“हिंदुस्थान में ही परिपक्व हुए तथा हिंदुस्थान को ही अपनी मातृभूमि मानकर उसे पूजनेवाले अनेक श्रेष्ठ अर्हताओं तथा भिक्षुओं के महान् कर्म संघों ने मानव को अपनी मूल पाशवी प्रवृत्तियों से दूर करने का प्रथम तथा यशस्वी प्रयास करने का संकल्प करने के पश्चात् उसका प्रयोग अनेक शतकों तक किया। इसी एक बात से हमारी भावनाएँ इस प्रकार आंदोलित हो उठती हैं कि उन्हें शब्दों में प्रकट करना असंभव है। जिस संघ के लिए हमारे मन में इस प्रकार की भावनाएँ विद्यमान हैं। उस परमज्ञानी बौद्ध भगवान् के लिए हम किन शब्दों में आदर व्यक्त कर सकते हैं? हे तथागत बुद्ध! अत्यंत क्षुद्र कोटि के हीनतम मानव के रूप में हमारे दैन्य तथा अल्पता को ही तुम्हारे चरणों पर अर्पण करने हेतु हम तुम्हारे सम्मुख उपस्थित होने का साहस नहीं कर सकते। तुम्हारे उपदेश का सार हमारी बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती। तुम्हारे शब्द ईश्वर के मुख से निकले शब्द हैं।”
―
Hindutva
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