughs rain when it blows.
There is the gale to urge behind
And bruit our singing down,
And the shallow waters aflutter with wind
From which to gather your gown.
What matter if we go clear to the west,
And come not through dry-shod?
For wilding brooch shall wet your breast
The rain-fresh goldenrod.
Oh, never this whelming east wind swells
But it seems like the sea’s return
To the ancient lands where it left the shells
Before the age of the fern;
And it seems like the time when after doubt
Our love came back amain.
Oh, come forth into the storm and rout
And be my love in the rain.
October 31, 2024
ब्लैक कॉफ़ी मॉर्निंग्स
वो मेरे मन की रेल का टर्मिनस है। ये रेल शुरू चाहे जिस स्टेशन से हो, गुज़रे चाहे जिन भी पठारों, पहाड़ों से…अंततः इसे उसी स्टेशन पर रुकना होता है।
वहाँ से ट्रेन आगे नहीं जाती। रुकती है। लौटती है।
एक लंबी यात्रा के बाद ट्रेन की साफ़-सफ़ाई होती है, कंबल-चादरें धुलती हैं। फिर ट्रेन वहाँ से वापस चलती है, पुराने शहरों को देखने, नये यात्रियों को नयी जगह पहुँचाने। पुराने यात्रियों को गर्मी-छुट्टी के नास्टैल्जिया तक बार-बार उतारने।
त्योहारों की सुबह कैसा कच्चा-कच्चा सा मन होता है।
मैंने सपने में दोस्त को देखा। कई समंदर पार से वह देश आया हुआ है। मैंने दौड़ते हुए उसके पास जाती हूँ और उसे हग करते ही पिघल जाती हूँ। मोम। थोड़ी गर्मी और नरमाहट लिये हुए। यह मेरी जानी हुई जगह है। मैं यहाँ सुरक्षित हूँ। सेफ़। मैं यहाँ खुश हूँ। मेरा मन मीठा है। यहाँ से कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं है। सपने की जगह पहचानी हुई नहीं है। लेकिन जाग में वो शहर मेरा अपना लगता है। मैं पूछती हूँ उससे, ‘तुम क्यों आए अभी?’, वो कहता है, ‘तुम्हारे लिए, पागल, और किसके लिये। मुझे लगा तुमको मेरी ज़रूरत है।’
मेरी ज़रूरत। आख़िर को तुम्हें क्या चाहिए। मैं देखती हूँ, भगवान परेशान बैठे हैं…ये लड़की मेरे हाथ से बाहर है…इसको सब कुछ दे दो फिर भी ऐसे टीसती, दुखती, मेरे मन पर बरसती रहती है। हम भगवान से बकझक कर रहे हैं…एक आपके मन पर एक बस मेरे कलपने से इतना असर काहे पड़ता है, भर दुनिया का चिंता है आपको…क्या फ़र्क़ पड़ता है हमसे…अब हम मन भर उदास भी ना रहें? भगवान कहते हैं, तुमको यक़ीन नहीं होता है बेवक़ूफ़ लड़की, लेकिन तुम हमारी बहुत प्यारी हो…तुम्हारे क़िस्मत से जितना ज़्यादा हो पाता है, तुम्हारे हिस्से में सुख रखते हैं…लेकिन तुमको जाने क्या चीज़ का दरकार है…ठीक ठीक बताओ तो लिख भी दें तुम्हारे लिए…हम हँसते हुए उठ जाते हैं…प्रभु, रहने दीजिए हमको क्या चाहिए…आपसे नहीं हो पाएगा…
पिछली बार बहुत दुखाया था तो भगवान से ही कहे थे, हमारे दिल में मुहब्बत थोड़ी कम कर दो…हम नहीं जानते इस आफ़त का क्या करें।
