“जब तक राष्ट्रीय तथा वांशिक भेद मानव को पशुता तक पहुँचाने के लिए पर्याप्त रूप से प्रबल हैं तब तक अपनी आत्मा के प्रकाश के अनुसार किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक अथवा राजकीय जीवन में उन्नति करनी है तो राष्ट्रीय तथा जातीय बंधनों से उत्पन्न शक्ति की अवहेलना करना हिंदुस्थान के लिए उचित नहीं होगा। इसीलिए विश्वबंधुत्व आदि शब्दों का केवल वाणी में ही प्रयोग किए जाने के कारण तथा कृति विहीनता के कारण विद्वानों के मन में घृणा उत्पन्न हुई। बहुत खेदपूर्वक उन्होंने कहा— ये त्वया देव निहिता असुराश्चैव विष्णुना। ते जाता म्लेच्छरूपेण पुनरद्य महीतले॥ व्यापादयन्ति ते विप्रान् घ्रन्ति यज्ञादिकाः क्रियाः। हरन्ति मुनि कन्याश्च पापाः किं किं न कुर्वन्ति॥ म्लेच्छाक्रांते च भूलोके निर्वषट्कारमंगले। यज्ञयागादि विच्छेदाद्देवलोकेऽवसीदति॥ (—गुणाढ्य२७) जिस नितांत रम्य भूमि ने श्रद्धायुक्त अंतःकरण से भिक्षु वस्त्रों को अंगीकृत किया था, खड्ग को त्यागकर हाथों में सुमरिनी लेकर भगवान् का नाम जपते हुए अहिंसा की प्रतिज्ञा की थी, उस भूमि को जलाकर जिन्होंने वीरान बना दिया, उन शक, हूणों की हिंस्र टोलियों को सिंधु के पार खदेड़ दिया गया तथा एक नई सुदृढ़ राजसत्ता स्थापित की गई। उस समय के राष्ट्रीय नेताओं को इस बात का अनुभव हुआ होगा कि यदि धर्म ने भी इस कार्य को सहायता दी तो कितना प्रचंड शक्तिसामर्थ्य निर्माण किया जा सकता है।”
―
Hindutva
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