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कौरव को तज रण रोक सखे, भू का हर भावी शोक सखे।“
“जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ, कैसी होगी वह माँ कराल,
निज तन से जो शिशु को निकाल, धाराओं में धर आती है, अथवा जीवित दफनाती है?
आती फिर उसको फेंक कहीं, नागिन होगी, वह नारि नहीं।
“हे कृष्ण! आप चुप ही रहिये, इसपर न अधिक कुछ भी कहिये,
“पत्थर-समान उसका हिय था,
सुत से समाज बढ़कर प्रिय था,
छिपकर भी तो सुधि ले न सकी, छाया अंचल की दे न सकी।
“पा पाँच तनय फूली-फूली, दिन-रात बड़े सुख में भूली, कुन्ती गौरव में चूर रही, मुझ पतित पुत्र से दूर रही।
क्या हुआ कि अब अकुलाती है? किस कारण म...
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“कुन्ती जिस भय से भरी रही, तज मुझे, दूर हट खड़ी रही, वह पाप अभी भी है मुझमें,
वह शाप अभी भी है मुझमें।
कुन्ती का क्या चाहता हृदय? मेरा सुख, या पाण्डव की जय?
“मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, सब लोग हुए हित के कामी;
पर, ऐसा भी था एक समय, जब यह समाज निष्ठुर, निर्दय, किञ्चित् न स्नेह दर्शाता था, विषव्यंग्य सदा बरसाता था।
“उस समय सुअंक लगा करके, अंचल के तले छिपा करके, चुम्बन...
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ताड़ना-ताप लेती थी हर? राधा को छोड़ भजूँ किसको? जननी ह...
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किसने मुझको सम्मान दिया, नृपता दे महिमावान किया?
“अपना विकास अवरुद्ध देख, सारे समाज को क्रुद्ध देख, भीतर जब टूट चुका था मन, आ गया अचानक दुर्योधन।
निश्छल, पवित्र अनुराग लिये, मेरा समस्त...
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वह नहीं भिन्न माता से है, बढ़कर सोदर भ्राता से है।
“राजा रंक से बना करके, यश, मान, मुकुट पहना करके, बाँहों पर मुझे उठा करके, सामने जगत् के ला करके,
मुझको नव जन्म दिया उसने।
सुरपुर से भी मुख मोड़ूँगा, केशव! मैं उसे न छोड़ूँगा।
हाँ, सच है मेरे ही बल पर,
ठाना है उसने महासमर।
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया, सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया।
इस झूठ-मूठ में रस क्या है? केशव! यह सुयश-सुयश क्या है?
अपना न नाम जो ले सकते, परिचय न तेज से दे सकते, ऐसे भी कुछ नर होते हैं, कुल को खाते औ’ खोते हैं।
“विक्रमी पुरुष लेकिन, सिर पर चलता न छत्र पुरखों का धर, अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत् से ...
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“कुल-गोत्र नहीं साधन मेरा, पुरुषार्थ एक बस धन मेरा,
कुल ने तो मुझको फेंक दिया, मैंने हिम्मत से काम लिया।
अब वंश चकित भरमाया है, खुद मुझे ख...
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रण में कुरूपति का विजय-वरण, या पार्थ-हाथ कर्ण का मरण।
हे कृष्ण! यही मति मेरी है, तीसरी नहीं गति मेरी है।
जीते जी उसे बचाऊँगा, या आप स्वयं कट जाऊँगा।
धरती की तो है क्या बिसात? आ जाय अगर वैकुण्ठ हाथ, उसको भी न्योछावर कर कुरूपति के चरणों पर धर दें
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर।
“सम्राट् बनेंगे धर्मराज, या पायेगा कुरूराज ताज; लड़ना भर मेरा काम रहा, दुर्योधन का संग्राम रहा।
जीवन का मूल समझता हूँ, धन को मैं धूल समझता हूँ,
बस, यही चाहता हूँ केवल, दान की देव-सरिता निर्मल करतल से झरती रहे सदा, निर्धन को भरती रहे सदा!
पर, वह भी यहीं गँवाना है, कुछ साथ नहीं ले जाना है!
जग से न कभी कुछ लेते हैं, दान ही हृदय का देते हैं।
“प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर, महलों में गरुड़ न होता है, कंचन पर कभी न सोता है।
नर विभव-हेतु ललचाता है, पर वही मनुज को खाता है।
“चाँदनी, पुष्पछाया में पल, नर भले बने सुमधुर, कोमल, पर, अमृत क्लेश का पिये बिना,
आतप, अन्धड़ में जिये बिना। वह पुरुष नहीं कहला सकता, विघ्नों...
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“पर, एक विनय है मधुसूदन! मेरी यह जन्म-कथा गोपन मत कभी युधिष्ठिर से कहिये,