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ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें, बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।
तबतक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
भूप समझता नहीं और कुछ छोड़ खड्ग की भाषा को।
नृप-समाज अविचारी है,
वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी, जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।
वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है, मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
“नहीं पूछता है कोई, तुम व्रती, वीर या दानी हो? सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो? मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं, चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
“कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात, छोटे कुल पर, किन्तु, यहाँ होते तब भी कितने आघात!
“सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है, किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है। सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही, बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु, अन्तिम सुख तो यह पाने दें, इन्हीं पाद-पद्मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।”
देखे अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया, पर, तुझ-सा जिज्ञासु आजतक कभी नहीं मैंने पाया।
‘माना लिया था पुत्र, इसीसे प्राण-दान तो देता हूँ, पर, अपनी विद्या का अन्तिम, चरम तेज, हर लेता हूँ, सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा, है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।”
इस महेन्द्र-गिरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है, मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मुझसे ही पाया है।
नयी कला, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ, नूतन साधन, नये भाव, नूतन उमंग से, वीर बने रहते नूतन।
अच्छा, लो वर भी कि विश्व में तुम महान् कहलाओगे, भारत का इतिहास कीर्त्ति से और धवल कर जाओगे।
अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो, देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।
कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में? खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर, मेंहदी में जैसे लाली हो, वर...
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मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार। जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं।
जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं, मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झँझोरते हैं पल-पल। सत्पथ की ओर लगाकर ही, जाते हैं हमें जगाकर ही।
वर्षा, अन्धड़, आतप अखण्ड, पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
“दो न्याय अगर, तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।
जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।
“ज़ंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ-हाँ, दुर्योधन! बाँध मुझे।
“यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झङ्कार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार...
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“उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमण्डल वक्षस्थल विशाल, भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, ...
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दिपते जो ग्रह-नक्षत्र-निकर, सब हैं मेरे...
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“दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख, चर-अचर जीव, जग क्षर-अक्षर, ...
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शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, शत कोटि सरित, सर,...
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ज़ंजीर बढ़ाकर साध इन्हें, हाँ-हाँ, दुर्योधन! बाँध इन्हें।
यह देख, जगत् का आदि-सृजन, यह देख, महाभारत का रण; मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान, कहाँ इसमें तू है
मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख। सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं।
“बाँधने मुझे तो आया है, ज़ंजीर बड़ी क्या लाया है?
सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता है?
आखिर तू भूशायी होगा, हिंसा का पर, दायी होगा।”
केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय!’
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, ले चढ़े उसे अपने रथ पर।
“मैंने कितना कुछ कहा नहीं? विषव्यंग्य कहाँ तक सहा नहीं? पर, दुर्योधन मतवाला है, कुछ नहीं समझनेवाला है।
“हे वीर! तुम्हीं बोलो अकाम, क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम? वह भी कौरव को भारी है, मति गयी मूढ़ की मारी है।
“पा तुझे धन्य है दुर्योधन, तू एकमात्र उसका जीवन। तेरे बल की है आस उसे, तुझसे जय का विश्वास उसे।
क़िस्मत के फेरे में पड़कर, पा प्रेम बसा दुश्मन के घर।
निज बन्धु मानता है पर को, कहता है शत्रु सहोदर को।
चल होकर संग अभी मेरे, हैं जहाँ पाँच भ्राता तेरे।
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे, हम मिलकर मोद मनायेंगे।
“पद-त्राण भीम पहनायेगा, धर्माधिप चँवर डुलायेगा। पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे, सहदेव-नकुल अनुचर होंगे।