Gaurav Sharma Lakhi's Blog, page 12
July 23, 2014
कविता की मुक्ति मेरे मरने की खबर जब मिल...
कविता की मुक्ति
मेरे मरने की खबर
जब मिले तुमको ,
एक कमरे में कुछ देर को,
समेट लेना खुदको |
मूँद कर आखें अपनी ,
दो आंसू गिरा देना ,
दुःख हुआ है तुमको ,
बस इतना बता देना |
हौले से एक बार
मेरा नाम बुदबुदा देना,
झूठी ही सही,
हलकी सी श्रदांजलि दे देना |
फिर मनमें दोहराना ,
मेरी वही कविता ,
जो तुम्हें सबसे
अच्छी लगती है |
जानता हूँ तुमने ,
बहुत बार पड़ी है ,
पर आखिरी बार ,
कुछ इस तरह पढ़ना ,
जैसे पिंड-दान के समय ,
पुरखों को याद करते हैं |
हर शब्द को महसूस करना ,
हर पंक्ति का तर्पण कर देना |
वो शब्द जानते हैं ,
तुम्हारे लिए रचे गए थे ,
निश्छल थे , निष्पाप थे ,
पर मेरे भाग्य से जुड़े हुए थे|
वो भी तो छले गए थे |
कुछ इस तरह पढ़ना,
हर शब्द को मोक्ष मिल जाये ,
कवि को मिले न मिले ,
कविता को मुक्ति मिल जाये |
कहीं लिखी हो तो ,
फाड़ लेना वो पन्ना ,
और जला डालना ,
राख़ को पलाश के पेड़
के नीचे डाल आना |
फिर खिड़की पर आ जाना ,
एक स्याह छोटा सा ,
बादल उड़ता दिखेगा ,
नज़रें मिलते ही ,
वो मुस्कुरा देगा ,
मेरी रूह का तुमको ,
वो आखिरी सलाम होगा |
जैसे ही वो गुजरेगा ,
एक सन्नाटा पसरेगा ,
फुहारें शुरू हो जाएँगी ,
मेरी बातें , हवा के
झोंकों के संग ,
तुम्हारे गालों से टकराएंगी |
तुम्हारी लटें , उन बातों को ,
लपेटने को लहराती होंगी ,
मेरा कुछ कहना ,
फिर माफ़ी माँगना ,
देखना तुम मुस्कुरा दोगी |
यूँ ही दिन गुज़र जायेगा ,
वक़्त एक नया सवेरा लाएगा ,
सब कुछ वैसा ही होगा ,
पर पलाश के फूल ,
कुछ और सुर्ख होंगे ,
मेरी कविता में भावनाएं ,
ही इतनी थीं कि,
वो कहीं तो रंग दिखाएंगी हीं|
मेरे मरने की खबर
जब मिले तुमको ,
एक कमरे में कुछ देर को,
समेट लेना खुदको |
मूँद कर आखें अपनी ,
दो आंसू गिरा देना ,
दुःख हुआ है तुमको ,
बस इतना बता देना |
हौले से एक बार
मेरा नाम बुदबुदा देना,
झूठी ही सही,
हलकी सी श्रदांजलि दे देना |
फिर मनमें दोहराना ,
मेरी वही कविता ,
जो तुम्हें सबसे
अच्छी लगती है |
जानता हूँ तुमने ,
बहुत बार पड़ी है ,
पर आखिरी बार ,
कुछ इस तरह पढ़ना ,
जैसे पिंड-दान के समय ,
पुरखों को याद करते हैं |
हर शब्द को महसूस करना ,
हर पंक्ति का तर्पण कर देना |
वो शब्द जानते हैं ,
तुम्हारे लिए रचे गए थे ,
निश्छल थे , निष्पाप थे ,
पर मेरे भाग्य से जुड़े हुए थे|
वो भी तो छले गए थे |
कुछ इस तरह पढ़ना,
हर शब्द को मोक्ष मिल जाये ,
कवि को मिले न मिले ,
कविता को मुक्ति मिल जाये |
कहीं लिखी हो तो ,
फाड़ लेना वो पन्ना ,
