Puja Upadhyay's Blog, page 8
June 7, 2019
मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।
तुमसे मुहब्बत... खुदा ख़ैर करे... जानां, मुझे तो तुम्हारे बारे में लिखने में भी डर लगता है। कुछ अजीब जादू है हमारे बीच कि जब भी कुछ लिखती हूँ तुम्हारे बारे में, हमेशा सच हो जाता है। कोई ऑल्टर्नट दुनिया जो उलझ गयी है तुम्हारे नाम पर आ कर...डर लगता है, लिखते लिखते लिख दिया कि तुम मेरे हो गए हो तो... या कि लो, आज की रात तुम्हारे नाम… या कि किसी शहर अचानक मिल गए हैं हम…क्या करोगे फिर?
यूँ ही ख़्वाहिश हुयी दिल में कि हर बार मुझे ही इश्क़ ज़्यादा क्यूँ हो... कभी तो हो कि चाँदभीगे फ़र्श पर तड़पो तुम और ख़्वाब में बहती नदी के पानी के प्यास से जाग में जान जाती रहे…
के बदन कहानियों का बना है और रूह कविताओं से … मैं तुम्हारे शब्दों की बनी हूँ जानां… तुम्हारी उँगलियों की छुअन ने मुझमें जीवन भरा है…किसी रोज़ जान तुम्हारे हाथों ही जाएगी… इतना तो ऐतबार है मुझे…
तुम इश्क़ की दरकार न करो…बाँधो अपना जिरहबख़्तर… भूल जाओ मेरे शहर का रास्ता…भूल जाओ मेरे दिल का रास्ता। लिखती हूँ और ख़ुद को कोसने भेजती हूँ। कि ऐसा क्यूँ। तुम्हारी ख़ातिर…इश्क़ में थोड़ा तुम भी तड़प लो तो क्या हर्ज है। मगर तुम्हारी तड़प मुझे ही चुभती है…कि मेरे हिस्से की नींद तुम्हारे शहर चली गयी है और उन ख़्वाबों में मुझे भी तो जाना था… तुम जाने किस मोड़ पर इंतज़ार कर रहे होगे…
मेरी हथेलियों में प्यास भर आती है। ऐसा इनके साथ कभी नहीं होता… कभी भी नहीं, सिवाए तब कि जब बात तुम्हारी हो। मेरे हाथों को वरना सिर्फ़ काग़ज़ क़लम की दरकार होती है… छुअन की नहीं… किसी भी और बदन की नहीं। तो फिर कौन सा दरिया बहता है तुम्हारे बदन में जानां कि जिसे ओक में भर पीने को रतजगे लिखाते हैं मेरे शहर में। मैं डरती हूँ इस ख़याल से कि तुम्हें छूने को जी चाहता है… तुम्हें छू लेना तुम्हें काग़ज़ के पन्नों से ज़िंदा कर कमरे में उतार लाना है…तुम ख़यालों में हो फिर भी तुम्हारे इश्क़ में साँस रुक जाती है…तुम मूर्त रूप में आ जाओगे तो जाने क्या ही हो… मैं सोच नहीं पाती… मैं सोचने से डरती हूँ। तुम समझ रहे हो मेरा डर, जानां?
तुम्हें चूमना पहाड़ी नदी हुए जाना है कि जिसका ठहराव तुम्हारी बाँहों के बाँध में है…मगर फिर लगता है, तुम्हें तोड़ न डालूँ अपने आवेग में… बहा न लूँ… मिटा न दूँ… कि जाने तुम क्या चाहते हो… कि जाने मैं क्या लिखती हूँ…
कि देर रात अमलतास के पीछे झाँकता है चाँद… मैं सपने में में तलाश रही होती हूँ तुम्हारी ख़ुशबू…हम यूँ ही नहीं जीते इश्क़ में बौराए हुए।
के जानां, मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।
यूँ ही ख़्वाहिश हुयी दिल में कि हर बार मुझे ही इश्क़ ज़्यादा क्यूँ हो... कभी तो हो कि चाँदभीगे फ़र्श पर तड़पो तुम और ख़्वाब में बहती नदी के पानी के प्यास से जाग में जान जाती रहे…
के बदन कहानियों का बना है और रूह कविताओं से … मैं तुम्हारे शब्दों की बनी हूँ जानां… तुम्हारी उँगलियों की छुअन ने मुझमें जीवन भरा है…किसी रोज़ जान तुम्हारे हाथों ही जाएगी… इतना तो ऐतबार है मुझे…
तुम इश्क़ की दरकार न करो…बाँधो अपना जिरहबख़्तर… भूल जाओ मेरे शहर का रास्ता…भूल जाओ मेरे दिल का रास्ता। लिखती हूँ और ख़ुद को कोसने भेजती हूँ। कि ऐसा क्यूँ। तुम्हारी ख़ातिर…इश्क़ में थोड़ा तुम भी तड़प लो तो क्या हर्ज है। मगर तुम्हारी तड़प मुझे ही चुभती है…कि मेरे हिस्से की नींद तुम्हारे शहर चली गयी है और उन ख़्वाबों में मुझे भी तो जाना था… तुम जाने किस मोड़ पर इंतज़ार कर रहे होगे…
मेरी हथेलियों में प्यास भर आती है। ऐसा इनके साथ कभी नहीं होता… कभी भी नहीं, सिवाए तब कि जब बात तुम्हारी हो। मेरे हाथों को वरना सिर्फ़ काग़ज़ क़लम की दरकार होती है… छुअन की नहीं… किसी भी और बदन की नहीं। तो फिर कौन सा दरिया बहता है तुम्हारे बदन में जानां कि जिसे ओक में भर पीने को रतजगे लिखाते हैं मेरे शहर में। मैं डरती हूँ इस ख़याल से कि तुम्हें छूने को जी चाहता है… तुम्हें छू लेना तुम्हें काग़ज़ के पन्नों से ज़िंदा कर कमरे में उतार लाना है…तुम ख़यालों में हो फिर भी तुम्हारे इश्क़ में साँस रुक जाती है…तुम मूर्त रूप में आ जाओगे तो जाने क्या ही हो… मैं सोच नहीं पाती… मैं सोचने से डरती हूँ। तुम समझ रहे हो मेरा डर, जानां?
तुम्हें चूमना पहाड़ी नदी हुए जाना है कि जिसका ठहराव तुम्हारी बाँहों के बाँध में है…मगर फिर लगता है, तुम्हें तोड़ न डालूँ अपने आवेग में… बहा न लूँ… मिटा न दूँ… कि जाने तुम क्या चाहते हो… कि जाने मैं क्या लिखती हूँ…
कि देर रात अमलतास के पीछे झाँकता है चाँद… मैं सपने में में तलाश रही होती हूँ तुम्हारी ख़ुशबू…हम यूँ ही नहीं जीते इश्क़ में बौराए हुए।
के जानां, मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।
Published on June 07, 2019 14:31
May 19, 2019
कहते हैं, change is the only constant. इस दुनिया में कुछ ...
कहते हैं, change is the only constant. इस दुनिया में कुछ भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता। चीज़ें बदलती रहती हैं। जो हमारे लिए ज़रूरी है…वो भी ज़िंदगी के अलग अलग मोड़ पर बदलता रहता है। हम भी किन्हीं दो वक़्त में एक जैसे कहाँ होते हैं। फिर बदलाव हमें पसंद भी हैं…वे ज़िंदगी को मायना देते हैं। एक थ्रिल है कि कुछ भी पहले जैसा कभी दुबारा नहीं होगा।
लेकिन फिर भी। हम चाहते हैं कि कुछ चीज़ें न बदलें। कुछ रिश्ते, कुछ लोग हमारे बने रहें। कुछ चीज़ों के कभी न बदलने का भरोसा हमें राहत देता है। घर, परिवार, कुछ पुराने दोस्त, बचपन की कुछ यादें… जैसे मेरा बचपन देवघर में बीता। मैं वहाँ तक़रीबन ११ साल रही। पूरी स्कूलिंग वहीं से की। वहाँ मिठाई की एक दुकान है - अवंतिका। इतने सालों में भी वहाँ मिलने वाले रसगुल्लों का स्वाद जस का तस है। इसी तरह कभी कभार बस से गाँव जा रहे होते थे तो बेलहर नाम की जगह आती थी जहाँ पलाश के पत्ते के दोने में रसमलाई मिलती थी। सालों साल उसका स्वाद याद रहा और उस स्वाद को फिर तलाशते भी रहे। वहाँ हमारे एक दूर के रिश्ते के भाई रहते थे… मुन्ना भैय्या। बिना मोबाइल फ़ोन वाले उस ज़माने में हम जब भी वहाँ से गुज़रे… वो हमेशा वहाँ रहते थे। एक दोना रसमलाई लिए हुए। मुझे उनकी सिर्फ़ एक यही बात सबसे ज़्यादा याद रही। अब भी कभी गाँव जाने के राते बेलहर आता है लेकिन अब भैय्या वहाँ नहीं रहते और कौन जाने किस दुकान की रसमलाई थी वो। देवघर से दुमका जाने के रास्ते में ऐसे ही एक जगह आती है घोरमारा/घोड़मारा… वहाँ सुखाड़ी साव पेड़ा भंडार था जिसके जैसा पेड़ा का स्वाद कहीं नहीं आता था। जब सुखाड़ी साव नहीं रहे तो उनकी दुकान दो हिस्से में बँट गयी - उन के दोनों बेटों ने एक एक हिस्सा ले लिया। लेकिन वो पेड़े का स्वाद बाँटने के बाद खो गया और फिर कभी नहीं मिला।
मेरी स्मृति में खाने की बहुत सी जगहें हैं। हर जगह के साथ एक क़िस्सा। हम लौट कर उसी स्वाद तक जाना चाहते हैं… कि माँ के जाने के बाद ज़िंदगी में एक बड़ी ख़ाली सी जगह है… माँ के हाथ के खाने के स्वाद की… या बचपन की… कभी कभी घर जाती हूँ और दीदियाँ कुछ बनाती हैं तो लगता है, शायद… ऐसा ही कुछ था… या कि चाची के हाथ का कुछ खाते हैं तो। लेकिन कभी कह नहीं पाते उनसे… कि कुछ दिन हमको मेरे पसंद का खाना बना के खिला दीजिए।
मेरा एक क़रीबी और बहुत प्यारा दोस्त था। जैसा कि सब दोस्तों के बीच होता है इस टेक्नॉलजी की दुनिया में… हमारे दिन की पूरी खोज ख़बर एक दूसरे को रहती थी। हम किसी शहर में हैं… हम किसी ख़ूबसूरत आसमान के नीचे हैं… हम किसी समंदर के पास हैं। सोशल मीडिया पर जाने के पहले वे तस्वीरें पर्सनल whatsapp में जाती थीं। मेरी भी, उसकी भी। आज उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखीं। ये किसी ब्रेक ऑफ़ से ज़्यादा दुखा।
हम नहीं जानते कि कब हम किसी से दूर होते चले जाएँगे। किसी की ज़िंदगी में हमारी प्रासंगिकता कम हो जाएगी, हमारी ज़रूरत कम हो जाएगी और हमसे लगाव कम हो जाएगा। ये नॉर्मल है। इससे ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन जो चाहिए, वो हो पाए…इतनी आसान कब रही है ज़िंदगी। हमें मोह हुआ रहता है। हम कुछ चीजों को यथासम्भव एक जैसा रखना चाहते हैं। कुछ चीज़ों को। कुछ रिश्तों को।
अक्सर जब हम सबसे ज़्यादा अकेला महसूस करते हैं तो हम सिर्फ़ किसी एक व्यक्ति को याद कर रहे होते हैं। सिर्फ़ किसी एक को। बस उसके न होने से पूरी दुनिया वाक़ई ख़ाली लगती है। किसी और के होने न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ऐसा अक्सर उन लोगों के साथ होता है जिनकी ज़िंदगी में लोग थोड़े कम हों… ऐसे में किसी के होने की विशिष्टता इतनी ज़्यादा बढ़ जाती है कि उसके जैसा कोई भी महसूस नहीं होता। उसके आसपास तक का भी नहीं। हम उस रिश्ते को निष्पक्ष भाव से देख कर उसका आकलन नहीं कर पाते हैं। हम बाइयस्ड होते हैं।
इस ख़ाली जगह को सिर्फ़ किताबों या सफ़र से भरा जा सकता है। थोड़ा सा खुला आसमान कि जो किसी पुरानी इमारत पर जा कर ख़त्म होता हो। थोड़ा सा किसी खंडहर का एकांत। कुछ चुप्पे किरदार जो दिमाग़ में ज़्यादा हलचल न मचाएँ। हम पुराने शहरों में ही पुराने लोगों को भूल सकते हैं। पुराने रिश्ते जब पुरानी इमारतों के इर्द गिर्द टूटते हैं तो उनका टूटना थोड़ा ज़्यादा स्थाई भी होता है और दुखता भी कम है। इसलिए पुरानी दिल्ली से आ कर मुझे साँस थोड़ी बेहतर आती है।
सोचती हूँ…तुम्हें भुलाने के लिए किस शहर का रूख करूँ… फिर शायद वहाँ की तस्वीरें कहीं पर भी पोस्ट न करूँ… क्या ही फ़र्क़ पड़ता है कि आसमान का रंग कैसा था या कि पत्थर में कितनी धूप रहती थी।
मैं भी तो बदल रही हूँ तुम्हारे बग़ैर। चीज़ों को सहेजने की ख़्वाहिश मिटती जा रही है। कि तुम मेरी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा क़ीमती थे। पता नहीं, तुम्हें भी क्या ही सूझी होगी जो किसी रोज़ यूँ ही चले आए मेरी ज़िंदगी में। अब जब इसी तरह यूँ ही चले भी गए हो तो तुम्हारे बिना सब चीज़ें फ़ालतू और बेकार लगती हैं। क्या ही रखें कहीं। क्या लिखें। क्यूँ। किसके लिए?
