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Kindle Notes & Highlights
‘‘अकेला ही तो संसार में आया हूँ। अकेला यहाँ से जाऊँगा भी।’’
‘‘तुम किसी बात को लेकर बहुत दूर तक पकड़े मत रहा करो। यह सदा याद रखो कि परिस्थितियाँ ही मनुष्य को प्रभावित करती रहती हैं।
‘‘हर प्रकाशमान की नियति चारों ओर से अंधकार से घिरने की होती है।’’ विपत्ति में उभरनेवाली एक शाश्वत मुसकान मेरे अधरों पर आई—‘‘वह दीप क्या, जो अंधकार से घिरा न हो! अँधेरा ही उसे अस्मिता प्रदान करता है और उसकी उपयोगिता भी स्थापित करता है।’’
ब्राह्मण का अहं कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।
एक ब्राह्मण का क्रोध तो हिमखंड पर अप्रत्याशित उभरी वह दावाग्नि है, जो अंततः उसके अस्तित्व को ही भस्म करके उड़ा देती है।
संसार में सारे पापों का प्रायश्चित्त है, पर कृतघ्नता का कोई प्रायश्चित्त नहीं है।’’
भूल करना तो मनुष्य की प्रकृति है; पर उसको सुधार लेना उसकी संस्कृति है।’’
‘‘गुरु के ज्ञान का उत्तराधिकार तो उसके शिष्य का ही होता है।’’
आपने अभी कहा है कि अर्जुन आपका सबसे प्रिय शिष्य था। क्या उसके लिए आपके आचार्यत्व ने ज्ञान लुटाते हुए निष्पक्षता बरती होगी?’’
सबकुछ बन सकता हूँ, पर सांदीपनि नहीं बन सकता।’’
‘‘मार्ग की भी आवश्यकता है और चलने की शक्ति की भी। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे से अलग नहीं।’’
‘काल किसी व्यक्ति से कम छलिया नहीं है। यदि कन्हैया ऐसे ही छलिया होते तो पांडवों को अवश्य बचा लेते।’ मैं बोला।’’
‘इस युग में अब युद्ध और प्रेम में कुछ भी उचित-अनुचित नहीं रह गया।
मैं जितनी शीघ्रता में हूँ उतनी ही बाधाएँ आती जा रही हैं।
यद्यपि हमारा चिंतन पशुओं से अधिक विकसित है; पर हमारे राग-द्वेष ने हमारी संवेदनशीलता के पंख बहुत कतर दिए हैं और हम सहज प्रकृति के आकाश में उतनी सरलता से नहीं उड़ पाते और न अपने मित्र तथा शत्रु का उचित अनुमान लगा पाते हैं। वस्तुतः हम इस प्रयास में अपनी उस बुद्धि से काम लेते हैं, जो काम, क्रोध, लोभ, मोह से बेतरह घायल होती है।
कभी-कभी समय अपना अवगुंठन स्वयं खोल देता है।’’
‘तुम कहते कुछ और हो, करते कुछ और हो तथा सोचते कुछ और हो।
आज की राजनीति की यही नियति है कि वह कार्य नहीं, परिणाम देखती है; साधन नहीं, साध्य देखती है।’ ‘तब सत्य तो बहुत दूर चला जाता होगा।’ मेरा प्रत्यय बोला। ‘सत्य मूल्यवान् है, पर समय और परिस्थितियाँ सत्य से अधिक मूल्यवान् हैं।’
मनुष्य हो या कोई समाज, वह अपनी मूल पहचान खोता नहीं है, उसपर अन्य पहचान ओढ़ अवश्य लेता है।’’
तुमने एक सत्य तो स्वीकार किया कि मैं भगवान् हूँ नहीं, भगवान् दिखाई देता हूँ।’’
इसे अच्छी तरह समझ लो, छंदक, मृत्यु किसीके लाए नहीं आती। उसका समय होता है—और जब आती है तो खाली हाथ नहीं जाती।’’
तुम अभी भविष्य के प्रश्न क्यों खड़े कर रहे हो? इस समय हमारे सामने जो विचारणीय प्रश्न है, हमें अपना चिंतन वहीं तक सीमित रखना चाहिए।
संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसका समाधान न खोज निकाला जा सके।’’
फिर लोभी ब्राह्मण पर भरोसा करना विषैले सर्प पर भरोसा करना है।’’
‘‘पर क्या तुम्हारे सोचने से यह होने वाला है?’’ मैंने बड़े प्रभावशाली ढंग से कहा, ‘‘यदि मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही होने लगता तो पांडव वास्तव में भस्म हो गए होते। मनुष्य के वश में बस सोचना है; पर करती नियति है। उसने हम सबको कार्य सौंप दिए हैं। जब तक वे कार्य पूरे नहीं होते, हमें उनसे मुक्ति नहीं मिलती।’’
और यही रहस्यमयता तो मुझे भगवान् बनाती है।’’
नारी कहीं की हो, कोई भी हो; पर उसकी कई समस्याएँ एक जैसी होती हैं।
आस्था टूटते ही भगवान् भी निरर्थक हो जाता है।
