रश्मिरथी
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वे इसे जान यदि पायेंगे, सिंहासन को ठुकरायेंगे।
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तू कुरूपति का ही नहीं प्राण, नरता का है भूषण महान्।
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पर, जाने क्यों, नियम एक अद्‍भुत जग में चलता है, भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।
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हरियाली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी, मरु की भूमि मगर, रह जाती है प्यासी की प्यासी।
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नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर, दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर।
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प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना, सबसे बड़ी जाँच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना।
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किस पर करते कृपा वृक्ष‍़ यदि अपना फल देते हैं? गिरने से उसको सँभाल क्यों रोक नहीं लेते हैं?
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ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है, मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।
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देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समायें, रहें डालियाँ स्वस्थ और...
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आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है, जो देता जितना बदले में उतना ही पाता है।
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दिखलाना कार्पण्य आप अपने धोखा खाना है, रखना दान अपूर्ण रिक्त निज का ही रह जाना है।
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व्रत का अन्तिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को, जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को,
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दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज़ तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
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रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था, मुँहमाँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था।
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युग-युग जियें कर्ण, दलितों के वे दुख-दैन्य-हरण हैं, कल्पवृक्ष धरती के, अशरण की अप्रतिम शरण हैं।
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गो, धरती, गज, वाजि, अन्न, धन, वसन, जहाँ जो पाया, दानवीर ने हृदय खोल कर उसको वहीं लुटाया।
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अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है, यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा में तत्पर है।
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मेघ भले लौटें उदास हो किसी रोज़ सागर से, याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से।
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“पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना, भाग्यहीन मैंने जीवन में और स्वाद क्या जाना?
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“अरे, कौन है भिक्षु यहाँ पर? और कौन दाता है? अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है।
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मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाये, मुँह-माँगा ही दान सभी को हम हैं देते आये।”
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शिवि-दधीचि-प्रहलाद-कोटि में आप गिने जाते हैं।
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गो, धरती, धन, धाम, वस्तु जितनी चाहें, दिलवा दूँ, इच्छा हो तो शीश काट कर पद पर यहीं चढ़ा दूँ।
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चलिये, साथ चलूँगा मैं साकल्य आपका ढोते, सारी आयु बिता दूँगा चरणों को धोते-धोते।
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धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर लाया, स्वर्ग भीख माँगने आज, सच ही, मिट्टी पर आया।
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और व्योमवासी मिट्टी से दान भला क्या लेगा?
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उघर करें बहु भाँति पार्थ की स्वयं कृष्ण रखवाली, और इधर मैं लड़ूँ लिये यह देह कवच से खाली।
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“मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ, कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ।
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परिभव सहता रहा विफल प्रोत्साहन-हित व्याकुल मैं।
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“सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ, नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ।
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“जानें क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का,
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देवोपम गुण सभी दान कर, जाने, क्या करने को, दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को?
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करतब है यह कि शक्ति बसती न वंश या कुल में, बसती है वह सदा वीर पुरुषों के वक्ष पृथुल में।
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जिन्हें नहीं अवलम्ब दूसरा, छोड़ बाहु के बल को, धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी लोभ से छल को।
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“मैं उनका आदर्श, किन्तु, जो तनिक न घबरायेंगे, निज चरित्रबल से समाज में पद विशिष्ट पायेंगे।
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“भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का, बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का।
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देवराज का मुखमण्डल पड़ गया ग्लानि से काला।
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“तेरे महातेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ, कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ।
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ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है, इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है। “एक बार ही मगर, काम तू इससे ले पायेगा, फिर यह तुरत लौटकर मेरे पास चला जायेगा।
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पाँच के पाँच ही पाण्डव किन्तु रहेंगे।
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जब बन्धु विरोधी होते हैं, सारे कुलवासी रोते हैं।
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राधेय समर की ओर चला, करता गर्जन घनघोर चला,
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‘अर्जुन‘! विलम्ब पातक होगा, शैथिल्य प्राण-घातक होगा,
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तू नहीं जोश में आयेगा, आज ही समर चुक जायेगा।”
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“रे अश्वसेन! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी, सीमित वन में ही नहीं, बहुत
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बसते पुर - ग्राम - घरों में भी।
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