अगर सब कुछ खो ही जाता है…खो ही जाना है इक रोज़ तो मैं भी चुप्पे चली जाऊँ न…
अलविदा कहना शायद तुम्हें भी नहीं आता है।
लेकिन फिर भी। हम चाहते हैं कि कुछ चीज़ें न बदलें। कुछ रिश्ते, कुछ लोग हमारे बने रहें। कुछ चीज़ों के कभी न बदलने का भरोसा हमें राहत देता है। घर, परिवार, कुछ पुराने दोस्त, बचपन की कुछ यादें… जैसे मेरा बचपन देवघर में बीता। मैं वहाँ तक़रीबन ११ साल रही। पूरी स्कूलिंग वहीं से की। वहाँ मिठाई की एक दुकान है - अवंतिका। इतने सालों में भी वहाँ मिलने वाले रसगुल्लों का स्वाद जस का तस है। इसी तरह कभी कभार बस से गाँव जा रहे होते थे तो बेलहर नाम की जगह आती थी जहाँ पलाश के पत्ते के दोने में रसमलाई मिलती थी। सालों साल उसका स्वाद याद रहा और उस स्वाद को फिर तलाशते भी रहे। वहाँ हमारे एक दूर के रिश्ते के भाई रहते थे… मुन्ना भैय्या। बिना मोबाइल फ़ोन वाले उस ज़माने में हम जब भी वहाँ से गुज़रे… वो हमेशा वहाँ रहते थे। एक दोना रसमलाई लिए हुए। मुझे उनकी सिर्फ़ एक यही बात सबसे ज़्यादा याद रही। अब भी कभी गाँव जाने के राते बेलहर आता है लेकिन अब भैय्या वहाँ नहीं रहते और कौन जाने किस दुकान की रसमलाई थी वो। देवघर से दुमका जाने के रास्ते में ऐसे ही एक जगह आती है घोरमारा/घोड़मारा… वहाँ सुखाड़ी साव पेड़ा भंडार था जिसके जैसा पेड़ा का स्वाद कहीं नहीं आता था। जब सुखाड़ी साव नहीं रहे तो उनकी दुकान दो हिस्से में बँट गयी - उन के दोनों बेटों ने एक एक हिस्सा ले लिया। लेकिन वो पेड़े का स्वाद बाँटने के बाद खो गया और फिर कभी नहीं मिला।
मेरी स्मृति में खाने की बहुत सी जगहें हैं। हर जगह के साथ एक क़िस्सा। हम लौट कर उसी स्वाद तक जाना चाहते हैं… कि माँ के जाने के बाद ज़िंदगी में एक बड़ी ख़ाली सी जगह है… माँ के हाथ के खाने के स्वाद की… या बचपन की… कभी कभी घर जाती हूँ और दीदियाँ कुछ बनाती हैं तो लगता है, शायद… ऐसा ही कुछ था… या कि चाची के हाथ का कुछ खाते हैं तो। लेकिन कभी कह नहीं पाते उनसे… कि कुछ दिन हमको मेरे पसंद का खाना बना के खिला दीजिए।
मेरा एक क़रीबी और बहुत प्यारा दोस्त था। जैसा कि सब दोस्तों के बीच होता है इस टेक्नॉलजी की दुनिया में… हमारे दिन की पूरी खोज ख़बर एक दूसरे को रहती थी। हम किसी शहर में हैं… हम किसी ख़ूबसूरत आसमान के नीचे हैं… हम किसी समंदर के पास हैं। सोशल मीडिया पर जाने के पहले वे तस्वीरें पर्सनल whatsapp में जाती थीं। मेरी भी, उसकी भी। आज उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखीं। ये किसी ब्रेक ऑफ़ से ज़्यादा दुखा।
हम नहीं जानते कि कब हम किसी से दूर होते चले जाएँगे। किसी की ज़िंदगी में हमारी प्रासंगिकता कम हो जाएगी, हमारी ज़रूरत कम हो जाएगी और हमसे लगाव कम हो जाएगा। ये नॉर्मल है। इससे ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन जो चाहिए, वो हो पाए…इतनी आसान कब रही है ज़िंदगी। हमें मोह हुआ रहता है। हम कुछ चीजों को यथासम्भव एक जैसा रखना चाहते हैं। कुछ चीज़ों को। कुछ रिश्तों को।
अक्सर जब हम सबसे ज़्यादा अकेला महसूस करते हैं तो हम सिर्फ़ किसी एक व्यक्ति को याद कर रहे होते हैं। सिर्फ़ किसी एक को। बस उसके न होने से पूरी दुनिया वाक़ई ख़ाली लगती है। किसी और के होने न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ऐसा अक्सर उन लोगों के साथ होता है जिनकी ज़िंदगी में लोग थोड़े कम हों… ऐसे में किसी के होने की विशिष्टता इतनी ज़्यादा बढ़ जाती है कि उसके जैसा कोई भी महसूस नहीं होता। उसके आसपास तक का भी नहीं। हम उस रिश्ते को निष्पक्ष भाव से देख कर उसका आकलन नहीं कर पाते हैं। हम बाइयस्ड होते हैं।
इस ख़ाली जगह को सिर्फ़ किताबों या सफ़र से भरा जा सकता है। थोड़ा सा खुला आसमान कि जो किसी पुरानी इमारत पर जा कर ख़त्म होता हो। थोड़ा सा किसी खंडहर का एकांत। कुछ चुप्पे किरदार जो दिमाग़ में ज़्यादा हलचल न मचाएँ। हम पुराने शहरों में ही पुराने लोगों को भूल सकते हैं। पुराने रिश्ते जब पुरानी इमारतों के इर्द गिर्द टूटते हैं तो उनका टूटना थोड़ा ज़्यादा स्थाई भी होता है और दुखता भी कम है। इसलिए पुरानी दिल्ली से आ कर मुझे साँस थोड़ी बेहतर आती है।
सोचती हूँ…तुम्हें भुलाने के लिए किस शहर का रूख करूँ… फिर शायद वहाँ की तस्वीरें कहीं पर भी पोस्ट न करूँ… क्या ही फ़र्क़ पड़ता है कि आसमान का रंग कैसा था या कि पत्थर में कितनी धूप रहती थी।
मैं भी तो बदल रही हूँ तुम्हारे बग़ैर। चीज़ों को सहेजने की ख़्वाहिश मिटती जा रही है। कि तुम मेरी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा क़ीमती थे। पता नहीं, तुम्हें भी क्या ही सूझी होगी जो किसी रोज़ यूँ ही चले आए मेरी ज़िंदगी में। अब जब इसी तरह यूँ ही चले भी गए हो तो तुम्हारे बिना सब चीज़ें फ़ालतू और बेकार लगती हैं। क्या ही रखें कहीं। क्या लिखें। क्यूँ। किसके लिए?
अगर सब कुछ खो ही जाता है…खो ही जाना है इक रोज़ तो मैं भी चुप्पे चली जाऊँ न…
अलविदा कहना शायद तुम्हें भी नहीं आता है।
Published on May 19, 2019 13:05
May 18, 2019
जिन शामों में मुझे कोई भी दुःख नहीं होता और फिर भी मेरी आ...
जिन शामों में मुझे कोई भी दुःख नहीं होता और फिर भी मेरी आँख भर भर आती है… मैं जानती हूँ कि मैं बहुत प्राचीन दुखों पर रो रही हूँ… कि मेरी आँखें रडार की तरह आसमान में देख लेती हैं कई जन्म पुराने दुःख… युद्ध की विभीषिका… मृत्यु… भय और फिर वे उन लोगों के हिस्से के आँसू रोती हैं जो असमय मर गए थे।
मेरे भीतर एक दुःख का मर्तबान है जो कभी ख़ाली नहीं होता। मेरे अंदर एक सुख का मर्तबान है जिसमें तली नहीं है।
दुःख जीवन की गर्मी पा कर सांद्र होता चला जाता है। दुःख के रहने की जगह आँखों में है। मैं किसी को अपनी आँखें चूमने नहीं देती हूँ, इसलिए।
मैं जिन शहरों की जिन गलियों से चली हूँ वहाँ युद्धबंदी चले थे अपनी अंतिम यात्राओं पर…उनकी निराशा ने मेरी आत्मा पर कुछ अक्षर अंकित कर दिए हैं जो गाहे बगाहे मेरे लिखे में दिखने लगते हैं। मैं लिखती हूँ तो मेरी आत्मा जाने किन अदृश्य शवयात्राओं में चल रही होती है… सफ़ेद कपड़े पहने… सिर झुकाए… शोक संतृप्त। मेरी हथेलियों में धूप की नहीं चिताओं की आग की गर्मी होती है जिसे लिखने में सरकण्डे की क़लम में आग लग जाती है। मैं कभी कभी स्याही में उँगलियाँ डुबो कर प्रायश्चित्त की कविताएँ लिखती हूँ… छोटे छोटे शब्दों की। हमारे यहाँ स्त्रियाँ शवयात्रा में शामिल नहीं होतीं इसलिए उन्हें उम्र भर कभी यक़ीन नहीं होता कि राम नाम सत्य है… वे अपना सत्य तलाशती रहती हैं। मैं भी अपना सत्य तलाश रही हूँ। ईश्वर के आख़िरी नाम में जो कि प्रेमी के नाम से मिलता जुलता हो। जीवन की सारी कहानियों और रामायण के जितने हिस्से याद हैं उसके बावजूद राम का सबसे गहरा असर जो मेरे मन पर होता है वो इसी वाक्य का क्यूँ है… मैं कोई किरदार लिख सकूँगी कभी कि जिसका नाम राम हो? कि दुनिया तो अब ऐसी नहीं रही कि जिसमें मैं ये कल्पना कर सकूँ कि मेरा कोई बेटा हो तो उसका नाम राम रखूँ।
आज शाम निर्मल वर्मा को पढ़ रही थी - दूसरी दुनिया। उसमें वे बोर्खेस की बात करते हुए बताते हैं कि बोर्खेस के एक वक्तव्य के बाद एक श्रोता ने पूछा कि “आप अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस करते हैं?”… बोर्खेस ने अपनी थकी आँखों से हमारी ओर देखा, “हमेशा लगता है कि मैं कहीं भटक गया हूँ, हमेशा यही लगता है।”।
इत्तिफ़ाक़ से दो तीन दिन पहले ही घर पर कुछ लोग आए हुए थे और हम विदेश यात्रा के अपने अनुभवों पर बात कर रहे थे। मैं कह रही थी कि मुझे सबसे अच्छी बात ये लगती है कि मैं कहीं भी खो नहीं सकती। दुनिया के किसी भी देश में, किसी भी शहर में, कितने भी कॉम्प्लिकेटेड सब्वे सिस्टम्ज़ या कि नाव चल रही हो… मुझे हमेशा मालूम होता है मैं कहाँ हों कि मैं हमेशा लौट सकती हूँ जहाँ चाहूँ… जब चाहूँ… कि मैं कहीं भटक नहीं सकती।
बोर्खेस के इस हिस्से को पढ़ते हुए लगा कि ये वक्तव्य तब का है जब वे अपने आँखों की रोशनी पूरी तरह खो चुके थे। उस अंधेरे में कैसे आते होंगे शब्द… रंगों की कैसी स्मृति रही होगी और रौशनी की… इस भटकने में कितना आध्यात्मिक था और कितना शुद्ध सत्य। मैं जो कभी एक जगह स्थिर नहीं रह सकती… मैं कहाँ जाना चाहती हूँ। क्या मेरे पास कोई मंज़िल है … मैं इस रास्ते पर रहते हुए संतुष्ट हूँ या मुझे किसी मंज़िल की तलाश है...
ये कितना सुंदर सवाल है न? मैं भी शायद कुछ लोगों से पूछना चाहूँगी… ख़ास तौर से मेरे सबसे पसंद के लेखकों से… कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस की है। कि मुझसे पूछा जाए तो शायद मैं कहूँगी सफ़र में होने की ख़ुशी। या कि एक शब्द में कहें तो… प्रेम। मैंने सबसे ज़्यादा प्रेम महसूस किया है। और उससे थोड़ा ही कम प्रेम से उपजी पीड़ा। मेरे पास सबसे ज़्यादा का कोई ठीक ठीक जवाब नहीं है।
मेरी कैलीग्राफ़ी वाली क़लम खो गयी है और मैं कई दिनों से जो लिखना चाहती हूँ वो लिख नहीं पा रही हूँ क्यूँकि दिमाग़ में शब्द नहीं बस क़लम का चलना दिख रहा है। कल शायद जा कर नयी क़लम ख़रीदनी पड़े। मैं इस बार कुछ गहरे दुखों को लिखना चाहती हूँ जो ऊपर से देखने पर काफ़ी सादे से दिखते हैं लेकिन दुखते बहुत ज़्यादा हैं। जैसे कि मैं अपने घर में खाने का प्रबंधन ठीक से नहीं देख पाती। मुझे समझ नहीं आता कि कुक को क्या बनाने बोलूँ या कि उसको खाना बनाना कैसे सिखाऊँ… मुझे ख़ुद से बनाना तो आता है लेकिन सिखा नहीं सकती किसी को… तो मेरे घर के सारे लोगों को खाने के वक़्त से डर लगता है कि आज जाने कितना बुरा खाना बना होगा… हम कितने महीने से ऐसा ही खाना खा रहे हैं जो बेहद बेस्वाद होता है। मैं उसे नौकरी से निकाल दूँ… ये भी नहीं कर पा रही। लेकिन एक नॉर्मल सी ज़िंदगी में ये दुःख कितना बड़ा है कि आपको तीन वक़्त का अपनी पसंद का खाना खाने को नहीं मिले। ये दुःख उपन्यास पूरा न कर पाने या कि कहानियाँ न लिख पाने से भारी लगता है। कि लिखते पढ़ते हुए सब कुछ पर्सनल हो जाता है और जानती हूँ कि भूख दुनिया का सबसे बड़ा दुःख है।
मेरे भीतर एक दुःख का मर्तबान है जो कभी ख़ाली नहीं होता। मेरे अंदर एक सुख का मर्तबान है जिसमें तली नहीं है।
दुःख जीवन की गर्मी पा कर सांद्र होता चला जाता है। दुःख के रहने की जगह आँखों में है। मैं किसी को अपनी आँखें चूमने नहीं देती हूँ, इसलिए।
मैं जिन शहरों की जिन गलियों से चली हूँ वहाँ युद्धबंदी चले थे अपनी अंतिम यात्राओं पर…उनकी निराशा ने मेरी आत्मा पर कुछ अक्षर अंकित कर दिए हैं जो गाहे बगाहे मेरे लिखे में दिखने लगते हैं। मैं लिखती हूँ तो मेरी आत्मा जाने किन अदृश्य शवयात्राओं में चल रही होती है… सफ़ेद कपड़े पहने… सिर झुकाए… शोक संतृप्त। मेरी हथेलियों में धूप की नहीं चिताओं की आग की गर्मी होती है जिसे लिखने में सरकण्डे की क़लम में आग लग जाती है। मैं कभी कभी स्याही में उँगलियाँ डुबो कर प्रायश्चित्त की कविताएँ लिखती हूँ… छोटे छोटे शब्दों की। हमारे यहाँ स्त्रियाँ शवयात्रा में शामिल नहीं होतीं इसलिए उन्हें उम्र भर कभी यक़ीन नहीं होता कि राम नाम सत्य है… वे अपना सत्य तलाशती रहती हैं। मैं भी अपना सत्य तलाश रही हूँ। ईश्वर के आख़िरी नाम में जो कि प्रेमी के नाम से मिलता जुलता हो। जीवन की सारी कहानियों और रामायण के जितने हिस्से याद हैं उसके बावजूद राम का सबसे गहरा असर जो मेरे मन पर होता है वो इसी वाक्य का क्यूँ है… मैं कोई किरदार लिख सकूँगी कभी कि जिसका नाम राम हो? कि दुनिया तो अब ऐसी नहीं रही कि जिसमें मैं ये कल्पना कर सकूँ कि मेरा कोई बेटा हो तो उसका नाम राम रखूँ।
आज शाम निर्मल वर्मा को पढ़ रही थी - दूसरी दुनिया। उसमें वे बोर्खेस की बात करते हुए बताते हैं कि बोर्खेस के एक वक्तव्य के बाद एक श्रोता ने पूछा कि “आप अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस करते हैं?”… बोर्खेस ने अपनी थकी आँखों से हमारी ओर देखा, “हमेशा लगता है कि मैं कहीं भटक गया हूँ, हमेशा यही लगता है।”।
इत्तिफ़ाक़ से दो तीन दिन पहले ही घर पर कुछ लोग आए हुए थे और हम विदेश यात्रा के अपने अनुभवों पर बात कर रहे थे। मैं कह रही थी कि मुझे सबसे अच्छी बात ये लगती है कि मैं कहीं भी खो नहीं सकती। दुनिया के किसी भी देश में, किसी भी शहर में, कितने भी कॉम्प्लिकेटेड सब्वे सिस्टम्ज़ या कि नाव चल रही हो… मुझे हमेशा मालूम होता है मैं कहाँ हों कि मैं हमेशा लौट सकती हूँ जहाँ चाहूँ… जब चाहूँ… कि मैं कहीं भटक नहीं सकती।
बोर्खेस के इस हिस्से को पढ़ते हुए लगा कि ये वक्तव्य तब का है जब वे अपने आँखों की रोशनी पूरी तरह खो चुके थे। उस अंधेरे में कैसे आते होंगे शब्द… रंगों की कैसी स्मृति रही होगी और रौशनी की… इस भटकने में कितना आध्यात्मिक था और कितना शुद्ध सत्य। मैं जो कभी एक जगह स्थिर नहीं रह सकती… मैं कहाँ जाना चाहती हूँ। क्या मेरे पास कोई मंज़िल है … मैं इस रास्ते पर रहते हुए संतुष्ट हूँ या मुझे किसी मंज़िल की तलाश है...
