“इस आर्य देश तथा राष्ट्र पर हूणों के राजा न्यूनपति तथा उसके बौद्धपंथीय सहायकों ने एक साथ मिलकर जो आक्रमण किया तथा जिसका लाक्षणिक और यथार्थ, परंतु संक्षिप्त वर्णन हम लोगों के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, उसका निर्देश हम यहाँ करनेवाले हैं। इस प्राचीन ग्रंथ में कुछ पौराणिक प्रकार से ‘हहा नदी के तट पर प्रचंड युद्ध किस प्रकार किया गया, बौद्धों की सेनाओं का शिविर चीन देश में किस कारण स्थापित हुआ’ (चीन देशमुपागम्य युद्धभूमीमकारयत्) विभिन्न बौद्ध राष्ट्रों की सहायक सेनाएँ उन्हें किस प्रकार आकर मिलीं तथा इस कारण उनके सैन्य की संख्या में कितनी वृद्धि हुई (श्याम देशोद्भलक्षास्तथा लक्षाश्च जापकाः। दश लक्ष्याश्चीनदेश्या युद्धाय समुपस्थितः॥) तथा अंत में बौद्धों को किस प्रकार पराभूत होना पड़ा और इस पराजय के फलस्वरूप उन्हें कितना जबरदस्त दंड मिला—आदि का वर्णन किया गया है। अंततः बौद्धों को प्रकट रूप से अपनी राष्ट्रीय ध्येयाकांक्षाओं को स्वीकार करना पड़ा तथा उन्हें त्यागना पड़ा। भविष्य में किसी प्रकार के राजकीय उद्देश्य से हिंदुस्थान में प्रवेश न करने की स्पष्ट तथा बंधनकारक शपथ उन्हें लेनी पड़ी। हिंदुस्थान सभी के साथ सहिष्णुतापूर्वक आचरण करता था। अतः बौद्धों को व्यक्तिगत रूप से किसी तरह का भय होने का कोई कारण नहीं था। हिंदुस्थान की स्वतंत्रता तथा राजनीतिक जीवन के लिए संकट उत्पन्न करनेवाली सभी आकांक्षाओं का त्याग करना उनके लिए आवश्यक था। ‘सर्वैश्च बौद्धवृदैश्च तत्रैव शपथं कृतम्। आर्यदेशं न यास्यामः कदाचिद्राष्ट्रहेतवे॥’ (—भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व)”
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Hindutva
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