लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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Kindle Notes & Highlights
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मैं तो इसी प्रतिशोध की अग्नि से जनमी हूँ।
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‘‘ब्राह्मण को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधाग्नि में पहले उसका ब्राह्मणत्व जलता है, बाद में और कुछ।
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कभी-कभी क्षमा भी दंड से भारी पड़ती है।’’
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मैंने तुरंत उसीकी मानसिकता के साथ होने का निर्णय लिया; क्योंकि डूबने के खतरे से अच्छा होता है धारा के साथ बह चलना।
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‘‘पराक्रम और प्रतिभा न तो उत्तराधिकार के आश्रित रही है, न उसने कोई जातीय बंधन स्वीकार किया है—और न वह किसी वैभव के घेरे में बंदी हुई है।’’
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बहुत से घाव समय स्वयं भर देता है और बहुत से समाधान उसके प्रकोष्ठ से स्वयं निकल आते हैं।
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इसे मेरे व्यक्तित्व की दुर्बलता कहिए या विशेषता कि मेरा स्वभाव ही अपने से अधिक दूसरों की चिंताओं को झेलने का अभ्यस्त होता जा रहा था। ऐसी स्थितियाँ मुझे व्यग्र नहीं करती थीं; पर मेरी जिज्ञासा को प्रगल्भ अवश्य कर देती थीं।
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आत्महत्या जहाँ धार्मिक दृष्टि से अपराध है, वहीं वह व्यावहारिक दृष्टि से भी जीवन से पलायन है।’’ मेरी चिंतना ने जोर मारा—‘‘मृत्यु तो अंतिम विकल्प है, वह कभी संकल्प नहीं होता—और जीवन संकल्प के साथ जीया जाता है। भागने से समस्या हल नहीं होती वरन् वह और भयंकरता के साथ पीछा करती है।’’
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यह पृथ्वी विपुला है, शिखंडिन! इसमें न ऐसे आश्रमों की कमी है और न ऐसे आचार्यों की। यदि कमी है तो तुम्हारे पास संकल्प की, जीवन के प्रति पूरी निष्ठा की।’’
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क्योंकि विकल्प की जानकारी रहने पर संकल्प की दृढ़ता दुर्बल हो जाती है।’’
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इस विशाल संसार में कुछ भी संभव है और कुछ भी संभव नहीं है। हम सब अस्ति-नास्ति के बीच ही झूल रहे हैं।’’
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जब सत्य का उद्घाटन न किया जा सके तब सत्य की द्विविधा में व्यक्ति को उलझाए ही रखना चाहिए और परिस्थितियों को अपना काम करने देना चाहिए।
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‘‘कोई भी हमारे कथन का कुछ भी निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र है। हम उसकी यह स्वतंत्रता कैसे छीन सकते हैं? फिर यह स्पष्ट समझिए कि बाण को दूर तक मारने के लिए प्रत्यंचा को पीछे खींचना पड़ता है। धनुष को काफी झुकाना पड़ता है। झुकना सदा हीनता का द्योतक नहीं है, राजनीति का एक अस्त्र भी है।’’
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‘‘मजबूत सीमाओं के भीतर असंतुष्ट प्रजा का रहना काष्ठ घट में अग्नि को बटोरना है।’’
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किसी व्यक्ति के मुँह पर की गई प्रशंसा उसकी क्रियमाण शक्ति की खड़ी फसल पर तुषारपात है।’’
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कभी हीनभावना से ग्रस्त मत होइएगा कि मैंने यह भूल की है।
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संसार कितना बदल गया; पर मैं अपनी मानसिकता बदल नहीं पाया, अपनी यह दुर्बलता छोड़ नहीं पाया। प्रकृति के परिवेश बदलते ही मैं एक ऐसे संसार में चला जाता हूँ जहाँ न दुःख है, न व्यग्रता है, न चिंता है, न राजनीति है और न यहाँ की झंझटें। वहाँ केवल राधा है और मैं हूँ। प्रकृति की सरसता है और है सरसता की प्रकृति।
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इसलिए बाँह में रुक्मिणी के रहते हुए भी आह में राधा ही रहती है। रुक्मिणी मेरे जीवन के साथ है और राधा मेरी आत्मा के साथ। जीवन समाप्त हो जाने के बाद रुक्मिणी का संबंध समाप्त हो जाएगा; पर राधा का संबंध जन्म-जन्मांतर तक चलता रहेगा।
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मनुष्य क्या कर सकता है! परिस्थितियाँ सब कराती हैं।’’
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मृत्यु का वरण भी नियति की इच्छा का ही परिणाम है। उसकी इच्छा के बिना मृत्यु आपका स्पर्श भी नहीं कर सकती।’’
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‘‘नियति के समक्ष हम निरीह हैं। मरे हुए को बचाया नहीं जा सकता, बचे हुए को मारा नहीं जा सकता।’’
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‘‘क्योंकि हम मोह के वश में हैं। और मोह हमारे अज्ञान का मूल है।’’
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आत्मा वैजायते पुत्रः।’’
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‘‘शत्रुता को उत्तराधिकार में मत दीजिए। जब संततियाँ प्रतिशोध और बदले की भावना उत्तराधिकार में पाएँगी, तब एक-न-एक दिन यह धरती घृणा, द्वेष और प्रतिहिंसा से भर जाएगी। सौहार्द और प्रेम के लिए वह बड़ा दुर्भाग्यशाली दिन होगा।’’
