Puja Upadhyay's Blog, page 12
November 23, 2018
नवम्बर ड्राफ़्ट्स
सपने में तुम थे, माँ थी और समुद्र था।तूफ़ान आया हुआ था। बहुत तेज़ हवा चल रही थी। नारियल के पेड़ पागल टाइप डोल रहे थे इधर उधर। सपने को भी मालूम था कि मैं पौंडीचेरी जाना चाहती थी और उधर साइक्लोन आया हुआ था। उस तूफ़ान में हम कौन सा शहर घूम रहे थे?
ट्रेन में मैं तुम्हारे पास की सीट पर बैठी थी। तुम्हारी बाँह पकड़ कर। कि जैसे तुम अब जाओगे तो कभी नहीं मिलोगे। तुम्हारे साथ होते हुए, तुम्हारे बिना की हूक को महसूस करते हुए। हम कहीं लौट रहे थे। किसी स्मृति में। किसी शहर में।
मैंने तुमसे पूछा, ‘रूमाल है ना तुम्हारे पास? देना ज़रा’। तुम अपनी जेब से रूमाल निकालते हो। सफ़ेद रूमाल है जिसमें बॉर्डर पर लाल धारियाँ हैं। एक बड़ा चेक बनाती हुयीं। मैं तुमसे रूमाल लेती हूँ और कहती हूँ, ‘हम ये रूमाल अपने पास रखेंगे’। रूमाल को उँगलियों से टटोलती हूँ, कपास की छुअन उँगलियों पर है। कल रात फ़िल्म देखी थी, कारवाँ। उसमें लड़का एक बॉक्स को खोलता है जिसमें उसके पिता की कुछ आख़िरी चीज़ें हैं। भूरे बॉक्स में एक ऐसा ही रूमाल था कि जो फ़िल्म से सपने में चला आया था। ट्रेन एयर कंडिशंड है। काँच की खिड़कियाँ हैं जिनसे बाहर दिख रहा है। बाहर यूरोप का कोई शहर है। सफ़ेद गिरजाघर, दूर दूर तक बिछी हरी घास। पुरानी, पत्थर की इमारतें। सड़कें भी वैसी हीं। सपने का ये हिस्सा कुछ कुछ उस शहर के जैसा है जिसकी तस्वीरें तुमने भेजी थीं। सपना सच के पास पास चलता है। क्रॉसफ़ेड करता हुआ। मैं उस रूमाल को मुट्ठी में भींच कर अपने गाल से लगाना चाहती हूँ।
मुझे हिचकियाँ आती हैं। तुम पास हो। हँसते हो। मैं सपने में जानती हूँ, तुम अपनी जाग के शहर में मुझे याद कर रहे हो। सपना जाग और नींद और सच और कल्पना का मिलाजुला छलावा रचता है।
तुम्हें जाना है। ट्रेन रुकी हुयी है। उसमें लोग नहीं हैं। शोर नहीं है। जैसे दुनिया ने अचानक ही हमें बिछड़ने का स्पेस दे दिया हो। मैं तुम्हें hug करती हूँ। अलविदा का ये अहसास अंतिम महसूस होता है। जैसे हम फिर कभी नहीं मिलेंगे।
नींद टूटने के बाद मैं उस शहर में हूँ जिसके प्लैट्फ़ॉर्म पर हमने अलविदा कहा था। याद करने की कोशिश करती हूँ। अपनी स्वित्ज़रलैंड की यात्रा में ऐसे ही रैंडम घूमते हुए पहली बार किसी ख़ूबसूरत गाँव के ख़ाली प्लेटफ़ॉर्म को देख कर उस पर उतर जाने का मन किया था। उस छोटे से गाँव के आसपास पहाड़ थे, बर्फ़ थी और एकदम नीला आसमान था। सपने में मैं उसी प्लैट्फ़ॉर्म पर हूँ, तुम्हारे साथ। जागने पर लगता है तुम गए नहीं हो दूर। पास हो।
मैं किसी कहानी में तुम्हें अपने पास रोक लेना चाहती हूँ।
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कुछ तो हो जिससे मन जुड़ा रहे।
किसी शहर से। किसी अहसास से।किसी वस्तु से - कहीं से लायी कोई निशानी सही।किसी किताब से, किसी अंडर्लायन लिए हुए पैराग्राफ़ से।किसी काले स्टोल से कि जिसे सिर्फ़ इसलिए ख़रीदा गया था कि कोई साथ चल रहा था और उसका साथ चलना ख़ूबसूरत था। किसी से आख़िरी बार गले लग कर उसे भूल जाने से।
आख़िरी बार। कैसा तो लगता है लिखने में।
कलाइयाँ सूँघती हूँ इन दिनों तो ना सिगरेट का धुआँ महकता है, ना मेरी पसंद का इसिमियाके। पागलपन तारी है। कलाइयों पर एक ही इत्र महसूस होता है। मृत्युगंध।
तुम मिलो मुझसे। कि कोई शहर तो महबूब शहर हुआ जाए। कि किसी शहर की धमनियों में थरथराए थोड़ा सा प्यार… गुज़रती जाए कोई मेट्रो और हम स्टेशन पर खड़े रोक लें तुम्हें हाथ पकड़ कर। रुक जाओ। अगली वाली से जाना।
मैं भूल जाऊँ तुम्हारे शहर की गलियों के नाम। तुम भूल जाओ मेरी फ़ेवरिट किताब समंदर किनारे। रात को हाई टाइड पर समंदर का पानी बढ़ता आए किताब की ओर। मिटा ले मेरी खींची हुयी नीली लकीर। किताब के एक पन्ने पर लिखा तुम्हारा नाम। मुझे हिचकियाँ आएँ और मैं बहुत दिन बाद ये सोच सकूँ, कि शायद तुम याद कर रहे हो।
पिछली बार मिली थी तो तुम्हारी हार्ट्बीट्स स्कैन कर ली थी मेरी हथेली ने…काग़ज़ पर रखती हूँ ख़ून सनी हथेली। रेखाओं में उलझती है तुम्हारी दिल की धड़कन। मैं देखती हूँ देर तक। सम्मोहित। फिर हथेली से कस के बंद करती हूँ दूसरी कलाई से बहता ख़ून।
कि कहानी में भी तुमसे पहले अगर मृत्यु आए तो उसे लौट कर जाना होगा।चलो, जीने की यही वजह सही कि तुमसे एक बार और मिल लें। कभी। ठीक?
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लड़की की उदास आँखों में एक शहर रहता था।
लड़का अकसर सोचता था कि दूर देश के उस शहर जाने का वीसा मिले तो कुछ दिन रह आए शहर में। रंगभरे मौसम लिए आता अपने साथ। पतझर के कई शेड्स। चाहता तो ये भी था कि लड़की के लिए अपनी पसंद के फूल के कुछ बीज ले आए और लड़की को गिफ़्ट कर दे। लड़की लेकिन बुद्धू थी, उसकी बाग़वानी की कुछ समझ नहीं थी। उससे कहती कि बारिश भर रुक जाओ, पौधे आ जाएँ, फिर जाना। यूँ एक बारिश भर रुक जाने की मनुहार में कोई ग़लत बात नहीं थी, लेकिन शहर में अफ़ीम सा नशा था। रहने लगो तो दुनिया का कोई शहर फिर अच्छा नहीं लगता। ना वैसा ख़ुशहाल भी। उदासी की अपनी आदत होती है। ग़ज़लें सुनते हुए शहर के चौराहे पर चुप बैठे रहना, घंटों। या कि मीठी नदी का पानी पीना और इंतज़ार करना दिल के ज़ख़्म भरने का। उदास शहर में रहते हुए कम दुखता था सब कुछ ही।
शहर में कई लोग थे और लड़की ये बात कहती नहीं थी किसी से…लेकिन बस एक उस लड़के के नहीं होने से ख़ाली ख़ाली लगता था पूरा उदास शहर।
Published on November 23, 2018 05:16
November 19, 2018
November Mornings
मेरा मैक चूँकि नया है और इतना साफ़ है कि मन करता है लिखने के पहले साबुन से हाथ धो कर आएँ :) हाथ में ज़रा सी भी चिकनाई हो तो कीबोर्ड पर फ़ील होने लगता है। क़लम से लिखने के साथ तो ये बात हमेशा से रही है कि हाथ एकदम साफ़ हों, लेकिन नॉर्मली कीबोर्ड के बारे में ऐसा नहीं सोचते थे। उसपर मेरे हाथों में पसीना बहुत आता है, ज़रा भी गरमी हुयी नहीं कि मुश्किल। स्कूल कॉलेज के टाइम अगर किसी इग्ज़ैम में रूमाल ले जाना भूल गए तो आफ़त ही आ जाती थी। लिखते हुए इतना हाथ फिसलता था कि बस! वरना तो बस स्कर्ट में हाथ पोछने के सिवा कोई चारा नहीं होता था। स्कूल के टाइम में मेरे पास एक ही स्कर्ट हुआ करती थी। तो अगर स्कर्ट गंदा कर दिए घर जाते साथ पहले स्कर्ट धो कर सुखाने के लिए डाल देते थे। बैंगलोर का मौसम लगभग पूरे साल ठंडा ही रहता है तो दिक्कत नहीं होती है। मैं भूल भी जाती हूँ कि लिखने में हाथ फिसलता था। फिर जब से Lamy डिस्कवर किए हैं, लिखने का सुख कमाल का है। क़लम की ग्रिप मेरे हाथ के लिए एकदम ही पर्फ़ेक्ट है, हाथ कभी नहीं फिसलता। लम्बे समय पर लिखने पर भी उँगलियाँ नहीं दुखतीं। अच्छा डिज़ाइन इसी को तो कहते हैं। जहाँ भी अच्छा डिज़ाइन होता है, वो साफ़ पता चलता है। जैसे कि मैकबुक के नए वाले ऑपरेटिंग सिस्टम में एक डार्क मोड है जो मुझे बेहद पसंद है। इसमें काग़ज़ एकदम साफ़ दिखता है बीच में। आसपास सब कुछ काला। ऐसे लेआउट में लिखने का ख़ूब मन करता है।ऑफ़िस में अपने इस्तेमाल के लिए एक डेस्क ख़रीदनी है। कल पेपरफ़्राई पर देख कर आए लेकिन अपने पसंद की डेस्क नहीं मिली। इधर पापा आए हुए थे तो बता रहे थे कि वो जब कश्मीर गए थे तो लिखने के लिए इतना ख़ूबसूरत डेस्क देखे कि उनका मन किया कि आगे की ट्रिप कैन्सल करके वही एक डेस्क ख़रीद के लौट आएँ। अखरोट की लकड़ी का डेस्क। अब वैसी ही किसी डेस्क पर दिल अटका हुआ है मेरा। कैसी कैसी चीज़ों के लिए सफ़र करने का मन करता है। अब लगता है ऐसे किसी शहर जाएँ जहाँ लकड़ी पर inlay वर्क होता हो। एक अच्छी लकड़ी की डेस्क और किनारे पर सफ़ेद बारीक काम किया हुआ हो। इस बार घर जाएँगे तो सोच रहे हैं कि डेस्क तो बनवा ही लें लकड़ी की… हाँ उसपर काम होता रहेगा। घर पर अक्सर बढ़ई काम करने आते हैं। ससुराल में कुछ ख़ूब बड़े बड़े पलंग वग़ैरह बने हैं। फिर बड़ा घर है तो कुछ ना कुछ काम चलता ही रहता है हमेशा। उन्होंने कह भी रखा है, कुछ भी डिज़ाइन आप दिखा दीजिए, हम बना देंगे।
टेबल या डेस्क कुछ चौड़ी हो जिसपर लिखने के अलावा की चीज़ें रखी जा सकें। कुछ पेपरवेट, कुछ इधर उधर से लाए गए छोटे छोटे स्नो ग्लोब, एक नटराज की छोटी सी मूर्ति। फिर मुझे अपने लिखने के डेस्क पर नॉर्मली दो चार किताबें और कई सारी नोट्बुक रखनी होती है। कलमें होती हैं कई सारी। एक छोटा सा फूलदान होता है। अक्सर ताज़े फूल रहते हैं। चाय या कॉफ़ी का मग रहता ही है।
कल पेपरफ़्राई में एक बहुत सुंदर छोटी सी लकड़ी की टेबल देखी। उसपर मोर बना हुआ था। एक मन तो किया कि ख़रीद ही लें। मेरी वाली टेबल अब बहुत पुरानी हो गयी है। लेकिन दिक्कत ये थी कि उस टेबल में इंक्लाइन नहीं था। मुझे हाथ से लिखने के समय थोड़ा सा ऐंगल अच्छा लगता है। जैसे स्कूल के समय डेस्क में हुआ करता था। कोई पंद्रह डिग्री टाइप झुकाव। उसपर हाथ ठीक से बैठता है। चूँकि मैं अभी भी बहुत सारा कुछ हाथ से लिखती हूँ वैसा ज़रूरी होता है।
कितने शहर जाने का मन करता है। यायावर। बंजारा मन।
Published on November 19, 2018 21:51
रोज़नामचा - नवम्बर की किसी शाम
हम कहाँ कहाँ छूटे रह जाते हैं। इंटर्नेट पर लिखे अपने पुराने शब्द पहचानना मुश्किल होता है मेरे लिए। ऐसे ही कोई जब कहता है कि उनको मेरी किताब का कोई एक हिस्सा बहुत पसंद है। का किसी कहानी की कोई एक पंक्ति, तो मुझे कई बार याद नहीं रहता कि ये मैंने लिखा था। 8tracks एक ऑनलाइन रेडिओ है जिसका इस्तेमाल मैं लिखने के दर्मयान करती थी। ख़ास तौर से अपने पुराने ऑफ़िस में स्क्रिप्ट लिखते हुए या ऐसा ही कुछ करने के समय जब शोर चाहिए होता था और ख़ामोशी भी। कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जिनसे हमें किसने मिलवाया हमें याद नहीं रहता। किसी शाम के रंग याद रहते हैं बस। बोस के noise कैन्सेलेशन हेड्फ़ोंज़ वाले चुप्पे लम्हे। 8tracks के मेरे पसंदीदा मिक्स पर कमेंट लिखा था मैंने। अब मैं वैसी बातें करती ही नहीं। पता नहीं कब, क्या महसूस किया था जो वहाँ लिखा भी था। “My soul was searching for these sounds...somewhere in vacuum. Thank you. Your name added to the playlist's name makes a complete phrase for my emotional state now...'How it feels to be broken my mausoleums'. Redemptions come in many sounds. Solace sometimes finds its way to you. And darkness is comforting. Thank you. So much.”
