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February 5 - February 26, 2023
तिलक और गोखले
गोखले का विषय शासन और उसमें सुधार था, किन्तु, तिलक सारे राष्ट्र को बदलना चाहते थे। गोखले का आदर्श सेवा और प्रेम था, किन्तु, तिलक सेवा और यातनाओं के प्रेमी थे।
परशुराम और राम
जब तिलक जी का दाय गांधीजी को मिला, तब एक प्रकार से, राष्ट्रीयता के धनुष का भार परशुराम से छूटकर राम के हाथों में आया था।
प्रार्थना–समाज का रूप
19वीं सदी और मध्यकाल
आर्य–समाज
स्वाभिमान का उदय
कड़ी फटकार उन्होंने ईसाइयों पर और मुसलमानों पर भेजी, जो दिन–दहाड़े हिन्दुत्व की निन्दा करते फिरते थे। ईसाई और मुस्लिम पुराणों में घुसकर उन्होंने इन धर्मों में भी वैसे ही दोष दिखला दिए, जिनके कारण ईसाई और मुसलमान हिन्दुत्व की निन्दा करते
आक्रामकता की ओर
स्वामी दयानन्द के शिष्य आगे बढ़े और उन्होंने घोषणा की कि धर्मच्युत हिन्दू प्रत्येक अवस्था में अपने धर्म में वापस आ सकता है एवं अहिन्दू भी यदि चाहें तो हिन्दू–धर्म में प्रवेश पा सकते हैं। यह केवल सुधार की वाणी नहीं थी, जाग्रत हिन्दुत्व का समर–नाद था। और, सत्य ही, रणारूढ़ हिन्दुत्व के जैसे निर्भीक नेता स्वामी दयानन्द हुए, वैसा और कोई नहीं हुआ।
सत्यार्थ–प्रकाश के त्रयोदश समुल्लास में ईसाई मत की आलोचना है और चतुर्दश समुल्लास में इस्लाम की। किन्तु, ग्यारहवें और बारहवें समुल्लासों में तो केवल हिन्दुत्व के ही विभिन्न अंगों की बखिया उधेड़ी गई है और कबीर, दादू, नानक, बुद्ध तथा चार्वाक एवं जैनों और हिन्दुओं के अनेक पूज्य पौराणिक देवताओं में से एक बेदाग नहीं छूटा है।
किसी का भी पक्षपात नहीं
सुधार नहीं, क्रान्ति
परिवर्तन जब धीरे–धीरे आता है, तब सुधार कहलाता है। किन्तु, वही जब तीव्र वेग से पहुँच जाता है, तब उसे क्रान्ति कहते हैं।
आर्य–समाज की स्थापना
10 अप्रैल, सन् 1875 ई. को उन्होंने आर्य–समाज की स्थापना की।
थियोसोफ़ी और स्वामी दयानन्द
आर्य–समाज की विशेषता
स्वामीजी ने छुआछूत के विचार को अवैदिक बताया और उनके समाज ने सहस्रों अन्त्यजों को यज्ञोपवीत देकर उन्हें हिन्दुत्व के भीतर आदर का स्थान दिया। आर्य–समाज ने नारियों की मर्यादा में वृद्धि की एवं उनकी शिक्षा–संस्कृति का प्रचार करते हुए विधवा–विवाह का भी प्रचलन किया। कन्या–शिक्षा और ब्रह्मचर्य का आर्य–समाज ने इतना अधिक प्रचार किया
पुरुष शिक्षित और स्वस्थ हों, नारियाँ शिक्षिता और सबला हों, लोग संस्कृत पढ़ें और हवन करें, कोई भी हिन्दू मूर्ति–पूजा का नाम न ले, न पुरोहितों, देवताओं और पंडों के फेर में पड़े, ये उपदेश उन सभी प्रान्तों में कोई पचास साल तक गूँजते रहे, जहाँ आर्य–समाज का थोड़ा–बहुत भी प्रचार था।
उपनिषदों पर वही श्रद्धा नहीं दिखाई।
गीता को उन्होंने कोई महत्त्व नहीं दिया और कृष्ण, राम आदि को तो परम पुरुष माना ही नहीं।
