Laxman Rao's Blog, page 7

January 14, 2015

देश के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा हेतु इंदिरा गांधी के प्रयास



इंदिरा गांधी जहां भी जाती थीं वहां पर अपने देश की कमज़ोरियां कभी नहीं बताती थीं और न ही किसी देश के आगे आर्थिक मदद के लिए हाथ फैलाती हुई दिखाई देती थीं. इंदिरा गांधी समझ रही थीं कि देश के लिए क्या करना है. सन 1951 में देश में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगभग 3 करोड़ थी, पर बीस वर्षों बाद सन 1971 में यह संख्या लगभग 9 करोड़ हो चुकी थी. ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब बच्चे विद्यालय में पड़ने जाना कठिन काम समझते थे जबकि कृषि में काम करना उन्हें अच्छा लगता था. इसके लिए इंदिरा गांधी प्रयास कर रही थीं कि बच्चों को घरों से निकल कर विद्यालय जाने के लिए प्रोत्साहन मिले. परन्तु बच्चे व उनके माता – पिता विरोध करते थे.
इस विषय में इंदिरा गांधी का यही कहना था कि जो बच्चे अपने भविष्य को नहीं समझ पा रहे हैं और उनके माता – पिता बच्चों को शिक्षा की तरफ ले जाने के लिए उत्साहित नहीं हैं तो ऐसे में क्या प्रयत्न किये जाएँ? परन्तु फिर भी इंदिरा गांधी ने अपने प्रयासों में कमी नहीं आने दी. उन्होनें गांव - गांव में प्राथमिक विद्यालय बनाने की योजना बनायी और बच्चों को पुस्तकों को उनका साथी बताने लगीं. इंदिरा गांधी को इस बात पर भी गर्व था कि बच्चे शिक्षा की तरफ भले ही कम ध्यान दे रहे हों, फिर भी भारतीय समाज में प्राचीन संस्कृति की झलक दिखाई देती थी, जिसमें सभ्यता, आदर्शवाद, ईमानदारी व एक – दूसरे का मान – सम्मान रखने की भावना थी. इंदिरा गांधी इस बात पर गर्व करती थीं कि हमारे देश के इतिहास को इसी प्राचीन सभ्यता ने सजीव बना रखा है.
-       --  वैचारिक रचना ‘प्रधानमंत्री’से, पृष्ठ संख्या - 77
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Published on January 14, 2015 05:38

January 13, 2015

प्रिवीपर्स पर रोक

समय से पहले स्वतंत्र भारत में पहली बार लोकसभा भंग हुई थी और यह चर्चा का विषय था. क्योंकि संसद में विशेष मुद्दे उठाये गए थे और उन मुद्दों को इंदिरा गांधी सरकार ने पारित किया था जिसमें प्रिवीपर्स का विशेष मुद्दा था. प्रिवीपर्स का अर्थ – देशभर के वे धनी लोग जिन्हें राज्यों में राजा, ज़मीनदार, उच्च घरानों के प्रतिनिधि आदि ऐसे लोगों को सरकार से या अंग्रेज़ी शासनकाल से हर वर्ष अनुदान दिया जा रहा था. इस प्रकार का अनुदान जिन्हें मिल रहा था वे लोग आर्थिक परिस्थिति से पहले से ही सुदृढ़ थे.
इस पर रोक लगनी चाहिए ऐसा पूरे देश में राजनीतिक क्षेत्र में आक्रोश था. यह बिल संसद में रखा गया और इंदिरा गांधी ने इसे बहुमत से पास किया. इस बिल को सर्वसम्मति से पास तो किया गया परन्तु पक्ष और विपक्ष के कुछ सांसदों को यह रास नहीं आया क्योंकि वे भी प्रिवीपर्स के सहभागी थे. उसके बाद कांग्रेस के ही कुछ सांसद इंदिरा गांधी के विरुद्ध इस बिल के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगे और जब इंदिरा गांधी को यह लगने लगा की मेरी ही पार्टी के सांसद मुझसे बगावत करने लगें तो कोई उचित कदम उठाना चाहिए. इसलिए इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने की सिफारिश की और लोकसभा भंग करके नए चुनाव घोषित किये गए.

