वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu] Quotes

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वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu] वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu] by Acharya Chatursen
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वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu] Quotes Showing 1-30 of 71
“अम्बपाली की यवनी दासी मदलेखा के निकट आई, उसकी लज्जा से झुकी हुई ठोड़ी उठाई और कहा–‘‘कैसे इतना सहती हो बहिन, जब हम सब बातें करते हैं, हंसते हैं, विनोद करते हैं, तुम मूक-बधिर-सी चुपचाप खड़ी कैसे रह सकती हो? निर्मम पाषाण-प्रतिमा सी! यही विनय तुम्हें सिखाया गया है? ओह! तुम हमारे हास्य में हंसती नहीं और हमारे विलास से प्रभावित भी नहीं होतीं?’’ रोहिणी ने आंखों में आंसू भरकर मदलेखा को छाती से लगा लिया। फिर पूछा–‘‘तुम्हारा नाम क्या है, हला?’’ मदलेखा ने घुटनों तक धरती में झुककर रोहिणी का अभिवादन किया और कहा–‘‘देवी, दासी का नाम मदलेखा है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“सब ब्राह्मण,बटुक ब्रह्माचारी,वेदपाठी श्रोत्रिय जन सहस्रों,भीत विस्मित, चमत्कृत नागर पौरजनों की भीड़ के साथ विकट विजन मन्दकान्तार वन में साणकोष्ठ चैत्य में जा अतिभयानक शूलपाणि यक्ष की मूर्ति के सामने भूमि पर गिरकर ‘त्राहि माम् त्राहि माम्!’ कहने लगे। तब उस अन्ध गुफा से मूर्ति के पीछे से रक्ताम्बर धारण किए और शूल हाथ में लिए वही सुन्दरी बाला बाहर आई और उच्च स्वर से कहने लगी–‘‘अरे मूढ़ जनो! मैं तुम सब ब्राह्मणों का आज भक्षण करूंगी। मैं यक्षिणी हूं। तुमने ब्राह्मणत्व के दर्प में मनुष्य-मूर्ति का तिरस्कार किया है; क्या तुम नहीं जानते कि ब्राह्मण और चाण्डाल दोनों में एक ही जीवन सत्त्व प्रवाहित है, दोनों का जन्म एक ही भांति होता है, एक ही भांति मृत्यु होती है, एक ही भांति सोते हैं, खाते हैं; इच्छा, द्वेष, प्रयत्न के वशीभूत हो सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। अरे मूर्खो! तुमने कहा था कि तुम्हारा तप:पूत अन्न फेंक भले ही दिया जाए, पर चाण्डाल याचक को नहीं मिलेगा? तुम मनुष्य-हिंसक, मनुष्य हितबाधक हो, तुम मनुष्य-विरोधी हो। मरो तुम आज सब!’’ ‘‘त्राहि माम्, त्राहि माम्! हे देवी, हे यक्षिणी मात:, हमारी रक्षा करो! हमने समझा था–हमारा पूत अन्न.....।’’ ‘‘अरे मूर्खो, तुम जल से शरीर की बाह्य शुद्धि करके उसे ही महत्त्व देते हो, तुम अन्तरात्मा की शुद्धि को नहीं जानते। अरे, यज्ञ करने वाले ब्राह्मणो, तुम दर्भयज्ञ, यूप, आहवनीय, गन्ध, तृण, पशुबलि, काष्ठ और अग्नि तक ही अपनी ज्ञानसत्ता को सीमित रखते हो; तुमने असत्य का, चोरी का, परिग्रह का त्याग नहीं किया। तुम स्वर्ण, दक्षिणा और भोजन के लालची पेटू ब्राह्मण हो, तुम शरीर को महत्त्व देते हो, शरीर की सेवा में लगे रहते हो। तुम सच्चे और वास्तविक यज्ञ को नहीं जानते।’’ ‘‘तो यक्षिणी मात:, हमें यज्ञ की दीक्षा दीजिए।’’ ‘‘अरे मूर्ख ब्राह्मणो! कष्ट सहिष्णुता तप है, वही यज्ञाग्नि है, जीवन-तत्त्व यज्ञाधिष्ठान है। मन-वचन-कर्म की एकता यज्ञाहुति है। कर्म समिधा है और आत्मतुष्टि पूर्णाहुति है। विश्व के प्राणियों में आत्मानुभूति का अनुभव कर समदर्शी होना स्वर्ग-प्राप्ति है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“आप जानते नहीं हैं, मन्द कान्तार यक्ष की चौकी पर यह उग्र मुनि तप करते हैं। वह भीषण यक्ष, जिसके भय से वैशाली का कोई जन रात्रि को उस दिशा में नहीं जाता, इस मुनि की नित्य चरण-सेवा करता है। यह मैंने आंखों से देखा है। आपने अच्छा नहीं किया, जो भिक्षाकाल में इस मुनि को असन्तुष्ट कर दिया।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“मैं पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा महापद्म की पुत्री जयन्ती हूं; मेरे पिता ने मुझे इस महात्मा को प्रदान कर दिया था, परन्तु इस इन्द्रिय-विजयी ने स्वीकार नहीं किया। यह महातपस्वी, उग्र ब्रह्मचारी, घोर व्रत और दिव्य शक्तियों का प्रयोक्ता है। इसे क्रुद्ध या असन्तुष्ट न करना नहीं तो यह तुम सब ब्राह्मणों को अपने तेज से जलाकर भस्म कर डालेगा।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“मैं संयमी हूं, दूसरे लोग अपने लिए जो अन्न रांधते हैं, उसी में से बचा हुआ थोड़ा अन्न मैं भिक्षाकाल में मांग लेता हूं। आप लोग यहां याचकों को बहुत स्वर्ण, वस्त्र, अन्न दे रहे हैं। मुझे स्वर्ण नहीं चाहिए, उससे मेरा कोई काम नहीं सरता। वस्त्र मैं श्मशान से उठा लाता हूं, मैं तो दिगम्बर आजीवक हूं, मुझे अन्न चाहिए। मुझे अन्न दो। आपके पास बहुत अन्न हैं, आप लोग खा-पी रहे हैं, मुझे भी दो, थोड़ा ही दो। मैं तपस्वी हूं, ऐसा समझकर जो बच गया हो वही दो।’’ एक ब्राह्मण ने क्रुद्ध होकर कहा–‘‘अरे मूर्ख, यहां ब्राह्मणों के लिए अन्न तैयार होता है, चाण्डालों के लिए नहीं, भाग यहां से।’’ ‘‘अतिवृष्टि हो या अल्पवृष्टि, तो भी कृषक ऊंची-नीची सभी भूमि में बीज बोता है और आशा करता है खेत में अन्न-पाक होगा। उसी भांति तुम भी मुझे दान दो। मुझ जैसे तुच्छ चाण्डाल मुनि को अन्न-दान करने से तुम्हें पुण्य-लाभ होगा।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“उसने सहज-शान्त स्वर में कहा–‘‘मैं चाण्डाल-कुलोत्पन्न हरिकेशीबल हूं। मैं सर्वत्यागी ब्रह्मचारी हूं। मैं अपना अन्न रांधता नहीं। भिक्षा मेरी जीविका है, मुझे भिक्षा दो।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“वह रस अमोघ है। वह आनन्द का स्रोत है, वर्णनातीत है। उसमें आकांक्षा नहीं, वैसे ही तृप्ति भी नहीं, इसी प्रकार विरक्ति भी नहीं। वह तो जैसे जीवन है, अनन्त प्रवाहयुक्त शाश्वत जीवन, अतिमधुर, अतिरम्य, अतिमनोरम! जो कोई उसे पा लेता है उसका जीवन धन्य हो जाता है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“यदि कोई यथार्थ पौरुषवान् पुरुष हो और यौवन और सौन्दर्य को वासना और भोगों की लपटों में झुलसने से बचा सके, तो उसे प्रेम का रस चखने को मिल सकता है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“तब तो प्रिय, यौवन और सौन्दर्य कुछ रहे ही नहीं।’’ ‘‘क्यों नहीं, मनुष्य का हृदय तो कला का उद्गम है। यौवन और सौंदर्य–ये दो ही तो कला के मूलाधार हैं। विश्व की सारी ही कलाएं इसी में से उद्‌भासित हुई”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“कौन-सा आनन्द प्रिय?’’ ‘‘जो इन्द्रिय के भोगों से पृथक् और मन की वासना से दूर है; जिसमें आकांक्षा भी नहीं, उसकी पूर्ति का प्रयास भी नहीं और पूर्ति होने पर विरक्ति भी नहीं, जैसी कि भोगों में और वासना में है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“अम्बपाली ने कहा–“प्रिय, क्या भोग ही प्रेम का पुरस्कार नहीं है ?’’ ‘‘नहीं प्रिये, भोग तो वासना का यत्किंचित् प्रतिकार है।’’ ‘‘और वासना? क्या वासना प्रेम का पुष्प नहीं ?’’ ‘‘नहीं प्रिये, वासना क्षुद्र इन्द्रियों का नगण्य विकार है।’’ ‘‘परन्तु प्रिय, इस वासना और भोग ने तो विश्व की सम्पदाओं को भी जीत लिया है।’’ ‘‘विश्व की सम्पदाएं भी तो प्रिये, भोग का ही भोग हैं।’’ ‘‘जब विश्व की सम्पदाएं भोग और वासनाओं को अर्पण कर दी गईं, तब प्रेम के लिए क्या रह गया ?’’ ‘‘आनन्द !’’ ‘‘कौन-सा आनन्द प्रिय?’’ ‘‘जो इन्द्रिय के भोगों से पृथक् और मन की वासना से दूर है; जिसमें आकांक्षा भी नहीं, उसकी पूर्ति का प्रयास भी नहीं और पूर्ति होने पर विरक्ति भी नहीं, जैसी कि भोगों में और वासना में है।’’ ‘‘परन्तु प्रिय, शरीर में तो वासना-ही-वासना है और भोग ही उसे सार्थक करते हैं !’’ ‘‘इसी से तो प्रेम के शैशव ही में शरीर भोगों में व्यय हो जाता है, प्रेम का स्वाद उसे मिल कहां पाता है? प्रेम को विकसित होने को समय ही कहां मिलता है !’’ ‘‘तब तो....’’ ‘‘हां-हां प्रिये, यह मानव का परम दुर्भाग्य है, क्योंकि प्रेम तो विश्व-प्राणियों में उसे ही प्राप्त है, भोग और वासना तो पशु-पक्षियों में भी है पर मनुष्य पशु-भाव से तनिक भी तो आगे नहीं बढ़ पाता है।’’ ‘‘तब तो प्रिय, यौवन और सौन्दर्य कुछ रहे ही नहीं।’’ ‘‘क्यों नहीं, मनुष्य का हृदय तो कला का उद्गम है। यौवन और सौंदर्य–ये दो ही तो कला के मूलाधार हैं। विश्व की सारी ही कलाएं इसी में से उद्‌भासित हुई हैं प्रिये; इसी से, यदि कोई यथार्थ पौरुषवान् पुरुष हो और यौवन और सौन्दर्य को वासना और भोगों की लपटों में झुलसने से बचा सके, तो उसे प्रेम का रस चखने को मिल सकता है। प्रिये, देवी अम्बपाली, वह रस अमोघ है। वह आनन्द का स्रोत है, वर्णनातीत है। उसमें आकांक्षा नहीं, वैसे ही तृप्ति भी नहीं, इसी प्रकार विरक्ति भी नहीं। वह तो जैसे जीवन है, अनन्त प्रवाहयुक्त शाश्वत जीवन, अतिमधुर, अतिरम्य, अतिमनोरम! जो कोई उसे पा लेता है उसका जीवन धन्य हो जाता है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“मैं नहीं जानती तुम कौन हो, मुनष्य हो कि देव, गन्धर्व, किन्नर या कोई मायावी दैत्य हो, मुझे तुमने समाप्त कर दिया है भद्र! चलो, विश्व के उस अतल तल पर, जहां हम कल नृत्य करते-करते पहुंच गए थे, वहां हम-तुम एक-दूसरे में अपने को खोकर अखण्ड इकाई की भांति रहें।