Hindutva Quotes

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Hindutva Hindutva by V.D. Savarkar
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“हिंदू तथा उनकी संस्कृति मानव के निराशा तथा निरुत्साही आत्मा को शीतल चंद्रप्रकाश के समान सदैव आनंद तथा उत्साह का स्रोत बनी हुई है।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“हिंदुस्थान की प्रतिष्ठा तथा स्वातंत्र्य अबाधित केवल हिंदुस्थान की ही नहीं, अपितु सारे हिंदुत्व की संस्कृति तथा सार्वजनिक जीवन से जुड़ी एकता को प्रस्थापित करने का कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण समझा गया था। इसी हिंदुत्व के लिए सैकड़ों रणभूमियों पर युद्ध करना पड़ा तथा हर प्रकार की राजनीतिक युक्ति का भी प्रयोग करना पड़ा। ‘हिंदुत्व’ शब्द हमारे संपूर्ण राजनैतिक जीवन की रीढ़ की हड्डी बन गया। इतना कि कश्मीर के ब्राह्मणों की यातनाओं से मलाबार के नायरों की आँखें अश्रुपूरित हो जातीं।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“आर्यावर्त दक्षिणापथ अथवा जंबुद्वीप और भारतवर्ष हम लोगों की राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक विशेषताएँ स्पष्ट रूप से प्रकट करने हेतु असमर्थ सिद्ध हुए। हिंदुस्थान नाम में सामर्थ्य विद्यमान थी। सिंधु से सागर तक की भूमि हम लोगों की जन्मभूमि है—यह माननेवाले तथा सिंधु के इस तट पर निवास करनेवाले लोगों को स्पष्ट रूप से ज्ञात हो गया कि इस भूमि को एक ही नाम हिंदुस्थान से पहचाना जाता है।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“धर्म एक अत्यधिक प्रभावी शक्ति है। लूटपाट करने की लालसा भी ऐसी ही एक प्रबल शक्ति है। जब यह शक्ति धर्मभावना पर हावी हो जाती है, तब उनके संयोग से एक भयावह दानवी शक्ति उपजती है। वह मानव का संहार करती है तथा प्रदेशों को जलाकर नष्ट कर देती है।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“ग्रामे-ग्रामे स्थितो देवः देशे देशे स्थितो मखः। गेहे गेहे स्थितं द्रव्यं धर्मश्चैव जने जने॥ (—भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व)”
V.D. Savarkar, Hindutva
“(मनु)। यह दुष्टता जब तक इस विश्व में हावी रहेगी और जब तक आकाश में चमकने वाले तारों की भाँति दूर से ही सुहानेवाले सत्य धर्म के विचार इस दुष्टता की पराजय नहीं करते, तब तक कोई भी राष्ट्र अपना ध्वज त्यागकर विश्वबंधुत्व का ध्वज फहराने के लिए मान्यता नहीं देगा।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“हिंदुस्थान में ही परिपक्व हुए तथा हिंदुस्थान को ही अपनी मातृभूमि मानकर उसे पूजनेवाले अनेक श्रेष्ठ अर्हताओं तथा भिक्षुओं के महान् कर्म संघों ने मानव को अपनी मूल पाशवी प्रवृत्तियों से दूर करने का प्रथम तथा यशस्वी प्रयास करने का संकल्प करने के पश्चात् उसका प्रयोग अनेक शतकों तक किया। इसी एक बात से हमारी भावनाएँ इस प्रकार आंदोलित हो उठती हैं कि उन्हें शब्दों में प्रकट करना असंभव है। जिस संघ के लिए हमारे मन में इस प्रकार की भावनाएँ विद्यमान हैं। उस परमज्ञानी बौद्ध भगवान् के लिए हम किन शब्दों में आदर व्यक्त कर सकते हैं? हे तथागत बुद्ध! अत्यंत क्षुद्र कोटि के हीनतम मानव के रूप में हमारे दैन्य तथा अल्पता को ही तुम्हारे चरणों पर अर्पण करने हेतु हम तुम्हारे सम्मुख उपस्थित होने का साहस नहीं कर सकते। तुम्हारे उपदेश का सार हमारी बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती। तुम्हारे शब्द ईश्वर के मुख से निकले शब्द हैं।