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February 5 - February 26, 2023
धर्म के जीते–जागते स्वरूप परमहंस रामकृष्ण
आर्य–समाज और ब्राह्म–समाज की सीमाएँ
दयानन्द से भेंट करने गया। मुझे ऐसा दिखा कि उन्हें थोड़ी–बहुत शक्ति प्राप्त हो चुकी है। उनका वक्ष-स्थल सदैव आरक्त दिखायी पड़ता था। वे वैखरी अवस्था में थे। रात–दिन लगातार शास्त्रों की ही चर्चा किया करते थे। अपने व्याकरण–ज्ञान के बल पर उन्होेंने शास्त्र–वाक्यों के अर्थ में उलट–फेर कर दिया है। ‘मैं ऐसा करूँगा, मैं अपना मत स्थापित करूँगा’ ऐसा कहने में उनका अहंकार दिखाई देता है।’’
धर्म का यह जीता–जागता रूप उसे तब दिखाई पड़ा, जब परमहंस रामकृष्ण (1836–1886 ई.) का आविर्भाव हुआ।
पंडित और सन्त का भेद
पंडित और सन्त में वही भेद होता है, जो हृदय और बुद्धि में है। बुद्धि जिसे लाख कोशिश करने पर भी नहीं समझ पाती, हृदय उसे अचानक देख लेता है।
भारतीय सुधारकों के सामने एक नहीं तीन शत्रु थे–1. हिन्दू–धर्म की रूढ़ियाँ एवं अन्धविश्वास, 2. ईसाई मिशनरियों के द्वारा निरन्तर की जानेवाली हिन्दुत्व की निन्दा तथा 3. अंग्रेजी पढ़े–लिखे समाज में नास्तिकता का प्रचार।
फिलासफी नहीं, दर्शन
फिलासफी को और कुछ नहीं कहकर ‘दर्शन’ कहते हैं, क्योंकि हमारे दार्शनिक सत्य सोचे या समझे नहीें गए थे, प्रत्युत, ॠषियों ने आत्मा के चक्षु से, उनका दर्शन किया था।
पन्थ नहीं अनुभूति
वे कुछ दिन सच्चे मुसलमान बनकर इस्लाम की भी साधना करते रहे और कुछ काल तक उन्होंने ईसाइयत का भी अभ्यास किया था। भारतवर्ष की धार्मिक समस्या का जो समाधान रामकृष्ण ने दिया है, उससे बड़ा और अधिक उपयोगी समाधान और कोई हो नहीं सकता।
धर्म की साकार प्रतिमा
रामकृष्ण न तो अंग्रेजी जानते थे, न वे संस्कृत के ही जानकार थे, न वे सभाओं में भाषण देते थे, न अखबारों में वक्तव्य। उनकी सारी पूँजी उनकी सरलता और उनका सारा धन महाकाली का नाम–स्मरणमात्र था।
कंचन से विरक्ति
रामकृष्ण रुपये–पैसे को नहीं छूते और द्रव्य के स्पर्शमात्र से उन्हें पीड़ा होने लगती है,
कामिनी के प्रति अनासक्ति
नारी तो हमहुँ करी, तब ना किया विचार, जब जानी तब परिहरी, नारी महाविकार।
तर्क बनाम अनुभूति
सन्त पद्धति से उपदेश
‘‘कामिनी–कांचन की आसक्ति यदि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाए, तो देह अलग है और आत्मा अलग है, यह स्पष्ट रूप से दीखने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे उसके भीतर का खोपरा (गरी) नरेटी से खुलकर अलग हो जाता है, खोपरा और नरेटी दोनों अलग–अलग दीखने लगते हैं (वैसे), या जैसे म्यान के भीतर रखी हुई तलवार के विषय में कह सकते हैं कि म्यान और तलवार दोनों भिन्न चीजें हैं, वैसे ही, देह और आत्मा के बारे में जानो।’’
माया ईश्वर की शक्ति है, वह ईश्वर में ही वास करती है, तब क्या ईश्वर भी हमारे समान ही मायाबद्ध है?’’
अभागा मनुष्य ही यह मानता है कि मैं पापी हूँ। ऐसा सोचते–सोचते वह पापी हो भी जाता है।’’
विनोदप्रियता
मनीषियों द्वारा अभिनन्दन
कर्मठ वेदान्त, स्वामी विवेकानन्द
गंगा के भगीरथ
रामकृष्ण और विवेकानन्द एक ही जीवन के दो अंश, एक ही सत्य के दो पक्ष हैं। रामकृष्ण अनुभूति थे, विवेकानन्द उनकी व्याख्या बनकर आए।
तन से राजसी, मन से जिज्ञासु
वे सन् 1863 ई. की 12 जनवरी को कलकत्ते में एक क्षत्रिय परिवार में पैदा हुए थे।
वे कुश्ती, बॉक्सिंग दौड़, घुड़दौड़ और तैरना, सभी के प्रेमी और सबमें भली–भाँति दक्ष थे। वे संगीत के भी प्रेमी और तबला बजाने में उस्ताद थे।
नरेन्द्रनाथ हर्बर्ट स्पेंसर और जोन स्टुअर्ट मिल के प्रेमी थे।
अपने छात्र–जीवन में वे केवल शंकावादी ही नहीं, प्रचंड नास्तिक के समान बातें करते
श्रद्धा और बुद्धि का मिलन
रामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ से कुछ भी नहीं लिया, हाँ, अपनी साधना का तेज और अपनी अदृश्यदर्शिनी दृष्टि को नरेन्द्रनाथ में उतारकर उन्होंने उन्हें विवेकानन्द अवश्य बना दिया।
निवृत्ति की परम्परा
जब समाज प्रवृत्तिमार्गी होता है, तब शारीरिक श्रम निन्दा की वस्तु नहीं होता। उस समय हलवाहे और विद्वान्, दोनों, एक समान उद्यमी होते हैं।
धर्म को अफ़ीम कहनेवाला चिन्तक यूरोप में जनमा, जबकि धर्म ने सबसे अधिक विनाश हिन्दुओं का किया है।
सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता
स्वामी विवेकानन्द का देहान्त केवल 39 वर्ष की आयु में हो गया,
सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता स्वामी विवेकानन्द थे।
शिकागो–सम्मेलन...
सन् 1893 ई. में शिकागो (अमेरिका) में निखिल विश्व के धर्मों का ए...
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हिन्दू–जाति का धर्म है कि वह जब तक जीवित रहे, विवेकानन्द की याद उसी श्रद्धा से करती जाए; जिस श्रद्धा से वह व्यास और वाल्मीकि की याद करती है।
यूरोप और अमेरिका को निवृत्ति की शिक्षा
धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।’’
भारत को प्रवृत्ति का उपदेश
स्वामीजी ने कहा, ‘‘हाँ, निन्दा का भय माने बिना मांस–मछली तुम जी भर खा सकते हो।
अच्छे और बुरे का भेद, शुद्ध और अशुद्ध का विचार इन्द्रिय-निग्रह नहीं, उस ध्येय के सहायक मात्र हैं।’’
में जो साहस और जो विवेक प्रच्छन्न है, हमें उसे बाहर लाना है। ‘‘मैं भारत में लोहे की मांसपेशियों और फौलाद की नाड़ी तथा धमनी देखना चाहता हूँ, क्योंकि इन्हीं के भीतर वह मन निवास करता है, जो शम्पाओं एवं वज्रों से निर्मित होता है।
हिंसा को कदाचित् वे सभी स्थितियों में त्याज्य नहीं मानते थे।