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“मैं आक्रान्त हो गई, मैं असम्पूर्ण हो गई, मैं निरीह नारी कैसे इस दर्पमूर्ति पौरुष के बिना रह सकती हूं? परन्तु वह मुझे आक्रान्त करके छिप कहां गया? उसने केवल मेरी आत्मा ही को आक्रान्त किया, शरीर को क्यों नहीं? यह शरीर जला जा रहा है, इसमें आबद्ध आत्मा छटपटा रही है, इस शरीर के रक्त की एक-एक बूंद ‘प्यास-प्यास’ चिल्ला रही है, इस शरीर की नारी अकेली रुदन कर रही है। अरे ओ, आओ, तुम, इसे अकेली न छोड़ो! अरे ओ पौरुष, ओ निर्मम, कहां हो तुम; इसे आक्रान्त करो, इसे विजय करो; इसे अपने में लीन करो। अब एक क्षण भी नहीं रहा जाता। यह देह, यह अधम नारी-देह, नारीत्व की समस्त सम्पदा-सहित इस निर्जन वन में अकेली अरक्षित पड़ी है, अपने अदम्य पौरुष से अपने में आत्मसात् कर लो तुम, जिससे यह अपना आपा खो दे; कुछ शेष न रहे।’’ अम्बपाली ने दोनों हाथों से कसकर अपनी छाती दबा ली। उनकी आंखों से आग की ज्वाला निकलने लगी, लुहार की धौंकनी की भांति उनका वक्षस्थल ऊपर-नीचे उठने-बैठने लगा। उसका समस्त शरीर पसीने के रुपहले बिन्दुओं से भर गया। उसने चीत्कार करके कहा–‘‘अरे ओ निर्मम, कहां चले गए तुम, आओ, गर्विणी अम्बपाली का समस्त दर्प मर चुका है, वह तुम्हारी भिखारिणी है, तुम्हारे पौरुष की भिखारिणी।’’ उसने उन्मादग्रस्त-सी होकर दोनों हाथ फैला दिए। युवक ने कुटी-द्वार खोलकर प्रवेश किया। देखा,कुटी के मध्य भाग में देवी अम्बपाली उन्मत्त भाव से खड़ी है, बाल बिखरे हैं, चेहरा हिम के समान श्वेत हो रहा है, अंग-प्रत्यंग कांप रहे हैं। उसने आगे बढ़कर अम्बपाली को अपने आलिंगन-पाश में बांध लिया, और अपने जलते हुए होंठ उसके होंठों पर रख दिए, उसके उछलते हुए वक्ष को अपनी पसलियों में दबोच लिया, सुख के अतिरेक से अम्बपाली संज्ञाहीन हो गईं, उनके उन्मत्त नेत्र मुंद गए, अमल-धवल दन्तपंक्ति से अस्फुट सीत्कार निकलने लगा, मस्तक और नासिका पर स्वेद-बिन्दु हीरे की भांति जड़ गए। युवक ने कुटी के मध्य भाग में स्थित शिला-खण्ड के सहारे अपनी गोद में अम्बपाली को लिटाकर उसके अनगिनत चुम्बन ले डाले–होठ पर, ललाट पर, नेत्रों पर, गण्डस्थल पर, भौहों पर, चिबुक पर। उसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई। अग्निशिखा की भांति उसके प्रेमदग्ध होंठ उस भाव-विभोर युवक की प्रेम-पिपासा को शतसहस्र गुणा बढ़ाते चले गए। धीरे-धीरे अम्बपाली ने नेत्र खोले। युवक ने संयत होकर उनका सिर शिला-खण्ड पर रख दिया। अम्बपाली सावधान होकर बैठ गईं, दोनों ही लज्ज़ा के सरोवर में डूब गए और उनकी आंखों के भीगे हुए पलक जैसे आनन्द-जल के भार को सहन न कर नीचे की ओर झुकते ही चले गए। युवक ही ने मौन भंग किया। उसने कहा–‘‘देवी अम्बपाली, मुझे क्षमा करना, मैं संयत न रह सका।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“प्राणी अम्बपाली की करुणा और विराग के ही पात्र बनें। अचल हिमगिरि शृंग की भांति अम्बपाली का सतीत्व अचल रहा, डिगा नहीं, हिला नहीं, विचलित हुआ नहीं, वह वैसा ही अस्पर्श-अखण्ड बना रहा......