इस बार दीवाली अक्तूबर के आख़िरी दिन थी। घर में पिछले महीने ही श्राद्ध-कर्म पूरा हुआ था इसलिए मन पर त्योहार का उल्लास नहीं, जाने वाले की आख़िरी फीकी उदासी थी।
नवम्बर मेरे लिये साल का सबसे मुश्किल महीना होता है। इसी महीने माँ चली गई थी। अगले कुछ सालों में वह वक़्त जो मैंने इस दुनिया में उसके बिना बिताया, उस वक़्त से ज़्यादा हो जाएगा जो मैंने उसके साथ बिताया।
PTSD - पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर को कहते हैं। मुझे बहुत साल बाद समझ आया कि मुझमें इस ट्रामा के कारण उपजे स्ट्रेस से कुछ ख़ास डिसऑर्डर हो गये हैं और मुझे ख़ुद की रक्षा के लिए एहतियात बरतनी होगी। जैसे कि मुझे बाउंड्री/boundaries/सीमा-रेखा खींचनी नहीं आती। इंतज़ार किस लम्हे जा कर घातक हो जाता है, मुझे नहीं समझ में आता। इंतज़ार में मेरी जान जा सकती है, यह अतिशयोक्ति नहीं है। मुझे इंतज़ार से बेतरह घबराहट होती है। “The fatal definition of a lover is precisely this, I am the one who waits. - Roland Barthes” प्रेमी की यह परिभाषा मुझ पर एकदम सटीक बैठती है। हम बार बार इस fatal पर अटकते हैं, सोचते हैं कि यह कुछ और भी हो सकता था…लेकिन यह फेटल ही है…अच्छा पढ़ना हमें ख़ुद को बेहतर समझने में मदद करता है। और अच्छे दोस्त हम तक ऐसी किताबें पहुँचा देते हैं। दोस्त चाराग़र होते हैं। वे हमें जिलाये रखते हैं।
इंतज़ार के साथ दिक़्क़त ये भी है कि मेरे भीतर कोई घड़ी नहीं चलती। मुझे समय सच में एकदम समझ नहीं आता - किसी फाइनाइट टर्म में तो बिलकुल ही नहीं। हम ख़ुद किसी को कहेंगे कि बारह बजे मिलते हैं और हम उससे मिलने किसी भी समय जा सकते हैं…सुबह के दस बजे से लेकर शाम के चार बजे तक - होगा ये कि हम इस बीच के समय में बार-बार फ़ोन पर बताते रहेंगे कि हमको देर क्यों हो रही है…कारण कुछ भी हो सकता है…कौन सी साड़ी पहनें समझ नहीं आ रहा, समझ आने पर मैचिंग झुमका नहीं मिल रहा…कुछ भी अलाय-बलाय।
हमें ख़ुद के लिए समझना पड़ता है कि हम नॉर्मल हैं नहीं, ऊपर से भले दिखते हों…लेकिन हमारी भीतरी बनावट में कुछ टूटा हुआ है। कि हमारे भीतर एक कच्चा ज़ख़्म है जो किसी और व्यक्ति को नहीं दिखता। इस चोटिल जगह पर हमें बार-बार चोट न लगे, इसलिए हमें एक काला धागा बाँधना होता है। हम यह भी समझते हैं कि कभी-कभी सिर्फ़ काले धागे से काम नहीं चलेगा तो हम एक जिरहबख्तर भी बाँध लेते हैं।
इक severe क़िस्म का दुखता हुआ इंतज़ार। एक बीमारी जैसा। एक फिजिकल ऐल्मेंट। हम कितना भी चाहें ख़ुद के भीतर चलते इस टाईम बम को रोक नहीं सकते। यह टिकटिक करते रहता है, उल्टी गिनती में। बेहिसाब…जब हम इंतज़ार करते हैं तो हमसे कुछ भी और नहीं होता। साँस लेना न भूल जाएँ, इस बात का डर लगता है। खाना नहीं खा सकते, नहा नहीं सकते, बाल नहीं झाड़ सकते तरतीब से। ऐसे बौखलाए, बौराये चलते हैं कि कोई देखे तो सीधे पागलखाने में भर्ती कर दे।
