Sanskriti Ke Chaar Adhyay (Hindi)
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आरम्भ से ही सर सैयद मुसलमानों को यह सलाह देते रहे कि कांग्रेस में उनका जाना ठीक नहीं है। सन् 1887 ई. की 28 दिसम्बर को कांग्रेस का अधिवेशन मद्रास में हो रहा था और उस वर्ष उसके सभापति भी एक मुसलमान सज्जन थे। ठीक उसी दिन, लखनऊ में सर सैयद ने भाषण दिया कि मुसलमानों को राज–भक्ति के पथ पर आरूढ़ रहकर, अधिक–से–अधिक, सरकारी नौकरियाँ प्राप्त करते रहना चाहिए।
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अंग्रेज टर्की से लड़ाई भी लड़ते हों, तब भी, भारत के मुसलमानों को अंग्रेजों के प्रति राज–भक्त रहना ही चाहिए।
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राज–भक्ति के हिलते हुए पाये को मजबूत करने के लिए सर सैयद ने मुसलमानों को हिन्दू–आतंक का भी भय दिखाया।
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सन् 1858 ई. में सर सैयद ने अंग्रेजों को इसलिए भी फटकारा था कि सेना में अंग्रेजों ने हिन्दू और मुस्लिम रेजिमेंट अलग–अलग क्यों नहीं रखे कि हिन्दू बागियों को मुस्लिम और मुस्लिम बागियों को हिन्दू सेना तबाह कर देती। क्यों उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक ही रेजिमेंट में रखकर उन्हें दोस्त बनने का मौका दिया?
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सर सैयद के सहयोगी
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चिराग़ अली ऐसे ही विद्वान् थे। उनके लेख सर सैयद के अखबार तहज़ीबुल-एख़लाक़ में अकसर छपते थे। विशेषत: उनकी चोट ईसाई–धर्म–प्रचारकों पर थी जो आए दिन इस्लाम की निन्दा करते रहते थे।
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मुहसिनुलमुल्क सैयद मेहदी अली
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सलाउद्दीन खुदाबख्श
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अलीगढ़ का मुस्लिम कॉलेज, ढाका विश्वविद्यालय (स्थापित 1920 ई.), कलकत्ते का इस्लामिया कॉलेज (स्थापित 1921 ई.) तथा वैसी अन्य अनेक संस्थाएँ सर सैयद के दर्शन का केन्द्र बन गईं और वहाँ से पढ़कर निकलनेवाले अधिकांश नौजवान सर सैयद के सिद्धान्तों के मूर्तिमान रूप बन गए।
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मौलाना हाली
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मौलाना शिबली नोमानी
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‘बुद्धि उपयोगी है’, यह जीवन सत्य है; संसार की उपेक्षा सिखानेवाला धर्म, धर्म नहीं है’; इन बातों को सर सैयद के समान शिबली भी कबूल करते थे। किन्तु बुद्धि के फेरे में पड़कर धर्म की अलौकिक बातों का खंडन करने को वे तैयार नहीं थे।
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स्वाभिमान का उदय
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विचारकों ने यह कहना आरम्भ किया कि इस्लाम को यूरोप से विज्ञान और बुद्धिवाद की भी शिक्षा नहीं लेनी है। ये दो तत्त्व भी इस्लाम में, पहले से ही, विद्यमान हैं। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि लोग इस दृष्टि से इस्लाम के इतिहास और धर्म–ग्रन्थों का अवलोकन करें।
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मौलाना अमीर अली प्रमुख थे। सन् 1891 ई. में उनकी प्रसिद्ध पुस्तक स्पिरिट अॉफ इस्लाम प्रकाशित
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अमीर अली ने इस्लाम का जो चित्र खींचा, वह संसार के सर्वश्रेष्ठ धर्म का चित्र था। उसके प्रवर्तक संसार के सम्पूर्ण इतिहास के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष थे और मुसलमान संसार के सर्वश्रेष्ठ मनुष्य।
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सर मुहम्मद इक़बाल
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नवोत्थान के कवि
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जिस समाज में कवि उत्पन्न नहीं होते, वह अन्धों का समाज होता है, वह बहरे लोगों का समाज होता है, जो अपनी धमनी की आवाज नहीं सुन पाता। प्रत्येक समाज अपने कवि के आगमन की राह देखता है, क्योंकि कवि ही वह यन्त्र है, जिससे समय के ताप की ऊँचाई अथवा निचाई मापी जाती है।
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सर मुहम्मद इक़बाल का जन्म सन् 1873 ई. में और मृत्यु सन् 1938 ई. में हुई। वे स्यालकोट (पंजाब) के रहनेवाले थे।
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राष्ट्रीयता का स्वर
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उनका ‘तरानए–हिन्दी’ (सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा) और ‘नया शिवालय’ (सच कह दूँ अय बिरहमन, गर तू बुरा न माने) उन्हीं दिनों की रचनाएँ हैं।
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मिट्टी की मूरतों में समझा है तू, ख़ुदा है। ख़ाके–वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है।
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मुस्लिम–राष्ट्रीयता के भाव
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जब इक़बाल का मन भारतीय राष्ट्रीयता से बिदक गया, उनकी कल्पना एक भिन्न दिशा में मँडराने लगी। वे तन–मन से इस्लाम के उद्धार में लग गए।
