Sanskriti Ke Chaar Adhyay (Hindi)
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एक काला पत्थर वहाँ अब भी रह गया है, जिसे संगे-असवद कहते हैं और जिसे हाजी श्रद्धा के साथ चूमता है।
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अरबी-फारसी में मूर्ति के लिए जो बुत शब्द प्रचलित है, वह बुद्ध का ही अरबी रूप
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रास्ता क्या?
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इस्लाम का क्षिप्र प्रसार
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मुसलमान जहाँ-जहाँ गए, वहाँ-वहाँ उन्होंने जनता के सामने तीन विकल्प रखे; या तो कुरान लो और इस्लाम कबूल करो; या कर दो और अधीनता स्वीकार करो; अथवा दोनों में यदि कोई बात पसन्द नहीं हो तो तुम्हारे गले पर गिरने के लिए हमारी तलवार प्रस्तुत है।
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लोग यह कहते हैं, तलवार से फैला इस्लाम, यह नहीं कहते हैं कि तोप से क्या फैला है।
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इस्लाम के उदय के पूर्व, अरब में निर्धन भोगवादियों का जमाव था।
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इस्लाम का आरम्भिक रूप
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पाँच स्पष्ट कर्म करने को कहा। (1) कलमा पढ़ना यानी इस बात को दिल में बिठाने के लिए जाप करना कि ईश्वर एक है और मुहम्मद उसके रसूल (दूत) हैं (ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह)। (2) नमाज पढ़ना यानी प्रार्थना करना। (3) रोजा रखना यानी रमजान के महीने में उपवास रखना। (4) जकात यानी अपनी आय का ढाई प्रतिशत दान में दे देना और (5) हज यानी तीर्थ-यात्रा करना।
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मदीने में जिन लोगों ने मुहम्मद साहब का बढ़कर साथ दिया, वे ही अनसार
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इस्लाम में यती-वृत्ति की प्रधानता, वैराग्य की प्रमुखता अथवा लौकिक सुखों के त्याग की महिमा नहीं है।
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पहले के चार खलीफा (1) अबूबक्र (632-34 ई.), (2) उमर (634-43 ई.), (3) उस्मान (643-55 ई.) और (4) अली (655-61 ई.)–इतने धर्मनिष्ठ निकले कि लोग उनके जीवन में मूर्तिमान नवीन धर्म का तेज देखकर कृतकृत्य हो गए।
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मुहम्मद साहब को मक्का से मदीना भागना पड़ा और मदीने में ही यह निश्चित हो गया कि नए धर्म को फैलाने के लिए केवल संगठन बनाने की ही नहीं, तलवार उठाने की भी जरूरत है।
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जो भी मुसलमान हो जाते थे, उन्हें अमीर से अमीर मुसलमान भी अपना सच्चा धर्मबन्धु समझते थे और अपनी बराबरी का दर्जा देते थे।
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इस्लाम से भारत का आरम्भिक सम्पर्क
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इस्लाम जब अपने निर्मल उत्कर्ष पर था, तब भी वह भारत में आ चुका था। किन्तु, तब उसका आगमन मित्रता के नाते हुआ था।
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कुछ ऐतिहासिक विश्लेषण
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मध्य एशिया में हूण नामक एक बर्बर जाति उपद्रव मचा रही थी।
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तुर्क, असल में, हूणों की एक शाखा थे, जिसका असल नाम था असेना। असेना लोग पाँचवीं शती में कान्सू प्रान्त में एक पहाड़ के पास रहते थे। उस पहाड़ की शक्ल एक खौद या मिगफार (फौजी टोपी) की-सी थी, जिसे हूण-भाषा में ‘तुर्क’ कहते हैं। इसी से वे लोग तुर्क कहलाने लगे।
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भारत में मुसलमानी राज्य की नींव डालनेवाला मुहम्मद गोरी भी पठान था और, अजब नहीं कि, उसके पूर्वज भी तुर्क या हूण रहे हों।
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नेता चिङ्-हिर हान (1155 ई. तक) हुआ, जो इतिहास में चंगेज खाँ के नाम से प्रसिद्ध है।
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चंगेज खाँ बौद्ध था।
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उसके अत्याचार से घबराकर बहुत-से विद्वान् अपनी किताबें लिये हुए कैरो और स्पेन की ओर भागे। विद्वानों की इसी भाग-दौड़ से यूरोप में विद्या की वह लहर उठी, जिसे हम सांस्कृतिक जागरण अथवा रिनासाँ कहते हैं।
