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आचार्य चतुरसेन

“मैं संयमी हूं, दूसरे लोग अपने लिए जो अन्न रांधते हैं, उसी में से बचा हुआ थोड़ा अन्न मैं भिक्षाकाल में मांग लेता हूं। आप लोग यहां याचकों को बहुत स्वर्ण, वस्त्र, अन्न दे रहे हैं। मुझे स्वर्ण नहीं चाहिए, उससे मेरा कोई काम नहीं सरता। वस्त्र मैं श्मशान से उठा लाता हूं, मैं तो दिगम्बर आजीवक हूं, मुझे अन्न चाहिए। मुझे अन्न दो। आपके पास बहुत अन्न हैं, आप लोग खा-पी रहे हैं, मुझे भी दो, थोड़ा ही दो। मैं तपस्वी हूं, ऐसा समझकर जो बच गया हो वही दो।’’ एक ब्राह्मण ने क्रुद्ध होकर कहा–‘‘अरे मूर्ख, यहां ब्राह्मणों के लिए अन्न तैयार होता है, चाण्डालों के लिए नहीं, भाग यहां से।’’ ‘‘अतिवृष्टि हो या अल्पवृष्टि, तो भी कृषक ऊंची-नीची सभी भूमि में बीज बोता है और आशा करता है खेत में अन्न-पाक होगा। उसी भांति तुम भी मुझे दान दो। मुझ जैसे तुच्छ चाण्डाल मुनि को अन्न-दान करने से तुम्हें पुण्य-लाभ होगा।”

आचार्य चतुरसेन, वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
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