ये कितना सुंदर सवाल है न? मैं भी शायद कुछ लोगों से पूछना चाहूँगी… ख़ास तौर से मेरे सबसे पसंद के लेखकों से… कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस की है। कि मुझसे पूछा जाए तो शायद मैं कहूँगी सफ़र में होने की ख़ुशी। या कि एक शब्द में कहें तो… प्रेम। मैंने सबसे ज़्यादा प्रेम महसूस किया है। और उससे थोड़ा ही कम प्रेम से उपजी पीड़ा। मेरे पास सबसे ज़्यादा का कोई ठीक ठीक जवाब नहीं है।
मेरी कैलीग्राफ़ी वाली क़लम खो गयी है और मैं कई दिनों से जो लिखना चाहती हूँ वो लिख नहीं पा रही हूँ क्यूँकि दिमाग़ में शब्द नहीं बस क़लम का चलना दिख रहा है। कल शायद जा कर नयी क़लम ख़रीदनी पड़े। मैं इस बार कुछ गहरे दुखों को लिखना चाहती हूँ जो ऊपर से देखने पर काफ़ी सादे से दिखते हैं लेकिन दुखते बहुत ज़्यादा हैं। जैसे कि मैं अपने घर में खाने का प्रबंधन ठीक से नहीं देख पाती। मुझे समझ नहीं आता कि कुक को क्या बनाने बोलूँ या कि उसको खाना बनाना कैसे सिखाऊँ… मुझे ख़ुद से बनाना तो आता है लेकिन सिखा नहीं सकती किसी को… तो मेरे घर के सारे लोगों को खाने के वक़्त से डर लगता है कि आज जाने कितना बुरा खाना बना होगा… हम कितने महीने से ऐसा ही खाना खा रहे हैं जो बेहद बेस्वाद होता है। मैं उसे नौकरी से निकाल दूँ… ये भी नहीं कर पा रही। लेकिन एक नॉर्मल सी ज़िंदगी में ये दुःख कितना बड़ा है कि आपको तीन वक़्त का अपनी पसंद का खाना खाने को नहीं मिले। ये दुःख उपन्यास पूरा न कर पाने या कि कहानियाँ न लिख पाने से भारी लगता है। कि लिखते पढ़ते हुए सब कुछ पर्सनल हो जाता है और जानती हूँ कि भूख दुनिया का सबसे बड़ा दुःख है।
Published on May 18, 2019 08:25
… तुम्हारा घर होना है।
'मुझे अभी ख़ून करने की भी फ़ुर्सत नहीं है'।
उसने हड़बड़ में फ़ोन उठाया, हेलो के बाद इतना सा ही कहा और फ़ोन काट दिया। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया... कि उसे फ़ोन काटने की फ़ुर्सत है, बाय बोलने की नहीं... उसी आधे सेकंड में बाय बोल देती तो मैं फ़ोन तो आख़िर में काट ही देता। फिर उसकी बातें! हड़बड़ में ख़ून कौन करता है… कैसे अजीब मेटफ़ॉर होते थे उसके कि उफ़, कि मतलब ख़ून करना कोई फ़ुर्सत और इत्मीनान से करने वाली हॉबी तो है नहीं। कि अच्छा, फ़्री टाइम में हमको पेंटिंग करना, कहानियाँ लिखना, किताबें पढ़ना, ग़ज़लें सुनना और ख़ून करना पसंद है। लेकिन ये बात भी तो थी कि उसके इश्क़ में पड़ना ख़ुदकुशी ही था और अगर वो तुम्हें एक नज़र प्यार से देख ले तो मर जाने का जी तो चाहता ही था। ऐसे में ख़ून करने की फ़ुर्सत का शाब्दिक अर्थ ना लेकर ये भी सोचा जा सकता था कि उसे इन दिनों सजने सँवरने की फ़ुर्सत नहीं मिलती होगी… कैज़ूअल से जींस टी शर्ट में घूम रही होती होगी। उसके गुलाबी दुपट्टे, मैचिंग चूड़ियाँ और झुमके अलने दराज़ में पड़े रो रहे होते होंगे। आईने पर धूल जम गयी होगी। ये भी तो हो सकता है। फिर मेरे दिमाग़ में बस हिंसक ख़याल ही क्यूँ आते हैं।
प्रेम का मृत्यु से इतना क़रीबी ताना बाना क्यूँ बुना हुआ है। ये सर दर्द क्या ऑक्सिजन की कमी से हो रहा है? उसकी बात आते मैं ठीक ठीक सोचना समझना भूल जाता हूँ। कभी कभी तो लगता है कि साँस लेना भी। वैसे शहर में प्रदूषण काफ़ी बढ़ गया है… फिर दिन भर की बीस सिगरेटें भी तो कभी न कभी अपना असर छोड़ेंगी… साँस जाने किस वजह से ठीक ठीक नहीं आ रही। मुझे शायद कुछ दिन पहाड़ों पर जा कर रहना चाहिए। किसी छोटे शहर में… जहाँ की हवा ताज़ी हो और लड़कियाँ कमसिन। कि जहाँ मर जाना आसान हो और जिसकी लाइब्रेरी में बैठ कर इत्मीनान से मैं अपना सुसाइड नोट लिख सकूँ।
वो एक ख़लल की तरह आयी थी ज़िंदगी में…छुट्टी के दिन कोई दोपहर दरवाज़ा खटखटा के नींद तोड़ दे, वैसी। बेवजह। अभी भी न उसके रहने की कोई ठोस वजह है, न उसके चले जाने पर कोई बहुत दुःख होगा। जैसे ज़िंदगी में बाक़ी चीज़ें ठहर गयी हैं… वो भी इस मरते हुए कमरे की दीवार पर लगा वालपेपर हो गयी है… किनारों से उखड़ती हुयी। पुरानी। बदरंग। सीली। उसके रहते कमरे का उजाड़ ख़ुद को पूरी तरह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता है। न मैं कह पाता हूँ उससे… इस बुझती शाम में तुम यहाँ क्या कर रही हो…तुम्हें कहीं और होना चाहिए… यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है…
उसके आने का कोई तय समय नहीं होता और ये बात मुझे बेतरह परेशान करती है कि न चाहते हुए भी मुझे उसका इंतज़ार रहता है। उसके आने की कोई वजह भी नहीं होती तो मैं मौसम में उसके आने के चिन्ह तलाशने लगा हूँ… कि जैसे एक बेहद गर्म दिन वो सबके लिए क़ुल्फ़ी और मेरे लिए चिल्ड बीयर का एक क्रेट ले आयी थी… आइस बॉक्स के साथ। उसे याद भी रहता था कि मुझे किस दुकान का कैसा नमकीन पसंद है। कभी कभी वो यूँ ही मेरे घर के परदे धुलवा देती, चादरें बदलवा देती और कपड़े ड्राईक्लीन करवा देती। लेकिन इतना ज़्यादा नहीं कि उसकी आदत लगे लेकिन इतना कम भी नहीं कि उसका इंतज़ार न हो।
कभी कभी वो महीनों व्यस्त हो जाती। उसका कोई इवेंट होता जो कि आसमान से उतरे लोगों के लिए होता। उनकी ख़ुशी के सारे इंतज़ाम करते हुए वो एकदम ही मुझसे मिलने नहीं आती। बस, कभी बर्थ्डे पर केक भिजवा दिया। कभी नए साल पर फूल। लेकिन ख़ुद नहीं आती। मुझे समझ नहीं आता मैं इन चीज़ों पर नाराज़ रहूँ उससे या कि ख़ुश रहूँ कि अपनी व्यस्तता में भी उसे मेरा ध्यान है।
वो व्यस्त रहती थी तो ख़ुश रहती थी। सुबह से शाम तक काम और प्रोजेक्ट ख़त्म होने के बाद के पैसों से ख़ूब घूमना। चीज़ें ख़रीदना। फिर नए प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले के दो चार दिन एकदम ही परेशान हो जाती थी… कि जैसे भूल ही जाएगी लिखना पढ़ना। देर रात तक विस्की और फिर सुबह उठने के साथ फिर से विस्की। खाना खाती नहीं थी कि उल्टी… ऐसी लाइफ़स्टाइल क्यूँ थी उसकी पता नहीं। फिर मैं क्या था उसका, वो भी पता नहीं। सिर्फ़ एक कमरा जो हमेशा उसकी दस्तक पर खुलता था… दिन रात, सुबह… किसी भी मौसम… किसी भी मूड मिज़ाज माहौल में… रहने की इक तयशुदा जगह… उम्र का कोई पड़ाव…
एक दिन मुझे असाइलम का डेफ़िनिशन समझा रही थी… ‘पागलखाना न होता तो पागलों को जान से मार देते लोग… या कि पागल लोग पूरी दुनिया को इन्फ़ेक्ट कर देते… पागल कर देते… असाइलम यानी कि जहाँ लौट कर हमेशा जाया जा सके… जैसे विदेशों में मालूम, आपके देश की एम्बसी होती है… पनाह… जहाँ जाने की शर्त न हो… असाइलम… तुम… कि तुम मेरा असाइलम हो।’
काश कि वो दुनिया की किसी डेफ़िनिशन से थोड़ी कम पागल होती। कि मैं ही बता पाता उसे, कि तुम पागल हो नहीं… थोड़ी सी मिसफ़िट हो दुनिया में… लेकिन ऐसा होना इतना मुश्किल नहीं है। कि तुम मेरे लिए ठीक-ठाक हो।
कि मुझे तुम्हारा असाइलम नहीं… तुम्हारा घर होना है।
उसने हड़बड़ में फ़ोन उठाया, हेलो के बाद इतना सा ही कहा और फ़ोन काट दिया। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया... कि उसे फ़ोन काटने की फ़ुर्सत है, बाय बोलने की नहीं... उसी आधे सेकंड में बाय बोल देती तो मैं फ़ोन तो आख़िर में काट ही देता। फिर उसकी बातें! हड़बड़ में ख़ून कौन करता है… कैसे अजीब मेटफ़ॉर होते थे उसके कि उफ़, कि मतलब ख़ून करना कोई फ़ुर्सत और इत्मीनान से करने वाली हॉबी तो है नहीं। कि अच्छा, फ़्री टाइम में हमको पेंटिंग करना, कहानियाँ लिखना, किताबें पढ़ना, ग़ज़लें सुनना और ख़ून करना पसंद है। लेकिन ये बात भी तो थी कि उसके इश्क़ में पड़ना ख़ुदकुशी ही था और अगर वो तुम्हें एक नज़र प्यार से देख ले तो मर जाने का जी तो चाहता ही था। ऐसे में ख़ून करने की फ़ुर्सत का शाब्दिक अर्थ ना लेकर ये भी सोचा जा सकता था कि उसे इन दिनों सजने सँवरने की फ़ुर्सत नहीं मिलती होगी… कैज़ूअल से जींस टी शर्ट में घूम रही होती होगी। उसके गुलाबी दुपट्टे, मैचिंग चूड़ियाँ और झुमके अलने दराज़ में पड़े रो रहे होते होंगे। आईने पर धूल जम गयी होगी। ये भी तो हो सकता है। फिर मेरे दिमाग़ में बस हिंसक ख़याल ही क्यूँ आते हैं।
प्रेम का मृत्यु से इतना क़रीबी ताना बाना क्यूँ बुना हुआ है। ये सर दर्द क्या ऑक्सिजन की कमी से हो रहा है? उसकी बात आते मैं ठीक ठीक सोचना समझना भूल जाता हूँ। कभी कभी तो लगता है कि साँस लेना भी। वैसे शहर में प्रदूषण काफ़ी बढ़ गया है… फिर दिन भर की बीस सिगरेटें भी तो कभी न कभी अपना असर छोड़ेंगी… साँस जाने किस वजह से ठीक ठीक नहीं आ रही। मुझे शायद कुछ दिन पहाड़ों पर जा कर रहना चाहिए। किसी छोटे शहर में… जहाँ की हवा ताज़ी हो और लड़कियाँ कमसिन। कि जहाँ मर जाना आसान हो और जिसकी लाइब्रेरी में बैठ कर इत्मीनान से मैं अपना सुसाइड नोट लिख सकूँ।
वो एक ख़लल की तरह आयी थी ज़िंदगी में…छुट्टी के दिन कोई दोपहर दरवाज़ा खटखटा के नींद तोड़ दे, वैसी। बेवजह। अभी भी न उसके रहने की कोई ठोस वजह है, न उसके चले जाने पर कोई बहुत दुःख होगा। जैसे ज़िंदगी में बाक़ी चीज़ें ठहर गयी हैं… वो भी इस मरते हुए कमरे की दीवार पर लगा वालपेपर हो गयी है… किनारों से उखड़ती हुयी। पुरानी। बदरंग। सीली। उसके रहते कमरे का उजाड़ ख़ुद को पूरी तरह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता है। न मैं कह पाता हूँ उससे… इस बुझती शाम में तुम यहाँ क्या कर रही हो…तुम्हें कहीं और होना चाहिए… यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है…

उसके आने का कोई तय समय नहीं होता और ये बात मुझे बेतरह परेशान करती है कि न चाहते हुए भी मुझे उसका इंतज़ार रहता है। उसके आने की कोई वजह भी नहीं होती तो मैं मौसम में उसके आने के चिन्ह तलाशने लगा हूँ… कि जैसे एक बेहद गर्म दिन वो सबके लिए क़ुल्फ़ी और मेरे लिए चिल्ड बीयर का एक क्रेट ले आयी थी… आइस बॉक्स के साथ। उसे याद भी रहता था कि मुझे किस दुकान का कैसा नमकीन पसंद है। कभी कभी वो यूँ ही मेरे घर के परदे धुलवा देती, चादरें बदलवा देती और कपड़े ड्राईक्लीन करवा देती। लेकिन इतना ज़्यादा नहीं कि उसकी आदत लगे लेकिन इतना कम भी नहीं कि उसका इंतज़ार न हो।
कभी कभी वो महीनों व्यस्त हो जाती। उसका कोई इवेंट होता जो कि आसमान से उतरे लोगों के लिए होता। उनकी ख़ुशी के सारे इंतज़ाम करते हुए वो एकदम ही मुझसे मिलने नहीं आती। बस, कभी बर्थ्डे पर केक भिजवा दिया। कभी नए साल पर फूल। लेकिन ख़ुद नहीं आती। मुझे समझ नहीं आता मैं इन चीज़ों पर नाराज़ रहूँ उससे या कि ख़ुश रहूँ कि अपनी व्यस्तता में भी उसे मेरा ध्यान है।