यह सोचते-सोचते अम्बपाली गर्व में तनकर खड़ी हो गईं,”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“स्वर्ण-मृणाल-सी कोमल भुज-लताएं सर्पिणी की भांति वायु में लहरा रही हैं। कोमल कदली-स्तम्भ-सी जंघाएं व्यवस्थित रूप में गतिमान होकर पीन नितम्बों पर आघात-सा कर कटि-प्रदेश को ऐसी हिलोर दे रही हैं जैसे समुद्र में ज्वार आया हो। कुन्दकली-सा धवल गात, चन्द्रकिरण-सी उज्ज्वल छवि और मुक्त नक्षत्र-सा दीप्तिमान् मुखमण्डल–सब कुछ अलौकिक था। क्षण-भर में ही युवक विवश हो गया। उसने आखेट एक ओर फेंककर वीणा की ओर पद बढ़ाया। अम्बपाली के पदक्षेप के साथ वीणा आप ही ध्वनित हो रही थी। युवक ने वीणा उठा ली, उस पर उंगली का आघात किया, नृत्य मुखरित हो उठा। अब तो जैसे ज्वालामुखी ने ज्वलित, द्रवित सत्त्व भूगर्भ से पृथ्वी पर उंडेलने प्रारम्भ कर दिए हों, जैसे भूचाल आ गया हो, पृथ्वी डगमग करने लगी हो। वीणा की झंकृति पर क्षण-भर के लिए देवी अम्बपाली सावधान होतीं और फिर भाव-समुद्र में डूब जातीं। उसी प्रकार देवी सम पर ज्योंही पदक्षेप करतीं और निमिषमात्र को युवक की अंगुली सम पर आकर तार पर विराम लेती, तो वह निमिष-भर को होश में आ जाता। धीरे-धीरे दोनों ही बाह्यज्ञान-शून्य हो गए। सुदूर नील गगन में टिमटिमाते नक्षत्रों की साक्षी में, उस गहन वन के एकान्त कक्ष में ये दोनों ही कलाकार पृथ्वी पर दिव्य कला को मूर्तिमती करते रहे–करते ही रहे। उनके पार्थिव शरीर जैसे उनसे पृथक् हो गए। उनका पार्थिव ज्ञान लोप हो गया, जैसे वे दोनों कलाकार पृथ्वी के प्रलय हो जाने के बाद समुद्रों के भस्म हो जाने पर, सचराचर वसुन्धरा के शेष-लीन हो जाने पर, वायु की लहरों पर तैरते हुए, ऊपर आकाश में उठते चले गए हों और वहां पहुंच गए हों जहां भूः नहीं, भुवः नहीं, स्वः नहीं, पृथ्वी नहीं, आकाश नहीं, सृष्टि नहीं, सृष्टि का बन्धन नहीं, जन्म नहीं, मरण नहीं, एक नहीं, अनेक नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं!”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“निष्ठा और कर्तव्य मानव-जीवन का चरम उत्कर्ष है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“पृथ्वी पर प्यार ही सब-कुछ नहीं है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“तुम्हें आप्यायित करूंगी अपनी सेवा से, सान्निध्य से, निष्ठा से और तुम अपना प्रेम-प्रसाद देकर मुझे आपूर्यमाण करना।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“यह शरीर बहु मलों का घर है। इसमें काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, एषणाएं हैं। सो पुत्र, यह समुद्र के समान है। समुद्र में आठ अद्भुत गुण हैं, इसी से असुर महासमुद्र में अभिरमण करते हैं। वह क्रमशः निम्न, क्रमशः प्रवण, क्रमशः प्रारम्भार होता है। वह स्थिर-धर्म है, किनारे को नहीं छोड़ता। वह मृत शरीर को निवास नहीं करने देता, बाहर फेंक देता है। सब महानदी, गंगा, यमुना, अचिरवती, शरभू, मही, जब महासमुद्र को प्राप्त होती हैं तो अपना नाम-गोत्र त्याग देती हैं। और भी पानी, धारा, अन्तरिक्ष का वर्षा जल समुद्र में जाता है, परन्तु महासमुद्र में ऊनता या पूर्णता कभी नहीं होती। वह महासमुद्र एक रस है। वह रत्नाकर है–शंख, मोती, मूंगा, वैदूर्य, शिला, रक्तवर्ण मणि, मसाणगल्ल समुद्र में रहती हैं। वह महासमुद्र महान् प्राणियों