कभी अतीत की गलियों में, टहलने का मन हो,तो इस तरफ निकल आना...

कभी अतीत की गलियों में,
टहलने का मन हो,
तो इस तरफ निकल आना,
झांकना और महसूस करना,
तुम्हारे साथ अब भी,
मैं शामें कैसे बिताता हूँ |

फर्श पर दाने अब भी बिखरे हैं,
और कोने में पड़ा है आधा खाया भुट्टा,
जो तुमने गुस्से में फ़ेंक दिया था,
मैं अब भी उन दानों को,
बचा बचा के चलता हूँ |

सोफे का कन्धा अब भी भरमाता है,
उसने तुम्हारे जूड़े के गुलाब को,
कुछ ज्यादा ही सूंघ लिया था |
तुम कभी लौट कर नहीं आओगी,
मैं उसे बहुत समझाता हूँ |

पूरा सोफे तुम्हारी खुशबू से महकता है,
कोने में तुम्हारा रूमाल जो धंसा है ,
वो उसे छोड़ता ही नहीं,
खुद जेब में रखने की चाहत में,
मैं बहुत ज़ोर लगाता हूँ |

मेज़ पर कांच का गिलास इतराता है,
तुमने होठों से जो लगाया था उसको,
लिपस्टिक का निशान
संजोकर रखता है पगला,
मैं कभी कभी उसे चिढ़ाता हूँ |

तुम्हारी हंसी से कमरा खिलखिलाता है,
वक़्त कितना शोर मचाता है,
बात बात पर टांग अड़ाता है,
ये हंसी ऐसे हे गूंजने दे,
मैं ही ज़िद पर अड़ जाता हूँ |

                     गौरव शर्मा

 •  0 comments  •  flag
Share on Twitter
Published on June 24, 2014 06:33
No comments have been added yet.