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आचार्य चतुरसेन

“मैं आक्रान्त हो गई, मैं असम्पूर्ण हो गई, मैं निरीह नारी कैसे इस दर्पमूर्ति पौरुष के बिना रह सकती हूं? परन्तु वह मुझे आक्रान्त करके छिप कहां गया? उसने केवल मेरी आत्मा ही को आक्रान्त किया, शरीर को क्यों नहीं? यह शरीर जला जा रहा है, इसमें आबद्ध आत्मा छटपटा रही है, इस शरीर के रक्त की एक-एक बूंद ‘प्यास-प्यास’ चिल्ला रही है, इस शरीर की नारी अकेली रुदन कर रही है। अरे ओ, आओ, तुम, इसे अकेली न छोड़ो! अरे ओ पौरुष, ओ निर्मम, कहां हो तुम; इसे आक्रान्त करो, इसे विजय करो; इसे अपने में लीन करो। अब एक क्षण भी नहीं रहा जाता। यह देह, यह अधम नारी-देह, नारीत्व की समस्त सम्पदा-सहित इस निर्जन वन में अकेली अरक्षित पड़ी है, अपने अदम्य पौरुष से अपने में आत्मसात् कर लो तुम, जिससे यह अपना आपा खो दे; कुछ शेष न रहे।’’ अम्बपाली ने दोनों हाथों से कसकर अपनी छाती दबा ली। उनकी आंखों से आग की ज्वाला निकलने लगी, लुहार की धौंकनी की भांति उनका वक्षस्थल ऊपर-नीचे उठने-बैठने लगा। उसका समस्त शरीर पसीने के रुपहले बिन्दुओं से भर गया। उसने चीत्कार करके कहा–‘‘अरे ओ निर्मम, कहां चले गए तुम, आओ, गर्विणी अम्बपाली का समस्त दर्प मर चुका है, वह तुम्हारी भिखारिणी है, तुम्हारे पौरुष की भिखारिणी।’’ उसने उन्मादग्रस्त-सी होकर दोनों हाथ फैला दिए। युवक ने कुटी-द्वार खोलकर प्रवेश किया। देखा,कुटी के मध्य भाग में देवी अम्बपाली उन्मत्त भाव से खड़ी है, बाल बिखरे हैं, चेहरा हिम के समान श्वेत हो रहा है, अंग-प्रत्यंग कांप रहे हैं। उसने आगे बढ़कर अम्बपाली को अपने आलिंगन-पाश में बांध लिया, और अपने जलते हुए होंठ उसके होंठों पर रख दिए, उसके उछलते हुए वक्ष को अपनी पसलियों में दबोच लिया, सुख के अतिरेक से अम्बपाली संज्ञाहीन हो गईं, उनके उन्मत्त नेत्र मुंद गए, अमल-धवल दन्तपंक्ति से अस्फुट सीत्कार निकलने लगा, मस्तक और नासिका पर स्वेद-बिन्दु हीरे की भांति जड़ गए। युवक ने कुटी के मध्य भाग में स्थित शिला-खण्ड के सहारे अपनी गोद में अम्बपाली को लिटाकर उसके अनगिनत चुम्बन ले डाले–होठ पर, ललाट पर, नेत्रों पर, गण्डस्थल पर, भौहों पर, चिबुक पर। उसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई। अग्निशिखा की भांति उसके प्रेमदग्ध होंठ उस भाव-विभोर युवक की प्रेम-पिपासा को शतसहस्र गुणा बढ़ाते चले गए। धीरे-धीरे अम्बपाली ने नेत्र खोले। युवक ने संयत होकर उनका सिर शिला-खण्ड पर रख दिया। अम्बपाली सावधान होकर बैठ गईं, दोनों ही लज्ज़ा के सरोवर में डूब गए और उनकी आंखों के भीगे हुए पलक जैसे आनन्द-जल के भार को सहन न कर नीचे की ओर झुकते ही चले गए। युवक ही ने मौन भंग किया। उसने कहा–‘‘देवी अम्बपाली, मुझे क्षमा करना, मैं संयत न रह सका।”

आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
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