का निवास है–तिमि, तिमिंगिल, तिमिर, पिंगल, असुर, नाग, गन्धर्व उसमें वास करते हैं। उनमें सौ योजनवाले शरीरधारी भी हैं, तीन सौ योजन वाले भी हैं, चार सौ योजनवाले भी हैं।..... ‘‘सो पुत्र, धर्ममय जीवन भी समुद्र की भांति क्रमशः गहरा, क्रमशः प्रवण, क्रमशः प्रारम्भार है, एकदम किनारे से खड़ा नहीं होता। सो धर्मजीवन में क्रमशः क्रिया, मार्ग, आज्ञा और प्रतिवेध होता है। उसी का क्रमशः अभ्यास करने से मनुष्य अनागामी भी होता है। यह जीवन का ध्रुव ध्येय है। सो सोमभद्र, तू महासमुद्र के अनुरूप बन, पुण्य कर और मलरहित हो निर्वाण को प्राप्त कर।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“पहले सरस्वती नदी के जल से, फिर बहाववाली नदी के जल से, फिर प्रतिलोम जल से, मार्गान्तर के जल से, समुद्र-जल से, भंवर के जल से, स्थिर जल से, धूप की वर्षा के जल से, तालाब के जल से, कुएं के जल से, ओस के जल से, फिर तीर्थों के विविध जलों से, भिन्न-भिन्न मन्त्र पढ़कर राजा का अभिषेक किया गया।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“दो घड़ी में कोसल को आक्रान्त करके कोसल का अधीश्वर बन जाऊंगा। फिर मैं चम्पा की राजनन्दिनी को परिशोध दूंगा।’’ ‘‘किस प्रकार ?’’ ‘‘कोसल की पट्टराजमहिषी बनाकर।’’ ‘‘तो सोम, विद्वानों का यह कथन सत्य है कि जन्म से जो पतित होते हैं उनके विचार हीन ही होते हैं।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“मुद्रिका पाकर श्रेणिक बिम्बसार अमात्य-वर्ग सहित कोसलपति की अभ्यर्थना को जब वहां आया, तो दोनों राजदम्पती चिथड़े अंग पर लपेटे चिर निद्रा में सो रहे थे।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“प्रतीची दिशा मांग में सिन्दूर भरे कौसुम्बिक चीनांशुक पहने वधूटी-सी प्रतीत हो रही थी। सूर्यकुल-प्रदीप महाराज प्रसेनजित्, मागध-विजयी, पांच महाराज्यों के अधिपति, अर्द्ध-शताब्दी तक लोकोत्तर वैभव भोगकर आज दिनांत में राज्यश्री भ्रष्ट हो अपने ही सेवकों द्वारा बन्दी होकर अदृष्ट विविध और नियतिवश अज्ञात दिशा को चले जा रहे थे।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“अनेक अलिंद, कुट्टिम, वीथियां, कोष्ठक, परिवेण, वातायन और मिसिका पार करते हुए उस घर में पहुंचे, जहां चक्कलिका के भीतर”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“रहस्य की हंसी”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“अल्हड़ बछेड़ी है।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“सखिल भाव”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“मंजरीक, उरच्छक, वंटक और अचेलक मालाएं”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“मल्लिका, कुरण्टक, नव– मल्लिका आदि के गुल्मों को पार करते हुए चलते गए। बकुल और सिन्धुवार की भीनी महक ने उन्हें उन्मत्त कर दिया।”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
“वाटिका में नाग, पुन्नाग, अशोक, अरिष्ट और शिरीष के सघन वृक्ष”
आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]

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