“अम्बपाली ने कहा–“प्रिय, क्या भोग ही प्रेम का पुरस्कार नहीं है ?’’ ‘‘नहीं प्रिये, भोग तो वासना का यत्किंचित् प्रतिकार है।’’ ‘‘और वासना? क्या वासना प्रेम का पुष्प नहीं ?’’ ‘‘नहीं प्रिये, वासना क्षुद्र इन्द्रियों का नगण्य विकार है।’’ ‘‘परन्तु प्रिय, इस वासना और भोग ने तो विश्व की सम्पदाओं को भी जीत लिया है।’’ ‘‘विश्व की सम्पदाएं भी तो प्रिये, भोग का ही भोग हैं।’’ ‘‘जब विश्व की सम्पदाएं भोग और वासनाओं को अर्पण कर दी गईं, तब प्रेम के लिए क्या रह गया ?’’ ‘‘आनन्द !’’ ‘‘कौन-सा आनन्द प्रिय?’’ ‘‘जो इन्द्रिय के भोगों से पृथक् और मन की वासना से दूर है; जिसमें आकांक्षा भी नहीं, उसकी पूर्ति का प्रयास भी नहीं और पूर्ति होने पर विरक्ति भी नहीं, जैसी कि भोगों में और वासना में है।’’ ‘‘परन्तु प्रिय, शरीर में तो वासना-ही-वासना है और भोग ही उसे सार्थक करते हैं !’’ ‘‘इसी से तो प्रेम के शैशव ही में शरीर भोगों में व्यय हो जाता है, प्रेम का स्वाद उसे मिल कहां पाता है? प्रेम को विकसित होने को समय ही कहां मिलता है !’’ ‘‘तब तो....’’ ‘‘हां-हां प्रिये, यह मानव का परम दुर्भाग्य है, क्योंकि प्रेम तो विश्व-प्राणियों में उसे ही प्राप्त है, भोग और वासना तो पशु-पक्षियों में भी है पर मनुष्य पशु-भाव से तनिक भी तो आगे नहीं बढ़ पाता है।’’ ‘‘तब तो प्रिय, यौवन और सौन्दर्य कुछ रहे ही नहीं।’’ ‘‘क्यों नहीं, मनुष्य का हृदय तो कला का उद्गम है। यौवन और सौंदर्य–ये दो ही तो कला के मूलाधार हैं। विश्व की सारी ही कलाएं इसी में से उद्भासित हुई हैं प्रिये; इसी से, यदि कोई यथार्थ पौरुषवान् पुरुष हो और यौवन और सौन्दर्य को वासना और भोगों की लपटों में झुलसने से बचा सके, तो उसे प्रेम का रस चखने को मिल सकता है। प्रिये, देवी अम्बपाली, वह रस अमोघ है। वह आनन्द का स्रोत है, वर्णनातीत है। उसमें आकांक्षा नहीं, वैसे ही तृप्ति भी नहीं, इसी प्रकार विरक्ति भी नहीं। वह तो जैसे जीवन है, अनन्त प्रवाहयुक्त शाश्वत जीवन, अतिमधुर, अतिरम्य, अतिमनोरम! जो कोई उसे पा लेता है उसका जीवन धन्य हो जाता है।”
―
वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
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