वह कई में विभाजित हो सकती है, पर अपने प्रेम को विभाजित होने देना नहीं चाहेगी। वह आज के समाज में मात्र भोग्या है, भोक्ता नहीं।’’
संगीत एक स्वर्गिक कला है, जो प्रकृति और पुरुष का भेद मिटा देती है।
अप्रिय को रहस्य के गर्भ में ही रहने दिया।
कूटनीति जब तक रहस्य की मंजूषा में रहती है तब तक वह बहुमूल्य रत्न है, बाहर होते ही वह काँच का टुकड़ा हो जाती है।
जहाँ कृष्ण हैं वहाँ कुछ भी असंभव नहीं। दो खाइयों पर सेतु बना देना उनकी कूटनीति के बाएँ हाथ का खेल है।’’
क्योंकि मैं कभी किसी व्यक्ति के पक्ष में नहीं होता। यदि होता भी हूँ तो अस्थायी तौर पर; क्योंकि व्यक्ति स्वयं अस्थायी है। उसका अस्तित्व अस्थायी है। उसका मन अस्थायी है। उसका चिंतन अस्थायी है। स्थायी तो इस धरती पर केवल एक धर्म है। और मैं उसीके पक्ष में रहता हूँ।
‘‘मैं परिणाम पर कभी नहीं सोचता और न किसीको सोचने की सलाह देता हूँ। जो अपने हाथ में नहीं है, उसपर सोचना क्या! हाँ, इतना अवश्य है कि जो होना है, वही होगा।’’
‘‘मरीचिका से ग्रसित व्यक्ति को यदि कहीं से जल दिखाई भी पड़े तो उसकी दृष्टि उधर नहीं जाती। उसकी दृष्टि तो मरीचिका की ओर ही लगी रहती है; जो वस्तुतः भ्रम है, भुलावा है, छलना है। इसी प्रकार द्रुपद का प्रतिशोध भी एक छलना है। ऐसे में उसने सत्य की पहचान खो दी है। वह ऐसा विक्षिप्त है, जो अपने लक्ष्य के लिए व्याकुल है, पर अपने लक्ष्य को ही नहीं पहचानता।’’
जानते हो, भीतर का भाव छिपाने पर वह एक-न-एक दिन विषैले व्रण की तरह फूटता है और सारे व्यक्तित्व को घायल कर देता है।’’
‘‘मानवीय संबंधों का एक ही आधार है—और वह है विश्वास। यदि वह आधार खिसका तो संबंध फिर वायवी ही रह जाते हैं।’’
‘‘जीवन के साथ तो कुछ भी नहीं जाता, सिवा धर्म के।’’
क्रोध वह आग है, जो दूसरों को जलाने के पहले स्वयं को जलाती है।
नारी की इच्छा सर्वोपरि है;
जन्म से भले ही तुम स्वयं को अंत्यज समझते हो। फिर जन्म से हर व्यक्ति अंत्यज होता है। जाति का आधार तो कर्म है।’’
कर्म की गरिमा को स्वीकार किए बिना कोई समाज बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सकता।’’
सचमुच ऐसे साधक ही वास्तविक साधक हैं; जो फल को नहीं, केवल कर्म को देखते हैं।
किसी और से लड़कर तो मनुष्य जीत भी सकता है, पर वह जब स्वयं अपने से लड़ने लगता है तब पराजित ही होता है।’’ ‘‘और यही पराजय उसकी विजय है।’’ छंदक बीच में ही बोल उठा—‘‘मनुष्य जब स्वयं अपने विरुद्ध खड़ा होता है तो पराजय और विजय के लिए नहीं खड़ा होता, स्वयं को तौलने के लिए खड़ा होता है। यही उसका आत्माकलन है। यह घड़ी बड़े संकट की होती है—और महत्त्व की भी।’’ मैंने छंदक को बड़े ध्यान से देखा और अपने पर बहुत कुछ नियंत्रण करते हुए बोला, ‘‘जब व्यक्ति धराशायी होता है तब उसे हर व्यक्ति ज्ञान देने लगता है।’’
‘घूमने-फिरने से रास्ते का ज्ञान होता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि तुम लोग देशाटन करो। इससे ज्ञान और अनुभव की वृद्धि होती है। यह तभी निर्विघ्न हो सकता है, जब इसकी जानकारी किसीको न हो।’
वे केवल विदुर का संकेत समझते हैं और कर्म करते हैं। फल तो उन्होंने मुझपर छोड़ दिया है।’’
‘‘जब शत्रुता मित्रता का मुखौटा लगाकर उपस्थित होती है तब वह बहुत अच्छी लगती है; क्योंकि नाटक यथार्थ से आकर्षक भी होता है और मनोरंजक भी।’’
‘‘तनावमुक्त होने के लिए हर परिस्थिति को बहुत हलके से लेना चाहिए; क्योंकि मैं जिसका कर्ता नहीं हूँ, उसे गंभीरता से लेकर व्यग्र क्यों होऊँ! कर्ता तो नियति है। मैं तो उसका माध्यम हूँ, निमित्त हूँ। आप भी चिंतामुक्त होइए, जो होना है वही होगा।’’
क्या यह नहीं हो सकता कि द्रोण के किसी शिष्य का धनुष कभी द्रोण के विरुद्ध ही उठे? न आप जानते हैं और न मैं जानता हूँ कि नियति के प्रकोष्ठ में कैसे-कैसे अद्भुत चमत्कार छिपे हैं!’’

