काळे पाणी Quotes

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काळे पाणी काळे पाणी by V.D. Savarkar
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“तुम मर्दों को रूप-रंग का अहसास अधिक होता है, क्योंकि तुम्हारा प्रेम तुम्हारे नेत्रों में बसता है। लेकिन हम ललनाओं की प्रीत हमारे हृदय के नेत्रों से देखती है, इसलिए रूप-रंग पर वह नहीं जाती। पराक्रम और पौरुष की सुंदरता रंग-रूप से कितनी अधिक निखरी-निखरी, लुभावनी एवं आकर्षक होती है। यदि विश्वास नहीं होता हो तो स्वर्णगौरी सीता से पूछो जिसने मेघ के समान श्यामवर्णवाले प्रभु रामचंद्र का वरण किया, स्वरूपशालिनी रुक्मिणी से पूछो जिसने घननील साँवले-सलोने का वरण करते हुए शिशुपाल आदि गोरे-गोरे अभागे लंपटों को दुत्कारा। इसलिए तो ललनाओं का प्रेम रूप-रंग की चार दिन की चाँदनी पर लुब्ध नहीं होता। वह तो रूप-रंग के दो दिनों में ही सूखती घास की बजाय शील के आम्रतरु सदृश सरस, सुस्थिर एवं सफल होता है। रूप-रंग तो बस ओस के मोती हैं।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“राजकुल का रक्तबीज दैवी, ईश्वरीय माना जाता है। उसका साधारण मानवों से संबंध न हो, वह अपवित्र न हो इस तरह अतिरेकी आनुवंशिक पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए ब्रह्मदेश, मैक्सिको और कुछ अन्य देशों के भी विख्यात ‘दैवी’ राजवंशों के राजकुमारों का ब्याह उनकी सगी कोखजाया बहन के साथ ही होना अनिवार्य माना जाता है। यही उनके लिए धर्माज्ञा थी, शिष्ट-सम्मत रूढि़ थी। जिन समाजों ने देखा, इस धर्मपालन के दुष्परिणाम हो रहे हैं, उन्होंने इसे ही अधर्म घोषित किया। आज वर्तमान युग में भी हिंदू, मुसलिम, ईसाई आदि धर्मों में कहीं ममेरी बहन, कहीं मौसेरी बहन; इतना ही नहीं, प्रत्यक्ष सगी चचेरी बहन से ब्याह रचाना अधर्म नहीं माना जाता, फिर हम लोग तो बस जान का खतरा टालने के लिए ही भाई-बहन के रिश्ते का बहाना बना रहे हैं।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“सूर्य कुलोत्पन्न एक राजकुमार और उसकी बहन को संकटवशात् एक निर्जन जंगल में जीवनयापन करना पड़ा। अतः भाई-बहनों ने आपस में विवाह किया और उन्हीं की संतानों की कोख से भविष्य में, कुछ पीढि़यों के पश्चात् बुद्ध समान महात्मा का जन्म हुआ।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“प्रातःकाल में ही मृगया खेलते सागर तट पर अथवा जंगल में स्वच्छंदतापूर्वक संचार करें, थककर चूर हो जाएँ तो छाती पर सिर रखकर इस तरह विश्राम करें, परस्पर सहलाने का आनंद उठाएँ, फिर भूख लगने पर गुफा की ओर जाएँ और स्वादिष्ट मांस, मछली, फल, कंदों का यथारुचि आस्वाद लें; दोपहर में सिंधु-पुलिन पर जावरों की नारियों के खेल खेलते-खेलते, गाते-नाचते नानाविध रंग-रूप के शंख-सीपियाँ, पत्थर चुनते वनश्री एवं जलश्री का चमत्कार देखें और दिन भर इतस्ततः स्वच्छंद उड़ान भरते-भरते थके-माँदे पंछियों के जोड़े जब अपने-अपने नीड़ की ओर जाने लगें तो उन्हीं की तरह तुम्हारे हाथों में हाथ डालकर अपनी गुफा के गोकुल में वापस लौटें और तुम्हारी इन मजबूत बाँहों में सो जाएँ। प्रिय साथी का सुख तो मन द्वारा ही नापा जाता है। इस गुफा में अपनी रतिसेज पर वह जो तुष्टि देता है, वह गोकुल में भी उतना ही रहेगा। फिर अब यहाँ से आगे भागने के प्रयास में जान का खतरा अपने आप पर जबरदस्ती क्यों मोल लेते हो? हम जीवन भर यहीं पर रहेंगे, मेरे सुख-संतोष की शय्या के लिए वह गुफा पर्याप्त है।