Laxman Rao's Blog, page 5
February 2, 2016
उपन्यास ‘दंश’ का प्रथम अध्याय

वह गेस्ट हाउस केवल उच्च शिक्षा अधिकारियों के लिए था. हमारेपंजाब के बलवंत सिंहजी महाराष्ट्र शिक्षा विभाग में उच्च शिक्षा अधिकारी थे. उन्होंनेही मुझे अनुमति पत्र देकर उस गेस्ट हाउस में ठहरने की अनुमति प्राप्त करवाई थी.
गेस्ट हाउस के स्वागत कक्ष में जाकर मैंने अनुमति पत्र दिखाया. स्वागतकक्ष अधिकारी ने मेरा नाम-पता लिखकर मुझे एक कक्ष की चाबी दी और कर्मचारी को बुलवाकर मेरा सामान प्रथम तल पर आरक्षित कक्ष तक पहुंचाने का आदेश दिया. मैंनेउन्हें धन्यवाद कहा और अपने कक्ष के पास जाकर दरवाज़ा खोलकर सामान अंदर रखवाया व कर्मचारी को चाय-पानी के नाम से कुछ पैसे दिए. वह‘नमस्ते बाबूजी’ कहकर चला गया.
मैं बहुत थक चुका था. दरवाज़ा अंदर से बंद करके मैं सो गया और फिर चार घंटे के बाद मेरी आँख खुली. स्नानकरके मैं तैयार हो गया. तबतक दोपहर का एक बज चुका था. मेरीनज़र दरवाज़े पर पड़ी जहां फर्श पर एक पर्चा पड़ा हुआ था,शायद वह मेरे लिए मैसेज था. मैंउस पर्चे को उठाकर पढ़ने लगा. उसमेंलिखा था – “सरदारबलवंत सिंहजी का आपके लिए दो बार फोन आया था. आपकृपया उनसे संपर्क करें.”
उस पर्चे को लेकर मैं स्वागत कक्ष में पहुंचा और वह पर्चा अधिकारी को दिखाया. उन्होंनेसरदारजी साहब को फ़ोन लगाया. फिरउन्होंने रिसीवर मुझे सौंप दिया और मैं बात करने लगा.
मैंनेकहा – “जी सर, मैं परमजीत बोलरहा हूँ.”
उन्होंने कहा– “ठीकसे पहुँच गएन?” मैंने सकारात्मक उत्तरदिया.
आगेउन्होंने कहा – “अभी मैंऑफिस में हूँ. शाम को मेरेघर पहुंचना. हमआगे की योजनाबनाएँगे. ठीक है?”
मैंनेकहा – “जी ठीकहै सर.” उन्होंने फ़ोनरख दिया. पश्चातमैं भोजन कक्षमें जाकर भोजनकरने लगा.
बलवंत सिंहजी तीस-पैंतीस वर्षों से महाराष्ट्र प्रदेश में रहते थे. कभीबम्बई, कभी नांदेड, कभी पूना, परन्तु इस समय वे पूना विद्यापीठ के शिक्षण संस्थान में उच्च अधिकारी थे. वेपंजाब में हमारे ही गाँव के रहने वाले थे. मेरेपिताजी के साथ उनकी गहरी मित्रता थी. वेबार-बार मेरे पिताजी से कहते थे – “अपनेलड़के को ऑफिसर बनाओ. यदिमेरी कोई सहायता लगे तो अवश्य बताना.”
उन्ही के कहने पर मैं पूना आया था. मैंनेपंजाब यूनिवर्सिटी से बी. ए.किया था और अब अंग्रेजी विषय में एम.ए. करना चाहता था. वेमेरे सामने पूना के फर्गुसन कॉलेज की बहुत बार प्रशंसा कर चुके थे. कहतेथे – “एक बार तुम फर्गुसन कॉलेज की बिल्डिंग व परिसर देख लेना, तुम्हारीआँखें खुल जाएंगी. तुमसोचते ही रह जाओगे कि उच्च शिक्षा क्या होती है.”
भोजन करते-करते मैं यही सोच रहा था कि सबसे पहले फर्गुसन कॉलेज देखूं. क्योंकिअब मेरे पास समय भी था. भोजनकरके पूछताछ करते हुए मैं घूमते-फिरते फर्गुसन कॉलेज पहुँच गया और मैं देखता ही रह गया. जिस छात्रको अध्ययन की जिज्ञासा है वह छात्र ऐसे ही शिक्षण संस्थानों को देख ले, मनको शान्ति मिल जाएगी. मैं सपनेदेखने लगा. इसीकॉलेज में मुझे एम.ए. के लिए एडमिशन मिल जाना चाहिए. पंजाबकी तुलना में पूना-बम्बई वास्तव में शिक्षा के माध्यम से बहुत उच्चकोटि के शहर थे.
अब मेरा मन पूना की तरफ खिंचता चला जा रहा था. शामको मैं सरदारजी साहब के घर पहुँच गया. रातका भोजन भी मैंने उन्हीं के घर किया. उनकाभी भरा-पूरा परिवार था. पत्नी-बच्चेव उनके माता-पिता भी उन्हीं के साथ रहते थे. मेरेलिए उन्होंने कॉलेज से एडमिशन फॉर्म भी खरीद लिया था. मुझेफॉर्म देते हुए कहने लगे – “इसफॉर्म को भर लेना, साथमें पासपोर्ट साइज के फोटोग्राफ भी लगने हैं. उसपर हस्ताक्षर मैं कर दूंगा. पश्चातमैं गेस्ट हाउस चला आया.”
दूसरे दिन ही मेरा कॉलेज में एडमिशन हो गया. यहसब सरदारजी साहब के प्रयासों से ही संभव हुआ था. क्योंकिअंग्रेजी में एम.ए. करने के लिए छात्र-छात्राओं का अभाव रहता था. फिरअंग्रेजी सुनने-सुनाने में तो अच्छी लगती थी, किन्तु जब व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करने की बारी आती थी तो कई विद्यार्थी एम.ए. फर्स्ट ईयर से ही छोड़कर चले जाते थे. एडमिशनलेते समय सरदारजी साहब ने मुझे यही हिदायत दी थी कि मन लगाकर पढ़ना. बच्चोंके समझ में नहीं आता है तो छोड़कर चले जाते हैं. मैंनेउन्हें आश्वासन दिया था कि मैं मन लगाकर पढूंगा तथा विश्वास के साथ एम.ए. पास करूँगा.
एडमिशन की समस्या हल हो गयी थी. अबसमस्या थी खर्चे की और पूना शहर में दो वर्ष रहने की. क्योंकिजिस गेस्ट हाउस में मैं ठहरा था वहां पर अधिक-से-अधिक सात दिन तक ही ठहर सकते थे.
मुझे अपने घर से पिताजी जो रकम भेजेंगे वह रहने के लिए पर्याप्त नहीं थी. इसलिएमैं सोच रहा था कि शाम के समय ट्यूशन पढ़ाने का काम कर लूंगा. परअब ख़ुशी इस बात की थी कि एडमिशन हो गया था तथा पंजाब से जो सपना पूरा करने के लिए मैं पूना आया था उसकी नींव डल चुकी थी.
- उपन्यास ‘दंश’से साहित्यकार लक्ष्मण राव
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