वो व्यस्त रहती थी तो ख़ुश रहती थी। सुबह से शाम तक काम और प्रोजेक्ट ख़त्म होने के बाद के पैसों से ख़ूब घूमना। चीज़ें ख़रीदना। फिर नए प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले के दो चार दिन एकदम ही परेशान हो जाती थी… कि जैसे भूल ही जाएगी लिखना पढ़ना। देर रात तक विस्की और फिर सुबह उठने के साथ फिर से विस्की। खाना खाती नहीं थी कि उल्टी… ऐसी लाइफ़स्टाइल क्यूँ थी उसकी पता नहीं। फिर मैं क्या था उसका, वो भी पता नहीं। सिर्फ़ एक कमरा जो हमेशा उसकी दस्तक पर खुलता था… दिन रात, सुबह… किसी भी मौसम… किसी भी मूड मिज़ाज माहौल में… रहने की इक तयशुदा जगह… उम्र का कोई पड़ाव…
एक दिन मुझे असाइलम का डेफ़िनिशन समझा रही थी… ‘पागलखाना न होता तो पागलों को जान से मार देते लोग… या कि पागल लोग पूरी दुनिया को इन्फ़ेक्ट कर देते… पागल कर देते… असाइलम यानी कि जहाँ लौट कर हमेशा जाया जा सके… जैसे विदेशों में मालूम, आपके देश की एम्बसी होती है… पनाह… जहाँ जाने की शर्त न हो… असाइलम… तुम… कि तुम मेरा असाइलम हो।’
काश कि वो दुनिया की किसी डेफ़िनिशन से थोड़ी कम पागल होती। कि मैं ही बता पाता उसे, कि तुम पागल हो नहीं… थोड़ी सी मिसफ़िट हो दुनिया में… लेकिन ऐसा होना इतना मुश्किल नहीं है। कि तुम मेरे लिए ठीक-ठाक हो।
कि मुझे तुम्हारा असाइलम नहीं… तुम्हारा घर होना है।
Published on May 18, 2019 07:45
May 14, 2019
ख़्वाब गली
सपने ठीक ठीक किस चीज़ के बने होते हैं, मालूम नहीं। हमें जो चाहिए होता है...इस दुनिया में बिखरी जो तमाम ख़्वाहिशें हैं... मेरी नहीं, किसी और की, किसी और वक़्त में किसी की माँगी हुयी कोई दुआ...सच की... कि हम जो महसूसना चाहते हैं, भले ही वो हमारी ज़िंदगी में कभी न घटे लेकिन वैसा होने से हम कैसा महसूसते, ये हमें सपने में दिख जाता है। एक थ्योरी तो यह भी कहती है कि अगर आपने सपने में किसी को देखा है तो इसका मतलब वो व्यक्ति आपको याद कर रहा था, बेतरह।
जानां। आज पूरी रात कई सारे सपनों में बीती। हर सपना टूटने के बाद दूसरा शुरू हो जाता था। इन सारे सपनों में बस तुम ही कॉमन रहे। क्यूँ देखा तुम्हें पूरी रात मालूम नहीं। सुबह को दो सपने याद हैं।
मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो खाना बना रही है और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर बरामदे से भीतर आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।
मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो बड़े से पतीले पर चढ़ा भात देख रही है...जो कि खदबद कर रहा है...और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर से आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।
बस से हम ठीक अपने देवघर वाले घर के सामने उतरे हैं। मैं और तुम, घर के बाक़ी लोग आगे चले गए हैं। मेरे तुम्हारे, दोनों के घर वाले। मेरे घर के पहले तल्ले पर जाने के लिए पीछे का छोटा वाला दरवाज़ा है और वहाँ तक जाने वाली छोटी सी गली है... सामने से पड़ोसी और उसके साथ एक और लड़का आता हुआ दिख रहा है। मैं गली की दूसरी साइड चली गयी हूँ ... वैसे तो हमारी बात नहीं होती, लेकिन कोई दूसरा लड़का है उनके साथ और मैं नहीं चाहती वो मुझे टोके।
लोहे का गेट खोल कर हम अंदर घुसते हैं और फिर लकड़ी वाला दरवाज़ा मैं चाबी से खोलती हूँ... इतनी देर में तुमने जूते उतार के बाहर रख दिए हैं। तुम जब अंदर आते तो तो मैं देखती हूँ, जूते बाहर हैं। मैं उन्हें उठा लेती हूँ... कि हमारे यहाँ कोई बाहर नहीं खोलता जूते। लेदर के पुराने ओल्ड फ़ैशन जूते... मेरे पापा पहनते हैं ऐसे ही...बाटा वाले। मैं आगे बढ़ती हूँ, तुम्हें चाबी दी है...दरवाज़ा लॉक करने के लिए। सीढ़ियों से ऊपर चढ़े हैं। दायीं तरफ़ पहला कमरा मेरा है। मेरी स्कूल की किताबें लगी हुयी हैं। लंच बॉक्स और पेंसिल बॉक्स रखा हुआ है। खिड़की के पास मेरा सिंगल बेड है। तकिए के पास कुछ किताबें पसरी हुयी हैं... एक आधी नोट्बुक और पेन पेंसिल भी।
तुम्हें पीठ में दर्द हो रहा है। दाएँ कंधे के थोड़े नीचे। शायद बस में चोट लगी थी या ऐसा ही कुछ। मैं कहती हूँ कि विक्स लगा देती हूँ। तुम कहते हो कि कोई ज़रूरत नहीं है, थोड़ा सा दर्द है... ऐसे ही ठीक हो जाएगा। मैं ज़िद करती हूँ कि थोड़ा सा लगा के पीठ दबा ही दूँगी तो दिक्कत क्या है... ऐसे दर्द में रहने की क्या ज़रूरत है। तुम अपनी शर्ट के बटन खोलते हो और आधी शर्ट उतार कर बेड पर लेट जाते हो... मैं विक्स लगा रही हूँ... मेरी हथेली गर्म लग रही है... तुम्हें शायद चोट लगी है कि वहाँ कत्थई निशान है, लगभग मेरी हथेली जितना। मैं हल्के हल्के विक्स लगाती सोच रही हूँ... मैंने पहले कभी इतने intimately तुम्हें छुआ नहीं है। कभी कभी सिर्फ़ तुम्हारा हाथ पकड़ा है और सिर्फ़ एक बार तुम्हारे बाल ठीक किए हैं। मैं पहली बार जान रही हूँ तुम्हें छूना कैसा है। तुम्हारा कंधा साँवला है और त्वचा एकदम चिकनी जिसमें थोड़ी सी चमक है। मुझे नेरुदा याद आते हैं... the moon lives in the lining of your skin...क्या गोरखधंधा हो तुम खुदा जाने...
तुम उठ कर बैठते हो...शर्ट के बटन लगा रहे हो...काली चेक शर्ट है... कॉटन की... मैं पहली बार तुमसे मिली थी तो तुमने यही शर्ट पहनी हुयी थी। खिड़की वाली दीवार पर टेक लगा कर बैठते हो... मैं तुम्हारी लेफ़्ट ओर बैठी हूँ तुम मुझे गले लगाते हो... मैं तुम्हारे सीने पर सर रख कर बैठी हूँ... तुमने बाँहों में घेर कर माथे पर हथेली रखी हुयी है...और हल्के से मेरा सर थपथपा रहे हो...बाल सहला रहे हो...
मैं आँख बंद करती हूँ कि जान जाती हूँ ये सपना है और सब कुछ एक हूक की तरह सीने में हौल करता है... तुम मुझे चूमते हो... सपने और जाग के बीच बने बारीक पुल पर...
मैं जागती हूँ तो मेरी हथेलियों में इक गर्माहट की याद है। पहली चीज़ मन किया कि तुमसे पूछ लूँ, तुम्हें कोई चोट तो नहीं लगी है... फिर अमृता प्रीतम याद आती हैं... जब वे साहिर के सीने पर विक्स लगा रही होती हैं। फिर मैं भूल जाती हूँ दोनों को। मुझे तुम्हारी बेइंतहा याद आयी है। रुला देने वाली। कि वाक़ई होना चाहिए इस दुनिया में ऐसा कि किसी को ऐसे याद करने के बजाए, हम जा सकें उससे मिलने। फ़्लाइट पकड़ कर उतर सकें उसके शहर। मिल सकें, पी सकें एक कॉफ़ी...कह सकें, इस याद से तो मर जाना बेहतर था।
ऐसी किसी सुबह लगता है कि शायद तुमने भी मुझे याद किया हो... इतना नहीं, थोड़ा कम सही।
लव यू।
जानां। आज पूरी रात कई सारे सपनों में बीती। हर सपना टूटने के बाद दूसरा शुरू हो जाता था। इन सारे सपनों में बस तुम ही कॉमन रहे। क्यूँ देखा तुम्हें पूरी रात मालूम नहीं। सुबह को दो सपने याद हैं।
मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो खाना बना रही है और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर बरामदे से भीतर आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।
मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो बड़े से पतीले पर चढ़ा भात देख रही है...जो कि खदबद कर रहा है...और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर से आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।
बस से हम ठीक अपने देवघर वाले घर के सामने उतरे हैं। मैं और तुम, घर के बाक़ी लोग आगे चले गए हैं। मेरे तुम्हारे, दोनों के घर वाले। मेरे घर के पहले तल्ले पर जाने के लिए पीछे का छोटा वाला दरवाज़ा है और वहाँ तक जाने वाली छोटी सी गली है... सामने से पड़ोसी और उसके साथ एक और लड़का आता हुआ दिख रहा है। मैं गली की दूसरी साइड चली गयी हूँ ... वैसे तो हमारी बात नहीं होती, लेकिन कोई दूसरा लड़का है उनके साथ और मैं नहीं चाहती वो मुझे टोके।
लोहे का गेट खोल कर हम अंदर घुसते हैं और फिर लकड़ी वाला दरवाज़ा मैं चाबी से खोलती हूँ... इतनी देर में तुमने जूते उतार के बाहर रख दिए हैं। तुम जब अंदर आते तो तो मैं देखती हूँ, जूते बाहर हैं। मैं उन्हें उठा लेती हूँ... कि हमारे यहाँ कोई बाहर नहीं खोलता जूते। लेदर के पुराने ओल्ड फ़ैशन जूते... मेरे पापा पहनते हैं ऐसे ही...बाटा वाले। मैं आगे बढ़ती हूँ, तुम्हें चाबी दी है...दरवाज़ा लॉक करने के लिए। सीढ़ियों से ऊपर चढ़े हैं। दायीं तरफ़ पहला कमरा मेरा है। मेरी स्कूल की किताबें लगी हुयी हैं। लंच बॉक्स और पेंसिल बॉक्स रखा हुआ है। खिड़की के पास मेरा सिंगल बेड है। तकिए के पास कुछ किताबें पसरी हुयी हैं... एक आधी नोट्बुक और पेन पेंसिल भी।
तुम्हें पीठ में दर्द हो रहा है। दाएँ कंधे के थोड़े नीचे। शायद बस में चोट लगी थी या ऐसा ही कुछ। मैं कहती हूँ कि विक्स लगा देती हूँ। तुम कहते हो कि कोई ज़रूरत नहीं है, थोड़ा सा दर्द है... ऐसे ही ठीक हो जाएगा। मैं ज़िद करती हूँ कि थोड़ा सा लगा के पीठ दबा ही दूँगी तो दिक्कत क्या है... ऐसे दर्द में रहने की क्या ज़रूरत है। तुम अपनी शर्ट के बटन खोलते हो और आधी शर्ट उतार कर बेड पर लेट जाते हो... मैं विक्स लगा रही हूँ... मेरी हथेली गर्म लग रही है... तुम्हें शायद चोट लगी है कि वहाँ कत्थई निशान है, लगभग मेरी हथेली जितना। मैं हल्के हल्के विक्स लगाती सोच रही हूँ... मैंने पहले कभी इतने intimately तुम्हें छुआ नहीं है। कभी कभी सिर्फ़ तुम्हारा हाथ पकड़ा है और सिर्फ़ एक बार तुम्हारे बाल ठीक किए हैं। मैं पहली बार जान रही हूँ तुम्हें छूना कैसा है। तुम्हारा कंधा साँवला है और त्वचा एकदम चिकनी जिसमें थोड़ी सी चमक है। मुझे नेरुदा याद आते हैं... the moon lives in the lining of your skin...क्या गोरखधंधा हो तुम खुदा जाने...
तुम उठ कर बैठते हो...शर्ट के बटन लगा रहे हो...काली चेक शर्ट है... कॉटन की... मैं पहली बार तुमसे मिली थी तो तुमने यही शर्ट पहनी हुयी थी। खिड़की वाली दीवार पर टेक लगा कर बैठते हो... मैं तुम्हारी लेफ़्ट ओर बैठी हूँ तुम मुझे गले लगाते हो... मैं तुम्हारे सीने पर सर रख कर बैठी हूँ... तुमने बाँहों में घेर कर माथे पर हथेली रखी हुयी है...और हल्के से मेरा सर थपथपा रहे हो...बाल सहला रहे हो...
मैं आँख बंद करती हूँ कि जान जाती हूँ ये सपना है और सब कुछ एक हूक की तरह सीने में हौल करता है... तुम मुझे चूमते हो... सपने और जाग के बीच बने बारीक पुल पर...