और जला डालना ,
राख़ को पलाश के पेड़
के नीचे डाल आना |
फिर खिड़की पर आ जाना ,
एक स्याह छोटा सा ,
बादल उड़ता दिखेगा ,
नज़रें मिलते ही ,
वो मुस्कुरा देगा ,
मेरी रूह का तुमको ,
वो आखिरी सलाम होगा |
जैसे ही वो गुजरेगा ,
एक सन्नाटा पसरेगा ,
फुहारें शुरू हो जाएँगी ,
मेरी बातें , हवा के
झोंकों के संग ,
तुम्हारे गालों से टकराएंगी |
तुम्हारी लटें , उन बातों को ,
लपेटने को लहराती होंगी ,
मेरा कुछ कहना ,
फिर माफ़ी माँगना ,
देखना तुम मुस्कुरा दोगी |
यूँ ही दिन गुज़र जायेगा ,
वक़्त एक नया सवेरा लाएगा ,
सब कुछ वैसा ही होगा ,
पर पलाश के फूल ,
कुछ और सुर्ख होंगे ,
मेरी कविता में भावनाएं ,
ही इतनी थीं कि,
वो कहीं तो रंग दिखाएंगी हीं|
Published on July 23, 2014 20:49
July 15, 2014
यादों की साज़िश- एक कहानी कविता में कभी कोई शय सारी की सार...
यादों की साज़िश- एक कहानी कविता में
कभी कोई शय सारी की सारी धुप पी जाती है,
कभी बुझी रात में भी चिंगारी सुलग जाती है '
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
सूनापन परोसकर दबे पाँव,
अभी अभी दोपहर गुज़र गयी है |
उदासी की पोटली उठाये दूर,
कुटिल शाम दस्तक दे रही है |
बादल दिन की आँखों में,
जबरन काजल लगा देते हैं,
हवा भी फ़िज़ा को किरकिरे
आँचल में लपेटे है |
रुआंसे अकेलेपन को नकली मुस्कान
मीठी गोली खिलाती है,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
वक़्त के दिखाए सपनो से,
उमंग और ज़ज़्बात के वादों से,
मसरूफियत के कमरे में बंद,
मैं दूर ही रहता हूँ यादों से |
पर बांसुरी बेच रहा लड़का
बजाता है धुन भूले गीत की,
और गूँज जाती हैं बंद कमरे में,
प्यारी सी बातें रूठे मीत की |
उसकी मीठी बोली कानों को,
पिघले कांच सी लगती हैं,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
जब कभी बादलों की मृदंग पर,
बूँदें नाचने लगती हैं,
मेरे खिड़कियों के कांच पर,
जानबूझकर बजती हैं |
मेरे ख्यालों के बागीचे में,
सूखी मिटटी महकने लगती है,
पलकें मूंदे, बाहें फैलाये,
वो फुहारों से खेलने लगती है|
उसका बारिश में यूँ अकेली भीगते,
दिखाकर यादें मुझे जलाती हैं,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
एक चिड़िया जब जब दिखती,
आँखें मूँद मुराद मांग लेती थीं तुम |
हर बार मुरादों की गुल्लक भरके,
कितने खुश हो जाते थे हम |
किन्नर जब कभी मिल जाते थे,
तुम मुझसे पैसे दिलवाती थीं,
चुन्नी से ढककर सर अपना,
आशीर्वाद लेकर इतराती थीं |
वही झूठी चिड़िया खिड़की पर,
सुबह-शाम मुझे चिढ़ाती है,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