आज बहुत दिन क्या साल बाद लगभग ऑफ़िस का कुछ काम करने आयी। मैं काम के मामले में अजीब क़िस्म की सिस्टेमैटिक हूँ। मुझे सारी चीज़ें अपने हिसाब से चाहिए, कोई एक चीज़ इधर से उधर हुयी तो मैं काम नहीं कर सकती। चाय मेरे पसंद की होनी चाहिए, ग्रीन टी पियूँगी तो ऐसा नहीं है कि कोई भी पी लूँ… ‘ginger mint and lemon’ फ़्लेवर चाहिए होता है। कॉफ़ी के मामले में तो केस एकदम ही गड़बड़ है अब। starbucks के सिवा कोई कॉफ़ी अच्छी नहीं लगती है। लेकिन उस कॉफ़ी के साथ लिखना मतलब कोई क़िस्सा कहानी लिखना, टेक्नॉलजी नहीं।
फिर मैं जाने क्या लिखना चाहती हूँ। जो चीज़ें मुझे सबसे ज़्यादा अफ़ेक्ट करती हैं इन दिनों, मैं उसके बारे में लिखने की हिम्मत करने की कोशिश कर रही हूँ। सब उतना आसान नहीं है जितना कि दिखता है। जैसे कि पहले भी मुझे डिप्रेशन होता था ऐंज़ाइयटी होती थी लेकिन हालत इतनी बुरी नहीं थी। इन दिनों ज़रा सी बात पर रीऐक्शन कुछ भी हो सकता है। ख़ास तौर से कलाइयाँ काटने की तो इतनी भीषण इच्छा होती है कि डर लगता है। मैं जान कर घर में तेज धार के चाक़ू, पेपर कटर या कि ब्लेड नहीं रखती हूँ। इसके अलावा सड़क पर गाड़ी ठोक देने के ख़याल आते हैं, किसी बिल्डिंग से कूद जाने के या कि कई बार डूब जाने के ख़याल भी आते हैं। मुझे डाक्टर्ज़ और दवाइयों पर भरोसा नहीं होता। आश्चर्यजनक रूप से, मुझ पर कई दवाइयाँ काम नहीं करती हैं। ये कैसे होता है मुझे नहीं मालूम। पहले ऐसा बहुत ही ज़्यादा दुःख या अवसाद के दिन होता था। आजकल बहुत ज़्यादा फ़्रीक्वंट्ली हो रहा है।
इन चीज़ों का एक ही उपाय होता है। किसी चीज़ में डूब जाना। तो काम में डूबने के लिए सब तैय्यारी हो गयी है। टेक्नॉलजी मुझे पहले से भी बहुत ज़्यादा पसंद है, सो उसके बारे में पढ़ रही हूँ। एक बार सारी इन्फ़र्मेशन समझ में आने लगेगी तो फिर लिखने भी लगूँगी। आर्टिफ़िशल इंटेलिजेन्स, मशीन लर्निंग, एंटर्प्रायज़ ऑटमेशन…सब ऐसी चीज़ें हैं जिनके बारे में में मुझे एकदम से शुरुआत से पढ़ाई करनी है। फिर, आजकल अच्छी बात ये है कि हिंदी अख़बार शुरू किया है। सुबह सुबह हिंदी में पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ऐसे भी शब्द अब रोज़ाना मिलने लगे हैं जिनसे मिले अरसा हो जाता था। जैसे कि प्रक्षेपण। इंदिरानगर में रहते हुए दस साल से हिंदी अख़बार पढ़ा नहीं, कि उधर आता ही नहीं था। इस घर में राजस्थान पत्रिका मिल जाती है। यूँ मुझे हिंदुस्तान पढ़ना पसंद था, लेकिन ठीक है। पत्रिका का स्टैंडर्ड ठीक-ठाक है। कुछ आर्टिकल्ज़ अच्छे लगते हैं। हिंदुस्तान पढ़े कितना वक़्त बीत गया। देवघर में ससुराल में भी प्रभात ख़बर आता है, वो तो इतना बुरा है कि पढ़ना नामुमकिन है।
आज पूरा दिन बहुत थका देने वाला रहा। ऑफ़िस में दूसरे हाफ में तो नींद भी आ रही थी बहुत तेज़। कल से सोच रही हूँ अपना फ़्रेंच प्रेस कॉफ़ी मेकर और कॉफ़ी पाउडर ले कर ही आऊँ ऑफ़िस। काम करने में अच्छा रहेगा। फिर कभी कभी सोचती हूँ कॉफ़ी मेरी हेल्थ के लिए सही नहीं है, तो पीना बंद कर दूँ।
इंग्लिश विंग्लिश बहुत सुंदर फ़िल्म है। और सबसे सुंदर उसका आख़िर वाला स्पीच है। श्रीदेवी ने कितनी ख़ूबसूरती से स्पीच दी है। मैं अक्सर उस स्पीच के बारे में सोचती हूँ। ख़ुद की मदद करना ज़रूरी होता है ज़िंदगी के कुछ पड़ावों पर। कि आख़िर में, सारी लड़ाइयाँ हमारी पर्सनल होती हैं। चाहे वो हमारे सपनों को हासिल करने की लड़ाई हो या कि अपने भीतर रहते दैत्यों से रोज़ लड़ते हुए ख़ुद को पागल हो जाने से बचा लिए जाने की। जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है, ज़िंदगी के कई स्याह पहचान में आ रहे हैं। ऐसा क्यूँ है कि अवसाद का रंग और गाढ़ा ही होता जाता है?
मैं अपने शहर बनाना चाहती हूँ लेकिन विदा के शहर नहीं। बसे-बसाए शहर कि जिनमें भाग के जाने को नहीं, घूमने जाने को जी चाहे। ख़ूबसूरत शहर। बाग़ बगीचों वाले। कई रंग के गुलाब, गुलदाउदी, पीले अमलतास, सुर्ख़ गुलमोहर और पलाश वाले। कहते हैं कि हमें जीने के लिए कुछ चीज़ों से जुड़े रहने की ज़रूरत होती है। चाहे वो कोई छोटी सी चीज़ ही हो। बार बार याद आने वाली बातों में मुझे ये भी हमेशा याद आता है कि रामकृष्ण परमहंस को लूचि (अलग अलग कहानियों में अलग अलग खाद्य पदार्थों का ज़िक्र आता है। कहीं गुलाबजामुन और जलेबी का भी) से बहुत लगाव था और उन्होंने एक शिष्य को कहा था कि दुनिया में अगर हर चीज़ से लगाव टूट जाएगा तो वे शरीर धारण नहीं कर पाएँगे। मोह जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा है। बस, कुछ भी अधिक नहीं होना चाहिए। अति सर्वत्र वर्जयेत और त्यक्तेन भुंजीथा भी पढ़ा है हमने। पढ़ने से इन बोधकथाओं का कोई हिस्सा अवचेतन में अंकित हो जाता है और हमें बहुत ज़्यादा अवसाद के क्षण में बचा लेता है। बीरबल की उस कहानी की तरह जहाँ बर्फ़ीले ठंडे पानी में खड़े व्यक्ति ने दूर दिए की लौ को देख कर उसकी गर्माहट की कल्पना की और रात भर पानी में खड़ा रहा।
कभी कभी किसी और को अपनी जिंदगी के बारे में बताती हूँ तो अक्सर लगता है कि life has been extremely kind to me. शायद इसलिए भी, छोटी छोटी चीज़ों में थोड़ी सी ख़ुशी तलाश के रख सकती हूँ। ख़ुद को बिखरे हुए इधर उधर पा के अच्छा लगता है। मैं रहूँ, ना रहूँ…मेरे शब्द रहेंगे।
Published on November 19, 2018 05:15
November 1, 2018
काँच की चूड़ियाँ
मेरी हार्ड डिस्क में अजीब चीज़ें स्टोर रहती हैं। अवचेतन मन कैसी चीज़ों को अंडर्लायन कर के याद रखता है मुझे मालूम नहीं।
मुझे बचपन से ही काँच की चूड़ियों का बहुत शौक़ था। उनकी आवाज़, उनके रंग। मम्मी के साथ बाज़ार जा के चूड़ियाँ ख़रीदना। कूट के डब्बे में लगभग पारदर्शी सफ़ेद पतले काग़ज़ में लपेटी चूड़ियाँ हुआ करती थीं। जब पटना आए तो वहाँ एक चूड़ी वाला आता था। उसके पास एक लम्बा सा फ़्रेम होता था जिसमें कई रंग की चूड़ियाँ होती थीं। प्लेन काँच की चूड़ियाँ। वे रंग मुझे अब भी याद हैं। नीला, आसमानी, हल्दी पीला, लेमन येलो, गहरा हरा, सुगरपंखी हरा, टस लाल, कत्थई, जामुनी, काला, सफ़ेद, पारदर्शी, गुलाबी, काई हरा, फ़ीरोज़ी… लड़कियों को भर हाथ चूड़ी पहनना मना था तो सिर्फ़ एक दर्जन चूड़ियाँ मिलती थीं, दोनों हाथों में छह छह पहनने को। मेरे चूड़ी पहनने के शौक़ को देख कर मम्मी अक्सर कहती थी, बहुत शौक़ है चूड़ी पहनने का, शादी करा देते हैं। पहनते रहना भर भर हाथ चूड़ी।
मम्मी रही नहीं। शादी के बाद बहुत कम पहनीं मैंने भर भर हाथ चूड़ियाँ। लेकिन चूड़ी ख़रीदने का शौक़ हमेशा रहा। उसमें भी प्लेन काँच की चूड़ियाँ। पटना का वो चूड़ीवाला मुझे अब भी याद आता है। उस समय हाथ कितने नरम हुआ करते थे। दो-दो की चूड़ियाँ आती थीं। प्लेन जॉर्जेट के सलवार कुर्ते पहनती थी और बेपरवाही से लिया हुआ दुपट्टा। हाँ, चूड़ियाँ एकदम मैच होती थीं कपड़े से और नेल पोलिश। माँ के जाने के साथ मेरा लड़कीपना भी चला गया बहुत हद तक। मैं सँवरती इसलिए थी कि मम्मी आए और पूछे, इतनी सुंदर लग रही हो, काजल लगाई हो कि नहीं। नज़रा देगा सब।
आजकल साड़ी पहनती हूँ, लेकिन चूड़ी नहीं पहनती। चूड़ियों की खनक डिस्टर्ब करती है। मैं जिन शांत जगहों पर जाती हूँ, वहाँ खनखन बजती चूड़ियाँ अजीब लगती हैं। मीटिंग में, कॉफ़ी शॉप में, लोगों से मिलने… ऐसा लगता है कि चूड़ियाँ पहनीं तो सारा ध्यान उनकी आवाज़ में ही चला जाएगा।
मुझे काँच बहुत पसंद है। शायद इसके टूटने की फ़ितरत की वजह से…कुछ इसकी ख़ूबसूरती से और कुछ इसके पारदर्शी होने के कारण… फिर काँच का तापमान थोड़ा सा फ़रेब रचता है कि गरम कॉफ़ी पीने में मुँह नहीं जलता। हैंडब्लोन काँच के बर्तन, शोपीस वग़ैरह के बनाने की प्रक्रिया भी मुझे बहुत आकर्षित करती है और मैं इनके ख़ूब विडीओ देखती हूँ। भट्ठी में धिपा के लाल किया हुआ काँच का गोला और उसे तेज़ी से आकार देते कलाकार के ग्लव्ज़ वाले हाथ।