ये भी नहीं कि जिसका इंतज़ार है, उसको फ़ोन कर कर के हलकान कर दें…लेकिन जो बहुत प्यारे दोस्त हो गये हैं वे अब मुझे इंतज़ार करने को नहीं कहते। उन्हें पता है मैं मर जाऊँगी ऐसे किसी दिन, इस एंजाइटी में। लेकिन ये बता पाना भी तो मुश्किल है। क्या कहें, हमको इंतज़ार की बीमारी है…हो सके तो हमको इंतज़ार मत कराना।
मुझे बचपन से मीठा बहुत पसंद रहा है। आदतन हाथ मीठे की ओर बढ़ जाता है। लेकिन ज़ुबान को अब मीठा अच्छा नहीं लगता। आदत ब्लैक कॉफ़ी भी बना लेते हैं पीने के लिए। उसकी मीठी कड़वाहट ज़ुबान को अच्छी लगती है। यह इन दिनों मेरा फ़ेवरिट स्वाद है…उम्र के इस दौर में मुहब्बत ऐसी ही है, थोड़ी मीठी कड़वाहट लिए…ब्लैक कॉफ़ी।
वे दिन अच्छे होते हैं जब बेवजह का कोई दुख नहीं होता, जब सुबह सुबह सिर में दर्द नहीं होता। जब हम उठ कर परिवार के बीच सुबह की चाय बना कर की पाते हैं। ये नहीं कि हेडफ़ोन लगा लिये। काली कॉफ़ी बना लिये। और लॉन में आ के बैठ गये कि दिमाग़ में चटाई बम लगा हुआ है। जब तक लड़ी का सारा पटाखा फूट न जाये, कहीं चैन नहीं आएगा।
डियर ईश्वर, अपनी इस पागल लड़की पर थोड़ा प्यार ज़्यादा बरसाना।
अगली कहानी लिखने के पहले से मन दुख रहा है।
October 29, 2024
तुम इंतज़ार की खुखरी से कर सकते हो मेरा क़त्ल
प्रेम का दुर्जय, अभेद्य क़िला होता ही नहीं,
प्रेम हर साल बाढ़ में बह जाने वाला, गरीब का
अस्थाई झोंपड़ा होता है।
***
साईंस ने बहुत कुछ नाशा भी तो है।
धरती जो दिखती है समतल, दरअसल गोल होती है।
सूरज नहीं घूमता धरती के चारों-ओर,
धरती ही घूमती है, गोल गोल।
बिछोह, उदासी, इंतज़ार, बेवफ़ाई…तुम्हारे दिल में भी जाने क्या क्या हो,
तुम्हें भरम होता है कि मुहब्बत है।
***
हम सच में उतर सकते हैं चाँद पर।
सपने में मेरा हाथ पकड़ के मत चला करो
तुमसे दूर जाने की ख़ातिर चाँद तक जाना पड़ेगा।
***
मैं तुम्हें भूलने को कहाँ जाऊँ?
दुनिया में ऐसा कौन शहर होगा, जिसमें तुम्हारा इंतज़ार नहीं।
***
प्रेम के ईश्वर ने प्रसन्न होकर मुझे एक बेहद खूबसूरत और धारदार खुखरी दी थी। इंतज़ार की।
और साथ में यह वरदान कि मेरा क़त्ल सिर्फ़ इसी खुखरी से हो सकता है।
इंतज़ार की वह खुखरी मैंने तुम्हें दी ही इसलिए थी,
कि जब मेरी मुहब्बत तुम्हें ज़्यादा सताने लगे,
तुम मेरी जान ले सको।
इसे बेहिचक उतारो मेरे सीने में,
तुम्हें हर जन्म में मेरा खून माफ़ है।
***
बिछड़ना इस दुनिया में एक खोयी हुई शय है
महसूस होते हैं सब दोस्त - मेसेज, वीडियो कॉल और ईमेल से एकदम क़रीब।
लेकिन प्रेमी बिछड़ते रहते हैं अब भी
रेलवे प्लेटफ़ार्म पर पसीजी हथेली और धड़कते दिल के साथ
