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February 5 - February 26, 2023
प्रपत्ति, शरणागति, आत्म–समर्पण और एकान्तनिष्ठा से विभूषित भक्ति का सम्यक् विकास और प्रचार आलवारों के साहित्य द्वारा नवीं सदी के पूर्व ही सम्पन्न हो चुका था
अभी तक भागवत–पुराण ही भक्ति–आन्दोलन का मूल–ग्रन्थ समझा जाता है। किन्तु हमारा अनुमान है कि इस आन्दोलन का मूल–ग्रन्थ भागवत नहीं, प्रबन्धम् है।
विशिष्टाद्वैत–सम्प्रदाय का प्रथम विवेचन यामुनाचार्य (916 से 1040 ई.) ने किया, जो प्रबन्धम् के सम्पादक श्री नाथमुनि (रघुनाथाचार्य) के पुत्र अथवा पौत्र थे।
रामानुज यह कैसे कह सकते थे कि शूद्रों को वैष्णव होने का अधिकार नहीं है? अधिकार तो उन्होंने दिया, किन्तु, प्रपत्ति को उन्होंने शूद्र भक्तों के लिए, विशेष रूप से विहित बताया।
रामानुज की देन
बारहवीं सदी के आरम्भ में रामानुज ने जिस विशिष्टाद्वैत–दर्शन का महल खड़ा किया, उसकी नींव यामुनाचार्य ने ही डाली थी।
रामानुज के मुख्य ग्रन्थ तीन हैं, (1) वेदार्थ–संग्रह, (2) गीता की टीका और (3) वेदान्त–सूत्र का श्रीभाष्य।
वेदान्त का ईश्वर, असल में, ईश्वर नहीं ब्रह्म है, जिसने संसार की रचना नहीं की, जो भक्तों की प्रार्थना पर ध्यान नहीं देता, जिसे विश्व के प्रपंच से कोई मतलब नहीं, जो शुद्ध, बुद्ध, निराकार और निर्विकार है।
शंकर केवल ब्रह्म का ही अस्तित्व मानते हैं, किन्तु रामानुज–मत में ईश्वर (ब्रह्म) के समान जीव और प्रकृति भी अनादि हैं।
‘तत्त्वमसि’, वेदान्त के इस वाक्य की व्याख्या शंकर ने यह की थी कि जीव भी ब्रह्म ही है। रामानुज ने यह अर्थ चलाया कि ‘तत्’ (अर्थात् सृष्टि का कारण स्वरूप ईश्वर) ‘त्वम्’ (अर्थात् जीव में छिपी हुई आत्मा) से एकाकार है।
रामानुज ने मोक्ष का अर्थ ब्रह्म में विलीन होने की अवस्था को नहीं बताया। उनका कहना है कि मोक्ष उस व्यक्ति को मिलता है जो इस जीवन में भक्ति की साधना को पूर्ण कर चुका है। ऐसे भक्त मृत्यु के बाद एक अन्य शरीर प्राप्त करते हैं तथा अनन्त काल तक वैकुंठ में ईश्वर का सामीप्य लाभ करके वहाँ भी भक्ति की साधना करते रहते हैं।
रामानुज ने आलवारों के इस मुक्त संस्कार को वर्णाश्रम के नियन्त्रणों से कैसे मिलाया, यह भी देखने योग्य है। उन्होेंने ज्ञान, कर्म और भक्ति को तो द्विजों के लिए विहित बताया, किन्तु प्रपत्ति का द्वार सबके लिए उन्मुक्त कर दिया।
स्वामी रामानन्द
रामोपासना का वास्तविक प्रवर्तन रामानन्द ने किया।
संगठन में प्रवेश पाने का अधिकार उन्होंने उन वैष्णवों को भी दिया जो जन्मना शूद्र अथवा मुसलमान थे।
‘आनन्दभाष्य’
रामायण भी हिन्दी में पीछे, तमिल में पहले लिखी गई थी।
कबीर के राम दशरथ के पुत्र नहीं हैं12
राम की कल्पना में कबीर ने जो परिवर्तन किए, उनका कारण इस्लामी प्रभाव था।
उन्नीसवीं सदी में समग्र हिन्दुत्व का पूरा प्रतिनिधित्व परमहंस रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने किया जो मूर्तिपूजा, व्रत, उपवास, अवतार और तीर्थ, सबको सार्थक एवं अनिवार्य समझते थे।
बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने भी (1485–1533 ई.) मुसलमानों को शिष्य–रूप में स्वीकार किया।
शंकरदेव ने जो महापुरुषीय सम्प्रदाय चलाया,
महापुरुषाीय–सम्प्रदाय में शूद्र गुरु भी ब्राह्मण शिष्य को दीक्षा दे सकता
शैवाचार्य
शैवाचार्य नाम्बिआन्दार–नम्बी ने शैव गानों और पदों का संकलन ग्यारह जिल्दों में किया, जिनका सम्मिलित नाम ‘तिरुमरइ’ या पावन पुस्तक
आलवारों के पदों में जो स्थान विष्णु का था, नायनारों के गीतों में वही स्थान शिव का है।
रहस्यवाद
इस पद्धति की अभारतीयता यह है कि इसमें परमात्मा को नायिका का रूप दे देते हैं, जबकि भारतीय दृष्टिकोण से परमात्मा ही पुरुष और आत्मा ही नारी मानी जाती है।
भक्ति–आन्दोलन में हिन्दी में तीन प्रकार के कवि उत्पन्न हुए।
अमृत और हलाहल का संघर्ष
तौहीदे–इलाही
हिन्दुओं के बीच इस्लाम के प्रति श्रद्धा जगाने को उसने एक छोटा–सा उपनिषद् भी लिखवाया था, जिसका नाम ‘ अल्लोपनिषद्“e;
सन् 1593 ई. में, उसने धार्मिक स्वतन्त्रता के लिए कई आज्ञाएँ निकालीं, जिनमें से प्रमुख ये थीं कि (1) कोई जबर्दस्ती मुसलमान बनाया गया हिन्दू अगर फिर हिन्दू बनना चाहे तो उसे कोई न रोके। (2) किसी भी आदमी को जबर्दस्ती एक धर्म से दूसरे धर्म में न लाया जाए। (3) प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म–मन्दिर बनाने की पूरी स्वतन्त्रता रहे और (4) जबर्दस्ती किसी विधवा को सती न बनाया जाए।
हलाहल का विस्फोट
शेख अहमद सरहिन्दी
शेख अहमद सरहिन्दी का जन्म 1563 ई. में हुआ था और उसकी मृत्यु सन् 1624 ई. में, यानी अकबर की मृत्यु के कोई 19 साल बाद हुई।
हिन्दुओं से शेख अहमद को भयानक विद्वेष था। वह उन्हें काफिर समझता था और उसका विश्वास था कि काफिरों के दलन और अपमान से बढ़कर भगवान् को प्रसन्न करने का और कोई उपाय नहीं है।
शेख अहमद सरहिन्दी के मरने के बाद उसके मतों के प्रचार का बीड़ा अहमद के पुत्र, मुहम्मद मासूम ने उठाया। और जब मासूम का देहान्त हुआ, तब उसके बेटे शेख सैफुद्दीन
शेख सैफुद्दीन को औरंगजेब ने अपना गुरु बनाया
अमृत की पराजय
औरंगजेब ने दाराशिकोह को मार डाला। जिस दिन दाराशिकोह मारा गया, उस दिन हलाहल जीता और अमृत हार गया।
एकता के दुर्बल प्रहरी
1632 ई. में, न जाने शाहजहाँ को क्या हुआ कि उसने फरमान निकाल दिया कि अब आगे से नए मन्दिर नहीं बनवाए जाएँ और जो मन्दिर बनाए जाने के क्रम में हों, वे तोड़ दिए जाएँ।
पराजित पीयूष, दाराशिकोह
क्रान्तिकारी का साथी कोई नहीं
औरंगजेब ने दाराशिकोह का पीछा किया, बेचारा दारा बाज के द्वारा खदेड़े हुए कपोत के समान सारे राजस्थान और पंजाब में त्राण खोजता भागता फिरा। किन्तु, कोई भी हिन्दू माई का लाल ऐसा नहीं निकला, जो उसे शरण दे अथवा उसकी ओर से झंडा लेकर खड़ा हो।
धर्मान्धता का परिणाम
विद्रोह मचाया कि मुगल–साम्राज्य की नींव ही उखड़ गई। किन्तु औरंगजेब की धर्मान्धता पर सबसे विलक्षण टीका यह हुई कि उसके अन्याय से आहत होकर गुरु नानक का चलाया हुआ सिक्ख–सम्प्रदाय, जो शान्त भक्तों का सम्प्रदाय था, खुलकर सैनिकों का सम्प्रदाय बन गया।
अकबर और औरंगजेब
भारतीय इस्लाम के सबसे बड़े कवि सर मुहम्मद इकबाल ने