आज मैसूर क़िले के सामने एक बूढ़े बाबा चूड़ियाँ बेच रहे थे। मेटल की चूड़ियाँ थीं। नॉर्मली मैं नहीं ख़रीदती, लेकिन आज ख़रीद लीं। पाँच सौ रुपए की थीं… ख़रीदी तो पहन भी ली, सारी की सारी दाएँ हाथ में। मेटल चूड़ियों की आवाज़ उतनी मोहक नहीं होती जितनी काँच की चूड़ियों की। मुझे चूड़ियाँ और कलाई में उनकी ठंडक याद आती रही। गोरी कलाइयों में कांट्रैस्ट देता काँच की चूड़ियों का गहरा रंग। लड़कपन। भर हाथ चूड़ी पहनने की इच्छा।
यूँ ही सोचा कि देश में काँच की चूड़ियाँ कहाँ बनती हैं और अचरज हुआ कि मुझे मालूम था शहर का नाम - फ़िरोज़ाबाद। क्या फ़ीरोज़ी रंग वहीं से आया है? मुझे क्यूँ याद है ये नाम? कि बचपन से चूड़ियों के डिब्बे पर पढ़ती आयी हूँ, इसलिए? कि कभी खोज के फ़िरोज़ाबाद के बारे में पढ़ा हो, सो याद नहीं। गूगल किया तो देखती हूँ कि याद सही है। हिंदुस्तान में काँच की चूड़ियाँ फ़िरोज़ाबाद में बनती हैं।
ख़्वाहिशों की फेरहिस्त में ऐसे ही शहर होने थे। मैं किसी को क्या समझाऊँ कि मैं फ़िरोज़ाबाद क्यूँ जाना चाहती हूँ। कि मैं वहाँ जा कर सिर्फ़ बहुत बहुत से रंगों की प्लेन काँच की चूड़ियाँ ख़रीदना चाहती हूँ। कि मेरे शहर बैंगलोर में जो चूड़ियाँ मिलती हैं उनमें वैसे रंग नहीं मिलते। ना चूड़ी बेचने वालों में वैसा उत्साह कि सिर्फ़ एक दर्जन चूड़ियाँ बेच कर ख़ुश हो गए। एक दर्जन चूड़ी अब बीस रुपए में आती है। बीस रुपए का मोल ही क्या रह गया है अब।
मैं कल्पना में फ़िरोज़ाबाद को देखती हूँ। कई सारी चूड़ियों की दुकानों को। मैं लड़कपन के पक्के, गहरे रंगों वाले सलवार कुर्ते पहनती हूँ मगर सूती… दुपट्टा सम्हाल के रखती हूँ माथे पर, धूप लग रही है आँखों में… और मैं भटकती हूँ चूड़ियाँ ख़रीदने के लिए। कई कई रंगों की सादे काँच की चूड़ियाँ।
मैं लौटती हूँ शहर फ़िरोज़ाबाद से… लकड़ी के बक्से में चूड़ियाँ और एकदम ही भरा भरा, कभी भी टूट सकने वाला, काँच दिल लेकर।
मुझे बचपन से ही काँच की चूड़ियों का बहुत शौक़ था। उनकी आवाज़, उनके रंग। मम्मी के साथ बाज़ार जा के चूड़ियाँ ख़रीदना। कूट के डब्बे में लगभग पारदर्शी सफ़ेद पतले काग़ज़ में लपेटी चूड़ियाँ हुआ करती थीं। जब पटना आए तो वहाँ एक चूड़ी वाला आता था। उसके पास एक लम्बा सा फ़्रेम होता था जिसमें कई रंग की चूड़ियाँ होती थीं। प्लेन काँच की चूड़ियाँ। वे रंग मुझे अब भी याद हैं। नीला, आसमानी, हल्दी पीला, लेमन येलो, गहरा हरा, सुगरपंखी हरा, टस लाल, कत्थई, जामुनी, काला, सफ़ेद, पारदर्शी, गुलाबी, काई हरा, फ़ीरोज़ी… लड़कियों को भर हाथ चूड़ी पहनना मना था तो सिर्फ़ एक दर्जन चूड़ियाँ मिलती थीं, दोनों हाथों में छह छह पहनने को। मेरे चूड़ी पहनने के शौक़ को देख कर मम्मी अक्सर कहती थी, बहुत शौक़ है चूड़ी पहनने का, शादी करा देते हैं। पहनते रहना भर भर हाथ चूड़ी।
मम्मी रही नहीं। शादी के बाद बहुत कम पहनीं मैंने भर भर हाथ चूड़ियाँ। लेकिन चूड़ी ख़रीदने का शौक़ हमेशा रहा। उसमें भी प्लेन काँच की चूड़ियाँ। पटना का वो चूड़ीवाला मुझे अब भी याद आता है। उस समय हाथ कितने नरम हुआ करते थे। दो-दो की चूड़ियाँ आती थीं। प्लेन जॉर्जेट के सलवार कुर्ते पहनती थी और बेपरवाही से लिया हुआ दुपट्टा। हाँ, चूड़ियाँ एकदम मैच होती थीं कपड़े से और नेल पोलिश। माँ के जाने के साथ मेरा लड़कीपना भी चला गया बहुत हद तक। मैं सँवरती इसलिए थी कि मम्मी आए और पूछे, इतनी सुंदर लग रही हो, काजल लगाई हो कि नहीं। नज़रा देगा सब।
आजकल साड़ी पहनती हूँ, लेकिन चूड़ी नहीं पहनती। चूड़ियों की खनक डिस्टर्ब करती है। मैं जिन शांत जगहों पर जाती हूँ, वहाँ खनखन बजती चूड़ियाँ अजीब लगती हैं। मीटिंग में, कॉफ़ी शॉप में, लोगों से मिलने… ऐसा लगता है कि चूड़ियाँ पहनीं तो सारा ध्यान उनकी आवाज़ में ही चला जाएगा।
मुझे काँच बहुत पसंद है। शायद इसके टूटने की फ़ितरत की वजह से…कुछ इसकी ख़ूबसूरती से और कुछ इसके पारदर्शी होने के कारण… फिर काँच का तापमान थोड़ा सा फ़रेब रचता है कि गरम कॉफ़ी पीने में मुँह नहीं जलता। हैंडब्लोन काँच के बर्तन, शोपीस वग़ैरह के बनाने की प्रक्रिया भी मुझे बहुत आकर्षित करती है और मैं इनके ख़ूब विडीओ देखती हूँ। भट्ठी में धिपा के लाल किया हुआ काँच का गोला और उसे तेज़ी से आकार देते कलाकार के ग्लव्ज़ वाले हाथ।
आज मैसूर क़िले के सामने एक बूढ़े बाबा चूड़ियाँ बेच रहे थे। मेटल की चूड़ियाँ थीं। नॉर्मली मैं नहीं ख़रीदती, लेकिन आज ख़रीद लीं। पाँच सौ रुपए की थीं… ख़रीदी तो पहन भी ली, सारी की सारी दाएँ हाथ में। मेटल चूड़ियों की आवाज़ उतनी मोहक नहीं होती जितनी काँच की चूड़ियों की। मुझे चूड़ियाँ और कलाई में उनकी ठंडक याद आती रही। गोरी कलाइयों में कांट्रैस्ट देता काँच की चूड़ियों का गहरा रंग। लड़कपन। भर हाथ चूड़ी पहनने की इच्छा।
यूँ ही सोचा कि देश में काँच की चूड़ियाँ कहाँ बनती हैं और अचरज हुआ कि मुझे मालूम था शहर का नाम - फ़िरोज़ाबाद। क्या फ़ीरोज़ी रंग वहीं से आया है? मुझे क्यूँ याद है ये नाम? कि बचपन से चूड़ियों के डिब्बे पर पढ़ती आयी हूँ, इसलिए? कि कभी खोज के फ़िरोज़ाबाद के बारे में पढ़ा हो, सो याद नहीं। गूगल किया तो देखती हूँ कि याद सही है। हिंदुस्तान में काँच की चूड़ियाँ फ़िरोज़ाबाद में बनती हैं।
ख़्वाहिशों की फेरहिस्त में ऐसे ही शहर होने थे। मैं किसी को क्या समझाऊँ कि मैं फ़िरोज़ाबाद क्यूँ जाना चाहती हूँ। कि मैं वहाँ जा कर सिर्फ़ बहुत बहुत से रंगों की प्लेन काँच की चूड़ियाँ ख़रीदना चाहती हूँ। कि मेरे शहर बैंगलोर में जो चूड़ियाँ मिलती हैं उनमें वैसे रंग नहीं मिलते। ना चूड़ी बेचने वालों में वैसा उत्साह कि सिर्फ़ एक दर्जन चूड़ियाँ बेच कर ख़ुश हो गए। एक दर्जन चूड़ी अब बीस रुपए में आती है। बीस रुपए का मोल ही क्या रह गया है अब।
मैं कल्पना में फ़िरोज़ाबाद को देखती हूँ। कई सारी चूड़ियों की दुकानों को। मैं लड़कपन के पक्के, गहरे रंगों वाले सलवार कुर्ते पहनती हूँ मगर सूती… दुपट्टा सम्हाल के रखती हूँ माथे पर, धूप लग रही है आँखों में… और मैं भटकती हूँ चूड़ियाँ ख़रीदने के लिए। कई कई रंगों की सादे काँच की चूड़ियाँ।
मैं लौटती हूँ शहर फ़िरोज़ाबाद से… लकड़ी के बक्से में चूड़ियाँ और एकदम ही भरा भरा, कभी भी टूट सकने वाला, काँच दिल लेकर।
Published on November 01, 2018 13:31
October 24, 2018
सितम
फ़िल्म ब्लैक ऐंड वाइट है लेकिन मैं जानती हूँ कि उसने सफ़ेद ही साड़ी पहनी होगी। एकदम फीकी, बेरंग। अलविदा के जैसी। जिसमें किसी को आख़िरी बार देखो तो कोई भी रंग याद ना रह पाए। भूलना आसान हो सफ़ेद को। दरवाज़े पर खड़े हैं और उनके हाथ में दो तिहायी पी जा चुकी सिगरेट है। मैं सोचती हूँ, कब जलायी होगी सिगरेट। क्या वे देर तक दरवाज़े पर खड़े सिगरेट पी रहे होंगे, सोचते हुए कि भीतर जाएँ या ना जाएँ। घर को देखते हुए उनके चेहरे पर कौतुहल है, प्रेम है, प्यास है। वे सब कुछ सहेज लेना चाहते हैं एक अंतिम विदा में।
मिस्टर सिन्हा थोड़ा अटक कर पूछते हैं। 'तुम। तुम जा रही हो?'। वे जानते हैं कि वो जा रही है, फिर भी पूछते हैं। वे इसका जवाब ना में सुनना चाहते हैं, जानते हुए भी कि ऐसा नहीं होगा। ख़ुद को यक़ीन दिलाने की ख़ातिर। भूलने का पहला स्टेप है, ऐक्सेप्टन्स... मान लेना कि कोई जा चुका है।
मेरा दिल टूटता है। मुझे हमेशा ऐसी स्त्रियाँ क्यूँ पसंद आती हैं जिन्होंने अपने अधिकार से ज़्यादा कभी नहीं माँगा। जिन्होंने हमेशा सिर्फ़ अपने हिस्से का प्रेम किया। एक अजीब सा इकतरफ़ा प्रेम जिसमें इज़्ज़त है, समझदारी है, दुनियादारी है और कोई भी उलाहना नहीं है। उसके कमरे में एक तस्वीर है, इकलौता साक्ष्य उस चुप्पे प्रेम का... अनकहे... अनाधिकार... वो तस्वीर छुपाना चाहती है।
बार बार वो सीन क्यूँ याद आता है हमको जब गुरुदत्त वहीदा से शिकायती लहजे में कहते हैं, 'दो लोग एक दूसरे को इतनी अच्छी तरह से क्यूँ समझने लगते हैं? क्यूँ?'।