- वैचारिक रचना 'प्रधानमंत्री' से
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Published on January 13, 2015 06:47

January 12, 2015

October 23, 2014

Happy Deepawali

आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !!! :-)
 Wish you all a very happy and prosperous Deepawali !!! :-)


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Published on October 23, 2014 02:50

October 22, 2014

अस्पतालों की अवस्था




स्वास्थ्य जीवन की प्राथमिकता है. स्वास्थ्य ठीक नहीं तो कुछ भी ठीक नहीं. स्वास्थय यदि ठीक नहीं तो उसे कैसे ठीक किया जाए यह भी एक प्रश्न है. आजकल चिकित्सक पर भी पूरी तरह से विश्वास करना कठिन है. चिरपरिचित अस्पताल और सुप्रसिद्ध डॉक्टर से भी विश्वास उठ जाता है.
कुछ साल पहले श्रीमतीजी का स्वास्थ्य खराब रहने लगा था. छह महीने बीत गए तब हमने निर्णय लिया कि किसी विद्वान महिला डॉक्टर को दिखाना चाहिए. श्रीमती जी को लेकर मैं विकास मार्ग पर लक्ष्मी नगर के एक सुप्रसिद्ध अस्पताल गया.
डॉक्टर ने दो दिन की दवाई लिखी और दो दिन बाद फिर आने को कहा. दो दिन बाद फिर हम गए तो उस महिला डॉक्टर ने मेरी पत्नी से कहा कि – “आपकी बीमारी कुछ अलग दिख रही है. आप हमारे एक्सपर्ट डॉक्टर को दिखाओ, पर उनकी फीस ज़्यादा है.” हम राज़ी हो गए. एक्सपर्ट को दिखाया तो उन्होंने सी. टी. स्कैन, ब्लड टेस्ट वगैरह के लिए कहा. सब रिपोर्ट्स लेकर फिर उस एक्सपर्ट के पास गए तो उन्होंने कहा कि – “आपके सीने में गाँठ है. यह गाँठ टी. बी. की भी हो सकती है और कैंसर की भी.” हम घबरा गए. आगे वे बोले – “मैं आपको एक कैंसर स्पेशलिस्ट हॉस्पिटल में भेजता हूँ. उनकी जांच फीस सात सौ रुपये है.” हम उनसे पता लेकर घर आ गए और सोचने लगे कि वह डॉक्टर सात सौ रुपये मात्र चेकअप के लेते हैं तो आगे क्या होगा? दो-चार दिन हम सोचते रहे. पैसों का बंदोबस्त नहीं था इसलिए मैंने नागपुर में रहने वाले अपने छोटे भाई को फ़ोन किया और अपनी परिस्थिति से अवगत कराया. उन्होंने तुरंत पांच हज़ार रुपये भेज दिए और साथ-साथ यह भी कहा कि – “किसी फ़र्ज़ी डॉक्टर के कहने में मत आना, सरकारी अस्पताल में ही इलाज ठीक रहेगा.”
हम बंगाली मार्केट के बाबर रोड गए. वहां कैंसर सोसाइटी का एक क्लीनिक है, वहां दिखाया. चेकअप के बाद डॉक्टर ने ये कहा कि कैंसर नहीं है. उन्होंने शक दूर करने के लिए हमें AIIMSजाकर दिखने के लिए कहा. सफदरजंग स्थित इस अस्पताल के कैंसर विभाग में जाकर सारे कागज़ एवं रिपोर्ट्स दिखाई. उन्होंने कहा कि कल सवेरे O.P.D.