दस रूपये के बदले में भिखारिन,
दुआओं की झड़ी लगा देती है,
मनचाहा साथी मिले मुझे,
चार बार दोहरा देती है |
मैं खीजकर उसे डपटता हूँ,
वो सहमकर चुप हो जाती है,
अच्छी दुआ पर मेरा भड़कना,
पगली समझ नहीं पति है |
बार बार बहाने से किस्मत,
मेरे घावों पर नमक लगाती है,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
गौरव शर्मा
कभी कोई शय सारी की सारी धुप पी जाती है,
कभी बुझी रात में भी चिंगारी सुलग जाती है '
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
सूनापन परोसकर दबे पाँव,
अभी अभी दोपहर गुज़र गयी है |
उदासी की पोटली उठाये दूर,
कुटिल शाम दस्तक दे रही है |
बादल दिन की आँखों में,
जबरन काजल लगा देते हैं,
हवा भी फ़िज़ा को किरकिरे
आँचल में लपेटे है |
रुआंसे अकेलेपन को नकली मुस्कान
मीठी गोली खिलाती है,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
वक़्त के दिखाए सपनो से,
उमंग और ज़ज़्बात के वादों से,
मसरूफियत के कमरे में बंद,
मैं दूर ही रहता हूँ यादों से |
पर बांसुरी बेच रहा लड़का
बजाता है धुन भूले गीत की,
और गूँज जाती हैं बंद कमरे में,
प्यारी सी बातें रूठे मीत की |
उसकी मीठी बोली कानों को,
पिघले कांच सी लगती हैं,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
जब कभी बादलों की मृदंग पर,
बूँदें नाचने लगती हैं,
मेरे खिड़कियों के कांच पर,
जानबूझकर बजती हैं |
मेरे ख्यालों के बागीचे में,
सूखी मिटटी महकने लगती है,
पलकें मूंदे, बाहें फैलाये,
वो फुहारों से खेलने लगती है|
उसका बारिश में यूँ अकेली भीगते,
दिखाकर यादें मुझे जलाती हैं,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
एक चिड़िया जब जब दिखती,
आँखें मूँद मुराद मांग लेती थीं तुम |
हर बार मुरादों की गुल्लक भरके,
कितने खुश हो जाते थे हम |
किन्नर जब कभी मिल जाते थे,
तुम मुझसे पैसे दिलवाती थीं,
चुन्नी से ढककर सर अपना,
आशीर्वाद लेकर इतराती थीं |
वही झूठी चिड़िया खिड़की पर,
सुबह-शाम मुझे चिढ़ाती है,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
दस रूपये के बदले में भिखारिन,
दुआओं की झड़ी लगा देती है,
मनचाहा साथी मिले मुझे,
चार बार दोहरा देती है |
मैं खीजकर उसे डपटता हूँ,
वो सहमकर चुप हो जाती है,
अच्छी दुआ पर मेरा भड़कना,
पगली समझ नहीं पति है |
बार बार बहाने से किस्मत,
मेरे घावों पर नमक लगाती है,
यादें भी मुझे रुलाने को
कैसी कैसी साज़िशें रचाती हैं |
गौरव शर्मा
Published on July 15, 2014 02:14
July 3, 2014
अमिट प्रेम...भावनाएं तर्कों के वशीभूत नहीं होतीं,अरु परिस...
अमिट प्रेम...
