तुम मुझसे किसी कहानी में मिलोगे कभी?



वैसे तो पेज पर कभी भी सच का कुछ एकदम नहीं लिखती हूँ। लेकिन कभी कभी लगता है कि सकेर देने के लिए और कोई भी जगह नहीं है मेरे पास। तो वैसे में। एक मुट्ठी सच यहीं रख देती हूँ।

कुछ महीनों पहले, ऐसे ही एक रैंडम सी शाम में एक लड़के से मिली थी। कुछ बातें की, थोड़ी कॉफ़ी पी और थोड़ा वक़्त साथ में बिताया। कल Coke Studio पर कोई गाना सुन रही थी। ऑटोप्ले में 'रंजिश ही सही' बजने लगा अगला...ये हमने उस दिन ऐसे ही गुनगुनाया था और एक लाइन पर अटक गए थे। याद ही नहीं आ रहा था कि कौन सी लाइन है। कल इसे सुनते हुए उसकी याद आयी।

रात आधी गुज़र गयी थी। Whatsapp पर मेसेज भेजा उसे। एक सुंदर कविता की कुछ पंक्तियाँ।
बात में यूँ ही बात हुयी तो उसने कहा, बात किया करो, ख़ुश रहोगी...मैंने कहा, वक़्त है तुम्हारे पास...
उसने जवाब दिया, 'वक़्त ही वक़्त है...हक़ से माँग कर देखो...माँगने वाले नहीं हैं।'
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मुझे ये बात बहुत उदास कर गयी। इसकी दो सच्चाइयों के कारण। पहली ये कि मैं कभी किसी से हक़ से कुछ माँगती नहीं। किसी से भी नहीं। परिवार से नहीं। दोस्तों से नहीं। पति से भी नहीं। बेस्ट फ़्रेंड से भी नहीं। जब से माँ नहीं रही, मैंने हक़ से किसी से तो क्या ईश्वर से भी कभी कुछ नहीं माँगा। 'हक़' क्या होता है। कैसे जताते हैं हक़ किसी पर?

'माँगने वाले लोग नहीं हैं'। ये भी उतना ही सच है। मैंने देखा है, कभी कभी कोई कुछ इतने प्यार और अधिकार से माँग लेता है कि मना करने को एकदम दिल नहीं करता। छोटी छोटी चीज़ें जो नॉर्मली एकदम से मेरा दिमाग़ ख़राब कर देती हैं...जैसे कि कोई मुझे दीदी कहता है तो अधिकतर मुझे ग़ुस्सा आता है...लेकिन एक बार किसी एकदम ही रैंडम से लड़के ने सीधे जिज्जी ही कहा था...उसके उस अनाधिकार पर भी ग़ुस्सा नहीं आया। पता नहीं क्यूँ। शायद ईमानदारी से कहा होगा। शायद शब्द सही रहे होंगे। ठीक नहीं मालूम। पर उसे टोका नहीं। डाँटा नहीं।

ऐसे ही एक लड़की थी...मालूम नहीं कितने साल पहले...मगर उसने अधिकार जताया था...मेरी धूप पर, मेरी छांव पर, मेरे दुःख पर, मेरी यादों पर...और मैंने कहीं भी उसके लिए दरवाज़े बंद नहीं किए थे। ऐसी एक लड़की। थी।

मुझे माँगने में बहुत हिचक होती है। बहुत ज़्यादा। मरती रहूँगी लेकिन एक अंजुली जल नहीं माँगूँगी किसी से। एक शब्द से बुझेगी प्यास लेकिन कहूँगी नहीं किसी से। किसी किसी शाम बस इतना लगेगा कि दुनिया बहुत बेरहम है। कि जो लोग हमेशा ख़ुद को उलीचते रहते है वे कभी कभी एकदम ही ख़ाली हो जाते हैं। तो, ओ री दुनिया, मेरे हिस्से में भी तो थोड़ा प्यार रख।

फिर कभी कभी ऐसा रैंडम सा कोई होता है। कहता है, कैसे तो, हक़ से क्यूँ नहीं माँगती तुम। मुझे याद आते हैं बहुत से शब्द। दिल का गहरा ज़ख़्म भरता है। शब्द के कुएँ में प्यार भी।
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मैं ऊनींदे होती हूँ जब उसका फ़ोन आता है। रात के ढाई बज रहे हैं।फ़ोन की स्क्रीन पर उसकी तस्वीर है। फ़ुल लेंथ। वो मुस्कुरा रहा है। मुझे लगता है फ़ोन की स्क्रीन छूने से मैं छू लूँगी उसको। मैं तकलीफ़ के अतल कुएँ में हूँ। सोचती हूँ उसका फ़ोन उठाऊँ या नहीं। लेकिन फिर रहा नहीं जाता।

मैं नींद में उलझी, नाम लेती हूँ उसका, 'सुनो, मैं सो चुकी हूँ।'। उसकी आवाज़ कोई थपकी है। माथे पर चूमा जाना है। उसकी आवाज़ उसका मेरे क़रीब होना है।
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उसको मालूम नहीं है। पर उसने मुझे उस रात की मृत्यु से बचा लिया है। मैं अपनी बेस्ट फ़्रेंड को कहती हूँ। मेरा उसे 'फ़रिश्ते' बुलाने का मन करता है।
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ज़िंदगी के किरदार सारे झूठे हैं।
सच सिर्फ़ कहानियों में मिलता है।

तुम मुझसे किसी कहानी में मिलोगे कभी?
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Published on November 20, 2017 22:53
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