जैसे ये दुनिया ख़त्म हो जाएगी उनके दूर जाते ही।
वे ईश्वर के पास चिरौरी करेंगे
धरती पर एक और जन्म के लिए
एक साझे भूगोल के लिए।
एक आख़िरी सिगरेट के लिए।
बरसात के लिए। समंदर के लिए।
वे ईश्वर की खंडित प्रतिमाओं के सामने खड़े सोचते रहेंगे
टूटा, अधूरा प्रेम इसलिए है…कि हमने ग़लत ईश्वर से मनौती माँगी
वे तलाशते रहेंगे अपना साझा ईश्वर
कई जन्म तक…
बिछड़ते रहेंगे…कभी-कभी, अक्सर, हमेशा…
***
जैसे दो दर्पण रख दिये हों एक दूसरे के सामने
वे झांकते हैं एक दूसरे की आँखों में
अनंत संभावनाओं से सम्मोहित हो कर।
***
हम सब प्रेम में हुए जाते हैं कुछ और
बारिश की चाहना से भरा है रेगिस्तान का लड़का
प्यास के रेगिस्तान में भटक रही है गंगा किनारे की लड़की
***
मुझे हथियारों में बहुत रुचि है। किसी भी क़िले में शस्त्रागार देख कर बहुत खुश होती हूँ। क़िले की संरचना में आक्रमणकारियों से बचाव के लिए क्या क्या ढाँचे बनाये गये हैं, उनपर इतने सवाल पूछती हूँ कि कभी कभी गाइड परेशान हो जाते हैं। पुरानी तोपें, असला-बारूद, तलवार/भाला/खुखरी/जिरहबख़्तर…इनके इर्द-गिर्द नोट्स बनाती तस्वीर खींचते चलती हूँ।
बहुत साल पहले फ़्रांस और स्विट्ज़रलैंड के बॉर्डर पर एक क़िला देखने गई थी, Château d’Chillon, बड़ी सी झील के किनारे बना हुआ क़िला जिसमें सात तरह के दरवाज़ों की भूलभुलैया बनी हुई थी। वहाँ लॉर्ड बायरॉन को गिरफ़्तार कर के रखा गया था। वहीं मैंने पहली बार मांसभक्षी चूहों के बारे में सुना था। उसकी कालकोठरी ठंढी और सीली थी। झील का पानी हमेशा वहाँ रिस कर आता रहता था। ऐसी उदास, नैराश्य भरी जगह पर रहने के बावजूद किसी कवि के भीतर कोमलता, प्रेम कैसे पनप गया, मैं सोचती रही। वहाँ एक खंभे पर Byron का सिग्नेचर था। पत्थर में खुदा हुआ। ICSE syllabus में बायरॉन की कविता, She walks in beauty like the night पढ़ी थी। मैं उस सितारों भरी रात जैसी लड़की के बारे में सोचती रही। इस अंधेरे कमरे में जिसकी आँखों की चमक का एक हिस्सा भी नहीं आएगा कभी। प्रेम अपराजेय है।
कभी कभी सोचती हूँ, इन्हीं किलों की तरह अपना दिल बनाऊँगी। अपराजित…अजेय…जहाँ की सारी मीनारों पर आज़ादी का परचम हमेशा लहराता रहे…
हमारा दिल एक हाई-टेक क़िला हो रखा है, बहुत हद तक सुरक्षित। दिल तक पहुँचने वाली गुप्त सुरंगों के व्यूह में ख़तरनाक हथियार लगे हैं। मोशन-डिटेक्शन वाले ख़तरनाक हथियार जो किसी को दिल की तरफ़ आता देख कर अपने-आप चल जायें। दिल की चहारदीवारी के बाहर गहरी खाइयाँ खुदवायीं हैं। दिल का मुख्यद्वार यूँ तो हमेशा बंद रहता है, बस किसी मेले में, कोई उत्सव आने पर यहाँ जनसाधारण को घूमने के लिए एंट्री मिलती है।
दिल के इस अभेद्य, अजेय क़िले पर जिसकी तानाशाही चलती है, बस, उसी को हम सरकार कहते हैं।
September 8, 2024
