Sanskriti Ke Chaar Adhyay (Hindi)
Rate it:
Read between February 5 - February 26, 2023
72%
Flag icon
नवोत्थान की रीढ़
72%
Flag icon
जिस नवोत्थान का आरम्भ राममोहन राय, दयानन्द और विवेकानन्द ने किया था, और जिसकी धारा में हम आज भी तैरते हुए आगे जा रहे हैं, वेदान्त उस आन्दोलन की रीढ़ है।
72%
Flag icon
निवृत्ति का त्याग
72%
Flag icon
स्वामी विवेकानन्द और लोकमान्य तिलक ने वेदान्त और गीता की ही नई व्याख्या करके यह प्रतिपादित किया है कि भारतीय वैदिक धर्म का मूल उपदेश निवृत्ति नहीं, प्रवृत्ति है।
72%
Flag icon
उन्नीसवीं सदी का नवोत्थान, भारत में प्रवृत्तिवाद का ही अनुपम उत्थान था।
72%
Flag icon
निवृत्ति की धारा में बहते–बहते हिन्दू एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचे थे, जहाँ स्वाधीनता और पराधीनता में कोई भेद नहीं था, अन्याय और न्याय में कोई अन्तर नहीं था और न कोई अत्याचार ही ऐसा था, जिसका उत्तर देना आवश्यक हो।
72%
Flag icon
उन्नीसवीं सदी के बाद से भारतीय साहित्य में क्रान्तिकारी और अन्य–विरोधी स्वर बड़े जोर से गूँजने लगे। यह, स्पष्ट ही, गीता और वेदान्त की प्रवृत्तिमार्गी टीका का परिणाम है।
72%
Flag icon
ब्राह्म–समाज
72%
Flag icon
राममोहन राय
72%
Flag icon
वे जाति के ब्राह्मण थे।
72%
Flag icon
1809 ई. में रंगपुर के कलक्टर के दीवान हो गए। बाद में, वे किसी नाबालिग जमींदार के मैनेजर नियुक्त किए गए और सन् 1815 ई. में उन्होंने नौकरी से अवकाश ग्रहण कर लिया।
72%
Flag icon
सुधार के कार्य
72%
Flag icon
सन् 1829 ई. में लॉर्ड विलियम बेंटिक ने सती–प्रथा को गैर–कानूनी घोषित करके इसके विरुद्ध कड़ा कानून बना दिया। यह राममोहन राय के ही प्रयत्नों का शुभ परिणाम था।
72%
Flag icon
ईसाइयत पर विचार
72%
Flag icon
ईसाई धर्म पर एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम ‘The precept of Jesus, the guide to peace and happiness’ था।
72%
Flag icon
विश्ववादी और भारतीय
72%
Flag icon
हिन्दुत्व की पवित्रता, इस्लाम की रुचि तथा ईसायत की सफाई उन्हें बेहद पसन्द थी।
73%
Flag icon
सारे संसार में विश्ववाद के सबसे प्रथम व्याख्याता राममोहन राय हुए हैं।
73%
Flag icon
विज्ञान और वेदान्त का मेल
73%
Flag icon
राममोहन की विशेषता यह थी कि एक ओर तो वे वेदान्त के स्थान से हिलने को तैयार नहीं थे; दूसरी ओर, वे अपने देशवासियों को अंग्रेजी के द्वारा पाश्चात्य विद्याओं में निष्णात बनाना चाहते थे। भारतवासी संस्कृत, अरबी और फारसी पढ़कर बस मान लें अथवा वे अंग्रेजी पढ़कर क्रिस्तान हो जाएँ, इन दोनों खतरों से वे भारतवर्ष को बचाना चाहते
73%
Flag icon
इतिहास में राममोहन का स्थान उस महासेतु के समान है जिस पर चढ़कर भारतवर्ष अपने अथाह अतीत से अज्ञात भविष्य में प्रवेश करता है।
73%
Flag icon
ब्राह्म–समाज के जन्म की वेदना
73%
Flag icon
राममोहन राय ने सन् 1816 ई. में कलकत्ते में वेदान्त कॉलेज की स्थापना की।
73%
Flag icon
ब्राह्म–समाज का जन्म
73%
Flag icon
20 अगस्त, सन् 1828 ई. को उन्होंने ब्राह्म–समाज की स्थापना कलकत्ते में की। इस समाज का रूप, निर्विवाद रूप से, भारतीय था और भारतीय परम्परा में कहें तो कह सकते हैं कि यह अद्वैतवादी हिन्दुओं की संस्था थी।
73%
Flag icon