इंस्ट्रुमेंटल बजता है। 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम'। यही थीम संगीत है फ़िल्म में हीरोईन का। मुझे याद आता है मैंने तुमसे एक दिन पूछा था, 'कौन सा गाना सुन रहे हो?', तुमने इसी गाने का नाम लिया था... और हम पागल की तरह पूछ बैठे थे, कौन सा दुःख है, किसने दिया हसीं सितम तुम्हें। तुम उस दिन विदा कह रहे थे, कई साल पहले। लेकिन मैं कहाँ समझ पायी।
जिस लम्हे सुख था, उस दिन भी मालूम था कि ज़िंदगी का हिसाब बहुत गड़बड़ है। लम्हे भर के सुख के बदले सालों का दुःख लिखती है। कि ऐसे ही दुःख को सितम कहते हैं। फिर हम भी तो हिसाब के इतने ही कच्चे हैं कि अब भी ज़िंदगी पूछेगी तो कह देंगे कि ठीक है, लिखो लम्हे भर का ही सही, सुख।
तकलीफ़ है कि घटने की जगह हर बार बढ़ती ही जाती है। पिछली बार का सीखा कुछ काम नहीं आता। बस, कुछ चीज़ें हैं जो जिलाए रखती हैं। संगीत। चुप्पी। सफ़र।
इन दिनों जल्दी सो जाती हूँ, लेकिन मालूम आज क्यूँ जागी हूँ अब तक? मुझे सोने से डर लग रहा है। कल सुबह उठूँगी और पाऊँगी कि दिल तुम्हें थोड़ा और भूल गया है। फ़ोन पड़ा रहेगा साइलेंट पर कहीं और मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। कि मैं अपने लिखे में भी तुम्हारा अक्स मिटा सकूँगी। कि मैं तुम्हें सोशल मीडिया पर स्टॉक नहीं करूँगी। तुम्हारे हर स्टेटस, फ़ोटो, लाइक से तुम्हारी ज़िंदगी की थाह पाने की कोशिश नहीं करूँगी। कि तुमसे जुड़ा मोह का बंधन थोड़ा और कमज़ोर पड़ेगा। दिन ब दिन। रात ब रात।
अनुभव कहता है तुम्हें मेरी याद आ रही होती होगी। दिल कहता है, 'चल खुसरो घर अपने, रैन भए चहुं देस'। अपने एकांत में लौट चल। जीवन का अंतिम सत्य वही है। आँख भर आती है। उँगलियाँ थरथराती हैं। कैसे लिखूँ तुम्हें। किस हक़ से। प्यार।
Published on October 24, 2018 12:31
October 21, 2018
कहानी के हिस्से का प्यार
दो तरह की दुनिया है। एक तो वो, जो सच में है…और एक वो जो हमारे मन में बनी हुयी होती है। एक बाहरी और एक भीतरी दुनिया। पहले मैं सिर्फ़ बाहरी दुनिया की सच्चाई पर यक़ीन करती थी। मेरे लिए सच ऐंद्रिक था। आँखों देखा, कानों सुना, जीभ से चखा हुआ स्वाद, हाथ से छुआ हुआ शहर, लोग… इन सबको मैं सच मानती थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में मैंने पाया कि मेरे मन की जो दुनिया है, वो भी उतनी ही सच है। मैंने जो सोचा, जो मैंने जिया… दुनिया के नियमों से इतर… वो भी उतना ही सच है। कि मेरे मन में जो दुनिया बनी हुयी है, तर्क और समझ से परे, वो भी सच है।
तुमसे कई दिनों से बात नहीं हुयी है। महीनों से। तुमने त्योहार पर मेरे लिए थोड़ा वक़्त नहीं रखा। तुमने मेरी तबियत का हाल नहीं पूछा। तुमने अपने शहर की शाम के रंग नहीं भेजे। लेकिन मन को ऐसा लगता है कि तुम्हारे जीवन में, तुम्हारे मन में मेरी जो जगह है… वो अब भी है। मुझे वहाँ से निष्कासित नहीं किया गया है। ऐसा भी तो लगे कभी…कि बस, अब तुम्हारे मन में हमारे लिए कुछ नहीं है। क्योंकि ऐसा होता है तो महसूस होने लगता है। कल ऐसा लगा कि तुम मेरे बारे में भी पूरी तरह निश्चिन्त हो। कि किसी रोज़ बस लौट कर आओगे और कहोगे, इस वजह से फ़ोन नहीं कर पाया, या कि जुड़ा नहीं रह पाया, और हम बस, कहेंगे ठीक है। कोई उलाहना नहीं देंगे। समझ जाएँगे। सवाल नहीं करेंगे।
अजीब चीज़ों में तुम्हारी याद आती है। महामृत्युंजय मंत्र पढ़ते हुए लगता है कि जैसे मृत्यु से विलग होने की इच्छा की गयी है… हम प्रेम में वैसा ही कोई विलगना माँगते हैं। कि जैसे ककड़ी वक़्त आने पर ख़ुद ही टूट कर अलग हो जाती है, उसे दुःख नहीं होता। वैसे ही मैं तुमसे टूट कर विलग जाऊँ। कभी। एकदम स्वाभाविक हो ये। मुझे दुखे ना, कुछ आधा अधूरा टूटा हुआ मेरे अंदर ना रह जाए तुम्हारे इंतज़ार में।
तुम पता नहीं कहाँ हो। कैसे हो। ख़ुश होगे, इतना यक़ीन है। बस, साथ चलते चलते ऐसा कैसे हो गया कि तुम्हारी ज़िंदगी में मेरी ज़रा सी भी जगह नहीं बची, मालूम नहीं। इन दिनों मैं ठीक हूँ। मेरा मन शांत है। मैं एक लम्बे दर्द और दुःख की लड़ाई से उबरी हूँ। कभी कभी मेरा मन तुम्हारी हँसी सुनने को हो आता है। लेकिन प्रारब्ध में लिखा है कि मुझे ऐसा दुःख भोगना है। तो बिना शिकायत इसके साथ रहने की कोशिश कर रही हूँ। ऐसा पहले भी हुआ है कि किसी की सिर्फ़ एक ज़रा सी आवाज़ चाही थी मगर वो इतना रूखा था कि उसे मेरी फ़िक्र नहीं थी। या उसे अहसास नहीं था कि मेरी ज़रूरत कितनी बेदर्दी से मुझे तोड़ रही है…तोड़ सकती है। मुझे आवाज़ों की आदत और ज़रूरत है। ज़िंदा आवाज़ों की। मैं इन दिनों पाड्कैस्ट सुनती हूँ। कभी कभी रेडीओ भी।
कभी कभी लगता है, मैं मायका तलाशते रहती हूँ। अनजान शहरों में, लोगों में। यहाँ तक की पेंटिंग्स में भी तो। तुम देख सकते हो पौलक की पेंटिंग को जब जी चाहे... मैं उन रंगों को बस आँख में सहेज के रख सकती हूँ। वैन गो की स्टारी नाइट देखने जाओगे कभी, किसी के साथ तो सही... मैं थी तो वहाँ, सोचती कि कैसे पूरी दुनिया घूमती सी दिखती है। कैसे रात सिर्फ़ दिखती नहीं, दुखती होगी वैन गो को। कि क्या है इन रंगों में कि मन भर आया है।
पापा आए हैं आजकल। मैं कहती हूँ पापा से... ज़िंदगी में थोड़े और लोग होने चाहिए थे। इतना प्यार किसके हिस्से में लिखें। कि शहर इतना अकेला कैसे हो सकता है। कि हम ही अपने मन के कपाट बंद कर लिए हैं और कह रहे हैं कि लोग नहीं हैं जीवन में।
मन की दुनिया का सच ये है कि अगर निर्दोष प्रेम हो सकता है, निष्कलुष - तो वैसा प्रेम है तुमसे, बिना किसी चाह के… तुमसे किसी और जन्म का रिश्ता है। आत्मा का। मन का। बाहर की दुनिया का सच ये है कि तुम्हें मिस करती हूँ बेतरह। कभी मन किया तो तुम्हें एक तस्वीर भेज देने भर…पसंद के किसी गीत की रिकॉर्डिंग भेज देने भर… या कि जैसी सुबह आज हुयी है..धूप की सुनहली गर्माहट भेज देने भर। तुम्हारे हिस्से की चिट्ठियाँ अधूरी रखी हुयी हैं। तुम्हारे लिए ख़रीदी किताब भी।
ये दोनों सच दुखते हैं। मैं इनके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही हूँ। वक़्त लगेगा, हो जाएगा लेकिन। तुम फ़िक्र मत करना।
ढेर सारा प्यार।
तुमसे कई दिनों से बात नहीं हुयी है। महीनों से। तुमने त्योहार पर मेरे लिए थोड़ा वक़्त नहीं रखा। तुमने मेरी तबियत का हाल नहीं पूछा। तुमने अपने शहर की शाम के रंग नहीं भेजे। लेकिन मन को ऐसा लगता है कि तुम्हारे जीवन में, तुम्हारे मन में मेरी जो जगह है… वो अब भी है। मुझे वहाँ से निष्कासित नहीं किया गया है। ऐसा भी तो लगे कभी…कि बस, अब तुम्हारे मन में हमारे लिए कुछ नहीं है। क्योंकि ऐसा होता है तो महसूस होने लगता है। कल ऐसा लगा कि तुम मेरे बारे में भी पूरी तरह निश्चिन्त हो। कि किसी रोज़ बस लौट कर आओगे और कहोगे, इस वजह से फ़ोन नहीं कर पाया, या कि जुड़ा नहीं रह पाया, और हम बस, कहेंगे ठीक है। कोई उलाहना नहीं देंगे। समझ जाएँगे। सवाल नहीं करेंगे।
अजीब चीज़ों में तुम्हारी याद आती है। महामृत्युंजय मंत्र पढ़ते हुए लगता है कि जैसे मृत्यु से विलग होने की इच्छा की गयी है… हम प्रेम में वैसा ही कोई विलगना माँगते हैं। कि जैसे ककड़ी वक़्त आने पर ख़ुद ही टूट कर अलग हो जाती है, उसे दुःख नहीं होता। वैसे ही मैं तुमसे टूट कर विलग जाऊँ। कभी। एकदम स्वाभाविक हो ये। मुझे दुखे ना, कुछ आधा अधूरा टूटा हुआ मेरे अंदर ना रह जाए तुम्हारे इंतज़ार में।
तुम पता नहीं कहाँ हो। कैसे हो। ख़ुश होगे, इतना यक़ीन है। बस, साथ चलते चलते ऐसा कैसे हो गया कि तुम्हारी ज़िंदगी में मेरी ज़रा सी भी जगह नहीं बची, मालूम नहीं। इन दिनों मैं ठीक हूँ। मेरा मन शांत है। मैं एक लम्बे दर्द और दुःख की लड़ाई से उबरी हूँ। कभी कभी मेरा मन तुम्हारी हँसी सुनने को हो आता है। लेकिन प्रारब्ध में लिखा है कि मुझे ऐसा दुःख भोगना है। तो बिना शिकायत इसके साथ रहने की कोशिश कर रही हूँ। ऐसा पहले भी हुआ है कि किसी की सिर्फ़ एक ज़रा सी आवाज़ चाही थी मगर वो इतना रूखा था कि उसे मेरी फ़िक्र नहीं थी। या उसे अहसास नहीं था कि मेरी ज़रूरत कितनी बेदर्दी से मुझे तोड़ रही है…तोड़ सकती है। मुझे आवाज़ों की आदत और ज़रूरत है। ज़िंदा आवाज़ों की। मैं इन दिनों पाड्कैस्ट सुनती हूँ। कभी कभी रेडीओ भी।