भावनाएं तर्कों के वशीभूत नहीं होतीं,
अरु परिस्थितियों के अधीन नहीं होतीं |
समय के थपेड़ों ने प्रयास अनेक किये मगर,
प्रेम की डोरियाँ इतनी महीन नहीं होतीं |
उत्तरदायित्वों के पहाड़ बड़े सशक्त होते हैं,
पेट की आग, अपनों की आस, बंधन होते हैं |
तेरे मेरे बीच में सब बाधा बनते गए मगर,
मन में बसी छवि को कहाँ निकाल पाते हैं |
समय बीतता रहा, समय बीत गया,
तुम कुछ हो गयीं, मैं कुछ हो गया |
भाग्य के काँटों में उलझ गया जीवन मगर,
हमारी आत्माओं का सम्बन्ध प्रबल हो गया |
अनुकूलता में निराशा हावी हो जाती थी,
असफलता की वेदना में साँसें करहाती थीं |
सब कुछ धुंधला जाता, मैं हार जाता था मगर,
तुम्हारी एक आवाज़ मुझे आगे बड़ा जाती थी |
आँधियाँ मंद होती गयीं, जीवन निखरता गया,
आयु में वर्ष जुड़ते रहे, अनुभव भी बढ़ता गया |
विवेक समझ गया, हमारे जीवन समान्तर रेखाएं हैं,
नए रिश्तों की कड़ियों में वो प्यार भी जुड़ता गया |
हृदय सलेट होता, तो मिटाकर पुनः लिख लिया जाता,
स्मृतियों के अवशेषों को कहीं दूर फ़ेंक दिया जाता |
समय चलता रहा, सुख दुःख आते जाते रहे मगर,
तुम्हारी अनुभूति को मिटाता भी तो कैसे मिटा पाता |
मेरी कल्पनाओं में मेरी ईष्ट बन कईं थीं तुम,
अकेला दीखता था, पर हमेशा मेरे पास होती थीं तुम |
मैं बांटता रहा तुम संग अपने सुख-दुःख सब कुछ,
जैसे भगवान नहीं होता, वैसे ही नहीं होतीं थीं तुम |
गौरव शर्मा
भावनाएं तर्कों के वशीभूत नहीं होतीं,
अरु परिस्थितियों के अधीन नहीं होतीं |
समय के थपेड़ों ने प्रयास अनेक किये मगर,
प्रेम की डोरियाँ इतनी महीन नहीं होतीं |
उत्तरदायित्वों के पहाड़ बड़े सशक्त होते हैं,
पेट की आग, अपनों की आस, बंधन होते हैं |
तेरे मेरे बीच में सब बाधा बनते गए मगर,
मन में बसी छवि को कहाँ निकाल पाते हैं |
समय बीतता रहा, समय बीत गया,
तुम कुछ हो गयीं, मैं कुछ हो गया |
भाग्य के काँटों में उलझ गया जीवन मगर,
हमारी आत्माओं का सम्बन्ध प्रबल हो गया |
अनुकूलता में निराशा हावी हो जाती थी,
असफलता की वेदना में साँसें करहाती थीं |
सब कुछ धुंधला जाता, मैं हार जाता था मगर,
तुम्हारी एक आवाज़ मुझे आगे बड़ा जाती थी |
आँधियाँ मंद होती गयीं, जीवन निखरता गया,
आयु में वर्ष जुड़ते रहे, अनुभव भी बढ़ता गया |
विवेक समझ गया, हमारे जीवन समान्तर रेखाएं हैं,
नए रिश्तों की कड़ियों में वो प्यार भी जुड़ता गया |
हृदय सलेट होता, तो मिटाकर पुनः लिख लिया जाता,
स्मृतियों के अवशेषों को कहीं दूर फ़ेंक दिया जाता |
समय चलता रहा, सुख दुःख आते जाते रहे मगर,
तुम्हारी अनुभूति को मिटाता भी तो कैसे मिटा पाता |
मेरी कल्पनाओं में मेरी ईष्ट बन कईं थीं तुम,
अकेला दीखता था, पर हमेशा मेरे पास होती थीं तुम |
मैं बांटता रहा तुम संग अपने सुख-दुःख सब कुछ,
जैसे भगवान नहीं होता, वैसे ही नहीं होतीं थीं तुम |
गौरव शर्मा
Published on July 03, 2014 21:24
June 30, 2014
&nb...