मैं जागती हूँ तो मेरी हथेलियों में इक गर्माहट की याद है। पहली चीज़ मन किया कि तुमसे पूछ लूँ, तुम्हें कोई चोट तो नहीं लगी है... फिर अमृता प्रीतम याद आती हैं... जब वे साहिर के सीने पर विक्स लगा रही होती हैं। फिर मैं भूल जाती हूँ दोनों को। मुझे तुम्हारी बेइंतहा याद आयी है। रुला देने वाली। कि वाक़ई होना चाहिए इस दुनिया में ऐसा कि किसी को ऐसे याद करने के बजाए, हम जा सकें उससे मिलने। फ़्लाइट पकड़ कर उतर सकें उसके शहर। मिल सकें, पी सकें एक कॉफ़ी...कह सकें, इस याद से तो मर जाना बेहतर था।
ऐसी किसी सुबह लगता है कि शायद तुमने भी मुझे याद किया हो... इतना नहीं, थोड़ा कम सही।
लव यू।
Published on May 14, 2019 19:02
May 6, 2019
गर्मियाँ

इंसान को किसी भी चीज़ से शिकायत हो सकती है। किसी भी चीज़ से। कि जैसे मुझे बैंगलोर के अच्छे मौसम से शिकायत है।
बैंगलोर में इन दिनों मौसम इतना सुंदर है कि उत्तर भारत के लोगों को अक्सर रश्क़ होता है। कि ज़रा अपने शहर का मौसम भेज दो। सुबह को अच्छी प्यारी हवा चलती है। दिन को थोड़े थोड़े बादल रहते हैं। सफ़ेद फूल खिले हैं बालकनी में। दोपहर गर्म होती है, लेकिन पंखा चलाना काफ़ी होता है। कूलर की ज़रूरत नहीं पड़ती। रातें ठंडी हो जाती हैं, बारह बजे के आसपास सोने जाएँ तो पंखा चलाने के बाद पतला कम्बल ओढ़ना ज़रूरी होता है।
लेकिन मुझे गर्म मौसम बेहद पसंद है और मुझे उस मौसम की याद आती है। मेरा बचपन देवघर में और फिर कॉलेज पटना में था, आगे की पढ़ाई दिल्ली और पहली नौकरी भी वहीं। मुझे उस मौसम की आदत थी। दस साल हो गए बैंगलोर में, मैं अभी भी इस मौसम सहज नहीं होती हूँ। लगता है कुछ है जो छूट रहा है।
दिल्ली में उन दिनों कपड़े के मामले में बहुत एक्स्पेरिमेंट नहीं किए थे और अक्सर जींस और टी शर्ट ही पहना करती थी। उन दिनों गर्मी के कारण इतना पसीना आता था कि दो तीन दिन के अंदर जींस नमक के कारण धारदार हो जाती थी और घुटने के पीछे का नर्म हिस्सा छिल सा जाता था। तो हफ़्ते में लगभग तीन जींस बदलनी पड़ती थी, कि कपड़े धोने का वक़्त सिर्फ़ इतवार को मिलता था। मुझे याद है कि ऑटो में बैठते थे तो पूरी पीठ तर ब तर और जींस घुटनों के पीछे वाली जगह अक्सर गीली हो जाती थी। चेहरे पर न बिंदी ना काजल टिकता था ना कोई तरह की क्रीम लगाती थी। बहुत गरमी लगी तो जा के चेहरा धो लिया। दिन भर दहकता ही रहता था चेहरा, दोस्त कहते थे, तुम लाल टमाटर लगती हो।
उन दिनों बायीं कलाई पर सफ़ेद रूमाल बांधा करती थी कि कौन हमेशा पॉकेट से रूमाल निकाल के पसीना पोंछे और फिर वापस रखे। दायीं कलाई पर घड़ी बाँधने की आदत थी। माथे का पसीना कलाई पर बंधे रूमाल से पोंछना आसान था। लिखते हुए उँगलियों में पसीना बहुत आता था, तो वो भी बाएँ हाथ में बंधे रूमाल में पोंछ सकती थी। कभी कभी ज़्यादा गरमी लगी तो रूमाल गीला कर के गले पर रख लेने की आदत थी... या उससे ही चेहरा पोंछने की भी। जैसे चश्मा कभी नहीं खोता, उसी तरह रूमाल भी कभी नहीं खोता था कि उसकी हमेशा ज़रूरत पड़ती थी।
दस साल में रूमाल रखने की आदत छूट गयी। अब रोना आए तो आँसू पोंछने में दिक्कत और खाने के बाद हाथ धोए तो भी हाथ पोंछने की दिक्कत। याद नहीं पिछली बार क्या हुआ था, पर किसी लड़के ने अपना रूमाल निकाल कर दिया था तो अचानक से उसका इम्प्रेशन बड़ा अच्छा बन गया था। कि वाह, तुम रूमाल रखते हो। अब इतने साल में याद नहीं कि लड़का था कौन और रूमाल की ज़रूरत क्यूँ पड़ी।
जिस उम्र में पहली बार रोमैन्स के बारे में सोचा होगा, वो उम्र ठीक याद नहीं, पर मौसम साल के अधिकतर समय गर्म ही रहता था, तो पहली कल्पना भी वैसी ही कोई थी। कि स्कूल में पानी पीने का चापाकल था और ज़ाहिर तौर से, एक व्यक्ति को हैंडिल चलाना पड़ता था ताकि दूसरा पानी पी सके। कोई दिखे तो वहीं दिखे...बदमाश ने चुल्लु में पानी भर कर फेंका था मेरी ओर...कि वो नॉर्मल बदमाशी थी...पानी पीने के बाद चेहरे पर पानी मारना भी एकदम स्वाभाविक था...लेकिन उस पानी मारते हुए को देखती हुयी लड़की, पागल ही थी... कि लड़के भी ख़ूबसूरत होते हैं, उस भयानक गरमी में दहकते चेहरे पर पानी के छींटे मारते हुए लड़के को देख कर पता चला था। गीले बालों में उँगलियाँ फिरो कर पानी झटकाता हुआ लड़का उस लम्हे में फ़्रीज़ हो गया था। कलाई से रूमाल एक बार में खोला और बढ़ाया उसकी ओर...'रूमाल'... उसने रूमाल लिया...चेहरा पोंछा...मुस्कुराते हुए मुझे देखा और रूमाल फ़ोल्ड कर के अपने पॉकेट में रख लिया।
उस रोज़ ज़िंदगी में पहला रूमाल ही नहीं खोया था, दिल भी वहीं फ़ोल्ड हो कर चला गया था उसके साथ रूमाल में। हमारे बीच इतनी ही मुहब्बत रही। फिर उन दिनों कहते भी तो थे, रूमाल देने से दोस्ती टूट जाती है।
गर्मी में ये ख़्वाहिश बाक़ी रही, कि कभी मिलूँ, किसी महबूब या कि म्यूज़ से ही। कूलर का ठंडा पानी चेहरे पर मारते हुए आए वो क़रीब, कि तुम्हें न यही पागल मौसम मिला है शहर घूमने को...मैं मुस्कुराते हुए बढ़ाऊँ सुर्ख़ साड़ी का आँचल...कि जनाब चेहरा पोंछिए...वो कहे कि ज़रूरत नहीं है...हमें इस मौसम की आदत है...और हम कहें कि हमारा ईमान डोल रहा है, नालायक़, चुपचाप इंसानों जैसे दिखो... इस मौसम से ज़्यादा हॉट दिखने की ज़रूरत नहीं है।
जाने मुझे वो चाहिए, उसका शहर या कि उसके शहर का मौसम।
इस सुहाने मौसम में लगता है कुछ छूट रहा है। मैं चाहती हूँ कि गरमी में आँचल से पोंछ सकूँ अपना माथा। हवा कर सकूँ उसे ज़रा सा। पंखा झलने का मौसम। आम का मौसम। नानीघर जाने का मौसम। गर्मी छुट्टियाँ। कि मौसम सिर्फ़ मौसम थोड़े है...एक पूरी पूरी उम्र का रोज़नामचा है। इस रोजनामचे के हाशिए पर मैं लिखना चाहती हूँ...ये हमारा मौसम है। इस मौसम मिलो हमसे...जानां!
Published on May 06, 2019 11:41
April 24, 2019
मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे
इन दिनों किंडल ऐप डाउनलोड कर लिया है और उसपर एक किताब गाहे बगाहे पढ़ती रहती हूँ। उसमें एक दूसरी किताब की बात है जो कि एक उपन्यास के बारे में। इस उपन्यास का नाम है lost city radio, एक रेडीओ प्रेज़ेंटर है जो युद्ध के बाद रेडीओ स्टेशन में काम करती है और सरकार के हिसाब से ख़बरें पढ़ती है… लेकिन उसका एक कार्यक्रम है जिसमें वो खोए हुए लोगों के नाम और उसके बारे में और जानकारियाँ देती है। युद्ध के बाद खोए हुए अनेक लोग हैं। पूरे देश में उसका प्रोग्राम सबसे ज़्यादा लोग सुनते हैं…उसका चेहरा कभी मीडिया के सामने उजागर नहीं किया जाता।
मैं इस उपन्यास को कभी पढ़ूँगी। लेकिन उसके पहले इसकी दो थीम्स जो कि मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। आवाज़ें और खो जाना या तलाश लिया जाना। मैं आवाज़ों के पीछे बौरायी रहती हूँ। जितने लोगों को मैंने डेट किया, कई कई साल उनसे बात नहीं करने के बावजूद उनकी आवाज़ मैं एक हेलो में पहचान सकती हूँ… जबकि बाक़ी किसी की आवाज़ मैं फ़ोन पर कभी नहीं पहचान पाती, किसी की भी नहीं। लड़कों की आवाज़ तो मुझे ख़ास तौर से सब की एक जैसी ही लगती है। गायकों में भी सिर्फ़ सोनू निगम की आवाज़ पहचानती हूँ…वो भी आवाज़ नहीं, वो गाते हुए जो साँस लेता है वो मुझे पहचान में आ जाती है… पता नहीं कैसे। मुझे आवाज़ों का नशा होता है। मैं महीने महीने, सालों साल एक ही गाना रिपीट पर सुन सकती हूँ… सालों साल किसी एक आवाज़ के तिलिस्म में डूबी रह सकती हूँ।
बारिश की दोपहर मिट्टी की ख़ुशबू को अपने इर्द गिर्द महसूसते हुए सोचती रही, उसकी आवाज़ का एक धागा मिलता तो कलाई पर बाँध लेती…मौली… कच्चे सूत की। उसकी आवाज़ में ख़ुशबू है। गाँव की। रेत की। बारिश की। ऐतबार की। ऐसा लगता है वो मेरा कभी का छूटा कोई है। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं…जन्मपार के रिश्ते। मैं उसके साथ का कोई शहर तलाशती हूँ। एक दिन न, मैं आपको समंदर दिखाने ले चलूँगी। मुझे सब मालूम है, उसके घर के सबसे पास कौन सा समंदर है, वहाँ तक जाते कैसे हैं। एक दिन मैं अपने उड़नखटोला पर आऊँगी और कहूँगी, ऐसे ही चल लो, रास्ते में कपड़े ख़रीद देंगे आपको। बस, अभी चल लो। फिर सोचती हूँ कि ऐसे शहर क्यूँ मालूम हैं मुझे। कि रात जब गहराती है तो बातें कितने पीछे तक जाती हैं। बचपन तक, दुखों तक, ख़ुशी के सबसे चमकीले लम्हे तक। दिन में हम वैसी बातें नहीं करते जैसी रात में करते हैं। मैं समंदर की आवाज़ में उलझे हुए सुनना चाहती हूँ उन्हें…कई कई पूरी रात। चाँद भर की रोशनी रहे और क़िस्से हों। सच्चे, झूठे, सब। मुझे उन लड़कों से जलन होती है जो उनके साथ रोड ट्रिप पर जाते हैं और पुराने मंदिर, क़िले, महल, दुकानें देखते चलते हैं। जो उन्हें गुनगुनाते हुए अपना पसंद का कोई गीत सुना पाते हैं। उनसे बात करते हुए लगता है कि ज़िंदगी कितनी छोटी है और उसमें भी कितना कम वक़्त बिताया हमने साथ। मगर कितना सुंदर। कि बाक़ी लोग पूरी उम्र में भी कोई ऐसी शाम जी पाते होंगे… मैं सोचती हूँ, पूछती हूँ और ख़ुद में ही कहती हूँ, कि नहीं। कि कोई दो लोग दूसरे दो लोगों की तरह नहीं होते। न कोई शाम, शहर या धुन्ध ख़ुद को कभी दोहराती है।
कभी कभी लगता है मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे। आज एक बहुत साल पहले पढ़ा हुआ शब्द याद आ रहा है। अरबी शब्द है, ठीक पता नहीं कैसे लिखते हैं, एक लिस्ट में पढ़ा था, उन शब्दों के बारे में जो अनुवाद करने में बहुत मुश्किल हैं…यकबरनी… यानी तुम मुझे दफ़नाना…
मुझे नहीं मालूम कि मुझे ऐसी छुट्टियाँ सिर्फ़ किसी कहानी में चाहिए या ऐसे लोग सिर्फ़ किसी क़िस्से में लेकिन उनसे बात करते हुए लगता है ज़िंदगी कहानियों जैसी होती है। कि कोई शहज़ादा होता है, किसी तिलिस्म के पार से झाँकता और हम अपनी रॉयल एनफ़ील्ड उड़ाते हुए उस तिलिस्म में गुम हो जाना चाहते हैं।
मैं इस उपन्यास को कभी पढ़ूँगी। लेकिन उसके पहले इसकी दो थीम्स जो कि मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। आवाज़ें और खो जाना या तलाश लिया जाना। मैं आवाज़ों के पीछे बौरायी रहती हूँ। जितने लोगों को मैंने डेट किया, कई कई साल उनसे बात नहीं करने के बावजूद उनकी आवाज़ मैं एक हेलो में पहचान सकती हूँ… जबकि बाक़ी किसी की आवाज़ मैं फ़ोन पर कभी नहीं पहचान पाती, किसी की भी नहीं। लड़कों की आवाज़ तो मुझे ख़ास तौर से सब की एक जैसी ही लगती है। गायकों में भी सिर्फ़ सोनू निगम की आवाज़ पहचानती हूँ…वो भी आवाज़ नहीं, वो गाते हुए जो साँस लेता है वो मुझे पहचान में आ जाती है… पता नहीं कैसे। मुझे आवाज़ों का नशा होता है। मैं महीने महीने, सालों साल एक ही गाना रिपीट पर सुन सकती हूँ… सालों साल किसी एक आवाज़ के तिलिस्म में डूबी रह सकती हूँ।