कभी कभी लगता है, मैं मायका तलाशते रहती हूँ। अनजान शहरों में, लोगों में। यहाँ तक की पेंटिंग्स में भी तो। तुम देख सकते हो पौलक की पेंटिंग को जब जी चाहे... मैं उन रंगों को बस आँख में सहेज के रख सकती हूँ। वैन गो की स्टारी नाइट देखने जाओगे कभी, किसी के साथ तो सही... मैं थी तो वहाँ, सोचती कि कैसे पूरी दुनिया घूमती सी दिखती है। कैसे रात सिर्फ़ दिखती नहीं, दुखती होगी वैन गो को। कि क्या है इन रंगों में कि मन भर आया है।
पापा आए हैं आजकल। मैं कहती हूँ पापा से... ज़िंदगी में थोड़े और लोग होने चाहिए थे। इतना प्यार किसके हिस्से में लिखें। कि शहर इतना अकेला कैसे हो सकता है। कि हम ही अपने मन के कपाट बंद कर लिए हैं और कह रहे हैं कि लोग नहीं हैं जीवन में।
मन की दुनिया का सच ये है कि अगर निर्दोष प्रेम हो सकता है, निष्कलुष - तो वैसा प्रेम है तुमसे, बिना किसी चाह के… तुमसे किसी और जन्म का रिश्ता है। आत्मा का। मन का। बाहर की दुनिया का सच ये है कि तुम्हें मिस करती हूँ बेतरह। कभी मन किया तो तुम्हें एक तस्वीर भेज देने भर…पसंद के किसी गीत की रिकॉर्डिंग भेज देने भर… या कि जैसी सुबह आज हुयी है..धूप की सुनहली गर्माहट भेज देने भर। तुम्हारे हिस्से की चिट्ठियाँ अधूरी रखी हुयी हैं। तुम्हारे लिए ख़रीदी किताब भी।
ये दोनों सच दुखते हैं। मैं इनके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही हूँ। वक़्त लगेगा, हो जाएगा लेकिन। तुम फ़िक्र मत करना।
ढेर सारा प्यार।
Published on October 21, 2018 20:05
October 3, 2018
ऑल्टर्नेट दुनिया का अलविदा
नामा-बर तू ही बता तू ने तो देखे होंगे
कैसे होते हैं वो ख़त जिन के जवाब आते हैं
~ क़मर बदायुनी
हमने कितनी फ़ालतू चीज़ें सीखीं अपने स्कूल में। किताबों की वो कौन सी बात है जो काम आती है बाद की ज़िंदगी में। वे पीले हरे रिपोर्ट कार्ड जो सीने से लगाए घर आते और उसमें लिखे रैंक - 2nd, 5th, 7th दिखा कर ख़ुश होते। हर बार वही बात सुनते, कि ध्यान से पढ़ो। ये सोशल स्टडीज़ में सिर्फ़ ७० काहे आए हैं। हाइयस्ट कितना गया, वग़ैरह।
हमें चिट्ठियाँ लिखनी सिखायी गयीं, प्रिन्सिपल को छुट्टी के लिए आवेदन देने को, सांसद को शहर की किसी मुसीबत के बारे में बताने को, पिता को पैसे माँगते हुए चिट्ठी। हमें किसी ने सिखाया होता कि प्रेम पत्र कैसे लिखते हैं, माफ़ी कैसे माँगते हैं, अलविदा कैसे कहते हैं। चिट्ठी लिखते हुए हिंदी उर्दू के कितने सारे सम्बोधन हो सकते हैं… ‘प्रिय’ के सिवा… कि मैं किसी चिट्ठी की शुरुआत में, ‘मेरे ___’ और आख़िर में सिर्फ़ ‘तुम्हारी___’ लिखना चाहती हूँ तो ये शिष्टाचार के कितने नियम तोड़ेगा। आख़िर में क्या लिखते हैं? सादर चरणस्पर्श या आपका आज्ञाकारी छात्र के सिवा और कुछ होता है जो हम किसी को लिख सकें… प्रेम के सिवा जो पत्र होते हैं, वे कैसे लिखते हैं।
हमने उदाहरण में अमृता प्रीतम के पत्र क्यूँ नहीं पढ़े? निर्मल वर्मा, रिल्के, प्रेमचंद, दुष्यंत कुमार या कि बच्चन के पत्र ही पढ़े होते तो मालूम होता कि चिट्ठियों के कितने रंग होते हैं। तब हम शायद तुम्हें चिट्ठी लिखने की ख़्वाहिश के अपराधबोध में डूब डूब कर मर नहीं रहे होते। मंटो ने जो ख़त खोले नहीं, पढ़े नहीं, उनमें क्या लिखा था?
मैंने पिछले कुछ सालों में जाने कितने ख़त लिखे। मैंने जवाब नहीं माँगे। ख़त दुआओं की तरह होते रहे। हमने दुआ माँगी, क़ुबूल करने का हिस्सा खुदा का था। हमने कभी दूसरी शर्त नहीं रखी कि जवाब आएँ तो ही ख़त लिखेंगे। लेकिन जाने क्यूँ लगा, कि तुम मेरे ख़तों का जवाब लिख सकोगे। लेकिन शायद तुमने भी स्कूल में नहीं पढ़ा कि वे लोग जो सिर्फ़ दोस्त होते हैं, दोस्त ही रहना चाहते हैं, उन्हें कैसी चिट्ठी लिखते हैं। तुम नहीं जान पाए कि मुझे क्या लिखा जा सकता है चिट्ठी में। ‘हाले दिल यार को लिखूँ क्यूँकर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।
तुम्हें पता है, अगर आँख भर आ रही हो तो पूरा चेहरा आसमान की ओर उठा लो और गहरी गहरी सांसें लो तो आँसू आँखों में वापस जज़्ब हो जाते हैं। बदन में घुल जाते हैं। टीसते हैं आत्मा में लेकिन गीली मिट्टी पर गिर कर आँसुओं का पौधा नहीं उगाते। आँसुओं के पौधे पर उदासियों का फूल खिलता है। उस फूल से अलविदा की गंध आती है। उस फूल को किताब में रख दो और भूल जाओ तो अगली बार किताब खोलने के पहले धोखा होता है कि पन्नों के बीच कोई चिट्ठी रखी हुयी है। लेकिन हर चीज़ की तरह इसका भी एक थ्रेशोल्ड होता है। उससे ज़्यादा आँसू हुए तो कोई ट्रिक भी उन्हें मिट्टी में गिरने से रोक नहीं सकती, सिवाए उस लड़के के जिसकी याद में आँखें बौरा रही हैं...वो रहे तो हथेलियों पर ही थाम लेता आँसू को और फिर आँसू से उसके हथेली में सड़क वाली रेखा बन जाती...उस सड़क की जो दोनों के शहरों को जोड़ती हो।
क्या तुम सच में एकदम ही भूल गए हो हमको? मौसम जैसा भी याद नहीं करते? साल में एक बार? क्या आसान रहा हमको भूलना? तुम्हें वे दिन याद है जब हम बहुत बात किया करते थे और मैं तुमसे कहती थी, जाना होगा तो कह के जाना। मैं कोई वजह भी नहीं पूछूँगी। मैं रोकूँगी तो हरगिज़ नहीं। लेकिन तुम भी सबकी ही तरह गुम हो गए। क्या ये मेरी ग़लती थी कि मैंने सोचा कि तुम बाक़ियों से कुछ अलग होगे। हम कैसे क्रूर समय में जी रहे हैं यहाँ DM पर ब्रेक ऑफ़ कर लेते हैं लोग। घोस्टिंग जैसा शब्द लोगों की डिक्शनरी ही नहीं, ज़िंदगी का हिस्सा भी बन गया है। ऐसे में अलविदा की उम्मीद भी एक यूटोपीयन उम्मीद थी? क्या किसी पर्फ़ेक्ट दुनिया में एक शाम तुम्हारा फ़ोन आता और तुम कहते, देखो, मेरा ट्रैफ़िक सिग्नल तुमसे पहले हरा हो गया है, मैं पहले जाऊँगा… मुड़ के देखूँगा भी, पर लौटूँगा नहीं… तुम मेरा इंतज़ार मत करना। सिग्नल ग्रीन होने पर तुम भी चले जाना शहर से, फिर कभी न लौटने के लिए।
या कि टेलीग्राम आता। एक शब्द का। विदा…
मैं समझ नहीं पाती कि विदा के आख़िर में तीन बिंदियाँ क्यूँ हैं। लेकिन उस काग़ज़ के टुकड़े से रूह में उस दिन को बुक्मार्क कर देती और तुम्हें भूल जाती। अच्छा होता ना?
देखो ना। मेरी बनायी ऑल्टर्नट दुनिया में भी तुम रह नहीं गए हो मेरे पास। तुम जा रहे हो, बस 'विदा' कह कर। बताओ, जिस लड़की की ख़्वाहिशें इतनी कम हैं, उन्हें पूरा नहीं होना चाहिए?
कैसे होते हैं वो ख़त जिन के जवाब आते हैं~ क़मर बदायुनी
हमने कितनी फ़ालतू चीज़ें सीखीं अपने स्कूल में। किताबों की वो कौन सी बात है जो काम आती है बाद की ज़िंदगी में। वे पीले हरे रिपोर्ट कार्ड जो सीने से लगाए घर आते और उसमें लिखे रैंक - 2nd, 5th, 7th दिखा कर ख़ुश होते। हर बार वही बात सुनते, कि ध्यान से पढ़ो। ये सोशल स्टडीज़ में सिर्फ़ ७० काहे आए हैं। हाइयस्ट कितना गया, वग़ैरह।
हमें चिट्ठियाँ लिखनी सिखायी गयीं, प्रिन्सिपल को छुट्टी के लिए आवेदन देने को, सांसद को शहर की किसी मुसीबत के बारे में बताने को, पिता को पैसे माँगते हुए चिट्ठी। हमें किसी ने सिखाया होता कि प्रेम पत्र कैसे लिखते हैं, माफ़ी कैसे माँगते हैं, अलविदा कैसे कहते हैं। चिट्ठी लिखते हुए हिंदी उर्दू के कितने सारे सम्बोधन हो सकते हैं… ‘प्रिय’ के सिवा… कि मैं किसी चिट्ठी की शुरुआत में, ‘मेरे ___’ और आख़िर में सिर्फ़ ‘तुम्हारी___’ लिखना चाहती हूँ तो ये शिष्टाचार के कितने नियम तोड़ेगा। आख़िर में क्या लिखते हैं? सादर चरणस्पर्श या आपका आज्ञाकारी छात्र के सिवा और कुछ होता है जो हम किसी को लिख सकें… प्रेम के सिवा जो पत्र होते हैं, वे कैसे लिखते हैं।
हमने उदाहरण में अमृता प्रीतम के पत्र क्यूँ नहीं पढ़े? निर्मल वर्मा, रिल्के, प्रेमचंद, दुष्यंत कुमार या कि बच्चन के पत्र ही पढ़े होते तो मालूम होता कि चिट्ठियों के कितने रंग होते हैं। तब हम शायद तुम्हें चिट्ठी लिखने की ख़्वाहिश के अपराधबोध में डूब डूब कर मर नहीं रहे होते। मंटो ने जो ख़त खोले नहीं, पढ़े नहीं, उनमें क्या लिखा था?
