Sanskriti Ke Chaar Adhyay (Hindi)
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हम अपनी बेटी शाही खानदान में भले ब्याह दें, किन्तु शाही खानदान की बेटी को अपने यहाँ नहीं लाएँगे।
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विवाह के पूर्व ही राजपूतों की भावना शान्त कर दी गई थी; वे निरुत्तर बना दिए गए थे।
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जाति से बड़ी जात
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मुसलमान तलवार के जोर से नहीं बढ़े, भारतवासियों ने उनका सामना ही नहीं किया।
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बहुत-से लोग इसलिए भी मुसलमान हो गए, चूँकि प्रायश्चित के नियम हिन्दुओं के यहाँ थे ही नहीं। हिन्दुत्व छुई-मुई-सा नाजुक धर्म हो गया था।
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‘काला पहाड़’ नामक प्रतापी मुसलमान ने असंख्य बंगाली हिन्दुओं को मुसलमान बनाया, वह स्वयं पहले हिन्दू था एवं ब्राह्मणों के अत्याचारों से बहुत ऊबकर ही वह मुसलमान हुआ था और मुसलमान होने के बाद उसने वही किया, जो स्वाभिमानी पुरुष को करना चाहिए।
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जाति-भ्रष्ट को जाति में लाने का कोई प्रबन्ध नहीं था। यह प्रबन्ध पहले-पहल ‘देवल-स्मृति’ में किया गया, जिसमें केवल 96 श्लोक हैं और जो, शायद, दसवीं शती में लिखी गई थी।
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ब्राह्मण-बौद्ध विद्वेष
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अत्याचार का दुष्परिणाम
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अगर कोई उनकी मस्जिदें तोड़ता, तो हिन्दू राजे अपराधियों को दंड देते थे तथा टूटी हुई मस्जिदों की मरम्मत अपने पैसे से करवा देते थे।
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जब खिलाफत की राजधानी दमिश्क में आई (सन् 670 ई.), उस समय अफगानिस्तान में हिन्दू-राज्य था।
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उन्हें फटे हुए बाँस को पटककर अपने आगमन की सूचना देते हुए चलना पड़ता था, जिससे ऊँची जात के लोग उनकी छाया से बच सकें।
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सैकड़े पच्चानबे तो वे ही लोग हैं, जिनके बाद-दादे हिन्दू थे। इन नए मुसलमानों ने भी हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किया।
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साम्प्रदायिक राज्य
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किसी मुसलमान को दूसरे धर्म में ले जाने का काम, शरीयत के अनुसार, घोरतम अपराध है और ऐसे अपराधी की गर्दन कोई भी मुसलमान उड़ा सकता है, तब कई मुस्लिम विद्वानों ने इसका खंडन किया था।
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मुगीसुद्दीन नामक एक काजी ने अलाउद्दीन खिलजी से कहा था, ‘‘काफिरों के सामने विकल्प तो, वैसे, दो ही हो सकते हैं, यानी मौत या इस्लाम। लेकिन, हनीफा ने उनके लिए जिज़िया की रियायत की बात भी कही है।’’
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मुस्लिम इतिहासकारों ने अधिक प्रशंसा उन सुलतानों और गाज़ियों की लिखी है, जिन्होंने अधिक–से–अधिक मन्दिर तोड़े और अधिक–से–अधिक लोगों को मुसलमान बनाया।
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सांस्कृतिक प्रतिशोध
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म्लेच्छ भी पहले उस व्यक्ति को कहते थे, जो संस्कृत का शुद्ध–शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकता था।
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धार्मिक द्वेष भारत में नहीं था। यह चीज यहाँ मुस्लिम साम्प्रदायिकता की देन है।
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एकता–आन्दोलन का आरम्भ
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सुफियों से अलग एक तरह के फकीर और होते थे, जो कलन्दर कहलाते थे। ये कलन्दर सम्प्रदाय नहीं बनाते थे, न एक जगह पर ज्यादा दिन टिका ही करते थे।
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सूफियों और कलन्दरों के प्रभाव से भारत में इस्लाम का रूप बदल गया।
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अमीर खुसरो की भारत–भक्ति
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सन्तो! राह दोऊ हम दीठा
