“प्रातःकाल में ही मृगया खेलते सागर तट पर अथवा जंगल में स्वच्छंदतापूर्वक संचार करें, थककर चूर हो जाएँ तो छाती पर सिर रखकर इस तरह विश्राम करें, परस्पर सहलाने का आनंद उठाएँ, फिर भूख लगने पर गुफा की ओर जाएँ और स्वादिष्ट मांस, मछली, फल, कंदों का यथारुचि आस्वाद लें; दोपहर में सिंधु-पुलिन पर जावरों की नारियों के खेल खेलते-खेलते, गाते-नाचते नानाविध रंग-रूप के शंख-सीपियाँ, पत्थर चुनते वनश्री एवं जलश्री का चमत्कार देखें और दिन भर इतस्ततः स्वच्छंद उड़ान भरते-भरते थके-माँदे पंछियों के जोड़े जब अपने-अपने नीड़ की ओर जाने लगें तो उन्हीं की तरह तुम्हारे हाथों में हाथ डालकर अपनी गुफा के गोकुल में वापस लौटें और तुम्हारी इन मजबूत बाँहों में सो जाएँ। प्रिय साथी का सुख तो मन द्वारा ही नापा जाता है। इस गुफा में अपनी रतिसेज पर वह जो तुष्टि देता है, वह गोकुल में भी उतना ही रहेगा। फिर अब यहाँ से आगे भागने के प्रयास में जान का खतरा अपने आप पर जबरदस्ती क्यों मोल लेते हो? हम जीवन भर यहीं पर रहेंगे, मेरे सुख-संतोष की शय्या के लिए वह गुफा पर्याप्त है।”
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काला पानी
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