“मनुष्य नृशंस, क्रूर श्वापदों को मनुष्यों की बस्ती से दूर जंगल में खदेड़ सका, परंतु मनुष्य के मन ही में कितने सारे नृशंस श्वापद कैसे घात लगा बैठे, घर बनाकर विचर रहे हैं! मन के तहखाने के ताले जब कभी इस तरह से खुले, वे नृशंस श्वापद तितर-बितर होकर भगदड़ मचाते हैं। तभी इस दारुण सत्य को नकारना असंभव होता है। जिसे हम मानवता, मनुष्यता कहते हैं वह एक सजी-सँवरी क्वेट्टा नगरी है। उसके नीचे भूचालीय राक्षसी वृत्तियों की कई परतें फैली हुई हैं। मात्र दया, दाक्षिण्य, माया-ममता, न्याय-अन्याय की नींव पर ही यह मानवता की क्वेट्टा नगरी उभारी जाने के कारण, इस भ्रम में कि वह अटल-स्थिर-दृढ़ होनी चाहिए, जो लापरवाही से घोड़े बेचकर सोता है उसका सहसा ही विनाश हो जाता है, पूरा राष्ट्र पलट जाता है। रफीउद्दीन”
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काला पानी
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