लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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इसलिए अतीत के अनुभव पर वर्तमान जिन सपनों को गढ़ता है, वही हमारा भविष्य है—और हम उसके पीछे भागते जाते हैं, भागते जाते हैं तथा रह जाता है छटपटाहट भरा असंतुष्ट वर्तमान। शायद यह असंतोष न रहता तो जीवन सारहीन हो जाता।
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‘‘संसार के सारे शापों से तो हम मुक्त हो सकते हैं; पर जब अपने ही कर्म हमें शापित करते हैं तब हम उनसे मुक्त नहीं हो पाते।’’
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‘भैया, धनुर्विद्या में मात्र पाँच प्रतिशत गुरु का ज्ञान और पंचानबे प्रतिशत अभ्यास की आवश्यकता होती है।’
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वैभव की तलवार शक्ति के म्यान में ही सुरक्षित रहती है, अन्यथा मौसम का मामूली उतार-चढ़ाव भी उसमें मोरचा लगा देता है।
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जहाँ सत्ता होगी वहाँ संघर्ष की संभावना तो बनी ही रहेगी।’’
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पर विद्या ग्रहण करने के लिए व्यग्रता नहीं, ललक की आवश्यकता होती है।’’
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द्वेष के वश में रहकर सीखी हुई विद्या सदा संतप्त रहती है।’’
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‘भवितव्यता तो होकर रहेगी। तुम्हें देखना बस यह है कि नियति कौन सी भूमिका तुम्हें सौंपती है।’
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बिना वास्तविकता जाने ऐसा वचन देना घातक भी हो सकता है। इस समय तुम राजनीति के शिखर पर हो। तुम्हें ऐसी भूल नहीं करनी चाहिए।’’
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‘‘यह मेरी छाया है, मेरे साथ रहेगा ही।’’ ‘‘पर प्रकाश तक ही। अंधकार में छाया साथ नहीं रहती।’’
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राजाओं को तो कई विवाह करने की शास्त्र अनुमति देता है।’’ फिर उन्होंने बड़े विस्तार से शास्त्र के इस संदर्भ की व्याख्या की—‘‘इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि शास्त्र राजाओं को वासना में लिप्त या विलासी बनाना चाहता है। वस्तुतः राजाओं को अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझना पड़ता है। इन परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए विवाह एक साधन होता है।’’
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‘‘उपयुक्तता तो समयसापेक्ष होती है। जो आज उपयुक्त है, कल नहीं भी हो सकता।’’
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क्योंकि दार्शनिक की अपेक्षा बच्चों की तरह जीना आनंददायक भी है और सहज भी। दार्शनिक सबकुछ जानकर भी कुछ नहीं जानता। वह ज्ञात की गठरी सिर पर धरे अज्ञात की ओर दौड़ता है। जबकि बालक अज्ञात में ही किलकारियाँ भरता है। उसके सिर पर कोई गठरी नहीं होती।’’
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कितना विचित्र है। लोग जैसे होते हैं, हम उन्हें वैसा देख नहीं पाते वरन् हम जैसे होते हैं, वे वैसे ही दिखाई देते हैं।
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‘‘वही रास्ता पकड़ा है, जो रास्ता मेरा है।’’ मैं मुसकराते हुए बड़े विश्वास से बोलता रहा—‘‘मेरे जीवन का रास्ता सदा आरण्यक रहा है। मेरी उपलब्धियों ने मुझे घने अंधकारों के बीच से ही पुकारा है।’’
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‘तुम कर्ता नहीं, मात्र द्रष्टा हो। चुपचाप देखते जाओ। धर्म न पृथ्वी से कभी नष्ट हुआ है और न होगा।’
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पर षड्यंत्र की भी एक प्रकृति होती है। सफल या असफल होने पर—दोनों अवस्थाओं में उसमें दुर्गंध आ जाती है और अंत में सड़े शव की तरह बदबू फेंकता है। आज नहीं तो कल, इसका रहस्य खुलेगा ही।’’
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अनुमान प्रमाण का एक आधार होता है; पर याद रखना, वह कभी प्रमाण नहीं होता।’’