रैंडम रोज़नामचा - सितंबर
लिखने के साथ सबसे बड़ी मुसीबत ये होती है कि आप कभी नहीं भूल पाते कि लिख कर आप हर क़िस्म के दुख को काग़ज़ पर रख सकते हैं। लिख कर दिल हल्का हो जाता है। कि काग़ज़ और कलम एक ऐसा सच्चा दोस्त है जो उम्र भर आपके साथ बना रहता है। थोड़ा ज़्यादा सेंसिटिव होना फिर भी ठीक है। दिक़्क़त तब होती है जब हम comfortably numb यानी कि जीने लायक़ उदासीन होना सीख नहीं पाते हैं। न हम कभी भूल पाते हैं कि लिख कर कितना अच्छा लगता है।
दिक़्क़त ये भी तो कि लिखने चलें तो क्या क्या न लिखते जायें…कैसा कैसा दुख हमारे कलेजे में चुभा रहता है।
कि इस जीवन में सबसे ज़्यादा आफ़त तो प्रेम से ही है। प्रेम के होने से भी बहुत आफ़त और न होने से भी।
जैसे खाने को लेकर हर व्यक्ति की भूख अलग क़िस्म की होती है। कुछ लोग एक ही बार में बहुत सारा खाना ठूँस कर खा सकते हैं। जब बहुत ज़ोर की भूख लगे तो जितना खाना सामने आये, सब खा लें और पचा जायें। कुछ लोगों को कम भूख लगती है। पर हर थोड़ी देर में कुछ न कुछ कुतरने की आदत होती है। हम खाने पीने को लेकर ज़्यादा नुक़्ताचीनी नहीं करते जब तक व्यक्ति बहुत दुबला-पतला या बहुत मोटा न हो…एक एवरेज से थोड़ा सा ऊपर नीचे का स्पेस आपको मिलता है। लेकिन क्या मज़ाल है कि आप किसी भी केटेगरी में थोड़ा एक्सट्रीम हो जायें और आपको कोई बख्श दे। आप रूप भोजन, पर रूप शृंगार कहते हैं। तो जो मन करे खाओ-पियो, बस स्वस्थ रहो, etc etc।
प्रेम को लेकर भी ऐसी ही ज़रूरत होती है। बहुत खोजा लेकिन मिल नहीं रहा, जाने किस कविता का हिस्सा था, The heart is a hunger, forgotten. प्रेम की ज़रूरत सबको अपने हिसाब से कम-ज़्यादा होती है। हमारे तरफ़ बिहार में एक शब्द है, अधक्की…इसको इस अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है कि जब कोई बहुत भूखा होता है तो ज़रूरत से ज़्यादा खाना अपनी थाली में परस लेता है…कई बार यह खाना बर्बाद भी होता है। प्रेम को लेकर भी ऐसा होता है कई बार। इस पर एक और कविता की लाइन याद आती है, when you are not fed love on a silver spoon, you learn to lick it off knives…कितना सुंदर रूपक है। ख़तरे के इर्द-गिर्द रचा हुआ।
मैंने अपने भविष्य के बारे में जब कभी सोचा होगा, ये कभी नहीं लगा था कि किसी शहर में इतनी तन्हाई में जीना होगा। कुछ शहर की फ़ितरत ऐसी है। कुछ शहर के लोग ऐसे हैं। कुछ हम भी ज़्यादा ही पर्टिकुलर हो गये हैं शायद। बहुत अच्छे दोस्त मिल जायें तो भी दिक़्क़त ही होती है। फीकी बातों में मन नहीं लगता। हम स्मॉल-टॉक नहीं कर पाते। जब तक किसी से बात करते हुए एकदम से मन में सूरजमुखी या डैफ़ोडिल वाला पीला-नीला रंग न खिले, हमको मज़ा ही नहीं आता। या तो इतनी रोशनी हो या इतना स्याह कि मन भर-भर आये। आँख भर-भर आये। हम किसी संगीत की धुन में खोये एक दूसरे के सामने हों लेकिन दूर देख रहे हों कि आँख का पानी छलक जाये तो डुबा देगा पूरी दुनिया।