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“आवश्यकता से अधिक आडंबर या प्रपंच हो तो उसका होना न होना बराबर है। सुख मात्र आडंबर या दिखावे में नहीं होता। सुख मन की तुष्टि में होता है। वह कहा करतीं—चाहे पचासों हवेलियाँ हों, तथापि आखिर उतने ही आकारमान के स्थान पर चिरनिद्रा लेनी होगी जितनी इस देह की लंबाई और चौड़ाई है। अस्थियाँ विपुल होने भर से देहवृद्धि नहीं की जा सकती। उसी तरह चाहे रसभीनी जलेबियों के ढेर-के-ढेर क्यों न लगे हों, भई उतना ही खाया जा सकता है जितना इस बलिश्त भर पेट के गड्ढे में समा सकता है। इसीलिए तो कहती हूँ, अब स्वदेश जाकर कौन सा अनूठा सुख मिलनेवाला है भला,”
V.D. Savarkar, काला पानी
“सूत्र पढ़ाया था! ‘काले पानी से जिन्हें सफलतापूर्वक भागना है वे अपना पूर्व चरित्र यों ही दूसरों को बताना और जान की परवाह करना इन दो बातों का त्याग करें।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“समुद्र का विविध रंगी गुलाब पुष्पों का हार कैसा होता है—यह नन्ही सी खिली-खिली सी उत्फुल्ल ऊर्मि ज्यों-की-त्यों उठाकर ले जाएँ। अंदमान का एक अनूठा विहंगम दृश्य।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“तोड़कर सम्मिश्र विवाह करने से संतान निकृष्ट होगी। भाषा की दृष्टि से भी अंदमान ने एक और अभिनंदनीय सफल प्रयोग करके दिखाया है। यहाँ के सभी हिंदू जनपद की भाषा एक ही है—हिंदी। युवा पीढ़ी की मातृभाषा ही हिंदी है।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“काफी मात्रा में अस्पृश्यता की बेड़ी टूटी है। रोटीबंदी की कम-से-कम स्पृश्य वर्ग में तो स्मृति ही मिट गई। बंगाली, पंजाबी, मद्रासी, मराठी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कौन है, कौन नहीं ऐसे विचार भी मिट गए और कम-से-कम स्पृश्य हिंदू इकट्ठे बैठकर भोजन करते हैं और अस्पृश्य भी। मिश्र विवाह आम बात होने के कारण बेटीबंदी टूट गई और जात-पाँत का नामोनिशान तक मिट गया है।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“अतः यह धारणा मन में लाना ही मूलतः अंधाधुंध वितंडा है कि एक बार दंडित होने का ठप्पा लग जाए तो वह हमेशा के लिए मानव समाज से हटकर बदमाश, जल्लाद, अशिष्ट बन गया। इतना ही नहीं अपितु उसकी संतान भी वंश-परंपरा से पापप्रवण ही होगी।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“बंदीगृह की मौन, कठोर पत्थर की दीवारें इन्हीं कुछ लोगों को किसी भी नीतिग्रंथ से अधिक संयम सिखाती हैं।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“तनिक वर्तमान की ओर तो एक नजर डालिए, यहाँ एक नया प्रदेश ही नहीं अपितु अपनी हिंदू संस्कृति का एक नया जनपद भी समृद्ध हो रहा है।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“पिंडारियों के अमर, खान प्रभृत्ति ने ही—जो स्पष्ट रूप में डाकू-लुटेरे थे—क्या टोंक जैसी रियासतों की स्थापना नहीं की?”