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जब जो होना रहता है, होकर रहता है। इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं।
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लगता है, यह सन्नाटा ही शाश्वत है। सृष्टि के पूर्व भी यही था और प्रलय के बाद भी यही रहेगा। जीवन तो कुछ समय के लिए इस सन्नाटे को तोड़ता है; जैसे भाद्रपद की काली घटा के बीच बिजली चमकती है।’’
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‘‘उद्धव, तुम सोचते हो कि तुम्हारा कर्म व्यर्थ गया। कर्म की व्यर्थता और सार्थकता पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं। केवल कर्म पर तुम्हारा अधिकार था—और तुमने अपना कर्म किया। फल तो तुम्हारे वश में नहीं था और न उसपर तुम्हें सोचना चाहिए।...तुम क्या, यदि तुम्हारी जगह मैं भी यहाँ आता, तो भी यह घटना घटती।’’
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‘‘तुम तो मात्र निमित्त हो। तुमने जो किया, यदि तुम न करते तो कोई और करता। रह गई तुम्हारे पापों की बात, तो मेरे वृद्ध मित्र, पश्चात्ताप के आँसू बड़ी-से-बड़ी पापाग्नि को बुझा देते हैं। उसके लिए कुछ और नहीं करना होता है।’’
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हम सब एक ऐसी शक्ति से निर्मित हैं, जो अखंड और अनंत है—और हमारी दृष्टि खंडित है। हम जब उस अखंड को देखते हैं तब खंडित दृष्टि से ही देखते हैं। मात्र उसका एक खंड ही देख पाते हैं। बहुत कुछ वह हमारे लिए अदृश्य ही रहता है। इस घटना का भी बहुत कुछ हमारे लिए अदृश्य ही है।’’
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षड्यंत्र की एक विशेष प्रकृति होती है। वह रहस्य में ही जीता है और दूसरों को भी रहस्य में ही रखना चाहता है।
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हर प्रकार की पीड़ा को पीते रहना और जीते रहना, यही तो मेरी नियति है, वत्स!...पर
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राजनीति कहती है कि शत्रु से मिली सूचना की सत्यता को बिना परखे उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।’’
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व्यग्र को उसकी व्यग्रता का आभास कराइए तो वह और घबराने लगता है।
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ये लौह शलाकाएँ आप तोड़ना नहीं चाहते; क्योंकि आप इसे जीने लगे हैं। और जब व्यक्ति कारागार को जीने लगता है तब कारागार ही उसके लिए घर हो जाता है। उसकी प्राचीरों के प्रति उसका मोह हो जाता है। जिन्हें आप शलाकाएँ कहते हैं, वह आपका मोह है। इन्हें आप तोड़िए, पितामह; अन्यथा इनके भीतर से सत्य दिखाई नहीं पड़ेगा।...कम-से-कम
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आप संसार की चिंता न करें, पितामह! हम कितना भी छिपाएँ, पर उसकी हजार-हजार आँखों से कोई भी यथार्थ छिपाया नहीं जा सकता। और रहा इतिहास, वह केवल सत्य को स्वीकारता है। असत्य तो उसके पृष्ठों तक ले जाते-जाते स्वयं निर्जीव होकर झड़ जाता है।’’
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‘‘जानते हो, कन्हैया, जीवन में सबसे बड़ा बोझ क्या है?’’ मैं चुप ही रहा। उन्होंने स्वयं उत्तर दिया—‘‘पिता के कंधे पर पुत्र का शव—और यह तो पौत्रों के शव हैं।’’
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‘‘पुत्र-मोह का अँधेरा संसार में किसी भी अँधेरे से घना होता है, उद्धव! और जब व्यक्ति इस अँधेरे में भटक जाता है तब जल्दी रास्ते पर नहीं आता।’’
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यह आप सोच सकते हैं; क्योंकि आपके सोच पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। मेरा अधिकार तो केवल अपने सोच पर है।’’
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हमारी दृष्टि की एक सीमा है; पर संसार बड़ा असीम है, उद्धव। इसका बहुत बड़ा भाग हमारी समझ और दृष्टि से परे है।’’