ट्रस्ट के दस्तावेज में (सन् 1830 ई.) स्पष्ट प्रतिबन्ध रखा गया था कि इस समाज में होनेवाली पूजा में किसी भी ऐसी सजीव या निर्जीव वस्तु की निन्दा नहीं की जाएगी, जिसकी थोड़े से लोग भी पूजा या आराधना करते हों तथा इस समाज में केवल ऐसे ही उपदेश किए जाएँगे, जिनसे सभी धर्मों के लोगों के बीच एकता, समीपता और सद्भाव की वृद्धि होती हो।
73%
Flag icon
राममोहन की उदार दृष्टि
73%
Flag icon
27 सितम्बर, 1833 ई. को ब्रिस्टल में उनका देहान्त हो गया।
73%
Flag icon
महर्षि देवेन्द्रनाथ
73%
Flag icon
ब्राह्म–समाज के नेतृत्व का भार महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के कन्धों पर पड़ा।
73%
Flag icon
महर्षि देवेन्द्रनाथ के समय में आकर ब्राह्म–समाज अपनी जड़ (हिन्दुत्व) से दूर जाने लगा और केशवचन्द्र के समय में तो वह हिन्दुत्व से इतना अलग और ईसाइयत के इतना समीप जा पहुँचा
73%
Flag icon
केशवचन्द्र सेन
73%
Flag icon
केशवचन्द्र सेन ने ब्राह्म–समाज में प्रवेश सन् 1857 ई. में किया, जब उनकी उम्र केवल उन्नीस साल की थी।
73%
Flag icon
1866 ई. में अपना समाज अलग कर लिया, जिसका नाम ब्राह्म–समाज ही बना रहा। देवेन्द्रनाथ ठाकुर के अधिकार में जो समाज रह गया, उसे वे आदि–ब्राह्म–समाज कहने लगे।
73%
Flag icon
किन्तु, कूच–बिहार के राजकुमार से जब केशव बाबू की पुत्री के ब्याह का प्रस्ताव आया, तब चारों ओर कानाफूसी होने लगी कि देखें, अब केशवचन्द्र क्या करते हैं। कूच–बिहार के राजा हिन्दू थे।
73%
Flag icon
जो समाजी केशवचन्द्र के विरोधी थे, उन्होंने अपने समाज को साधारण ब्राह्म–समाज कहना आरम्भ किया और केशवबाबू ने जो सभा अपने साथ रखी, उसका नाम उन्होंने नव–विधान–सभा कर दिया।
73%
Flag icon
शरमाए हुए शूरमा
74%
Flag icon
महाराष्ट्र में नवोत्थान
74%
Flag icon
परमहंस–समाज और प्रार्थना–समाज
74%
Flag icon
सन् 1849 ई. में बम्बई में परमहंस–समाज नामक एक संस्था बनी थी, जिसका उद्देश्य जाति–प्रथा का भंजन था।
74%
Flag icon
प्रार्थना–समाज के नाम से खुली, जिसके मुख्य उद्देश्य चार थे–1. जाति–प्रथा का विरोध, 2. विधवा–विवाह का समर्थन, 3. स्त्री–शिक्षा का प्रचार और 4. बाल–विवाह का अवरोध।
74%
Flag icon
प्रार्थना–समाज की भी प्रार्थनाओं में मन्त्र, वेद, उपनिषद्, कुरान, जेन्दावेस्ता और बाइबिल, सभी धर्म–ग्रन्थों से लिये जाते थे और समाज के सदस्य सभी धर्मों पर एक समान श्रद्धा रखते
74%
Flag icon
महादेव गोविन्द रानाडे
74%
Flag icon
गोपालकृष्ण गोखले रानाडे के शिष्य थे।
74%
Flag icon
रानाडे चितपावन ब्राह्मण थे। उनका जन्म सन् 1842 ई. में नासिक जिले में हुआ
74%
Flag icon
रानाडे की पहली पत्नी का स्वर्गवास हो गया और दूसरा विवाह उन्होंने विधवा से नहीं करके एक ग्यारह साल की कुमारी बालिका से किया। कहते हैं, यह विवाह उन्हें अपनी इच्छा और भावना के विरुद्ध, अपने पिता के दुराग्रह के कारण करना पड़ा था।
74%
Flag icon
रानाडे, आगरकर और तिलक
74%
Flag icon
सन् 1891 ई. में जब ‘एज अॉफ कान्सेंट बिल’ इम्पीरियल काउंसिल में पेश हुआ, तब उनका तीव्र विरोध तिलकजी ने किया
74%
Flag icon
शारदा–सदन नामक संस्था को लेकर घटी। यह संस्था पंडिता रामा बाई की कायम की हुई थी।
74%
Flag icon
श्रीयुत केलकर ने लिखा है कि उस समय सुधारकों का दल गणेश–पूजा पर जितनी ही बौखलाहट मचाए1 हुए था, मुसलमानों के अत्याचारों पर वह उतना ही मौन था। सरकार मुसलमानों के साथ थी।
1 16 23