V.D. Savarkar, काला पानी
“न्याय-अन्याय का जय-पराजय से सुतराँ संबंध नहीं होता। इस तथ्य को हम जितनी जल्दी सीख लें उतना ही अच्छा है। न्याय-अन्याय का मामला अलग है और जय-पराजय का अलग। जय-पराजय का यदि किसी से वास्ता है तो वह पराक्रम से है, न कि न्याय से। याद रखो। रट लो यह शब्द—पराक्रम। जयमंत्र। यह शब्द सीखो।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“उसके हाथ ऊपर उठाकर उन्हीं दो लकडि़यों के ऊपर के छोरों पर लोहे की दो दूसरी कडि़यों में बाँधे गए। गरदन एक पट्टे में फँसाई गई। एक थाली में जंतुघ्न दवा तथा कोड़े मारना समाप्त होते ही घावों पर लगाई जानेवाली मरहम-पट्टियाँ लेकर औषधालय का मिश्रक (कंपाउंडर) तथा उसके पीछे-पीछे डॉक्टर भी वहाँ आ धमके। सिपाही पंक्ति में खड़े हो गए। बदन पर मात्र लँगोटी छोड़कर रफीउद्दीन को सिर से पाँव तक नंगा किया गया। उसने मुँह से चूँ तक नहीं किया। उसकी वह उद्दंड-उजड्ड आदत जो हमेशा फन उभारकर फुफकारती थी, न जाने कहाँ गायब हो गई। यद्यपि वह चेतनाशून्य अवस्था में अपनी दुर्दशा निहार रहा था, तो भी कट्टर दुश्मन बने उस जमादार से, जो सारी व्यवस्था खड़ा रहकर करवा रहा था, उसने एक शब्द भी नहीं कहा। वह बोल ही नहीं सका। ढन”
V.D. Savarkar, काला पानी
“यह भी सौ फीसदी सच है कि यमलोक सिधारना हो तो मखमली कालीन बिछे पलक-पाँवड़ों से ठुमक-ठुमककर नहीं जा सकते, नागफनी एवं सेमल के कँटीले जंगल में से ही राह निकालते जाना पड़ता है। भई, मरघट में डेरा डालना हो तो वहाँ जलती चिताएँ, हड्डियों के टुकड़े, पैरों को जलाती गरम राख, तड़ातड़ फूटती कपालों के स्वर और भूतों की चीखें ही संगी-साथी होती हैं। घोर भयानक निराशा है यह। भई, यदि मन में यही जिज्ञासा ठाठें मार रही है कि मानवी मन का काला पानी क्या चीज है तो उस काले पानी का वही यथार्थ रूप दिखाना चाहिए जैसे होता है। उसके ऊपर यों ही शिष्टाचारस्वरूप गुलाब जल छिड़का तो वह घोर वंचना होगी। गुलाब जल उस काले जल की विडंबना है, न कि शोभा।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“हिंस्र जानवरों की तरह हिंस्र पशुतुल्य मनुष्य भी यदि किसी दंड से सचमुच डरते हैं तो शारीरिक दंड से, न कि मानसिक। मन अर्थात् मान के संदर्भ में डर उन्हें लगभग नहीं के बराबर होता है। हिंस्र जानवर हिलता है कोड़ों की फटकार से। हिंस्र श्वापद मनुष्य भी कोड़ों से ही हिलता”
V.D. Savarkar, काला पानी
“अंदमानी जाति में सिर्फ बर्बर, आदिम अविकसित मानव ही हैं। उनकी स्वलिखित कथाएँ तो छोडि़ए, जातीय पूर्ववृत्त की जनश्रुतियाँ भी नहीं हैं। अंदमान एक प्रचंड विशालकाय भू-भाग है जिसका सिर्फ भूगोल है, इतिहास नहीं। उसका समग्र इतिहास एक ही पंक्ति का है—पांड्य राजा की प्रशस्ति।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“श्मशान घाट ले जाते समय शव को अगर कुछ अहसास होता हो तो उसे जो लगता होगा, वही काले पानी पर जाते दंडितों को तब होता होगा, जब उन्हें ‘महाराजा’ पर चढ़ाया जाता है। कम-से-कम जिनमें महसूस करने की मानवीयता शेष है, उन्हें यही अहसास होता है कि ‘महाराजा’ एक कब्र है, न कि जहाज। इसमें जो दफनाया गया वह बाहर भी निकलेगा तो काले सागर के उस पार यमलोक में, यमपुरी में, न कि इस लोक में।