रात का पैगाम
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही,
फलक से तोड़ लाई थी सपने, वही दिखलाती रही|
सुबह जब मैं जगा तो आँखें बागी हो चुकी थी,
देर तक सपने सच करने को मुझे उकसाती रहीं |
एक चेहरा, एक ख्वाहिश,और कुचले हुए ज़ज़्बात,
अतीत याद दिलाकर मुझे चुनौती दे रही थी रात |
हसरतें जी सकूँ मेरा वो वक़्त तो बीत चुका है ,
किन्तु खुद को साबित करूँ मैं, यही समझाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|
टूटे सपनों पर रोना आंसुओं का अपमान होता है |
नए सपने देखो,वक़्त बहुत बलवान होता है |
भाग्य को दिखाना है गलती वो भी करता है,
बुझी उमंगों की लौ फिर जलाने को मनाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|
देवालय में पत्थर को देवता मान पूजते हैं सब |
तीर्थों में, मंदिरों में, भगवान खोजते हैं सब |
वो नहीं मिलता तो आस्था टूट नहीं जाती ,
प्यार का अर्थ उदाहरणों में मुझे बताती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही |
मायूस ज़िन्दगी में ख्वाहिशों की बारिश होने दो |
बढ़े चलो, हों कितनी ही, साज़िश चाहे होने दो |
जो न मिला किस्मत से, उसे ताकत बना लो तुम ,
जिंदगी जीने का अजब फलसफा सिखाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|
गौरव शर्मा
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही,
फलक से तोड़ लाई थी सपने, वही दिखलाती रही|
सुबह जब मैं जगा तो आँखें बागी हो चुकी थी,
देर तक सपने सच करने को मुझे उकसाती रहीं |
एक चेहरा, एक ख्वाहिश,और कुचले हुए ज़ज़्बात,
अतीत याद दिलाकर मुझे चुनौती दे रही थी रात |
हसरतें जी सकूँ मेरा वो वक़्त तो बीत चुका है ,
किन्तु खुद को साबित करूँ मैं, यही समझाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|
टूटे सपनों पर रोना आंसुओं का अपमान होता है |
नए सपने देखो,वक़्त बहुत बलवान होता है |
भाग्य को दिखाना है गलती वो भी करता है,
बुझी उमंगों की लौ फिर जलाने को मनाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|
देवालय में पत्थर को देवता मान पूजते हैं सब |
तीर्थों में, मंदिरों में, भगवान खोजते हैं सब |
वो नहीं मिलता तो आस्था टूट नहीं जाती ,
प्यार का अर्थ उदाहरणों में मुझे बताती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही |
मायूस ज़िन्दगी में ख्वाहिशों की बारिश होने दो |
बढ़े चलो, हों कितनी ही, साज़िश चाहे होने दो |
जो न मिला किस्मत से, उसे ताकत बना लो तुम ,
जिंदगी जीने का अजब फलसफा सिखाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|
गौरव शर्मा
Published on June 30, 2014 02:40
June 26, 2014
DO YOU HAVE TIME FOR GRUDGES??? Abraham Linco...



This write up is a suggestion to those who are serious and passionate about their ambitions in life. You will always find people who would criticize you, would not agree with you on certain issues or would be living only to object to your ways.Listen to them carefully, without trying to prove your righteousness, nor show dissent.Utilize your unproductive time to ponder on it. If you find something worthy that may help in your personal improvement, follow it and thank them for helping in mending yourself, else ignore them.Before you indulge in an argument, always think what will you get out of arguing?Is it a debate competition? Winning it would earn you recognition and glory?

It can ferment your own mood and keep you disturbed long after the argument is over, preventing you from concentrating on something productive.Sometimes, we end up pouring out anger on others and have to beg for their pardon later. It will kill useful time that could have been utilized in doing something else.
Think, what importance does your proving yourself right against that person hold? He may not be the last person to challenge you. Someone will stand up the next day asking you to validate yourself. Next day, someone else may do the same.Somewhere, sometimes you will have to draw a line, not for others to stop pestering you; but for yourself to not allow yourself be bothered by such people Your achieving success in your endeavour should be your answer.However, arguments can’t always be avoided. Often we are dragged into or sometimes, we are compelled to prove a point.In such cases, controlling anger is prerequisite.Anger proves you wrong even before you say anything.Be calm and composed.Choose your words cautiously. Your utterance must not hurt, it must not emancipate hatred and it shouldn’t ignite rage.If you think, the situation is too heated up that it will be difficult to restrain humility, walk out of it seeking an excuse, amicably and promising to take it up some other time.


Published on June 26, 2014 21:33
June 25, 2014
&nb...

RADIO JOCKEYS BETTER MIND THEIR LIMITS
I normally don’t get time to listen to Radio though I am a fan of old Hindi songs. So, when I drive, my car stereo plays FM.
