लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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Kindle Notes & Highlights
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किसी वस्तु को छीनने से वह उस व्यक्ति की तब तक नहीं हो जाती जब तक उसका पूर्व स्वामी उसपर से अपना अधिकार नहीं छोड़ता।
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तुम उससे परेशान हो, जो तुम देख रहे हो या जो घटित होता हुआ तुम्हें दिखाई दे रहा है। ऐसा बहुत कुछ है, जो तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है; क्योंकि दृष्टि की एक सीमा है, वह अपनी परिधि के पार नहीं जा सकती।’’
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हर निर्माण के पूर्व ऐसा समय आता है, जब वस्तुएँ टूटकर बिखरने लगती हैं। निर्माण की संभावना जितनी विराट् होती है, उसका ध्वंसकाल उतना ही भयानक और विस्फोटक।
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हताशा की गर्त में जब कोई गिरने लगता है तब गिरने की उसकी गति बढ़ती ही जाती है।’’
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‘‘हार-जीत का निर्णय करना तुम्हारा काम नहीं। तुम कार्य करो। फल की चिंता करने का कार्य मेरा है।’’
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सबकुछ करते हुए ‘कर्ताभाव’ से अपने को दूर ही रखता था। सामाजिक दृष्टि से निरपेक्षता प्रदान करने के लिए यह आवश्यक था। दूसरी
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मनुष्य बड़ा विचित्र जीव है। वह अपनी भूल के समर्थन में भी अपनी बुद्धि की मंजूषा से कभी-कभी ऐसे तर्क निकालता है, जो शाश्वत सत्य बन जाता है। मदिरा के इस नशे में जो तर्क उछला, उसकी अस्मिता शाश्वत थी। मैंने बहुत बाद में मोहग्रस्त अर्जुन से कहा था—‘सर्वभूतस्थितं यो मां’।
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फिर कैसी क्षमा और किससे क्षमा? आज मैं वह नहीं रहा, जो कल था और न तुम्हीं वे रहे, जो कल थे।’’
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मुझे ऐसा आंदोलित समुद्र बहुत अच्छा लगता है। सच पूछिए तो जल का दहाड़ता पुरुषार्थ ऐसे समुद्रों में ही दिखाई देता है।
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‘‘देखा, विलास का अंतिम परिणाम यही होता है।’’
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‘‘जब संघर्ष आँसुओं में बदल जाता है तब पराभव के वे ही चित्र दिखाई देते हैं, जो आज द्वारका में दिखाई पड़ रहे हैं।’’
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इस विषय में नारी बुद्धि पुरुष से कहीं अधिक प्रखर होती है। वह पहली ही दृष्टि में पुरुष की वासना को तौल लेती है।’’
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‘धरती, नदी और माता के साथ व्यभिचार नहीं करते।’
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घर की लड़ाई बाहर की लड़ाई से गंभीर और स्थायी होती है। इसे उन हथियारों से नहीं जीता जाता, जिनसे बाहर की लड़ाई जीती जाती है। इसके हथियार तो कल और छल हैं, बल नहीं।’’
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मनुष्य के किए कुछ नहीं होता, जब तक नियंता की इच्छा नहीं होती।
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मैं संघर्ष को ही जीवन मानकर जीऊँगा।’’
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फिर क्रोध और अरण्याग्नि को जितना शांत कीजिए, वह उतना ही भभकती है।
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दीमक अपनी शक्ति का नहीं वरन् हमारे अज्ञान और हमारी न जानकारी का लाभ उठाती है।
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‘‘मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। फिर वह मनुष्य, जिसे लोग भगवान् मानते हों, उसके लिए तो सबकुछ संभव होना चाहिए।’’
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मुझे ऐसा लगता है कि मैं सबका हूँ और सभी मेरे हैं।’’
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मृत्यु की आशंका मन को हिमानी चट्टानों पर बिठा देती है, जिससे पिघल-पिघलकर व्यक्ति का अतीत बहने लगता है—और जो बाध्य हो जाता है, वह सपने की तरह उतराता है।
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यह किसी व्यक्ति की नहीं वरन् षड्यंत्र की मृत्यु थी और षड्यंत्र का कोई अपना नहीं होता।
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मुझसे क्या छीनेगा? मेरे माता-पिता को छीनेगा, मेरा पौरुष छीनेगा, या मेरा भविष्य या मेरा कृत कर्म?’’
