Sanskriti Ke Chaar Adhyay (Hindi)
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सन् 1854 का डिस्पैच
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इस डिस्पैच के द्वारा सरकार की शिक्षा–नीति यह निरूपित हुई कि जो लोग ऊँची शिक्षा पाना चाहेंगे, उन्हें वह शिक्षा अंग्रेजी के माध्यम से दी जाएगी, किन्तु जनसाधारण की शिक्षा का माध्यम मातृभाषा रहेगी।
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भारतीय अतीत का अनुसन्धान
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प्राचीन भारत और नवीन यूरोप
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भारतीय जीवन का प्रथम विशद् विवरण यूरोपवालों को एबी दुबोय के ‘हिन्दू मैनर्स, कस्टम्स एंड सिरीमनीज‘ नामक ग्रन्थ से प्राप्त हुआ, जिसका प्रकाशन सन् 1817 ई. में हुआ था।
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यूरोप को चमत्कृत करनेवाले कार्यों का आरम्भ दुपरोन (Anquetil Duperron) के ‘औपनिखत’
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आर्थर शापेनहार को इसी अनुवाद की प्रति मिली थी, जिसे पढ़कर वह विस्मय–विमुग्ध हो गया था और उपनिषदों की विचारधारा की भूरि–भूरि प्रशंसा
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नीत्शे को जब मनुस्मृति देखने को मिली, तब उसने भी मनुस्मृति को बाइबिल से अनेक गुना श्रेष्ठ स्वीकार किया।
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एशियाटिक सोसाइटी के 1786 ई. वाले अधिवेशन में उन्होंने यह घोषणा की थी कि ‘‘संस्कृत परम अद्भुत भाषा है। वह यूनानी से अधिक पूर्ण और लातीनी से अधिक सम्पन्न है।’’
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भारतीय निरुक्त और व्याकरण को देखकर ही यूरोप के विद्वानों ने फोनेटिक्स लिखना आरम्भ किया।
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मैक्समूलर इसी बर्नाफ़ का शिष्य था, जिसने सायण के भाष्य पर तीस वर्ष तक काम किया और उसके बाद, वेदों पर उसका जो भाष्य प्रकाशित हुआ, उससे यूरोप–समेत भारत के सभी विद्वान् चकित रह गए।
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ईसाई धर्म–प्रचारक भारत से बाहर भारतवासियों के विषय में जो मिथ्या प्रचार कर रहे थे, उसका खोखलापन चिन्तकों के सामने प्रत्यक्ष होने लगा
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यूरोप के रोमांटिक आन्दोलन पर भारतीय प्रभाव
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श्लीगल–बन्धुओं ने जर्मन–भाषा के द्वारा यूरोप में भारतीय ज्ञान का अपरिमित आख्यान किया। वेद, उपनिषद्, भगवद्गीता और मनुस्मृति तथा शकुन्तला और ऋतुसंहार को देखकर जर्मनी के कवि और विद्वान् अभिभूत हो उठे।
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भारतीय प्रभाव के प्रति शंका
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भारत की कीर्ति को विश्वव्यापी बनाने की दिशा में सबसे अधिक प्रयास जर्मनी के ही विद्वानों ने किया।
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ईसाई धर्म और भारतीय जनता
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संसार के धर्मों में तीन ही बहुत प्राचीन हैं, हिन्दू धर्म, जरथुस्त्र धर्म और यहूदी धर्म।
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ईसाई धर्म भी यहूदी धर्म की कुक्षि से उत्पन्न हुआ
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यहूदियों की तरह, ईसा और मुहम्मद भी सामी जाति के सदस्य थे। सामी जाति घोर रूप से मूर्तिपूजक थी।
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हजरत इब्राहीम के खानदान में ईसा और मुहम्मद, दोनों हुए हैं।
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हजरत दाऊद, ईसा और मूसा , ये तीन पैगम्बर हजरत इब्राहीम के बड़े बेटे हजरत इसहाक, के खानदान में हुए और हजरत मुहम्मद इब्राहीम के छोटे बेटे इस्माइल के वंश में हुए हैं।
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ओल्ड टेस्टामेंट) का कुछ भाग हजरत दाऊद का लाया हुआ है और अधिकांश हजरत मूसा का। हजरत ईसा ने जो नई बाइबिल कही, उसका नाम न्यू टेस्टामेंट है।
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यहूदी लोग नई बाइबिल को नहीं मानते। इसी प्रकार, ईसाइयों का विश्वास पुरानी बाइबिल में नहीं है।
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मुसलमान हजरत मूसा को कलीमुल्लाह (प्रभु से बातें करनेवाला), हजरत ईसा को रूहुल्लाह (प्रभु की आत्मा) और हजरत मुहम्मद को रसूलल्लाह (प्रभु का दूत) कहते हैं।
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यहूदी–भाषा (हिब्रू) में ईश्वर को ‘इलोहा’ (अरबी ‘इलाह’) कहते हैं।