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दासीपुत्र होने के कारण इतना ज्ञानगर्भित होने पर भी विदुरजी में एक प्रकार की हीनभावना सदा रही। जीवन के अंत तक वे इससे मुक्त नहीं हो पाए। और
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अनुभव भी ज्ञान से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता।
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‘‘मैं गंतव्य से अधिक गति पर विश्वास करता हूँ; यद्यपि गंतव्य मेरे लिए अविश्वस्त नहीं है। मेरे जैसे कर्म पर विश्वास करनेवाले लोग, फल को अपनी दृष्टि से रखते हुए भी, कभी फल पर सोचते नहीं; क्योंकि फल पर मुझसे कहीं अधिक अधिकार नियति का है।’’
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मैं अनुभव करता हूँ कि युद्ध में मोहग्रस्त अर्जुन के समक्ष मेरे मुख से जो ‘गीता’ निकली थी, उसके अनेक अंशों को मैं जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में जीता रहा हूँ। इसलिए वह मेरा मात्र जीवन दर्शन नहीं है वरन् मेरे भोगे गए यथार्थ के टुकड़ों का संग्रह है।
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‘जीवन की अनिवार्यता में शस्त्र कभी नहीं आता। शस्त्र की मनुष्य को उस समय आवश्यकता पड़ी, जब जीवन में ईर्ष्या और द्वेष ने प्रधानता पाई थी।’
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‘आज मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु तो मनुष्य स्वयं है; वरन् उसका वास्तविक शत्रु है मनुष्य के भीतर कुंडली मारकर बैठा उसका अभिमान, उसकी ईर्ष्या, उसका द्वेष। शस्त्र उसके कारण हैं, उसके हथियार हैं।’
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फिर जिस मार्ग से बढ़ आया उधर लौटना मेरी प्रकृति में नहीं है।’’
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‘मित्र’ और ‘शत्रु’ ऐसे व्यापक शब्द हैं, जिनकी परिधि अविश्वसनीयता बहुधा स्पर्श करती है।
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‘नवीन का सबसे मंगलदायी समय कब होता है?’ ‘‘मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर देता? उन्होंने स्वयं उत्तर दिया— ‘जब विपत्ति में साथ देनेवाली जीवनसंगिनी मिल जाए।’
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नारी सौंदर्य वह वशीकरण मंत्र है, जो पुरुष को भेंड़ा बना सकता है।
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‘जो मुँह से निकल जाता है, वही तो हृदय की बात है। ‘कहना चाहने’ में तो मस्तिष्क का योगदान होता है, जिसमें यथार्थ भी हो सकता है और दिखावा भी, अपेक्षाएँ भी हो सकती हैं और अभिनय भी; पर स्वतःस्फूर्त वाणी में होता है हृदय का सहज चित्र।’
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इसलिए आपको अपने संकल्प के लिए कोई विकल्प ढूँढ़ना होगा। मैं नहीं चाहता कि राजाओं की ईर्ष्याग्नि प्रजा के सुख-चैन को भस्म कर दे।’’
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बहुत सारी समस्याएँ कुछ समय के लिए टाल देने से या तो वे समाप्त हो जाती हैं या हलकी पड़ जाती हैं।
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महिलाओं पर अपने विचार लादने से उत्तम उन्हें अपने विचार के अनुसार पति चुनने का अवसर देना है।
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हमारी दृष्टि एक सीमा तक ही देख सकती है। हम अपनी सीमित दृष्टि से ही असीमित को देखने की चेष्टा करते हैं और पूरे सत्य को देख नहीं पाते, तभी हम उसे चमत्कार की संज्ञा दे देते हैं।’’
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एकतरफा समर्पण आधा और अधूरा होता है। ऐसे समर्पण की विश्वसनीयता भी बड़ी दुर्बल होती है।
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‘‘अपमान की अग्नि का शमन सामान्य नहीं है, पांचाली!’’ मैंने कहा, ‘‘उसे बुझाने के लिए संतोष का जल और आत्मचिंतन की शीतल बयार चाहिए, प्रतिशोध की समिधा नहीं।’’
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