में दिखाओ. दूसरे दिन आकर O.P.D. में दिखाया. उन्होंने चौथी मंज़िल पर भेज दिया. 2घंटे बाद नंबर आया. डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद एक सप्ताह बाद फिर बुलाया. इसी तरह चार हफ्ते बीत गए. परेशान होकर हमने डॉक्टर से कहा कि – “न तो आप दवाई दे रहे हैं और अगले सप्ताह आने की ही बात करते हो.” कहने लगे – “आपको सीनियर डॉक्टर को दिखाना है और आज भी वे ऑपरेशन थिएटर में हैं. अगले सप्ताह आइये, आपसे उनकी मुलाकात करवाते हैं.” 
अगले सप्ताह गए तो फिर वही स्थिति थी. उन्होंने ग्राउंड फ्लोर पर टी. बी. विभाग में भेजा. वहां पर आरम्भ से इलाज शुरू हुआ. लगातार दस हफ्ते जाते रहे. फिर उन्होंने X-Ray व सी. टी. स्कैन अपने पास रख लिए और दूसरे दिन आने को कहा. दूसरे दिन गए तो डॉक्टर ने कहा कि मरीज़ को टी. बी.है. उन्होंने चार सौ रुपये महीने की दवाई लिख कर दी. वह दवाई श्रीमतीजी तीन महीने तक लेती रहीं. उसके बाद उसमे 25%दवाई घटाई गयी. फिर तीन महीने इलाज चला. छह महीने में टी. बी. की बीमारी ख़त्म हुई. अब पत्नी का स्वास्थ्य एकदम ठीक है.  अंत में यही कहा जा सकता है कि यदि स्वास्थ्य खराब हो जाता है तो चिकित्सक पर विश्वास करना कठिन है. आज अस्पताल भी व्यापार का स्थान बन गए हैं. मजबूर व्यक्ति धन खर्च करके अपना इलाज तो करवा सकता है, परन्तु जो निर्धन है उसे मृत्यु को स्वीकार करना पड़ता है. दिल्ली के सफदरजंग क्षेत्र में AIIMSनाम का अस्पताल भले ही इलाज की दृष्टि से प्रथम श्रेणी का है, परन्तु वहां की प्रशासन व्यवस्था ठीक नहीं है. नंबर की प्रतीक्षा दो-दो घंटों तक करनी पड़ती है. AIIMS का स्टाफ अपने मरीज़ बिना लाइन के डॉक्टर के पास पहुंचाता है. डॉक्टर को भी ऐतराज़ नहीं है. मरीज़ को पूछताछ कक्ष से सही सलाह भी नहीं मिल रही. पूछा कुछ जाता है और बताया कुछ जाता है.
पर ईश्वर की कृपा से सोच समझकर कष्ट उठकर यदि इलाज करवाया जाए तो सरकारी अस्पतालों में ही समाधान है. प्राइवेट अस्पताल व नर्सिंग होम मात्र धनी लोगों के लिए हैं. इसलिए गरीब लोग सरकारी अस्पतालों की तरफ अधिक भागते हैं. दिल्ली के हर बड़े से बड़े सरकारी अस्पताल में ग्रामीण लोग अधिक आते हैं. ग्रामीण लोगों के पास न तो पैसा है न समय और न इलाज का ज्ञान है. इसलिए सरकारी अस्पतालों में आने वाले मरीज़ों की गरीबी व दयनीय अवस्था दिखाई देती है. अस्पताल के हालात देखकर जो गरीबी का स्पष्ट चित्र है वह दिखाई देता है. ईश्वर करे हर व्यक्ति अपने घर में सुखी रहे और उसे अस्पताल के चक्कर न काटने पढ़ें.
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Published on October 22, 2014 07:14