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‘प्रतिशोध तभी तक जीवित है जब तक आप उसे हृदय से लगाए हैं। उसे छोड़ दीजिए, वह अपनी मौत मर जाएगा।’
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शंकाकुल मन से आज तक किसी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई।
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आप विश्वास करें, उनकी स्थिति को देखकर शरीर के लिए वस्त्र की उपमा मेरे मन में बैठ गई थी और वही कालांतर में अर्जुन के सामने ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय’ के रूप में अवतरित हुई थी।
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वस्तुतः मृत्यु कोई समस्या नहीं है। हम सब उसे समस्या समझते हैं, यही सबसे बड़ी समस्या है। मृत्यु तो एकमात्र द्वार है, मार्ग नहीं। मार्ग तो जीवन है। इस मार्ग से ही जीवन आया है और इसी द्वार से वह पुनः नए जीवन में प्रवेश करेगा। फिर द्वार समस्या बने, बात कुछ समझ में नहीं आती। समस्या तो मार्ग को बनना चाहिए, जीवन को बनना चाहिए।’’
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यह भीगा सवेरा उस नायिका के समान मादक और सुहावना था, जिसका आँचल तो हवा में लहरा रहा हो, पर जिसका झीना वस्त्र उसके शरीर से लिपटकर एकाकार हो गया हो।
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ये लोग जीवन को जीना जानते हैं; पर आज की स्थिति में उसे सुरक्षित रखना नहीं जानते और यही इनकी मूल समस्या है।
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उसके चारों ओर ऐसे ही जाल बिछा दिए गए थे। यह उसके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी दुर्बलता थी। मुझे कुछ ऐसा लगता है कि गोकुल में भी गोपियों के तर्क इतने प्रभावी नहीं थे, जितनी उनकी प्रेमिल सौंदर्य की सहजता। तभी
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मृत्यु से साक्षात्कार कर रहे व्यक्ति के लिए जीवन का मोह अधिक हो जाता है। जीवन जब छूटने को होता है तो वह और अधिक चिपकता है। यह स्थिति उतनी दुःखद नहीं होती, जितनी पीड़ादायक होती है। ऐसी स्थिति में उसके चिंतन को आंदोलित करने की आवश्यकता पड़ती है।
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जिसने सच्चे मन से मुझपर भरोसा किया, मैंने कभी उसे निराश नहीं किया।
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‘‘एक भीरु और निर्बल के लिए पराजय मृत्यु बनकर आती है; पर एक पराक्रमी के लिए पराजय ही नए विजय की संदेशवाहिका बनती है।’’
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‘‘जानते हो, चेकितान, कि किसी राज्य की गुप्तचर व्यवस्था उस राज्य की आँख होती है। यदि आँख ही नहीं, तो अंधा राज्य कुछ नहीं कर सकता।’’
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‘‘राज्य चले जाने से क्या हुआ? पर मन नहीं पराजित होना चाहिए।’’
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‘‘वस्तुतः हस्तिनापुर को दुर्योधन की नीचता से उतना खतरा नहीं है, जितना पितामह की इस असमर्थता से।’’
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‘‘सपना कभी चूर नहीं होता, यदि उसे संकल्प में बदल दिया जाए।’’
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भीड़ की मानसिकता व्यक्ति की मानसिकता से कुछ दूसरी ही होती है।
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शांति और संघर्षहीन स्थिति विकास के लिए बड़ी सहायक होती है।
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तत्पुरुष द्वंद्व समास हो गया।
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जीवन को चौपड़ की बाजी की तरह खेलना मेरा स्वभाव बन गया था, जिसकी हार-जीत पर मेरा अधिकार नहीं था।
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यह देखना मेरा काम है।’’ मैंने तुरंत उसके सोच की सीमा निर्धारित की।
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धधकते ज्वालामुखी से शांत पड़ा ज्वालामुखी अधिक खतरनाक होता है।
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‘राजनीति कहती है कि यदि शांति से रहना हो तो अपने राज्य की सीमा से लगे किसी भी मित्र राज्य को पराजित कर अपने में मिलाना नहीं चाहिए, वरन् उन्हें मित्र बनाकर रखना चाहिए। उन्हें विजित करना सीमा पर बनी सुरक्षा दीवार को अपने हाथों तोड़ देना है।’ ’’
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परिणाम होगा—कलह। आंतरिक कलह, बाह्य कलह। कलह, कलह, कलह! ऐसा करो कि दुर्योधन की मानसिकता सामान्य न रहे। कलह में पूरी तरह डूब जाए।’’
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जब अंत में सब छूटना ही है तो अभी से सबको क्यों न छोड़ दिया जाए!’’
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मैं तो जीना नहीं, मरना सिखाता हूँ। जिसे मरना आता है, उसे जीना सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।’’
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महत्त्वाकांक्षा वह अग्नि है, जो जब दूसरे को नहीं जला पाती तो स्वयं ही जलकर राख हो जाती है।’’
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मनुष्य को एकाकीपन का ध्यान उसी समय आता है, जब उसे अपनी किसी दुर्बलता का आभास होता है।’’