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मुसलमान सारे विश्व में फैले हुए थे, इसलिए उन्होंने एक ऐसी राष्ट्रीयता की कल्पना कर ली, जिसका आधार देश नहीं, धर्म था। और इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने इस्लाम को सर्वश्रेष्ठ धर्म, मुसलमान को सर्वश्रेष्ठ मानव और इस्लामी बन्धुत्व को राष्ट्रीयता का श्रेष्ठतम रूप मान लिया।
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इक़बाल का जीवन–दर्शन
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इक़बाल सूफी–दर्शन के विरुद्ध हो गए।
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नीत्शे प्रजातन्त्र का भी द्रोही था और कहा जाता था कि दस गधों के जमा होने से एक घोड़े का दिमाग तैयार नहीं हो सकता।
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ख़ुदी का सिद्धान्त
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ख़ुदी से कुछ लोग आत्मा या रूह का अर्थ लेते हैं। अब तक के सभी धर्मों ने आत्मा का गुण विनय और निर्मलता को बताया था, किन्तु लोग यह देखकर विस्मित रह गए कि इक़बाल इसका प्रयोग अबाध वीरता और अहंकार के अर्थ में करते हैं।
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ख़ुदी और प्रेम का समन्वय करते हुए इक़बाल ने लिखा है
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महामानव की कल्पना
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नीत्शे की कल्पना का महामानव फ़ासिस्ट कहा जाएगा, किन्तु, इक़बाल की कल्पना का महामानव किसी–न–किसी प्रकार का प्रजातन्त्रीय मनुष्य है। हाँ, इतना इज़ाफ़ा हम और कर सकते हैं कि वह मुसलमान होगा, क्योंकि पाश्चात्य ढंग की प्रजा–सत्ता इक़बाल को पसन्द नहीं थी।
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मौलाना शिबली ने मुसलमानों में अपने धर्म और इतिहास के प्रति जो गौरव जगाया था, उसका संस्कार इक़बाल में अत्यन्त प्रबल था इसीलिए वे इस्लाम के सिवा और किसी धर्म की प्रशंसा करने में असमर्थ रहे,
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विफलता–बोध की पीड़ा
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1930 ई. में मुस्लिम लीग के सभापति हुए, तब अखिल भारतीय मंच से सबसे पहले उन्हीं के मुख से पाकिस्तान शब्द निकला और उन्होंने ही पाकिस्तान प्राप्त करने का दर्शन भी तैयार किया। फलत: हिन्दुओं से अलग होकर मुसलमानी राज बनाने की माँग करने में मुसलमानों को जो संकोच होता था, वह जाता रहा।28
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दलितों के कवि
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यूरोप पर शंका
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भावात्मक समाजवाद
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पान–इस्लामी राष्ट्रीयता
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मुसलमानों को यह मानने की प्रेरणा देता है कि वे और कुछ होने के पहले मुसलमान हैं। यही भाव मुसलमानों को उन देशों में अप्रसन्न रखता है, जिन देशों में मुसलमानों का राज्य नहीं है अथवा जिन देशों में वे अल्पसंख्यक हैं।
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मुसलमान–मुसलमान में जैसी एकता होती है, वैसी एकता हिन्दू–हिन्दू अथवा ईसाई–ईसाई के बीच नहीं हो पाती। अपने अनुयायियों पर जैसा कठिन नियन्त्रण इस्लाम का है, वैसा और किसी धर्म का नहीं। मार्गी–धर्म को इस्लाम ने दुनिया से नेस्तनाबूद कर दिया। ईसाई और हिन्दू–धर्म के अनुयायियों में से भी बहुतों को उसने फोड़कर अपना बना लिया। किन्तु, यही बात मुसलमानों के बारे में नहीं कही जा सकती। बहुत कम ऐसे मुसलमान होंगे, जो अपना धर्म छोड़कर अन्य धर्मों में गए होंगे।
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इस्लामी एकता के कारण
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पहली बात तो यह कि है कि हजरत मुहम्मद के बाद से इस्लाम एक ही ख़लीफ़ा के अन्दर एक ही अनुशासन में रहने का अभ्यासी रहा।
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एकता का दूसरा प्रधान कारण हज है। प्रत्येक मुसलमान की यह कामना रहती है कि वह मरने के पहले, कम–से–कम एक बार, मक्के की यात्रा अवश्य कर ले। मक्के की यात्रा करने मात्र से व्यक्ति हाजी कहलाने लगता है और समाज में उसकी इज्जत बढ़ जाती है।
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इस आन्दोलन की यह प्रवृत्ति तब से आज तक बरक़रार रही है, जिसके अनेक उदाहरण हम इक़बाल की कविताओं में देख चुके हैं। यूरोपीय आतंक के कारण मुसलमानों में एकता ही सुदृढ़ नहीं हुई, बल्कि वे बगावत पर भी उतर आए एवं सन् 1870 ई. के आस–पास, संसार के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक के मुसलमान एक साथ छिट–पुट विद्रोह कर उठे।
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यूरोपवाले यह समझते ही नहीं कि मुसलमान धर्म को किस दृष्टि से देखते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि इस्लाम केवल धर्म ही नहीं, वह सामाजिक संगठन, संस्कृति और राष्ट्रीयता का भी एक रूप है। इस्लामी बन्धुत्व देश–भक्ति के ही समान है,
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भारतीय राष्ट्रीयता और मुसलमान
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राष्ट्रीयतावादी धारा में हिन्दू अधिक, मुसलमान कम आए।