मैंने पिछले कुछ सालों में जाने कितने ख़त लिखे। मैंने जवाब नहीं माँगे। ख़त दुआओं की तरह होते रहे। हमने दुआ माँगी, क़ुबूल करने का हिस्सा खुदा का था। हमने कभी दूसरी शर्त नहीं रखी कि जवाब आएँ तो ही ख़त लिखेंगे। लेकिन जाने क्यूँ लगा, कि तुम मेरे ख़तों का जवाब लिख सकोगे। लेकिन शायद तुमने भी स्कूल में नहीं पढ़ा कि वे लोग जो सिर्फ़ दोस्त होते हैं, दोस्त ही रहना चाहते हैं, उन्हें कैसी चिट्ठी लिखते हैं। तुम नहीं जान पाए कि मुझे क्या लिखा जा सकता है चिट्ठी में। ‘हाले दिल यार को लिखूँ क्यूँकर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।
तुम्हें पता है, अगर आँख भर आ रही हो तो पूरा चेहरा आसमान की ओर उठा लो और गहरी गहरी सांसें लो तो आँसू आँखों में वापस जज़्ब हो जाते हैं। बदन में घुल जाते हैं। टीसते हैं आत्मा में लेकिन गीली मिट्टी पर गिर कर आँसुओं का पौधा नहीं उगाते। आँसुओं के पौधे पर उदासियों का फूल खिलता है। उस फूल से अलविदा की गंध आती है। उस फूल को किताब में रख दो और भूल जाओ तो अगली बार किताब खोलने के पहले धोखा होता है कि पन्नों के बीच कोई चिट्ठी रखी हुयी है। लेकिन हर चीज़ की तरह इसका भी एक थ्रेशोल्ड होता है। उससे ज़्यादा आँसू हुए तो कोई ट्रिक भी उन्हें मिट्टी में गिरने से रोक नहीं सकती, सिवाए उस लड़के के जिसकी याद में आँखें बौरा रही हैं...वो रहे तो हथेलियों पर ही थाम लेता आँसू को और फिर आँसू से उसके हथेली में सड़क वाली रेखा बन जाती...उस सड़क की जो दोनों के शहरों को जोड़ती हो।
क्या तुम सच में एकदम ही भूल गए हो हमको? मौसम जैसा भी याद नहीं करते? साल में एक बार? क्या आसान रहा हमको भूलना? तुम्हें वे दिन याद है जब हम बहुत बात किया करते थे और मैं तुमसे कहती थी, जाना होगा तो कह के जाना। मैं कोई वजह भी नहीं पूछूँगी। मैं रोकूँगी तो हरगिज़ नहीं। लेकिन तुम भी सबकी ही तरह गुम हो गए। क्या ये मेरी ग़लती थी कि मैंने सोचा कि तुम बाक़ियों से कुछ अलग होगे। हम कैसे क्रूर समय में जी रहे हैं यहाँ DM पर ब्रेक ऑफ़ कर लेते हैं लोग। घोस्टिंग जैसा शब्द लोगों की डिक्शनरी ही नहीं, ज़िंदगी का हिस्सा भी बन गया है। ऐसे में अलविदा की उम्मीद भी एक यूटोपीयन उम्मीद थी? क्या किसी पर्फ़ेक्ट दुनिया में एक शाम तुम्हारा फ़ोन आता और तुम कहते, देखो, मेरा ट्रैफ़िक सिग्नल तुमसे पहले हरा हो गया है, मैं पहले जाऊँगा… मुड़ के देखूँगा भी, पर लौटूँगा नहीं… तुम मेरा इंतज़ार मत करना। सिग्नल ग्रीन होने पर तुम भी चले जाना शहर से, फिर कभी न लौटने के लिए।
या कि टेलीग्राम आता। एक शब्द का। विदा…
मैं समझ नहीं पाती कि विदा के आख़िर में तीन बिंदियाँ क्यूँ हैं। लेकिन उस काग़ज़ के टुकड़े से रूह में उस दिन को बुक्मार्क कर देती और तुम्हें भूल जाती। अच्छा होता ना?
देखो ना। मेरी बनायी ऑल्टर्नट दुनिया में भी तुम रह नहीं गए हो मेरे पास। तुम जा रहे हो, बस 'विदा' कह कर। बताओ, जिस लड़की की ख़्वाहिशें इतनी कम हैं, उन्हें पूरा नहीं होना चाहिए?
Published on October 03, 2018 08:18
October 1, 2018
वयमेव याता:
जिन चीज़ों को गुम हो जाना चाहिए…
१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।
वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।
२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।
फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।
मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।
३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।
४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।
५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।
कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।
६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।
मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir!
१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।
२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।
फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।
मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।
३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।
४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।
५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।
कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।
६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।
मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir!
Published on October 01, 2018 08:36
September 21, 2018
परदे पर मंटो
मंटो। इसके पहले कि टाइम्लायन लोगों के रिव्यू से भर जाए, मुझे ख़ुद फ़िल्म देखनी थी। कि मंटो तो महबूब मंटो है। फिर इसलिए भी कि ट्रेलर देख कर लगा भी कि नवाज़ बेहतरीन हैं मंटो के रूप में। मंटो का रिव्यू लिखना मुश्किल है मेरे लिए। इसलिए फ़िल्म देख कर जो लगा, वो लिख रही हूँ।
फ़िल्म से मंटो के हर चाहने वाले ने अलग क़िस्म की उम्मीद की होगी। हम मंटो को जीते जागते जब देखें तो कौन सी बातें हैं जो जानना चाहेंगे। उसके कपड़े, रहन सहन, बात करने का तरीक़ा। उसके दोस्त, परिवार। लेकिन मुझे अगर कुछ जानना था सबसे ज़्यादा तो उसकी लेखन प्रक्रिया। समाज का उसपर पड़ता असर। उसका लिखने का ठीक ठीक तरीक़ा।
मुझे मंटो से इश्क़ है। गहरा। किसी और लेखक से इस तरह मन नहीं जुड़ता जैसे मंटो से जुड़ता है। उसके छोटे छोटे क़िस्से, उसकी बतकही, यारों के साथ उसका जीना, उठना, बैठना। सब कुछ ही मैं ख़ूब ख़ूब पढ़ रखा है। तो ज़ाहिर है, मेरे मन में मंटो की कोई इमेज होगी। फ़िल्म देखते हुए मन में ये सवाल लेकर नहीं गयी थी कि नवाज़ मंटो के रूप में कैसा दिखेगा। मैं इस फ़िल्म को निष्पक्ष होकर देख ही नहीं सकती थी। एक पॉज़िटिव बायस मन में था। गुलाबी चश्मा या कि प्रेम में अंधा होना। दोनों सिलसिले में, मैं बहुत ज़्यादा सवाल नहीं करती। बहुत चीज़ों को ख़ारिज नहीं करती। फ़िल्म अच्छी लगती, हर हाल में।
मैं ख़ुश थी। मंटो को ऐसे जीते जागते हुए अपने सामने पा कर। मैं सारे वक़्त बस उसे ही देखना चाहती थी। मंटो - एक लेखक के रूप में। जिन वाक़यों ने उसे बनाया, उन्हें। फ़िल्म में मंटो और सफ़िया के इर्द गिर्द है। मंटो का पारिवारिक जीवन ज़्यादा दिखाया गया है, उसके लेखकीय जीवन की तुलना में। मंटो के मेंटल ब्रेकडाउन के हिस्सों पर भी ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया गया।
फ़िल्म में मंटो के क़िस्सों को जिस तरह शामिल किया गया है वो अच्छा लगा है। किरदार मंटो की ज़िंदगी से घुले मिले दिख रहे हैं। लेकिन फ़िल्मांकन में वो करारी चोट, वो हूक, वो तड़प, नहीं आ पायी है जो मंटो को पढ़ कर आती है। खोल दो जैसी छोटी कहानी जिस पढ़ते हुए मन में धँस जाती है, लेकिन फ़िल्म में वही कहानी का क्लाइमैक्स खो जाता है। इज़ारबंद खोलने का दृश्य उतना मज़बूत नहीं हो पाया है। थोड़ा ड्रैमटिज़ेशन बेहतर होना चाहिए था। कैमरा ऐंगल और म्यूज़िक थोड़ा बेहतर बुना जाता तो शायद वैसी कचोट को जीवंत कर सकता जो कहानी के अंत में महसूस होती है। ठंढा गोश्त भी ठीक ठीक वैसा नहीं लग सका है जैसे कहानी में था। फ़िल्म देखते हुए लेकिन जो ख़ाली जगहें थीं, वो हमने अपने मन से भर दीं। टोबा टेक सिंह का फ़िल्मांकन बहुत अच्छा है। पढ़ने से ज़्यादा हूक इसे देख कर उठी। बूढ़ा अपनी दयनीयता में, अपने पागलपन में और अपनी लाचारी में जी उठता है और लिखे हुए से ज़्यादा तकलीफ़ देता है। बाक़ी कहानियाँ मेरी इमेजरी से मैच नहीं करतीं, इंडिपेंडेंट्ली अच्छी हैं लेकिन जिन्होंने मंटो को नहीं पढ़ा है, शायद वे फ़िल्म देख कर नहीं जान पाएँ कि मंटो कैसा लिखता था। कहानी पढ़ते हुए हम अपने मन में एक इमेज लेकर चलते हैं, फ़िल्म उस इमेज में फ़िट हो भी नहीं सकती है कि सबने अपने अपने तरीक़े से कहानियों को इंटर्प्रेट किया होगा।
फ़िल्म में सबसे अच्छी चीज़ ये लगी है कि कई बार नवाज़ पूरी तरह मंटो हो जाते हैं। अपनी डाइयलोग डिलिवरी में नहीं लेकिन बॉडी लैंग्विज में। उनके कपड़े, उनका चलना, ठहरना, दारू पीना, चलते हुए किसी कोठे वाली को अपनी सिगरेट दे देना…यहाँ वे एकदम मंटो लगते हैं। डाइयलोग काफ़ी बेहतर हो सकते थे इस फ़िल्म के। मंटो ने इतना कुछ लिख रखा है, उसमें से कई अच्छे डाइयलॉग्ज़ उठाए जा सकते थे। उनका ना होना अखरता है। जैसे कि मंटो का ये कहना, ‘यदि आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये समाज ही नाकाबिले बर्दाश्त हो चला है। मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है’। फहशी के मुक़दमे में इस डाइयलोग की कमी ख़ूब अखरती है।
फ़िल्म उस मूड को बुनने में कामयाब होती है जो मंटो के इर्द गिर्द होगा। उस हताशा को ठीक दिखाती है। लो लाइट वाले शॉट्स से। किरदारों से। ये लो लाइट लेकिन कुछ ज़्यादा हो जाती है कि कई बार हम मंटो के चेहरे का एक्स्प्रेशन देखना चाहते हैं जो नहीं दिखता। वैसे में झुँझलाहट भी होती है। मैं मंटो से आयडेंटिफ़ाई कर सकती हूँ बहुत दूर तक। आसपास का माहौल उसे किस तरह अंदर से तोड़ रहा है, इसे मंटो डाइयलोग के माध्यम से नहीं चुप्पी से और अपनी बॉडी लैंग्विज से कहता है। पैसों की क़िल्लत, ख़ुद्दारी, और शराब की लत। मंटो के बच्चियों के साथ के दृश्य बहुत प्यारे हैं, ठीक वैसे ही जैसे मंटो अपने लिखने के बारे में कहता है कि बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं और इनके बीच मैं लिख रहा होता हूँ।