बारिश की दोपहर मिट्टी की ख़ुशबू को अपने इर्द गिर्द महसूसते हुए सोचती रही, उसकी आवाज़ का एक धागा मिलता तो कलाई पर बाँध लेती…मौली… कच्चे सूत की। उसकी आवाज़ में ख़ुशबू है। गाँव की। रेत की। बारिश की। ऐतबार की। ऐसा लगता है वो मेरा कभी का छूटा कोई है। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं…जन्मपार के रिश्ते। मैं उसके साथ का कोई शहर तलाशती हूँ। एक दिन न, मैं आपको समंदर दिखाने ले चलूँगी। मुझे सब मालूम है, उसके घर के सबसे पास कौन सा समंदर है, वहाँ तक जाते कैसे हैं। एक दिन मैं अपने उड़नखटोला पर आऊँगी और कहूँगी, ऐसे ही चल लो, रास्ते में कपड़े ख़रीद देंगे आपको। बस, अभी चल लो। फिर सोचती हूँ कि ऐसे शहर क्यूँ मालूम हैं मुझे। कि रात जब गहराती है तो बातें कितने पीछे तक जाती हैं। बचपन तक, दुखों तक, ख़ुशी के सबसे चमकीले लम्हे तक। दिन में हम वैसी बातें नहीं करते जैसी रात में करते हैं। मैं समंदर की आवाज़ में उलझे हुए सुनना चाहती हूँ उन्हें…कई कई पूरी रात। चाँद भर की रोशनी रहे और क़िस्से हों। सच्चे, झूठे, सब। मुझे उन लड़कों से जलन होती है जो उनके साथ रोड ट्रिप पर जाते हैं और पुराने मंदिर, क़िले, महल, दुकानें देखते चलते हैं। जो उन्हें गुनगुनाते हुए अपना पसंद का कोई गीत सुना पाते हैं। उनसे बात करते हुए लगता है कि ज़िंदगी कितनी छोटी है और उसमें भी कितना कम वक़्त बिताया हमने साथ। मगर कितना सुंदर। कि बाक़ी लोग पूरी उम्र में भी कोई ऐसी शाम जी पाते होंगे… मैं सोचती हूँ, पूछती हूँ और ख़ुद में ही कहती हूँ, कि नहीं। कि कोई दो लोग दूसरे दो लोगों की तरह नहीं होते। न कोई शाम, शहर या धुन्ध ख़ुद को कभी दोहराती है।
कभी कभी लगता है मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे। आज एक बहुत साल पहले पढ़ा हुआ शब्द याद आ रहा है। अरबी शब्द है, ठीक पता नहीं कैसे लिखते हैं, एक लिस्ट में पढ़ा था, उन शब्दों के बारे में जो अनुवाद करने में बहुत मुश्किल हैं…यकबरनी… यानी तुम मुझे दफ़नाना…
मुझे नहीं मालूम कि मुझे ऐसी छुट्टियाँ सिर्फ़ किसी कहानी में चाहिए या ऐसे लोग सिर्फ़ किसी क़िस्से में लेकिन उनसे बात करते हुए लगता है ज़िंदगी कहानियों जैसी होती है। कि कोई शहज़ादा होता है, किसी तिलिस्म के पार से झाँकता और हम अपनी रॉयल एनफ़ील्ड उड़ाते हुए उस तिलिस्म में गुम हो जाना चाहते हैं।
Published on April 24, 2019 12:22
hmmm
उससे बात करते हुए अक्सर माँ की याद आती है। माँ के जाने के साथ मेरे जैसी एकदम ज़िद्दी लड़की की सारी ज़िद एकदम हाई ख़त्म हो गयी। मैं इतनी समझदार हो गयी कि कभी किसी चीज़ के लिए किसी को दुबारा कहा भी नहीं। उसके जाने के हाई बाद मैं बहुत fiercely इंडिपेंडेंट भी हो गयी, किसी से ज़रा सी भी मदद माँगने में मेरी मौत आती है। मुझे कमज़ोर हो जाने से डर लगता है। मैं किसी से एक ग्लास पानी भी माँग नहीं सकती। पिछले साल पैर टूटने के बाद मैंने थोड़ा सा ख़ुद को बदला, कि अगर ख़ुद से नहीं कर सकते तो ज़रा सा किसी से पूछ सकते हैं…कमज़ोर होना इतना डरावना भी नहीं।
बहुत साल पहले उसने एक दिन कहा था, ‘मैं तुम्हारा मायका हूँ, तुम अपने को इतना अकेला मत समझा करो। मैं काफ़ी हूँ तुम्हारे लिए’। मैं कैसी कैसी चीज़ें पूछती थी उससे। धनिया पत्ता की चटनी में डंडी डालेंगे या सिर्फ़ पत्ते। उस वक़्त जब कि मेरी पूरी दुनिया में कोई भी नहीं था, वो मेरी दुनिया में आख़िरी था जो मेरे साथ खड़ा था…last man standing. उसके लिए ये इतनी ही छोटी सी बात थी, जितनी मेरे लिए बड़ी बात थी। वो सिर्फ़ मेरे प्रति थोड़ा सा काइंड था लेकिन उसकी इस ज़रा सी काइंडनेस ने मेरी दुनिया सम्हाल रखी थी। आप कभी कभी नहीं जानते इक आपके होने से किसी की ज़मीन होती है पैर के नीचे। मैं उसे कभी भी ठीक समझा नहीं सकती कि वो क्या था, है।
अंग्रेज़ी में एक शब्द होता है, pamper … हिंदी में जिसे लाड़ कहते हैं। या थोड़ा और बोलचाल की भाषा में, माथा चढ़ाना। मैं कई सालों से इस शब्द के दूसरे छोर पर हूँ। जिनसे भी मैंने कभी प्यार किया है, वे जानते हैं कि मेरे लिए सब कुछ उनके लिए होता है। शॉपिंग करने गयी तो अपने से ज़्यादा उनके लिए सामान ख़रीद लाऊँगी। चिट्ठियाँ, रूमाल, किताबें, अच्छे काग़ज़ वाली नोट्बुक, झुमके, बिंदी, फूल … सब कुछ होता है मेरे इस लाड़-प्यार-दुलार में। घर में जो छोटे हैं उन्हें इसी तरह मानती हूँ बहुत। उनकी पसंद की चीज़ मालूम होती है। उनके पसंद के रंग, उनके पसंद के फूल। मगर इस शब्द के दूसरी ओर नहीं रही मैं कितने साल से। कि ज़िद करके कह दूँ, मैं नहीं जानती कुछ, बस, चाहिए तो चाहिए।
वो मुझे मानता है। पैम्पर करता है। इक छोटी सी चीज़ थी, कि शाम मेरे हिसाब से चल लो, घूम लो… और उसने हँस के कह दिया, लो, शाम तुम्हारे नाम… जो भी कहोगी, आज सब तुम्हारी मर्ज़ी का। आइसक्रीम खाओगी, ठीक है… यहाँ से फ़ोटो खींच दूँ, ठीक है…. ऊपर सीढ़ियों पर जाना है, ठीक है… बैठेंगे थोड़ी देर… ठीक है। कभी कभी जैसे ज़िंदगी भी कहती है, लो आज तुम्हारी सारी माँगें मंज़ूर। कि मैं वैसे भी बहुत छोटी छोटी चीज़ों में ख़ुश हो जाती हूँ। वो बिगाड़ रहा है मुझे। मैं कहती हूँ, सर चढ़ा रहे हो, भुगतोगे। वो हँसता है कि तुम क्या ही माँग लोगी।
मैं एक दिन उसके गले लग के ख़ूब ख़ूब रोना चाहती हूँ कि मम्मी की बहुत याद आती है। कब आएगा वो टाइम, कि जिसके बारे में लोग कहते थे कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। इतनी severe ऐंज़ाइयटी होती है। सुबह, शाम, रात। तुम ज़रा सा रहो। इन दिनों। कि जब थोड़ा चैन आ जाएगा, तब जाना।
उसे फ़ोन करती हूँ तो न हाय, हेलो, ना मेरा नाम… बस, हम्म… और मैं हँस देती हूँ… कि पहले फ़ोन करती थी तो बस इतना ही था, ‘बोलो’… मैं कहती थी तुम न मुझे रेडियो की तरह ट्रीट करते हो, कि बटन ऑन करोगे और सब ख़बरें मिल जाएँगी। उसका होना अच्छा है। उसका होना मुझे बचाए रखता है।
बहुत साल पहले उसने एक दिन कहा था, ‘मैं तुम्हारा मायका हूँ, तुम अपने को इतना अकेला मत समझा करो। मैं काफ़ी हूँ तुम्हारे लिए’। मैं कैसी कैसी चीज़ें पूछती थी उससे। धनिया पत्ता की चटनी में डंडी डालेंगे या सिर्फ़ पत्ते। उस वक़्त जब कि मेरी पूरी दुनिया में कोई भी नहीं था, वो मेरी दुनिया में आख़िरी था जो मेरे साथ खड़ा था…last man standing. उसके लिए ये इतनी ही छोटी सी बात थी, जितनी मेरे लिए बड़ी बात थी। वो सिर्फ़ मेरे प्रति थोड़ा सा काइंड था लेकिन उसकी इस ज़रा सी काइंडनेस ने मेरी दुनिया सम्हाल रखी थी। आप कभी कभी नहीं जानते इक आपके होने से किसी की ज़मीन होती है पैर के नीचे। मैं उसे कभी भी ठीक समझा नहीं सकती कि वो क्या था, है।
अंग्रेज़ी में एक शब्द होता है, pamper … हिंदी में जिसे लाड़ कहते हैं। या थोड़ा और बोलचाल की भाषा में, माथा चढ़ाना। मैं कई सालों से इस शब्द के दूसरे छोर पर हूँ। जिनसे भी मैंने कभी प्यार किया है, वे जानते हैं कि मेरे लिए सब कुछ उनके लिए होता है। शॉपिंग करने गयी तो अपने से ज़्यादा उनके लिए सामान ख़रीद लाऊँगी। चिट्ठियाँ, रूमाल, किताबें, अच्छे काग़ज़ वाली नोट्बुक, झुमके, बिंदी, फूल … सब कुछ होता है मेरे इस लाड़-प्यार-दुलार में। घर में जो छोटे हैं उन्हें इसी तरह मानती हूँ बहुत। उनकी पसंद की चीज़ मालूम होती है। उनके पसंद के रंग, उनके पसंद के फूल। मगर इस शब्द के दूसरी ओर नहीं रही मैं कितने साल से। कि ज़िद करके कह दूँ, मैं नहीं जानती कुछ, बस, चाहिए तो चाहिए।
वो मुझे मानता है। पैम्पर करता है। इक छोटी सी चीज़ थी, कि शाम मेरे हिसाब से चल लो, घूम लो… और उसने हँस के कह दिया, लो, शाम तुम्हारे नाम… जो भी कहोगी, आज सब तुम्हारी मर्ज़ी का। आइसक्रीम खाओगी, ठीक है… यहाँ से फ़ोटो खींच दूँ, ठीक है…. ऊपर सीढ़ियों पर जाना है, ठीक है… बैठेंगे थोड़ी देर… ठीक है। कभी कभी जैसे ज़िंदगी भी कहती है, लो आज तुम्हारी सारी माँगें मंज़ूर। कि मैं वैसे भी बहुत छोटी छोटी चीज़ों में ख़ुश हो जाती हूँ। वो बिगाड़ रहा है मुझे। मैं कहती हूँ, सर चढ़ा रहे हो, भुगतोगे। वो हँसता है कि तुम क्या ही माँग लोगी।
मैं एक दिन उसके गले लग के ख़ूब ख़ूब रोना चाहती हूँ कि मम्मी की बहुत याद आती है। कब आएगा वो टाइम, कि जिसके बारे में लोग कहते थे कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। इतनी severe ऐंज़ाइयटी होती है। सुबह, शाम, रात। तुम ज़रा सा रहो। इन दिनों। कि जब थोड़ा चैन आ जाएगा, तब जाना।
उसे फ़ोन करती हूँ तो न हाय, हेलो, ना मेरा नाम… बस, हम्म… और मैं हँस देती हूँ… कि पहले फ़ोन करती थी तो बस इतना ही था, ‘बोलो’… मैं कहती थी तुम न मुझे रेडियो की तरह ट्रीट करते हो, कि बटन ऑन करोगे और सब ख़बरें मिल जाएँगी। उसका होना अच्छा है। उसका होना मुझे बचाए रखता है।
Published on April 24, 2019 12:17
April 16, 2019
मैं precious, और तुम, बेशक़ीमत
उसे क़रीब से जानना थोड़ा unsettling है। अस्थिर। जैसे अपनी धुरी पर घूमते घूमते अचानक से थोड़ा डिस्को करने का मन करने लगे। जैसे बाइक उठा के घर से बाहर निकलें तो सब्ज़ी ख़रीदने के लिए और उड़ते उड़ते चले जाएँ एयरपोर्ट और दो चार घंटे वहाँ कॉफ़ी पीते और सोचते रहें कि उसके शहर चले जाएँ टिकट कटा के या कि किसी शहर जाएँ और उसको वहाँ बुला लें। इस सारे सोचने और क़िस्सों का शहर रचते हुए काग़ज़ पर लिखते जाएँ ख़त, उसको ही। कि जैसे मेरे लिखने से हम ज़रा से याद रहेंगे उसको, हमेशा के लिए। कि जैसे कई टकीला शॉट्स के बाद भी होश में रहें और वो हँस के कहे कि पानी नीट मत पीना, थोड़ी सी विस्की मिला लेना तो उस आवाज़ के ख़ुमार में बौरा जाएँ। कि उसकी हँसी सम्हाल के रखें। कि इसी हँसी की छनक होगी न जब उसके इश्क़ में दिल टूटेगा।
हम बहुत हद तक एक जैसे हैं। जैसे आज शाम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि मौसम इतना अच्छा था कि दोपहर में छत पर कुर्सी निकाल कर बैठा और रेलिंग पर पैर टिका दिए और किताब ख़त्म की। इस तरह जगह की डिटेलिंग सिर्फ़ मैं करती हूँ। कि यहाँ घूम रही हूँ, ये कर रही हूँ, सामने फ़लाना पेड़ है, हवा चल रही है, विंड चाइम पगला रही है। इट्सेटरा इट्सेटरा। फिर ये भी लगता है कि सुनने वाले को ये डिटेल्ज़ बोरिंग तो नहीं लगते। कि मैं क्या ही कह रही हूँ फ़ालतू बातें। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर खिड़की के सामने नारियल का पेड़ है या आम का या डेकोरेटिव पाम का… लेकिन मुझे फ़र्क़ पड़ता है तो मैं कहती हूँ ऐसे। लेकिन पहली बार कोई ऐसा था, जिसने इतनी छोटी सी डिटेलिंग की ताकि मैं देख सकूँ ठीक उस रंग में जैसी उसकी दोपहर थी। बात सिर्फ़ इतनी भी होती तो ठीक था…बात ख़ास इसलिए है कि मैंने पूछा नहीं था। उसने ख़ुद से बताया। वो शहर में होता तो उड़ते उड़ते जाती बाइक पर, सिर्फ़ उसे ज़ोर से hug करने के लिए।
वो पूछता है, तुम्हें मैं समझ में आता हूँ। मैं सोचती हूँ, क्या कहूँ। थीसीस की है तुमपर। तुम्हारे हर शब्द को लिख के रखा है। तुम्हारी आँखों का रंग हर क़िस्से में झलकता है। तुम्हारे कहे बिना बात समझती हूँ। तुम्हारे आधे सेंटेन्सेज़ सही सही पूरे करती हूँ और तुम नाराज़ नहीं होते हो। तुम्हारी याद में अटकी फ़िल्मों के नाम मुझे सूझते हैं। लेकिन, यूँ तो कोई किसी को ताउम्र साथ रह के भी नहीं जान सकता और किसी को जानने के लिए एक मुलाक़ात ही काफ़ी होती है। एक बात बताऊँ वैसे, मुझे कभी नहीं मालूम था कि तुमने कॉलेज में कितनी लड़ाई वग़ैरह की थी...लेकिन तुम्हारे साथ चलते हुए एक एकदम ही स्ट्रेंज सी निश्चिन्तता होती थी। जैसे कि कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। ये सिर्फ़ एक दिन की छोटी सी बात से आयी थी। वो दिल्ली का अजीब सा मुहल्ला था...लड़के जैसे लड़कियाँ घूरने के लिए ही पैदा हुए थे। बहुत अजीब जगह, जहाँ डर लगे। तुमने बिना कुछ कहे, मेरा हाथ पकड़ा और साथ में चलने लगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में आश्वस्ति थी। कुछ चीज़ें जो हम शब्दों के बग़ैर कहते हैं। स्पर्श की भाषा में। उस दिन पता चला मुझे। तुम्हारे साथ डर नहीं लगेगा, कभी भी।