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‘‘तब चलने का उद्देश्य क्या होगा?’’ ‘‘आर्यावर्त्त की पूरी राजनीति को अपनी मुट्ठी में रखना और द्रौपदी को अपने मनचाहे के हाथों सौंपना।’’
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प्रेम गंगा की तरह पवित्र है और समुद्र की तरह विराट्। किसी भी स्नानार्थी या जल ग्रहण करनेवाले से गंगा यह नहीं कहती कि तुम मेरी पवित्रता को मत बाँटो। समुद्र ने कभी किसीसे कहा है कि मेरी विशालता का विभाजन मत करो? फिर प्रेम बाँटने की सीमा में आता भी नहीं। पूर्ण को पहले तो विभाजित नहीं किया जा सकता; फिर यदि किसी प्रकार विभाजित भी किया जाएगा तो पूर्ण ही बचेगा। वैसे प्रेम पहले तो बँट नहीं सकता और यदि बँटेगा भी तो प्रेम प्रेम ही बचेगा।’’
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परिस्थितियों का सामना करते-करते मेरा स्वभाव ही अब जड़ और मूल पर विश्वास करने का हो गया। फूलों को देखकर मैंने बहुत धोखा खाया है।’’
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‘‘कभी-कभी कूटनीति कटे तने को भूमि में गाड़कर हमें वृक्ष का धोखा देती है। पूरा उपवन ही नकली और दिखावटी होता है।
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‘‘लोग मुझे यदि इतनी आसानी से समझ जाते तो वे मुझे भगवान् क्यों मानते?’’ मैंने स्वयं पर व्यंग्य करते हुए कहा।
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पर सबसे बड़ी बात है कि राक्षस के पास ईश्वरत्व को पहचानने की शक्ति भी तो नहीं होती।’’
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‘‘उस भगवान् ने, जो मेरे भीतर है, जो मेरी वाणी से बोलता है, जो मेरे नेत्रों से देखता है, जो मेरे कानों से सुनता है, जो अव्यक्त होकर भी मेरे द्वारा व्यक्त है।’’
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‘‘अभ्यास कभी व्यर्थ नहीं जाता। कब इसकी आवश्यकता पड़ जाए, कहा नहीं जा सकता।’’
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सह्य होते हुए भी नियति मुझपर निरंतर प्रहार करती रही। पर यह सोचकर कि बार-बार छेनी-हथौड़ी की मार खाने के बाद ही कोई मूर्ति बनती है, पत्थर भी भगवान् हो जाता है, मृण्मय चिन्मय दिखाई देने लगता है, मैंने सारे प्रहार सहे—और यह सोचता रहा कि नियति भी मेरा निर्माण कर रही है। इसीलिए मैं कभी भी थका नहीं, हारा नहीं, श्लथ नहीं हुआ। मुसकराता हुआ सब झेलता रहा।
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कभी-कभी अपना जानना ही स्वयं को धोखा दे देता है।’’
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‘‘झाँझर पात्र में जल और नारियों के पेट में बात रुक नहीं पाती।’’
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संकट की अग्नि में तपकर ही व्यक्तित्व कंचन-सा चमकता है।
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‘राजनीति की निष्ठुरता एक नारी कभी समझ नहीं सकती।’ ‘‘ ‘और नारी मन की कोमलता तक आपकी निष्ठुर राजनीति कभी पहुँच नहीं सकती।’
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जब तक यह मोह है, आप मेरे पास हो। मोह से मुक्त होते ही मुझे विराग घेर लेगा।’’
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संसार विराग से नहीं, राग से चलता है। सांसारिक होने के लिए मोह की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी दीपक के लिए तेल की।
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‘यह तुम्हारी आसक्ति नहीं है। आसक्ति में तो स्वार्थ होता है। इसमें तुम्हारा स्वार्थ क्या है? यह तो तुम्हारा कर्तव्य है। तुम धर्म की स्थापना के लिए धरती पर भेजे गए हो। आज पूरे आर्यावर्त्त की जीवन शैली अधर्म से प्रभावित है।’
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मेरा एक व्यक्तित्व वह है, जो रुक्मिणी का है, रुक्मिणी के लिए है और एक व्यक्तित्व वह भी है, जो समाज का है और समाज के लिए है। ये दोनों व्यक्तित्व एक-दूसरे से ऐसे जुड़े हैं कि यदि मैं उन्हें अलग करना चाहूँ भी तो अलग नहीं कर सकता; पर परिस्थितियाँ उन्हें अलग कर देती हैं।
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यह मेरे जीवन का अनुभव है कि हर व्यग्रता पर खिलखिलाहट का आस्तरण डालिए। वह आशा से अधिक शांत हो जाएगी।
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यही तो जीवन है—और यही उसकी अस्मिता भी है। अग्नि की अस्मिता शीतलता से घिरी रहने में है और प्रकाश का अस्तित्व अंधकार के बीच। यदि अंधकार नहीं तो प्रकाश का महत्त्व क्या? वैसे ही अपने चारों ओर से अंधकार के बीच द्वारका प्रकाश की तरह भभक रही है।’’
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धर्म को मानिए या न मानिए, वह तो रहेगा ही; क्योंकि वह किसी व्यक्ति की संपत्ति नहीं है कि वह उसे उठाकर फेंक दे। धर्म तो समाज का है, समाज द्वारा है, समाज के लिए है। वह भी तब से जब से समाज है और तब तक रहेगा जब तक समाज रहेगा।’’
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‘भगवान् सबको अपनी निर्मिति ही समझता है—चाहे वह पापी हो या धर्मात्मा, चाहे वह शत्रु हो या मित्र। राम भी रावण को अपना मित्र ही समझते थे। उनका शत्रु था रावण का राक्षसत्व, उनका शत्रु था रावण की अधार्मिक वृत्ति।’
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लोग मित्रों के शव से नए संबंधों का सौदा कर रहे हैं।
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व्यग्रता ने आँखों पर परदा डाल दिया है। यथार्थ को देख पाने की सामर्थ्य नहीं रही।’’
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जब लोग मुझे स्मरण करते हैं, मैं उपस्थित होता हूँ—और विपत्ति के समय तो विशेषकर।’’
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देखो चेकितान, मनुष्य कुछ नहीं कर पाता, जब तक नियति की इच्छा नहीं होती।’’
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पारिवारिक संदर्भ में सोचते समय व्यक्ति अपनी निजता परिवार को सौंप देता है। ऐसे में परिवार का लिया गया निर्णय वह अपना निर्णय समझता है। इसके लिए उसे अधिक व्यग्र नहीं होना चाहिए और न उसके लिए पश्चात्ताप करना चाहिए; क्योंकि वह निर्णय उसका निजी नहीं होता।’’
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यदि कोई वस्तु हमारे साथ जाएगी तो हमारा धर्म, हमारा कर्म।