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“सामने जिस सागर में उन्हें अब उतरना था, वह ऊँची-ऊँची विशाल लहरों को लहराता, बाद में उस जहाज घाट पर उन लहरियों से धड़ाधड़ टकराता, उमड़-उमड़कर बहती-छलकती फेनिल लहरियों द्वारा प्रचंड क्रोधावेग से गर्जन-तर्जन के साथ फुफकारता हहर-हहर नाद करता था। दंडितों में से प्रायः सभी ने जीवन में पहली बार सागर दर्शन किया था, इसलिए उस विशाल जलाशय का इस तरह प्रचंड क्रोधावेग से उमड़ता-उछलता-लरजता रूप देखकर उस भीषण दृश्य के आघात के साथ ही उनका दिल धौंकनी के समान धड़कने लगा। एक-दूसरे से बातचीत करना उनके लिए सख्त मना होने के बावजूद इस अनिवार आघात से, किसी से और कुछ उद्गार सुनने की इच्छा से हर एक निकटवर्ती दंडित से खुसुर-फुसुर करने लगा, ‘यही है वह काले पानी का सागर।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“ऊपरी तौर पर देखनेवालों को असली अत्याचारी और निर्दयी लगती पुलिस तथा असली दीन-दुखियारे, दुर्बल ‘बेचारे’ लगते ‘चालान’ वाले।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“इस प्रकार इन गरीब, बेचारे, दीन-हीन, दुर्बलों पर अपने माँ-बाप, बीवी-बच्चों से आजीवन बिछुड़ने का प्रसंग थोपकर काले पानी पर असंगत संत्रास तथा कष्ट का शिकार बनाने के लिए इस तरह ले जाया जा रहा था! राजहठ की यह कैसी निष्ठुरता तथा दंड की यह कैसी क्रूरता! जो उन्हें मात्र दुर्दशा में तड़पते देखते हैं अथवा उनकी पीड़ा देखते ही इसकी विवंचना छोड़कर कि वह पीड़ा रोगहारक शल्यक्रिया की है या मारक शस्त्राघात की है, जिनके मन सिर्फ आठ-आठ आँसू बहाती पिलपिली उबासीयुक्त दया का अनुभव करते हैं, ऐसे लोगों के मन में उन घोंघा सदृश हीन-दीन दिखनेवाले चलते हुए दंडितों के प्रति अनुकंपा और हार्दिक सहानुभूति ही उत्पन्न होती और मन-ही-मन क्रोध का उफान यदि किसी के प्रति उमड़ता हो तो वह पुलिसवालों की निर्दय, निष्ठुर, नृशंस, जुल्मी लट्ठबाजी के प्रति। बंदूकों से संगीनें ठूँस-ठूँसकर पुलिसवालों के दल कुछ पीछे, कुछ आगे, कोई डंडे तानकर चारों ओर अंगार उगलते, कठोर स्वर में बरसाते हुए समूह को ठीक उसी प्रकार ठेल-ठेलकर आगे हाँक रहे थे, जैसे कोई कसाई चौपायों के झुंड को आगे ठेलता है। कोई तनिक भी ऊँचे स्वर में बोलता या सुस्ताने की कोशिश करता तो उसे डंडे के बल पर आगे खदेड़ दिया जाता; तनिक भी कोई ‘तू-तड़ाक’ पर उतरता तो पुलिसवाले के तीन-चार डंडे उसकी खोपड़ी पर बरसने लगते। न पूछताछ, न गवाह, न ही कोई प्रमाण। सीधे डंडे से बातचीत। तमाम न्यायनिर्बंध उसी में समाए हुए।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“चालान का अर्थ है उस जहाज घाट का वह गुट, जिसके साथ विभिन्न कारागृहों में पड़े काले पानी के दंडितों को इकट्ठा कर समुद्र पार अंदमान भेजने के लिए लाया जाता है।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“प्रायः सभी के सिर झुके हुए तथा आँखें डबडबाई हुई थीं। कम-से-कम मन में तो भय समाया ही हुआ था, चेहरे उतरे हुए थे, पास खड़े व्यक्ति से एक शब्द भी न बोलते हुए; और यदि बातचीत करें भी तो किसी लड़की जैसे शरमाते, सकुचाते, छुईमुई बनते, धीमे स्वर में फुसफुसाते हुए, चार-चार की कतार में निहायत फटीचर वेश में नपे-तुले डग भरते हुए वे चल रहे थे। सिपाही के ‘ठहरो’ कहते ही वे रुक जाते, ‘बैठो’ कहते ही बैठ जाते और ‘उठो’ कहते ही उठ जाते। सौ-सवा सौ लोग जरा भी हो-हल्ला न करते हुए चल रहे थे। इतने शांत, संयत जीवों का वह समुदाय!”