October 20, 2014

माता वैष्णो देवी तीर्थस्थान के प्रबंधकों का कहना है कि व...



माता वैष्णो देवी तीर्थस्थान के प्रबंधकों का कहना है कि वहां आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या घटती जा रही है. 70 और 80 के दशकों में माता वैष्णो देवी के श्रद्धालुओं की भीड़ इतनी होती थी कि गुफा का द्वार छोटा पड़ने लगा था. 
अब परिस्थितियां बदल गयी हैं. पिछले कुछ वर्षों में आई प्राकृतिक आपदाओं की वजह से बहुत कम श्रद्धालु तीर्थ स्थानों पर जाने का साहस कर पाते हैं. बद्रीनाथ - अमरनाथ की यात्राएं सुविधाओं और सुरक्षा प्रबंधों में कमियों के कारण कष्टप्रद सिद्ध हो रही हैं.
दूसरी तरफ शिर्डी के साईं बाबा के पास दिन-प्रतिदिन भीड़ बढ़ रही है. परन्तु आलोचक महापंडित ये जानना चाहते हैं कि साईं बाबा कौनसे समाज के थे. और संघ के प्रधान सचिव का कहना कि 2019 तक राम मंदिर बनाने का बहुत अच्छा सुअवसर है. 
इस तरह की बयानबाज़ी से तीर्थ स्थानों का महत्व घटता है. भक्तों के लिए तीर्थ स्थानों तक पहुँचने के साधन और वहां पर उनकी सुविधाओं के लिए प्रयास किये जाने चाहिए. भक्तों की सुरक्षा का भी पूरा प्रबंध होना चाहिए.
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Published on October 20, 2014 05:31

August 17, 2014

NARMADA's eSINGLES ARE AVAILABLE

Narmada’s eSingles are available on Newshunt App. Click on the link to download the book.
http://ebooks.newshunt.com/Ebooks/hindi/Narmada-Bhag-1-6/b-34255


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Published on August 17, 2014 04:40