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“सिंधुस्थान कोई छोटा सा क्षेत्रीय संघ नहीं है। वह एक राष्ट्र है अर्थात् ‘राज्ञः राष्ट्रम्’। इस अर्थ में वह सदा किसी एक शासन के अधीन नहीं रहा, तथापि एकता की भावना के कारण निश्चित रूप से एक अखंड राष्ट्र था। वहाँ जिस संस्कृति का विकास हुआ तथा जो लोग इस राष्ट्र के नागरिक बने, उन दोनों को वैदिक काल की प्रथा के अनुसार ‘सिंधु’ कहा जाता।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“यहाँ ‘आर्य’ शब्द का प्रयोग इसीलिए किया गया है ताकि सिंधु नदी के इस ओर के अपने वैभवशाली राष्ट्र के तथा जातियों के सभी अनिवार्य घटकों का उसमें समावेश हो। इसमें वैदिक या अवैदिक, ब्राह्मण अथवा शूद्र आदि भेद नहीं किया गया। केवल समान संस्कृति, रक्त-संबंध देश तथा राज्यसंस्था का उत्तराधिकार जिन्हें प्राप्त हुआ है, वे सभी ‘आर्य’ कहलाते हैं।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“इस आर्य देश तथा राष्ट्र पर हूणों के राजा न्यूनपति तथा उसके बौद्धपंथीय सहायकों ने एक साथ मिलकर जो आक्रमण किया तथा जिसका लाक्षणिक और यथार्थ, परंतु संक्षिप्त वर्णन हम लोगों के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, उसका निर्देश हम यहाँ करनेवाले हैं। इस प्राचीन ग्रंथ में कुछ पौराणिक प्रकार से ‘हहा नदी के तट पर प्रचंड युद्ध किस प्रकार किया गया, बौद्धों की सेनाओं का शिविर चीन देश में किस कारण स्थापित हुआ’ (चीन देशमुपागम्य युद्धभूमीमकारयत्) विभिन्न बौद्ध राष्ट्रों की सहायक सेनाएँ उन्हें किस प्रकार आकर मिलीं तथा इस कारण उनके सैन्य की संख्या में कितनी वृद्धि हुई (श्याम देशोद्भलक्षास्तथा लक्षाश्च जापकाः। दश लक्ष्याश्चीनदेश्या युद्धाय समुपस्थितः॥) तथा अंत में बौद्धों को किस प्रकार पराभूत होना पड़ा और इस पराजय के फलस्वरूप उन्हें कितना जबरदस्त दंड मिला—आदि का वर्णन किया गया है। अंततः बौद्धों को प्रकट रूप से अपनी राष्ट्रीय ध्येयाकांक्षाओं को स्वीकार करना पड़ा तथा उन्हें त्यागना पड़ा। भविष्य में किसी प्रकार के राजकीय उद्देश्य से हिंदुस्थान में प्रवेश न करने की स्पष्ट तथा बंधनकारक शपथ उन्हें लेनी पड़ी। हिंदुस्थान सभी के साथ सहिष्णुतापूर्वक आचरण करता था। अतः बौद्धों को व्यक्तिगत रूप से किसी तरह का भय होने का कोई कारण नहीं था। हिंदुस्थान की स्वतंत्रता तथा राजनीतिक जीवन के लिए संकट उत्पन्न करनेवाली सभी आकांक्षाओं का त्याग करना उनके लिए आवश्यक था। ‘सर्वैश्च बौद्धवृदैश्च तत्रैव शपथं कृतम्। आर्यदेशं न यास्यामः कदाचिद्राष्ट्रहेतवे॥’ (—भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व)”
V.D. Savarkar, Hindutva
“स्पेन के कैथोलिक इंग्लैंड के सिंहासन पर कैथोलिक पंथ के राजा को आसीन करने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें सहानुभूति दरशानेवाला एक प्रमुख गुट इंग्लैंड में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान था। उसी प्रकार बौद्ध धर्म के अनुकूल विचार रखनेवाले कुछ आक्रमणकारियों को भी हिंदुस्थान में चल रहे युद्ध के समय गुप्त रूप से सहानुभूति दिखानेवाले अनेक बौद्धधर्मीय लोग यहाँ भी विद्यमान थे। इसके अतिरिक्त बाहर के बौद्धधर्मीय राष्ट्रों ने निश्चित राष्ट्रीय तथा धार्मिक उद्देश्य से हिंदुस्थान पर आक्रमण किए थे। इन घटनाओं के स्पष्ट प्रमाण हम लोगों के प्राचीन ग्रंथों में विभिन्न स्थानों पर मिलते हैं।