Yesterday, I was going to Karol Bagh and my son tuned in 93.5 FM channel.As a song ended, the Radio jockey mimed Arvind Kejriwal ‘Namaskar, I am Arvind Kejriwal’ He jibed on his political misadventure in a few sentences followed by a jeer involving his daughter that really annoyed me. He said ‘my daughter has cracked IIT but has not yet decided on the stream she should opt for. As you all know, I believe in SWARAJ, so we will ask public to decide what stream she should choose’Hearing it, I lost my cool. I grumbled and muttered out my displeasure.

Was this right on part of the Radio Jockey to drag Arvind Kejriwal’s daughter? He can be the subject of mockery for a horrible stint as an activist turned politician. I myself have criticized him in one of my articles, but who gives anybody a right to involve his innocent children?Are we as insensitive as a society?The girl has cracked IIT in first attempt which is indeed a great achievement. Is it her fault that she is the daughter of a person who threw away his job as a top government official and chose to reform the society?It might be inappropriate to ask the credentials of that Radio Jockey but I will surely like to advise him to restrain from being sarcastic with people who have bigger achievements than his in their kitty and especially when they have done that in lesser years than he has already lived for.
Published on June 25, 2014 03:24
June 24, 2014
यादों की पोटली से यादों के शहर में, ऊंची नीची लहराती...
यादों की पोटली से
यादों के शहर में,
ऊंची नीची लहराती,
एक संकरी सी सड़क है
इतराती हवा से महका,
हवाईजहाजों को खिलौनों सा लटकाये
चिट्टा आसमानी फलक है |
झुरमुटि दरख्तों से छुप छुप कर धूप झांकती है ,
ऊंची डाल पर कोयल, न जाने क्या बाँचती है
लपकता है कुछ पकड़ने को मोर कहीं से,
उस पार गुमसुम मकानों की कतार भागती है |
हर बीस कदम पर कुछ मोड़ शरमाकर मुड़ जाते हैं,
और पलाश के बिखरे फूल ओढ़ कर सिमट जाते हैं,
तभी आती है दूर से मेरे तुम्हारे क़दमों की आहट,
हमारे खामोश शब्द भी कानों में चिंघाड़ सा जाते हैं |
सड़क की लहरें पर तैरते, कदम से कदम मिलाये,
हम कनखियों से एक दूजे को परखते चलते जाते हैं ,
मानो जो सोच कर आये थे कहने को, याद करते हों,
या शायद अपनी हिचकिचाहटों से लड़ते जाते हों |
हज़ार कुछ सौ कदमों को हमसफ़र बने थे हम,
पचास कुछ कदमों के बाद तुम कूकी थीं,
सत्तर कुछ कदमों पर मैं चहका था |
पर उस संकरी सी सड़क से
मैं जब कभी भी मिलता हूँ '
वो चमन उत्नस ही महकता है,
जितना उस मुलाकात पर महका था |
Published on June 24, 2014 20:26
कभी अतीत की गलियों में, टहलने का मन हो,तो इस तरफ निकल आना...