मंटो और इस्मत के कुछ और सीन साथ में होने चाहिए थे। उनकी आपस में बातचीत, उनका एक दूसरे की ज़िंदगी में क्या जगह थी, वग़ैरह। इस्मत को थोड़ा और फ़ुटेज मिलता तो अच्छा रहता। बॉम्बे के कुछ और दृश्य भी होते तो अच्छे रहते।
फ़िल्म में कितना कुछ चाहते हैं हम। कि ये हमारे महबूब मंटो की फ़िल्म है। ये सब हमारी चाह थी। लेकिन ये हमारी फ़िल्म नहीं, नंदिता की फ़िल्म है, नवाज़ की फ़िल्म है और उन्होंने अपने हिसाब से क़िस्से चुने हैं, कहानी बुनी है। फ़िल्म देखते हुए हम इतना कुछ सोचते नहीं। हम मंटो के साथ तड़प रहे होते हैं। मंटो, कि जिसे पिता, माँ और पहले बेटे की क़ब्र हिंदुस्तान में है। मंटो जो कि इस बँटवारे में बँटा हुआ है। कि जिसे इस बात से बेहद तकलीफ़ होती है कि उसके अफ़साने को फहश कहा जा रहा है। कि फ़ैज़ ने उसके अफ़साने को लिटरेचर नहीं कहा। हम मंटो के दो दुनिया में बँटे हुए दुःख को जीते हैं। उसके साथ तड़पते हैं। शाद जब उसे हर जगह से खींच कर शराब पीने ले जाता है तो हम तकलीफ़ में होते हैं कि ऐसे दोस्तों के कारण इतनी कम उम्र में मर गया मंटो। फ़िल्म देखते हुए हम उस तकलीफ़ को समझते हैं जो मंटो को महसूस होती थी, उसकी पूरी भयानकता में। ये इस फ़िल्म की कामयाबी है। नवाज़ जब फ़र्श पर बैठ कर पेंसिल से काग़ज़ पर लिख रहे होते हैं, वे मंटो होते हैं। जब अपने अफ़साने की क़ीमत के लिए लड़ रहे होते हैं, हम समझते हैं कि उन्हें पैसों की कितनी सख़्त ज़रूरत रही होगी। दुनिया जैसी है उसे वैसा लिख पाने की जिस तकलीफ़ से लेखक - मंटो गुज़रता है, हम उसे जी रहे होते हैं। ये काफ़ी दुर्लभ है इन दिनों। और इसलिए ऐसी फ़िल्में बननी चाहिए। हमारे तरफ़ लोग अक्सर कहते हैं ‘राम नाम टेढ़ो भला’। तो मंटो पर बनी कोई फ़िल्म हमें ख़राब तो लग ही नहीं सकती है। मंटो जैसे किरदार पर ख़राब फ़िल्म बनायी भी नहीं जा सकती। नामुमकिन है। आप मंटो को प्यार करते हैं तो फ़िल्म ज़रूर देखिए। आप मंटो को जानना चाहते हैं तो फ़िल्म ज़रूर देखिए। हाँ, उसके बाद मंटो की कहानियाँ पढ़िए… मंटो वहीं मिलेगा, ख़ालिस।
मंटो के बारे में एक क़िस्सा पढ़ा था। कि एक ताँगे पर चलते हुए सवारी ने बात बात में कहा कि मंटो मर गया। ताँगेवाले ने घोड़े की लगाम खींच ली, ताँगा रुक गया, फिर उसने अचरज मिले दुःख में पूछा, ‘क्या, मंटो मर गया! साहब अब ये ताँगा आगे नहीं जाएगा। आप कोई दूसरा देख लो’। फ़िल्म ख़त्म हुयी है। मैं बस ये सोच रही हूँ। मैं अगर फ़िल्म बनाती तो यहाँ ख़त्म करती।
महबूब मंटो है। हम उसे अपने अपने तरीक़े से प्यार करने के लिए आज़ाद हैं। मंटो को अपनी नज़र से देखने और दुनिया को उससे मिलवाने के लिए भी। शुक्रिया नंदिता। शुक्रिया नवाज़। मंटो को यूँ परदे पर ज़िंदा करने के लिए। कि मंटो ने ठीक ही तो कहा था, सादत हसन मर गया पर मंटो ज़िंदा है।
फ़िल्म से मंटो के हर चाहने वाले ने अलग क़िस्म की उम्मीद की होगी। हम मंटो को जीते जागते जब देखें तो कौन सी बातें हैं जो जानना चाहेंगे। उसके कपड़े, रहन सहन, बात करने का तरीक़ा। उसके दोस्त, परिवार। लेकिन मुझे अगर कुछ जानना था सबसे ज़्यादा तो उसकी लेखन प्रक्रिया। समाज का उसपर पड़ता असर। उसका लिखने का ठीक ठीक तरीक़ा।
मुझे मंटो से इश्क़ है। गहरा। किसी और लेखक से इस तरह मन नहीं जुड़ता जैसे मंटो से जुड़ता है। उसके छोटे छोटे क़िस्से, उसकी बतकही, यारों के साथ उसका जीना, उठना, बैठना। सब कुछ ही मैं ख़ूब ख़ूब पढ़ रखा है। तो ज़ाहिर है, मेरे मन में मंटो की कोई इमेज होगी। फ़िल्म देखते हुए मन में ये सवाल लेकर नहीं गयी थी कि नवाज़ मंटो के रूप में कैसा दिखेगा। मैं इस फ़िल्म को निष्पक्ष होकर देख ही नहीं सकती थी। एक पॉज़िटिव बायस मन में था। गुलाबी चश्मा या कि प्रेम में अंधा होना। दोनों सिलसिले में, मैं बहुत ज़्यादा सवाल नहीं करती। बहुत चीज़ों को ख़ारिज नहीं करती। फ़िल्म अच्छी लगती, हर हाल में।
मैं ख़ुश थी। मंटो को ऐसे जीते जागते हुए अपने सामने पा कर। मैं सारे वक़्त बस उसे ही देखना चाहती थी। मंटो - एक लेखक के रूप में। जिन वाक़यों ने उसे बनाया, उन्हें। फ़िल्म में मंटो और सफ़िया के इर्द गिर्द है। मंटो का पारिवारिक जीवन ज़्यादा दिखाया गया है, उसके लेखकीय जीवन की तुलना में। मंटो के मेंटल ब्रेकडाउन के हिस्सों पर भी ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया गया।
फ़िल्म में मंटो के क़िस्सों को जिस तरह शामिल किया गया है वो अच्छा लगा है। किरदार मंटो की ज़िंदगी से घुले मिले दिख रहे हैं। लेकिन फ़िल्मांकन में वो करारी चोट, वो हूक, वो तड़प, नहीं आ पायी है जो मंटो को पढ़ कर आती है। खोल दो जैसी छोटी कहानी जिस पढ़ते हुए मन में धँस जाती है, लेकिन फ़िल्म में वही कहानी का क्लाइमैक्स खो जाता है। इज़ारबंद खोलने का दृश्य उतना मज़बूत नहीं हो पाया है। थोड़ा ड्रैमटिज़ेशन बेहतर होना चाहिए था। कैमरा ऐंगल और म्यूज़िक थोड़ा बेहतर बुना जाता तो शायद वैसी कचोट को जीवंत कर सकता जो कहानी के अंत में महसूस होती है। ठंढा गोश्त भी ठीक ठीक वैसा नहीं लग सका है जैसे कहानी में था। फ़िल्म देखते हुए लेकिन जो ख़ाली जगहें थीं, वो हमने अपने मन से भर दीं। टोबा टेक सिंह का फ़िल्मांकन बहुत अच्छा है। पढ़ने से ज़्यादा हूक इसे देख कर उठी। बूढ़ा अपनी दयनीयता में, अपने पागलपन में और अपनी लाचारी में जी उठता है और लिखे हुए से ज़्यादा तकलीफ़ देता है। बाक़ी कहानियाँ मेरी इमेजरी से मैच नहीं करतीं, इंडिपेंडेंट्ली अच्छी हैं लेकिन जिन्होंने मंटो को नहीं पढ़ा है, शायद वे फ़िल्म देख कर नहीं जान पाएँ कि मंटो कैसा लिखता था। कहानी पढ़ते हुए हम अपने मन में एक इमेज लेकर चलते हैं, फ़िल्म उस इमेज में फ़िट हो भी नहीं सकती है कि सबने अपने अपने तरीक़े से कहानियों को इंटर्प्रेट किया होगा।
फ़िल्म में सबसे अच्छी चीज़ ये लगी है कि कई बार नवाज़ पूरी तरह मंटो हो जाते हैं। अपनी डाइयलोग डिलिवरी में नहीं लेकिन बॉडी लैंग्विज में। उनके कपड़े, उनका चलना, ठहरना, दारू पीना, चलते हुए किसी कोठे वाली को अपनी सिगरेट दे देना…यहाँ वे एकदम मंटो लगते हैं। डाइयलोग काफ़ी बेहतर हो सकते थे इस फ़िल्म के। मंटो ने इतना कुछ लिख रखा है, उसमें से कई अच्छे डाइयलॉग्ज़ उठाए जा सकते थे। उनका ना होना अखरता है। जैसे कि मंटो का ये कहना, ‘यदि आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये समाज ही नाकाबिले बर्दाश्त हो चला है। मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है’। फहशी के मुक़दमे में इस डाइयलोग की कमी ख़ूब अखरती है।
फ़िल्म उस मूड को बुनने में कामयाब होती है जो मंटो के इर्द गिर्द होगा। उस हताशा को ठीक दिखाती है। लो लाइट वाले शॉट्स से। किरदारों से। ये लो लाइट लेकिन कुछ ज़्यादा हो जाती है कि कई बार हम मंटो के चेहरे का एक्स्प्रेशन देखना चाहते हैं जो नहीं दिखता। वैसे में झुँझलाहट भी होती है। मैं मंटो से आयडेंटिफ़ाई कर सकती हूँ बहुत दूर तक। आसपास का माहौल उसे किस तरह अंदर से तोड़ रहा है, इसे मंटो डाइयलोग के माध्यम से नहीं चुप्पी से और अपनी बॉडी लैंग्विज से कहता है। पैसों की क़िल्लत, ख़ुद्दारी, और शराब की लत। मंटो के बच्चियों के साथ के दृश्य बहुत प्यारे हैं, ठीक वैसे ही जैसे मंटो अपने लिखने के बारे में कहता है कि बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं और इनके बीच मैं लिख रहा होता हूँ।
मंटो और इस्मत के कुछ और सीन साथ में होने चाहिए थे। उनकी आपस में बातचीत, उनका एक दूसरे की ज़िंदगी में क्या जगह थी, वग़ैरह। इस्मत को थोड़ा और फ़ुटेज मिलता तो अच्छा रहता। बॉम्बे के कुछ और दृश्य भी होते तो अच्छे रहते।
फ़िल्म में कितना कुछ चाहते हैं हम। कि ये हमारे महबूब मंटो की फ़िल्म है। ये सब हमारी चाह थी। लेकिन ये हमारी फ़िल्म नहीं, नंदिता की फ़िल्म है, नवाज़ की फ़िल्म है और उन्होंने अपने हिसाब से क़िस्से चुने हैं, कहानी बुनी है। फ़िल्म देखते हुए हम इतना कुछ सोचते नहीं। हम मंटो के साथ तड़प रहे होते हैं। मंटो, कि जिसे पिता, माँ और पहले बेटे की क़ब्र हिंदुस्तान में है। मंटो जो कि इस बँटवारे में बँटा हुआ है। कि जिसे इस बात से बेहद तकलीफ़ होती है कि उसके अफ़साने को फहश कहा जा रहा है। कि फ़ैज़ ने उसके अफ़साने को लिटरेचर नहीं कहा। हम मंटो के दो दुनिया में बँटे हुए दुःख को जीते हैं। उसके साथ तड़पते हैं। शाद जब उसे हर जगह से खींच कर शराब पीने ले जाता है तो हम तकलीफ़ में होते हैं कि ऐसे दोस्तों के कारण इतनी कम उम्र में मर गया मंटो। फ़िल्म देखते हुए हम उस तकलीफ़ को समझते हैं जो मंटो को महसूस होती थी, उसकी पूरी भयानकता में। ये इस फ़िल्म की कामयाबी है। नवाज़ जब फ़र्श पर बैठ कर पेंसिल से काग़ज़ पर लिख रहे होते हैं, वे मंटो होते हैं। जब अपने अफ़साने की क़ीमत के लिए लड़ रहे होते हैं, हम समझते हैं कि उन्हें पैसों की कितनी सख़्त ज़रूरत रही होगी। दुनिया जैसी है उसे वैसा लिख पाने की जिस तकलीफ़ से लेखक - मंटो गुज़रता है, हम उसे जी रहे होते हैं। ये काफ़ी दुर्लभ है इन दिनों। और इसलिए ऐसी फ़िल्में बननी चाहिए। हमारे तरफ़ लोग अक्सर कहते हैं ‘राम नाम टेढ़ो भला’। तो मंटो पर बनी कोई फ़िल्म हमें ख़राब तो लग ही नहीं सकती है। मंटो जैसे किरदार पर ख़राब फ़िल्म बनायी भी नहीं जा सकती। नामुमकिन है। आप मंटो को प्यार करते हैं तो फ़िल्म ज़रूर देखिए। आप मंटो को जानना चाहते हैं तो फ़िल्म ज़रूर देखिए। हाँ, उसके बाद मंटो की कहानियाँ पढ़िए… मंटो वहीं मिलेगा, ख़ालिस।