मुझे उसकी हँसी अच्छी लगती है। और उसकी आँखें। और उसकी बातें। और उसका शब्दों का एकदम ठीक ठीक इस्तेमाल करना। कि ग़लती से भी, कभी भी एक शब्द ग़लत नहीं बोल सकता। इम्पॉसिबल। कि इसपर शर्त लगायी जा सकती है। हार जाने वाली शर्त। पर उससे हारना अच्छा लगता है। उसके कम शब्दों में कुछ शब्द जो मेरे नाम के इर्द गिर्द गमकते हैं। precious. कितना साधारण सा शब्द है। लेकिन वो कहता है तो ख़ास लगता है। कि भले ही वो मेरे लिए बेशक़ीमत हो। मैं उसके लिए सिर्फ़ क़ीमती हूँ, तो भी चलेगा। कि वो आप कहता है, मुझे नहीं मालूम, ग़ुस्से में कि दुलार में। पर कहता है तो अच्छा लगता है। कि मुझे आप सिर्फ़ पापा कहते हैं।
अजीब सी किताब है। Norwegian Wood। लेकिन जब वो कहता है कि वो मुझे कभी नहीं भूलेगा। उसका उसकी पसंद की भाषा में कहना। I will always remember you. बहुत प्यारा महसूस होता है। जैसे किसी एक साल मैथ के इग्ज़ैम में सच में 99 मार्क्स आ गए हों। कि ग़लती से सारे सवाल सही बन गए थे।
द लेकहाउस याद आ रही है। जिसमें वो लड़की के लिए शहर के नक़्शे में एक रूट चार्ट करता है कि यहाँ जाओ, ये देखो… और लड़की उस रास्ते पर चलती है, सोचती हुयी… कि काश हम सच में साथ होते… फिर सामने वो बड़ी सी दीवार आती है, जिसपर कमोबेश दो साल पुरानी ग्रफ़ीटी बनी हुयी है। कि केट, मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस ख़ूबसूरत शनिवार की शाम का शुक्रिया। कैमरा ‘together’ शब्द पर जा के ठहरता है। प्यार में कैसी कैसी चीज़ें लोगों को क़रीब ले आती हैं। कि दूरी सिर्फ़ मन में होती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा हो सकता है कि उसके शहर में बारिश हो और यहाँ की हवा में खुनक आए।
फिर द ब्लूबेरी नाइट्स का वो सीन, जब कि लड़की पूरी दुनिया में भटकती हुयी भी उस कोने की छोटी वाली दुकान के लड़के को पोस्टकार्ड भेजती है। कहती है उससे, पता नहीं तुम मुझे कैसे याद करोगे। उस लड़की की तरह जिसे ब्लूबेरी पाई पसंद थी, या उस लड़की की तरह, जिसका दिल टूटा हुआ था।
मैं सोचती हूँ कि मुझे क्या याद रहेगा। इमारत से पीठ टिकाए बैठना। आसमान को देखते हुए हँसना। दिल्ली मेट्रो के स्टेशन पर विदा कहते हुए फ़्लाइइंग किस देना। क्या क्या। कि कहानी और सच के बीच अंतर करना सीखना ज़रूरी है वरना मैं भी किसी पागलपन की कगार पर तो हूँ ही। कब से एक कहानी के बाहर भीतर कर रही हूँ। किरदार मेरे साथ साथ शहर घूमते हैं और मैं जाने क्या कुछ महसूसती हूँ। कि कोई एक शहर हो जिसमें मेरी पसंद की सारी जगहें हों। वो कॉफ़ीशॉप्स जहाँ मेरे पसंद की कॉफ़ी मिलती है। वो पोस्ट बॉक्स जहाँ से तुम्हें पोस्टकार्ड गिराया था। पतझर का सुनहले पत्तों वाला मौसम। डाकटिकटों में रचे-बसे शहर जहाँ में जाना चाहती हूँ एक शाम कभी।
मुझे लिखने से डर लगने लगा है। लिखे हुए लोग ज़िंदगी में मिल जाते हैं। जब तीन रोज़ इश्क़ लिखा था तो उसमें लड़की एक घंटे में एक पैग विस्की पीती है...विस्की के पैग से समय नापा जा सकता है। मैंने तब तक ऐसे किसी इंसान को नहीं जाना था जो ड्रिंक्स के हिसाब से घंटे माप सके। और फिर मैं तुमसे मिली। उस दिन पता है, मन किया तुम्हें वो पूरी कहानी पढ़ के सुनाऊँ... कि देखो, अनजाने में ऐसा लिखा है।
तुम हो मेरे इंतज़ार में? या कि सिर्फ़ मैंने लिखे हैं इतने सारे शहर कि जिनका कोई सही डाक पता नहीं। तुम मुझे चिट्ठियाँ लिखने से मना करो। मेरी चिट्ठियों से सबको ही प्यार हो जाता है। without exception। मेरी चिट्ठियाँ उतनी ही पर्फ़ेक्ट हैं, जितनी मैं flawed। फिर चिट्ठियों से प्यार करोगे और लड़की से नफ़रत। क्या करेंगे फिर हम।
मैं पूछती हूँ उससे। तुम जानते हो न, मैं क्यूँ चाहती हूँ कि किसी को याद रहूँ। कि मुझे मालूम है किसी दिन आसान होगा मेरे लिए कलाइयाँ काट कर मर जाना। उसकी आवाज़ में फ़िक्र है। कि ऐसी बातें मत करो। मुझे नहीं चाहिए प्यार मुहब्बत। मुझे बस, थोड़ी सी फ़िक्र चाहिए उसकी…बस। मैं उसकी आँखें याद करूँगी और दुनिया के सबसे फ़ेवरिट सूयसायड पोईंट से कूदना मुल्तवी कर दूँगी। हाँ इसे प्यार नहीं कहते। लेकिन इतना काफ़ी है, कि इसे ज़िंदगी कहते हैं। और तुम्हारे होने से ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और मेरी हँसी में जादू। इससे ज़्यादा मुझे नहीं चाहिए।
हम बहुत हद तक एक जैसे हैं। जैसे आज शाम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि मौसम इतना अच्छा था कि दोपहर में छत पर कुर्सी निकाल कर बैठा और रेलिंग पर पैर टिका दिए और किताब ख़त्म की। इस तरह जगह की डिटेलिंग सिर्फ़ मैं करती हूँ। कि यहाँ घूम रही हूँ, ये कर रही हूँ, सामने फ़लाना पेड़ है, हवा चल रही है, विंड चाइम पगला रही है। इट्सेटरा इट्सेटरा। फिर ये भी लगता है कि सुनने वाले को ये डिटेल्ज़ बोरिंग तो नहीं लगते। कि मैं क्या ही कह रही हूँ फ़ालतू बातें। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर खिड़की के सामने नारियल का पेड़ है या आम का या डेकोरेटिव पाम का… लेकिन मुझे फ़र्क़ पड़ता है तो मैं कहती हूँ ऐसे। लेकिन पहली बार कोई ऐसा था, जिसने इतनी छोटी सी डिटेलिंग की ताकि मैं देख सकूँ ठीक उस रंग में जैसी उसकी दोपहर थी। बात सिर्फ़ इतनी भी होती तो ठीक था…बात ख़ास इसलिए है कि मैंने पूछा नहीं था। उसने ख़ुद से बताया। वो शहर में होता तो उड़ते उड़ते जाती बाइक पर, सिर्फ़ उसे ज़ोर से hug करने के लिए।
वो पूछता है, तुम्हें मैं समझ में आता हूँ। मैं सोचती हूँ, क्या कहूँ। थीसीस की है तुमपर। तुम्हारे हर शब्द को लिख के रखा है। तुम्हारी आँखों का रंग हर क़िस्से में झलकता है। तुम्हारे कहे बिना बात समझती हूँ। तुम्हारे आधे सेंटेन्सेज़ सही सही पूरे करती हूँ और तुम नाराज़ नहीं होते हो। तुम्हारी याद में अटकी फ़िल्मों के नाम मुझे सूझते हैं। लेकिन, यूँ तो कोई किसी को ताउम्र साथ रह के भी नहीं जान सकता और किसी को जानने के लिए एक मुलाक़ात ही काफ़ी होती है। एक बात बताऊँ वैसे, मुझे कभी नहीं मालूम था कि तुमने कॉलेज में कितनी लड़ाई वग़ैरह की थी...लेकिन तुम्हारे साथ चलते हुए एक एकदम ही स्ट्रेंज सी निश्चिन्तता होती थी। जैसे कि कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। ये सिर्फ़ एक दिन की छोटी सी बात से आयी थी। वो दिल्ली का अजीब सा मुहल्ला था...लड़के जैसे लड़कियाँ घूरने के लिए ही पैदा हुए थे। बहुत अजीब जगह, जहाँ डर लगे। तुमने बिना कुछ कहे, मेरा हाथ पकड़ा और साथ में चलने लगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में आश्वस्ति थी। कुछ चीज़ें जो हम शब्दों के बग़ैर कहते हैं। स्पर्श की भाषा में। उस दिन पता चला मुझे। तुम्हारे साथ डर नहीं लगेगा, कभी भी।
मुझे उसकी हँसी अच्छी लगती है। और उसकी आँखें। और उसकी बातें। और उसका शब्दों का एकदम ठीक ठीक इस्तेमाल करना। कि ग़लती से भी, कभी भी एक शब्द ग़लत नहीं बोल सकता। इम्पॉसिबल। कि इसपर शर्त लगायी जा सकती है। हार जाने वाली शर्त। पर उससे हारना अच्छा लगता है। उसके कम शब्दों में कुछ शब्द जो मेरे नाम के इर्द गिर्द गमकते हैं। precious. कितना साधारण सा शब्द है। लेकिन वो कहता है तो ख़ास लगता है। कि भले ही वो मेरे लिए बेशक़ीमत हो। मैं उसके लिए सिर्फ़ क़ीमती हूँ, तो भी चलेगा। कि वो आप कहता है, मुझे नहीं मालूम, ग़ुस्से में कि दुलार में। पर कहता है तो अच्छा लगता है। कि मुझे आप सिर्फ़ पापा कहते हैं।
अजीब सी किताब है। Norwegian Wood। लेकिन जब वो कहता है कि वो मुझे कभी नहीं भूलेगा। उसका उसकी पसंद की भाषा में कहना। I will always remember you. बहुत प्यारा महसूस होता है। जैसे किसी एक साल मैथ के इग्ज़ैम में सच में 99 मार्क्स आ गए हों। कि ग़लती से सारे सवाल सही बन गए थे।
द लेकहाउस याद आ रही है। जिसमें वो लड़की के लिए शहर के नक़्शे में एक रूट चार्ट करता है कि यहाँ जाओ, ये देखो… और लड़की उस रास्ते पर चलती है, सोचती हुयी… कि काश हम सच में साथ होते… फिर सामने वो बड़ी सी दीवार आती है, जिसपर कमोबेश दो साल पुरानी ग्रफ़ीटी बनी हुयी है। कि केट, मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस ख़ूबसूरत शनिवार की शाम का शुक्रिया। कैमरा ‘together’ शब्द पर जा के ठहरता है। प्यार में कैसी कैसी चीज़ें लोगों को क़रीब ले आती हैं। कि दूरी सिर्फ़ मन में होती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा हो सकता है कि उसके शहर में बारिश हो और यहाँ की हवा में खुनक आए।
फिर द ब्लूबेरी नाइट्स का वो सीन, जब कि लड़की पूरी दुनिया में भटकती हुयी भी उस कोने की छोटी वाली दुकान के लड़के को पोस्टकार्ड भेजती है। कहती है उससे, पता नहीं तुम मुझे कैसे याद करोगे। उस लड़की की तरह जिसे ब्लूबेरी पाई पसंद थी, या उस लड़की की तरह, जिसका दिल टूटा हुआ था।
मैं सोचती हूँ कि मुझे क्या याद रहेगा। इमारत से पीठ टिकाए बैठना। आसमान को देखते हुए हँसना। दिल्ली मेट्रो के स्टेशन पर विदा कहते हुए फ़्लाइइंग किस देना। क्या क्या। कि कहानी और सच के बीच अंतर करना सीखना ज़रूरी है वरना मैं भी किसी पागलपन की कगार पर तो हूँ ही। कब से एक कहानी के बाहर भीतर कर रही हूँ। किरदार मेरे साथ साथ शहर घूमते हैं और मैं जाने क्या कुछ महसूसती हूँ। कि कोई एक शहर हो जिसमें मेरी पसंद की सारी जगहें हों। वो कॉफ़ीशॉप्स जहाँ मेरे पसंद की कॉफ़ी मिलती है। वो पोस्ट बॉक्स जहाँ से तुम्हें पोस्टकार्ड गिराया था। पतझर का सुनहले पत्तों वाला मौसम। डाकटिकटों में रचे-बसे शहर जहाँ में जाना चाहती हूँ एक शाम कभी।
मुझे लिखने से डर लगने लगा है। लिखे हुए लोग ज़िंदगी में मिल जाते हैं। जब तीन रोज़ इश्क़ लिखा था तो उसमें लड़की एक घंटे में एक पैग विस्की पीती है...विस्की के पैग से समय नापा जा सकता है। मैंने तब तक ऐसे किसी इंसान को नहीं जाना था जो ड्रिंक्स के हिसाब से घंटे माप सके। और फिर मैं तुमसे मिली। उस दिन पता है, मन किया तुम्हें वो पूरी कहानी पढ़ के सुनाऊँ... कि देखो, अनजाने में ऐसा लिखा है।
तुम हो मेरे इंतज़ार में? या कि सिर्फ़ मैंने लिखे हैं इतने सारे शहर कि जिनका कोई सही डाक पता नहीं। तुम मुझे चिट्ठियाँ लिखने से मना करो। मेरी चिट्ठियों से सबको ही प्यार हो जाता है। without exception। मेरी चिट्ठियाँ उतनी ही पर्फ़ेक्ट हैं, जितनी मैं flawed। फिर चिट्ठियों से प्यार करोगे और लड़की से नफ़रत। क्या करेंगे फिर हम।
मैं पूछती हूँ उससे। तुम जानते हो न, मैं क्यूँ चाहती हूँ कि किसी को याद रहूँ। कि मुझे मालूम है किसी दिन आसान होगा मेरे लिए कलाइयाँ काट कर मर जाना। उसकी आवाज़ में फ़िक्र है। कि ऐसी बातें मत करो। मुझे नहीं चाहिए प्यार मुहब्बत। मुझे बस, थोड़ी सी फ़िक्र चाहिए उसकी…बस। मैं उसकी आँखें याद करूँगी और दुनिया के सबसे फ़ेवरिट सूयसायड पोईंट से कूदना मुल्तवी कर दूँगी। हाँ इसे प्यार नहीं कहते। लेकिन इतना काफ़ी है, कि इसे ज़िंदगी कहते हैं। और तुम्हारे होने से ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और मेरी हँसी में जादू। इससे ज़्यादा मुझे नहीं चाहिए।
Published on April 16, 2019 12:27
April 12, 2019
ओल्ड स्कूल
‘तुम न, अब एक घर ले लो।’
‘अच्छा, और बसा तुम दोगी?’