कभी अतीत की गलियों में,
टहलने का मन हो,
तो इस तरफ निकल आना,
झांकना और महसूस करना,
तुम्हारे साथ अब भी,
मैं शामें कैसे बिताता हूँ |
फर्श पर दाने अब भी बिखरे हैं,
और कोने में पड़ा है आधा खाया भुट्टा,
जो तुमने गुस्से में फ़ेंक दिया था,
मैं अब भी उन दानों को,
बचा बचा के चलता हूँ |
सोफे का कन्धा अब भी भरमाता है,
उसने तुम्हारे जूड़े के गुलाब को,
कुछ ज्यादा ही सूंघ लिया था |
तुम कभी लौट कर नहीं आओगी,
मैं उसे बहुत समझाता हूँ |
पूरा सोफे तुम्हारी खुशबू से महकता है,
कोने में तुम्हारा रूमाल जो धंसा है ,
वो उसे छोड़ता ही नहीं,
खुद जेब में रखने की चाहत में,
मैं बहुत ज़ोर लगाता हूँ |
मेज़ पर कांच का गिलास इतराता है,
तुमने होठों से जो लगाया था उसको,
लिपस्टिक का निशान
संजोकर रखता है पगला,
मैं कभी कभी उसे चिढ़ाता हूँ |
तुम्हारी हंसी से कमरा खिलखिलाता है,
वक़्त कितना शोर मचाता है,
बात बात पर टांग अड़ाता है,
ये हंसी ऐसे हे गूंजने दे,
मैं ही ज़िद पर अड़ जाता हूँ |
गौरव शर्मा
टहलने का मन हो,
तो इस तरफ निकल आना,
झांकना और महसूस करना,
तुम्हारे साथ अब भी,
मैं शामें कैसे बिताता हूँ |
फर्श पर दाने अब भी बिखरे हैं,
और कोने में पड़ा है आधा खाया भुट्टा,
जो तुमने गुस्से में फ़ेंक दिया था,
मैं अब भी उन दानों को,
बचा बचा के चलता हूँ |
सोफे का कन्धा अब भी भरमाता है,
उसने तुम्हारे जूड़े के गुलाब को,
कुछ ज्यादा ही सूंघ लिया था |
तुम कभी लौट कर नहीं आओगी,
मैं उसे बहुत समझाता हूँ |
पूरा सोफे तुम्हारी खुशबू से महकता है,
कोने में तुम्हारा रूमाल जो धंसा है ,
वो उसे छोड़ता ही नहीं,
खुद जेब में रखने की चाहत में,
मैं बहुत ज़ोर लगाता हूँ |
मेज़ पर कांच का गिलास इतराता है,
तुमने होठों से जो लगाया था उसको,
लिपस्टिक का निशान
संजोकर रखता है पगला,
मैं कभी कभी उसे चिढ़ाता हूँ |
तुम्हारी हंसी से कमरा खिलखिलाता है,
वक़्त कितना शोर मचाता है,
बात बात पर टांग अड़ाता है,
ये हंसी ऐसे हे गूंजने दे,
मैं ही ज़िद पर अड़ जाता हूँ |
गौरव शर्मा
Published on June 24, 2014 06:33
June 23, 2014
नन्ही उम्मीद फिर बत्ती हुयी लाल, फिर उम्मीदें हुईं गुलज़ार...
नन्ही उम्मीद
फिर बत्ती हुयी लाल,
फिर उम्मीदें हुईं गुलज़ार |
रुकीं गाड़ियां कितनी सारी,
आगे-आगे बड़ी बड़ी चार |
लपक कर आया मासूम,
आँखों में हसरत भरके |
उसकी विनती की कीमत शायद,
इक सिक्का कोई समझ ले |
एक हाथ शीशा खटखटाये,
फैला है दूजा नन्हा सा |
धड़कन दिल की, ज्यों घडी सेकंडों की,
ललचाये निहारे सहमा सा |
दोहराई विनती हुयी बेकार,
बड़ा अगली आज़माने को |
बीस झपकियाँ और बची हैं,
अबकी बार कुछ कमाने को |
दूसरे शीशे पर पहुंचा ही था,
पिछली कार से, चुटकी निकली बाहर |
पांच रूपये का छोटा सिक्का,
दयालू बड़ी ये छोटी कार |
सिक्का हाथों में, विस्मय आँखों में,
बिन मांगे कर गया उपकार |
बड़ी कार में बड़ा दिल होगा,
ये सोचना था बिलकुल बेकार |
सोचा उसने-
अगली कोशिश अगली बार करूँगा,
दस झपकियाँ ही तो बची हैं |
वैसे भी आगे-आगे,
बड़ी गाड़ियां ही तो फँसी हैं |
मेरी गरीबी, इनकी अमीरी में,
शायद अंतर इतना ज्यादा होगा |
ये जिनको भीख देते होंगे,
मेरा ओहदा उनसे भी आधा होगा |
मुझे तो ये भी मालूम नहीं है,
भरे पेट कैसा लगता है |
एक बार मेरा भी बदल जाये भाग्य,
जैसे बत्ती का रंग बदलता है...