July 25, 2014

सफलता प्राप्ति का रहस्य



मनुष्य का जीवन क्याहै यह समझनाबहुत कठिन है. व्यक्ति का जीवनबालपन से हीबनता है. जीवन  मेंजितना  भीविकास हुआ हैउसकी शुरुआत बालपनसे ही होती है. जो लोग अपनेजीवन में कुछनहीं कर पायेवे अपने जीवन  कोतो भूल जातेहैं पर अपनेबच्चों का भविष्यबनाने में लगजाते हैं .
आपको भारत देशमें ऐसे अनेक उदाहरणमिलेंगे कि जोव्यक्ति उच्च शिक्षाप्राप्त करके उच्चाधिकारी बन गए  उनकेमाता-पिता साधारण लोग थे. जैसे हेड क्लेर्क, हेड मास्टर, अध्यापकयहां तक कीचपरासी आदि. इसतरह के छोटेकार्य करके उन्होंनेअपने बच्चों कोउच्च शिक्षा प्रदान की और उनके बच्चेयोग्य व वरिष्ठअधिकारी बन गए. लड़कियों को उच्चशिक्षा दी औरउनकी बेटियां धनिपरिवार में ब्याहीगयीं .
जब तक एकपीढ़ी त्याग कीभावना नहीं अपनाएगीतब तक दूसरी पीढ़ीअपना जीवन स्तरउच्च दर्जे कानहीं बना  सकती. आज हरकाम में स्पर्धाहै. स्पर्धा मेंरूचि रखना जीवनके विकास काहिस्सा बन गयाहै. समय ऐसाआ गया  है कीजनरल नॉलेज, कंप्यूटरट्रेनिंग, कम्पटीशन यह सबजीवन का हिस्साबन गए हैं. ग्रामीण बच्चे शहर कीतरफ  यहसब प्राप्त करने केलिए भाग रहेहैं. भले हीउनकी आर्थिक परिस्थितिगरीबी की होपरन्तु उनमें उन्नति का  रास्ताहासिल करने काजज़्बा है. इसकेअतिरिक्त जीवन मेंकुछ नहीं है. हर कला हर ज्ञानसमय के साथ-साथहस्तगत की जातीहै. जिन्होंने समयव सुअवसर खोदिए वे जीवनमें निराश दिखाईदेते हैं.
जीवन बनाने के लिए जोविशेष गुण मनेजाते हैं उनगुणों का होनाअत्यंत आवश्यक है. जैसेकि प्रामाणिकता, ज़िद्द, कठिन परिश्रम, जिज्ञासा, संयम केसाथ-साथ आत्मविश्वास. जिस व्यक्ति मेंयह सब गुणहैं वह व्यक्तिअपने जीवन कोसामान्य से महत्वपूर्णबना सकता है. क़ुछ लोगोंमें ऐसे व्यसनहोते हैं जिनसेछुटकारा नहीं मिलपाता. जब कष्टउठाने की बातआती है तोकिसी न किसीकारण से टाल दियाजाता है. यहअसफलता का कारण होता है. समय का सदुपयोग नहीं कियातो जीवन मेंकेवल असफलता है. इसलिए हमारे पास-पड़ोस के लोग असफल हैं. बहुत से लोगतृतीय या चतुर्थश्रेणी की नौकरियाँकरने की तरफध्यान नहीं देतेहैं. योग्यता होनेके पश्चात भीफॉर्म नहीं भरतेहैं. उम्र निकलनेतक ऊंचे पदकी आशा मेंधक्के खाते रहतेहैं. अंततः उनकेहाथों में शून्यहोता है. जबछोटी नौकरी हाथमें होगी तोपदोन्नति उसी छोटेपद से ऊपरके पद परहोनी है. फिरछोटे से पदसे ही शुरुआतक्यों न कीजाए?
ऐसे ही लोगजीवन भर कुछनहीं कर पायेऔर अंततः पश्चातापकरते रहे. कोईभी काम करतेसमय उस कामके  प्रतिमन में शंकानहीं होनी चाहिएऔर उस कामके लिए अनुभवचाहिए तथा दिखानेके लिए प्रमाणभी होने चाहिए.
बच्चे एक हीपरीक्षा  बार-बार देचुके हैं, फिरभी पास नहींहुए. इसका कारणमात्र पढ़ाई न करनाहै. कुछ परीक्षाएंऐसी भी हैंजिनमें पांच यादस प्रतिशत विद्यार्थीही उत्तीर्ण होपाते हैं. अपनेशैक्षणिक जीवन मेंयदि विद्यार्थियों कोउत्तीर्ण होना हैतो उसके लिएएकाग्रता से तह तक अध्ययन करना चाहिए. जब तक शिक्षानहीं पाओगे तब तकभटकते रहोगे यादूसरों पर निर्भररहोगे. फिर जीवनमें यश प्राप्तकरना है तोउसके लिए जीवनमें संघर्ष करनापड़ता है.
जीवन में संकटभी बहुत आतेहैं. इन्हे भौतिकसंकट कहा जाताहै. संकटों कासामना करना पड़ताहै. इसी मेंजीवन की सफलताहै. अच्छा वस्वादिष्ट भोजन सबकोनहीं मिलता. सबकीपत्नियां सुन्दर नहीं हैं. सबका रहन-सहन प्रशंसनीय नहींहै. इसी कारणसमाज में भेदभावव वर्गीकरण है. अपने करियर कोकैसे संवारना है, यह स्वयं सोचनापड़ेगा और संयमप्रमाणित करके दिखानापड़ेगा. आलस्य मनुष्य काशत्रु है. आलसीव्यक्ति के सामनेयश नहीं अपयश होताहै. अंततः वहयह कहकर टालदेता है कीमेरा नसीब हीनहीं है. इसमेंनसीब का कोईदोष नहीं है. दोष आलस्य काहै. बुद्धिमान व्यक्ति  काचेहरा बताता हैकि वह कितना बुद्धिमानहै.
- दृष्टिकोण पुस्तक  से   साहित्यकार लक्ष्मण राव
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Published on July 25, 2014 02:18