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बाबर माँ की ओर से चंगेज खाँ और बाप की ओर से तैमूर का वंशज था।
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कुछ मनोरंजक बातें
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गंगा और सिन्धु के किनारे इस्लाम का झंडा गाड़नेवाले लोग अबूबक्र और उमर की पवित्रतावाले लोग नहीं थे, बल्कि, ये वे ईरानी थे, जो विजय और साम्राज्य के सुखों से अन्धे होकर घूम रहे थे।
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इस्लाम धर्म
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इस्लाम धर्म के मूल कुरान, सुन्नत और हदीस हैं।
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कुरान वह ग्रन्थ है जिसमें मुहम्मद साहब के पास ईश्वर के द्वारा भेजे गए सन्देश संकलित हैं। सुन्नत वह है जिसमें मुहम्मद साहब के कृत्यों का उल्लेख है और हदीस वह किताब है जिसमें उनके उपदेश संकलित हैं। हदीस की किताबों में मुहम्मद साहब की जीवन-चर्या का भी उल्लेख है और इन किताबों में सुन्नत भी मिलती है।
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ये आयतें मुहम्मद साहब को, समय-समय पर, 23 वर्षों में हासिल हुईं जिन्हें वे तालपत्रों, चमड़े के टुकड़ों अथवा लकड़ियों पर लिखकर रखते गए।
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नबी कहते हैं किसी उपयोगी परम ज्ञान की घोषणा को।
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‘ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह,
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केवल अल्लाह को मानने से कोई आदमी पक्का मुसलमान नहीं हो सकता, उसे यह भी मानना पड़ता है कि मुहम्मद अल्लाह के नबी, रसूल और पैगम्बर हैं।
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कुरान की शिक्षा
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चित्र, मूर्ति और संगीत के प्रति इस्लाम के द्वेष का भी यही कारण था।
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जिबरील
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धर्म यह है कि मनुष्य अल्लाह, मलायक, कयामत, किताब और नबी में विश्वास करे।’’
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इबलीस
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मुहम्मद साहब के साथ इतना ही पक्षपात है कि उन्हें कुरान धरती का आखिरी पैगम्बर मानता है और यह समझता है कि दिव्य-दृष्टि में भी मुहम्मद पहले के सभी पैगम्बरों से अधिक पूर्ण थे।
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मृत्यु के परे
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हम न तो पहले जनमे थे, न आगे जन्म लेंगे।
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बरजख वह अवस्था है, जब सूक्ष्म जीवन का भान उसे होने लगता है, यद्यपि पूरी आध्यात्मिकता की अनुभूति मनुष्य को कयामत के बाद ही होती है।
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अल-अज्ब है।
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कुरान का फातिहा नामक अध्याय गीता के दूसरे अध्याय के समान है।
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मनुष्य-जीवन का लक्ष्य कुरान ‘‘लका-उल्लाह’’ अथवा ईश्वर-मिलन को मानता है।
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ईमान और कुफ्र
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कुरान सिर्फ ईमान और अमल,
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उसूल वे धार्मिक सिद्धान्त हैं जिन्हें नबी ने बताया है। फरू उन सिद्धान्तों के अनुसार आचरण करने को कहते हैं।
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ईमान उस सत्य की स्वीकृति है जिसे नबी ने उद्घोषित किया। कुफ्र उसी सत्य की अस्वीकृति को कहते हैं।
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तौहीद है जो यह सिखाता है कि ईश्वर को छोड़कर और किसी को मत पूजो। कुफ्र का सबसे बुरा रूप शिर्क है जिससे मनुष्य ईश्वर के अलावा और देवताओं को भी ईश्वर मान लेता है अथवा उनमें ईश्वरीय गुणों का आरोप करता है। शिर्क का सबसे बुरा रूप मूर्तिपूजा है।
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