जैसे बत्ती का रंग बदलता है |
गौरव शर्मा
फिर बत्ती हुयी लाल,
फिर उम्मीदें हुईं गुलज़ार |
रुकीं गाड़ियां कितनी सारी,
आगे-आगे बड़ी बड़ी चार |
लपक कर आया मासूम,
आँखों में हसरत भरके |
उसकी विनती की कीमत शायद,
इक सिक्का कोई समझ ले |
एक हाथ शीशा खटखटाये,
फैला है दूजा नन्हा सा |
धड़कन दिल की, ज्यों घडी सेकंडों की,
ललचाये निहारे सहमा सा |
दोहराई विनती हुयी बेकार,
बड़ा अगली आज़माने को |
बीस झपकियाँ और बची हैं,
अबकी बार कुछ कमाने को |
दूसरे शीशे पर पहुंचा ही था,
पिछली कार से, चुटकी निकली बाहर |
पांच रूपये का छोटा सिक्का,
दयालू बड़ी ये छोटी कार |
सिक्का हाथों में, विस्मय आँखों में,
बिन मांगे कर गया उपकार |
बड़ी कार में बड़ा दिल होगा,
ये सोचना था बिलकुल बेकार |
सोचा उसने-
अगली कोशिश अगली बार करूँगा,
दस झपकियाँ ही तो बची हैं |
वैसे भी आगे-आगे,
बड़ी गाड़ियां ही तो फँसी हैं |
मेरी गरीबी, इनकी अमीरी में,
शायद अंतर इतना ज्यादा होगा |
ये जिनको भीख देते होंगे,
मेरा ओहदा उनसे भी आधा होगा |
मुझे तो ये भी मालूम नहीं है,
भरे पेट कैसा लगता है |
एक बार मेरा भी बदल जाये भाग्य,
जैसे बत्ती का रंग बदलता है...
जैसे बत्ती का रंग बदलता है |
गौरव शर्मा
Published on June 23, 2014 02:05
June 20, 2014
नारी की वेदनासृष्टि की आधी अभिव्यक्ति,अस्तित्वों की जननी ...
नारी की वेदना
सृष्टि की आधी अभिव्यक्ति,
अस्तित्वों की जननी बना दिया|
भीख में टुकड़े सा मिला जो बचपन,
नारीत्व समझने में चला गया |
खिली, यौवन जब आया तो ,
औरों की नज़रों ने सता दिया |
अस्मिता बचाये रखने की चिंता ने,
कतरा कतरा मुझको गला दिया |
जीवन का उपहार देती हूँ मैं,
मुझ पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया |
महीने के पांच दिन, गर्भ के नौ मॉस,
सम्पूर्ण जीवन सज़ा सा बना दिया |
हे इश्वर तू ही पक्षपाती है,
मनुष्य को दिलिंगी क्यों नहीं बना दिया ?
तूने तो पीड़ा दी ही थी,
पुरुष को क्यों नृशंष बना दिया ?
गौरव शर्मा
सृष्टि की आधी अभिव्यक्ति,
अस्तित्वों की जननी बना दिया|
भीख में टुकड़े सा मिला जो बचपन,
नारीत्व समझने में चला गया |
खिली, यौवन जब आया तो ,
औरों की नज़रों ने सता दिया |
अस्मिता बचाये रखने की चिंता ने,
कतरा कतरा मुझको गला दिया |
जीवन का उपहार देती हूँ मैं,
मुझ पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया |
महीने के पांच दिन, गर्भ के नौ मॉस,
सम्पूर्ण जीवन सज़ा सा बना दिया |
हे इश्वर तू ही पक्षपाती है,
मनुष्य को दिलिंगी क्यों नहीं बना दिया ?
तूने तो पीड़ा दी ही थी,
पुरुष को क्यों नृशंष बना दिया ?
गौरव शर्मा
Published on June 20, 2014 20:03