November 29, 2013

November 23, 2013

100% मतदान का महत्त्व

चुनाव प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य प्रक्रिया है. देश में जो प्रशासनिक व्यवस्था है वह चुनाव प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है. राज्यों में जब भी कोई उथल-पुथल होती है या नागरिकों को जितनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उसके लिए जनता चाहती है कि जल्दी से जल्दी चुनाव हो और भ्रष्ट नेताओं को बदलकर ईमानदार एवं कर्मठ नेता का चुनाव करके प्रशासन को और सुदृढ़ बनाया जाए.
परन्तु प्रशासन सुदृढ़ बने और चुनी गयी सरकार जनता के हितों के लिए काम करे, यह तभी सम्भव है जब देश के शत् प्रतिशत मतदाता अपना मतदान करें. परन्तु कुल मिलकर 50 से 55 प्रतिशत का मतदान विधानसभा के लिए किया जाता है. लोक सभा के लिए तो 30 से 35  प्रतिशत तक ही रह जाता है.
इसका कारण जनता में चुनाव प्रक्रिया और प्रशासन में विश्वास का न होना है. नेता जो अपना विश्वास खो बैठे उसे पुनः स्थापित करने के लिए दलों के पास बुद्धिजीवी प्रतिनिधि नहीं हैं. जो प्रतिनिधि बनना चाहते हैं वे या तो घिसे-पिटे चेहरे हैं या फिर धनी व्यक्ति चुनाव लड़ना चाहते हैं और इसमें क्षेत्र और मोहल्ले के भ्रष्ट और बदमाश लोग उनकी मदद करने में लगे रहते हैं. इसलिए पढ़े -लिखे, बुद्धिजीवी, धनी और अधिकृत कॉलोनी में रहने वाले लोग मतदान करने नहीं जाते. क्योंकि उन्हें लगता है कि चुनाव प्रक्रिया अब बेईमानी का खेल बन कर रह गया है.
लोगों की यह सोच बिलकुल सही है. अक्सर चुनावों में ऐसा ही होता है और अंततः कम मतदान होने से भ्रष्ट नेता चुनकर आता है और आगे वह भ्रष्ट बन कर ही काम करता है. ऐसे भ्रष्ट नेताओं पर दबाव डालने के लिए अधिक से अधिक मतदान करने की आवश्यकता है. भ्रष्ट नेता ‘अ’ पार्टी का भी है और ‘ब’ पार्टी  का भी है. झुग्गी-झोपड़ी और गरीबी रेखा से नीचे घोषित किये गए लोग ही उन्हें चुनकर लाते हैं. इसलिए वे नेता उन लोगों के लिए ही काम करते हैं. वे जानते हैं कि वे इसलिए चुनकर आये हैं क्योंकि झुग्गी-झोपड़ी के लोगों ने उन्हें वोट दिया है. इसलिये उनकी सोच बदल जाती है और फिर वह बिना किसी दबाव के काम करते हैं जिसमे फंड का दुरुपयोग करना, अपराधियों को सुरक्षा देना व उनका बचाव करना, जो लोग उनके चुनाव के लिए काम आये थे उनकी आर्थिक व सरकारी मदद करना शामिल है. फिर वह नेता पूरे क्षेत्र पर ध्यान नहीं देते हैं.
ऐसे नेताओं  की कार्य पद्धति बदलने के लिए जब तक क्षेत्र के सभी लोग मतदान नहीं करेंगे तब तक प्रशासन बदल नहीं सकता. हम सभी को अपने मतों का प्रयोग करके चुनाव को शत् प्रतिशत बदलने का प्रयास करना चाहिए. जिस पार्टी का जो नेता आप चाहते हैं उसे आप वोट डालिये. वे सभी नेता देश के नागरिक हैं और चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त हैं. इसलिए उस क्षण तक वे जनता के प्रतिनिधि हैं. उन पर किसी प्रकार का आरोप या प्रत्यारोप नहीं लगा सकते.
आपका कीमती वोट किसी भी नेता का मूल्यांकन कर सकता है. जो पार्टी, जो नेता आप चुनेंगे वो जीत कर आएगा. और यदि शत् प्रतिशत वोटिंग की  जाती है तो उस जीते हुए प्रतिनिधि की सोच बदल सकती है और वह हर क्षेत्र के हर व्यक्ति के लिए काम कर सकता है, जैसे कि – बिजली, पानी, सुरक्षा, शिक्षा, पेंशन, बाग़-बगीचे, सड़कें, आदि -आदि.
चुनाव प्रक्रिया को त्रुटिपूर्ण समझकर चुनाव के दिन घर में ही रहने का प्रयास न करें. अपितु परिवार के साथ घर के बाहर निकलकर अपना कीमती वोट डालें और चुनाव प्रक्रिया को सफल बनाइये.
- साहित्यकार लक्ष्मण राव
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Published on November 23, 2013 02:32