V.D. Savarkar, काला पानी
“ईश्वर यदि सज्जनों का संकटमोचन करने योग्य परम दयालु तथा सर्वसमर्थ है भी, तो वह उन निरपराध सुजनों को पहले ही संकट में क्यों ढकेलता है भला! दुर्जनों को इतना बलवान क्यों बनाता है कि वे उन सज्जनों पर असंगत अत्याचार करें, उन्हें शिकंजे में लें! सज्जनों की परीक्षा के लिए! फिर भगवान् सर्वज्ञ, अंतर्यामी कैसे हो सकते हैं! इस तरह का विधान कि दुष्टों के हाथों से उस भक्त को दारुणिक यंत्रणा, पीड़ा पहुँचाए बिना भगवान् को यह ज्ञात नहीं होता कि यह भक्त खरा है या खोटा, ईश्वर की सर्वज्ञता तथा परम दयालुता को क्या कलंक लगाना ही नहीं”
V.D. Savarkar, काला पानी
“पल भर के लिए उसका मन बिलकुल निस्तब्ध, निःशब्द हो गया। परंतु उसके उस बहिर्मन की जड़ता और अंतर्मन दोनों में उस विधान पर अनजाने में न जाने क्या चर्चा हो गई, उसकी वह तल्लीन संज्ञाहीनता हलकी होते ही एक स्पष्ट संदेह उसके मन से निकलकर उसे टोकने लगा”
V.D. Savarkar, काला पानी
“किसी मुसलमान को लूटना हो तो वह उसे सिर्फ ‘काफिर का दोस्त’ जैसी गाली देता और फिर अपनी कसम से मुक्त होता।”
V.D. Savarkar, काला पानी
“मनुष्य नृशंस, क्रूर श्वापदों को मनुष्यों की बस्ती से दूर जंगल में खदेड़ सका, परंतु मनुष्य के मन ही में कितने सारे नृशंस श्वापद कैसे घात लगा बैठे, घर बनाकर विचर रहे हैं! मन के तहखाने के ताले जब कभी इस तरह से खुले, वे नृशंस श्वापद तितर-बितर होकर भगदड़ मचाते हैं। तभी इस दारुण सत्य को नकारना असंभव होता है। जिसे हम मानवता, मनुष्यता कहते हैं वह एक सजी-सँवरी क्वेट्टा नगरी है। उसके नीचे भूचालीय राक्षसी वृत्तियों की कई परतें फैली हुई हैं। मात्र दया, दाक्षिण्य, माया-ममता, न्याय-अन्याय की नींव पर ही यह मानवता की क्वेट्टा नगरी उभारी जाने के कारण, इस भ्रम में कि वह अटल-स्थिर-दृढ़ होनी चाहिए, जो लापरवाही से घोड़े बेचकर सोता है उसका सहसा ही विनाश हो जाता है, पूरा राष्ट्र पलट जाता है। रफीउद्दीन”
V.D. Savarkar, काला पानी