मंटो के बारे में एक क़िस्सा पढ़ा था। कि एक ताँगे पर चलते हुए सवारी ने बात बात में कहा कि मंटो मर गया। ताँगेवाले ने घोड़े की लगाम खींच ली, ताँगा रुक गया, फिर उसने अचरज मिले दुःख में पूछा, ‘क्या, मंटो मर गया! साहब अब ये ताँगा आगे नहीं जाएगा। आप कोई दूसरा देख लो’। फ़िल्म ख़त्म हुयी है। मैं बस ये सोच रही हूँ। मैं अगर फ़िल्म बनाती तो यहाँ ख़त्म करती।
महबूब मंटो है। हम उसे अपने अपने तरीक़े से प्यार करने के लिए आज़ाद हैं। मंटो को अपनी नज़र से देखने और दुनिया को उससे मिलवाने के लिए भी। शुक्रिया नंदिता। शुक्रिया नवाज़। मंटो को यूँ परदे पर ज़िंदा करने के लिए। कि मंटो ने ठीक ही तो कहा था, सादत हसन मर गया पर मंटो ज़िंदा है।
Published on September 21, 2018 22:06
September 20, 2018
हसरतों के शहर
वक़्त उड़ता चला जाता है, हमें ख़बर नहीं होती। इन दिनों कुछ पढ़ लिख नहीं पा रही। एक पैराग्राफ़ से ज़्यादा दिमाग़ में कुछ अटकता ही नहीं। कितनी किताबें पढ़ पढ़ के रख दीं, आधी अधूरी। सब में कोई ना कोई दिक़्क़त लग रही है। कविताएँ भी उतनी पसंद नहीं आ रही हैं जितनी आती थीं।
दरअसल दो महीने से ऊपर होने को आए घर में रहते हुए। हमारे जैसा घुमक्कड़ इंसान घर में रह नहीं सकता इतने दिन। टैक्सी पर निर्भर रहना। मुश्किल से कहीं जाना। फ़िल्म वग़ैरह भी बंद है।
कल बहुत दिन बाद काग़ज़ क़लम से लिखे। बहुत अच्छा लगा। धीरे धीरे ही सही, लौट आएँगे सारे किरदार। लिखना भी इसलिए। कि धीरे धीरे धुन लौटेगी। किसी धुंध के पीछे से ही सही।
निर्मल को पढ़ती हूँ फिर से...लगता है उनके सफ़र में कितना कुछ सहेजते चलते थे वो। इन दिनों अक्सर ये ख़याल आता है कि जेंडर पर बात कम होती है लेकिन कितनी चीज़ें हैं जो पुरुषों के लिए एकदम आसान है लेकिन एक स्त्री होने के कारण उन्हीं चीज़ों को करना एक जंग लड़ने से कम नहीं होता हमारे लिए। सबसे ज़रूरी अंतर जो आता है वो सफ़र से जुड़ा हुआ है। अपने देश में सोलो ट्रिप आज भी किसी औरत के लिए प्लान करना बहुत मुश्किल है। चाहे वो उम्र के किसी पड़ाव पर रही हो। अकेले सफ़र करना, होटल के कमरे में अकेले रहना या के अकेले घूमना ही। सुरक्षा सबसे बड़ी चीज़ हो जाती है। सड़कें, शहर, रहने की जगहें...'अकेली लड़की खुली तिजोरी के समान होती है' के डाइयलोग पर लोग हँसे बहुत, लेकिन ये एकदम सच है। इससे हम कितने कुछ से वंचित रह जाते हैं। मेरी जानपहचान में जितने लड़के हैं, इत्तिफ़ाक़ से वे कुछ ऐसे ही घुमक्कड़ रहे हैं। मैं देखती हूँ उन्होंने कितनी जगहें देख रही हैं कि सफ़र उनके लिए हमेशा बहुत आसान रहा। चाहे देश के छोटे शहर हों या विदेश के अपरिचित शहर।
मुझे आज ये बात इस तरह इसलिए भी साल रही है कि पिछले साल इसी दिन मैं न्यू यॉर्क गयी थी। मेरा पहला सोलो ट्रिप। मैं अकेली गयी थी, अकेली होटल में ठहरी थी, अकेली घूमी थी शहर और म्यूज़ीयम। उस ट्रिप ने मुझे बहुत हद तक बदल दिया। मैं ऐसे और शहर चाहती हूँ अपनी ज़िंदगी में। ऐसे और सफ़र। कि मुझे दोस्तों और परिवार के साथ घूमना अच्छा लगता है लेकिन मुझे अकेले घूमना भी अच्छा लगता है। ऐसे कई शहर हैं जो मैं अकेली जाना चाहती हूँ।
१. फ्नोम पेन (Phnom Penh) कम्बोडिया की राजधानी। जब से In the mood for love देखी है इस शहर जा कर अंगकोर वात देखने की तीव्र इच्छा जागी है। मैं अकेले जाना चाहती हूँ ताकि फ़ुर्सत में देख सकूँ, ठहर सकूँ और कैमरा से तस्वीरें खींच सकूँ। २. कन्नौज। बहुत दिन पहले एक सुंदर आर्टिकल पढ़ी थी मिट्टी अत्तर के बारे में। कन्नौज तब से मेरी सोलो ट्रिप की लिस्ट में है। मैं यहाँ अकेले जाना चाहती हूँ और इस इत्र को बनाने वाले लोगों से मिलना चाहती हूँ। ये इत्र गरमियों में बनता है, इस साल तो जाने का वक़्त बीत चुका है। अगले साल देखते हैं। कन्नौज में घुमाने के लिए एक दोस्त ने वोलंटियर भी किया है कि उसके घर के पास है शहर। ३. पौंडीचेरी. मैं बैंगलोर से कई बार जा चुकी हूँ लेकिन हमेशा दोस्तों या परिवार के साथ। मैं वहाँ अकेले जा कर कुछ दिन रहना चाहती हूँ। अपने हिसाब से शहर घूमना चाहती हूँ और लिखना चाहती हूँ। ४. न्यू यॉर्क। कई कई बार। मैं वहाँ कोई राइटर फ़ेलोशिप लेकर कुछ दिन रहना चाहती हूँ और उस शहर को जीना चाहती हूँ। कि बेइंतहा मुहब्बत है न्यू यॉर्क से। ५. दिल्ली। मैं दिल्ली जब भी आती हूँ अपने ससुराल में रहती हूँ। मैं कुछ दिन किसी हॉस्टल में रह कर दिल्ली को फ़ुर्सत से देखना चाहती हूँ। लिखना चाहती हूँ कुछ क़िस्से। ६. मनाली। बचपन में मनाली गयी थी तो हिडिंबा देवी के मंदिर जाते हुए सेब के बाग़ान इतने सुंदर लगे थे। फिर ऊँची पहाड़ी से नीचे देखना भी बहुत ही सुंदर लगा था। ७. केरल बैकवॉटर्ज़। हाउसबोट में रहना और लिखना। कई और शहर हैं जिनके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं है। पर सोचना चाहती हूँ। रहना चाहती हूँ। जीना चाहती हूँ थोड़ा और खुल कर।
दरअसल दो महीने से ऊपर होने को आए घर में रहते हुए। हमारे जैसा घुमक्कड़ इंसान घर में रह नहीं सकता इतने दिन। टैक्सी पर निर्भर रहना। मुश्किल से कहीं जाना। फ़िल्म वग़ैरह भी बंद है।
कल बहुत दिन बाद काग़ज़ क़लम से लिखे। बहुत अच्छा लगा। धीरे धीरे ही सही, लौट आएँगे सारे किरदार। लिखना भी इसलिए। कि धीरे धीरे धुन लौटेगी। किसी धुंध के पीछे से ही सही।
निर्मल को पढ़ती हूँ फिर से...लगता है उनके सफ़र में कितना कुछ सहेजते चलते थे वो। इन दिनों अक्सर ये ख़याल आता है कि जेंडर पर बात कम होती है लेकिन कितनी चीज़ें हैं जो पुरुषों के लिए एकदम आसान है लेकिन एक स्त्री होने के कारण उन्हीं चीज़ों को करना एक जंग लड़ने से कम नहीं होता हमारे लिए। सबसे ज़रूरी अंतर जो आता है वो सफ़र से जुड़ा हुआ है। अपने देश में सोलो ट्रिप आज भी किसी औरत के लिए प्लान करना बहुत मुश्किल है। चाहे वो उम्र के किसी पड़ाव पर रही हो। अकेले सफ़र करना, होटल के कमरे में अकेले रहना या के अकेले घूमना ही। सुरक्षा सबसे बड़ी चीज़ हो जाती है। सड़कें, शहर, रहने की जगहें...'अकेली लड़की खुली तिजोरी के समान होती है' के डाइयलोग पर लोग हँसे बहुत, लेकिन ये एकदम सच है। इससे हम कितने कुछ से वंचित रह जाते हैं। मेरी जानपहचान में जितने लड़के हैं, इत्तिफ़ाक़ से वे कुछ ऐसे ही घुमक्कड़ रहे हैं। मैं देखती हूँ उन्होंने कितनी जगहें देख रही हैं कि सफ़र उनके लिए हमेशा बहुत आसान रहा। चाहे देश के छोटे शहर हों या विदेश के अपरिचित शहर।
मुझे आज ये बात इस तरह इसलिए भी साल रही है कि पिछले साल इसी दिन मैं न्यू यॉर्क गयी थी। मेरा पहला सोलो ट्रिप। मैं अकेली गयी थी, अकेली होटल में ठहरी थी, अकेली घूमी थी शहर और म्यूज़ीयम। उस ट्रिप ने मुझे बहुत हद तक बदल दिया। मैं ऐसे और शहर चाहती हूँ अपनी ज़िंदगी में। ऐसे और सफ़र। कि मुझे दोस्तों और परिवार के साथ घूमना अच्छा लगता है लेकिन मुझे अकेले घूमना भी अच्छा लगता है। ऐसे कई शहर हैं जो मैं अकेली जाना चाहती हूँ।
१. फ्नोम पेन (Phnom Penh) कम्बोडिया की राजधानी। जब से In the mood for love देखी है इस शहर जा कर अंगकोर वात देखने की तीव्र इच्छा जागी है। मैं अकेले जाना चाहती हूँ ताकि फ़ुर्सत में देख सकूँ, ठहर सकूँ और कैमरा से तस्वीरें खींच सकूँ। २. कन्नौज। बहुत दिन पहले एक सुंदर आर्टिकल पढ़ी थी मिट्टी अत्तर के बारे में। कन्नौज तब से मेरी सोलो ट्रिप की लिस्ट में है। मैं यहाँ अकेले जाना चाहती हूँ और इस इत्र को बनाने वाले लोगों से मिलना चाहती हूँ। ये इत्र गरमियों में बनता है, इस साल तो जाने का वक़्त बीत चुका है। अगले साल देखते हैं। कन्नौज में घुमाने के लिए एक दोस्त ने वोलंटियर भी किया है कि उसके घर के पास है शहर। ३. पौंडीचेरी. मैं बैंगलोर से कई बार जा चुकी हूँ लेकिन हमेशा दोस्तों या परिवार के साथ। मैं वहाँ अकेले जा कर कुछ दिन रहना चाहती हूँ। अपने हिसाब से शहर घूमना चाहती हूँ और लिखना चाहती हूँ। ४. न्यू यॉर्क। कई कई बार। मैं वहाँ कोई राइटर फ़ेलोशिप लेकर कुछ दिन रहना चाहती हूँ और उस शहर को जीना चाहती हूँ। कि बेइंतहा मुहब्बत है न्यू यॉर्क से। ५. दिल्ली। मैं दिल्ली जब भी आती हूँ अपने ससुराल में रहती हूँ। मैं कुछ दिन किसी हॉस्टल में रह कर दिल्ली को फ़ुर्सत से देखना चाहती हूँ। लिखना चाहती हूँ कुछ क़िस्से। ६. मनाली। बचपन में मनाली गयी थी तो हिडिंबा देवी के मंदिर जाते हुए सेब के बाग़ान इतने सुंदर लगे थे। फिर ऊँची पहाड़ी से नीचे देखना भी बहुत ही सुंदर लगा था। ७. केरल बैकवॉटर्ज़। हाउसबोट में रहना और लिखना। कई और शहर हैं जिनके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं है। पर सोचना चाहती हूँ। रहना चाहती हूँ। जीना चाहती हूँ थोड़ा और खुल कर।
Published on September 20, 2018 03:55