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मूल में संसार के सभी धर्म एक हैं, क्योंकि सबका आरम्भ इसी जिज्ञासा से हुआ है कि मनुष्य की किस्मत का मालिक कौन है, आदमी की रूह किस बड़ी रूह से मिलने को बेकरार है, जन्म के पूर्व आदमी कहाँ था और मरने के बाद वह कहाँ जाएगा।
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महात्मा कबीरदास (जन्म सन् 1399 ई.) हुए।
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हिन्दू–मुस्लिम एकता के हमारे देश में तीन बड़े नेता कबीर, अकबर और महात्मा गांधी हुए हैं।
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सुर, नर, मुनि औ औलिया, ये सब बेलैं तीर, अलह–राम की गति नहीं, तहँ घर किया कबीर। हद्द छाँड़ि बेहद गया, किया सुन्नि असनान, मुनिजन महल न पावई तहाँ किया विश्राम।
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हिन्दु की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी, वह करै जिबह, वो झटका मारै, आगि दुओ घर लागी।
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प्रत्येक धर्म के दो पक्ष होते हैं, जिन्हें श्रुति और स्मृति कहने का चलन
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स्मृति धर्म का वह रूप है जहाँ पहुँचकर सभी धर्म परस्पर भिन्न हो जाते हैं।
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तसव्वुफ का भारतीयकरण
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प्रसिद्ध सूफी फकीर की शिष्य–परम्परा में पड़ते थे। इन कवियों के शिरोमणि मलिक मुहम्मद जायसी हुए, जो शेरशाह के समकालीन थे।
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सूफ–पन्थ में भक्त अपने को आशिक और भगवान् का माशूक समझता है तथा भक्त और भगवान् के बीच काफी ऊँचा स्थान गुरु को भी दिया जाता है।
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पद्मावत की रचना जायसी ने शेरशाह के समय में की थी।
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जायसी से पूर्व कुतबन ने मृगावती की रचना की थी।
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तुलसीदासजी ने जब रामचरितमानस की रचना की, तब अपने काव्य की भाषा और उसके छन्द उन्होंने वे ही रखे जिनका प्रयोग जायसी आदि कवियों ने किया था।
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हिन्दू–संस्कृति को समझने का प्रयास
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शाहजहाँ के पुत्र दाराशिकोह ने श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों के अनुवाद अपनी देख–रेख में करवाए थे।
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असाम्प्रदायिक व्यवहार के दृष्टान्त
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सन् 1193 ई. से लेकर सन् 1526 ई. तक दिल्ली के राज्य–सिंहासन पर जो 35 सुलतान बैठे, उनमें से 19 सुलतानों की हत्या हिन्दू नहीं, मस्लिम दुश्मनों के हाथों हुई थी।
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शेरशाह के सिक्कों पर भी नागरी और फारसी अक्षरों में उसका नाम खुदा रहता था। उसके कई सिक्के ॐ और स्वस्तिक के चिह्न वाले भी पाए गए
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समकालीन कवियों का दृष्टिकोण
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धरि आनय बाभनक बरुआ, मथा चढ़ावय गायक चुरुआ। हिन्दू बोलहि दूरहि निकार, छोटओ तुरुका भभकी मार।
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रहीम ने कुछ दोहे रचकर उस काव्य की प्रशंसा की थी और यह स्वीकार किया था कि यह काव्य हिन्दुओं के लिए वेद और मुसलमानों के लिए कुरान
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हिन्दुत्व के कट्टर पक्षपाती थे और वर्णाश्रम–धर्म की किंचित् भी अवज्ञा उन्हें पसन्द नहीं थी। वे वैदिक धर्म के अनुष्ठानों में पूरी श्रद्धा रखते थे तथा धर्म–परिवर्तन की तो बात ही क्या, वे शूद्रों द्वारा यज्ञोपवीत धारण करना भी नहीं सह सकते थे।
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हम लख हमहिं, हमार लख हम–हमार के बीच, तुलसी अलखहिं का लखै, राम नाम जपु नीच।
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राजदुआरे साधुजन, तीनि वस्तु को जायँ, कै मीठा, कै मान को, कै माया की चाय।
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हिन्दी के मुसलमान कवि
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