‘बसाना? पागल हो गए हो क्या। दिल तोड़ना, घर तोड़ना, हाथ पैर तोड़ना… ये सब काम हम अच्छा से करते हैं, ये बसाना वसाना हमसे न हो पाएगा’
‘तो फिर मेरे घर में करना क्या है तुमको? अपने अफ़ेयर करोगी मेरे यहाँ तुम?’
‘उफ़, नहीं यार। ख़ाली प्यार मुहब्बत थोड़े न है दुनिया में। तुमसे कौन सा प्यार है हमको, लेकिन इतने साल से हो न मेरी ज़िंदगी में। तुमको चिट्ठी लिखने का मन करता है। कोई पता ही नहीं है तो मैं कहाँ भेजूँ तुम्हारे नाम की चिट्ठी। फिर, मैं चाहती हूँ, कभी ऐसा भी हो कि मैं चाहूँ तुम तक जाना और जा सकूँ। ऐसे बंजारो की ज़िंदगी जीते हो, मैं तुम्हारे इंतज़ार में थक गयी हूँ। ये तो बेइमानी है ना कि तुम जब चाहो, मुझ तक चले आओ। तुम्हें सब पता है, मेरा घर, दफ़्तर, मेरे दोस्तों का घर, मेरी पसंद की कॉफ़ी शॉप्स… सब कुछ। पूरा नक़्शा है तुम्हारे पास। रात दस बज रहे हैं, वीकडे है, घर पर नहीं हूँ तो कॉफ़ी पी रही होऊँगी। फ़्राइडे नाइट है तो कहाँ होऊँगी।’
‘हाँ तो, तुम इतनी प्रिडिक्टबल और आसान हो…थोड़ा मुश्किल होती तो मैं तलाशता फिरता तुमको जगह जगह।’
‘तुम कहना चाहते हो मैं बोरिंग हूँ?’
‘अरे, लड़की, ख़ुद ही सब बोल दो…मैंने कब कहा कि बोरिंग हो… मैंने कहा कि प्रेडिक्टबल हो। क्या बुरा है इसमें? एक तरह की निश्चिंत्ता होती है। कि जैसे लीवायज़ की ५०१ जींस, ३० नम्बर वाली एकदम फ़िट आएगी, जैसे नुक्कड़ की टपरी वाली आंटी मेरी पसंद की निम्बू की चाय बनाएगी, जैसे कि ब्लैक शर्ट हमेशा खिलेगी, कि बारिश में भीगने का हमेशा मन करेगा। हमेशा वाली चीज़ें अच्छी होती हैं’।
‘तो एक घर ख़रीद लो फिर, रेंट पर भी मत लो’।
‘तुम तो आज नहा धो के पीछे पड़ गयी हो। क्या करना है तुमको मेरे घर से?’
‘कह तो रहे हैं, चिट्ठी लिखेंगे’
‘सुन रही हो अपनी बात…तुम्हारे चिट्ठी लिखने भर के लिए घर क्यूँ लें…पोस्ट ऑफ़िस में पोस्ट बॉक्स आता है, वो ले लेते हैं… या तुम ईमेल भी तो कर सकती हो। या whatsapp. कौन लिखता है आज के ज़माने में चिट्ठी’।
‘तुम जानते हो ना, हम थोड़े ओल्ड स्कूल हैं।’
‘थोड़े? बाबू, तुम प्रागैतिहासिक हो। म्यूज़ीयम में रखेंगे तुमको। वो भी नैचुरल हिस्ट्री म्यूज़ीयम में’
‘तुम टिकट का पैसा दे कर मिलने आओगे हमसे?’
‘हाँ। फिर तुम्हारे ऊपर किताब भी लिखेंगे। कि अच्छी ख़ासी लड़की थी। चिट्ठी चिट्ठी करते करते ख़ुद ही कहानी हो गयी’।
‘तो फिर, घर नहीं लोगे तुम?’
‘ग़ज़ब ज़िद्दी हो। टेपरिकॉर्डर अटक गया है वहीं का वहीं तुम्हारा…नहीं लूँगा घर। मुझे ज़रूरत नहीं लगती घर लेने की। इतना ट्रैवल होता है। आज यहाँ, कल वहाँ… किस शहर में घर लूँ, बताओ। आधे साल तो अमरीका में रहता हूँ, बचा थोड़ा बहुत यूरोप… ऐसे कहाँ रखें घर हम। थोड़ा प्रैक्टिकल कारण भी तो है’
‘तुम दिल्ली में घर ले लो’
‘अच्छा, दुनिया के इतने अच्छे अच्छे शहर छोड़ कर दिल्ली में। क्यूँ भला? भयानक प्रदूषण और उससे भी ज़्यादा प्रदूषित दिमाग़ के लोगों के सिवा है क्या इस शहर में।’
‘ऐ, मेर सामने दिल्ली को गरियाओ मत। मैं जो हूँ दिल्ली में, सो? मेरा कोई मोल नहीं!’
‘मोल तो इतना है कि बेमोल हो तुम। प्रेशियस। बेशक़ीमत।’
‘तो मेरी बात मान लो’
‘तुझे घर ले दूँ? ऐसा करता हूँ, तेरे नाम से पेपर्स बनवा देता हूँ। अब ठीक है?’
‘कुछ भी। ऐसे कैसे मेरे लिए घर ख़रीद दोगे। पता है पच्चीस साल तो ईएमआई चलती है होम लोन की’
‘तो तुझे लगता है कि तू अगले पच्चीस साल में मेरे साथ नहीं रहेगी?’
‘उफ़। ये थोड़े कह रहे हैं हम। तुम अनर्गल आर्ग्युमेंट मत करो’
‘मुझे घर नहीं ख़रीदना’
‘एक कारण बता दो’
‘कारण ये कि बुद्धू। मेरा घर तुम हो। तुम्हारे होते मेरे पास लौटने को हमेशा कुछ होता है। मैं दुनिया के हर शहर घूमता हुआ तुम्हारे लिए होता जाता हूँ। ये जो झुमके, मिनीयचर पेंटिंग और साउंड बॉक्स ला के दिए हैं तुम्हें… इसलिए कि इनके इर्द गिर्द ख़ुश रहती हो तुम। मेरे न होने पर भी भरी भरी सी। जब तुम्हारे बाथरूम में अपना टूथब्रश देखता हूँ तो लगता नहीं है कि कहीं और जाने की ज़रूरत है। मैं तुम्हारे इर्द गिर्द बंजारा नहीं रहता। बसा हुआ होता हूँ। तुम्हारे ख़ालीपन में। तुम्हारे इंतज़ार में। जब भी लौटता हूँ ऐसी कोई शाम होती है, दिल्ली की कोई पुरानी इमारत होती है और इतनी ज़्यादा ख़ुश होती हो तुम कि मैं किसी सफ़र में अकेला नहीं होता। तुम्हारी चिट्ठियों का पता मेरा दिल है। तुम लिख लिया करो। मैं पढ़ लिया करूँगा वापस आ के। मोमिन इसलिए न कहते हैं, हाल ए दिल यार को लिखूँ क्यूँ कर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।
‘ये कौन सी किताब से पढ़ कर आए हो?’
‘पढ़ कर नहीं आया हूँ। लिखूँगा अब। एक अच्छी सी किताब, जिसमें हम दोनों ऐसे ही शाम शाम शाम बकझक करते रहेंगे। जिसमें जीने के लिए हमें अपनी अपनी ज़िंदगी से कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा। जिसमें मेरा और तुम्हारा पता एक ही होगा। भले ही मैं वहाँ रहूँ, न रहूँ’
‘उफ़’
‘क्या हुआ?’
‘किराया लगेगा’
‘पागल लड़की’
‘तुमसे कम ही’
‘अच्छा, और बसा तुम दोगी?’
‘बसाना? पागल हो गए हो क्या। दिल तोड़ना, घर तोड़ना, हाथ पैर तोड़ना… ये सब काम हम अच्छा से करते हैं, ये बसाना वसाना हमसे न हो पाएगा’
‘तो फिर मेरे घर में करना क्या है तुमको? अपने अफ़ेयर करोगी मेरे यहाँ तुम?’
‘उफ़, नहीं यार। ख़ाली प्यार मुहब्बत थोड़े न है दुनिया में। तुमसे कौन सा प्यार है हमको, लेकिन इतने साल से हो न मेरी ज़िंदगी में। तुमको चिट्ठी लिखने का मन करता है। कोई पता ही नहीं है तो मैं कहाँ भेजूँ तुम्हारे नाम की चिट्ठी। फिर, मैं चाहती हूँ, कभी ऐसा भी हो कि मैं चाहूँ तुम तक जाना और जा सकूँ। ऐसे बंजारो की ज़िंदगी जीते हो, मैं तुम्हारे इंतज़ार में थक गयी हूँ। ये तो बेइमानी है ना कि तुम जब चाहो, मुझ तक चले आओ। तुम्हें सब पता है, मेरा घर, दफ़्तर, मेरे दोस्तों का घर, मेरी पसंद की कॉफ़ी शॉप्स… सब कुछ। पूरा नक़्शा है तुम्हारे पास। रात दस बज रहे हैं, वीकडे है, घर पर नहीं हूँ तो कॉफ़ी पी रही होऊँगी। फ़्राइडे नाइट है तो कहाँ होऊँगी।’
‘हाँ तो, तुम इतनी प्रिडिक्टबल और आसान हो…थोड़ा मुश्किल होती तो मैं तलाशता फिरता तुमको जगह जगह।’
‘तुम कहना चाहते हो मैं बोरिंग हूँ?’
‘अरे, लड़की, ख़ुद ही सब बोल दो…मैंने कब कहा कि बोरिंग हो… मैंने कहा कि प्रेडिक्टबल हो। क्या बुरा है इसमें? एक तरह की निश्चिंत्ता होती है। कि जैसे लीवायज़ की ५०१ जींस, ३० नम्बर वाली एकदम फ़िट आएगी, जैसे नुक्कड़ की टपरी वाली आंटी मेरी पसंद की निम्बू की चाय बनाएगी, जैसे कि ब्लैक शर्ट हमेशा खिलेगी, कि बारिश में भीगने का हमेशा मन करेगा। हमेशा वाली चीज़ें अच्छी होती हैं’।
‘तो एक घर ख़रीद लो फिर, रेंट पर भी मत लो’।
‘तुम तो आज नहा धो के पीछे पड़ गयी हो। क्या करना है तुमको मेरे घर से?’
‘कह तो रहे हैं, चिट्ठी लिखेंगे’
‘सुन रही हो अपनी बात…तुम्हारे चिट्ठी लिखने भर के लिए घर क्यूँ लें…पोस्ट ऑफ़िस में पोस्ट बॉक्स आता है, वो ले लेते हैं… या तुम ईमेल भी तो कर सकती हो। या whatsapp. कौन लिखता है आज के ज़माने में चिट्ठी’।
‘तुम जानते हो ना, हम थोड़े ओल्ड स्कूल हैं।’
‘थोड़े? बाबू, तुम प्रागैतिहासिक हो। म्यूज़ीयम में रखेंगे तुमको। वो भी नैचुरल हिस्ट्री म्यूज़ीयम में’
‘तुम टिकट का पैसा दे कर मिलने आओगे हमसे?’
‘हाँ। फिर तुम्हारे ऊपर किताब भी लिखेंगे। कि अच्छी ख़ासी लड़की थी। चिट्ठी चिट्ठी करते करते ख़ुद ही कहानी हो गयी’।
‘तो फिर, घर नहीं लोगे तुम?’
‘ग़ज़ब ज़िद्दी हो। टेपरिकॉर्डर अटक गया है वहीं का वहीं तुम्हारा…नहीं लूँगा घर। मुझे ज़रूरत नहीं लगती घर लेने की। इतना ट्रैवल होता है। आज यहाँ, कल वहाँ… किस शहर में घर लूँ, बताओ। आधे साल तो अमरीका में रहता हूँ, बचा थोड़ा बहुत यूरोप… ऐसे कहाँ रखें घर हम। थोड़ा प्रैक्टिकल कारण भी तो है’
‘तुम दिल्ली में घर ले लो’
‘अच्छा, दुनिया के इतने अच्छे अच्छे शहर छोड़ कर दिल्ली में। क्यूँ भला? भयानक प्रदूषण और उससे भी ज़्यादा प्रदूषित दिमाग़ के लोगों के सिवा है क्या इस शहर में।’
‘ऐ, मेर सामने दिल्ली को गरियाओ मत। मैं जो हूँ दिल्ली में, सो? मेरा कोई मोल नहीं!’
‘मोल तो इतना है कि बेमोल हो तुम। प्रेशियस। बेशक़ीमत।’
‘तो मेरी बात मान लो’
‘तुझे घर ले दूँ? ऐसा करता हूँ, तेरे नाम से पेपर्स बनवा देता हूँ। अब ठीक है?’
‘कुछ भी। ऐसे कैसे मेरे लिए घर ख़रीद दोगे। पता है पच्चीस साल तो ईएमआई चलती है होम लोन की’
‘तो तुझे लगता है कि तू अगले पच्चीस साल में मेरे साथ नहीं रहेगी?’
‘उफ़। ये थोड़े कह रहे हैं हम। तुम अनर्गल आर्ग्युमेंट मत करो’
‘मुझे घर नहीं ख़रीदना’
‘एक कारण बता दो’
‘कारण ये कि बुद्धू। मेरा घर तुम हो। तुम्हारे होते मेरे पास लौटने को हमेशा कुछ होता है। मैं दुनिया के हर शहर घूमता हुआ तुम्हारे लिए होता जाता हूँ। ये जो झुमके, मिनीयचर पेंटिंग और साउंड बॉक्स ला के दिए हैं तुम्हें… इसलिए कि इनके इर्द गिर्द ख़ुश रहती हो तुम। मेरे न होने पर भी भरी भरी सी। जब तुम्हारे बाथरूम में अपना टूथब्रश देखता हूँ तो लगता नहीं है कि कहीं और जाने की ज़रूरत है। मैं तुम्हारे इर्द गिर्द बंजारा नहीं रहता। बसा हुआ होता हूँ। तुम्हारे ख़ालीपन में। तुम्हारे इंतज़ार में। जब भी लौटता हूँ ऐसी कोई शाम होती है, दिल्ली की कोई पुरानी इमारत होती है और इतनी ज़्यादा ख़ुश होती हो तुम कि मैं किसी सफ़र में अकेला नहीं होता। तुम्हारी चिट्ठियों का पता मेरा दिल है। तुम लिख लिया करो। मैं पढ़ लिया करूँगा वापस आ के। मोमिन इसलिए न कहते हैं, हाल ए दिल यार को लिखूँ क्यूँ कर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।
‘ये कौन सी किताब से पढ़ कर आए हो?’
‘पढ़ कर नहीं आया हूँ। लिखूँगा अब। एक अच्छी सी किताब, जिसमें हम दोनों ऐसे ही शाम शाम शाम बकझक करते रहेंगे। जिसमें जीने के लिए हमें अपनी अपनी ज़िंदगी से कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा। जिसमें मेरा और तुम्हारा पता एक ही होगा। भले ही मैं वहाँ रहूँ, न रहूँ’
‘उफ़’
‘क्या हुआ?’
‘किराया लगेगा’
‘पागल लड़की’
‘तुमसे कम ही’
Published on April 12, 2019 07:34