ऐसे जादू वाले लोगों ने इस तरह नाशा है ना मेरा जीवन कि उफ़्फ़! और ये सब लोग मेरे शहर से हज़ारों मील दूर रहते हैं। और अपनी अपनी ज़िंदगी की क़वायद में इस बेतरह व्यस्त कि शिकायत भी नहीं करते। आपके साथ हुआ है कभी, किसी से बात कर रहे हैं और फ्रीक्वेंसी एकदम मैच नहीं कर रही और आप आसमान ताकते हुए सोचते हैं कि उफ़, कहाँ फँस गये। किस नज़ाकत से यह बात बिना कहे यहाँ से उठ जाएँ। जो इतने कम लोग हैं जीवन में, उनसे दूर चले जायें। बहुत दूर। कि एकदम अकेले बैठ कर बोस के हेडफ़ोन पर कोई रैंडम इंस्ट्रुमेंटल पीस सुन लेना इससे बेहतर है।
मैं मुहब्बत की बात भी नहीं कर रही। उसका तो हिसाब-किताब ऐसा गड़बड़ है कि जैसे कई जन्म का इश्क़, अधूरा-पूरा जो भी है, अभी ही कर के ख़त्म करना है कि इसके बाद इस दुनिया में आना नहीं है अब।
ब्लॉग लिखते हुए सबसे बड़ी दिक़्क़त ये रही कि हमें लगा इतनी बड़ी दुनिया है, इसमें कौन मेरा ब्लॉग पड़ेगा और कौन ही मिलेगा हमसे। कई साल इस गुमान में आराम से जो मन सो लिखे और किसी से भी मिले नहीं। ऑनलाइन बात होती भी थी तो लगता था ये सब वर्चुअल दुनिया के लोग हैं। थोड़े न सड़क पर चलते हुए मिल जाएँगे। बैंगलोर कोई आता नहीं और जो आता भी तो इतना व्यस्त रहता है, फिर यहाँ का एयरपोर्ट शहर से कोई डेढ़-दो घंटे की दूरी पे था। ऑफिस में ये बोल कर छुट्टी तो माँग नहीं सकते थे कि दोस्त आ रहा है, आधे घंटे के लिए मिलने जाना है। डेढ़ घंटे जाना, डेढ़ घंटे आना…तो हाफ डे चाहिए।
ब्लॉग के जितने लोगों से मिले, कभी नहीं लगा कि पहली बार मिल रहे हैं। हमने अपने भय, अपने दुख, अपने शिकवे ब्लॉग पर इस तरह लिखे थे कि वर्चुअल लोग हमें उन लोगों से बेहतर जानते थे जिनसे हमारा अक्सर का मिलना-जुलना रहा। सारी बातों के अलावा हम सिर्फ़ एक बात यहाँ दर्ज कर रहे हैं कि उन्होंने हमसे कहा, ‘इसका ब्लॉग पढ़ते हुए कई बार लगता था, इसे ऐसे आ के hug कर लें’। इतना सुन कर लगा कि ज़िंदगी में डायरी जो सेफ़ स्पेस हमें देती है, वैसा ही एक स्पेस ब्लॉग भी देता है। हम कितने साल के इंतज़ार के बाद मिले थे, शायद उम्मीद ख़त्म होने के ठीक पहले। हमारी बातें ख़त्म नहीं होतीं। रात आधी हो गई थी। हम दो-तीन बार डिनर करते हैं करते हैं कह कर कुर्सी से उठे भूखे इंसान को पानी का ग्लास थमा कर बिठा चुके थे। कितने दोस्तों को फ़ोन किया, कितने और को याद किया।
हमको मालूम रहता है कि जो लिखते नहीं, सो भूल जाते हैं। [image error]
इस बार फिर भी, लिखेंगे नहीं। लेकिन एक ये तस्वीर ज़रूर यहाँ सिर्फ़ इसलिए रखेंगे कि कभी कभी जब दुनिया, भगवान, और शहर से शिकायत का कोटा भर कर ओवरफ़्लो कर जाये, हम लौट कर यहाँ आ सकें।