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यहूदी–धर्म भी यज्ञमय तथा प्रवृत्ति–प्रधान है।
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ईसा से कोई दो सौ वर्ष पूर्व, यहूदियों के बीच एसी या एसीन नामक संन्यासियों का एक पन्थ आविर्भूत हुआ था, जिसके सदस्य हिंसात्मक यज्ञ–याग को छोड़कर अपना समय किसी शान्त स्थान में बैठकर ईश्वर–चिन्तन में बिताया करते थे।
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ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म में समानता इतनी अधिक है कि उसे बौद्ध धर्म का सीधा प्रभाव माने बिना चल नहीं सकता।
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जिस क्रॉस को ईसाई लोग शूली का चिह्न जानकर धर्म–भाव से धारण करते हैं, वह स्वस्तिक–चिह्न के सिवा और कुछ नहीं
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ईसाई धर्म के दो रूप देखने में आए। एक तो वह जो एशियाई और मौलिक था। दूसरा वह जो यूरोपीय और सांसारिकता से अनति दूर था।
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सौभाग्य की बात
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इस्लाम के प्रचार के लिए भारत में जो बर्बरता बरती गई थी, उसका सहस्रांश भी ईसाइयत के प्रचार में दिखाई नहीं पड़ा।
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ईसाइयत और हिन्दुत्व का संघर्ष
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एबी दुबोय (Abbe Dubois) ने सन् 1815 ई. में धर्म–प्रचार–सम्बन्धी अपना जो अनुभव लिखा, उससे ज्ञात होता है कि तब तक भारत में ईसाइयत को फैलने की राह नहीं मिल रही थी।
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सन् 1815 ई. में ईसाइयों की संख्या भारत में कोई दो लाख तक पहुँच गई
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सन् 1835 ई. में डॉक्टर डफ ने यह घोषणा की थी कि ‘‘जिस–जिस दिशा में पाश्चात्य शिक्षा प्रगति करेगी, उस–उस दिशा में हिन्दुत्व के अंग टूटते जाएँगे। और अन्त में जाकर ऐसा होगा कि हिन्दुत्व का कोई भी अंग साबित नहीं रहेगा।
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हिन्दुत्व में कम्पन
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नव-शिक्षित युवक
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उच्छृंखलता का कारण यूरोप से गृहीत यह विश्वास था कि, धर्म की ही अथवा व्यवहार की, कोई भी ऐसी बात मानने योग्य नहीं है, जो बुद्धि की पकड़ में नहीं जाती हो।
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किन्तु, एक बात हुई जिससे ईसाई धर्म का मार्ग, पूर्णत:, नहीं खुला। और वह बात यह थी कि भारत के नव-शिक्षित युवक हिन्दू धर्म की निन्दा और ईसाइयत की प्रशंसा चाहे जितनी भी करते हों, किन्तु, स्वयं उनके भीतर धार्मिकता का कोई चिह्न नहीं था। ये हैट–बूट से सुसज्जित घोर रूप के संसारी मनुष्य थे, जिनके आमिष–भोजन और मदिरापन की कहानियाँ सर्वत्र प्रचलित थीं। भारत में धर्म के साथ एक प्रकार की फकीरी, एक प्रकार का आत्म–त्याग और अपरिग्रह का भाव सदा से वर्तमान रहा है। अतएव, इन बकवासी युवकों का भारतीय जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उलटे, वह उनसे घृणा करने लगी।
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ईसाई प्रचारक भारतीय समाज से अलग रहते थे, इसलिए, जनता को यह जानने का अवसर नहीं था कि उनके वैयक्तिक जीवन में कितनी सरलता और कितना तप है। उनकी प्रशंसा करनेवाले नव-शिक्षित हिन्दुआें ने समाज में अपने आचार का जो प्रमाण दिया, वही आचार ईसाई पादरियों का भी मान लिया गया
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ईसा का एशियाई रूप
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विवेकानन्दजी महाराज को तत्कालीन शिक्षित युवकों से घोर असन्तोष था।
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
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हिन्दू नवोत्थान
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अवतार, अपने काल का स्वर
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नवोत्थान का स्वरूप
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भारत में नवोत्थान का जो आन्दोलन उठा, उसका लक्ष्य अपने धर्म, अपनी परम्परा और अपने विश्वासों का त्याग नहीं, प्रत्युत, यूरोप की विशिष्टता के साथ उसका सामंजस्य बिठाना था।
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जितना धार्मिक संस्कार अनेक अन्य देशों के लोग जीवन भर साधना करके प्राप्त करते हैं, उतना संस्कार यहाँ के अशिक्षित व्यक्ति को भी, बहुधा, पैतृक उत्तराधिकार के रूप में, आप–से–आप, प्राप्त हो जाता है।
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