आर्यवाद का एक दुष्परिणाम
वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्वप्रमुख हो उठे और इतिहासवालों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेदवालों अर्थात् आर्यों की रचना है।
स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विन्ध्याचल पर समाप्त हो जाती है।
हिन्दुत्व के उपकरण केवल संस्कृत में ही नहीं, प्रत्युत, संस्कृत के ही समान प्राचीन भाषा तमिल में भी उपलब्ध हैं और दोनों भाषाओं में निहित उपकरणों को एकत्र किए बिना हिन्दुत्व का पूरा चित्र नहीं बनाया जा सकता।
हिन्दुत्व की वीर भुजा
सन् 1921 ई. में मोपला (मालाबार) मुसलमानों ने भयानक विद्रोह किया और उन्होंने पड़ोस के हिन्दुआें को जबर्दस्ती मुसलमान बना लिया। आर्य–समाज ने इस विपत्ति के समय संकट के सामने छाती खोली और कोई ढाई हजार भ्रष्ट परिवारों को फिर से हिन्दू बना लिया।
ईसाइयत और इस्लाम के आक्रमणों से हिन्दुत्व की रक्षा करने में जितनी मुसीबतें आर्य–समाज ने झेली हैं, उतनी किसी और संस्था ने नहीं।
थियोसोफ़िकल सोसाइटी या ब्रह्मविद्या-समाज
श्रीमती एनी बीसेंट
यूनानी में थियोस (Theos)) ईश्वर को कहते हैं और सोफ़िया (Sophia) का अर्थ ज्ञान है।
सोसाइटी का जन्म
थियोसोफ़िकल सोसाइटी की नींव 7 सितम्बर, 1875 ई. को रखी।
संस्था का एक उद्देश्य यह भी माना गया कि पूर्वी देशों में धर्म और ज्ञान के जो तत्त्व छिपे हुए हैं, उनका सम्यक् प्रचार पाश्चात्य देशों में किया जाना चाहिए। इस प्रकार, वेद, बौद्ध ग्रन्थ, जेन्दावेस्ता और कन्फ्यूशियस के उपदेश, ये सभी साहित्य थियोसोफ़िस्टों के विशेष अध्ययन के विषय बन गए।
एनी बीसेंट
श्रीमती एनी बीसेंट मानती थीं कि पूर्वजन्म में वह हिन्दू थीं। आते
बनारस में रहकर उन्होंने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की, जिसका विकसित रूप आज का हिन्दू विश्वविद्यालय है।
उन्हें‘सर्व–शुक्ला–सरस्वती’
एनी बीसेंट की भारत–भक्ति
हिन्दुत्व ही वह मिट्टी है, जिसमें भारतवर्ष का मूल गड़ा हुआ है। यदि यह मिट्टी हटा ली गई तो भारत–रूपी वृक्ष सूख जाएगा।
अखंड हिन्दुत्व का समर्थन
श्रीमती एनी बीसेंट और उनके समाज को यह श्रेय अवश्य दिया जाएगा कि उन्होंने खंडित नहीं, अखंड हिन्दुत्व का वीरतापूर्वक आख्यान किया।
“चालीस वर्षों के सुगम्भीर चिन्तन के बाद मैं यह कह रही हूँ कि विश्व के सभी धर्मों में हिन्दू–धर्म से बढ़कर पूर्ण, वैज्ञानिक, दर्शनयुक्त एवं आध्यात्मिकता से परिपूर्ण धर्म दूसरा और कोई नहीं है।’’
राजनीति के क्षेत्र में
एनी बीसेंट और एंड्रूज, ये दो अंग्रेज ऐसे हुए हैं, जो हृदय से बिलकुल भारतीय थे।
धर्म नहीं, धर्म की संजीवनी
थियोसोफी कोई स्वतन्त्र धर्म नहीं है। यह सभी धर्मों में समन्वय चाहती है।
मुसलमानों में सूफी, ईसाइयों में नॉस्टिक्स (Gnostics) और हिन्दुओं में ब्रह्मवादी वास्तविक थियोसोफिस्ट हैं।