“यह शरीर बहु मलों का घर है। इसमें काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, एषणाएं हैं। सो पुत्र, यह समुद्र के समान है। समुद्र में आठ अद्भुत गुण हैं, इसी से असुर महासमुद्र में अभिरमण करते हैं। वह क्रमशः निम्न, क्रमशः प्रवण, क्रमशः प्रारम्भार होता है। वह स्थिर-धर्म है, किनारे को नहीं छोड़ता। वह मृत शरीर को निवास नहीं करने देता, बाहर फेंक देता है। सब महानदी, गंगा, यमुना, अचिरवती, शरभू, मही, जब महासमुद्र को प्राप्त होती हैं तो अपना नाम-गोत्र त्याग देती हैं। और भी पानी, धारा, अन्तरिक्ष का वर्षा जल समुद्र में जाता है, परन्तु महासमुद्र में ऊनता या पूर्णता कभी नहीं होती। वह महासमुद्र एक रस है। वह रत्नाकर है–शंख, मोती, मूंगा, वैदूर्य, शिला, रक्तवर्ण मणि, मसाणगल्ल समुद्र में रहती हैं। वह महासमुद्र महान् प्राणियों का निवास है–तिमि, तिमिंगिल, तिमिर, पिंगल, असुर, नाग, गन्धर्व उसमें वास करते हैं। उनमें सौ योजनवाले शरीरधारी भी हैं, तीन सौ योजन वाले भी हैं, चार सौ योजनवाले भी हैं।..... ‘‘सो पुत्र, धर्ममय जीवन भी समुद्र की भांति क्रमशः गहरा, क्रमशः प्रवण, क्रमशः प्रारम्भार है, एकदम किनारे से खड़ा नहीं होता। सो धर्मजीवन में क्रमशः क्रिया, मार्ग, आज्ञा और प्रतिवेध होता है। उसी का क्रमशः अभ्यास करने से मनुष्य अनागामी भी होता है। यह जीवन का ध्रुव ध्येय है। सो सोमभद्र, तू महासमुद्र के अनुरूप बन, पुण्य कर और मलरहित हो निर्वाण को प्राप्त कर।”
―
वैशाली की नगरवधू [Vaishali ki Nagarvadhu]
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