Sanskriti Ke Chaar Adhyay (Hindi)
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अपने धर्म और आध्यात्मिक विश्वास पर सुदृढ़ रहते हुए भी मुसलमान कितना अधिक भारतीय हो सकता है, रहीम इसके जाज्वल्यमान प्रमाण हैं।
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रसखान जाति के पठान थे।
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सुनो दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहौंगी मैं, देव–पूजा ठानी मैं निवाज हूँ भुलानी, तजे कलमा–कुरान, सारे गुनन गहौंगी मैं। स्यामला सलोना सिरताज सिर कुल्ली दिए, तेरी नेह–आग में निदाग हो दहौंगी मैं। नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत पे, ताँड़ नाल प्यारे, हिन्दुवानी हो रहौंगी मैं।
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इस्लाम का हिन्दुत्व पर प्रभाव
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इस्लाम प्रभावित होने से डरता है, क्योंकि, संशोधित, प्रभावित अथवा सुधरा हुआ इस्लाम इस्लाम नहीं है।
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इस्लामी प्रभाव का अतिरंजन
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जब डॉक्टर ताराचन्द और प्रोफेसर कबीर यह कहते हैं कि स्वामी शंकराचार्य ने अपना अद्वैतवाद इस्लाम से लिया, तब ज्ञानी उपेक्षा की हँसी हँसते हैं
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दर्शन और विचार के धरातल पर इस्लाम ने हिन्दुत्व पर कोई प्रभाव नहीं डाला।
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कबीर साहब की मृत्यु सन् 1518 ई. में हुई और तुलसीदासजी सन् 1532 ई. में जनमे
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खानखानाँ रहीम को उर्दू का कवि मानना सरासर मनमानी है। रहीम के समय के मुस्लिम कवि या तो फारसी लिखते थे या हिन्दी में। उस समय उर्दू का अस्तित्व ही नहीं था।
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शंकराचार्य और इस्लाम
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नासदीय सूक्त ने जीवन और सृष्टि के विषय में जो मौलिक प्रश्न उठाए थे, उन्हीं के प्रश्नों का समाधान खोजते-खोजते पहले उपनिषद्, फिर बौद्ध दर्शन और सबके अन्त में, शंकर का सिद्धान्त प्रकट हुआ।
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ज्ञानेनाऽकाशकल्पेन धर्मान्यो गगनोपमान्, ज्ञेयाभिन्नेन सम्बुद्धः तं वन्दे द्विपदां वरम्।3
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इस्लाम, आरम्भ में, दर्शनमुक्त धर्म था।
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जिन दिनों शंकर जनमे (788 ई.) उन दिनों तक, इस्लाम शून्यवाद के ऊहापोह में पड़ा भी नहीं था।
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शंकर के विचारों पर दार्शनिक वसुबन्धु की पूरी छाप है।
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शंकराचार्य का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि उन्होंने हिन्दुत्व को पौराणिक धर्म से मोड़कर उपनिषदों की ओर उन्मुख कर दिया।
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हिन्दुत्व का गढ़ दक्षिण देश
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शंकर के शुद्धाद्वैत में भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं था, साकारोपासना
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वर्णाश्रम का विरोध
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ईसा, से दो सौ वर्ष पूर्व भक्ति के अंकुर इस देश में उगने लगे थे और छठी सदी के आलवार सन्तों की वाणी एवं गुप्त–कालीन साहित्य में तो भक्ति रूप धरकर खड़ी हो चुकी थी।
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गुरु–परम्परा
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ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।
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आलवार सन्त
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भगवत्प्राप्ति का मार्ग सबके लिए उन्मुक्त है, भगवान् को पाने के लिए उच्च वंश का होना आवश्यक नहीं है, यह भाव, प्रधान रूप से, पहले आलवारों में ही प्रकट हुआ।
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वीर शैव और इस्लाम
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वीर शैव लिंगायत धर्म को मानते हैं और इनका दावा है कि यही धर्म शैव धर्मों में सबसे प्राचीन है।
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इस धर्म के नेता वासव थे जो कालाचुरी–वंश के राजा बिज्जल (1156–67) के मन्त्री थे।
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ये लोग जाति को नहीं मानते।
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पुनर्जन्म में इनका विश्वास नहीं है।
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वीर शैव–साहित्य की परम्परा कन्नड़ भाषा में ग्यारहवीं सदी तक पहुँचती है। इसके सिवा, इस मत का काफी साहित्य तमिल और तेलुगु भाषाओं में भी उपलब्ध है।
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अल्लम प्रभु इस सम्प्रदाय के बहुत बड़े सन्त हुए हैं, जो वीर शैव मत के प्रवर्तक वासव के समकालीन थे।
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इस मत के लोग शक्ति–विशिष्ट–अद्वैत में विश्वास नहीं करते हैं। इस्लाम विशिष्ट अथवा अविशिष्ट, किसी प्रकार के, अद्वैत में विश्वास नहीं करता।
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संन्यासियों के शवों के गाड़ने की प्रथा भी हजारों वर्ष प्राचीन है।
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भौगोलिक एकता और मुक्त चिन्तन
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मदुरा 1736 ई. तक, मैसूर 1761 ई. तक और तंजौर 1799 ई. तक हिन्दू–राजाओं के अधीन था।
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‘हिस्ट्री अॉफ द फ्रीडम मूवमेंट’,
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भक्ति–आन्दोलन और इस्लाम
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भक्ति की प्राचीनता
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उत्पन्ना द्राविड़े चाहं कर्णाटे वृद्धिमागता, स्थिता किंचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता।
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सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज, अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच।
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भक्ति भारत का सनातन जन–धर्म थी और आर्यों के पहले से ही वह इस देश में प्रचलित थी।
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हिन्दुत्व किसी एक नबी, एक पैगम्बर या एक अवतार का निर्माण नहीं है। अनेक सन्तों, मुक्त चिन्तकों, महात्माओं और द्रष्टाओं से सेवित होने के कारण वह, आरम्भ से ही, कट्टरपन्थी नहीं उदार रहा है।
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गीता का महत्त्व
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निगम और दूसरे को आगम कहने का रिवाज है। निगम वेद हैं जिन्हें हिन्दू अपौरुषेय मानते हैं। आगमों की उत्पत्ति शिव, शक्ति या विष्णु से मानी जाती
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भगवान् कृष्ण का अप्रतिम महत्त्व यह है कि उन्होंने भागवत–सम्प्रदाय की भक्ति को वेदान्त के ज्ञान और सांख्य के दुरूह अध्यात्म से एकाकार कर दिया।
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कबीरदास ने भक्ति के उत्तर–युग का प्रवर्तन किया और इस्लाम का जो प्रभाव भक्ति पर पड़ना था, वह इसी युग में पड़ा।
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अतिरंजनवादियों की भ्रान्ति
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आलवार भक्त
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मेरा जन्म द्विजाति–कुल में नहीं हुआ, न मैं चारों वेदों का जाननेवाला हूँ। मैं अपनी इन्द्रियों को भी नहीं जीत पाया हूँ। इस कारण, हे भगवान्! मुझे तुम्हारे प्रकाशमान चरणों के अतिरिक्त अन्य किसी भी शक्ति का भरोसा नहीं है।’’ ऐसे भाव आलवारों के थे।
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