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“ऐसे विश्वधर्म का क्या उपयोग, जिसने हिंदुसथान को असुरक्षित और असजग अवस्था में तो छोड़ा ही, साथ-साथ अन्य राष्ट्रों की क्रूरता और पशुता भी कम न करा सका। संरक्षण का एकमात्र मार्ग अब नजर आता है, तो वह है—राष्ट्रीयता की भावना से उत्पन्न, बलशाली एवं पराक्रमी पुरुषों की समर्थ शक्ति। अवास्तव तत्त्वज्ञान के जंजाल में फँसकर हिंदुस्थान ने अपना रक्त तो बहाया, परंतु उसका परिणाम विपरीत हुआ।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“उस समय हिंदुस्थान विश्वबंधुत्व तथा अहिंसा के नशे में इतना डूबा हुआ था कि आक्रमणकारियों का प्रतिकार करने की इसकी शक्ति ही नष्ट हो चुकी थी। इसी हिंदुस्थान में अन्याय के प्रति लोगों के मन में कटु द्वेष प्रज्वलित करने का तथा शाश्वत प्रतिकार-शक्ति का वरदान प्राप्त करा देने के लिए दोनों के लिए पूज्य, पूजा-प्रार्थना तथा मठ-संस्थाओं को नष्ट करना आवश्यक था।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“जब तक राष्ट्रीय तथा वांशिक भेद मानव को पशुता तक पहुँचाने के लिए पर्याप्त रूप से प्रबल हैं तब तक अपनी आत्मा के प्रकाश के अनुसार किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक अथवा राजकीय जीवन में उन्नति करनी है तो राष्ट्रीय तथा जातीय बंधनों से उत्पन्न शक्ति की अवहेलना करना हिंदुस्थान के लिए उचित नहीं होगा। इसीलिए विश्वबंधुत्व आदि शब्दों का केवल वाणी में ही प्रयोग किए जाने के कारण तथा कृति विहीनता के कारण विद्वानों के मन में घृणा उत्पन्न हुई। बहुत खेदपूर्वक उन्होंने कहा— ये त्वया देव निहिता असुराश्चैव विष्णुना। ते जाता म्लेच्छरूपेण पुनरद्य महीतले॥ व्यापादयन्ति ते विप्रान् घ्रन्ति यज्ञादिकाः क्रियाः। हरन्ति मुनि कन्याश्च पापाः किं किं न कुर्वन्ति॥ म्लेच्छाक्रांते च भूलोके निर्वषट्कारमंगले। यज्ञयागादि विच्छेदाद्देवलोकेऽवसीदति॥ (—गुणाढ्य२७) जिस नितांत रम्य भूमि ने श्रद्धायुक्त अंतःकरण से भिक्षु वस्त्रों को अंगीकृत किया था, खड्ग को त्यागकर हाथों में सुमरिनी लेकर भगवान् का नाम जपते हुए अहिंसा की प्रतिज्ञा की थी, उस भूमि को जलाकर जिन्होंने वीरान बना दिया, उन शक, हूणों की हिंस्र टोलियों को सिंधु के पार खदेड़ दिया गया तथा एक नई सुदृढ़ राजसत्ता स्थापित की गई। उस समय के राष्ट्रीय नेताओं को इस बात का अनुभव हुआ होगा कि यदि धर्म ने भी इस कार्य को सहायता दी तो कितना प्रचंड शक्तिसामर्थ्य निर्माण किया जा सकता है।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“जब तक राष्ट्रीय तथा वांशिक भेद मानव को पशुता तक पहुँचाने के लिए पर्याप्त रूप से प्रबल हैं तब तक अपनी आत्मा के प्रकाश के अनुसार किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक अथवा राजकीय जीवन में उन्नति करनी है तो राष्ट्रीय तथा जातीय बंधनों से उत्पन्न शक्ति की अवहेलना करना हिंदुस्थान के लिए उचित नहीं होगा।”
V.D. Savarkar, Hindutva
“हिंदुत्व’ कोई सामान्य शब्द नहीं है। यह एक परंपरा है। एक इतिहास है। यह इतिहास केवल धार्मिक अथवा आध्यात्मिक इतिहास नहीं है। अनेक बार ‘हिंदुत्व’ शब्द को उसी के समान किसी अन्य शब्द के समतुल्य मानकर बड़ी भूल की जाती है। वैसा यह इतिहास नहीं है। वह एक सर्वसंग्रही इतिहास है।”
V.D. Savarkar, Hindutva