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February 5 - February 26, 2023
अधिकांश मुसलमान उसी के किनारे बैठे रह गए और यही बड़ा दल संकट आने पर भारत–विरोधी हो गया और उसी के दबाव से भारत का विभाजन भी हुआ।
एकता की राह
भारत–विभाजन से ऐसा दीखता है, मानो, शंका, द्विधा और अन्धकार की यह धारा जीत गई है।
अंग्रेजों की भेद–नीति
हिन्दुओं में ज्यों–ज्यों राष्ट्रीय भाव बढ़ता गया, त्यों–त्यों अंग्रेज मुसलमानों की राज–भक्ति को सुदृढ़ रखने के लिए उन्हें अधिक–से–अधिक ओहदे देते गए कि तराजू के दोनों पलड़े ठीक रहें।
इस आन्दोलन में मुसलमानों ने हिन्दुओं का साथ नहीं दिया, परिणामत:, इस आन्दोलन की भाव–धारा शुद्ध हिन्दू भाव–धारा होती गई।
मुस्लिम–लीग
1906 ई. में वायसराय ने कुछ मुसलमानों को मुस्लिम–लीग नामक संस्था स्थापित करने की अनुमति दी5 तथा मिंटो–मोर्ले–रिफ़ाॅर्म में उसने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाने का एलान कर दिया। मिंटो
मिस्टर जिन्ना लीग में सन् 1913 में आए। उसके पूर्व वे कांग्रेस में थे।
1931 ई. की गोल–मेज़ कान्फ्रेंस के समय मुस्लिम लीग अंग्रेजों की दृष्टि में भी भारतीय मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था नहीं थी,
एकता की तरंग
साम्प्रदायिकता का विस्फोट
सन् 1924 ई. में मोपला–विद्रोह हुआ, जिसका प्रधान कारण आर्थिक था, किन्तु हिन्दुओं पर उस विद्रोह में जो अत्याचार हुए, उनसे यह घटना हिन्दू–मुस्लिम–कलह का नमूना बन गई।
राउंड टेबिल कॉन्फ्रेंस में सरकार ने चुन–चुनकर उन्हीं मुसलमानों को बुलाया जो साम्प्रदायिकता से भरे हुए थे। उन दिनों राष्ट्रीय मुसलमानों में बड़े–से–बड़े लोग मौजूद थे। लेकिन सरकार ने उन्हें तृणवत् नगण्य समझा।
सन् 1937 ई. के चुनाव में तो मुस्लिम जनता ने यह स्पष्ट बतला दिया कि मुस्लिम लीग मुसलमानों की प्रतिनिधि–संस्था नहीं है।8 हाँ चुनाव के कुछ महीने बाद, जब कई प्रान्तों में कांग्रेस की सरकारें बन गईं, तब उस मौके से मुस्लिम लीग ने बहुत लाभ उठाया, और अन्त में वह मुसलमानों को इस बहकावे का शिकार बनाने में समर्थ हो गई कि हिन्दुओं के बहुमत–राज से मुसलमानों का सम्पूर्ण विनाश हो जाएगा।
मुस्लिम–लीग की बढ़ती
मुस्लिम–लीग आरामतलब अमीरों की संख्या थी। उसके सदस्यों ने भी कोई बलिदान नहीं किया, न जनता ही उससे प्रेम करती थी। फिर भी, इस संस्था ने मुसलमानों को आग में झोंकने का रास्ता निकाल दिया।
मौलाना मुहम्मद अली कांग्रेस को छोड़ चुके थे, किन्तु भारत में अंग्रेजी शासन के वे प्रबल विरोधी थी। वे यदि जीवित रहते तो मिस्टर जिन्ना को आगे आने का मौका नहीं मिलता।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद मौजूद थे और कांग्रेस–संगठन में उनका वह स्थान था जो केवल महात्मा गांधी के ही नीचे था। इस्लामी दर्शन और इस्लामी साहित्य की दृष्टि से देखें तो मौलाना आज़ाद का स्थान बिलकुल बेजोड़ था। उनके समान शुद्ध मुसलमान और इस्लाम का प्रबल व्याख्याता बीसवीं सदी में कोई और हुआ है या नहीं, इसका निर्णय आसानी से नहीं किया जा सकता।
मौलाना स्वयं दर्शन–पक्ष थे। उनका क्रिया–पक्ष बननेवाला मुसलमान उन्हें नहीं मिला। यही कारण है कि जब राष्ट्रीयतावादी बड़े–बड़े मुस्लिम नेता उठ गए और जिन्ना साहब ने गेंद लेकर मैदान में प्रवेश किया, तब बहुत–कुछ वह मैदान जिन्ना को खाली मिल गया।
राष्ट्रवादी मुसलमान
मुस्लिम कवियों की राष्ट्रीयता
मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है एवं रूस में धर्म तिरस्कृत हो गया है।